कांस फिल्म समारोह में पुरस्कृत की गई हिंदी फिल्म  ‘मसान’ का नायक दीपक चौधरी नीची जाति का है जो अपने खानदानी पेशे को आगे बढ़ाते हुए काशी के बनारस के एक घाट में मुर्दों को जलाने का काम करता है. दीपक कसबे की लड़की शालू गुप्ता की ओर आकर्षित होता है और 1-2 मुलाकातों में ही प्रेमप्रसंग बन जाता है. एक दफा दीपक अपनी मित्रमंडली के बीच अपने प्रेम के किस्से चटकारे ले ले कर सुना रहा होता है, तभी एक मित्र बनारसी लहजे में टोकता है,  ‘‘गुरु, प्यारव्यार तो बहुत हो गया पर लौंडिया अपर कास्ट की है और तुम नीची जाति के. समझ रहे हो न? उस को अपने बारे में बता तो दिए हो न? बाद में दिक्कत हो जाएगी, पहले बताए दे रहे हैं.’’ इतना सुनते ही दीपक का चेहरा मुरझा जाता है और खुद को नीच जाति का स्वीकृत करते हुए वह कहता है कि अबे, अब की बार मिलेंगे तो बता देंगे.

बहरहाल, अगले घटनाक्रम में शालू तीर्थयात्रा से लौटते समय बस दुर्घटना में मर जाती है और दीपक को उस की लाश जलानी पड़ती है. इस तरह तथाकथित ऊंची जाति की लड़की का निम्न जाति के लड़के से फिर से मिलन नहीं हो पाता. याद आता है फिल्म  ‘शोले’ का प्रकरण. इस फिल्म का एक अनोखी और सामाजिक सरोकारी चश्मे से विश्लेषण यह भी है कि नायक जय (अमिताभ बच्चन) पिछड़ी जाति से है और उच्च वर्ण के ठाकुर की विधवा से प्रेम करने लगता है. मामला एकतरफा नहीं है. विधवा की भी इस प्रेम को मूक सहमति है. लेकिन फिल्म के निर्मातानिर्देशक में शायद समाज के जातिगत ढांचे को तोड़ने की न तो हिम्मत थी और न ही नीयत. इसलिए इन्हें मिलाने के बजाय संकीर्ण रास्ता निकाला गया और जय को मरवा दिया जाता है. अलगअलग समाज और समयकाल में रिलीज हुईं फिल्म  ‘मसान’ और  ‘शोले’ के एकजैसे दिखते प्रकरणों में जिस तरह 2 असमान जाति के लोगों को मिलाने के साहसी कदम के बजाय, नाटकीय मौत का दृश्य रचा गया है वह फिल्म इंडस्ट्री की मानसिक संकीर्णता और वहां फैली जातिगत सड़ांध की ओर इशारा करते हैं. वहां भी हिंदू धर्म के ज्यादातर पाखंड, पूजापाठ और अंधविश्वास के साथ जातिगत भेदभाव की भावना पल रही है. हर दौर में फिल्मी बिरादरी का परंपरागत रूढि़वादी तबका दलित और पिछड़े समाज को ले कर नाकभौं सिकोड़ता रहा है.

ऊंची जातियों का दबदबा

सामाजिक सरोकारों को ले कर भारत में ढेरों फिल्में बनीं पर उन में सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. सवर्ण हिंदू समाज ने पिछड़ों और दलितों को कभी अपने बराबर का मनुष्य नहीं माना. हिंदी सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. शायद यही वजह है कि पिछले साल 300 से ज्यादा फिल्में प्रदर्शित हुईं लेकिन पिछड़े व दलित तबके के नायकों की कहानी इक्कादुक्का फिल्मों में थी, बाकी सारी फिल्मों के लीड किरदार सवर्ण, कपूर, शर्मा और चतुर्वेदी बने दिखे. किसी भी नायक का नाम न तो पासवान था, न भागवत और न ही कुशवाहा.

एक अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 2 वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थीं जिन में शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दिखाया गया. यह भेदभाव सिर्फ परदे तक ही सीमित नहीं है. बौलीवुड में बिरादरी का खेल भी होता है. 2013 की फिल्मों में 4 लीड अभिनेता क्रिश्चियन, 1 जैन, 3 सिख, 5 मुसलिम और बाकी 65 ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते थे. ये आंकडे़ फिल्मों में जातिगत भेदभाव को साफ जाहिर करते हैं. देश के अन्य संस्थानों की तरह यहां भी ऊंचे पदों पर उच्च जाति के लोगों का कब्जा है और निम्न व पिछड़े तबके या तो फिल्म स्टूडियो में चपरासी का काम कर रहे हैं या फिर स्टंटमैन व स्पौटबौय की हैसियत से आगे नहीं बढ़ पाते.

हाशिए पर जनक

1913 में जब ल्युमिअर ब्रदर्स ने बाहर से आयातित रीलें भारत में दिखाईं तो इन फिल्मों को ले कर समाज, संस्कृति के ठेकेदार बड़े खिलाफ थे. तब सिनेमा को स्वीकारने के लिए उच्च जाति का कोई नुमाइंदा नहीं आया. इसे वेश्यागीरी  सरीखा काम माना जाता था. ऐसे में दादा साहब फाल्के की हरिश्चंद्र तारामती में तारामती के किरदार के लिए कोई उच्च जाति की अभिनेत्री नहीं मिली. ऐसे समय में सिनेमा की बागडोर दलित, मुसलिम और एंग्लोइंडियन परिवारों के स्त्रीपुरुष कलाकारों ने संभाली. सिनेमा जैसे माध्यम को दलित, पिछड़े तबके ने अपने खूनपसीने से सींचा और इस सिनेमाई पौधे के फल देने लायक होते ही, इस का विरोध करने वालों को इस में अचानक से कलासंस्कृति के नजारे दिखने लगे, और वे इस में घुसपैठ करने लगे. और उस तबके को हाशिए पर खड़ा कर दिया जिस ने इस माध्यम को खड़ा किया था. आज कोई उस अभिनेत्री का नाम  नहीं जानता जिसे मात्र डालडा के विज्ञापन में काम करने के चलते सोसायटी से यह कह कर निकाल दिया गया था कि यहां शरीफ रहते हैं.

कपूर, बजाज और सिंघानिया

फिल्म बजरंगी भाईजान में सलमान के किरदार का नाम पवन चतुर्वेदी है जो एक दृश्य में बाल कलाकार के गोरी होने के चलते उसे उच्च जाति से जोड़ते हुए कहता है कि गोरी है, ब्राह्मण होगी. यह अकेला संवाद हिंदी फिल्मों में जातिगत भेदभाव, संभ्रांत वर्ग की दलितों और पिछड़ों के प्रति नस्लीय विचारधारा को उजागर करने के लिए काफी है. अकसर फिल्मों के नायकों की जाति उच्च वर्ण की होती है. कभी हीरो खुद को आदित्य बजाज बताता है तो कभी राहुल सिंहानिया, कभी सचिन गुप्ता तो कभी मनोहर लाला. जिन के नामों में जाति का उल्लेख नहीं होता उस का चरित्रचित्रण पूरा सवर्ण हिंदू मर्द जैसा ही होता है. कुछ फिल्मों में अगर कोई दलित या पिछड़ा चरित्र होगा भी, तो दलित पात्र हमेशा पीडि़त, शोषित और न्याय की गुहार के लिए दरदर भटकता दिखेगा. उस का कल्याण भी किसी सवर्ण के ही हाथों होता है. शायद इसलिए दक्षिण के एक डौक्यूमैंट्री फिल्मकार ने अपनी फिल्म का टाइटल ‘डोंट बी अवर फादर्स’ रखा. असल जीवन में भी सवर्ण कलाकारों का ही दबदबा है. पिछड़ों के नाम पर सीमा बिस्वास, रघुवीर, राजपाल यादव, राजकुमार यादव व कैलाश खेर जैसे नाम हैं. मुसलिमों में भी खानों का ही दबदबा है. समकालीन हिंदी सिनेमा में किसी बड़े दलित अभिनेताअभिनेत्री का नाम याद नहीं आता.

धर्म, वर्ण और फिल्मशास्त्र

रामायण, महाभारत, संतोषी माता और भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र समेत भस्मासुर मोहनी, सत्यवान-सावित्री, लंका दहन, द्रौपदी चीरहरण और अन्य धार्मिक ग्रंथ लंबे समय तक फिल्मों के कथानक का स्रोत रहे, जिन का मूलाधार तुर वर्ण व्यवस्था को कायम रखना और उन का महिमा मंडन करना ही रहा है. सिनेमा के जड़ में ही धर्म, वर्ण कथानकों का प्रचार किया गया है. फिल्में चमत्कारों और अंधविश्वासों से भरी होती हैं. उन में दिखाया जाता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय ही सब का उद्धार करेंगे. भगवान ने इन्हें पिछड़ों और दलितों का कल्याण करने के लिए भेजा है. ऐसी फिल्में कमाई भी खूब करती थीं. याद हगा शोले के आसपास रिलीज फिल्म जय संतोषी मां ने रिकौर्ड बिजनैस किया था.

दलितों सा व्यवहार

साल 2011 में रामविलास पासवान अपने बेटे चिराग पासवान की डेब्यू फिल्म  ‘मिले न मिले हम’ का जोरशोर से प्रचार कर रहे थे. प्रैस बुलावे में यह प्रतिनिधि भी गया. जब वहां चिराग के कैरियर को ले कर भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा हुई तो कइयों ने दबी जबान में कहा, लिख लो हिंदी फिल्मों में दलित हीरो का चलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. 5 साल हो चुके इस बात को और चिराग के बारे में कही गई वह बात सच निकली. गया (बिहार) में महादलित दशरथ मांझी, जिन्होंने सिर्फ अपने दम पर 22 साल एक पहाड़ को तोड़ कर अतरी से वजीरगंज ब्लौक का रास्ता 55 किलोमीटर से घटा कर 15 किलोमीटर कर दिया, पर निर्देशक केतन मेहता ने 4 साल पहले ‘मांझी द माउंटेन मैन’ फिल्म बनाई लेकिन सालों तक भी किसी वितरक ने न खरीद कर इस फिल्म के साथ भी दलितों सा व्यवहार किया. कोई उच्च जाति का निर्माता भला एक महादलित की फिल्म पर पैसे क्यों लगाता. कैलाश खेर को कई बार ऐसे ही कड़े अनुभव हुए. राजकुमार यादव ने तो नाम बदल कर राजकुमार राव कर लिया है. फिल्मों से जुडे़ एक कलाकार बताते हैं, एक बार उन्हें सिर्फ दलित होने के चलते शूटिंग स्थल से किराया दे कर लौटा दिया गया था.

दलित चित्रण का सिनेमा

तमिल फिल्मों में सब से ज्यादा दलित और पिछड़े नायकों को वरीयता दी गई जबकि हिंदी में एक दशक के दरम्यान 750 से ज्यादा कलाकार, जिन्होंने 5 से ज्यादा फिल्में कीं, उच्च हिंदू जाति के थे. 2014 की सभी फिल्मों में मात्र 9 मुसलिम लीड किरदार दिखे. अजय देवगन ने ‘ओमकारा’, ‘लज्जा’, ‘राजनीति’ और ‘आक्रोश’ जैसी फिल्मों में पिछड़ी जाति के किरदार किए हैं. कुछ वाम विचारधारा के निर्मातानिर्देशकों और नई सोच के लोगों ने दलित और दरकिनार विषयों को मुख्य कथानक बनाया. कुछ ऐसी ही फिल्में गौरतलब हैं :

1984 में गौतम घोष निर्देशित फिल्म ‘पार’ दलित व पिछड़ों पर बनी बेहद अहम कृति है. बिहार के ग्रामीण इलाके पर आधारित कहानी कुछ यों है : एक शिक्षक के गांव के दलित को चुनाव में खड़ा करने की कोशिश से दलित चुनाव जीत जाता है. उत्साहित गांव के मजदूर, जमींदार के यहां न्यूनतम मजदूरी पर काम करने से मना कर देते हैं. बौखलाया जमींदार स्कूल मास्टर की हत्या करवा देता है. जवाब में विद्रोही दलित नौरंगिया साथियों के साथ जमींदार के भाई की हत्या करता है. बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगवा देता है. किसी तरह नौरंगिया और उस की गर्भवती पत्नी कलकत्ता भाग जाते हैं. लेकिन शहर में अनिश्चितकालीन हड़तालों व रोजगार न मिलने के चलते दोनों गांव लौटने के लिए विवश होते हैं. किराए का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है, सूअरों के झुंड को नदी पार कराने का. इस काम में उसे रोटी तो मिल जाती है और पैसा भी, पर उस की पत्नी के पेट में पलने वाला उस का बच्चा मर जाता है. दलित जीवन की भयानक त्रासदियों भरी यह फिल्म उच्च बनाम निम्न जाति के संघर्ष को बखूबी बयान करती है. 2015 की नागराज मंजुले निर्देशित मराठी फिल्म ‘फैंड्री’ भी कुछ ऐसी ही है. एक बच्चा जो हर जगह दलित होने के चलते सवर्णों के अत्याचार सहता है, उसे सब फैंड्री बुलाते हैं. यह महाराष्ट्र के एक दलित समुदाय कैकाड़ी द्वारा बोली जाने वाली बोली का शब्द है जिस का अर्थ सूअर होता है. फिल्म में सूअर को छुआछूत के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है. इसी तरह 1973 में प्रदर्शित फिल्म ‘अंकुर’ में सामंती मूल्यों के खिलाफ एक लड़ाई दिखी.

हिंदी फिल्मों में इस तबके की आवाज प्रमुखता से उठाने वाली फिल्मों में ‘अछूत कन्या’ (1936) का नाम प्रमुख है. 1934 में बनी ‘चंडीदास’ फिल्म में अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट की गई. 1957 में फिल्म ‘अर्पण’ गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडलिका के प्रेम के इर्दगिर्द बुनी गई. इस में दलित चेतना के संकेत थे. इसी कड़ी में 1959 में बनी फिल्म ‘सुजाता’ दलित विमर्श की बात करती है. 1975 में श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ में जमींदारी व अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को प्रतिबिंबित किया. फिल्म में मास्टर साहब यानी गिरीश कर्नाड की पत्नी का जमींदार के बेटे अपहरण करते हैं. लाचार मास्टर गांव को संगठित कर जमींदार को धूल चटाता है. फिल्म ‘मंथन’, जो गुजरात के नैशनल डेरी डैवलपमैंट कौर्पोरेशन के अध्यक्ष वी कुरियन के सहयोग से बनी, में इशारा किया गया कि कैसे जातिवाद और अस्पृश्यता कुछ रचनात्मक करने की राह में रोड़ा बने हैं.

1980 में आई गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’ में आदिवासी विद्रोह की मार्मिक झलक थी. भीखू लहन्या (ओमपुरी) पत्नी की हत्या के जुर्म में कैद है. अपने बचाव में खामोश है. अपने पिता के अंतिम संस्कार के समय जेल से निकला भीखू अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि वह समाज की दरिंदगी का शिकार न बने. दलितआदिवासी जीवन के वीभत्स यथार्थ को परदे पर उतारती फिल्म ‘आक्रोश’ में सांकेतिक तौर पर नक्सलवाद की अनुगूंज है. प्रकाश झा ने जातिवादी व्यवस्था को ले कर अपनी हर फिल्म में करारा व्यंग्य कसा है. उन की 1984 में आई ‘दामुल’ में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में दलित कैसे पिसते हैं, बखूबी दिखा.

उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित फिल्म ‘देबशिशु’ में धार्मिक शोषण को अलग अंदाज में बयान किया गया. फिल्म एक ऐसे दलित मातापिता के 3 सिर वाले अजीबोगरीब बच्चे की कहानी है जिसे अशुभ और दैवीय आपदा बता कर एक तांत्रिक छीन लेता है. बाद में इस बच्चे को अवतार प्रचारित कर मोटी कमाई करता है. जगमोहन मुंद्रा की फिल्म ‘बवंडर’ और ‘बैंडिट क्वीन’ में भी दलित शोषण की तसवीरें नजर आईं. इसी तरह ‘सुष्मन’, ‘महायात्रा’, ‘बंटवारा’, ‘भीम गर्जना’, ‘धारावी’, ‘दीक्षा’, ‘टारगेट’, ‘समर’, ‘डा. बाबासाहेब अंबेडकर’, ‘लगान’, ‘एकलव्य : द रौयल गार्ड’, ‘धर्म’, ‘चक्रव्यूह’, ‘आरक्षण’, ‘अछूत’, ‘बूटपौलिश’ और ‘सद्गति’ जैसी फिल्में जातिगत व्यवस्था में जकड़े समाज की पीड़ा प्रदर्शित करती हैं. हालांकि सिनेमा के माध्यम से इन कथानकों को ले कर जिस तल्खी और शिद्दत से आवाज उठाने की दरकार है वह नहीं दिखती. लिहाजा, सिनेमा में जातिवादी भेदभाव आज भी कायम है.

कब बदलेगी मानसिकता

जाति भारतीय समाज की एक कटु सचाई है. आजादी और संवैधानिक हक मिलने के बावजूद जातिप्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई. फिल्में अपने समय और समाज का आईना होती हैं. लेकिन समाज और साहित्य में जो भेदभाव दलितों के साथ होता आया है वही सिलसिला फिल्मों में क्यों जारी है, यह बात खटकती है. बहरहाल, जितना दोषी शोषक होता है उतना ही शोषित भी. कई मानों में दलित व पिछड़े वर्ग खुद इस हालत के जिम्मेदार हैं क्योंकि यही धर्म के नाम पर पंडितों से कर्मकांड करवाते हैं, उन के चरण धो कर पीते हैं, देवीदेवताओं से चमत्कार की उम्मीद पालते हैं और अपनी दुर्दशा को भगवान और नियति का फैसला मानते हैं. फिर उन का शोषण होता है तो उन्हें खुद ही आवाज उठानी चाहिए. अगर फिल्म बिरादरी इन के साथ जातिगत भेदभाव करती है तो, ‘अंकुश’, ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘शूद्र’ जैसी फिल्मों के समाधान इन्हें भी अपनाने होंगे. महादलित मांझी पर आधारित फिल्म का यह संवाद समझने के लिए काफी है कि भगवान के भरोसे मत बैठिए, हो सकता है भगवान हमारे भरोसे बैठा हो.

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