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नेपाल में प्रकृति का प्रकोप

नेपाल में भयंकर भूकंप से हुई मौतों और तबाही से साफ है कि अब नई तकनीक को अपनाना जरूरी हो गया है क्योंकि मानव को यदि सुरक्षा चाहिए तो प्रकृति को पूरी तरह समझना होगा और उस से निबटने की तैयारी करनी होगी. कठिनाई यह है कि भूकंप के बाद पंडों ने प्रार्थना करनी शुरू कर दी और दुनियाभर में बजाय भूकंप पीडि़तों की सहायता के लिए पैसा व सामान जुटाने के, लोगों से कहा जाने लगा कि भूकंप पीडि़तों के लिए वे दुआ मांगें. प्रकृति अपना काम अपने तरीके से करती है और वह किसी काल्पनिक ईश्वर की नहीं सुनती. हिमालय के पहाड़ ढीली जमीन के बने हैं क्योंकि वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दक्षिण भारत एक द्वीप था जो एशिया महाद्वीप की ओर ढाई करोड़ साल से हर साल 3 से 4 सैंटीमीटर की गति से बढ़ रहा है. पहले जहां समुद्र था वहीं अब हिमालय है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है. वैज्ञानिकों के मुताबिक इस इलाके में जमीन की परतों के हिलने से भूकंप आते रहेंगे.

बजाय प्रार्थना करने के, लोगों को अब सुरक्षित मकान बनाने होंगे. इस क्षेत्र में ऐसे मकान ही बनें जो भूकंप के साधारण झटके सह सकें. अभी भी जो मकान गिरे हैं वे ज्यादा कमजोर थे और शायद बिना तकनीकी सलाह के बनाए गए थे. वरना तो पूरा इलाका ही ध्वस्त हो जाता. भूकंपों से लड़ने के लिए दुनियाभर में कोशिशें की जानी होंगी. मानव जब चांद और मंगल पर पहुंच सकता है, पहाड़ों को लांघ सकता है, समुद्र में सुरंगें बना सकता है तो भूकंपों से क्या डरना? तकनीक है पर उसे खुल कर अपनाना होगा. बजाय यह सोचें कि भूमिपूजन कर लिया तो सब भला होगा, यह सोचा जाए कि कैसे मुकाबला करना होगा प्रकृति की मार से. भूकंप ही नहीं, आंधी, तूफान, आग, सुनामी, बाढ़ सब से निबटना आज आदमी को आता है पर बहुत लोग अपनेआप ढिलाई करते हैं और चार पैसे बचाने के लिए खुद को व दूसरों को खतरों में डालते हैं. इन से निबटने के लिए सरकार का डंडा नहीं, लोगों में समझ पैदा करनी होगी. आज का मानव सुरक्षित है तो विज्ञान व तकनीक के सहारे. अफसोस यह है कि मंदिर उस भगवान के बनते हैं जो है ही नहीं और उस विज्ञान को ‘टेकेन फौर ग्रांटेड’ लिया जाता है जो जीवन में नई जान डाल रहा है. वैज्ञानिकों को केवल अच्छा मजदूर समझा जाता है जबकि नेताओं, अभिनेताओं, खिलाडि़यों और पुजारियों की पूजा होती है जो न भूकंपों के बारे में जानते हैं और न कुछ करना चाहते हैं. अगर जीवन और सुरक्षित करना है तो समाज को चाहिए कि वह उन वैज्ञानिकों को आदर व सम्मान दे जो समाज को कुछ दे रहे हैं, प्रकृति की ताकतों से लड़ना सिखा रहे हैं, जान बचा रहे हैं.

अवार्ड वाला सिनेमा

फिल्मों की 2 तरह की श्रेणियां बनती जा रही हैं. पहली जो मेडिकोर विषय पर बनी आम मसाला फिल्में हैं, जिन्हें मास सिनेमा भी कहते हैं, आसानी से रिलीज हो जाती हैं और करोड़ों कमा डालती हैं. दूसरी श्रेणी में आर्ट या कहें औफबीट फिल्में आती हैं जो आर्थिक तंगी के बावजूद बनती हैं. ऐसी फिल्में बमुश्किल रिलीज होती हैं लेकिन अवार्ड खूब बटोरती हैं. हाल में फिल्म ‘बेयरफुट टू गोआ’ भी इसी श्रेणी में शामिल हो गई. मजेदार बात यह है कि इसे क्राउड फंडिंग यानी लोगों से चंदा मांग कर रिलीज किया गया है. अच्छी बात यह है कि सिनेमा के शौकीन ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए सिर्फ जबान ही नहीं, बल्कि अपनी जेबें भी ढीली कर रहे हैं.

विश्वरूपम टू उत्तमा विलेन

कमल हासन दक्षिण भारत में काफी पौपुलर स्टार हैं. वे चाहें तो वहां के लोकप्रिय मसाला डोसा सिनेमा में मसरूफ रह सकते हैं लेकिन उन्हें फिल्मों में चुनौतीपूर्ण प्रयोग करने की आदत अरसे से लगी है. उन की पिछली फिल्म विश्वरूपम को जहां मुसलिम संगठनों का देशव्यापी विरोध झेलना पड़ा था वहीं उन की लेटेस्ट फिल्म उत्तमा विलेन हिंदू संगठन वीएचपी के निशाने पर आ गई है. हर बार की तरह इस बार धर्म की भावनाएं आहत होने की नौटंकी रची जा रही है. ऊपर से तुर्रा यह कि वीएचपी के साथ विरोध के सुर में सुर मिलाने के लिए मुसलिम संगठन भी आगे आ रहे हैं.

फिल्मों का फैमिली बिजनैस

बंगाल टाइगर अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती अभिनेता तो थे ही, नेता भी बन चुके हैं. बेहद समझदारी दिखाते हुए उन्होंने कैरियर के आखिरी दौर में ऊटी में होटल का बिजनैस खड़ा किया और वहीं पर हिंदी की बी व सी ग्रेड फिल्मों की फैक्टरी खड़ी कर दी. आर्थिक तौर पर स्थिर होते ही मिथुन बौलीवुड में फिर कायदे के रोल करने लगे. लगे हाथों बेटे मिमोह को फिल्मों में एक बार नहीं, कई बार लौंच किया लेकिन हर बार वह फेल हुआ. नाम बदल कर महाअक्षय करने से भी काम नहीं बना. इसी बीच, अपने दूसरे बेटे रिमोह को भी बतौर असिस्टैंट डायरैक्टर फिल्मी दुनिया में उतारने वाले मिथुन को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि हीरो बनना सब के बस में नहीं होता. बेहतर होता कि वे अपनी मेहनत से कमाया पैसा फ्लौप फिल्मों के बजाय कहीं और लगाते. यहां तो नुकसान ही नुकसान दिख रहा है.

फटा पोस्टर निकला डायरैक्टर

अब तक तो फिल्मों के पोस्टर फाड़ कर हीरो ही बाहर निकलते आए हैं लेकिन अब डायरैक्टर कुणाल कोहली भी हीरो बनने का सफर पूरा कर चुके हैं. आमिर खान के साथ फिल्म ‘फना’ और सैफ अली खान के साथ ‘हम तुम’ बना चुके कुणाल चाहते तो अपनी आगामी फिल्म ‘फिर से’ में किसी बड़े स्टार को कास्ट कर सकते थे लेकिन इस बार वे अपनी फिल्म में हीरो बन कर आ रहे हैं. ट्रैंड बदल रहा है, साथ ही सिनेमा में प्रयोग भी हो रहे हैं. लेकिन करोड़ों रुपए दांव पर लगा कर अगर सिर्फ हीरो बनने का शौक पूरा करने के लिए फिल्म बनाई जा रही है तो कहीं मामला उलटा न पड़ जाए. वैसे अभी तक हीरो तो सफल निर्देशक बने हैं लेकिन निर्देशकों को सफल हीरो बनते कम देखा गया है. उम्मीद है यह पूर्वाग्रह टूटेगा.

दोस्त, आखिर कब तक

फिल्मी तबके में अकसर अभिनेता व अभिनेत्रियों की बढ़ती नजदीकियां या दोस्ती को अफेयर की शक्ल में मिर्चमसाला लगा कर लपेटना पुरानी बात हो गई है. कई फिल्मी सितारे भी अब अपने लव इंटरैस्ट को सरेआम जाहिर करने से नहीं कतराते. अनुष्का शर्मा और विराट कोहली का प्रकरण सब के सामने है ही. लेकिन फिल्म आशिकी-2 व एक विलेन से स्टार बनीं अभिनेत्री श्रद्धा कपूर शायद अभी भी दोस्त वाले हैंगओवर से बाहर नहीं आईं. शायद इसलिए लंबे अरसे तक अभिनेता आदित्य राय कपूर के साथ उन्होंने अपने रिश्तों को कबूल नहीं किया और अब जब बे्रकअप की खबरें उड़ीं तो वे आदित्य की हमेशा अच्छी दोस्त रहेंगी जैसा जुमला दोहरा रही हैं. बहरहाल,? यह उन का निजी मामला है, हमें क्या करना.  

फिल्म समीक्षा

डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी

जिस तरह उड़द की दाल को धीमी आंच पर 2-3 घंटे तक पकाया जाता है, तब कहीं जा कर वह स्वादिष्ठ बनती है, ठीक वैसी ही फिल्म है ‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’, जिसे निर्देशक ने धीरेधीरे डैवलप किया है, इसीलिए क्लाइमैक्स में जा कर ही फिल्म का टेस्ट पता चल पाता है. हालांकि इस चक्कर में फिल्म की गति काफी धीमी हो जाती है. डार्क शेड होने की वजह से आंखों पर जोर भी ज्यादा पड़ता है और इस डिटैक्टिव को समझने में दिमाग पर जोर लगाना पड़ता है, फिर भी यह फिल्म एकदम अलग है. इस का टेस्ट हर कोई नहीं उठा पाएगा. जासूसी की कहानियों और कौमिक्स में रुचि रखने वालों को यह कुछ रुचिकर लग सकती है. ‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ में न तो रोमांस है न ही डांस और न ही कोई चटपटापन. फिर भी डिटैक्टिव ब्योमकेश द्वारा मर्डर मिस्ट्री सुलझाने की जद्दोजहद देख कर लगा कि इस किरदार को जीवंत कर देने वाला कलाकार सुशांत सिंह राजपूत टीवी पर दिखने में जितना रोमांटिक व रंगीन नजर आता था, अब ब्योमकेश की भूमिका में उतना ही गंभीर व मुश्किल किरदार नजर आया है. उस ने शरलौक होम्स के किरदार को देसी अंदाज में निभाया है.

‘डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ शरदेंदु बंदोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित है. शरदेंदु बंदोपाध्याय ने अपने उपन्यास में ब्योमकेश को 25-26 साल का नौजवान बताया है, जो 1943 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बाहर निकला है. वह हर वक्त डिटैक्टिव बनने के बारे में सोचता रहता है. उस की अपनी एक अलग स्टाइल है. वह खूबसूरत है. इस फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने यही सारी खूबियां अपनी फिल्म के नायक सुशांत सिंह राजपूत में दिखाई हैं.

फिल्म की कहानी आज के दौर की नहीं, 1948 की है. उस वक्त के कलकत्ता शहर को निर्देशक ने विस्तार से दिखाया है. उस ने किरदारों के रहनसहन, कपड़े पहनने की स्टाइल, पान को मोड़ कर खाने की स्टाइल, अखबार, घड़ी, चश्मे को उसी माहौल के जैसा ही फिल्माया है. उस दौर में कलकत्ता की पुलिस कैसी थी, ट्राम कैसे चलती थी, फेरी वाले कैसे थे, सबकुछ माहौल के मुताबिक दिखाया है. 1942-43 में कलकत्ता में अफीम की स्मगलिंग भी होती थी और जापानियों द्वारा इसे ड्रग कैपिटल बनाने की कोशिश भी की गई थी, इसे भी विस्तार से दिखाया है. फिल्म की कहानी द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में 1943 तक चलती है. अजीत बनर्जी (आनंद तिवारी) के पिता भुवन बाबू लापता हो जाते हैं. वह डिटैक्टिव ब्योमकेश बख्शी (सुशांत राजपूत) से अपने पिता को ढूंढ़ने में मदद मांगता है.

ब्योमकेश उस बोर्डिंग हाउस में जाता है जहां भुवन बाबू रहते थे. बोर्डिंग हाउस के मालिक अनुकूल गुहा (नीरज काबी) उस की मदद करते हैं. वह अपनी जांच को आगे बढ़ाता है. वह एक गायिका अंगूरी देवी (स्वास्तिका मुखर्जी), एक क्रांतिकारी नेता सुकुमार घोष (शिवम) और उस की बहन सत्यवती (दिव्या मेनन) से मिलता है. वह और भी कई लोगों से मिलता है और यह पता लगाने में सफल रहता है कि भुवन बाबू की वास्तव में हत्या हो चुकी है. जैसेजैसे वह अपनी जांच में आगे बढ़ता है, हत्यारा उसे दिशा से भटकाने के लिए तिकड़में लड़ाता है. लेकिन जब ब्योमकेश सचाई को उजागर करता है, उस मर्डर मिस्ट्री को जान कर, हर कोई हैरान रह जाता है.

फिल्म की इस कहानी की लंबाई बहुत ज्यादा है, इसे आसानी से छोटा किया जा सकता था. दिबाकर बनर्जी वैसे तो बेहतरीन निर्देशक हैं लेकिन अपनी फिल्म में वे शरलाक होम्स वाली बात पैदा करने में कामयाब नहीं हुए हैं. फिल्म में कहींकहीं डबिंग दोष भी साफ नजर आता है. सुशांत सिंह राजपूत अपने किरदार में एकदम फिट है परंतु उस के बोलने में बंगालीपन कहीं नजर नहीं आता. अन्य कलाकार स्वास्तिका, नीरज काबी और आनंद तिवारी सुशांत सिंह को सपोर्ट करते नजर आते हैं. फिल्म का बैकग्राउंड संगीत अनुकूल है. फिल्म में 1-2 गाने हैं. संगीत मूड के अनुसार है. छायाकार ने पुराने कलकत्ता को प्रभावी तरीके से फिल्माया है.

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एक पहेली लीला

फिल्म का नाम है एक पहेली लीला लेकिन इस में कोई पहेली नहीं है, न ही कोई सस्पैंस है. इसे सैक्सी वीडियो अलबम कहना उपयुक्त होगा. फिल्म के निर्देशक बौबी खान ने बहुत से वीडियो अलबम बनाए हैं. इसीलिए इस फिल्म में आप को थोड़ीथोड़ी देर बाद परदे पर एक गाना नजर आ जाएगा. गानों में सनी लियोनी ने खूबसूरत और महंगे कौस्ट्यूम्स पहन कर परफौर्म किया है. उस ने अपनी इस परफौर्मेंस में बहुत ज्यादा कामुकता परोसी है, अपने क्लीवेज दिखाए हैं. बौबी खान का पूरा ध्यान सनी लियोनी को ऐक्सपोज करने में ही लगा रहा है. उस ने सनी लियोनी से कामसूत्र के बहुत से आसन करवाए हैं. सनी लियोनी ने भी बढ़चढ़ कर अपनी अदाएं बिखेरी हैं. बस, उसे ऐक्ंिटग करनी नहीं आई है. चूंकि सनी लियोनी की इमेज एक पोर्न स्टार की रही है, इसलिए कोई बड़ा कलाकार उस के साथ काम करने को तैयार नहीं होता. निर्देशक को हार कर ऐसे 3 कलाकारों को लेना पड़ा जिन की कोई पहचान नहीं है. जय भानुशाली की 1-2 फिल्में रिलीज हो चुकी हैं. मोहित अहलावत को भी दर्शक नहीं जानते. राहुल देव थोड़ा जानापहचाना जरूर है परंतु असफल है.

फिल्म की कहानी पूर्वजन्म की है. पूर्वजन्म पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं. इन में ‘करन अर्जुन’ प्रमुख है. कहानी 300 साल पहले की है. राजस्थान के जैसलमेर में एक कुम्हार की बेटी लीला (सनी लियोनी) को एक युवक श्रवण से प्यार हो गया था. एक मूर्तिकार भैरव (राहुल देव) लीला के रूप पर मोहित हो गया था. उस ने लीला की एक मूर्ति भी बनाई थी. जब उसे पता चला था कि लीला श्रवण को चाहती है उसे नहीं तो उस ने दोनों को मार डाला था.

अब 300 साल बाद श्रवण और लीला दोबारा जन्म लेते हैं. इस जन्म में लीला एक सुपरमौडल मीरा (सनी लियोनी की दूसरी भूमिका) है जो लंदन में रहती है. श्रवण अब करन (जय भानुशाली) है, जो म्यूजीशियन है. करन को रहरह कर पूर्वजन्म की यादें परेशान करती हैं. इधर, मीरा जैसलमेर के कुंवर रणवीर (मोहित अहलावत) से शादी कर लेती है. परिस्थितियां करन को जैसलमेर ले आती हैं. वह मीरा को पूर्वजन्म की याद दिलाने की कोशिश करता है. मीरा को कुछकुछ याद आने लगता है, पर वह शीघ्र ही भूल भी जाती है. करन का टकराव कुंवर रणवीर से होता है, जिसे पूर्वजन्म के बारे में सबकुछ याद है. इधर, करन को लगता है कि पूर्वजन्म में वह श्रवण था और मीरा उस की थी. परंतु कुंवर रणवीर उसे बताता है कि पूर्वजन्म में वह श्रवण नहीं, भैरव था और वह खुद श्रवण था. वह पश्चात्ताप में भर कर खुद को खत्म करना चाहता है परंतु कुंवर और मीरा उसे मरने से रोक लेते हैं. इस फिल्म की विशेषता बेहतरीन लोकेशंस और गीतों का फिल्मांकन है. जहां तक कहानी की बात है, एकदम बासी लगती है. सनी लियोनी के ढेर सारे इंटीमेट सीन हैं जो युवाओं को लुभा सकते हैं.

फिल्म के निर्देशन में कोई विशेष बात नहीं है. निर्देशक ने पूर्व जन्म की कहानी को ले कर दर्शकों को भरमाने की ही कोशिश की है. फिल्म की लंबाई बहुत ज्यादा है. ऐक्ंिटग के लिहाज से सभी कलाकार निराश करते हैं. फिल्म का छायांकन अच्छा है. छायाकार ने राजस्थान की लोकेशनें खूबसूरती से फिल्माई हैं.

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धर्म संकट में

बौलीवुड के फार्मूलों की लिस्ट वैसे तो काफी लंबी है लेकिन उस लिस्ट में अब एक फार्मूला और जुड़ गया है और वह फार्मूला है धर्म के नाम पर कमाई करने का. बौलीवुड वालों का मानना है कि जब पंडेपुरोहित धर्म के नाम पर खूब कमाई कर रहे हैं तो वे पीछे क्यों रहें. इसीलिए पिछले दिनों ‘ओह माई गौड’ और ‘पीके’ जैसी फिल्मों ने खूब कमाई की, ‘धर्म संकट में’ में भी निर्देशक फवाद खान ने धर्म के नाम पर बवाल मचवा कर कमाई करने की कोशिश की है परंतु अपने इस प्रयास में वह एकदम फेल रहा है. ‘धर्म संकट में’ फिल्म की पूरी की पूरी वही टीम है जो ‘ओह माई गौड’ में थी, परंतु यह टीम फिसड्डी साबित हुई है. परेश रावल थकाथका सा लगा है तो अनु कपूर ओवर हो गया है. नसीरुद्दीन शाह को रामपाल और रामरहीम सरीखा बाबा बनाया गया है जो अपने भक्तों को खूब उल्लू बनाता है.

कहानी गुजरात में रहने वाले एक ब्राह्मण धर्मपाल त्रिवेदी (परेश रावल) की है. अपनी मां के मरने के बाद वह जब बैंक लौकर खोलता है तो उसे पता चलता है कि वह हिंदू नहीं, मुसलमान है. उसे गोद लिया गया था. इस बात की जानकारी वह अपनी पत्नी व बच्चों को नहीं देता. वह अपने पड़ोस में रहने वाले एक मुसलमान महमूद (अनु कपूर) को अपनी परेशानी बताता है, जो धर्मपाल के पिता के बारे में पता लगाता है. धर्मपाल का पिता अब 80 साल का है और मौत के कगार पर है. उस से मिलने के लिए धर्मपाल महमूद से मुसलमान बनने की टे्रनिंग लेता है. उधर धर्मपाल का बेटा, ढोंगी बाबा नीलानंद (नसीरुद्दीन शाह) का चेला है. वह जिस लड़की से शादी करना चाहता है, उस का बाप नीलानंद का खास आदमी है. बेटा धर्मपाल से धार्मिक होने को कहता है, परंतु अनजाने में धर्मपाल के हाथों मुसलमानों का अपमान हो जाता है. सारे मुसलमान धर्मपाल के विरोधी हो जाते हैं. अब धर्मपाल को सब के सामने यह कुबूल करना पड़ता है कि वह हिंदू नहीं, मुसलमान है. वह नीलानंद बाबा की पोल भरी सभा में खोलता है कि नीलानंद किसी जमाने का भंगड़ा डांसर मनजीत मनचला है. पुलिस नीलानंद को गिरफ्तार कर लेती है. धर्मपाल अपने पिता से मिलने अस्पताल जाता है लेकिन तब तक उस का पिता मर चुका होता है.

फिल्म की यह कहानी सुस्त और उबाऊ है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. निर्देशक ने अपनी तरफ से धर्म पर कोई चोट नहीं की है, न ही कोई व्यंग्य ही किया है, सीधेसीधे एक ढोंगी बाबा की पोल खोली है. फिल्म में गीतों की गुंजाइश नहीं थी, फिर भी 4-5 गीत डाले गए हैं. कोई गीत जबां पर नहीं आ पाता. छायांकन अच्छा है.    

दिव्येंदु शर्मा

दिल्ली में पलेबढ़े अभिनेता दिव्येंदु शर्मा ने फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ में लिक्विड का किरदार निभाते हुए कैरियर की शुरुआत की थी. उस के बाद वे ‘चश्मेबद्दूर’, ‘इक्कीस तोपों की सलामी’ और ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ फिल्मों में नजर आए. उन की एक फिल्म ‘द लास्ट रेब’ रिलीज होने वाली है, तो वहीं वे अनिल कपूर प्रोडक्शन की एक फिल्म कर रहे हैं. पेश हैं उन से हुई बातचीत के अंश :

2007 से अब तक के अपने कैरियर को किस तरह से देखते हैं?

सब से पहले तो मेरी चाह हमेशा अलग तरह का काम करने की रही है. मुझे अलग तरह का ही काम करने का मौका भी मिला. लोगों ने मेरे काम को सराहा. मेरी चाह हमेशा यही रही है कि जब मेरी कोई फिल्म रिलीज हो तो लोग कहें कि इस फिल्म में अगर दिव्येंदु है तो उस ने जरूर कुछ नया किया होगा. मुझे जो प्यार व सम्मान मिल रहा है, उस से लगता है कि मैं सही रास्ते पर जा रहा हूं. मेरा कैरियर भी सही रास्ते पर ही है.

पर बौलीवुड में फिल्म का हिट होना जरूरी है?

आप ने बहुत सही बात कही. मेरी पहली फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ और दूसरी फिल्म ‘चश्मेबद्दूर’ हिट थीं पर तीसरी फिल्म ‘इक्कीस तोपों की सलामी’ खास नहीं चली. पर यह फिल्म मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थी. मैं ने कुछ नया करने की कोशिश की थी. एक कलाकार के तौर पर मेरे लिए वह स्वीकार्यता बहुत जरूरी थी. फिल्म आलोचकों ने मेरे काम को सराहा था.

गड़बड़ कहां हुई?

आज की तारीख में मार्केटिंग बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है. शायद वहीं कहीं गड़बड़ी हुई.

हाल ही में आप की फिल्म ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ रिलीज हुई है. निजी जिंदगी में जालिम गर्लफ्रैंड से कभी आप का सामना हुआ?

नहीं. निजी जिंदगी में मुझे ऐसी लड़की का सामना नहीं करना पड़ा. मगर मैं ने अपने आसपास ऐसा होता हुआ देखा जरूर है. मेरे दोस्तों के साथ भी ऐसा कुछ हुआ है. पर पौइंट औफ व्यू का भी मसला है. कोई भी लड़की यह नहीं कहती कि पहले मैं इस लड़के को अपने प्यार में फांसती हूं, फिर इसे धोखा दे कर चली जाऊंगी. न ही कोई लड़का इस ढंग की बात कहता है. दोनों जो कुछ करते हैं, अपनी तरफ से सही होते हैं.

ऐसा क्यों हो रहा है?

यह तो मानव स्वभाव है. अब युवा पीढ़ी का एक्सपोजर बदल गया है. समाज में भी बदलाव आ चुका है. इमोशन नहीं बल्कि इंसान और उस के आसपास की परिस्थितियां बदलती हैं. आज की युवा पीढ़ी रिश्तों को ले कर पहले की पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा ईमानदार है. आज की पीढ़ी का दिल टूटने पर उन्हें गम होता है. वह रिश्तों को जबरन ढोने में यकीन नहीं करती. पहले लोग रिश्ते से खुश न होते हुए भी बोल नहीं पाते थे. आज की युवा पीढ़ी में हिम्मत है कि वह कहती है कि जिस के साथ रहते हुए उसे दिमागी सुकून नहीं है, वह उस के साथ रिश्ते को साल दर साल नहीं ढोना चाहती. वह कहती है कि हमारे बीच प्यार था, पर अब हमारे बीच प्यार नहीं रहा. रिश्ते में पता चल जाता है कि कब प्यार था और कब प्यार खत्म हो गया. आज की पीढ़ी झूठ नहीं बोलती.

कुछ लोग इसे पलायनवाद मानते हैं. इस पर आप क्या सोचते हैं?

मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं खुद एक युवा हूं. मैं ने भी आकांक्षा से प्यार किया है. और जिस से मैं ने प्यार किया, उसी से मैं ने शादी की है. कभी मेरी बेहतरीन दोस्त रही आज मेरी पत्नी है.

किसी रिलेशनशिप को बरकरार रखने के लिए क्या किया जाना चाहिए.

रिश्ते में ईमानदारी बहुत जरूरी है. आप जो कुछ हैं, उस में सामने वाले को भी हिस्सेदार मान कर चलिए. कोई भी समस्या दोनों में से कोई एक अकेले हल नहीं कर सकता. यह बात पति व पत्नी, नारी व पुरुष दोनों पर लागू होती है. पति व पत्नी दोनों को मिल कर काम करना चाहिए, दोस्तों की तरह रहना चाहिए.

मगर 10 साल प्यार, फिर शादी, उस के बाद भी शादी नहीं टिकती?

जिन की शादी चल रही है उन पर गौर करता हूं तो पाता हूं कि हमारे देश में सौ प्रतिशत सुखद वैवाहिक जीवन किसी का नहीं चल रहा. लोग एकदूसरे से बात नहीं करते पर वैवाहिक जीवन में बंधे हुए हैं. मेरी राय में आप किसी इंसान के साथ रह रहे हैं और आप को लगता है कि यह इंसान अब वह नहीं रहा जिस से आप ने प्यार किया था, जो मेरी इज्जत करता था, तो उस रिश्ते में बंधे रहने का कोई औचित्य नहीं रहता. रिश्ते में पहले इज्जत और फिर प्यार खत्म होता है. सामने वाले इंसान को ‘टेकन फौर ग्रांटेड’ नहीं लेना चाहिए. जहां इज्जत खत्म वहां प्यार खत्म. जहां प्यार खत्म हो जाए उस रिश्ते को तोड़ देना चाहिए, फिर वह रिश्ता चाहे जो हो.

आप लिव इन रिलेशनशिप व शादी में से किस के पक्षधर हैं?

मैं तो दोनों के पक्ष में हूं. शादी में हम एक समारोह में लोगों को बताते हैं कि हम अब एकसाथ रहने वाले हैं. ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में हम यह बात कोई समारोह कर लोगों को नहीं बताते. जिस को जैसे रहना हो, वह वैसे रह सकता है. यदि हम खुश हैं तो दुनिया खुश है.

आप एक तरफ डेविड धवन जैसे स्थापित निर्देशक के साथ ‘चश्मेबद्दूर’ करते हैं तो दूसरी तरफ जपिंदर जैसी नई निर्देशक के साथ फिल्म ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ करते हैं. किस के साथ काम करना ज्यादा सहज होता है?

स्थापित या बड़े फिल्मकारों के साथ काम करते समय कलाकार के तौर पर हमें टैंशन लेने की जरूरत नहीं होती है. डेविड धवन के साथ चश्मेबद्दूर कर रहा था तो हमें पता था कि वे 40 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं, इसलिए मुझे थोड़ा सा उन से डर था कि मैं उन की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाऊंगा या नहीं. नए लोगों के साथ काम करते समय उन के अंदर का स्पार्क हमें उत्साहित करता रहता है. नए लोग किसी भी बात या सीन को ‘ग्रांटेड’ ले कर नहीं चलते. पर इस सवाल का सही जवाब मैं 10-15 फिल्में करने के बाद ज्यादा सही ढंग से दे पाऊंगा.

कोई किरदार या फिल्म का कोई सीन क्या आप की जिंदगी पर असर करता है?

कुछ किरदार या कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जोकि हम कलाकारों की निजी जिंदगी पर भी असर करती हैं. मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं ने पुणे फिल्म संस्थान में एक फिल्म की थी, जिस में बस कंडक्टर सुधीर का किरदार निभाया था, जो दिल्ली के बस कंडक्टरों जैसा था. किस तरह से उस की दुर्गति होती है, किस तरह से गांव से शहर आया हुआ मृदुभाषी युवक धीरेधीरे गुस्सैल होता जाता है. पैसेंजर उस के साथ झगड़ा व बदतमीजी करते हुए उसे भी बदतमीज बना देते हैं. एक दिन हालात ऐसे होते हैं कि वह एक पैसेंजर की हत्या कर देता है. यानी बदलते समाज के साथ वह भी बदतमीज होता गया. आज भी जब उस किरदार की चर्चा करता हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मुझे लगता है कि ऐसे किरदार पता नहीं कितने होंगे, जो अभी भी होंगे. कहने का अर्थ यह कि कलाकार के तौर पर कई किरदार ऐसे होते हैं जिन्हें हम निभाते हैं और वे किरदार हमेशा के लिए हमारे साथ रह जाते हैं.

कोई खास किरदार करने की तमन्ना है?

निजी स्तर पर मुझे डार्क किरदार निभाना ज्यादा पसंद है. मुझे थ्रिलर में काम करना ज्यादा पसंद है. डिटैक्टिव फिल्म करने की इच्छा है. नए किरदार ढूंढ़ता रहता हूं.

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