आप की संपादकीय टिप्पणी ‘फ्रांस पर हमला’ पढ़ कर साफ हो गया है कि समूची दुनिया में इसलामिक स्टेट आतंकवाद के खौफ से धार्मिक राज स्थापित करना चाहते हैं.
जरूरत है कि आज विश्व के सभी देश एकजुट हों. अमेरिका ने आतंकवाद को ध्वस्त करने की पहल कर दी है, ऐसे में सभी देशों को अमेरिका का साथ देना चाहिए.
– डा. जसवंत सिंह जनमेजय (दिल्ली)
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‘बिहार चुनाव नतीजे के माने’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में अच्छी चीरफाड़ है. भाजपा के आम चुनाव जीतने के बाद हर्ष के अतिरेक में कई राज खोलने वाले आलेख पढ़ने को मिले. तय हुआ था कि बिना कांग्रेस को डुबोए सत्ता पाना कठिन है. यह भी कि इस बार यदि सत्ता नहीं मिली तो लोग ब्राह्मणों को भूल जाएंगे. लिहाजा, आम चुनाव में साम, दाम, दंड व भेद नीति अपनाई गई.
उन दिनों रोज 3-3 अखबार पढ़ते रहने पर पता चलता रहा कि अखबार कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों की बुराई तथा भ्रष्टाचार बिना सुबूत के छाप रहे हैं पर भाजपा के भ्रष्टाचार पर चुप हैं. आज भी अखबार यही कर रहे हैं.
भारत पर विदेशी डेढ़ हजार साल तक क्यों राज करते रहे, इस पर सभी कन्नी काट रहे हैं. लंबी गुलामी के दौरान भारत की बुद्धि व बहादुरी को दुनिया ने देखा. अचरज नहीं कि बिहार का नतीजा अगले चुनावों का डीएनए साबित हो.
– माताचरण पासी, देहरादून (उ.खं.)
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आप के संपादकीय ‘बिहार चुनाव नतीजे के माने’ और ‘भाजपा में विद्रोह’ में आप का यह निष्कर्ष कि नरेंद्र मोदी ‘भगवाई तालिबानियों पर रोक लगाएंगे, सब को साथ ले कर चलेंगे,’ यह मूलमंत्र उन को दबदबे के साथ वर्षों तक सत्ता में स्थापित किए रहेगा.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित तमाम हिंदूवादी संगठन यदि सत्ता चलाने की नीति बघारने लगेंगे तो सरकार की कमजोरी मानी जाएगी. बिहार चुनाव के लिए प्रधानमंत्री का विकास एजेंडा सही रास्ते पर चल रहा था कि संघ प्रमुख ने आरक्षण पर गलत बयान दे कर चुनाव की विजय का रुख महागठबंधन की ओर मोड़ दिया. आरक्षण पर मोदी की कोई सफाई काम नहीं आई.
2014 में जनता का भरोसा जीत कर मोदी पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने. उन की पार्टी में जो लोग प्रधानमंत्री भगवा मंत्री बनने का सपना पाले रहे वे पिछड़ गए, उन के मन में टीस बनी रही. बिहार चुनाव में वही महानुभाव पार्टी के भीतर रहते हुए पार्टी को चुनाव हराने वाले बोल बोलते रहे.
भारतीय राजनीति में विकास के साथसाथ क्षेत्रवाद और जातिवाद का वर्चस्व हमेशा रहेगा. उत्तर प्रदेश और बिहार में जातिवाद अव्वल रहता है. कोई भी चुनावी राजनीति बनाते समय सामाजिक न्याय का ध्यान रखने वाले ही सफलता का दावा कर सकते हैं. भाजपा ने जब मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया तब जा कर देश की जनता ने उन के अतीत को देख कर उन पर भरोसा जताया कि वे देश को भ्रष्टाचार मुक्त कर अपने नारे के अनुसार अच्छे दिन लाएंगे.
उन के कार्य से जब देश का आम आदमी अच्छा महसूस करेगा तब जा कर उन को मजबूती मिलेगी.
आप ने सही कहा है कि आम आदमी को सस्ता खाना, सस्ती दवाएं, अमनचैन मिलना ही उसे अच्छे दिन का एहसास कराएगा. अब चुनाव प्रचार में शालीनता न बरतने वालों की जीत मुश्किल ही होगी. बिहार चुनाव में महागठबंधन जीता नहीं है, बल्कि राजग गठबंधन हारा है. प्रदेश चलाने वाले नेता का नाम चुनाव पूर्व घोषित करने से मतदाताओं को मत देने में आसानी होती है, यह बिहार में भी सही साबित हुआ है.
– जयप्रकाश भारती, गाजीपुर (उ.प्र.)
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संपादकीय के अंतर्गत ‘बिहार चुनावी नतीजे के माने’ और ‘भाजपा में विद्रोह’ द्वारा भाजपा को दिए गए सलाहबतौर आप के विचार अच्छे लगे. देखना यह है कि वह बिहार और दिल्ली की हार से कितना सीखती है और अपनेआप को बदल पाती है कि नहीं. सच तो यह है कि आईने में अपनेआप को हम सुंदर ही दिखाई देते हैं, अपनी कमियां तो उसी को दिखाई देती हैं जो देखना चाहे. दिल्ली की हार के बाद कुछ सबक न लेने से बिहार में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. अब तो एक के बाद एक प्रदेशों के चुनाव हैं, और यदि हाल यही रहा तो 2019 में लोकसभा चुनाव में इस की हार निश्चित है.
गुजरात के म्यूनिसिपल और पंचायत चुनावों के नतीजे घोषित हुए. शहरों में बीजेपी और गांवों में कांग्रेस जीती. मुझे टीवी देख कर हैरानी यह थी कि गांवों में बुरी तरह हारने के बाद भी भाजपा खेमे में खुशियां मनाई जा रही हैं, एकदूसरे को मिठाइयां खिलाई जा रही हैं. बेशर्मी की भी हद होती है कि जैसे गांवों से भाजपा का कोई वास्ता ही न हो.
अब यह तो साफ हो गया है कि राजनीति में सब एक से ही हैं, अधिक फर्क नहीं है. जनता के पास कोई विकल्प नहीं है सिवा इस के कि वह घूमफिर कर वापस उन्हीं को ले आए जिन पर से उस का भरोसा उठ चुका था.
कांग्रेस की छवि तो 2014 में खराब हुई, भाजपा की अब हो रही है. केजरीवाल में भी अब वह बात नहीं रही. जल्द ही आने वाले दिनों में लालू के हाथों नीतीश की छवि खत्म होने वाली है.
– ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)
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दिसंबर (प्रथम) अंक में ‘बिहार चुनाव नतीजा : काम न आई भाजपा की विकास कल्पना’ लेख पढ़ा. इस बार लगभग सभी दलों ने अनर्गल और अपशब्दों से भरे बयानों से पुराने रिकौर्ड तोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. न जाने कितनी एफआईआर लिखी गईं, जिन का भविष्य अब गर्त में है.
भाजपा की गलती यह रही कि वह दिल्ली की तरह बिहार में भी क्षेत्रीय कम और राष्ट्रीय चुनाव की तरह ज्यादा मुद्दे उछालती रही, जबकि स्थानीय मुद्दों को स्थानीय नेता ही अच्छी तरह पकड़ और सुलझा सकते हैं. राष्ट्रीय नेतृत्व राह तो दिखा सकता है मगर मतदाताओं की नब्ज तो स्थानीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय नेता ही पकड़ सकते हैं जोकि बिहार में सफलतापूर्वक हुआ.
– मुकेश जैन ‘पारस’ बंगाली मार्केट (न.दि.)
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दिसंबर (प्रथम) में प्रकाशित आलेख ‘आतंक का पर्याय बनते शिक्षक’ पढ़ा. पढ़ कर शरीर सिहर गया. धरती की जिन हस्तियों पर नई पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है उन का ऐसा नैतिक पतन समाज को किस ओर ले जाएगा, यह कल्पना करते ही समाज की एक भयावह तसवीर सामने आ जाती है. अब यह विचारणीय प्रश्न है कि शिक्षा के क्षेत्र में आई गिरावट का कारण क्या है? मेरे विचार से शिक्षा के विकास के चारों स्तंभ (शिक्षक, छात्र, अभिभावक एवं वातावरण) इस के जिम्मेदार हैं.
सर्वप्रथम शिक्षक की बात करें तो पूरे देश में शिक्षकों की भारी कमी को दूर करने के लिए राज्य सरकारों ने शिक्षामित्र, पराशिक्षक आदि पदों पर भारी मात्रा में शिक्षकों की नियुक्ति की. ऐसे शिक्षकों को दैनिक मजदूरों की तरह मजदूरी (मानदेय) दिया जा रहा है. उन्हें भविष्यनिधि, पैंशन, ग्रेच्युटी आदि की सुविधा नहीं है. नतीजतन, इन पदों पर अयोग्य व्यक्ति नियोजित हो गए हैं. सोचने की बात यह है कि जब इन शिक्षकों का अपना भविष्य सुरक्षित नहीं है तो वे बच्चों का भविष्य कैसे बनाएंगे. साथ ही, शिक्षकों को मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, जनगणना आदि अनेक गैरशैक्षणिक कार्य भी करने होते हैं. मानदेय कम और कार्यों का बेशुमार बोझ. स्वाभाविक है व्यक्ति तनाव में रहेगा ही और अवसाद के कारण उस से गलत कार्यों की भी आशा तो रहेगी ही.
शिक्षकों की स्थिति के सुधार हेतु समुचित वेतन, भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी आदि की सुविधा लागू होनी चाहिए. उन्हें गैरशैक्षणिक कार्यों से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहिए. उन के प्रशिक्षण में बाल मनोविज्ञान का व्यापक समावेश होना चाहिए एवं समयसमय पर उन का प्रशिक्षण होते रहना चाहिए. नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए. इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के अनुसार सभी सरकारी कर्मियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की बाध्यता से भी शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है.
अभिभावकों की बात करें तो उन में भी धैर्य की कमी आ गई है. शिक्षकों की छोटीमोटी भूल पर भी उन की पिटाई और हत्या आम बात हो गई है. सरकारी योजनाओं का अनुचित लाभ लेने के लिए वे शिक्षकों पर गलत दबाव बनाते हैं. उन्हें भी अपनी लालची प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी.
छात्रों में धैर्य की कमी आ गई है और उन्हें क्रोध भी अधिक आने लगा है. तकनीकी विकास के कारण
आज ज्ञान का विस्फोट हो गया है और छात्र डिगरी के लिए शौर्टकट तरीके अपनाने से भी संकोच नहीं करते. छात्र शिक्षकों को मानसम्मान देना भूल गए हैं. उच्च वर्ग के छात्र शिक्षा लेते समय अपने स्टेटस व रुतबे का गरूर दिखाते हैं.
छात्रों का उद्देश्य मात्र डिगरी हासिल करना रह गया है. सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए प्रदर्शन
एवं अनशन से भी वे बाज नहीं आते. अधिकांश छात्र ट्यूशन/कोचिंग को स्टेटस सिंबल मानते हैं और विद्यालय में केवल उपस्थिति बनाना पर्याप्त समझते हैं. छात्रों को अपनी इन प्रवृत्तियों में सुधार लाना होगा.
वातावरण की बात करें तो पाठ्यक्रम में प्रारंभ से ही नैतिक शिक्षा का समावेश, आधुनिक परीक्षा प्रणाली, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को प्राथमिकता, परीक्षा को पूरी तरह भारमुक्त बनाना आदि शामिल है.
मेरा यह विचार है कि यदि उक्त चारों स्तंभों में जागृति आ जाए तो शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो सकती है.
– रवीश कुमार रवि, खगडि़या (बिहार) द्य
पेरिस सम्मेलन के मकसद को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन क्या सम्मेलन के फैसलों से पृथ्वी बच सकेगी? इस पर शंका है. अंतर्राष्ट्रीय समझौते निश्चित रूप से माने जाएंगे, लेकिन एक सीमा तक ही, जबकि धरती के हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि तत्कालीन अथवा दीर्घकालीन कदम भी हमें अपनीअपनी करनी से मुक्त नहीं कर पाएंगे. कारण यह है कि आज सुविधाग्रस्त समाज की आवश्यकताएं थमने वाली नहीं हैं.
दुनिया का हर देश और व्यक्ति अपने लिए सुविधाओं को जुटाने के लिए जिस तरह जुटा है, उस का हल हम शायद ही खोज पाएं. विकास की जो परिभाषा हम ने गढ़ी है, उस से कैसे समझौता हो सकता है.
जब एक तरफ एक समाज और देश के पास सबकुछ हो और दूसरा वंचित हो और बिगड़ते पर्यावरण को वही भुगते तो सबकुछ चरमरा जाना तय है. जलवायु परिवर्तन किसान, किसानी और गांव को कहीं अधिक प्रभावित करता है. सभी देशों को पहले आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उन के यहां हालात ठीकठाक हैं?
कहावत भी है कि पहले घर सुधरे और तब दुनिया. कम से कम यह पर्यावरण के मामले में अधिक महत्त्व रखती है. पेरिस या यूरोप का पर्यावरण कितना भी बेहतर हो लेकिन वह हमारे किस काम का? अपने देश के लोग तो बाढ़, सूखे और धुंध में ही फंसे हैं. हमारे लिए घर की बहस अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि पेरिस के फैसले?
कहीं पर्यावरण नियंत्रण की आखिरी जिम्मेदारी उन्हीं लोगों के गले न आ पड़े जो आज भी कई मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं.
– शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी, फिरोजाबाद (उ.प्र.)