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राजमा उत्पादन आमदनी दनादन

आजकल पूरे देश में शाकाहारी भोजन में राजमा का चलन बढ़ता जा रहा है. राजमा एक ओर जहां खाने में स्वादिष्ठ और स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं दूसरी ओर मुनाफे के लिहाज से किसानों के लिए बहुत अच्छी दलहनी फसल है, जो मिट्टी की बिगड़ती हुई सेहत को भी कुछ हद तक सुधारने का माद्दा रखती है. इस के दानों का बाजार मूल्य दूसरी दलहनी फसलों की बनिस्बत कई गुना ज्यादा होता है. राजमा की खेती परंपरागत ढंग से देश के पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है, पर इस फसल की नवीनतम प्रजातियों के विकास के बाद इसे उत्तरी भारत के मैदानी भागों में भी सफलतापूर्वक उगाया जाने लगा है. थोड़ी जानकारी व सावधानी इस फसल में रखना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह फसल जहां एक ओर दूसरी दलहनी फसलों के बजाय सर्दियों के प्रति अधिक संवेदी है, तो वहीं दूसरी ओर इस की जड़ों में नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता भी कम पाई जाती है.

राजमा के साथ सोने पे सुहागा यह है कि इस की सहफसली खेती भी की जा सकती है. राजमा की सहफसली खेती राई व अलसी के साथ भी मुमकिन है. यही नहीं, राजमा की सहफसली खेती में अगेती आलू जैसे कुफरी, चंद्रमुखी सरीखी कम अवधि की प्रजातियों के इस्तेमाल से और भी भरपूर आमदनी हासिल की जा सकती है. भूमि का चयन और तैयारी : इस के लिए दोमट व हलकी दोमट भूमि, जिस में पानी के निकलने का उचित प्रबंध हो, अति उत्तम है. यदि पर्याप्त नमी न हो तो पलेवा कर के इस की बोआई करनी चाहिए. पहली गहरी जुताई मिट्टी पलट हल से व उस के बाद 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. बोआई का समय व बीज दर : राजमा के उत्पादन पर बोआई के समय का असर दूसरी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक पड़ता है. देश के उत्तरपूर्व भाग में राजमा की बोआई का सब से उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से ले कर नवंबर के पहले हफ्ते तक होता है. पर देश के उत्तरपश्चिमी भाग (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब) में अधिकतम उपज सितंबर के मध्य में बोने से प्राप्त होती है. देर से बोआई करने पर राजमा की उपज में भारी गिरावट हो जाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में तापमान में गिरावट के कारण राजमा के पौधों की वानस्पतिक बढ़ोतरी घट जाती है, जिस से फलियों की संख्या और दानों के भार दोनों में कमी आ जाती है.

जहां तक बीज दर की बात है, तो इस की खेती के लिए 120-140 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. खास बात यह है कि राजमा से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए ढाई से साढ़े 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर जरूरी होते हैं. पौधों की यह संख्या दानों के भार के अनुसार हासिल की जा सकती है.

बोआई : बोआई करने से पहले बीजों का फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बंडाजिम या थीरम से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करने पर अंकुरण के समय लगने वाले रोगों से छुटकारा व दूसरे रोगों से कुछ हद तक नजात मिल जाती है. बीज की बोआई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 30-45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखी जानी उचित है. बीज की गहराई 5-8 सेंटीमीटर पर रखनी चाहिए. बोआई करने के बाद पाटा अवश्य लगाएं, जिस से राजमा के बीज अच्छी तरह जमीन के अंदर ढक जाएं. खाद व उर्वरक : खाद व उर्वरकों का प्रयोग कितना करना है, यह बिना मिट्टी की जांच के बताना मुश्किल है. दूसरी दलहनी फसलों के मुकाबले वैज्ञानिक इस में अधिक नाइट्रोजन इस्तेमाल करने की सिफारिश करते हैं, क्योंकि राजमा की जड़ग्रंथियों में वायुमंडल की नाइट्रोजन को मृदा में फिक्स करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है. पर फिर भी मोटेतौर पर वैज्ञानिक 20 टन खूब सड़ी हुई एफवाईएम (सड़ी गोबर की खाद), 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20-25 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम सल्फर देने की सलाह देते हैं. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा या आधी मात्रा व फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय प्रयोग करनी चाहिए.

नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा बोआई के 25-30 दिन बाद पहली सिंचाई के बाद ओट आने पर और दूसरी फूल आते समय प्रयोग करनी चाहिए. राजमा में देखा गया है कि 2 फीसदी यूरिया के घोल का स्प्रे क्रमश: 30 व 50 दिनों पर करने पर उपज में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : सिंचाई की संख्या भूमि की किसम व बोने के समय पर निर्भर करती है. राजमा की अधिकतर पैदावार लेने के लिए सामान्यत: 3 सिंचाइयां लाभकारी पाई गई हैं. पहली सिंचाई बोआई के 25 दिनों बाद, दूसरी 50 दिनों बाद और अगर जरूरत हो तो तीसरी सिंचाई 75 दिनों के बाद करनी चाहिए. यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि फसल को नुकसान से बचाने हेतु सदैव हलकी  सिंचाई ही की जाए. निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण: इस फसल में खरपतवार नियंत्रण न करने से पैदावार में 25-30 फीसदी की गिरावट होती है. पहली सिंचाई करने के बाद एक निराईगुड़ाई की जरूरत होती है. गुड़ाई के दौरान कुछ मिट्टी पौधों पर जरूर चढ़ानी चाहिए, ताकि फली लगने पर पौधों को सहारा मिल सके. खरपतवारों के रासायनिक तरीके से नियंत्रण हेतु फसल उगने से पहले पेंडीमेथलीन नामक रसायन को 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए. छिड़काव करते समय यह जरूर ध्यान रखें कि खेत का कोई भी भाग छूटने न पाए, वरना दवा सही से प्रभावी नहीं हो पाएगी.

फसल सुरक्षा : राजमा में सब से खतरनाक और तेजी से फैलने वाला रोग मोजैक है, जो विषाणुजनित (वायरस) बीमारी है. इस को फैलाने वाले कीटों में सफेद मक्खी की प्रमुख भूमिका होती है. इस बीमारी के नियंत्रण हेतु रोगोर, डेमोक्रान या नुवाक्रोन नामक दवा को 1.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़कना चाहिए. फसल कटाई : जब फलियां पक जाएं, तो इन्हें काट लेना चाहिए. काटते वक्त फलियां अधिक सूखी हुई नहीं होनी चाहिए, वरना फलियों के चटखने का डर बढ़ जाता है.

क्या कहते हैं माहिर : राजमा की खेती के बाबत कानपुर, उत्तर प्रदेश में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान के परियोजना समन्वयक डाक्टर संजय गुप्ता कहते हैं, ‘‘राजमा की खेती एक नकदी फसल है. कुछ खास बातों का ध्यान रख कर किसान इस से भरपूर फायदा उठा सकते हैं.

‘‘जैसे कि पहली बात यह कि राजमा हेतु देश के सभी हिस्सों में अनुकूल वातावरण नहीं है, इसलिए निकटतम विशेषज्ञ से जरूर जान लें कि इस की खेती आप के यहां उपयुक्त है या नहीं. ‘‘दूसरी बात, इस की जड़ग्रंथियों में नाइट्रोजन अवशोषण करने की क्षमता दूसरी दलहनी फसलों से थोड़ी कम होती है, इसलिए नाइट्रोजन का दूसरी दलहनी फसलों से ज्यादा मात्रा में प्रयोग करें. ‘‘तीसरी बात यह है कि खेत में जल जमाव किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए.

‘‘चौथी बात यह है कि यह फसल सर्दी के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदी है, इसलिए पाले से बचने हेतु सावधानी रखनी चाहिए.

‘‘5वीं और खास बात यह है कि इस में लगने वाली सब से खतरनाक बीमारी वायरस जनित मोजैक है, इसलिए इस के बचाव हेतु पहले से ही कीटनाशी दवा छिड़कें.’’ 

पौलीहाउस में सब्जी की आर्गेनिक खेती

मेरे पास 4000 वर्गफुट जमीन है, जिस में मैं सब्जी की आर्गेनिक खेती करना चाहता हूं. मैं उसी जमीन के थोड़े से एरिया में सब्जी बोता हूं. मुझे कुछ सुझाव दें? इस तरह की जानकारी आज के समय में बहुत लोग चाहते हैं, क्योंकि ज्यादातर सब्जियां उगाने में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, हमारी खेती की जमीन की उपजाऊ कूवत को भी नुकसान पहुंचाते हैं. तो क्यों न हम आर्गेनिक फार्मिंग की तरफ बढ़ें और पौलीहाउस में सब्जी की खेती करें. वाकई यह आज के दौर में फायदे का सौदा है.

पौलीहाउस बनाने में एक बार खर्च जरूर आता है, लेकिन इस का फायदा हमें सालोंसाल मिलता है. जानकारों के अनुसार, 1 हजार वर्गफुट का पौलीहाउस बनाने के लिए अगर हम 200 माइक्रोन की (लो डैंसिटी पौलीथिन) इस्तेमाल करते हैं, तो उस का खर्च लगभग 45000 रुपए तक आता है. पौलीहाउस बनाते समय अपने इलाके के मौसम को ध्यान में रख कर बनाएं. पौलीहाउस में हवा के आनेजाने और सूरज की रोशनी को भी ध्यान में रखें. इस के लिए दिशाओें को अवश्य ध्यान में रखें. पौलीहाउस की छत 2 प्रकार की बनाई जाती है. एक ढलान वाली त्रिभुजाकार, दूसरी गोलाकार आकार में. बर्फीले इलाकों में पौलीहाउस की छत गोलाकार आकार में बनानी चाहिए. दूसरी जगहों पर किसी भी प्रकार के आकार वाली छत बना सकते हैं.

क्यों है पौलीहाउस फायदेमंद

आज विश्वभर के 90 फीसदी पौलीहाउस प्लास्टिक की पन्नी, एल्यूमीनियम की चादर, लकड़ी या बांस के ढांचे से बनते हैं. इसी कारण पौलीहाउस अब पहले के मुकाबले सस्ते पड़ते हैं. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में अच्छी क्वालिटी के बांस आसानी से और कम कीमत पर मिल जाते हैं. इन जगहों पर बांस का इस्तेमाल पौलीहाउस का ढांचा बनाने में किया जा सकता है. एल्यूमीनियम में जंग नहीं लगती है. इस के इस्तेमाल से पौलीहाउस के ढांचे का भार कम किया जा सकता है. लकड़ी और बांस के ढांचे 5-7 साल तक उपयोगी होते हैं और अगर ठीक प्रकार से रखरखाव किया जाए तो धातु से बने ढांचे की उम्र 20-25 साल तक होती है. पौलीहाउस ऐसी जगह पर लगाएं जो सड़क से नजदीक हो और बारिश का पानी इकट्ठा न होता हो. इस के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वहां रोशनी और साफ पानी आसानी से मिल सके. पौलीहाउस में पौधों की सिंचाई ड्रिप सिस्टम से करनी चाहिए. सर्दी के मौसम में पौलीहाउस में बिना किसी कृत्रिम ऊर्जा के ही उस का प्राकृतिक सौर ऊर्जा द्वारा यानी सूरज की रोशनी के द्वारा तापमान बढ़ जाता है, जो ठंड के मौसम में बेहतर फसल पैदा करने के लिए उपयोगी है. फसलों से संबंधित जैविक क्रियाएं तेजी से होती हैं. इस से फसलों की पैदावार व गुणवत्ता में सुधार होता है. साथ ही, सालभर फसल लेना भी संभव है.

अपनाएं जैविक तरीका

भारत में अलगअलग जगह पर मौसम का अलगअलग मिजाज होता है, इसलिए मौसम के अनुसार ही सब्जी की फसल का चुनाव करें. सब्जी उगाने से पहले यह पता कर लें कि आप के द्वारा चुनी गई सब्जी इस समय मौसम के तापमान में सही पैदावार दे पाएगी या नहीं. सब्जी में अलगअलग तापमान सहने की क्षमता होती है, जैसे प्याज 18 डिगरी सेंटीग्रेड पर भी उगा सकते हैं.

रोटेशन भी अपनाएं

जैविक खेती का खास पहलू है कि सब्जियां बदलबदल कर बोएं. एक ही फसल को बारबार लगाने से फसल की उपज कम हो जाती है और फसल में कीट बीमारी का खतरा भी बढ़ जाता है.

डालें जैविक खाद

पौलीहाउस में हमेशा प्राकृतिक खाद का ही इस्तेमाल करें. रासायनिक खाद या कीटनाशक दवाओं का बिलकुल इस्तेमाल न करें. यह जमीन की उपजाऊ ताकत को नुकसान पहुंचाती है. जैविक खेती में हमेशा जैविक खाद या घरेलू खाद ही डालें व प्राकृतिक कीटनाशक का ही इस्तेमाल करें.

मल्चिंग व कंपोस्टिंग

जैविक खेती में मल्चिंग करने के लिए सब्जी उगाने से पहले सड़ीगली घासफूस की एक परत बिछा दी जाती है. यह माइक्रोआर्गेनिज्म को बढ़ाता है, जो पौधों के विकास में सहायक होता है. साथ ही यह पौधों को ठंड के समय में गरमाहट भी देता है. इसी तरह से कंम्पोस्ट खाद का इस्तेमाल भी जैविक खेती का खास हिस्सा है, जो पौधों में अच्छी बढ़वार व फसल से अच्छी पैदावार दिलाती है. जैविक तरीके से उगाई गई सब्जियां ज्यादा पौष्टिक व स्वादिष्ठ होती हैं.

फिर बरबाद हुए किसान

पहले ओले पड़ने और बाद में बरसात न होने से राजस्थान के किसानों की फसलें बरबाद हो गई हैं, ऊपर से फसलों पर लगने वाली बीमारियों ने किसानों की आस को खत्म कर दिया है. राजस्थान के किसान पहले ही रबी सीजन में ओला पड़ने की मार झेल कर बरबाद हो चुके हैं, अब खरीफ सीजन में भी बारिश की कमी के चलते फसलों में पनपे रोगों से किसानों की कमर टूट चुकी है. इस बार बारिश कम व देर से होने की वजह से किसानों ने जैसेतैसे खरीफ फसलों की बीजाई तो कर ली थी, लेकिन एक लंबे समय तक बारिश नहीं होने की वजह से फसलों में फैले संक्रमण से फसलें पीली पड़ कर तबाह हो गई हैं. प्रदेश के कई हिस्सों में कम बारिश के चलते पीली पड़ कर खराब हुई फसल की कटाई करने के बजाय किसान मवेशियों को खेतों में ही छोड़ते हुए देखे जा सकते हैं.

कई किसान तो ऐसे हैं, जिन के पास खराब हुई फसल को काटने या जुताई करने के लिए पैसे तक नहीं हैं. ऐसे हालात में वे खेतों में मवेशी छोड़ रहे हैं, जो फसल को चर कर खेतों को साफ कर रहे हैं. गौरतलब है कि किसानों ने अलगअलग किस्मों की फसलें बोई थीं, जो खराब हो गई हैं. इस से किसानों को काफी माली नुकसान उठाना पड़ा है. इस के चलते वे पूरी तरह से टूट गए हैं.

हद तक हुई बरबादी

किसानों का कहना है कि खेतों में लगी ज्वार, मूंगफली, मूंग, उड़द, बाजरा, चौलाई वगैरह की फसल 70 से 80 फीसदी तक खराब हो गई है और अब बारिश नहीं होने से फसलों में पीला मौजेक रोग फैल गया है. इस से खेतों में खड़ी फसल पीली पड़ कर खत्म हो गई है. खेती माहिरों के मुताबिक, ऐसे हालात में कीटनाशक दवा भी काम नहीं करती है. यही वजह है कि किसानों ने आस ही छोड़ दी है. हालांकि कुछ किसान तो खेतों में खड़ी फसल की बोआई कर रहे हैं. लेकिन ज्यादातर किसान ऐसे हैं, जो माली तौर पर काफी कमजोर हैं. वे अपने खेतों में खुद के मवेशी तो छोड़ ही रहे हैं, साथ ही उन्होंने गांव के बाकी लोगों से भी मवेशी चराने के लिए कह दिया है.

दवा भी बेअसर

किसानों ने बताया कि उन्होंने रोग लगने की शुरुआत में ही दवा का छिड़काव किया था. लेकिन बारिश नहीं होने से दवा भी फसल पर असर नहीं दिखा पाई. इस से किसानों की पूरी की पूरी फसलें बरबाद हो गई हैं. किसान कैलाश, प्रभु व नारायण ने बताया कि खेत में खराब हुई फसल लगी है. अब इसे काटने की हिम्मत ही नहीं बची है. जुलाई महीने में हजारों रुपए खर्च कर अलगअलग किस्म की फसलों की बोआई की थी, इस के बाद इन्हें रोगों से बचाने के लिए दवा का भी छिड़काव किया था, लेकिन समय पर बरसात नहीं होने से फसलें खराब हो गई हैं.

क्या है पीला मौजेक

दुर्गापुरा कृषि अनुसंधान केंद्र के अफसरों के मुताबिक, लंबे समय तक बारिश नहीं होने से पानी की कमी के चलते फसलें पीली पड़ कर मुरझा जाती हैं, जिस से फसल की बढ़वार रुक जाती है. ऐसे में किसी भी तरह की कीटनाशक दवा व कैमिकल का भी असर फसल पर नहीं होता है. फसल की बढ़वार के लिए दिया जाने वाला यूरिया भी बेअसर हो जाता है. पानी की कमी में कीटनाशक दवा का उलटा असर होने लगता है. इस से फसल पीली पड़ कर पूरी तरह खत्म हो जाती है.

माहू कीट ने मारा

एक ओर जहां पौधे संक्रमण के कारण पीले पड़ रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर कीटों ने भी पौधों को चट करना शुरू कर दिया है. प्रदेश के बड़ली महाचंदपुरा, सांवलिया, लदाणा वगैरह गांवों में खेतों का जायजा लिया गया, तो बड़ी तादाद में फसलों पर कीट प्रकोप देखने को मिला, खासकर मूंग, उड़द, सोयाबीन जैसी दलहनी फसलों पर सब से ज्यादा कीट प्रकोप देखने को मिला. दलहनी फसलों पर माहू कीट का सब से ज्यादा प्रकोप होने से ये कीट पौधों से फलियों को चट कर रहे हैं. कीट प्रकोप से फसल को बचाने के लिए कृषि अधिकारी किसानों को जानकारी भी नहीं देते देखे गए हैं. इस से समस्या और भी ज्यादा गहरा गई है.

बाजरा भी नहीं बचा

समय पर बारिश नहीं होने से बाजरा व ज्वार जैसी कम पानी की फसलें भी तबाह हो गई हैं. फसल में बाजरे के सिट्टे तो खूब लगे, लेकिन सिट्टे में दाने नहीं पनप पाए. यदि एक हलकी सी बारिश भी समय पर हो जाती, तो शायद प्रदेशभर में बाजरे की भरपूर फसल उपजती, पर ऐसा हो न सका.

फसल बचाने की जुगत

कई किसान जो थोड़े बहुत पैसे वाले हैं व जिन के पास सिंचाई करने के साधन हैं, वे सिंचाई कर फसल को बचाने की जुगत में लगे हुए देखे गए. मूंग, उड़द व मूंगफली की फसल में सिंचाई कर इन्हें बचाने की कोशिश भी किसानों द्वारा की गई है, लेकिन कुओं या दूसरे पानी के स्रोतों का पानी का लैवल नीचे गिरने के कारण सिंचाई करना भी महंगा साबित हो रहा है.

सूखे पड़े हैं तालतलैया

मानसून की बेरुखी व बारिश की कमी में प्रदेश के तमाम बांध, तालाब, तालतलैया, एनीकट जलाशय सूखे पड़े हैं. नदीनालों में कहीं भी पानी नहीं है. जलाशयों में पानी न होने से किसानों के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आती देखी जा सकती हैं. इस के चलते किसानों को आगामी रबी की फसल लेने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ेगा. जलाशयों में पानी नहीं आने से रबी की फसल को पानी देना किसानों के लिए मुश्किल हो जाएगा. बांधों व जलाशयों में पानी की आवक होती, तो हजारों हेक्टेयर भूमि सिंचित होती, साथ ही कुओं का जलस्तर भी ऊंचा आ जाता.

इन से भी टूटी आस

खेत का पानी खेत में ही रोकने के लिए हजारों किसानों ने अपने खेत में खेत तलाइयां खुदवाई थीं, ताकि समयसमय पर सिंचाई कर रबी की भरपूर फसल ली जा सके, लेकिन किसानों की यह उम्मीद भी टूटती नजर आ गई. किसी भी खेत तलाई में एकाध फुट से ज्यादा पानी नहीं आया है. इस से किसान और भी ज्यादा चिंतित हैं.  

दुधारू पशुओं की देखभाल

पशुओं को हमेशा साफसुथरे माहौल में रखना चाहिए. बीमार होने पर पशुओं को सेहतमंद पशुओं से तुरंत अलग कर देना चाहिए और उन का इलाज कराना चाहिए. इस के अलावा पशुपालकों को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए :

* पशुओं को सेहतमंद रखने और बीमारी से बचाने के लिए उचित समय पर टीका लगवाना चाहिए.

* गायभैंसों को गलघोंटू, एंथ्रैक्स लंगड़ी, संक्रामक गर्भपात, खुरपकामुंहपका, पोकनी वगैरह बीमारियों से बचाना चाहिए.

* पशुओं को ऐसी बीमारियों से बचाव का एकमात्र उपाय टीकाकरण है.

* दुधारू पशुओं को नियमित रूप से पशु डाक्टर को दिखाना चाहिए. बीमार पशुओं का इलाज जल्दी कराना चाहिए, ताकि पशु रोगमुक्त हो सके. साथ ही, बीमार पशु के बरतन व जंजीरें पानी में उबाल कर जीवाणुरहित करने चाहिए. फर्श और दीवारों को भी कास्टिक सोडा के घोल से साफ करना चाहिए.

* पशुओं को भीतरी व बाहरी परजीवियों के प्रकोप से भारी नुकसान होता है और उन का दूध उत्पादन घट जाता है. पशु कमजोर हो जाते हैं. भीतरी परजीवियों के प्रकोप से भैंस के बच्चों में 3 महीने की उम्र तक 33 फीसदी की मौत हो जाती है और जो बच्चे बचते हैं, उन का विकास बहुत धीमा होता है.

* परजीवी के प्रकोप से बड़े पशुओं में भी कब्ज, एनीमिया, पेटदर्द व डायरिया वगैरह के लक्षण दिखाई देते हैं, इसलिए साल में 2 बार भीतरी परजीवियों के लिए कृमिनाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए.

* बाहरी परजीवियों जैसे किलनी, कुटकी व जूं से बचाने के लिए समयसमय पर पशुओं की सफाई की जानी चाहिए. पशुओं में इन का ज्यादा प्रकोप हो जाने पर निकट के पशु डाक्टर से तुरंत संपर्क करना चाहिए.

* नए खरीदे गए पशुओं को लगभग एक महीने तक अलग रख कर उन का निरीक्षण करना चाहिए. इस अवधि में अगर पशु सेहतमंद दिखाई दें और उन्हें टीका न लगा हो, तो टीकाकरण अवश्य करा देना चाहिए.

* पशुओं को साफसुथरे माहौल में रखा जाए, उन्हें साफ पानी और पौष्टिक आहार दिया जाए और नियमित रूप से टीकाकरण कराया जाए, तो वे हमेशा सेहतमंद बने रहते हैं और उन से पर्याप्त मात्रा में दूध मिलता रहता है.

दुधारू पशुओं में प्रजनन प्रबंध : पशुपालक को इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि उस का पशु समय से गर्भधारण करे. ब्याने के बाद 2-3 महीने के अंदर दोबारा गाभिन हो जाए व बच्चा देने का अंतर 12-13 महीने से ज्यादा न हो. यह तभी संभव है, जब गायभैंस को भरपूर संतुलित आहार मिले और उन की प्रबंधन व्यवस्था अच्छी हो. गायभैंस के ब्याने से 2 महीने पहले उस का दूध सुखा देना चाहिए. दूध सुखाने के लिए 15-20 दिन पहले से थनों से धीरेधीरे कम दूध निकालते हैं. इस प्रकार दूध सूख जाता है. अब इन 2 महीनों में पशु को पौष्टिक हरा चारा व दाना मिश्रण देना चाहिए. इस अवस्था में जितनी अच्छी देखरेख होगी, उतना ही ब्याने के बाद अच्छा दूध उत्पादन लंबे समय तक प्राप्त होगा. एक दुधारू पशु की दूध न देने की अवधि जितनी कम होगी, पशुपालक के लिए उतना ही फायदेमंद होगा. इस के लिए जरूरी है कि ब्याने के 8-12 हफ्ते के अंदर गायभैंस को दोबारा गाभिन करा दिया जाए. यदि पशु इस अवधि में गरम न हो, तो उसे गरम होने की दवा देनी चाहिए.

पशुओं में गर्भाधान : पशुओं में गर्भाधान आमतौर पर 2 विधियों द्वारा किया जाता है. पहली विधि, जिस में सांड़भैंसे द्वारा गर्भाधान कराया जाता है, जिसे प्राकृतिक गर्भाधान कहा जाता है. दूसरी विधि में सांड़भैंसे के वीर्य को कृत्रिम साधनों से मादा में प्रवेश कराते हैं. इसे कृत्रिम गर्भाधान कहते हैं.

प्राकृतिक गर्भाधान : प्रजनन हेतु भैंसा या सांड़ राजकीय संस्थाओं से प्रमाणित नस्ल का होना चाहिए. अगर गांवों में किसी भैंसे या सांड़ से गर्भाधान कराना हो, तो कम से कम भैंसे या सांड़, जिस की मातादादीनानी अच्छी दुधारू गाय या भैंस व पितादादानाना उत्तम गुण के सिद्ध हो चुके हों, का रिकौर्ड पता होना चाहिए. अगर दादादादी, नाना का रिकौर्ड न पता हो, तो मातापिता का रिकौर्ड अवश्य मालूम होना चाहिए.

सांड़ की उम्र कम से कम 3 साल व भैंसे की उम्र 4 साल या 10 साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. एक सांड़ या भैंसे से दिन में एक बार एक मादा से अधिक गाभिन नहीं कराना चाहिए और उसे बीमार मादा के संपर्क से भी बचाना चाहिए.

कृत्रिम गर्भाधान : इस विधि में मादा को नर से सीधे नहीं मिलाया जाता है, बल्कि कृत्रिम विधि से गाय को गाभिन करा दिया जाता है, क्योंकि गर्भाधान के लिए 1 या 2 शुक्राणु ही काफी होते हैं. लिहाजा, कृत्रिम विधि से निकाले गए वीर्य को पतला कर जरूरत के मुताबिक सैकड़ों मादाओं को गाभिन किया जा सकता है. यही नहीं, अत्यधिक दूध बढ़ाने की क्षमता रखने वाले सांड़ों के वीर्य से दुनिया के किसी भी हिस्से में मादाओं को गाभिन कर के उन की संततियों में दूध की मात्रा बढ़ाई जा सकती है. तरल नाइट्रोजन की मदद से वीर्य को -196 डिगरी सेंटीग्रेड तक ठंडा किया जा सकता है, जिसे कई सालों तक संभाल कर रखा जा सकता है. हमारे देश में जो दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हुई है, उस में कृत्रिम गर्भाधान का खास योगदान है.

गर्भ परीक्षण : वीर्य सेचन के बाद जल्दी ही गर्भ परीक्षण आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है. गाय व भैंस की परीक्षा कुछ लक्षणों को देख कर ही की जाती हैं, जिस की सफलता कार्यकर्ता के प्रशिक्षण व अनुभवों पर आधारित होती है.

लक्षणों पर आधारित गर्भ परीक्षा की परंपरागत विधियों में मादा को देख कर गर्भ का अनुमान लगाना, पेट थपथपाना, प्रजनन अभिलेख, वीर्य सेचन के बाद मद में न आना आदि शामिल हैं.

कृत्रिम गर्भाधान से लाभ

* अच्छी नस्ल के सांड़भैंसे, जिन की तादाद कम हैं, इस विधि से उन से अधिक संख्या (प्राकृतिक गर्भाधान से 80-100 बच्चे और कृत्रिम गर्भाधान से 2000 बच्चे एक नर से प्राप्त किए जा सकते हैं) में संतति प्राप्त की जा सकती है.

* उत्तम सांड़भैंसे से इकट्ठा किया हुआ वीर्य एक देश से दूसरे देश, एक स्थान से दूसरे स्थान व दुर्गम क्षेत्रों में भी आसानी से भेज कर नस्ल सुधार का काम किया जा सकता है.

* नर या मादा के वीर्य या अंडाणु में कोई खराबी है, तो परीक्षण के बाद पता चल जाता है.

* पशुपालकों को सांड़ या भैंसे के लिए दरदर भटकना नहीं पड़ता है, जिस से समय व पैसे की बचत होती है.

नवजात पशुओं की देखभाल व आहार : नवजात बच्चे भविष्य के पशुधन होते हैं. अगर शुरुआत से ही उन पर ध्यान दिया जाए, तो आगे चल कर उन से अच्छा उत्पादन ले सकते हैं. पैदा होने के बाद उचित देखरेख न होने से 3 महीने की उम्र होने तक 30-32 फीसदी बच्चों की मौत हो जाती है. बच्चे के जन्म लेने के आधे से एक घंटे के अंदर मां का पहला दूध (खीस) जरूर पिलाना चाहिए, जिस से उस के शरीर में किसी भी संक्रमण से लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाए. खीस को जरूरत से ज्यादा नहीं पिलाना चाहिए, वरना दस्त होने का खतरा पैदा हो जाता है. दूध 4-4 घंटे के अंतर से 3 बार पिलाना चाहिए. 15-20 दिन के बाद बच्चों को सूखी घास, जितनी वे आराम से खा सके, खिलानी चाहिए. इस से उन के पेट का विकास तेजी से होगा. दाने की मात्रा हर हफ्ते 50 से 100 ग्राम तक बढ़ा कर देनी चाहिए. अगर पशुपालक दूध का कारोबार कर रहे हों, तो 3 महीने के बाद भरपेट चारादाना देते रहें. इस का कोई गलत असर नहीं पड़ेगा. बच्चे को डायरिया होने पर पशु डाक्टर को दिखाएं, वरना बच्चों की इस से बहुत जल्दी मौत हो जाती है. डाक्टर की सलाह से कृमिनाशक दवा बच्चे को पिलानी चाहिए.

अक्तूबर माह में किसान के काम

अक्तूबर का महीना किसानों के लिए खास होता है, क्योंकि इन दिनों रबी की फसलें लगाने के लिए खेतों की तैयारी का काम भी शुरू कर देते हैं और पिछली बोई गई खरीफ की फसल को समेटने का दौर होता है. आइए, अक्तूबर माह में खेतीकिसानी से जुड़े खास कामों पर डालते हैं एक नजर :

* धान की तैयार हो चुकी अगेती व मध्य किस्मों की फसलों की कटाई का काम निबटाएं. धान का भंडारण करते वक्त खास खयाल रखें कि धान के दानों में नमी न हो, वरना उन के खराब होने का खतरा रहता है और उन में कीटपतंगे लग जाते हैं. हां, अगर धान बीज के लिए भंडारण करना है तो निम्न तापमान व निम्न आर्द्रता जरूरी है. इस के लिए आप को धान बीज वेयरहाउस (धान संग्रहण केंद्र) में रखना होगा.

* यह धान की बासमती किस्मों में फूल आने का वक्त भी होता है. जरूरत के मुताबिक खेत में नमी का ध्यान रखें. फसलों पर कड़ी नजर रखें और अगर उन पर कीड़ों या बीमारी का असर नजर आए, तो फौरन माहिरों से पूछ कर कारगर दवाओं का इस्तेमाल करें.

* जाड़े के मौसम वाले गन्ने की बोआई का काम 15 अक्तूबर तक पूरा कर लें. ध्यान रखें कि अक्तूबर के तीसरेचौथे हफ्ते तक सर्दी बढ़ने लगती है, लिहाजा तब गन्ने की बोआई सही नतीजा नहीं देती. ठंड में पौधों का जमाव ठीक से नहीं होता.

* गन्ने की जल्दी पकने वाली किस्में मध्यम या देर से पकने वाली किस्मों के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए अपने जिले के ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ से संपर्क करें या जानकारों से राय ले लें, क्योंकि समयसमय पर नएनए बीज भी ईजाद होते रहते हैं जो अधिक फायदा देते हैं.

* राई व सरसों की बोआई का काम भी अक्तूबर के पहले से दूसरे हफ्ते में निबटा लें.

* गेहूं की खेती की बुनियाद भी अक्तूबर में ही की जाती है, इस के लिए अच्छी तरह से खेत तैयार करें. खेत में खरपतवार न रहें. गेहूं की अगेती और मध्यम किस्मों की बोआई करने के लिए खेतों का पलेवा करें, ताकि नवंबर के पहले से तीसरे हफ्ते के दौरान बोआई की जा सके. गेहूं की अगेती, मध्यम और पछेती किस्मों की बोआई किस्मों के मुताबिक तय समय पर ही करें.

* जौ की बोआई का काम अक्तूबर व नवंबर महीनों के दौरान किया जा सकता?है. बोआई से पहले बीजों को फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करना न भूलें.

* असिंचित इलाकों में मटर, मसूर व चना की बोआई का अक्तूबर के मध्य तक निबटा लें. बोआई से पहले खेत को बाकायदा तैयार करें और खरपतवारनाशी दवा का इस्तेमाल जरूर करें.

* कभीकभार अरहर की फसल पर पत्ती लपेटक व फली बेधक कीटों का हमला होता है. इन घातक कीटों से बचाव के लिए 35 ईसी वाली मोनोक्रोटोफास दवा को पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें.

* मूंग, उड़द, मक्का, ज्वार व बाजरे की फसल अमूमन अक्तूबर तक पक कर तैयार हो जाती है. पकी फसल की फौरन कटाई करें, ताकि रबी की फसल की तैयारी की जा सके.

* इस माह में मूंगफली की फसल में टिक्का बीमारी का हमला हो सकता है. अगर ऐसा हो तो कृषि वैज्ञानिक से सलाह ले कर कीटनाशक दवा का इस्तेमाल करें.

* सोयाबीन में ज्यादातर फलियां पक जाएं तो शीघ्र ही सोयाबीन की कटाई करें. खलिहान में 5-8 दिन फलियों को सुखा कर गहाई करें. बीज को अच्छी तरह सुखा कर भंडारण करें.

* सभी दलहनी फसलों के बीजों को राईजोबियम कल्चर व पीएसबी से उपचारित करें. लहसुन की उन्नतशील प्रजाति जी-282 की बोनी शुरू करें और 20 किलो सल्फर प्रति एकड़ डालें.

* आलू की बोआई भी अक्तूबर महीने में शुरू की जाती है. इस की तैयारी के लिए खेत को अच्छी तरह जुताई करें और उस में भरपूर मात्रा में कंपोस्ट खाद या ढंग से सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाएं. खाद डालने के 15-20 दिनों बाद अच्छी किस्म के आलू की बोआई करें.

* जो किसान जड़ वाली फसल सब्जी बोना चाहते हैं, वे महीने में ही जड़ वाली सब्जियों यानी शलगम, मूली व गाजर की भी बोआई कर सकते?हैं.

* अगर पालक, मेथी, धनिया व लहसुन वगैरह सब्जियों की बोआई सितंबर में करने से चूक गए हैं, तो इन्हें अक्तूबर में भी बोया जा सकता है.

* फूलगोभी की रोपाई नहीं की गई हो, तो उसे फौरन कर लें. रोपाई करने से पहले अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद डाल कर खेत तैयार करें. रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई जरूर करें.

* अक्तूबर तक अमरूद की बरसाती फसल खत्म होने लगती?है. बचेखुचे अमरूदों की तोड़ाई कर के बाग की सफाई करें. बीमारी से खराब हुई पेड़ों की टहनियों को काट कर जला दें.

* आम के बाग की जुताई करें और पेड़ों के थालों को अच्छी तरह साफ करें, जिस से उन में पानी ठीक से दे सकें.

* आमतौर पर आम में अक्तूबर के आसपास गुच्छा नामक बीमारी लग जाती है. इस की रोकथाम के लिए कृषि जानकारों को बीमारी के लक्षण बता कर दवा का छिड़काव करें. पुराने पौधों को सही आकार देने के लिए शाखाओं की कटाईछंटाई करें.

* गायभैंसों के चारे के लिए बरसीम की बोआई करें, क्योंकि इस के बिना जानवरों का काम नहीं चलने वाला.

* अक्तूबर में सर्दी का असर तेजी से बढ़ता है, जो गायभैंस के बच्चों के लिए खतरनाक होता है, उन्हें ठंड से बचाने का इंतजाम करें.

* गरमी में आने वाली गायभैंस का कृत्रिम तरीके से गर्भाधान कराएं. ऐसा न हो कि वे गरमी में आएं और आप को पता ही न चले. गरमी में आने पर गायभैंसें ज्यादा आवाज निकालती हैं व उन के अंग से तरल ज्यादा मात्रा में होता है.

* चूंकि ठंड से इस मौसम की शुरुआत होती है, इसलिए अपने पशुओं को ठंड से बचाने का इंतजाम करें.

* डाक्टर की राय पर अपने पशुओं को जरूरी टीके लगवाएं व कीड़े मारने वाली दवा खिलाएं.

* मुरगी के शेड की अच्छी तरह से सफाई कर के उन्हें जाड़े के मौसम के हिसाब से तैयार कराएं, क्योंकि ज्यादा सर्दी मुरगेमुरगियों के लिए भी घातक होती है.

* मुरगी के चूजों को ठंड से बचाने का बंदोबस्त करें. डाक्टर की सलाह के मुताबिक मुरगेमुरगियों को टीके लगवाएं.

मौनपालक ऐसे करें वार्षिक प्रबंधन

सफल मौनपालन (मधुमक्खी पालक) के लिए मौनवंशों का वार्षिक प्रबंधन एक अति आवश्यक काम है. मौसम के अनुसार मौन प्रबंधन को मुख्यत: 3 प्रमुख भागों में बांटा गया है, जैसे बरसात, जाड़ा और गरमी. विभिन्न स्थानों पर इन मौसमों के लिए मौनवंशों का प्रबंधन व रखरखाव भी अलगअलग होता है. वार्षिक प्रबंधन में हम कम मेहनत से ही ज्यादा से मुनाफा कमा सकते?हैं. इस में हमें हर मौसम में कुशलता व दक्षता से काम करना चाहिए. भारत जैसे भौगोलिक व विषम हालात वाले देश में हर जगह मौनवंशों का वार्षिक प्रबंधन एक सा नहीं होता. यहां तक कि मैदानी व पहाड़ी इलाकों में भी यह अलगअलग होता है. बरसात में मौनपेटी का निरीक्षण करना एक मुश्किल काम है, इसलिए बरसात के मौसम के खत्म होने के बाद पहाड़ी और मैदानी इलाकों के मौनपालकों को मौनवंशों का निरीक्षण करना चाहिए. साथ ही, निरीक्षण का सही समय वह होता है, जब दिन में आसमान में बादल न छाए हों और अच्छी धूप खिली हो. निरीक्षण से मौनवंशों की स्थिति का सही अंदाजा होता?है.

बरसात के मौसम में मौनवंशों में मोमिया कीट लगने का खतरा ज्यादा रहता है. यदि मोमिया कीट का प्रकोप हो तो उस छत्ते को हटा कर नया छत्ता या पहले से तैयार व संरक्षित छत्ता मौनवंश को देना चाहिए. मौनपेटियों में समुचित शहद की मात्रा होनी चाहिए. खाद्य पदार्थ कम होने पर मौनवंश मौनपेटी को छोड़ कर दूसरी जगह पर चला जाता है. मौनपालकों को इस से काफी नुकसान उठाना पड़ता है. पहाड़ी इलाकों में अक्तूबर महीने में शहद का एक बार फिर से निष्कासन होता है. इस समय मौनवंश इतना शक्तिशाली होना चाहिए कि मौनपालक ज्यादा से ज्यादा शहद हासिल कर सकें.

जो शहद इस समय प्राप्त होता है, उसे पहाड़ी इलाकों के लोग ‘कार्तिकी शहद’ के नाम से जानते हैं. जो मौनपालक मौनवंशों को मौनपेटी में न पाल कर घर के जालों में पालते हैं, उन में नुकसान होने का डर ज्यादा होता है. शहद को निकालने के लिए पहाड़ी इलाकों में मौनपालक दिन में जाले का पटला, जो घर के अंदर होता है, को निकालते हैं. उस के बाद धुआं दे कर मौनवंशों को छत्तों से अलग किया जाता है. इस के बाद छत्तों को काट कर शहद का निष्कासन किया जाता है. इस प्रक्रिया में काफी मौनों की मौत हो जाती है व मौनवंश इस से काफी परेशान हो जाता है. ऐसा करने से कभीकभी रानी की भी मौत हो जाती है, जिस से मौनवंश खत्म हो जाता है. सब से बड़ा नुकसान यह होता है कि शहद के निष्कासन के बाद जालों में भोजन की कमी होने के चलते मौनवंश जालों को छोड़ कर हमेशा के लिए चला जाता है, क्योंकि इस के बाद सर्दी का मौसम आता है, जिस में वातावरण का तापमान कम हो जाता है व भोजन की काफी कमी हो जाती है.

छत्तों को काटने के बाद मौनपालक उस में शहद का निष्कासन कपड़े पर निचोड़ कर करते हैं. निचोड़ने से शहद के साथसाथ छोटे शिशु भी कुचल कर शहद में आ जाते हैं, जिस से शहद की क्वालिटी पर काफी प्रभाव पड़ता है. पहाड़ी इलाकों के मौनपालक यदि मौनवंशों को जाले में ही रखना चाहते हैं, तो वैज्ञानिक तरीके से जालों में ही मौनपेटी रख कर यह काम आसानी से किया जा सकता है. इस से उन्हें नुकसान भी नहीं उठाना पड़ेगा. पहाड़ी इलाकों के मौनपालकों में कुछ भ्रांतियां हैं कि कार्तिकी शहद बहुत अच्छी क्वालिटी का होता है. कुछ हद तक यह बात इसलिए ठीक है, क्योंकि जो शहद प्राप्त होता है, उस में औषधीय पौधों के मकरंद का गुण होता है. जाड़ों में यह शहद घी के समान जम जाता है. यह शहद के गुण पर निर्भर करता है.

जिस शहद में ग्लूकोज की मात्रा फ्रक्टोज से ज्यादा होती है, उस शहद में जमने की कूवत ज्यादा होती है. वैज्ञानिक नजरिए से यह अच्छा गुण नहीं माना जाता है, क्योंकि कुछ समय बाद इस में सड़न की गंध आना शुरू हो जाती?है और शहद खराब हो जाता है. इस वजह से मौनपालक ऐसे शहद को पतले मुंह वाली बोतलों में संरक्षित करते हैं, जो जमने के बाद निकालना मुश्किल हो जाता है. शहद का निष्कासन के बाद उसे स्टील के भगोने में रखें. इस के बाद एक और भगोना, जो उस से बड़ा हो, में थोड़ा सा पानी रख कर शहद वाले भगोने को उस में रख कर उसे उबालते रहें. यह काम तब तक करें, जब तक गरम पानी से भगोने में रखा शहद गरम न हो जाए. इस काम को तकरीबन आधे से एक घंटे तक धीमी आंच पर करने से शहद सुरक्षित रहता है और जमता भी नहीं है. ठंडा होने पर उसे चौड़े मुंह की कांच की शीशी में भर कर सुरक्षित रखा जा सकता है. पहाड़ी इलाकों में मौनपालन तभी सफल हो सकता है, जब उसे वैज्ञानिक विधि द्वारा किया जाए. मौनपालन एक ऐसा व्यवसाय है, जिस में कम लागत से ही ज्यादा मुनाफा हासिल किया जा सकता है.

पहाड़ी इलाकों में नवंबर महीने के बाद ही वातावरण ठंडा होना शुरू हो जाता है. इस मौसम में ज्यादा ठंड होने के कारण मौनवंश को भी काम करने में मुश्किल होती है. मधुमक्खी सिर्फ उस समय ही मौनपेटी से बाहर निकलती हैं, जब वातावरण काफी गरम हो जाता है. पर ऐसे समय भोजन की भी कमी होती?है, इसलिए मौनवंश ने जो शहद इकट्ठा किया है, उसे ही धीरेधीरे खाना शुरू करती हैं व अपने वंश को ठंड से सुरक्षित रखती हैं. साथ ही, मौनवंश को मौनपेटी के अंदर का भी सही तापमान बनाए रखना जरूरी होता है, इसलिए यदि भोजन नहीं होगा तो मौनवंश मौनपेटी को छोड़ कर कहीं और चला जाएगा. इस समय मौनवंश को शाम के 3-4 बजे के बीच चीनी का एक घोल दिया जाना चाहिए, जिस में चीनी और पानी की मात्रा का अनुपात 2:1 हो. अगर मौनपालकों ने मौनवंश को मौनपेटी में रखा है, तो चीनी का घोल सभी मौनवंशों की मौनपेटी के अंदर देना चाहिए. यह काम 7-8 दिन बाद फिर से दोहराया जाना चाहिए. सफल मौनपालन के लिए यदि मुमकिन हो तो मौनवंशों का मैदानी क्षेत्रों में ट्रांसफर करना बहुत फायदेमंद होता है. यहां पर जिन मौनपेटियों में मौनों की संख्या कम हो तो कम संख्या की 2 मौनवंशों को आपस में मिला दिया जाए, जिस से मौनवंश ताकतवर हो जाएं.

मौनवंशों को आपस में मिलाने के लिए अखबार विधि का उपयोग करना चाहिए. इस विधि में एक मौनवंश से रानी को निकाल देना चाहिए. अब उस मौनपेटी, जिस में रानी हो, को रानीविहीन मौनपेटी के ऊपर रखना चाहिए. इस काम को करते समय एक अखबार में जो कि सूई से पूरी तरह छिद्रित हो व इस के दोनों तरफ शहद का लेप हो, को दोनों मौनपेटियों के बीच रखना चाहिए. दोनों मौनपेटियों के मौनवंश उस शहद को दोनों तरफ से खाना शुरू करते हैं और उन की गंध आपस में मिल जाती है. दूसरे दिन जब आप मौनपेटी को खोलते हैं तो मौनवंश अखबार को कुतर कर आपस में मिल जाते हैं और मौनवंश ताकतवर हो जाता है. मैदानी इलाकों में वे मौनपालक, जो यूरोपीय मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा) का पालन कर रहे हैं, इस समय शहद इकट्ठा करने के लिए अपने मौनवंशों को तैयार करें. इस के लिए सब से पहले अपने मौनवंश को ताकतवर बनाना होगा, जिस से कि मधुमक्खियां ज्यादा से ज्यादा शहद इकट्ठा कर सकें. उन जगहों की पहले से ही तलाशी शुरू कर दें जहां पर आप को इस मौसम में सरसों, तोरिया, लाही व सूरजमुखी से शहद प्राप्त हो सके. इन फसलों के 2 फायदे हैं.

पहला, इन फसलों से पराग व मकरंद दोनों मिलता?है. पराग से मौनवंश जल्दी बढ़ता है. पराग के आने से रानी छत्तों में अंडा देना शुरू करती?है, जिस से नए मौन तैयार होते?हैं व मौनवंश ताकतवर हो जाता?है. मौनवंश जितना ताकतवर होगा, उतना ही शहद मिलेगा. मकरंद के आते ही मौनवंश के शिशु प्रकोष्ठ के ऊपर मधु प्रकोष्ठ देना चाहिए. इस में पिछले सालों के बने छत्तों का उपयोग करना चाहिए. ऐसा करने से मौनवंश जल्दी ही शहद भरना शुरू कर देते हैं. यदि आप के पास पुराने छत्ते नहीं हों, तो नए फ्रेम में पूरी मोमिया पाटी शिशु कक्ष में देने से मौनवंश जल्दी ही उस पर नया छत्ता बना देता है. उस के बाद उसे निकाल कर मधु प्रकोष्ठ में रखने से मौनवंश उस पर शहद भर देता है. 8-10 दिन बाद निरीक्षण कर शहद का पहला निष्कासन उस समय करना चाहिए, जब फ्रेम के आधे कोष्ठ पतले मोम की परत से बंद हो व आधे खुले हों व उन पर शहद बाहर से ही दिख रहा हो. ऐसा करने से मौनवंश दोबारा जल्दी से शहद इकट्ठा करता है.

शहद के आखिरी निष्कासन पर कुछ ऐसे छत्तों, जिस में शहद भरा हो, को मौनपेटी में ही रहने देना चाहिए. सरसों, तोरिया, लाही व सूरजमुखी वगैरह फसलों से करीब एक महीने तक शहद प्राप्त होता?है. परागण की क्रिया से फसलों की पैदावार में भी काफी बढ़ोतरी होती है. इस के बाद जिस फसल से शहद मिलेगा वह यूकेलिप्टस का पेड़ है, जिस को किसान ने अपने खेत के मेंड़ पर लगाते हैं और वन विभाग ने काफी क्षेत्रों में इस का वृक्षारोपण किया है. इस से काफी मात्रा में शहद मिलता है. शहद के आखिरी निष्कासन के बाद शहद प्रकोष्ठ को निकाल देना चाहिए व उसे ऐसी जगह पर रखें, जहां पर मौनवंश उस की सफाई कर सकें. इन प्रकोष्ठ को छत्तों समेत एक जगह पर रख कर ढक देना चाहिए. अगले शहद के मौसम के लिए वह संरक्षित कर दिया जाना चाहिए. इन छत्तों के संरक्षण के लिए एक रसायन, जिसे पैराडाईक्लोरोबेंजीन भी कहते हैं और जो बाजार में आसानी से मिल जाता है, का प्रयोग करना चाहिए.

10 प्रकोष्ठ के लिए 25 ग्राम रसायन प्रयोग में आता ह. 10 प्रकोष्ठों को इकट्ठा कर उस के सभी छिद्रों को मिट्टी से लेप कर बंद कर दें और सब से ऊपर वाले प्रकोष्ठ पर एक कटोरे में रसायन रख दें. हवा के संपर्क में आने पर इस रसायन से एक गैस निकलती है, जो हवा से भारी होती है, इसलिए नीचे की तरफ आती है, इस से छत्ते मोमियाकीट की क्षति से बच जाते हैं. मोम के छत्ते बनाने में मौनवंश को काफी शहद खाना पड़ता है, तभी मोमिया ग्रंथि, जो उस के शरीर के निचले भाग में होती है, उत्तेजित हो मोम का भराव करती है, जिस से मौनवंश छत्ता बनाता है. ज्यादा बढ़ोतरी के कारण मौनवंश ताकतवर हो जाता है और उन में नई रानी बनाने की भी प्रवृत्ति आ जाती है, जिसे आम भाषा में स्वारमिंग या बकछूट कहते हैं. इस में नई रानियों का निर्माण होता है व मौनवंश पुरानी रानी व आधी मौनों की संख्या को ले कर नई जगहों पर चले जाते हैं. ऐसा होने पर मौनवंश फिर से कमजोर हो जाता है, जिस से शहद उत्पादन पर काफी फर्क पड़ता है. मौनपालक ताकतवर मौनवंश को 2 हिस्सों में बांट कर मौनवंश भी हासिल कर सकते हैं, जो समय आने पर ताकतवर हो जाते हैं. भारतीय मक्खी की तुलना में यूरोपियन मधुमक्खी में बकछूट की आदत कम होती है.

ठंड से बचाने के लिए मौनपालक अपनी मौनपेटी को चारों तरफ टाट से ढक दें व मौनपेटी के?अंदर जितने फ्रेमों में मौनें हैं, उन को छोड़ कर बाकी बचे फ्रेमों को हटा दें व डमी बोर्ड से अंदर का क्षेत्रफल कम कर दें. ऐसा करने से मौनों द्वारा मौनपेटी के अंदर का तापमान आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. अगर इन बातों पर मौनपालक सही ढंग से ध्यान दें, तो वे मौनवंशों को बचा सकते हैं और काफी फायदा उठा सकते हैं. 

– अभिषेक बहुगुणा व संध्या बहुगुणा

लहसुन फसल : कीटरोग रोकथाम और फसलोत्तर प्रबंधन

लहसुन का उपयोग मसाले के रूप में होता है. इस की खेती भारत के सभी भागों में की जाती है, लेकिन मुख्यत: इस की खेती तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान मध्य प्रदेश (इंदौर, रतलाम और मंदसौर) में बड़े पैमाने पर की जाती है. लहसुन एक नकदी फसल है. इस से विटामिन सी, फास्फोरस व कुछ प्रमुख पौष्टिक तत्त्व पाए जाते हैं. लहसुन का उपयोग अचार, चटनी बनाने में भी किया जाता है. इस में औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. लहसुन में पाए जाने वाला ‘एल्सीसिन’ आदमी के खून में जमे कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता रखता है.

लहसुन की खेती इस के शल्ककंद के लिए की जाती है. शल्ककंद में अनेक मांसल सफेद शल्कीपत्र होते हैं, जिन को आमतौर पर कलियां कहते हैं. भारत से लहसुन का निर्यात खासकर श्रीलंका, बंगलादेश व अर्जेंटीना में कर के विदेशी मुद्रा प्राप्त की जाती है. लहसुन की फसल में कीटरोग का प्रबंधन कैसे करें व कटाई के बाद कैसे भंडारण करें, इस की जानकारी यहां दी जा रही है.

लहसुन के कीटरोग

थ्रिप्स : लहसुन में इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों सैकड़ों की तादाद में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. ये पत्तियों को खरोंच कर छेद कर के उस का रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियां मुड़ जाती हैं. अंत में पौधे सूख कर भूमि पर गिर पड़ते हैं.

पत्तियों के बीच में कीड़े ज्यादा तादाद में पाए जाते हैं. इन कीटों से लहसुन की गांठें छोटी रह जाती हैं. कभीकभी इस के हमले से फसल पूरी तरह खत्म हो जाती है.

प्रबंधन : इस कीट की रोकथाम के लिए फसल पर डाइमिथोएट 30 ईसी या मैलाथियान 50 ईसी या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी एक मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.जरूरत हो तो 15 दिन बाद छिड़काव दोहराएं.

तुलासिता : इस रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद फफूंद नजर आती है. रोगी पत्तियों का रंग उड़ा हुआ दिखता है और वे पीलीहरी नजर आती हैं. नम वातावरण में फफूंद ज्यादा बढ़ती है व इस रोग से लहसुन की पैदावार में कमी आती है.

झुलसा व अंगमारी : रोग से प्रभावित पत्तियों पर सफेद धब्बे नजर आते हैं और बाद में वे बैगनी रंग में बदल जाते हैं.

रोग बढ़ने पर पत्तियां झुलस जाती हैं, जिस से लहसुन के पौधे मर जाते हैं और पैदावार कम होती है.

प्रबंधन : फसल चक्र अपनाएं. इस में लहसुन, प्याज न लगाएं.

* पौधों की संख्या उचित रखें. ज्यादा पौधों से रोग बढ़ता है.

* सिंचाई का उचित प्रबंधन रखें. अधिक सिंचाई नहीं करें.

* बोआई के लिए स्वस्थ खेत से लहसुन प्राप्त करें.

* फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल एमजेड 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

ब्लैक मोल्ड : पके हुए लहसुन पर ब्लैक मोल्ड आमतौर पर लहसुन के सब्जी बाजार में देखा जाता है. रोग के लक्षण लहसुन की कलियों के बीच और गांठों पर काले पाउडर के रूप में दिखते हैं, जिस से बाजार में कीमत कम आती है व भंडारण ज्यादा समय तक नहीं रहता. नमी भरा वातावरण रोग बढ़ाने में सहायक होता है.

बल्ब रोट : लहसुन के खेत में उचित हवापानी नहीं होने से व संतुलित खाद नहीं देने से एवं खेत में अधिक पानी के भराव से कंद सड़ जाते हैं, इसलिए पानी एवं खाद संतुलित मात्रा में देने चाहिए.

फसलोत्तर प्रबंधन

* भंडारण से पहले कंदों को सुखा कर साफ कर लें.

* अच्छी तरह पके हुए, ठोस व स्वस्थ कंदो का ही भंडारण करें.

* भंडारगृह नमीरहित व हवादार हो.

* भंडारगृह में कंदों का ढेर न लगाएं. कंदों को इन की पत्तियों से गुच्छों में बांध कर रस्सियों पर लटका दें. बांस की टोकरियों में भर कर स्टोर करें.

* भंडारगृह में कंदों को संभालते रहें. सड़ेगले कंदों को निकालते रहें.

* जहां संभव हो शीत भंडारण करना अच्छा है.

* फसल की खुदाई के 3 हफ्ते पहले 3000 पीपीएम मैलिक हाइड्रोजाइड का फसल पर छिड़काव कर दिया जाए तो सुरक्षित भंडारण की अवधि बढ़ जाती है.

प्रगतिशील किसान चांडाराम बताते हैं कि लहसुन की फसल कटाई के बाद पत्तियों सहित छोटीछोटी पूलियां बना कर ढेर बनाते हैं. उस पर तिरपाल ढक देते हैं जिस से पानी अंदर न जा सके. जब भाव अच्छा हो तब निकाल कर बेच सकते हैं. इस तरह भंडारण की देशी तकनीक से एक साल तक लहसुन का भंडारण कर सकते हैं. किसान इस तकनीक के संबंध में अधिक जानकारी के लिए लेखक के मोबाइल नंबर 09413061622 पर बात कर सकते हैं.

खड़ी फसलों में यूरिया का पर्र्र्र्णीय छिड़काव कब और कैसे

अगर किसी वजह से किसी फसल में नाइट्रोजन की मात्रा नहीं दी जा सके, तो खड़ी फसल में यूरिया के 3 फीसदी घोल का पर्णीय छिड़काव कर के नाइट्रोजन की कमी को दूर किया जा सकता?है. कुछ मिट्टियों में चूने या सिंचाई वाले पानी में बाईकार्बोनेट की मात्रा ज्यादा होती है. ऐसी अवस्था में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की उपलब्धता पौधों में बहुत कम हो जाती है, खासकर जस्ते की. ऐसी हालत में 0.5 फीसदी जिंकसल्फेट का 2 फीसदी यूरिया के साथ छिड़काव करना चहिए. खड़ी फसल में उर्वरक के घोल के पर्णीय छिड़काव के निम्नलिखित फायदे हैं:

* कम मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है.

* कम मात्रा में संपूर्ण क्षेत्र में उर्वरकों का समान वितरण किया जा सकता है.

* पोषक तत्त्वों का पौधों द्वारा अच्छा उपयोग किया जाता है.

* सूक्ष्म तत्त्व जो मिट्टी में जा कर स्थिर हो सकते हैं, इस विधि से उन के नुकसान को कम किया जा सकता?है.

* ऊंचीनीची एवं रेतीली भूमियों में उर्वरकों का वितरण समान हो जाता?है.

* जहां सिंचाई के साधन कम होते हैं यानी मिट्टी में नमी के अभाव के कारण ठोस रूप में उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है. मिट्टी में नमी के अभाव में पौधों की जड़ें पोषक तत्त्वों का चूषण नहीं कर सकती हैं.

* लवणीय मृदाओं में जहां पर नाइट्रोजन का अमोनिया गैस के रूप में नष्ट होने का डर रहता है, वहां पर नाइट्रोजन की हानि को बचाया जा सकता?है.

* जलमग्न भूमियों में नाइट्रोजन का डिनाइट्रीफिकेशन हो जाता है. इस विधि के प्रयोग से नाइट्रोजन की हानि को कम किया जा सकता है.

यह है विधि

एक ड्रम में साफ पानी जिस में कचरा या अन्य पदार्थ न हों, भर लेते हैं. जिस सांद्रता का यूरिया का घोल बनाना हो, उस की गणना कर यूरिया को तोल लेते हैं. 3 फीसदी यूरिया के घोल हेतु 100 लीटर पानी में 3 किलोग्राम यूरिया की जरूरत होती है. यूरिया को पानी में डाल कर अच्छी तरह से लकड़ी या प्लास्टिक की छड़ी से हिला कर घोल देते?हैं. इस के बाद इस प्रकार से तैयार घोल में 0.1 फीसदी की दर से टीपोल या अन्य कोई भी पदार्थ जैसे साबुन का?टुकड़ा, सर्फ मिला लेते हैं, जिस से घोल चिपचिपा होने के कारण पत्तियों पर ठहर जाए और पौधों द्वारा अवशोषित किया जा सके, वरना घोल पत्तियों से नीचे गिर जाता?है. तैयार घोल को बालटी में ले कर फुट स्प्रेयर की सहायता से फसल पर छिड़काव करें. फुट स्प्रेयर उपलब्ध न होने पर नेपसेक स्प्रेयर भी काम में लिया जा सकता है. प्रति हेक्टेयर 750 से 1000 लीटर घोल का छिड़काव करें.

बरतें ये सावधानियां

*      यह ध्यान रहे कि यूरिया का घोल बनाने में प्रयुक्त यूरिया में बाइयूरेट की मात्रा 0.5 फीसदी से ज्यादा न हो, वरना फसल को नुकसान हो जाएगा.

*      फसल की बढ़ोतरी की अवस्था पर छिड़काव करना चाहिए.

*      यूरिया का छिड़काव सुबह ओस सूखने के बाद या शाम को करना चाहिए.

*      बरसात की संभावना हो तो छिड़काव न करें, वरना छिड़काव का असर खत्म हो जाएगा व नाइट्रोजन की उपलब्धता पौधों को नहीं होगी.

*      गरमियों में छिड़काव शाम को 5 बजे के बाद करें.

*      छिड़काव खेत में सभी जगह बराबर होना चाहिए. एक ही स्थान पर छिड़काव को न दोहराएं.

*      छिड़काव करते समय स्प्रेयर के घोल को समयसमय पर हिलाते रहना चाहिए.

*      यदि उर्वरक के साथ अन्य खरपतवारनाशी, कीटनाशी या कवकनाशी का भी उपयोग करना हो तो यह ज्ञात होना आवश्यक है कि इन रसायनों का मिश्रण उर्वरक के अनुरूप है या नहीं, वरना रसायन की आपस में क्रिया कर के विपरीत प्रभाव डालने का डर बना रहता है. 

केले की हाईटेक खेती से होती है ज्यादा कमाई

केला बहुत ही पौष्टिक फल है, जो ज्यादातर सभी लोगों को बहुत पसंद आता है. न्यूट्रीशन वैल्यू के पैमाने पर भी केला 100 फीसदी खरा उतरता है. केले में काफी मात्रा में विटामिन, पोषक तत्त्व होते हैं, जैसे विटामिन ए, बी 12, बी 6, सी, डी, आयरन, कैल्शियम, पोटैशियम, मैगनीशियम, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, शुगर आदि काफी इफरात से मौजूद होते हैं, जो केले की डिमांड को बहुत बढ़ाते हैं. इस से केले की पूरे साल अच्छी मांग बनी रहती है. लेकिन इस ज्यादा मांग का किसानों को तभी फायदा होगा, जब वे उम्दा क्वालिटी के ज्यादा से ज्यादा केले पैदा करेंगे.

केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और उम्दा क्वालिटी का केला  हासिल करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को समय पर सही तरीके से अपनाया जाए. जिस खेत में केले की खेती करनी हो, उस खेत की उपजाऊ ताकत यानी उस खेत में जीवाश्म की पर्याप्त मात्रा मौजूद होनी चाहिए. खेत की पानी को सोखने की क्षमता भी ज्यादा होनी चाहिए, जिस से बारिश का पानी ज्यादा समय तक खेत में खड़ा न रह सके. खेत से बारिश व सिंचाई का फालतू पानी निकालने का माकूल इंतजाम होना चाहिए. खेत से फालतू पानी निकालने के लिए खेत को लेजर लैंड लेवलर से एकसार करा लेना काफी फायदेमंद साबित होता है. केले के खेती वाले खेत की पीएच वैल्यू 6.5 से 7.5 के बीच होनी चाहिए. खेत की उपजाऊ ताकत और पीएच वैल्यू को जानने के लिए किसान अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र या जिला कृषि विभाग में संपर्क करें.

खेत की मिट्टी की जांच की सुविधा इन विभागों में मुफ्त या बहुत ही कम फीस पर उपलब्ध है और सभी किसान इस सुविधा का पूरा फायदा उठाएं तो बहुत बेहतर होगा. केला गरम आबोहवा में पैदा होने वाला फल है, इस की खेती के लिए 30-40 डिगरी सेल्सियस वाले इलाके ज्यादा मुफीद माने गए हैं. गरमी के मौसम यानी मईजून के महीनों में तेज गरम हवा से पौधों को बचाने के लिए माकूल इंतजाम रखना जरूरी होता है. तेज गरम हवा केले के लिए बहुत ही नुकसानदायक होती है. अपने इलाके की आबोहवा और खेत की उपजाऊ ताकत के आधार पर उम्दा किस्म के केले की बोआई करनी चाहिए. केले की उम्दा किस्में हरी छाल, बसराई ड्वार्फ, ग्रेंड नेन वगैरह हैं. हरी छाल किस्म के पौधे 200-260 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. इस किस्म पर बड़े आकार के केले लगते हैं. बसराई ड्वार्फ किस्म के पौधे छोटे और इस किस्म पर लगने वाले केले थोड़े मुड़े होते हैं, ग्रेंड नेन किस्म यानी टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार पौधे 300 सेंटीमीटर से ज्यादा लंबे होते हैं. इस किस्म के केले मुड़े हुए होते हैं. टिश्यू कल्चर से तैयार पौधे की फसल तकरीबन 1 साल में तैयार हो जाती है. खेत की तैयारी के समय 50 सेंटीमीटर गहरा, 50 सेंटीमीटर लंबा और 50 सेंटीमीटर चौड़ा गड्ढा खोद लें और बरसात का मौसम शुरू होने से पहले यानी जून के महीन में इन खोदे गए गड्ढों में 8.15 किलोग्राम नाडेप कंपोस्ट खाद, 150-200 ग्राम नीम की खली, 250-300 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट वगैरह डाल कर मिट्टी भर दें और समय पर पहले से खोदे गए गड्ढों में केले की पौध लगा देनी चाहिए. हमेशा सेहतमंद पौधों का चुनाव करना चाहिए. खराब और बेमेल पौधों को रोपाई के समय ही हटा दें.

केला ज्यादा पानी की मांग करने वाली फसल है. पानी की बचत और कम पानी में ज्यादा रकबे की सिंचाई करने के लिए ड्रिप इरिगेशन सिस्टम को अपनाएं और फसल पर मल्चिंग का इस्तेमाल कर पानी को धूप और हवा द्वारा उड़ने से बचाएं, ताकि पौधा पूरे पानी का इस्तेमाल कर सके. केले की फसल को ज्यादा खाद की जरूरत होती है, इसलिए खाद की खुराक मिट्टी की जांच के बाद ही तय करें. पानी की बचत के लिए जब बरसात का मौसम खत्म होता है यानी अक्तूबर के महीने में पौधे के चारों तरफ गन्ने की सूखी पत्तियां या पुआल वगैरह की 10-15 सेंटीमीटर परत बिछा दें. पौधों पर फूल यानी फल लगना शुरू हो जाए, तो पौधों को गिरने से बचाने के लिए उन्हें सहारा देने की जरूरत होती है. सहारा देने के लिए बांस के डंडों से सहारा देना चाहिए. घार में लग रहे केले की लंबाई और उस की क्वालिटी बढ़ाने के लिए नर फूल काटना जरूरी होता है. जून महीने में लगाए गए केले के पौधों में अगले साल मई महीने में फूल निकलना शुरू होता है. पौधे पर फूल दिखाई देने के 30 दिन बाद पूरी घार पर केले बनने लगते हैं.

घार में केला तैयार होने में तकरीबन 100-140 दिन का समय लगता है. टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों में 8-9 महीने बाद फूल आना शुरू होता है और तकरीबन एक साल यानी 12 महीने में फसल तैयार हो जाती है, इसलिए समय को बचाने के लिए और जल्दी आमदनी लेने के लिए टिश्यू कल्चर से तैयार पौधे को ही लगाएं. केले की फसल पर बीमारी और कीड़ों का भी हमला होता है. केले की फसल को भी बीमारी और कीड़ों से बचाना जरूरी होता है, ताकि उम्दा क्वालिटी का ज्यादा केला मिल सके. केले की फसल पर लीफ स्पौट, बंची टौप, अंथोचिनोज,  हार्ट रौट बीमारियों का हमला होता है. खड़ी फसल में जैसे ही कोई बीमारी वाला पौधा दिखाई दे, तो फौरन उसे उखाड़ कर जला दें और फसल पर कृषि विशेषज्ञ की सलाह के मुताबिक फौरन कारगर बीमारीनाशक दवा का छिड़काव करें. केले की फसल में बीटल कीट का हमला देखा गया है. फसल को कीट से बचाने के लिए केले की साफसुथरी खेती करें. बीटल कीट की रोकथाम के लिए समय पर इंडोसल्फान या किसी दूसरे कारगर कीटनाशी दवा का छिड़काव करें. 

खेतीकिसानी में जूतों की अहमियत

एक किसान हूं मैं. खेतीबारी का काम करते समय नार्मल जूते पहन कर ही काम करता हूं, जिस से वे गीले हो जाते हैं. इन जूतों को पहन कर मैं ज्यादा देर तक काम नहीं कर पाता हूं, साथ ही थकान भी हो जाती है. मैं जानना चाहता हूं कि खेतीकिसानी के काम के वक्त कौन से जूते पहनूं, जो उम्दा किस्म के हों, साथ ही किफायती भी हों?

यह सवाल किसी एक किसान ने किया था, लेकिन यह केवल एक किसान की समस्या नहीं है. इस सवाल के जवाब में किसी ने कहा कि किसान नंगे पैर ही खेतों में काम करें, तो बेहतर है, क्योंकि हमारे पैर बहुत सैंसटिव व कोमल होते हैं. जैसेजैसे हम नंगे पैर काम करेंगे, तो हमें इस की आदत हो जाएगी. हालांकि यह कोई जवाब नहीं हुआ, क्योंकि खेतों में कीड़ेमकोड़े से ले कर ईंटपत्थर व कभीकभार लोहे व फसल के पेड़ों के ठूंठ चुभने का डर रहता है. ज्वारबाजरा, अरहर, कपास की फसल कटने के बाद उन की जड़ें खेत में ही रह जाती हैं, जिन से पैरों का बचाव करना बहुत जरूरी है. बरसात के मौसम में कीड़ेमकोड़ों का खतरा अलग रहता है.

किसी दूसरे सज्जन ने सलाह दी कि आप इंडस्ट्रियल हाफ बूट या स्ट्रैन प्रूफ, वाटरपू्रफ जूते पहनें. कुछ अच्छे नामी जूते बाहर के देशों से भी मंगाए जाते हैं. उन में कैट (कैटरपिलर) जैसे ब्रांड हैं. आप इंटरनेट वगैरह से इन की जानकारी ले सकते हैं. कैटरपिलर कंपनी के जूतों की कीमत 2500 रुपए से शुरू होती है, जो 10-12 हजार रुपए तक के भी आते हैं. अन्य किसी ने बताया कि विदेश में तो किसान वैलिंगटन बूट इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि यह हार्ड प्लास्टिक के बने होते हैं व काफी मजबूत होते हैं. अब ये भारत में मिलते हैं, लेकिन ये महंगे जरूर होते हैं. बेंगलुरु के किसान ने बताया, ‘‘मैं तो खेत में काम करते समय गमबूट इस्तेमाल करता हूं, जो आमतौर पर आसानी से मिल जाते हैं. किफायती भी हैं. इन्हें आप 500-550 रुपए तक में खरीद सकते हैं.’’ इसी सिलसिले में हम ने हिल्सन फुटवेयर कंपनी से गमबूट के बारे में अधिक जानकारी लेने की कोशिश की जिस का इंडस्ट्रियल व फार्मिंग जूते बनाने वाली कंपनियों में खास नाम है. इन के जूते सस्ते व किफायती हैं. साथ ही आम किसान की पहुंच में हैं. यह जू्ता बनाने वाली हिल्सन फुटवेयर प्राइवेट कंपनी टीकरी बार्डर, बहादुरगढ़, हरियाणा में स्थित है. वहां पर सेल्स सेक्शन से जुड़े फिरदौस आलम से हमारी बात हुई, जिन्होंने हमें बताया कि उन की कंपनी अच्छी क्वालिटी के कम दामों में सेफ्टी बूट और गमबूट बनाती है, जो इंडस्ट्रियल व फार्मिंग के काम में इस्तेमाल होते हैं.

किसानों के लिए खासकर गमबूट बहुत उपयोगी हैं, जो 9 इंच से ले कर 15 इंच की ऊंचाई वाले साइज तक बनाए जाते हैं. साधारणत 9 इंच से 15 इंच तक की ऊंचाई के जूते 100-125 रुपए से ले कर 400-500 रुपए तक में आसानी से मिल जाते हैं, जिन पर पानी व धूलमिट्टी का असर नहीं होता है. उन्होंने आगे हमें बताया कि कंपनी द्वारा बनाए गए गमबूट कश्मीर व हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी इलाकों में बहुत इस्तेमाल होते हैं, क्योंकि पथरीले व झाडि़यों आदि से ये पैरों की खास सुरक्षा करते हैं और ऐसे इलाकों में ठंड ज्यादा होती है, उस समय भी ये जूते सुविधाजनक होते हैं, क्योंकि इन जूतों में खासकर पीवीसी (पौली विनायल क्लोराइड), सिंथैटिक व स्टील आदि का प्रयोग किया जाता है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में खासकर धान की खेती में, दक्षिण भारत में कौफी और चाय के बागान में गमबूटों का काफी चलन है. हालांकि उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान अपनी सुरक्षा के प्रति कम जागरूक हैं. उन्हें भी ये जूते इस्तेमाल करने चाहिए. इस के अलावा दूसरी कंपनियां भी फार्मिंग में काम आने वाले जूते बना रही हैं जैसे टोलेक्सो (बीटा टोलेक्सो). इस के जूते लगभग 500 रुपए से शुरू होते हैं. मंगला के नाम से फार्मिंग जूते बाजार में मौजूद हैं, जिस मे अनेक डिजाइन भी हैं. इन की कीमत भी भारतीय किसानों की पहुंच में है. आखिर में नतीजा यही निकलता है कि एक तरफ जहां अनेक तरह के जूते बाजार में हैं, तो आज हमारे किसान अपने पैरों की सुरक्षा को ले कर इतने लापरवाह क्यों हैं? उन्हें भी अपने पैरों की सुरक्षा का खास ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि पैरों में अगर कहीं चोट आदि लगी तो जूते खरीदने से ज्यादा उस के इलाज पर खर्च हो जाएगा.

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