दुनिया भर में क्रूरता, कट्टरपन और कठमुल्लेपन का पर्याय बन चुके तालिबान का संस्थापक और एकछत्र नेता मुल्ला उमर अपने जीवनकाल में रहस्य में लिपटी पहेली सी रहे. उस की मौत और भी ज्यादा रहस्यमय रही. कुछ दिनों पहले यह खबर आई कि 2 साल पहले पाकिस्तान में उस की मौत हो गई. अब ये सवाल उठने लगे हैं कि 2 सालों तक कौन मुल्ला उमर की जगह तालिबान का नेतृत्व करता रहा, कौन अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ युद्ध का संचालन करता रहा, मुल्ला उमर का काल्पनिक तौर पर जिंदा रहना किस के हितों की रक्षा करता रहा? बहुत से अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि मुल्ला उमर के 2 साल तक जीवित होने का भ्रम बनाए रख कर पाकिस्तान नए तालिबान प्रमुख मंसूर के माध्यम से अफगानिस्तान में आतंक का तांडव कर अफगानिस्तान सरकार पर अपना वर्चस्व कायम करता रहा. गौरतलब यह है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार का बहुत नजदीकी है और वहां आतंक फैलाने वाले व कभी सत्तारूढ़ रहे तालिबान का भी. लेकिन वह 2 साल तक ‘चोर से कहे चोरी करो हवलदार से कहे जागते रहो’ का खेल खेलता रहा. अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक मानते हैं कि मुल्ला उमर व तालिबान और कुछ नहीं, पाकिस्तान के हाथों के खिलौने रहे हैं. यह बात अब सच भी लगती है क्योंकि पाकिस्तान अब अफगानिस्तान में शांति कायम करना चाहता है, इसलिए उस ने मुल्ला उमर को क्या दिया. अब उसे इस भ्रम को ढोने की आवश्यकता नहीं रह गई कि एक आंख वाला तालिबान का नेता मुल्ला उमर अभी जीवित है. पाकिस्तान के लिए मुल्ला उमर की उपयोगिता खत्म हो गई थी. बहरहाल, मुल्ला उमर के बाद नेता के सवाल ने संगठन में खेमेबंदी के हालात पैदा कर दिए हैं.
पाकिस्तान की साजिश
तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर के मारे जाने के बाद उस के बेटे मुल्ला याकूब की भी मौत हो गई है. वर्चस्व की लड़ाई के चलते मुल्ला उमर के बाद संगठन के सरगना बने मुल्ला अख्तर मोहम्मद मंसूर ने मुल्ला याकूब की हत्या करवा दी है. अफगानिस्तान के सांसद जाहिर कादिर के कथनानुसार मुल्ला याकूब अपने पिता की मौत के बाद तालिबान पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता था. लेकिन रहस्यमयी तरीके से सरगना अख्तर मंसूर ने उस का कत्ल करवा दिया. पाकिस्तानी साजिश सामने आ गई है. पाकिस्तान ने एक साजिश के तहत अपने खास तालिबान कमांडर मुल्ला मोहम्मद मंसूर को तालिबान के अंदर मजबूत किया. मुल्ला मंसूर अब तालिबान चीफ हो गया. वहीं अभी तक अफगानिस्तान-तालिबान शांतिवार्त्ता में की जा रही पाकिस्तानी साजिश भी सामने आ गई है. पाकिस्तान ने पूरे तालिबान को हाईजैक कर इस शांतिवार्त्ता को शुरू करवाया जिस से कई महत्त्वपूर्ण तालिबान कमांडर सहमत नहीं थे. यहां तक कि मुल्ला उमर के कई करीबी कमांडर और रिश्तेदार अफगान शांतिवार्त्ता का विरोध कर रहे थे.
तालिबान में विभाजन
अफगान तालिबान में विभाजन की खबर पहले से आ रही थी. तालिबान के 3 गुट पहले से ही काम कर रहे हैं. विभाजन स्पष्ट रूप से तब दिखा जब पाकिस्तान प्रायोजित शांतिवार्त्ता शुरू हुई. इस का विरोध कतर स्थित तालिबान पौलिटिकल कमीशन ने लगातार किया. खुद तालिबान के प्रवक्ता ने साफ कहा कि तालिबान और अफगान पीस काउंसिल की वार्त्ता से वह सहमत नहीं है. शांतिवार्त्ता को ले कर तालिबान के विभाजन को खत्म करने के लिए इसलामाबाद के अंदर तालिबान के 2 विरोधी कमांडरों की बैठक आईएसआई ने कुछ महीने पहले करवाई थी. बैठक में मुल्ला मंसूर और मुल्ला जाकिर शामिल हुए थे. जाकिर पाकिस्तान प्रायोजित वार्त्ता का विरोध कर रहा था. जाकिर और मंसूर का आपस में पुराना विरोध है. जाकिर मंसूर के बढ़ते प्रभाव और तालिबान को पूरी तरह से पाकिस्तानी कब्जे में ले जाने की साजिश से नाराज था. अब खबर आई है कि मंसूर ने बीते दिनों क्वेटा में जब तालिबान कमांडरों की बैठक बुलाई तो मुल्ला जाकिर और मुल्ला उमर का बेटा याकूब और भाई अब्दुल मन्नान ने बैठक का बायकाट किया. विभाजित तालिबान का एक गुट, जिस में उमर का बेटा, मुल्ला जाकिर आदि शामिल हैं, ईरान के संपर्क में थे. ईरान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान पूरी तरह से पाकिस्तानी नियंत्रित तालिबान के प्रभाव में आए. इस में एक तात्कालिक कारण भी है. हक्कानी नैटवर्क का सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान का डिप्टी चीफ हो गया है जो सऊदी अरब के इशारे पर भी नाचता है. वर्ष 1980 से ही जलालुद्दीन हक्कानी और उस के लड़ाके सऊदी अरब के नजदीक रहे हैं, जब उन्होंने सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में लड़ाई शुरू की थी. सऊदी अरब के समर्थित लड़ाकों को ईरान पसंद नहीं करता है.
अफगानिस्तान में पाक का खेल
पाकिस्तान ने बीते 1 साल में भारत को अफगानिस्तान से बाहर करने के लिए कई साजिशें रचीं. पाकिस्तान को बस हामिद करजई की विदाई का इंतजार था. बाकी पाकिस्तान ने सारा प्लौट तैयार कर रखा था. अशरफ गनी के राष्ट्रपति बनते ही पाकिस्तान ने खेल शुरू कर दिया. तालिबान के हक्कानी नैटवर्क को आईएसआई ने मुल्ला मंसूर के नजदीक कर दिया. आईएसआई के इशारे पर ही अब हक्कानी नैटवर्क के जलालुद्दीन हक्कानी के बेटे सिराजुद्दीन को तालिबान का डिप्टी चीफ बनाया गया है. इन फैसलों ने साबित किया कि तालिबान का स्वतंत्र चरित्र खत्म करने की साजिश हो रही है. पाकिस्तानी सेना पूरी तरह से तालिबान को नियंत्रण में लेने की कोशिश कर रही है. लेकिन पाकिस्तान यह भूल गया कि तालिबान बेशक सुन्नी इसलाम की बात करता है, लेकिन मूलरूप से यह पश्तूनों का संगठन है, जिन के मूल में पाकिस्तान विरोध है. ये पाकिस्तान-अफगानिस्तान के विभाजक सीमारेखा डूरंड लाइन को आज भी स्वीकार नहीं करते और पाकिस्तान के हिस्से वाले खैबर पख्तूनख्वा राज्य पर अपना दावा करते हैं. इसलिए तालिबान का विभाजन तय है. तालिबान के दोनों गुटों का टकराव निकट भविष्य में दिखेगा. मुल्ला उमर के खास कमांडर अभी भी मंसूर का विरोध कर रहे हैं. अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान के दोनों हाथों में लड्डू हैं. उसे विश्वास है कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान एक बार फिर अफगानिस्तान की सत्ता हासिल करने में कामयाब होगा. आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरे खेल खेलने के लिए बदनाम पाकिस्तान अफगानिस्तान में भी दोहरे खेल खेल रहा है. एक तरफ अशरफ गनी की चुनी हुई सरकार का समर्थन कर रहा है तो दूसरी तरफ तालिबान को पाकिस्तानी सेना नैतिक और सैनिक समर्थन दे रही है और तालिबान से उस के नजदीकी रिश्ते हैं. पाकिस्तान जानता है कि हर हालत में लाभ उसी को है. इस कारण अफगानिस्तान पर आतंकवादी, कट्टरपंथी, तालिबान की सत्ता में वापसी का खतरा मंडराने लगा है.
धोखे में अफगानी राष्ट्रपति
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी खुद भी इस हकीकत से भलीभांति वाकिफ हैं, इसलिए वे पहले पाकिस्तान गए ताकि तालिबान को किसी तरह शांतिसुलह के लिए मनाया जा सके. यहां तक कि गनी ने पाक सैन्य जनरलों की खुशामद में रावलपिंडी स्थित पाक सेना के मुख्यालय जा कर प्रोटोकौल भी तोड़ा. हालांकि, जिस तरह तालिबान के हमले लगातार उग्र होते जा रहे हैं, उस से साफ है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान की नई सरकार को धोखे में रख रहा है. नए तालिबान को अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषक-मेड इन पाकिस्तान–तालिबान कहते हैं और भारत के लिए इसे पुराने तालिबान से ज्यादा खतरनाक मानते हैं. तालिबान के नए सुप्रीमो अख्तर मंसूर न केवल पाकिस्तान के लिए काम करते रहे, बल्कि कंधार विमान अपहरण के दौरान उस ने रिहा किए गए अजहर मसूद को रिसीव किया था. तालिबान का नया उपनेता सिराजुद्दीन हक्कानी, 2008 के काबुल के भारतीय दूतावास पर हुई बमबारी के लिए जाना जाता है जिस में 58 लोग मारे गए थे.
वैसे पाकिस्तान के लिए यह कोई नया काम नहीं है. वह हमेशा ही विभिन्न उग्रवादी संगठनों को मैनेज करता रहा है. लेकिन सवाल यह है कि क्या तालिबान शांतिवार्त्ता के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेगा जिस में चीन और अमेरिका दोनों शामिल हों.
भारत के लिए खतरा तालिबान
नया मेड इन पाकिस्तान तालिबान भारत के लिए नुकसानदेह ही होगा क्योंकि भारत हमेशा उस के निशाने पर होगा. भारत में अगर कोई अभी तक ऐसा सोचता भी होगा कि तालिबान तक पहुंच बनाई जा सकती है तो उसे अब अपना इरादा छोड़ना होगा क्योंकि नए तालिबानी नेतृत्व पर पाकिस्तान की आईएसआई का कड़ा शिकंजा होगा. वहीं, आईएस तालिबान के लिए बहुत बड़ा खतरा बनता जा रहा है. पिछले काफी समय से वह अफगानिस्तान में अपने पांव पसारने की कोशिश कर रहा है. उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है. इस कारण से दोनों संगठनों में अफगानिस्तान में कई जगह संघर्ष भी हो चुके हैं. तालिबान के सामने सब से बड़ी चुनौती यह है कि वह कितनी जल्दी गनी की सरकार को अपदस्थ करता है. यदि इस में देर लगी तो आईएस को अफगानिस्तान में पांव जमाने का मौका मिल जाएगा. हो सकता है तालिबान को एक गृहयुद्ध आईएस के साथ लड़ना पड़े. तालिबान जानता है कि आईएस की तुलना में अमेरिका उसे ही पसंद करेगा.