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इन 5 कारणों से ऑस्ट्रेलिया में डूबी टीम इंडिया की नैया

टीम इंडिया के कप्तान महेन्द्र धौनी ऑस्ट्रेलिया में जीत के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे है. धौनी ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ लगातार तीन मैचों में मिली हार निराश हैं और हार की बड़ी वजह भारत की तेज गेंदबाजी. तेज गेंदबाजों के लचर प्रदर्शन को देखते हुए धौनी बल्लेबाजों से अधिक जिम्मेदारी लेने और अधिक रन बनाने की अपील की है. बल्‍लेबाजों ने दो मैचों में टीम को 300 से अधिक रन बनाकर दिए, लेकिन गेंदबाजों ने निराश किया और नतीजा ऑस्‍ट्रेलियाई टीम पांच मैचों की वन-डे सीरीज में 3-0 से आगे हो गई.

आइए जानते हैं टीम इंडिया को मिली करारी हार के पांच कारण-

कैच टपकाना

कहावत है कि कैचेस विन मैचेस यानी कैच पकड़ो मैच जीतो. मगर शुक्रवार को टीम इंडिया के खिलाडिय़ों में कैच टपकाने की कोई स्पर्धा चल रही थी. अजिंक्य रहाणे, ईशांत शर्मा, मनीष पांडे, बरिंदर सरन ने कैच पकडऩे के मौके गंवाए और नतीजा टीम इंडिया को शिकस्त झेलनी पड़ी. पिछले कुछ सालों में टीम इंडिया के युवा खिलाडिय़ों ने फील्डिंग का स्तर ऊंचा किया था, लेकिन शुक्रवार को फील्डर्स ने कैच टपकाने के साथ-साथ रन आउट के भी कई मौके गंवाए. यहीं कारण है कि टीम इंडिया को गाबा में हार झेलनी पड़ी.

गेंदबाजी विभाग बड़ी कमजोरी

टीम इंडिया को लगातार दूसरे मैच में गेंदबाजों की वजह से हार का सामना करना पड़ा. विदेशी पिच पर भारतीय गेंदबाज फीके साबित हो रहे है, जिससे आलोचकों को मौका मिल रहा है. भारतीय गेंदबाजों ने मैच में 12 वाइड गेंद फेंकी, जिसने विरोधी टीम पर दवाब हल्का कर दिया. उमेश यादव, ईशांत शर्मा और बरिंदर सरन अपनी गति से कोई प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे हैं. स्पिन विभाग एशियाई उपमहाद्वीप के बाहर फीका साबित हो रहा है. धौनी ने मैच के बाद यह भी कहा कि अब बल्‍लेबाजों को 330 रन का स्‍कोर खड़ा करना होगा ताकि मैच जीता जा सके.

टीम चयन पर सवाल

टीम प्रबंधन और महेन्द्र सिंह अपनी रणनीति में कोई बदलाव करते नहीं दिख रहे हैं. भुवनेश्वर कुमार को बाहर रखना और तथा ऋषि धवन को मौका नहीं देना समझ से परे है. धौनी रक्षात्मक रवैया अपनाते दिखे जो घातक साबित हो सकता है. धौनी हमेशा नयापन करने के लिए मशहूर हैं, लेकिन दोनों मैचों में उनकी सोच एक जैसी नजर आई. टीम निदेशक रवि शास्त्री आक्रामक क्रिकेट को तवज्जो देते हैं, लेकिन उनके द्वारा भी कोई नया कदम उठाते देखने को नहीं मिल रहा.

स्‍लॉग ओवर्स में बने मजह 75 रन

टीम इंडिया 40 ओवर की समाप्ति पर दो विकेट खोकर 233 रन बनाकर सुखद स्थिति में था. भारतीय टीम यहां से आराम से 330 रन का स्‍कोर बना सकती थी. मगर टीम इंडिया अंतिम 10 ओवर में मजह 75 रन बना सकी. रोहित शर्मा के आउट होने के बाद अन्‍य बल्‍लेबाज बड़े शॉट नहीं लगा पाए, जिसका खामियाजा टीम को भुगतना पड़ा. आखिरी के पांच ओवर्स में तो टीम इंडिया ने केवल 38 रन बनाए और इस दौरान पांच बल्‍लेबाज आउट हुए.

बल्‍लेबाजों को सुधारनी होगी अपनी कॉलिंग

रोहित शर्मा और विराट कोहली रनआउट हुए. पिछले काफी समय से भारतीय बल्‍लेबाजों में कॉलिंग का अभाव देखने को मिल रहा है. आज भी जिस अंदाज में रोहित और विराट रनआउट हुए वह टीम के लिए हानिकारक साबित हुआ. भारतीय बल्‍लेबाज जहां एक को दो रन में तब्‍दील कर सकते थे, वहां खिलाड़ी एक-दूसरे की तरफ देख भी नहीं रहे थे. अब टीम को बैठकर चिंतन करने की जरूरत है कि अगले तीनों मैच लगातार कैसे जीते जाए ताकि वन-डे सीरीज जीतकर इतिहास रचे.

300 मैचों में कप्तानी करने वाले तीसरे खिलाड़ी बने धौनी

भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धौनी ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भले ही तीसरे वनडे में महज 23 रन बनाए, लेकिन यह मैच उनके लिए यादगार बन गया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धौनी का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट (टेस्ट, वनडे और टी-20) में कप्तान के रूप में यह 300वां मैच था. धौनी से पहले कप्तानों के इस विशिष्ट समूह में ऑस्ट्रेलिया के रिकी पोंटिंग और न्यूजीलैंड के स्टीफन फ्लेमिंग शामिल है.

पॉन्टिंग ने 2002 से 2012 के बीच 324 अंतरराष्ट्रीय मैचों में ऑस्ट्रेलिया की कमान संभाली. ऑस्ट्रेलिया के सबसे सफल कप्तानों में शुमार पॉन्टिंग के नेतृत्व में कंगारूओं ने 230 मैचों में जीत दर्ज की जबकि मात्र 77 में उसे हार का सामना करना पड़ा. उनके नेतृत्व में टीम की सफलता का प्रतिशत 67.90 रहा. इस सूची में फ्लेमिंग 303 मैचों में न्यूजीलैंड की कमान संभालकर दूसरे स्थान पर है. उनकी अगुआई में कीवी टीम को 128 मैचों में जीत तथा 135 मैचों में हार का सामना करना पड़ा. उनकी सफलता का प्रतिशत 42.24 रहा.

धौनी ने 300 मैचों में टीम की कमान संभाली. ब्रिस्बेन में 15 जनवरी को हुए दूसरे वनडे तक के आंकड़ों की बात की जाए तो धोनी की अगुआई में खेले 299 मैचों में 156 मैचों में टीम इंडिया ने जीत दर्ज की. 111 मैचों में टीम को हार का मुंह देखना पड़ा. धौनी ने टीम इंडिया की कमान 60 टेस्ट मैचों में संभाली. 188 वनडे और 51 टी-20 मैचों में भी वे टीम की कमान संभाल चुके हैं.

अक्षय-अभिषेक ने ज्वाला-सिंधु के साथ खेला बैडमिंटन

बॉलीवुड स्टार अक्षय कुमार, अभिषेक बच्चन और रितेश देशमुख ने प्रीमियर बैडमिंटन लीग (पीबीएल) के फाइनल के दौरान बैडमिंटन मैच खेलकर दर्शकों का मनोरंजन किया.

पीबीएल के ब्रांड एंबेसडर और मुंबई रॉकेट्स के सह मालिक अक्षय ने जहां विश्व चैंपियनशिप में दो बार की रजत पदक विजेता पीवी सिंधु के साथ जोड़ी बनायी वहीं अभिषेक ने 2010 राष्ट्रमंडल खेलों की चैंपियन ज्वाला गुट्टा के साथ जोड़ी बनाकर मैच खेला.

रितेश ने चेयर अंपायर और भारतीय बैडमिंटन संघ के अध्यक्ष अखिलेश दासगुप्ता सर्विस जज बने. अक्षय और अभिषेक ने प्रदर्शनी मैच के दौरान अपना कौशल दिखाया और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया. ये तीनों फिल्म स्टार इसके बाद कोर्ट के एक साइड में चले गये और उन्होंने ज्वाला, अश्विनी पोनप्पा और सिंधु के साथ मैच खेले जबकि बाई प्रमुख चेयर अंपायर बन गये और उन्होंने मैच के दौरान प्रत्येक अंक की घोषणा की.

मैच के बाद बाई अध्यक्ष ने उन्हें प्रतीक चिन्ह भेंट किये. अक्षय, अभिषेक, ज्वाला और सिंधु ने इसके बाद बैडमिंटन प्रेमियों को कुछ रैकेट भी दिये.

शादियों में शान के नाम पर फुजूलखर्ची

कभी शादियां बहुत बड़ा सामाजिक उत्सव होती थीं. ऐसा उत्सव जिस में भारी संख्या में लोग शामिल होते थे. बरातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती थी. लड़के वाले 300 बरातियों की बात कर के 600-700 बराती ले कर लड़की वालों के दरवाजे पर धूमधड़ाके के साथ पहुंचते थे. लेकिन भारी संख्या में बराती देख लड़की वाले घबराते नहीं थे. उन्होंने ऐसी किसी स्थिति से निबटने के लिए पहले से ही पूरी तैयारी कर रखी होती थी. उन दिनों कैटरिंग सिस्टम नहीं था. बरात के लिए खाना तैयार करने हेतु हलवाई बिठाए जाते थे जो अपने काम में बेहद माहिर होते थे. एक तरह से बरात को निबटाने की सारी जिम्मेदारी हलवाइयों की होती थी.

शादीब्याह के मामलों में हलवाइयों के पास गहरा अनुभव होता था. अगर उन को 300 लोगों का खाना तैयार करने के लिए बोला जाए तो सूझबूझ और समझदारी से काम लेते हुए वे 600 से ज्यादा लोगों के खाने का इंतजाम रखते थे. ज्यादा मेहमानों की वजह से लड़की वालों के शादीब्याह का बजट गड़बड़ाता नहीं था. सस्ता जमाना था. शादीब्याह के आयोजन महंगे होटलों, रिसोर्टों और फार्महाउसों में नहीं, धर्मशालाओं, शादीघरों (मैरिज होम) और किसी खुली जगह पर लगाए गए शामियानों में होते थे. बरातियों की आवभगत लड़की के रिश्तेदार और पड़ोसी किया करते थे, वेटर नहीं. शादीब्याह में सपरिवार शामिल होने का भी रिवाज था. नजदीकी रिश्तेदार ही नहीं, दोस्त और महल्ले के लोग भी बिना किसी हिचक के पूरे परिवार के साथ शादीब्याह के जश्न में शिरकत करते थे. बहुत दूर के रिश्तेदारों को भी शादीब्याह का निमंत्रणपत्र भेजा जाता था, बेटी की ननद की ससुराल वालों तक को भी.

कैटरिंग सिस्टम का चलन

लेकिन अब वैसा कुछ भी नहीं रहा. महंगी शादियों और खाने के कैटरिंग सिस्टम ने सारे पुराने समीकरण बदल डाले हैं. शादियां आज भी एक सामाजिक उत्सव हैं, किंतु पहले की अपेक्षा बहुत खर्चीली व महंगी हो गई हैं. अब 300 लोगों के खाने का इंतजाम कर के 600 लोगों को निबटाने वाली बात नहीं रही. किसी के पास समय नहीं, इसलिए सभी किस्म के झंझटों से छुटकारा पाने के लिए शादीब्याह के मौके पर हर कोई अपनी हैसियत व बजट के अनुसार खानेखिलाने के मामले में कैटरिंग सिस्टम को ही तरजीह देता है.

अब शादीब्याह में किसी मेहमान को बुलाना पहले के मुकाबले में कहीं महंगा हो गया है. अब खानेपीने का हिसाब किसी मेहमान के खाने से नहीं, उस के हाथ में पकड़ी हुई प्लेट से होता है.

कैटरिंग सिस्टम में टेबल पर सजी खाली प्लेटों की कीमत जगह और व्यंजनों की गिनती के हिसाब से अलगअलग हो सकती है. देश के महानगरों की बात हम छोड़ भी दें तो किसी शहर के छोटे होटल या रिसोर्ट में खाने की एक प्लेट की कीमत 500 रुपए से ले कर 800 रुपए से कम नहीं. अगर किसी अच्छे रिसोर्ट और सितारा होटलों की बात करें तो खाने की एक प्लेट की कीमत 1500 रुपए से ले कर 3 हजार रुपए तक हो सकती है.

इस बात के कोई माने नहीं कि आप कितना खाते हैं? एक निवाला खाएं या 50 कोई फर्क नहीं पड़ता. आप टेबल से प्लेट को उठा कर सिर्फ जूठा ही कर दें, तब भी उस की कीमत उतनी ही रहेगी. मतलब, किसी मेहमान के खाने की प्लेट को जूठा कर देने मात्र से ही मेजबान को एक मोटी रकम की चपत लग जाएगी.

बदलते सामाजिक समीकरण

महंगी शादियों और खाने के लिए कैटरिंग सिस्टम ने किसी हद तक सामाजिक समीकरणों को भी बदल डाला है. शादीब्याह के लिए निमंत्रण भेजना अब अच्छीखासी दिमागी कसरत वाला काम हो गया है. अब के हालात में हर ऐरेगैरे और गैरजरूरी लोगों को शादीब्याह में शामिल होने का न्योता देना तर्कसंगत नहीं रह गया है. यह तो ऐसा ही होगा जैसे आ बैल मुझे मार. बहुत दूर के रिश्तेदारों को निमंत्रण दे कर अपना शादीब्याह का बजट खराब करना भी अक्लमंदी नहीं. नजदीक के रिश्तेदारों में से भी किस को बुलाना है, किस को नहीं, यह भी देखना होगा. कई रिश्तेदारियां नजदीक की होते हुए भी किसी काम की नहीं होतीं. जो नजदीक का रिश्तेदार कभी आप के दुखसुख में शामिल नहीं हुआ उस को न्योता देने का कोई तुक नहीं. ऐसे मतलबी दोस्तों को भी कभी निमंत्रण मत दें जो आप के बुरे वक्त में तो आप से कतराते हैं मगर जब मुफ्त की दावत उड़ाने का मौका आए तो आप से प्यारमोहब्बत और नजदीकियां दिखलाने लगते हैं. ऐसे स्वार्थी दोस्त स्वभाव से घाघ व्यापारी होते हैं. महंगी और शानोशौकत भरी शादी के समारोह में शामिल होना उन के लिए घाटे का सौदा नहीं होता. 100-200 रुपए का शगुन डाल कर अपने पूरे परिवार के साथ किसी महंगे होटल में बढि़या खाना खाने में उन को अपना मुनाफा ही दिखता है.

खाने की महंगी प्लेट का यह मतलब भी नहीं कि हम अपने उन दोस्तों और रिश्तेदारों को नजरअंदाज करें जो हमारे शुभचिंतक हैं, हम से प्यार करते व हमदर्दी रखते हैं, किंतु आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं और मोटा शगुन नहीं दे सकते. ऐसे लोगों को प्लेट की कीमत के पलड़े में रख कर तौलना सही नहीं है. हालांकि समाज में ऐसा ही हो रहा है. गरीब रिश्तेदारों और गरीब दोस्तों को महंगी शादियों में शरीक करने के मामले में कुछ लोग भूलने का बहाना बना देते हैं, जो किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं. शादी जैसे उत्सव सिर्फ खास और संपन्न लोगों की महफिल बन कर ही नहीं रह जाने चाहिए.

आप के पत्र

 

 

 

 

 

 आप की संपादकीय टिप्पणी ‘फ्रांस पर हमला’ पढ़ कर साफ हो गया है कि समूची दुनिया में इसलामिक स्टेट आतंकवाद के खौफ से धार्मिक राज स्थापित करना चाहते हैं.

जरूरत है कि आज विश्व के सभी देश एकजुट हों. अमेरिका ने आतंकवाद को ध्वस्त करने की पहल कर दी है, ऐसे में सभी देशों को अमेरिका का साथ देना चाहिए.

डा. जसवंत सिंह जनमेजय (दिल्ली)

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‘बिहार चुनाव नतीजे के माने’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में अच्छी चीरफाड़ है. भाजपा के आम चुनाव जीतने के बाद हर्ष के अतिरेक में कई राज खोलने वाले आलेख पढ़ने को मिले. तय हुआ था कि बिना कांग्रेस को डुबोए सत्ता पाना कठिन है. यह भी कि इस बार यदि सत्ता नहीं मिली तो लोग ब्राह्मणों को भूल जाएंगे. लिहाजा, आम चुनाव में साम, दाम, दंड व भेद नीति अपनाई गई.

उन दिनों रोज 3-3 अखबार पढ़ते रहने पर पता चलता रहा कि अखबार कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों की बुराई तथा भ्रष्टाचार बिना सुबूत के छाप रहे हैं पर भाजपा के भ्रष्टाचार पर चुप हैं. आज भी अखबार यही कर रहे हैं.

भारत पर विदेशी डेढ़ हजार साल तक क्यों राज करते रहे, इस पर सभी कन्नी काट रहे हैं. लंबी गुलामी के दौरान भारत की बुद्धि व बहादुरी को दुनिया ने देखा. अचरज नहीं कि बिहार का नतीजा अगले चुनावों का डीएनए साबित हो.

माताचरण पासी, देहरादून (उ.खं.)

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आप के संपादकीय ‘बिहार चुनाव नतीजे के माने’ और ‘भाजपा में विद्रोह’ में आप का यह निष्कर्ष कि नरेंद्र मोदी ‘भगवाई तालिबानियों पर रोक लगाएंगे, सब को साथ ले कर चलेंगे,’ यह मूलमंत्र उन को दबदबे के साथ वर्षों तक सत्ता में स्थापित किए रहेगा.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित तमाम हिंदूवादी संगठन यदि सत्ता चलाने की नीति बघारने लगेंगे तो सरकार की कमजोरी मानी जाएगी. बिहार चुनाव के लिए प्रधानमंत्री का विकास एजेंडा सही रास्ते पर चल रहा था कि संघ प्रमुख ने आरक्षण पर गलत बयान दे कर चुनाव की विजय का रुख महागठबंधन की ओर मोड़ दिया. आरक्षण पर मोदी की कोई सफाई काम नहीं आई.

2014 में जनता का भरोसा जीत कर मोदी पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने. उन की पार्टी में जो लोग प्रधानमंत्री भगवा मंत्री बनने का सपना पाले रहे वे पिछड़ गए, उन के मन में टीस बनी रही. बिहार चुनाव में वही महानुभाव पार्टी के भीतर रहते हुए पार्टी को चुनाव हराने वाले बोल बोलते रहे.

भारतीय राजनीति में विकास के साथसाथ क्षेत्रवाद और जातिवाद का वर्चस्व हमेशा रहेगा. उत्तर प्रदेश और बिहार में जातिवाद अव्वल रहता है. कोई भी चुनावी राजनीति बनाते समय सामाजिक न्याय का ध्यान रखने वाले ही सफलता का दावा कर सकते हैं. भाजपा ने जब मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया तब जा कर देश की जनता ने उन के अतीत को देख कर उन पर भरोसा जताया कि वे देश को भ्रष्टाचार मुक्त कर अपने नारे के अनुसार अच्छे दिन लाएंगे.

उन के कार्य से जब देश का आम आदमी अच्छा महसूस करेगा तब जा कर उन को मजबूती मिलेगी.

आप ने सही कहा है कि आम आदमी को सस्ता खाना, सस्ती दवाएं, अमनचैन मिलना ही उसे अच्छे दिन का एहसास कराएगा. अब चुनाव प्रचार में शालीनता न बरतने वालों की जीत मुश्किल ही होगी. बिहार चुनाव में महागठबंधन जीता नहीं है, बल्कि राजग गठबंधन हारा है. प्रदेश चलाने वाले नेता का नाम चुनाव पूर्व घोषित करने से मतदाताओं को मत देने में आसानी होती है, यह बिहार में भी सही साबित हुआ है.

जयप्रकाश भारती, गाजीपुर (उ.प्र.)

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संपादकीय के अंतर्गत ‘बिहार चुनावी नतीजे के माने’ और ‘भाजपा में विद्रोह’ द्वारा भाजपा को दिए गए सलाहबतौर आप के विचार अच्छे लगे. देखना यह है कि वह बिहार और दिल्ली की हार से कितना सीखती है और अपनेआप को बदल पाती है कि नहीं. सच तो यह है कि आईने में अपनेआप को हम सुंदर ही दिखाई देते हैं, अपनी कमियां तो उसी को दिखाई देती हैं जो देखना चाहे. दिल्ली की हार के बाद कुछ सबक न लेने से बिहार में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. अब तो एक के बाद एक प्रदेशों के चुनाव हैं, और यदि हाल यही रहा तो 2019 में लोकसभा चुनाव में इस की हार निश्चित है.

गुजरात के म्यूनिसिपल और पंचायत चुनावों के नतीजे घोषित हुए. शहरों में बीजेपी और गांवों में कांग्रेस जीती. मुझे टीवी देख कर हैरानी यह थी कि गांवों में बुरी तरह हारने के बाद भी भाजपा खेमे में खुशियां मनाई जा रही हैं, एकदूसरे को मिठाइयां खिलाई जा रही हैं. बेशर्मी की भी हद होती है कि जैसे गांवों से भाजपा का कोई वास्ता ही न हो.

अब यह तो साफ हो गया है कि राजनीति में सब एक से ही हैं, अधिक फर्क नहीं है. जनता के पास कोई विकल्प नहीं है सिवा इस के कि वह घूमफिर कर वापस उन्हीं को ले आए जिन पर से उस का भरोसा उठ चुका था.

कांग्रेस की छवि तो 2014 में खराब हुई, भाजपा की अब हो रही है. केजरीवाल में भी अब वह बात नहीं रही. जल्द ही आने वाले दिनों में लालू के हाथों नीतीश की छवि खत्म होने वाली है.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)

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 दिसंबर (प्रथम) अंक में ‘बिहार चुनाव नतीजा : काम न आई भाजपा की विकास कल्पना’ लेख पढ़ा. इस बार लगभग सभी दलों ने अनर्गल और अपशब्दों से भरे बयानों से पुराने रिकौर्ड तोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. न जाने कितनी एफआईआर लिखी गईं, जिन का भविष्य अब गर्त में है.

भाजपा की गलती यह रही कि वह दिल्ली की तरह बिहार में भी क्षेत्रीय कम और राष्ट्रीय चुनाव की तरह ज्यादा मुद्दे उछालती रही, जबकि स्थानीय मुद्दों को स्थानीय नेता ही अच्छी तरह पकड़ और सुलझा सकते हैं. राष्ट्रीय नेतृत्व राह तो दिखा सकता है मगर मतदाताओं की नब्ज तो स्थानीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय नेता ही पकड़ सकते हैं जोकि बिहार में सफलतापूर्वक हुआ.

मुकेश जैन पारसबंगाली मार्केट (न.दि.)

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दिसंबर (प्रथम) में प्रकाशित आलेख ‘आतंक का पर्याय बनते शिक्षक’ पढ़ा. पढ़ कर शरीर सिहर गया. धरती की जिन हस्तियों पर नई पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है उन का ऐसा नैतिक पतन समाज को किस ओर ले जाएगा, यह कल्पना करते ही समाज की एक भयावह तसवीर सामने आ जाती है. अब यह विचारणीय प्रश्न है कि शिक्षा के क्षेत्र में आई गिरावट का कारण क्या है? मेरे विचार से शिक्षा के विकास के चारों स्तंभ (शिक्षक, छात्र, अभिभावक एवं वातावरण) इस के जिम्मेदार हैं.

सर्वप्रथम शिक्षक की बात करें तो पूरे देश में शिक्षकों की भारी कमी को दूर करने के लिए राज्य सरकारों ने शिक्षामित्र, पराशिक्षक आदि पदों पर भारी मात्रा में शिक्षकों की नियुक्ति की. ऐसे शिक्षकों को दैनिक मजदूरों की तरह मजदूरी (मानदेय) दिया जा रहा है. उन्हें भविष्यनिधि, पैंशन, ग्रेच्युटी आदि की सुविधा नहीं है. नतीजतन, इन पदों पर अयोग्य व्यक्ति नियोजित हो गए हैं. सोचने की बात यह है कि जब इन शिक्षकों का अपना भविष्य सुरक्षित नहीं है तो वे बच्चों का भविष्य कैसे बनाएंगे. साथ ही, शिक्षकों को मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, जनगणना आदि अनेक गैरशैक्षणिक कार्य भी करने होते हैं. मानदेय कम और कार्यों का बेशुमार बोझ. स्वाभाविक है व्यक्ति तनाव में रहेगा ही और अवसाद के कारण उस से गलत कार्यों की भी आशा तो रहेगी ही.

शिक्षकों की स्थिति के सुधार हेतु समुचित वेतन, भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी आदि की सुविधा लागू होनी चाहिए. उन्हें गैरशैक्षणिक कार्यों से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहिए. उन के प्रशिक्षण में बाल मनोविज्ञान का व्यापक समावेश होना चाहिए एवं समयसमय पर उन का प्रशिक्षण होते रहना चाहिए. नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए. इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के अनुसार सभी सरकारी कर्मियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की बाध्यता से भी शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है.

अभिभावकों की बात करें तो उन में भी धैर्य की कमी आ गई है. शिक्षकों की छोटीमोटी भूल पर भी उन की पिटाई और हत्या आम बात हो गई है. सरकारी योजनाओं का अनुचित लाभ लेने के लिए वे शिक्षकों पर गलत दबाव बनाते हैं. उन्हें भी अपनी लालची प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी.

छात्रों में धैर्य की कमी आ गई है और उन्हें क्रोध भी अधिक आने लगा है. तकनीकी विकास के कारण

आज ज्ञान का विस्फोट हो गया है और छात्र डिगरी के लिए शौर्टकट तरीके अपनाने से भी संकोच नहीं करते. छात्र शिक्षकों को मानसम्मान देना भूल गए हैं. उच्च वर्ग के छात्र शिक्षा लेते समय अपने स्टेटस व रुतबे का गरूर दिखाते हैं.

छात्रों का उद्देश्य मात्र डिगरी हासिल करना रह गया है. सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए प्रदर्शन

एवं अनशन से भी वे बाज नहीं आते. अधिकांश छात्र ट्यूशन/कोचिंग को स्टेटस सिंबल मानते हैं और विद्यालय में केवल उपस्थिति बनाना पर्याप्त समझते हैं. छात्रों को अपनी इन प्रवृत्तियों में सुधार लाना होगा.

वातावरण की बात करें तो पाठ्यक्रम में प्रारंभ से ही नैतिक शिक्षा का समावेश, आधुनिक परीक्षा प्रणाली, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को प्राथमिकता, परीक्षा को पूरी तरह भारमुक्त बनाना आदि शामिल है.

मेरा यह विचार है कि यदि उक्त चारों स्तंभों में जागृति आ जाए तो शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो सकती है.

रवीश कुमार रवि, खगडि़या (बिहार) द्य

 

पेरिस सम्मेलन के मकसद को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन क्या सम्मेलन के फैसलों से पृथ्वी बच सकेगी? इस पर शंका है. अंतर्राष्ट्रीय समझौते निश्चित रूप से माने जाएंगे, लेकिन एक सीमा तक ही, जबकि धरती के हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि तत्कालीन अथवा दीर्घकालीन कदम भी हमें अपनीअपनी करनी से मुक्त नहीं कर पाएंगे. कारण यह है कि आज सुविधाग्रस्त समाज की आवश्यकताएं थमने वाली नहीं हैं.

दुनिया का हर देश और व्यक्ति अपने लिए सुविधाओं को जुटाने के लिए जिस तरह जुटा है, उस का हल हम शायद ही खोज पाएं. विकास की जो परिभाषा हम ने गढ़ी है, उस से कैसे समझौता हो सकता है.

जब एक तरफ एक समाज और देश के पास सबकुछ हो और दूसरा वंचित हो और बिगड़ते पर्यावरण को वही भुगते तो सबकुछ चरमरा जाना तय है. जलवायु परिवर्तन किसान, किसानी और गांव को कहीं अधिक प्रभावित करता है. सभी देशों को पहले आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उन के यहां हालात ठीकठाक हैं?

कहावत भी है कि पहले घर सुधरे और तब दुनिया. कम से कम यह पर्यावरण के मामले में अधिक महत्त्व रखती है. पेरिस या यूरोप का पर्यावरण कितना भी बेहतर हो लेकिन वह हमारे किस काम का? अपने देश के लोग तो बाढ़, सूखे और धुंध में ही फंसे हैं. हमारे लिए घर की बहस अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि पेरिस के फैसले?

कहीं पर्यावरण नियंत्रण की आखिरी जिम्मेदारी उन्हीं लोगों के गले न आ पड़े जो आज भी कई मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं.

– शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

पाठकों की समस्याएं

मैं एक विद्यार्थी हूं और अंगरेजी विषय से एमए कर रहा हूं. मेरे साथ अकसर अजीब सी घटना होती है. किसी भी विषय पर बात करतेकरते अचानक मैं कोई सटीक शब्द या वाक्य भूल जाता हूं जिस के कारण मैं अपने विचारों को सही से प्रकट नहीं कर पाता हूं और मुझे अपनी काबिलीयत पर अफसोस होता है. जब तक मुझे वह सटीक शब्द या वाक्य सूझता है तब तक देर हो जाती है. क्या यह कोई कमी है और अगर है तो इसे कैसे दूर किया जा सकता है? कृपया मार्गदर्शन करें.

यह कोई कमी नहीं है इसलिए अपनी काबिलीयत पर अफसोस न करें. ऐसा कई बार होता है जब लोगों को शब्दावली का अच्छा ज्ञान भी होता है लेकिन उन्हें सही समय पर सही शब्द नहीं सूझता और वे उस समय ‘उसे क्या कहते हैं’ और ‘वो’ ‘वो’ कह कर अपने विचारों को प्रकट करते हैं. आप की इस समस्या का समाधान यही होगा कि आप तनावग्रस्त हुए बिना आत्मविश्वास के साथ अधिक से अधिक अपने विचारों को प्रकट करें. जो भी बोलें, धीरेधीरे बोलें. आप अपने विचारों को जितना अधिक प्रकट करने की प्रैक्टिस करेंगे, आप की यह समस्या उतनी जल्दी दूर होगी. लोगों से बात करते समय नर्वस न हों. क्योंकि नर्वसनैस से याददाश्त और विषय दोनों पर पकड़ कमजोर होती है. आप चाहें तो अकेले में अलगअलग विषयों पर अपने विचार प्रकट करें, साथ ही आप पहले लिख कर और फिर बोल कर ऐसा करने की प्रैक्टिस कर सकते हैं. इस से आप की समस्या में सुधार अवश्य होगा. अगर इस से भी बात न बने तो आप किसी स्पीकिंग स्किल्स स्पैशलिस्ट से भी संपर्क कर सकते हैं.

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मैं 23 वर्षीया लड़की हूं. एक लड़के को 5 साल से प्यार करती हूं. वह लड़का भी मुझ से प्यार करता है. पर कुछ दिनों से पता नहीं क्यों मुझे उस की हर बात पर गुस्सा आता है या शक होता है और बात करतेकरते हमारा झगड़ा हो जाता है. वह मुझे समझाने की, मेरे शक को दूर करने की कोशिश भी करता है पर मैं न तो उस विषय पर उस से बात करना चाहती हूं और न ही उस की बात को समझती हूं. मैं उस से बहुत प्यार करती हूं और उसे खोना भी नहीं चाहती. फिर भी न जानें उस के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती हूं. मैं अपने इस व्यवहार को कैसे बदलूं? सलाह दें.

जब हम किसी रिश्ते में लंबे समय से रह रहे होते हैं तो हम उस रिश्ते का महत्त्व खोने लगते हैं. चूंकि आप पिछले 5 सालों से एकदूसरे को जानते हैं इसलिए एकदूसरे के बारे में सबकुछ जान चुके हैं, आप के बीच कोई नयापन या फौर्मेलिटी नहीं बची है इसलिए आप ने अपने बौयफ्रैंड को महत्त्व देना छोड़ दिया है और यही वजह है कि आप को उस की हर बात गलत लगती है और उस के क्रियाकलापों पर आप को शक होता है. अगर आप अपने बौयफ्रैंड को खोना नहीं चाहतीं तो अपना व्यवहार बदलें और बातबात पर गुस्सा करना व शक करना बंद कर दें. वरना, अभी तो वह आप को समझा रहा है, हो सकता है वह आप से दूरी ही बना ले. आप सोचें कि उस की किन अच्छी बातों, गुणों को देख कर उस से प्यार किया था. उस की खासीयतों को महत्त्व दें न कि कमियों को.

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मैं 19 वर्षीया युवती हूं व 1 पैर से अपाहिज हूं. मैं गांव के एक लड़के को चाहती हूं. लड़का गरीब है व उस की 8 बीघा जमीन है. लड़का पूरी तरह से स्वस्थ है. हम दोनों विवाह करना चाहते हैं. मैं अभी बीकौम कर रही हूं. उस के घर के सभी लोग मुझे पसंद करते हैं लेकिन मेरे परिवार में मेरे पिताजी को छोड़ कर सभी इस विवाह के लिए राजी हैं. पिताजी चाहते हैं कि मेरा विवाह किसी आर्थिक रूप से संपन्न घर में हो. मैं पिताजी को विवाह के लिए कैसे राजी करूं?

पिताजी से जानें कि उस लड़के से विवाह न करने का कारण सिर्फ उस का गरीब या अधिक संपन्न न होना ही है या कुछ और भी है. अगर संपन्नता को आप के पिता आप के सुखी होने की गारंटी मानते हैं तो उन्हें समझाएं कि वे गलत हैं. हो सकता है वे संपन्न परिवार में किसी तरह आप का विवाह करा भी दें लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आप का होने वाला पति व उस का परिवार आप को आप की शारीरिक कमी के साथ स्वीकारेगा. अपने पिता को समझाएं कि लड़के के परिवार वाले आप के बारे में सबकुछ जानते हैं और आप को सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं, इसलिए वे इस रिश्ते के लिए हां कर दें. हां, आप अपनी पढ़ाई अवश्य पूरी करें और आर्थिक रूप से स्वयं को आत्मनिर्भर अवश्य बनाएं.

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मैं 32 वर्षीया विवाहिता हूं. 9 महीने पूर्व नौर्मल डिलीवरी से मेरा बेटा हुआ है. समस्या यह है कि मुझे सैक्स की इच्छा नहीं होती. मेरे पति चाहते हैं कि मैं उन्हें सहयोग करूं लेकिन मैं उन को सहयोग नहीं कर पाती. इस से हमारे आपसी संबंधों पर असर पड़ रहा है. मैं क्या करूं? उपाय बताइए.

प्रसव के पश्चात हर स्त्री की सैक्स इच्छा के सामान्य होने का समय अलगअलग होता है. किसी को 2 माह के बाद ही नौर्मल सैक्स इच्छा होती है तो किसी को आप की तरह समय लग जाता है. यह इस बात पर भी काफी निर्भर करता है कि आप वर्किंग हैं या नौनवर्किंग. साथ ही, बच्चे की देखभाल में कोई आप की मदद करने वाला है या सबकुछ आप अकेले ही मैनेज करती हैं. आप पति से अपनी समस्या शेयर करें. जब आप शारीरिक और मानसिक रूप से रिलैक्स होंगी, आप की रुचि सैक्स के लिए खुद ब खुद जागेगी. आप चाहें तो इस बारे में अपनी गाइनोकोलौजिस्ट से भी सलाह ले सकती हैं.

मेरी गौरैया

सर्द भरे मौसम में

मेरी खिड़की पर

बैठती थी एक गौरैया

मुझे अकसर अपनी

चीं-चीं-चीं से

रोज आगमन की सूचना देती थी

मैं भी मुसकरा कर

उस के आगमन पर

अपनी खुशी व्यक्त कर देता था

उस का रोज शाम को आना

खिड़की पर रात गुजारना

और भोर में उड़ जाना

यहीं! हम दोनों का, साथ था

यह क्रम रोज ही रहा

पूरी सर्दियों में

एक दिन वह शाम से

देर रात तक नहीं आई

मैं बेचैन हो गया

बारबार खिड़की की तरफ

निहारता रहा

पर वह न रात में

न दिन में लौटी

तीसरे दिन शाम को

वह लौटी, खिड़की पर

खूब चीं-चीं-चीं करती रही

जब तक कि मैं ने

उसे देख न लिया

परंतु अगली सुबह

जब से गई फिर

नहीं लौटी शाम तक

शायद?

अंतिम दिन

मुझ से मिलने आई थी

कुछ कह रही थी वह

चीं-चीं के स्वर में

मैं नहीं समझ सका

उस के कोमल मन की भाषा

बस! उसी दिन से

मुझे प्रतीक्षा है

मेरी गौरैया की

वह जहां भी हो

सुरक्षित एवं स्वस्थ हो

और सदा ही

चहचहाती रहे

इस संसार में

बस,

मुझे प्रतीक्षा है

उस के आगमन की.

                             – देवेंद्र थापक

अधूरे ख्वाब

वफा उस की कागजी थी शायद

जरा सी आंच न सह सकी शायद

उस के आने का करते रहे इंतजार

कोई गलतफहमी थी जरूर शायद

ख्वाब न पूरे हो सके अपने

कोशिशों में थी कमी शायद

सांस बेशक उस की चलती रहती है

जीने की तमन्ना खत्म हो चुकी शायद

तुम से मिलने हम आते जरूर लेकिन

प्यार से बुलाया नहीं कभी शायद.

              – हरीश कुमार अमित

दिन दहाड़े

मेरे पिताजी गंभीर रूप से बीमार होने के कारण अस्पताल में भरती थे. मैं कमरे के बाहर बरामदे में मोबाइल पर बात कर रहा था कि अचानक एक व्यक्ति बदहवास सा भागता हुआ मेरे पास आया, कहने लगा, ‘‘मेरी बहन यहीं बगल के कमरे में भरती हैं. उन की हालत बहुत खराब हो गई है. मुझे अपने पिताजी को सूचित करना है. कृपया आप मुझे मोबाइल से एक फोन करने दें.’’ मैं ने उसे अपना मोबाइल दे दिया. वह मोबाइल पर बात करता आगे चला गया जहां कई अन्य व्यक्ति भी थे. मैं ने सोचा कि वे लोग उस व्यक्ति के परिचित होंगे. अचानक वह व्यक्ति मोबाइल ले कर बाहर की ओर भागा जहां पहले से ही उस का परिचित मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के खड़ा हुआ था. वह व्यक्ति मेरे देखते ही देखते मोटरसाइकिल पर बैठ कर रफूचक्कर हो गया.

– पवन सेठ, रेवाड़ी (हरि.)

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मेरे कुकर की रबर टूट गई थी. कालोनी में अकसर गैस का चूल्हा और कुकर ठीक करने वाले चक्कर लगाया करते हैं. एक दिन मैं ने उन में से एक को बुला कर रबर देने को कहा. उस ने मेरे हाथ से ढक्कन ले लिया. मैं काफी देर खड़ी रही कि वह रबर दे तो मैं अंदर आऊं. पर मेरे सामने वह काफी देर तक अपना बैग खोलने का ऐसा नाटक करता रहा जैसे उस की चेन फंस गई हो. मैं कुछ काम से अंदर आ गई. वापस गई तो वह ढक्कन पर हथौड़ी से खटखट कर रहा था. मैं ने टोका तो उस ने कहा, ‘‘किनारा मुड़ गया है, ठीक कर रहा हूं.’’ मैं ने उस से यह कहते हुए ढक्कन ले लिया, ‘‘ढक्कन बिलकुल ठीक है, इस में कुछ करने की जरूरत नहीं है.’’ उस के जाने के बाद मुझे संदेह सा हुआ कि केवल रबर देनी थी, फिर उस ने इतना टाइम क्यों लगाया और ढक्कन से बिना कहे छेड़छाड़ क्यों की? मैं ने तुरंत वह ढक्कन कुकर में लगा कर गैस पर चढ़ाया तो देख कर दंग रह गई. उस लड़के ने कोई नुकीली चीज डाल कर ढक्कन के ‘सैफ्टी वौल्व’ में छेद कर दिया था जिस के रास्ते पूरी हवा (गैस) निकलती जा रही थी. उस ने सोचा होगा कि मुझे दिखा कर कहेगा कि सैफ्टी वौल्व खराब है और मैं उस से ही बदलने को कहूंगी किंतु मेरे द्वारा झटके से उस के हाथ से ढक्कन ले लेने की वजह से उसे इस बात का मौका ही नहीं मिला. सतर्क रहते हुए भी दिनदहाड़े वह लड़का मुझे बेवकूफ बना कर मेरा नुकसान कर गया.

– शन्नो श्रीवास्तव, फरीदाबाद (हरि.)

टीपू सुलतान को इतिहास से सड़क पर न लाएं

18वीं सदी और 21वीं सदी के बीच का फासला इतना है कि अब उस दौर के शासकों व हुक्मरानों के किस्से इतिहास के चंद पन्नों में सिमट कर रह गए हैं. कुछ फिल्मकार इन पर व्यावसायिक फिल्में और धारावाहिक बना कर उन पात्रों को अपनेअपने तरीके व नजरिए से पुनर्जीवित करने की कोशिश करते रहे हैं. पर इस इतिहास पर शोध की बराबर गुंजाइश भी बनी रहती है. यही गुंजाइश बीते कल को कई बार अपने शोध के आधार पर बदले स्वरूप में पेश कर देती है जिन से इन पर अकसर विवाद उठते हैं और सियासत करने वालों को विवादों से कुछ मुद्दे मिल जाते हैं. टीपू सुलतान की बात कर लीजिए या फिर अंगरेजों से लोहा लेने वाले किसी दूसरे शासक की.

सब के अपनेअपने माने हैं. पिछले गणतंत्रदिवस की परेड के बाद से 225 साल पहले मैसूर के शासक रहे टीपू सुलतान को ले कर सियासत 2 खेमों में बंटी है. एक खेमा उन्हें अपने ऐतिहासिक आईने में कट्टर मुसलिमपरस्त बादशाह साबित करने पर तुला है तो दूसरा खेमा दावा कर रहा है कि वह धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु शासक था.

आखिर ऐसी क्या जरूरत है कि 200 साल से ज्यादा पुराने किसी बादशाह के इतिहास को कुरेदा जाए. जब सहमति की गुंजाइश कम हो तो क्यों न ऐसे इतिहास को इतिहास के पन्नों में ही दफन रहने दिया जाए. देश, काल और परिस्थिति के बारे में सोचने का वक्त किसी के पास नहीं होता कि आखिर टीपू ने इतनी लड़ाइयां लड़ीं तो क्यों लड़ीं, आखिर अंगरेजों ने तमाम रियासतों पर कब्जा करने की जो कोशिशें कीं तो उन्हें बचाने के लिए देशी शासकों ने जंग लड़ीं तो क्यों लड़ीं? सीधा सा जवाब है कि इन शासकों, सुलतानों ने आजादी की जंग नहीं लड़ी, न ही वे अंगरेजों को पूरी तरह अपने देश से बाहर करने के लिए किसी राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बने, उन्होंने केवल अपनीअपनी रियासतें ही बचाईं.

इतिहास से यह तो पता चलता है कि इन शासकों ने अपने स्तर पर फिरंगियों से जम कर लोहा लिया था. अपने दम पर ही टीपू सुलतान ने 3 बार मैसूर के युद्ध में अंगरेजों को परास्त किया था. क्या यह गौरतलब नहीं है कि आखिर टीपू सुलतान की तलवार में ऐसा क्या खास है कि उस की नीलामी 21 करोड़ रुपए में होती है. यही नहीं, लंदन के बोनहैम्स नीलामी घर से टीपू सुलतान के केवल 30 सामानों की कीमत 56 करोड़ रुपए आंकी जाती है. ब्रिटिश सैनिक ड्यूक औफ वेलिंगटन आर्थर बेलेसले ने यह अंगूठी सुलतान की उंगली से निकाल ली थी. ‘राम’ नाम लिखी इस अंगूठी को मुसलिम शासक पहनता था. लगभग सवा 4 तोला वजनी यह सोने की अंगूठी रैगलन के निजी संग्रहालय में थी.

अंगरेजों के साथ लड़ाई में उन्होंने कई बार छोटेछोटे रौकेट्स का इस्तेमाल किया था. उस वक्त अंगरेजों के लिए यह हैरानी की बात थी, क्योंकि उन्हें भी टीपू सुलतान की इस टैक्नोलौजी की जानकारी नहीं थी. उन के मिसाइल अंगरेजों के मिसाइल से ज्यादा उन्नत थे, जिन की मारक क्षमता 2 किलोमीटर तक थी. बाद में अंगरेजों ने इस से प्रेरणा ले कर रौकेट टैक्नोलौजी को विकसित किया जिस का यूरोप की लड़ाइयों में उन्होंने प्रयोग भी किया.

राजनीति से प्रेरित मुद्दा

आजाद भारत के मिसाइल मैन डा. अब्दुल कलाम ने भी टीपू को मिसाइल तकनीकी का खोजकर्ता बताया है. नैशनल आर्मी म्यूजियम के आलेख के अनुसार, टीपू सुलतान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे. टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे. यहां यह कहने का तात्पर्य है कि कई शासकों ने अपनी रियासतें बचाने के अलावा अपनी बहादुरी के पैमाने भी रखे.

आज सवाल यह है कि टीपू सुलतान को ले कर देश में छिड़ी जंग क्या जायज है? कर्नाटक सरकार के टीपू की जयंती मनाने के फैसले को इस कदर सियासी रंग देना, क्या किसी खास धारा को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं है? सरकारें तो ऐसी जयंतियां मनाती ही रहती हैं. उन के मंत्रालयों को भी कुछ न कुछ ऐसे काम करने होते हैं जो कहीं न कहीं खबर बनें.

ऐसा लगता है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए कर्नाटक सरकार ने टीपू की जयंती का ऐलान सबकुछ जानतेबूझते किया था. उसे पता था कि इस का विरोध होगा और ऐसे माहौल में यह खबर अपना संदेश देने का काम करेगी कि वह एक खास वर्ग की हितैषी है. लगता है कि वह अपने मकसद में कामयाब होती दिख रही है क्योंकि टीपू सुलतान हीरो या विलेन, महान या ऐंटी हिंदू, कर्नाटक से शुरू हुई यह बहस अब पूरे देश की राजनीति को प्रभावित कर रही है. इस को ले कर विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं. उसे यह भी पता है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन मामलों पर चुप रहते हैं जिस से तमाम ऐसे संगठनों को अपने को राष्ट्रवादी साबित करने का मौका मिल जाता है. ये संगठन किसी भी मामले में हिंसक होने से भी परहेज नहीं करते हैं.

मोदी सरकार की किरकिरी

कर्नाटक ऐसा राज्य है जहां कई राजवंशों ने वहां की संस्कृति को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई. टीपू सुलतान और उस के बाद बाजीराव पेशवा की हार के बाद अंगरेजों ने कर्नाटक पर कब्जा किया. फिर भी टीपू और पेशवा को ले कर यहां आज भी सियासत कम नहीं होती. तो क्या यह मान लेना चाहिए कि संचार क्रांति और तकनीकी विकास के इस युग में टीपू सुलतान को ले कर चल रही सियासत को बेकार में हवा दी जा रही है? यह विवाद उसी कड़ी का हिस्सा है जिस से मोदी सरकार की पूरी देश में किरकिरी हो रही है. क्या टीपू सुलतान की जयंती मनाना सचमुच कर्नाटक की अस्मिता से जुड़ा सवाल है? देश का हाल देख कर, माहौल भांप कर, आहत हो कर गिरीश कर्नाड जैसा फिल्मकार क्यों अपने बयान पर माफी मांग लेता है? देश का एक बड़ा तबका आखिर क्यों वैचारिक लड़ाई में खुल कर सामने आ गया है? सांस्कृतिक एकता और समरसता की बात करने वाला हमारा देश क्या ऐसी मानसिकता वालों की गिरफ्त में सचमुच आ रहा है?

ऐसे में टीपू सुलतान की कहानी को सड़कों पर लाने की जगह इतिहास की किताबों में रहने देना चाहिए.

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