सर्द भरे मौसम में

मेरी खिड़की पर

बैठती थी एक गौरैया

मुझे अकसर अपनी

चीं-चीं-चीं से

रोज आगमन की सूचना देती थी

मैं भी मुसकरा कर

उस के आगमन पर

अपनी खुशी व्यक्त कर देता था

उस का रोज शाम को आना

खिड़की पर रात गुजारना

और भोर में उड़ जाना

यहीं! हम दोनों का, साथ था

यह क्रम रोज ही रहा

पूरी सर्दियों में

एक दिन वह शाम से

देर रात तक नहीं आई

मैं बेचैन हो गया

बारबार खिड़की की तरफ

निहारता रहा

पर वह न रात में

न दिन में लौटी

तीसरे दिन शाम को

वह लौटी, खिड़की पर

खूब चीं-चीं-चीं करती रही

जब तक कि मैं ने

उसे देख न लिया

परंतु अगली सुबह

जब से गई फिर

नहीं लौटी शाम तक

शायद?

अंतिम दिन

मुझ से मिलने आई थी

कुछ कह रही थी वह

चीं-चीं के स्वर में

मैं नहीं समझ सका

उस के कोमल मन की भाषा

बस! उसी दिन से

मुझे प्रतीक्षा है

मेरी गौरैया की

वह जहां भी हो

सुरक्षित एवं स्वस्थ हो

और सदा ही

चहचहाती रहे

इस संसार में

बस,

मुझे प्रतीक्षा है

उस के आगमन की.

                             - देवेंद्र थापक

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