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क्या द्रोण आचार्य कहलाने के पात्र थे…?

महाभारत काल में और आज के समय में समाज, नैतिक मूल्यों, विचारधारा और शिक्षा आदि क्षेत्रों में बहुत बदलाव आया है. कुछ सामाजिक परिस्थितियों के चलते तो कुछ भारतीय समाज के गिरे हुए नैतिक मूल्यों के प्रसार ने शिक्षा जैसे सामाजिक कार्य को भी व्यवसाय बना दिया है. यहां हमारा उद्देश्य शिक्षकों की बदलती स्थिति की चर्चा करना नहीं बल्कि एक ऐसे गुरु की छवि की चर्चा करना है जिसे बरबस ही प्रसिद्धि मिल गई, जिसका प्रमाण है कि आज भी कई लोगों के मुख से यह कहते सुना जा सकता है, ‘आज द्रोणाचार्य जैसे आदर्श गुरु नहीं रहे और अर्जुन जैसे शिष्यों की संख्या भी नाममात्र रह गई है.’

जिन लोगों ने महाभारत नामक ऐतिहासिक ग्रंथ का गंभीरता से अध्ययन किया है उनकी नजर में परशुराम के शिष्य और पांडवों व कौरवों के गुरु आचार्य द्रोण की छवि कदापि आदर्श गुरु की नहीं हो सकती. महाभारत को धार्मिक ग्रंथों के बजाय ऐतिहासिक ग्रंथों की श्रेणी में इसलिए रखा गया है, क्योंकि महाभारत में धर्म का पालन अगर कौरवों ने नहीं किया तो पांडव पुत्र भी धर्म के मार्ग से कई बार विचलित हुए हैं. अत: इसे धार्मिक न कहा जाए तो शायद ज्यादा बेहतर होगा.

अब बात आती है गुरु द्रोण की आदर्शता को लेकर प्रमाण की. चलिए, द्रोण के जन्मकाल की विचित्र कथा से शुरू करते हैं. द्रोण, जो जाति प्रथा के कट्टर समर्थक थे, उन के खुदके जन्म की कथा बेहद विचित्र है. मुनि भरद्वाज बहुत कठोर व्रतों का पालन करने वाले थे. एक दिन उन्हें एक खास तरह के यज्ञ का अनुष्ठान करना था. इसलिए वह मुनियों आदि को साथ लेकर गंगा में स्नान करने गए. वहां महर्षि भरद्वाज ने घृताची अप्सरा को देखा जो पहले से ही स्नान करके नदी के तट पर खड़ी वस्त्र बदल रही थी. वस्त्र बदलते समय उस रूपवती का वस्त्र खिसक गया और उसे उस अवस्था में देख कर भरद्वाज महर्षि का मन डोल गया.

ऋषि का मन उस अप्सरा में आसक्त हुआ, इस से उन का वीर्य स्खलित हो गया. ऋषि ने उस वीर्य को द्रोण यानी यज्ञकलश में रख दिया. तब उस कलश से बालक उत्पन्न हुआ. बालक का जन्म द्रोण से हुआ था इसलिए उस का नाम द्रोण ही रख दिया. इस प्रकार द्रोण को ऋषि भरद्वाज की संतान माना जाता है. कितनी विचित्र है यह कथा.

स्पष्ट है द्रोण किसी विवाहेत्तर संबंध से उत्पन्न हुए. द्रोण ने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता भरद्वाज से प्राप्त की किंतु मूल रूप से वह परशुराम के शिष्य कहलाए. परशुराम जिस समय वन में जाने की इच्छा से अपना सर्वस्व दान कर रहे थे तो द्रोण उन के सामने पहुंचे और बोले, ‘‘मैं भरद्वाज पुत्र द्रोण धन की इच्छा से आया हूं और ऐेसे धन की याचना करता हूं जिस का कभी अंत न हो.’’ किंतु उस समय परशुराम अपना सबकुछ दान कर चुके थे. उन्होंने द्रोण को अस्त्रशस्त्रों का ज्ञान अथवा अपना शरीर दान में लेने के लिए कहा. द्रोण ने उन से अस्त्रशस्त्र का ज्ञान दानस्वरूप ग्रहण किया.’’

इस में कोई शक नहीं कि द्रोणाचार्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण योद्धा थे किंतु ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध व प्रतिशोध की भावनाओं से भरपूर द्रोण ने भेदभाव और पक्षपात की नीति को अपना कर खुद अपनी छवि पर कई दाग लगा दिए.

बात गुरु द्रोण के विद्याकुल से शुरू की जाए तो इस तथ्य को साबित करने में आसानी हो जाएगी कि द्रोण में प्रतिशोध व क्रोध की भावना शुरू से ही कूटकूट कर भरी हुई थी, जिसे वह जीवन के आखिरी समय तक त्याग नहीं सके. द्रोण व द्रुपद एक ही गुरु महर्षि अग्निवेश के शिक्षार्थी थे. दोनों की गहरी दोस्ती एक मिसाल थी. इसी गहरी दोस्ती के चलते द्रुपद के राजसिंहासन पर बैठने के बाद द्रोण ने अपने दोस्त को उस के वचन की याद दिलाई किंतु द्रुपद ने द्रोण को अपमानित कर दिया. शायद द्रोण, द्रुपद के राज्य न देने को ही अपमान समझ बैठे. उस समय उन के मन में बेहद क्रोध तथा प्रतिशोध की भावना को महाभारत ग्रंथ के संभवपर्व के 12वें श्लोक में इस प्रकार प्रकट किया है :

द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाज: प्रतापवान..

मुहूर्ते चिंतयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुत:.

स विनिश्चित्य मनसा पांचाल बुद्धिमान.

जगाम कुरु मुख्यानां नगरं नाग साहृयम्॥

(अर्थात राजा द्रुपद के मना करने पर प्रतापी द्रोण क्रोध से जल उठे और दो घड़ी तक गहरी चिंता में डूबे रहे. वे बुद्धिमान तो थे ही, पांचाल नरेश से बदला लेने के बारे में मन ही मन कुछ निश्चय कर के कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर चले गए.)

भीष्म के द्वारा द्रोण को कौरवों तथा पांडवों का गुरु नियुक्त करने पर द्रोण को दु्रपद से प्रतिशोध लेने का मार्ग नजर आने लगा. अपने इस मनोभाव को उन्होंने भीष्म के समक्ष प्रकट भी किया. महाभारत के संभवपर्व के 76वें श्लोक में वह कहते हैं:

अभ्यागच्छं कुरुन् भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वतै:.

ततोऽहं भवत: कामं संवर्धयितुमागत:.

इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते.

(अर्थात मैं गुणवान शिष्यों के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि चाहता हुआ आप के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए ही पांचाल देश से हस्तिनापुर नगर में आया हूं. बताइए, मैं आप का कौन सा प्रिय कार्य करूं.)

गुरु द्रोण द्वारा शिक्षा शुरू करने की नींव ही उन का खुद का स्वार्थ था. यह बात किसी से नहीं छिपी कि अर्जुन द्रोण का प्रिय शिष्य था. उसे उन्होंने पूर्ण रूप से शिक्षा दी. किंतु वास्तव में उचित न्याय तो उन्होंने अर्जुन के साथ भी नहीं किया था. यह अलग बात है कि अर्जुन ने अपनी निष्ठा व लगन के आगे द्रोण को वह सबकुछ सिखाने के लिए विवश कर दिया जो सब उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को गुपचुप सिखाने का प्रयास किया था. महाभारत संभवपर्व के 16वें तथा 17वें श्लोक में वर्णित है :

कमण्डलुं च सर्वेषां प्रायच्छच्चिरकारणात.

पुत्राय च ददौ कुंभमविलंब चकारणात॥

यावत् ते नोपगच्छन्ति तावदस्मै परां क्रियाम्.

द्रोण आचष्ट पुत्राय तत कर्म जिष्णुरौहत॥

(अर्थात द्रोणाचार्य अन्य सब शिष्यों को तो पानी लाने के लिए कमंडल देते जिस से उन्हें लौटने में कुछ विलंब हो जाए, परंतु अपने पुत्र अश्वत्थामा को बडे़ मुंह का घड़ा देते जिस से वह पानी भरने के कार्य से शीघ्र निवृत्त हो जाए. जब तक दूसरे शिष्य लौट नहीं आते, तब तक द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा को अस्त्र संचालन की कोई उत्तम विधि बतलाते थे.)

चूंकि अर्जुन ने उन के इस कार्य को जान लिया था अत: वह शीघ्रता से कमंडल भर कर आचार्यपुत्र अश्वत्थामा के साथ ही गुरु के समीप आ जाता जिस से गुरु द्रोण उन्हें गुप्त अस्त्र विद्या सिखाने के लिए विवश हो गए. वास्तव में पुत्र मोह में जितना अंधा धृतराष्ट्र को माना जाता है उतना ही पुत्र मोह द्रोण में भी था. वह अपने पुत्र अश्वत्थामा को संसार का सब से बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे. किंतु हालात के चलते अर्जुन ने वह स्थान प्राप्त कर लिया.

अर्जुन के बढ़ते हुए धनुष कला कौशल को देख कर द्रोण ने ईर्ष्या भाव से रसोइए से यहां तक कह दिया कि तुम अर्जुन को कभी अंधेरे में भोजन न परोसना और मेरी बात भी अर्जुन से कभी न कहना. ध्यान देने योग्य बात है कि अर्जुन को अंधेरे में धनुष अभ्यास की प्रेरणा अंधेरे में भोजन कर रहे भीम से प्राप्त हुई थी.

द्रोण की भेदभाव व पक्षपातपूर्ण नीति से महाभारत के पाठक तब अवगत हो जाते हैं, जब एकलव्य की कथा उभर कर आती है. द्रोणाचार्य का अस्त्र कौशल सुन कर हजारों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिए वहां जमा हो गए. तदनंतर निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास आया, पर उसे निषाद पुत्र जान कर धर्मज्ञ आचार्य ने धनुर्विद्या विषयक शिष्य नहीं बनाया.

एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में प्रणाम किया और वन में लौट कर उन की मिट्टी की मूर्ति बनाई तथा उसी में आचार्य की परम उच्च भावना रख कर उस ने धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू किया. एकलव्य ने अपने निरंतर अभ्यास से धनुर्वेद का ज्ञान अर्जित किया तथा स्वयं को द्रोणाचार्य का शिष्य माना. किंतु द्रोण ने क्या किया? अपने एक ऐसे शिष्य से जिसे शिक्षा देने में उन्होंने जरा भी परिश्रम नहीं किया, गुरु दक्षिणास्वरूप उस के दाहिने हाथ का अंगूठा केवल इस कारण से गुरुदक्षिणा में मांग लिया कि वह उन के प्रिय शिष्य अर्जुन से अधिक निपुण था और अर्जुन को उन्होंने वचन दिया था कि द्रोण का कोई भी शिष्य उस से बढ़ कर नहीं हो सकता. ईर्ष्या तथा द्वेष की भावना से भरा द्रोण का हृदय क्षण भर के लिए नहीं कांपा जब उन्होंने एकलव्य से कहा कि

तमवतीत् त्वयाडंगुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति.

(अर्थात तुम मुझे गुरुदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो.)

इतने वर्ष बीत जाने पर भी द्रोण के मन से द्रुपद के प्रति प्रतिशोध की भावना खत्म नहीं हुई. गुरुदक्षिणा के रूप में उन्होंने कौरवों एवं पांडवों से द्रुपद को युद्ध में कैद करने के लिए कहा. पांडवों द्वारा यज्ञसेन द्रुपद को मंत्रियों सहित संग्राम भूमि में बंदी बना कर द्रोणाचार्य को उपहारस्वरूप दे दिया गया. द्रोण ने उस समय द्रुपद का अपमान करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा. वह द्रुपद से व्यंग्यपूर्ण बोले :

विमृद्य तरसा राष्ट्रं पुरं ते मृदितं मया.

प्राप्य जीवं रिपुवशं सखिपूर्व किमिष्यते॥

(अर्थात मैं ने बलपूर्वक तुम्हारे राष्ट्र को रौंद डाला, तुम्हारी राजधानी मिट्टी में मिला दी. अब तुम शत्रु के वश में पडे़ हुए जीवन को ले कर यहां आए हो. बोलो, अब पुरानी मित्रता चाहते हो क्या?)

ऐसा कह कर द्रोणाचार्य कुछ हंसे. इस के बाद बोले, ‘‘वीर, प्राणों पर संकट आया जान भयभीत न होओ. तुम बचपन में मेरे साथ आश्रम में खेलेकूदे हो उस से तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह व प्रेम बहुत बढ़ गया है. तुम इस राज्य का आधा भाग मुझ से ले लो.’’

इस प्रकार द्रोण ने द्रुपद से प्रति- शोध लिया किंतु प्रतिशोध की भावना यहीं पर समाप्त नहीं हुई. महाभारत युद्ध में सेनापति बनने पर द्रोण ने द्रुपद की हत्या कर के अपने प्रतिशोध को अंतिम रूप दिया.

ऐसा नहीं है कि महाभारत के रचनाकार ने द्रोण के सभी क्रियाकलापों को नजरअंदाज किया है. महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय 190 के 32 से ले कर 40 तक के 9 श्लोकों में द्रोण की आलोचना भी की गई है किंतु यह आलोचना इतनी माने नहीं रखती. महाभारत के इतने श्लोकों में से केवल 9-10 श्लोकों में एक ऐसे व्यक्ति की थोड़ी सी आलोचना की गई जिस ने अपने शिष्यों के होते हुए बुरे कर्म को भी अपनी आंखों के सामने होते देखा किंतु मौन रहे.

धृतराष्ट्र की राजसभा में उस समय कौरवों तथा पांडवों के गुरु द्रोण भी उपस्थित थे जब द्रोपदी को चोटी से पकड़ घसीट कर भरी सभा में लाया गया. द्रोपदी उस समय रजस्वला थी और एक ही वस्त्र में थी. ऐसी स्थिति में दुर्योधन का उसे अपनी जंघा पर बैठने के लिए कहना, दुशासन द्वारा उस के चीरहरण का प्रयास करना कोई छोटी बात नहीं थी किंतु ऐसे गंभीर अवसर पर भी गुरु द्रोण चुप रहे. उन्होंने अपने शिष्यों से एक शब्द भी नहीं कहा. वह चाहते तो अपने शिष्यों को ऐसा दुष्कर्म न करने का आदेश दे सकते थे किंतु नहीं. आखिर कैसे गुरु थे वह?

पांडवों को जब वनवास हुआ तो द्रोण जानते थे कि सबकुछ गलत हो रहा है किंतु उन्होंने अपना मौन नहीं तोड़ा. अगर वह चाहते तो कौरवों का साथ छोड़ कर पांडवों के साथ हस्तिनापुर का त्याग कर सकते थे. पितामह भीष्म की तरह वह हस्तिनापुर के साथ किसी बंधन से नहीं जकड़े थे. किंतु शायद राजसी सुख को त्यागना उन्हें गवारा नहीं था.

पांडव जब अज्ञातवास का 1 वर्ष पूरा कर रहे थे तो द्रोण कहते हैं सांम्प्रतं चैव यतं कार्य तचक्षिप्रमकालिकम.

क्रियतां साधु संचिनत्य वासश्चैषां प्रचिन्त्यताम॥

यथावत पांडुपुत्राणां सर्वार्थेषु धृतात्मनाम.

(विराटपर्व, श्लोक 7-8)

(अर्थात इस समय जो कुछ करना है सोचविचार कर शीघ्र किया जाना चाहिए. इस में विलंब उचित नहीं है. सभी विषयों में धैर्य करने वाले उन पांडवों के निवास स्थान का ही ठीकठाक पता लगाना चाहिए. वे सभी शूर और तपस्या से आवृत्त हैं, अत: उन्हें पाना कठिन है. पा लेने पर भी पहचानना तो और भी कठिन है.)

द्रोण एक ओर तो अपने शिष्य अर्जुन की प्रशंसा करते नहीं थकते थे किंतु दूसरी ओर गोहरणपर्व के 18वें और 19वें श्लोक में दोगलेपन की नीति अपनाते हुए वह कहते हैं:

यदेतत प्रथमं वाक्यं भीष्म: शान्तनवोब्रवीत.

तेनैवाहं प्रसन्नो वै नीतिरत्र विधीयताम्॥

यथा दुर्योधनं पार्थों नोपसर्पति संगरे.

साहसाद यदि वा मोहात यथा नीतिर्विधीयताम॥

यानी अब ऐसी नीति से काम लेना चाहिए जिस से अर्जुन इस युद्ध में दुर्योधन के पास तक  न पहुंच सके. साहस से अथवा प्रमादवश भी दुर्योधन पर उस का आक्रमण न हो, ऐसी नीति निर्धारित करनी चाहिए.

द्रोण के ही नेतृत्व में अभिमन्यु की जिस निर्ममता से हत्या की गई उसे कैसे भूला जा सकता है. द्रोण के चरित्र पर इतने आक्षेप होने के बावजूद उन्हें शोहरत मिली हुई है. समझ में नहीं आता इस का क्या कारण हो सकता है? शायद परशुराम सरीखे गुरु के शिष्य होने के गौरव से वह खुद गौरवान्वित हो गए या महाभारत युद्ध के कारण, जो उन के शिष्यों की आपसी फूट का परिणाम था या केवल इसी कारण कि उन्होंने राजघराने के बच्चों को ही अपना शिष्य बनाया. कारण चाहे कुछ भी रहा हो, गौरव तो उन्हें मिला ही है.

गुरु होने के नाते द्रोणाचार्य चाहते तो कौरव-पांडवों के बीच युद्ध की स्थिति आने से रोक सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. यह जानते हुए भी कि दुर्योधन धर्मयुद्ध नहीं लड़ रहा, द्रोणाचार्य ने अपनी विद्या के प्रभाव से दुर्योधन को ऐसा कवच पहनाया, जिसे कोई तोड़ नहीं सकता था.

सरकार, विचारों की स्वतंत्रता, कोर्ट

देश के संविधान की मूल आत्मा असल में वोटतंत्र में नहीं, आवाज की स्वतंत्रता में है. हर स्वतंत्रता, कानून का राज, अपनी संपत्ति रखने का हक, बिना कारण गिरफ्तारी से बचने का हक, बराबरी का हक और यहां तक कि अंधविश्वासी व कट्टरपंथी बने रहने का हक भी विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता से मिलता है. सुप्रीम कोर्ट आजकल इस पर सुनवाई कर रहा है, क्योंकि विचारों में विभिन्नता को कुचलने के लिए भारतीय दंड विधान की कुछ धाराओं का जम कर दुरुपयोग किया जाता है.

धार्मिक विश्वासों को चोट पहुंचाने के भारतीय दंड विधान में कई प्रावधान ऐसे हैं, जिनके जरिए बड़ी आसानी से मुकदमे दायर कर दिए जाते हैं और मुकदमा दायर करने वाला मजे में घूमता रहता है, जबकि अपनी स्वतंत्रता को बचाने वाला अदालतों के गलियारों की ठोकरें खाता है. हिंदू धर्म की अतार्किक, असहिष्णु, अन्यायी मान्यताओं व उस के अय्याश देवी-देवताओं की पोल खोलने के चलते दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं पर हिंदू कट्टरपंथियों ने मुकदमे किए. संपादकों ने जब एक-एक बात को स्वयं हिंदू धर्मग्रंथों से प्रमाणित करना चाहा, तो मामले ठंडे पड़ गए और विरोधी मुंह छिपाते रह गए. इन मामलों में कट्टरपंथियों की बंद आंखें और बंद दिमाग देख कर वास्तव में आश्चर्य होता है.

पहले कांग्रेस सरकार और अब भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार दोनों इस विषय पर एकमत हैं कि धार्मिक अंधविश्वासों को फैलाने का अधिकार तार्किक व सत्यता को प्रस्तुत करने से ऊपर है. वे दोनों ही कहते रहे हैं कि हम सांप को पूजें या शेर को, हम कान में सीसा डलवाने को सच कहें या जातिगत भेदभाव को ईश्वर की देन, हम झूठे व मक्कारों की पूजा करें या बेईमानी को भगवान की लीला मानें, यह हमारी धार्मिक स्वतंत्रता है.

आप की विचारों की स्वतंत्रता हमारी इन बेवकूफियों को उजागर कर जनता को जाग्रत करने की नहीं है. ऐसा किया गया तो हमारे करोड़ों अंधभक्त, जो खरबों रुपयों का दान देते हैं और धर्म के व्यापार को सोने-चांदी से मढ़ते हैं, गायब हो जाएंगे. धर्म के ये पैरोकार संविधान के मूल अधिकार, विचारों की स्वतंत्रता के अधिकार को धर्म के जहरीले दलदल में डूबने देना चाहते हैं, ताकि इस दलदल और इसकी बदबू का किसी को एहसास न हो.

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में जो मामला चल रहा है, भाजपा सरकार के तर्क वही हैं, जो कांग्रेस सरकार के होते थे, कि विचारों की स्वतंत्रता को अपना हक देने पर कानून व्यवस्था खराब हो जाएगी. एक तरह से व्यवस्था का नाम ले कर अदालत को ब्लैकमेल किया जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय धार्मिक पोलपट्टी खोलने का मौलिक अधिकार विचारकों को देगा, इसमें संदेह है पर आशा है कि वह उस पर और बंदिशें लगाने का रास्ता नहीं खोलेगा.

नवाज के द्वार पर मोदी

नरेंद्र मोदी की सरकार यह सोचे कि 2 घंटे की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के घर की मीटिंग से भारत व पाकिस्तान की कटुता मिट जाएगी तो वह बहुत गलतफहमी में है. यह सूक्ष्म मुलाकात निरर्थक है. यह भारत के प्रधानमंत्री पर बढ़ते दबाव को दर्शाती है.

नरेंद्र मोदी ने 26 मई, 2014 को अच्छी शुरुआत की थी पर उस के बाद उन्होंने उन निकम्मों और विध्वंसकों को अपनी ओर जमा कर लिया जिन का सिद्धांत है–न काम करेंगे, न करने देंगे.

जिस असहिष्णुता पर ढेरों साहित्यकारों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों ने सरकार से मिले सम्मान लौटाए वह सीधे पाकिस्तान से जुड़ी है क्योंकि नरेंद्र मोदी का मौन और कट्टरवादियों की लाउडस्पीकरी मुखरता में हिंदू-मुसलिम विवाद व भारत-पाकिस्तान विवाद की प्रतिच्छाया है.

भारत सरकार शपथग्रहण के दिन की अच्छी शुरुआत के बाद पाकिस्तान से लड़ने के अवसर ढूंढ़ती रही है और यह साफ है कि इस के पीछे हिंदू श्रेष्ठता साबित करना रहा है जो भाजपा के कट्टरपंथियों की मांग और पहचान है.

नरेंद्र मोदी को दिल्ली, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों, लोकसभा उपचुनावों या पंचायत चुनावों में जो हार का सामना करना पड़ा, उस असफलता के बीज हिंदू कट्टरवाद ने बोए थे.

सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी ने विश्व कूटनीति के कारण लाहौर की यात्रा की या देशीय योजना के चलते. क्या यह रूसीअमेरिकी प्लान का हिस्सा है जो इराक व अफगानिस्तान के तालिबानियों को घेरने की तैयारी में हैं या यह उत्तर प्रदेश के दलित व मुसलिम वोटरों को समझाने की कोशिश है कि नरेंद्र मोदी दोनों को अछूत नहीं मानते और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मां के पैर तक उसी तरह छुए जा सकते हैं जैसे पंडितों के छुए जाते हैं.

अमेरिका और रूस पश्चिमी एशिया में पांव जमाते खूंखार वहशी इसलामिक स्टेट के पैतरों से परेशान हैं जो कब्जाई जमीन पर जमे हैं और जिन के समर्थक पेरिस और सेन बर्नार्डिनो, अमेरिका तक में हमला कर सकते हैं. इसलामिक स्टेट को काबू करने में उन्हें पाकिस्तान की बहुत जरूरत है. वह सेना दे सकता है और हथियार भी. सुन्नी बहुल होने के कारण उस पर इसलामिक स्टेट ‘विधर्मी’ होने का आरोप भी नहीं लगा सकता. पाकिस्तान को पूरी तरह मनाना है तो भारत-पाकिस्तान संबंध ठीक करने होंगे.

नरेंद्र मोदी ने उन दोनों में से कौन सी वजह से लाहौर में नवाज शरीफ की नातिन की शादी की मिठाई खाई, इस बाबत कहना अभी संभव नहीं है. हां, बहाना चाहे जो भी हो, अगर पाकिस्तान के साथ संबंध सुधर जाएं तो दोनों देशों के लगभग करोड़ों गरीबों को लाभ होगा क्योंकि दोनों देशों की सेनाओं पर बरबाद होते कई लाख करोड़ रुपए बचेंगे.

नोट, सीट और नोटशीट

कार्यालयों के 3 महत्त्वपूर्ण पहिए हैं जिन पर चल कर कार्यालय गति पकड़ते पाए जाते हैं. ये पहिए हैं – नोट, सीट और नोटशीट. इन में से एक के अभाव में कार्यालय को कार्यालय नहीं माना जाता. कोई भी अधिकारी किसी कर्मचारी को एक ही आदेश देता हुआ पाया जाता है, ‘पुट अप विद द नोट’ यानी ‘नोट सहित आगे बढ़ाइए’. स्पष्ट है कि जब अधिकारी ही नोट सहित नोटशीट चाहता है तो कर्मचारी क्यों न चाहेगा? कर्मचारी बेचारा अगलबगल से पूछ कर, पुरानी नस्तियों का सहारा ले कर, थोड़ा अपनी ओर से जोड़ कर नोट सहित, फाइल बढ़ाता है. आखिर नोटशीट में अपना नोट क्यों लगाए, वह बहुधा अगलबगल की टीप देता है.

उस दिन एक अधिकारी ने अपने स्टैनो से कहा, ‘‘इतनी सारी गलतियों सहित ड्राफ्ट आप हस्ताक्षरार्थ भेजते हैं?’’

स्टैनो ने उत्तर दिया, ‘‘सर, यह सच है कि नोटशीट में बहुत सारी व्याकरण, वर्तनी और भाषा की गलतियां हैं, किंतु वे हम ने नहीं की हैं. वे विश्व बैंक से चली आ रही हैं. हम एक आदेश ले रहे हैं कि क्या हम इन्हें ठीक कर दें. क्योंकि भले ही ड्राफ्ट नोटशीट पर तैयार हो, उस की कोई भी काटछांट या उस पर पुनर्लेखन ड्राफ्ट को यानी प्रारूप को कचरे की पेटी में फिंकवा सकता है.’’

स्टैनो से अधिकारी की यह चर्चा चल ही रही थी कि एक कर्मचारी नेता धड़धड़ाता हुआ अधिकारी के कक्ष में घुसा और ऊंची आवाज में पूछने लगा, ‘‘क्या फुजूलखर्ची, कार्यालयों में कर्मचारियों की अनुपस्थिति, टैलीफोन के दुरुपयोग आदि पर रोक लगाई जा रही है? यदि ऐसा होता है तो यह बरदाश्त के बाहर होगा.’’

अधिकारी ने आश्वासन दिया, ‘‘इस अफवाह में कोई सचाई नहीं है. यह तो आप लोगों के मन में बेचैनी पैदा करने के उद्देश्य से उड़ाई गई अफवाह है और इस बारे में सरकार का आदेश आने दीजिए. कार्यान्वयन करने वाले तो आप लोग ही होंगे.’’

एक सप्ताह से कार्यालयों में गति बढ़ाने के लिए चर्चाएं लगातार चल रही हैं. मैं जानता हूं कि कर्मचारी नेता गति बढ़ाने के बारे में कितने चिंतित हैं. एक भी नस्ती आगे नहीं बढ़ पा रही है. सभी लोग कार्यालयों में गति विषय पर ही चर्चारत हैं. अधिकारी भी नस्तियों पर बहुधा चर्चा लिख कर, नस्ती निबटा देते हैं.

मेरी सोच है कि कार्यालयों में गति न बढ़े तो ही अच्छा, वरना फाइलों के माध्यम से आवेदकों को ही जल्दीजल्दी निबटा दिया जाता है. जिस के प्रकरण यहां विचाराधीन हैं वे ही हमारे अधीन हैं, हम उन के नहीं. ऐसा ही एक व्यक्ति आक्रोश से कह रहा था, ‘कार्यालयों में गति का अर्थ है, अधिकारियों और कर्मचारियों की सद्गति, आवेदकों और समाज की दुर्गति, शहर और प्रदेश की अधोगति, आदानप्रदान और अकर्मण्यता में प्रगति.’ बाबू और अधिकारी कलम घिसते हैं. बाहर के व्यक्ति के जूते घिसते हैं. आगंतुक को सब घिसते यानी घसीटते हैं. फाइल का अर्थ रेती भी होता है, जो लोहे तक को छील देती है, आदमी की क्या बिसात? फाइल में आदमी छीला जाता है.

फाइल की गति फाइल जाने और न जाने कोय. न्यूटन ने जो गति का सिद्धांत खोजा है, वह भारतीय कार्यालयों में नस्ती की गति को देख कर ही सोचा था. न्यूटन का गति का पहला नियम ही है कि ‘कोई वस्तु स्थिर रहती है या चलती ही रहती है, जब तक उस पर बाहरी दबाव न पड़े और उस की स्थिति न बदली जाए.’

फाइल पर भी जब तक कोई बाहरी आकर्षण या दबाव नहीं पड़ता, वह चलना शुरू नहीं करती. कोई ऊपर खींचने वाला हो तो नस्ती उठ जाती है.

न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के 3 सिद्धांतों की खोज की है. हमारे देश में सभी क्षेत्रों में चहुंओर बड़ेबड़े गुरु बैठे हैं, महागुरु. इन गुरुओं को अनुभव कर के ही गति के गुरुत्वाकर्षण नियम बनाए गए. हे गुरु, जो कुछ आकर्षण है, तुझ में ही है, गुरुत्वाकर्षण.

न्यूटन का नंबर दो का नियम भी है. यह नियम भारतीय कार्यालयों में बहुत लोकप्रिय है. नंबर दो का नियम न अपनाया जाए तो हमारे कार्यालय हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहें. कर्मचारी किसी से भी दोदो हाथ करने को तैयार हैं, किंतु नंबर दो के नियम को त्याग देने को तैयार नहीं. वैज्ञानिक न्यूटन के प्रति इस से बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है? न्यूटन की गति का नंबर दो का नियम ही है जिस पर भारतवर्ष के सभी कार्यालय निर्विवाद चल रहे हैं.

गति के बारे में न्यूटन का तीसरा सिद्धांत भी है, ‘प्रत्येक क्रिया पर उस के बराबर और विरोधी प्रतिक्रिया होती है.’ यह तीसरा सिद्धांत भी  कार्यालयों में नस्ती को ले कर ही अन्वेषित किया गया है. जैसे ही बाबू ‘क’ ने फाइल बढ़ाने को उठाई, बाबू ‘ख’ की भृकुटि तनी. जरूर किसी किस्म का जैक लगा है. लोहे के स्क्रूजैक से तो कार, बस यहां तक कि ट्रक तक उठा लिए जाते हैं, जरूर कोई कलदार वस्तु का जैक लगाया गया है, वरना बाबू ‘क’ फाइल उठाता? अपने रूमाल से पहले तो नस्ती पर धूल की परत साफ की, फिर उस पर कुछ लिखा. जरूर जेब में कुछ गया है, वरना रूमाल खीसे में से कैसे बाहर आ गया. पौकेट का आयतन तो उतना ही है? जरूर कुछ जेब में गया है, वरना रूमाल बाहर न आता. महीनों से धूल खाती फाइल, इतने प्यार से बाबू अपनी गोद में न रखता? अपनी बगल में न दबाता? इतने प्यार से तो उस ने प्रिया की ओर भी कभी नहीं देखा? उस नस्ती को मेरे पास आने दो, अभी दबाता हूं.

मेरा बुंह बंद कराना है तो मुंह में कुछ डालना पड़ेगा, वरना नस्ती नहीं बढ़ेगी. न्यूटन का गति का तीसरा सिद्धांत यही है, विरोधी और समकक्ष प्रतिक्रिया.

कार्यालय सांप और सीढ़ी का खेल है जिस में नस्ती पासा चलने वाले के हिसाब से बढ़ती है. किसी बढि़या खिलाड़ी ने पासा फेंका और फाइल एकदो घर आगे चली. फिर कोई दांव चला गया, नस्ती ऊपर तक बढ़ी. बीच में साहब का नहीं, सांप का मुंह आ गया. कलम ने उगल दिया, ‘नियम चस्पां करें’ या ‘चर्चा करें’. पच्चीस खाने चढ़ चुकी नस्ती प्रारंभिक बिंदु पर आ गिरी. अब उस के आगे बढ़ने का मुहूर्त कब निकलेगा, बड़े से बड़ा पंडित बताने में असमर्थ होगा.

फाइलों को आगे न बढ़ने देने के पीछे भी एक संवेदनशील कारण होता है. बाबू का उन रंगीन नस्तियों से प्रेमसंबंध स्थापित हो जाता है लाल, पीली, बैगनी, गुलाबी आवरणों में ढकी फाइलें जब लंबे समय तक सामने होती हैं तो कर्मचारी की उन के प्रति

आसक्ति बढ़ जाना स्वाभाविक है. दिल पर पत्थर रख कर ही इन नस्तियों को संवेदनशील बाबू विदा करता है. महत्त्वपूर्ण नस्तियों का बाबूजी की आंखों से ओझल हो जाना, बाबूजी के लिए वज्रपात से कम नहीं होता. ऐसी मूल्यवान नस्तियों के हाथ से निकलते ही भावुक बाबू मन ही मन सुबकता है, फूटफूट कर रोता है. कार्यालयों में परस्पर प्रेमसंबंध स्थापित हो जाना, एक दैनिक एवं स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत आता है.

कभीकभी सोचता हूं कि यदि कार्यालयों को विश्रामालय, मनोरंजनालय, कहींकहीं कामालय कहा जाए तो कैसा रहे? क्योंकि बहुधा कार्यालयों में कार्य को छोड़ कर सभी कुछ स्वीकार्य होता है. यदि बाबू साहब, निदेशक महोदय देरी से आते हैं तो इस में उन की कोई गलती नहीं होती, कोई कारण अवश्य रहता है, वरना वर्षभर ही देरी से न आएं. बाबुओं को ढोने वाली बसें देरी से चलती हैं, निदेशक महोदय का वाहनचालक विलंब से वाहन लाता है, कोई भी सोच सकता है, वे समय से कार्यालय कैसे पहुंच सकते हैं.

इन दिनों कार्यालयों में महिलाओं की उपस्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रहती. महिलाओं की बढ़ती संख्या यौन शोषण, अवैध संबंधों के किस्सों में वृद्धि का कारण है. इन के सहारे कर्मचारियों, अधिकारियों का दिन प्रफुल्लता से गुजर जाता है. कार्यालयों में चहलपहल रहती है, सब के दिल लगे रहते हैं. वातावरण खुशनुमा बना रहता है.

कार्यालयों में कर्मचारी नेताओं की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ रही है. और जो व्यक्ति एक बार नेता बन गया, वह पूरे सेवाकाल में शेर बन कर जीने का आदी हो जाता है. कर्मचारियों की समस्याएं तो कुछ ही दिन तक सुलझाता है, किंतु कार्यालयों के लिए पूरे कार्यकाल में वह स्वयं समस्या बना रहता है. देरी से आना, अपनी सीट पर न बैठ कर, यहांवहां तफरीह करना, घर जल्दी प्रस्थान कर जाना, उन का शौक बन जाता है. किसी उच्च अधिकारी की भी हिम्मत नहीं होती कि कोई काम उस ‘महान नेता’ से कह सके? कर्मचारी नेता को संभवतया संवैधानिक तौर पर वे अधिकार प्रदत्त हैं कि छोटीमोटी बातों पर ही उच्चाधिकारियों को सब के सामने झिड़क दे.

प्रत्येक कार्यक्षेत्र में महिलाओं की 30 प्रतिशत भागीदारी भी आखिरकार बड़ी लाभदायी सिद्ध होगी. प्रेमपत्रों के लेखन में 60 प्रतिशत वृद्धि होगी. आज भी कार्यालयों में प्रेमपत्र अच्छी संख्या में लिखे जा रहे हैं. इस से लिखने की तथा कल्पना करने की क्षमता बढ़ती है. कुछ दिन पूर्व एक दुखी पुरुष का आवेदन कार्यालय में आया कि उसे नौकरी से बेवजह निकाला गया है और अब वह भूखों मरने के कगार पर आ गया है. उस कार्यालय में प्रेमपत्रों की आई बाढ़ के परिणामस्वरूप, एक प्रेमपत्र की प्रति उस के पास पहुंच गई थी. अन्यथा अभिनय देखना, अभिनय करना और दूरदर्शन के कार्यक्रमों से ही फुरसत नहीं मिलती?

उच्चाधिकारी जब कनिष्ठ अधिकारी को डांटता है तो वह डांट बाबू से होती हुई भृत्य तक स्थानांतरित हो जाती है. वर्ष में एकाध बार भी यदि ऐसा हो जाया करे तो कार्यालयों की मुस्तैदी और दक्षता बढ़ जाया करे. साल में एक दिन तो लगे कि कार्यालय सचमुच कार्यालय है.

हमारे प्रदेश के एक पूर्व उच्चाधिकारी ने अपने अनुभवों के आधार पर पुस्तक में लिखा कि जो आईएएस अधिकारी अपने जीवन में एक भी निर्णय न कर सका, वह बड़ा सफल, निष्ठावान, दक्ष और प्रतिष्ठित अधिकारी माना गया. बेदाग रिटायर हो गया. वहीं उन उच्चाधिकारियों को कठघरों में खड़े होना पड़ा जिन्होंने कुछ निर्णय लिए. कुछ निलंबित हुए, कुछ सेवामुक्त कर दिए गए. कुछ ने भयाक्रांत स्थिति में दम तोड़ दिया.

प्रदेश के उच्चाधिकारी के अनुभवों का लाभ लेते हुए अकसर सभी अधिकारी कार्यालयों में सोते हुए पाए जाते हैं. कई अधिकारियोंकर्मचारियों को अपने घर में बिस्तरों में नींद नहीं आती, जबकि कार्यालय में कुरसियों पर बैठे खर्राटे लेते हैं. कर्मचारी नेता यदि अपनी सीट पर घुर्रघुर्र की ऊंची आवाज करता हुआ निद्रामग्न है तो अधिकारी बड़े खुश रहते हैं, उसे उठाते नहीं. वे जानते हैं कि यदि यह उठ गया तो लड़ाईझगड़ा करेगा. उच्चाधिकारी इसी बात में अपना हित देखते हैं कि कर्मचारी नेता सीट पर सोता रहे?

जिस्म का बाजार, इजाजत का इंतजार

जिस्म का कारोबार भले ही महानगरों से निकल कर छोटे कसबों तक पांव पसार चुका हो मगर वह कानूनी बाधा आज तक पार नहीं कर सका है. जिस्म के बाजार को आज भी कानून की इजाजत का इंतजार है. हालांकि गैरकानूनी होने के बावजूद इस कारोबार के आंकड़े चौंकाने वाले हैं.

भारत के रैडलाइट एरिया में रह कर जिस्म का सौदा करने वाली महिलाओं की कुल आबादी 30 लाख से भी अधिक है. यही कारण है कि अब ये सैक्स वर्कर्स का दरजा पाने की मांग को बुलंद कर रहे हैं. हमारा कानून इन्हें मुजरा या नाचगाने की इजाजत तो देता है मगर जिस्म बेचने की नहीं. यानी कानून कोठे खोलने की इजाजत तो देता है मगर वेश्यालय चलाने की नहीं.

आजादी से पहले अंगरेज सैनिकों की सैक्स संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पूरे हिंदुस्तान में जगहजगह वेश्यालय बना दिए गए थे. उन में यूरोपीय देशों की वेश्याओं को भी ला कर रखा गया था. आजादी के साथ ही कुछ वेश्याएं वापस यूरोप लौट गईं लेकिन तब तक भारतीय महिलाओं का एक बड़ा तबका जिस्म के इस कारोबार का हिस्सा बन चुका था. भारतीय संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती थी. नतीजतन, 1956 में अनैतिक गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत इसे अपराध की श्रेणी में शामिल कर लिया गया, हालांकि उन्हें नाचगाने और मुजरे आदि की इजाजत थी. लेकिन देहव्यापार में लिप्त महिलाओं के पुनर्वास की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई. इन के लिए एक खास इलाका निर्धारित कर दिया गया जिसे आज रैडलाइट एरिया के नाम से जाना जाता है.

वक्त के साथ कानूनी बंदिशों पर पेट की आग हावी होती गई. दिन में महफिलें सजतीं और रात में जिस्म का बाजार गुलजार होने लगा. कानूनी बंदिशें जिस्म के कारोबार की अंत्येष्टि करने में नाकाम रहीं. हर सौदे की रकम का एक हिस्सा कानून के पहरेदारों की खाली जेबें भरता. अब आलम यह है कि 30 लाख से भी अधिक वेश्याएं इन बाजारों में नारकीय जिंदगी जी रही हैं.

इतना ही नहीं, एशिया के सब से बड़े रैडलाइट एरिया का तमगा भी भारत के कोलकाता स्थित सोनागाछी के नाम से दर्ज हो चुका है. वहीं, मुंबई का कमाठीपुरा भी विश्व के टौप 10 रैडलाइट एरियाओं में शुमार हो चुका है.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर जिस्म का बाजार इतना फलफूल रहा है तो फिर जिस्म के सौदागरों की हालत बदतर क्यों है. यही सवाल जब राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमार मंगलम के समक्ष आया तो उन्होंने वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की वकालत कर डाली. हालांकि बयान पर सियासी बवाल होने के बाद उन्होंने पहले तो इसे निजी बयान करार दिया और बाद में बयान से ही पलट गईं. यहां से एक नई बहस का जन्म हुआ.

पहले भी गरमाया था मामला

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के रैडलाइट एरिया जीबी रोड में बसर करने वाली यौनकर्मियों का एक प्रतिनिधि मंडल 2 साल पहले दिल्ली महिला आयोग की तत्कालीन अध्यक्ष बरखा सिंह से मिला था. यौनकर्मियों ने वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की मांग की थी. उन की मांग पर बरखा सिंह ने भी इसे कानूनी दरजा देने की वकालत की थी. उस दौरान शोर तो खूब मचा लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ सका. बरखा आज भी इसे जायज मानती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘आज जिस्मफरोशी का एक नया रूप सामने आ चुका है. एक फोन पर कौलगर्ल आप के बिस्तर पर होती है और बिस्तर से उठते ही वह एक सभ्य समाज का हिस्सा बन जाती है. वहीं, रैडलाइट एरिया में रहने वाली महिलाओं को सिर्फ इसलिए हेय दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे बदनाम गली में रहती हैं. आज फिल्मों की कई हीरोइनें भी इस धंधे में पकड़ी जाती हैं. इसलिए वेश्याओं के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इसे कानूनी दरजा दिया जाना जरूरी है.’’

मुखर हो रही है मांग

देहव्यापार को वैध और यौनकर्मियों को सैक्सवर्कर का दरजा देने की मांग कोई नई नहीं है. यौनकर्मियों का एक बड़ा तबका वर्षों से इस के लिए आवाज बुलंद करता आ रहा है मगर नैतिकता के शोर में यह आवाज हर बार दबाई जाती रही है.

भारतीय समाज में देहव्यापार का चलन कोई नई बात नहीं है. संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् में इस का उल्लेख नगर वधू के रूप में मिलता है. दक्षिण भारत की देवदासी प्रथा भी इसी का एक रूप है जिस की इजाजत धर्म भी देता था.

महिला एवं बाल विकास विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, करीब 30 लाख यौनकर्मियों में से 35 प्रतिशत वेश्याएं ऐसी हैं जो 18 वर्ष की उम्र से पहले ही इस धंधे से जुड़ गई थीं. इन में से अधिकांश वे महिलाएं हैं जो सैक्सवर्कर का दरजा चाहती हैं.

कुछ वर्ष पहले कोलकाता, आसनसोल के लच्छीपुर, मुंबई आदि शहरों में इन महिलाओं ने रैली निकाल कर आंदोलन भी किए. कई महानगरों में आयोजित सम्मेलनों के मंच से भी इसे कानूनी मांग देने की आवाज मुखर हुई. लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. सभ्य समाज के विरोध ने इस आंदोलन को कभी अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया. नतीजतन, व्यापक पैमाने पर शुरू हुआ आंदोलन चकलाघरों की दहलीज तक ही सिमट गया.

दुकानदारी की चिंता

देहव्यापार को कानूनी दरजा देने की मांग का चौतरफा विरोध भी होता रहा है. कई सामाजिक संगठन खुल कर इस का विरोध करते आ रहे हैं. दिलचस्प पहलू यह है कि इन में कई ऐसे संगठन भी शामिल हैं जो वर्षों से यौनकर्मियों की दशा सुधारने के लिए काम करने का दंभ भरते नहीं थकते. इस के लिए हर साल उन्हें सरकार की ओर से अनुदान के रूप में मोटी राशि मिलती है.

कई संगठन राजधानी के ऐसे पौश इलाकों में दफ्तर खोले बैठे हैं जहां आम आदमी किराए का कमरा तक लेने की कल्पना नहीं कर सकता. हालांकि कुछ संगठन बेहतर काम भी कर रहे हैं. उन्होंने पुलिस की मदद से कई बार वेश्यालयों में लाई गई लड़कियों को मुक्त भी कराया है. अगर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता मिलती है तो समाज सुधार के नाम पर दुकानदारी कर रहे सैकड़ों संगठनों की दुकानें स्वत: ही बंद हो जाएंगी. यही कारण है कि विरोध करने वालों में ये संगठन सब से आगे हैं.

कानूनी मान्यता के नुकसान

– हर आदमी की पहुंच में होने के चलते विकृत मानसिकता को मिलेगा बढ़ावा.

– वेश्यालयों में पकड़े जाने का डर खत्म होने से नैतिकता के मूल्यों का पतन होगा.

– खुलेआम ऐयाशी की इजाजत से बिखर सकते हैं परिवार.

– युवा पीढ़ी के भटकाव का मार्ग प्रशस्त होगा.

– सामाजिक बुराई महामारी का रूप भी ले सकती है.

रामदेव बोले, कई महिलाएं कर चुकी हैं मुझे प्रपोज

एक सामान्य पुरुष की तरह योगगुरु और खरबपति व्यवसायी रामदेव ने आखिरकार जता ही दिया कि कई महिलाएं उन पर भी मरती हैं और उन्हें प्रपोज भी कर चुकी हैं. रामदेव अकसर दिलचस्प बातें करते हैं और यह उन की खूबी है कि छिपा जाने वाली बातें भी कोई और कहे, इस के पहले खुद ही उजागर कर देते हैं.

बकौल रामदेव, एक विदेशी युवती तो उन पर इस हद तक फिदा थी कि अपना सबकुछ उन्हें देने की बात कह रही थी. रामदेव उस का अभिप्राय समझ नहीं पाए या समझ कर घबरा गए, इसलिए उन्होंने सलाह दी कि जो भी देना हो, ट्रस्ट में दे दो. लेकिन वह महिला जो देना चाहती थी उस में किसी तरह की हिस्साबांटी नहीं हो सकती थी. महिलाएं आखिर क्यों बाबा को प्रपोज करती हैं, इस सवाल का जवाब कठिन नहीं कि उन के पास अकूत दौलत और सेहतमंद व्यक्तित्व है इसलिए.

राष्ट्रपति के निशाने पर स्वच्छ भारत अभियान

पहली दिसंबर को पहली दफा जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी गुजरात के साबरमती आश्रम पहुंचे तो वे तकरीबन गांधीजी जैसी वेशभूषा में थे. वहां उन्होंने एक अहम बात कही जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान पर निशाना साधती लगी. बकौल प्रणब मुखर्जी, असल गंदगी गलियों में नहीं, बल्कि हमारे दिमाग में है.

गंदगी के प्रकारों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से संदेश यह दे डाला कि सड़क का कचरा तो झाड़ुओं से हट जाएगा पर कट्टरवाद का जो कीचड़ दिलोदिमाग में जमा हुआ है वह किसी झाड़ू से साफ नहीं होने वाला. राष्ट्रपति की तारीफ में अकसर कसीदे गढ़ते रहने वाले नरेंद्र मोदी के पास शायद ही इस मशवरे का कोई जवाब हो, इसलिए उन्हें अभी सहिष्णु बने रहने में ही भलाई नजर आ रही है.

इस साल इन 8 गैजेट्स का यूजर्स को है इंतजार

नए साल के साथ ही कई नई चीजें हमारा इंतजार कर रही हैं, तो कई चीजों का इंतजार हमें भी है. जी हां! यहाँ बात हो रही है उन कमाल के गैजेट्स की जिनका यूजर्स को बेसब्री से इन्तजार है. यह गैजेट्स साल 2016 में लॉन्च होंगे.

वैसे तो हर साल ही टेक्नोलॉजी की दुनिया में कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है. हर साल ही कुछ नए और बेहद कमाल के गैजेट्स बाजार में धमाल मचाते हैं. आइये देखते हैं 2016 में लॉन्च होने वाले कुछ शानदार गैजेट्स, जिनका यूजर्स को है इन्तजार-

1. माइक्रोसॉफ्ट होलोलेंस
माइक्रोसॉफ्ट होलोलेंस एक ऐसा डिवाइस है जिसने वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी टेक्नोलॉजी को साथ ला दिया है. इसकी कीमत $300 यानि लगभग 2 लाख रुपये होगी.

2. सोनी वीआर हेडसेट
वीआर हेडसेट की लिस्ट में एक और नाम है सोनी के प्लेस्टेशन वीआर का. कंपनी ने इसे लॉन्च करने की पूरी तैयारी कर ली है. यह डिवाइस सोनी के प्लेस्टेशन 4 साथ काम करेगा.

3. एचटीसी वीआर हेडसेट
एचटीसी वाइव भी एक तरह का वर्चुअल रियलिटी पर आधारित हेडसेट है. एचटीसी ने अपने इस हेडसेट के लिए वाल्व गेमिंग कंपनी के साथ मिलकर काम किया है. हालांकि यह हेडसेट इसी साल 2015 में लॉन्च होना था, लेकिन अब यह 2016 में लॉन्च किया जाएगा.

4. वीआर आधारित ओकुलुस रिफ्ट
साल 2016 वर्चुअल रियलिटी स्पेस के लिए काफी बढ़िया रहेगा. उम्मीद है कि फेसबुक वीआर सिस्टम ओकुलुस रिफ्ट भी अगले साल जल्द ही मार्केट में होगा. यह एक तरह का वीआर हेडसेट होगा जिसे कनेक्ट करने के लिए कंप्यूटर की आवश्यकता होगी और यह एक एक्सबॉक्स कंट्रोलर के जरिए काम करेगा.

5. एपल की नई जनरेशन वाली वॉच
एपल वॉच ने भले ही कई यूजर्स की उम्मीद को पूरा न किया हो लेकिन एपल की वॉच 2 से लोगों को कई उम्मीदें हैं. कहा जा रहा है कि इसमें एक इंटीग्रेटेड कैमरा भी हो सकता है. अब इस वॉच में और क्या होगा व ये यूजर्स को कितना भाएगी ये तो इसके लॉन्च होने के बाद ही पता चलेगा.

6. एपल का छोटे डिस्प्ले वाला iPhone
एपल के iPhone 7 और 7 प्लस के अलावा कंपनी इन दिनों अपने नए छोटे डिस्प्ले वाले फोन को लेकर भी चर्चाओं में है. कहा जा रहा है कंपनी अपना कचोटे डिस्प्ले वाला नया iPhone 6C इस साल लॉन्च कर सकती है.

7. सैमसंग गैलेक्सी एस सीरीज की नई जेनरेशन
सैमसंग ने अपने एस सीरीज में शानदार डिजाईन पेश कर स्मार्टफोन यूजर्स को अपनी ओर आकर्षक किया और कई बड़े ब्रैंड को टक्कर दी. इसी के साथ गैलेक्सी एस 7 और एस 7 एज से लोगों की उम्मीद कई गुना बढ़ गयी है. उम्मीद कि साल 2016 में कंपनी के पास यूजर्स कुछ और बढ़ा और कमाल का होगा.

8. iPhone की नई जनरेशन
उम्मीद की जा रही है कि एपल की नई जेनरेशन का फोन iPhone 7 और 7 प्लस हो सकता है. कहा जा रहा है कि इस नई जेनरेशन के इस फोन में एक टच सेंसिटिव होम बटन होगा. 

इस तरह आप बचा सकते हैं मोबाइल इंटरनेट डाटा..!

स्मार्टफोन हो और उसमें इंटरनेट न हो तो अनेक काम रुक जाते हैं, लेकिन इंटरनेट होने पर भी अगर आपको शिकायत रहती है कि हम तो इंटरनेट का इतना इस्तेमाल भी नहीं करते, फिर भी इंटरनेट डाटा प्लान बहुत जल्दी समाप्त हो जाता है, तो चलिए आज हम आपको इस बारे में जानकारी दिए देते हैं ताकि आप अपना इंटरनेट डाटा सेव कर सकें.

मोबाइल इंटरनेट डाटा यूज की उचित सेटिंग न होने से भी यह समस्या आती है. इसके लिए आप पांच तरीके अपनाकर अपने स्मार्टफोन के डाटा प्लान को बचा सकते हैं.

1. ‘रिसट्रिक्ट बैकग्राउंट डाटा' रखें ऑन
अगर आपका स्मार्टफोन स्टैंडबाय मोड है तो अधिकांश ऐप्स इंटरनेट डाटा को यूज करते रहते हैं. इसे रोकने के लिए स्मार्टफोन की नेटवर्क सेटिंग्स में जाकर ‘रिसट्रिक्ट बैकग्राउंट डाटा' ऑप्शन को ऑन कर दें. इससे आपका मोबाइल इंटरनेट डाटा का उपयोग तभी करेगा, जब आप डाटा ऑन करेंगे अथवा स्मार्टफोन वाई-फाई से कनेक्ट होगा. अनेक ऐप्स जैसे वॉट्सएप, ई-मेल, मैसेंजर आदि बैकग्राउंट में इंटरनेट डाटा यूज करते रहते हैं, जिससे उनके नोटीफिकेशन मिल सकें.

2. डाटा सेविंग ब्राउजर/ऐप उपयोग करें
आजकल बहुत सारे ब्राउजर (जैसेकि मिनी ओपेरो आदि) वेबसाइट्स को कम्प्रेस्ड करके खोलते हैं और डाटा कम यूज होता है. कोशिश करें कि ऐड फ्री ऐप्स को ही चुने, चाहे उसके लिए कीमत ही क्यों न चुकानी पड़ें.

3. यूज करें वेबसाइट्स का मोबाइल वर्जन
जब हम कोई वेबसाइट खोलते हैं, तो मोबाइल टेक्स्ट व फोटो को डाउनलोड करता है. जब हम वेबसाइट को डेस्कटॉप लुक में खोलेंते हैं तो इससे अधिक डाटा यूज होता है. अतः डाटा बचाने के लिए सदैव मोबाइल को ही देखें. किसी वेबसाइट के मोबाइल वर्जन के न होने पर ब्राउजर के ‘टेक्स्ट ओनली' ऑप्शन को स्लेट करें, ताकि इमेज डाउनलोड न हो

4. क्लियर न करें कैश को
अनेक यूजर्स इंटरनल मेमोरी को बढ़ाने के लिए कैश क्लियर कर देते हैं पर डाटा बचाने के लिए ऐसा न करें. कैश डाटा को स्टोर करके रखता है इसलिए दुबारा से कोई वेबसाइट या ऐप खोलने पर कुछ चीजों को पुनः डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं रहती व डाटा बच जाता है. याद रखें कि टास्क मैनेजर आदि क्लिनिंग ऐप्स कैश क्लियर कर देते हैं.

5. इन्हें भी आजमाएं
प्रयास करें कि रात में डाटा कनेक्शन को बंद रखें. डाटा लिमिट को सेट करके रखें ताकि डाटा इस्तेमाल की जानकारी मिलती रहे. स्मार्टफोन डाटा यूज ऑप्शन में जाकर चैक करें कि कौन-सा ऐप अधिक डाटा यूज कर रहा है, उसे आवश्यकता न होने पर अनइंस्टॉल भी किया जा सकता हैं.

1 अप्रैल से लागू होंगे आयकर विभाग के 8 नए नियम

आयकर विभाग के नए नियम एक अप्रेल से लागू होने जा रहे हैं. इसके तहत आपको कैश डिपॉजिट्स, शेयर्स-म्यूचुअल फंड खरीदना, इम्मूवेबल प्रॉपर्टी की परचेज, फिक्स डिपॉजिट्स और फॉरेन करेंसी के लेनदेन जैसे बड़ी ट्रांजैक्शंस की जानकारी आयकर विभाग को देनी होगी.

यह हो रहे हैं बदलाव

1. तय लिमिट से ज्यादा पैसा बैंक, कंपनी या वकील-सीए जैसे प्रोफेशनल को देने पर इसकी जानकारी आयकर विभाग को देनी होगी. इसके लिए फॉर्म 16ए भरना होगा.

2. 30 लाख रुपए से ज्यादा की इम्मूवेबल प्रॉपर्टी की सेल-परचेज की जानकारी रजिस्ट्रार ऑफिस को देनी होगी.

3. किसी सर्विस के बदले किसी प्रोफेशनल को 2 लाख रुपए से ज्यादा के भुगतान की जानकारी आयकर विभाग को देनी होगी.

4. अगर आपके बैंक खाते में एक साल में 10 लाख रुपए से ज्यादा कैश जमा होता है तो बैंक इसकी जानकारी आईटी विभाग को देगा. एफडी के लिए भी लिमिट 10 लाख रुपए तय की गई है, हालांकि एफडी के रिन्युअल पर यह नियम लागू नहीं होगा.

5. क्रेडिट कार्ड से बिल पेमेंट के एवज में बैंक को साल में एक लाख या ज्यादा कैश पेमेंट या दूसरे मीडियम से 10 लाख या ज्यादा पेमेंट हुआ तो आईटी डिपार्टमेंट के पास इंफॉर्मेशन पहुंचेगी.

6. साल में 10 लाख रुपए या इससे ज्यादा कैश से बैंक ड्राफ्ट बनवाने पर बैंक इसकी जानकारी सरकार को देगा.

7. एक साल में यदि किसी व्यक्ति के करंट अकाउंट में 50 लाख रुपए या इससे ज्यादा की जमा या विड्रॉअल होता है तो इसकी जानकारी बैंक आईटी विभाग को देगा.

8. अगर कोई व्यक्ति किसी कंपनी के शेयर, म्युचुअल फंड, बॉन्ड या डिबेंचर में साल में 10 लाख रुपए या इससे ज्यादा का निवेश करता है तो कंपनी यह जानकारी आयकर विभाग को देगी.

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