Download App

यों मिसाल बनी गुलाबो

करोड़ों दूसरे लोगों की तरह उस ने न किस्मत को कोसा न ही गरीबी का रोना रोया और न ही कभी छोटी जाति में पैदा होने को अभिशाप माना. अपने हुनर, मेहनत और लगन के बल पर देशविदेश में दौलत व शोहरत कमा कर उस ने साबित कर दिया कि अगर कोई ठान ले तो नामुमकिन कुछ भी नहीं. हम बात कर रहे हैं मशहूर कालबेलियाई डांसर गुलाबो की, जिस का हुनर लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है. जब वह डांस करने के लिए स्टेज पर आती है तो मानो सारा समा थिरकने लगता हैं, देखने वाले सुधबुध खो बैठते हैं और ऐसा लगता है कि जैसे वह सिर्फ डांस करने के लिए ही पैदा हुई है.

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित ट्रायबल म्यूजियम में गुलाबो एक कार्यक्रम में डांस करने आई तो अपनी जिंदगी से ताल्लुक रखती कई अनछुई बातों को उस ने खास बातचीत में साझा किया जो न केवल रूढि़यों और अंधविश्वासों से घिरे समाज की दासतां को बयां करती हैं बल्कि यह भी बताती हैं कि इन से लड़ना ही इन से जीतना है. जरूरत है बस जज्बे की जो गुलाबो में कूटकूट कर भरा है. गुलाबो बताती है, ‘‘जिस सपेरा समाज में मैं पैदा हुई उस में दिल दहला देने वाला एक रिवाज यह है कि लड़की को पैदा होते ही जिंदा जमीन में गाड़ दिया जाता है. लड़की के जन्म को सपेरे अच्छा नहीं मानते. मेरे साथ भी यही हुआ था कि मुझे पैदा होते ही जमीन में गाड़ दिया गया था लेकिन मेरी मौसी ने मुझे कब्र से निकाल लिया. फिर जब समझदार हुई तो मैं ने तय कर लिया कि कुछ बन कर दिखाऊंगी. औरतों को समाज में इज्जतदार दरजा दिलाऊंगी लेकिन यह इतना आसान काम नहीं था. वजह, मुझे सिवा नाच के कुछ आता नहीं था और पैसे भी ज्यादा नहीं थे. इधर, मुझे कब्र से निकाल लेने की वजह से समाज वालों ने मेरे परिवार को समाज से बेदखल कर दिया था.

वह आगे बताती है, ‘‘पिताजी सपेरे थे और सांप से ही हमारी जाति की रोजीरोटी चलती थी. बचपन में मैं ने और मेरे घर वालों ने काफी दुख उठाए. 2 दफा तो मेरी सगाई टूटी पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. तब कालबेलिया डांस को ज्यादा लोग नहीं जानते थे जो एक लिहाज से राजस्थान का लोकनृत्य है. इस में माहिर हो कर मैं ने शो करने शुरू किए तो लोगों की खूब तारीफें मिलीं और सरकार की तरफ से विदेश जाने का मौका मिला.’’ इसी दौरान अपने जमाने की हिट फिल्मों ‘गुलामी’ और ‘बंटवारा’ में डांस करने का मौका डायरैक्टर जे पी दत्ता ने दिया तो देशभर के लोग कालबेलिया डांस के मुरीद हो गए जबकि वे इस डांस का नाम तक नहीं जानते थे लेकिन इस की खासीयत उन्होंने समझ और पकड़ ली थी.

भोपाल के एक कार्यक्रम में उस ने राजस्थान का मशहूर लोकनृत्य भंवई डांस पेश कर भी लोगों की खूब वाहवाही लूटी. इस डांस में डांसर्स पानी के मटके पर 4 गिलास रख इतने सधे ढंग से तेज गति से नाचती हैं कि गिलास गिरते नहीं हैं. देखने वालों का जोश देख गुलाबो ने राजस्थान का बंजारा डांस भी पेश किया. देखने वाले की हैरत का ठिकाना उस वक्त नहीं रहा जब कालबेलिया डांस के दौरान गुलाबो ने आंख की पलक से अंगूठी और नोट उठाने का कारनामा कर दिखाया जिस के लिए वह खासतौर से जानी जाती है. वह आगे कहती है, ‘‘आज हालत यह है कि मैं साल में 3 महीने डेनमार्क में रहती हूं. विदेश में मेरा म्यूजिक ग्रुप काफी शोहरत हासिल कर चुका है. फ्रांस में आमिर खान नाम का शख्स मेरा सहयोगी है जो एक म्यूजिक ग्रुप चलाता है. हम ने मिल कर जिप्सी जिकान नाम का ग्रुप बनाया जिस में कालबेलिया डांस में गिटार का इस्तेमाल होता है. हमारे इसी ग्रुप के एक मैंबर टी वी रौबिन ने मेरे ऊपर एक किताब भी लिखी है.’’

लेकिन इन सब बातों से ज्यादा खुशी गुलाबो को इस बात की है कि उस के समाज में उस की वजह से औरतों के बारे में लोगों का नजरिया बदल गया है. वह बड़े फख्र से बताती है, ‘‘अब लोग कहने लगे हैं कि बेटियां बोझ नहीं, सिर का ताज हैं. मुझे समाज का अध्यक्ष चुना जाना इस बात का सुबूत भी है.’’ देशविदेश में कई इनामों व सम्मानों से नवाजी गई गुलाबो के पास अब किसी चीज की कमी नहीं. लेकिन कुछ महीनों पहले, सालों बाद उसे फिर एक हादसे को ले कर दुख हुआ. इस बार वजह उस का बेटा भवानी था. गुलाबो बताती है, ‘‘वह हमारे फार्महाउस में अपने दोस्तों के साथ एक रेव पार्टी कर रहा था, पुलिस के छापे में वह पकड़ा गया. बेटे की इस बेजा हरकत से दुखी गुलाबो ने एक और फैसला यह ले लिया कि अब बेटे से कभी सलीके से बात नहीं करना है. वह कहती है, ‘‘मैं ने उस से एक ही बात कही कि तुम ने मेरी 40 सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया.’’

कालबेलिया डांस की इकलौती मशहूर और कामयाब डांसर गुलाबो चाहती है कि समाज में औरतों की बराबरी से इज्जत हो, जाति की बिना पर भेदभाव न रहे और सपेरों को दूसरे कामधंधों के लिए सरकार कर्ज दे जिस से वे यह पेशा छोड़ इज्जत की जिंदगी जी सकें. बीन बजा कर सांप नचा कर पैसा कमाने को गुलाबो ठीक नहीं मानती. मिसाल बन चुकी गुलाबो की जिंदगी से जो सबक लिए जा सकते हैं उन में खास हैं कि हालात कैसे भी हों, आदमी को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, अपने हुनर को निखारते रहना चाहिए और मेहनत व लगन से काम करना चाहिए. जाति और गरीबी को रोते रहने से वक्ती हमदर्दी तो बटोरी जा  सकती है लेकिन अंधविश्वासों व कुरीतियों की जंजीरें तोड़ने के लिए उन से लड़ने की जरूरत है न कि उन के सामने घुटने टेक देने की.

क्यों पिछड़ रहे हैं दुनिया में मुसलिम

गुलाबी सपनों का शहर, फैशन की राजधानी, साहित्य और कलाओं का महातीर्थ, उदार यूरोप का सब से उदार शहर, जहां जिंदगी जैसे नई हिलोरें भरती है. लेकिन कुछ दिन पहले उस शहर यानी पेरिस पर हुए आईएस के आतंकी हमले ने स्वप्न को दुस्वप्न में बदल दिया. 120 लोगों की मौत से फ्रांस की राजधानी पेरिस सन्न रह गई. वहां जब एक के बाद एक 7 धमाके हुए जिस से पूरा शहर ही नहीं, पूरा देश और पूरी दुनिया दहल गई.

पेरिस अभी शार्ली एब्दो पर हुए हमले की पीड़ा से उबरा भी नहीं था कि उस पर कुछ ही महीने बाद एक और बड़ा हमला हुआ. पहली प्रतिक्रिया में ही लोग दांत पीसते हुए इसलामी आतंक को जिम्मेदार ठहराने लगे थे जिस की तस्दीक थोड़ी देर में ही आईएसआईएस की मुनादी ने कर दी कि हां, हम ने किए हमले.

कट्टरवाद व पिछड़ेपन का दुश्चक्र

मजहब के नाम पर लोगों का सरेआम कत्ल करना और निर्दोषों की मौत का जश्न मनाना आतंकवाद का धर्म बना हुआ है.हमले के बाद से यूरोप में मुसलमान शरणार्थियों को पनाह देने के फैसले का विरोध शुरू हो गया. दरअसल, 2001 के बाद से दुनियाभर में मुसलमानों के प्रति नफरत की भावना बलवती होती जा रही है. यूरोप तो इसलामीफोबिया से ग्रस्त है. लोग कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा किए गए नरसंहार और हिंसा के लिए आम मुसलमान को दोषी मानते हैं.

उन के बारे में यह आम है कि वे बहुत हिंसक और कट्टरवादी हैं जिस से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है. अपनी 1400 साल पुरानी धार्मिक पोथियों से चिपके हुए, उस जमाने के कानून को आज के जमाने में ज्यों का त्यों लागू करने की हिमायत करने वाले, आज भी 1400 साल पुरानी जिंदगी जीने की तमन्ना रखने वाले, उस के लिए गाहेबगाहे हिंसा का सहारा लेने वाले घोर कट्टरपंथी हैं.

तेज रफ्तार से बदलती जिंदगी जीने वाले पश्चिम को कट्टरवादियों से नफरत होने लगे तो अचरज कैसा. कट्टरवादियों की सब से बड़ी कमजोरी यह होती है कि वे किसी भी तरह के बदलाव को बरदाश्त नहीं कर सकते. किसी नए के लिए उन का मन तैयार ही नहीं होता. लेकिन जिंदगी तो निरंतर परिवर्तन का नाम है. जो रुक जाता है उस की प्रगति भी रुक जाती है. जिंदगी की दौड़ में वह पिछड़ जाता है. उन की कट्टरता उन्हें प्रगति की दौड़ में पीछे धकेल देती है. यही हो रहा है मुसलमानों के साथ.

कट्टरता ने मुसलिमों को दुनियाभर में पिछड़ा बना दिया है. इस का उलटा भी हो रहा है, चूंकि वे दुनिया में सब से ज्यादा पिछड़े हैं इसलिए वे कट्टर बनते जा रहे हैं. उन्हें नए से डर लगता है, इसलिए पुराने से चिपके रहते हैं. उन में यह भावना पनपती है कि वे पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि वे अपने धर्म का ठीक से पालन नहीं कर रहे हैं और इसलिए वे धर्म के मामले में कट्टर होते जा रहे हैं. उन में तालिबान, आईएस, बोको हराम और अलकायदा जैसे धार्मिक कट्टरवादी संगठन उभर रहे हैं. इस तरह कट्टरवाद और पिछड़ेपन के दुश्चक्र में फंस गए हैं मुसलमान.

भारतीय मुसलमान इस के अपवाद नहीं हैं. सदियों तक इस देश में शासक रहने के बावजूद मुसलिम समुदाय देश के सब से पिछड़े समुदायों में से एक है. देश के मुसलिमों की दशा पर विचार करने के लिए बनी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि वे दलितों से भी ज्यादा पिछड़े हैं. इस के साथ ही, कमेटी ने उन की स्थिति को सुधारने के लिए कई सिफारिशें भी की थीं. तब मुसलमानों को लगा था कि सच्चर कमेटी किसी देवदूत की तरह है जो पिछड़ेपन के अंधेरे में विकास की रोशनी ले कर आई है. उस के बाद यह माहौल बना कि इस पिछड़ेपन के लिए भारत सरकार और भारतीय समाज का मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया ही जिम्मेदार है. इस बात में थोड़ीबहुत सचाई है भी.

इस विषमता को मिटाने के लिए तब की मनमोहन सिंह सरकार ने अपना सारा खजाना खोल दिया था. तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है.

मुसलमानों के लिए विशेष उपाय योजना

बैंक कर्जों में 15 प्रतिशत कर्ज मुसलमानों को देने का प्रावधान, मुसलिम छात्रों को स्कौलरशिप आदि न जाने कितने विशेष उपाय किए गए थे लेकिन ये उपाय बेकार साबित हुए थे. मुसलमानों की स्थिति पर तब से लगातार बहस होती रही है. तब केंद्र में मुसलिमों की हमदर्द होने का दावा करने वाली कांगे्रस की सरकार थी लेकिन मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.

कुछ साफसाफ बात करने वाले लोगों का कहना है कि मुसलमान हैं ही पिछड़ी मानसिकता के. दुनियाभर के मुसलमान पिछड़े हैं. यही मानसिकता भारत के मुसलमानों को भी प्रभावित किए हुए है. मध्यपूर्व के देशों में मुसलिम ब्रदरहुड नामक इसलामी संस्था यह नारा लगाती है–इसलाम इज सोल्यूशन. लेकिन पश्चिमी देशों में बैठे इसलामी देशों के विशेषज्ञों को लगता है कि मामला उलटा है यानी इसलाम इज प्रौब्लम. मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘मुसलमान सारी दुनिया में पिछड़े हैं, केवल भारत में नहीं, अमेरिका, यूरोप और अन्य जगहों पर भी. ऐसा उन की अलगाववादी सोच के कारण है. उन पर अलगाववादी सोच सवार है. उन का विश्वास है कि उन्हें लगातार अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना है.’’

कई मुसलिम नेता कहते हैं कि इसलाम के संस्थापक पैगंबर मोहम्मद ज्ञानविज्ञान के पक्ष में बहुत थे. उन्होंने कहा था कि ज्ञान पाने के लिए चीन जाना पड़े तो जाओ. पता नहीं, मुसलमान कभी ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन गए या नहीं, लेकिन लड़ने के लिए भारत जरूर पहुंच गए क्योंकि इसलाम के मानने वालों का भरोसा कलम पर कम, तलवार पर कुछ ज्यादा ही रहा है. लेकिन आज का युग ज्ञानविज्ञान का युग है. सूचना का युग है, इसलिए आज सिकंदर वही है जो ज्ञानविज्ञान में अव्वल है. जो उस में पिछड़ गया वह पिछड़ ही जाता है.

मुसलमानों के पिछड़ेपन और कट्टरतावाद में एक पेंच है कि वे पुराने मूल्य, कानून और सोच से तो चिपके रहना चाहते हैं मगर लड़ने की नई तकनीक व हथियारों से उन्हें कोई परहेज नहीं है. यह तो वैसा ही है कि गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज करे. सारी दुनिया में 57 मुसलिम देश हैं. इन में से कुछ देशों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ईरान, तुर्की, इंडोनेशिया) की स्थिति काफी अच्छी मानी जाती है. कुछ देश तो अमीर माने जा सकते हैं पर उत्पादन के कारण नहीं, जमीन में दबे तेल के कारण. लेकिन बाकी मुसलिम देश गरीब और पिछड़े हैं. इस कारण पिछड़ापन उन की पहचान बन गया है. कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के स्वतंत्र पत्रकार डा. फारुक सलीम के एक लेख ने मुसलिम जगत को चौंका दिया. लेख के आंकड़े कुछ साल पुराने हैं लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं. वे कहते हैं, ‘‘हालांकि दुनिया में कई मुसलिम देश काफी अमीर हैं लेकिन मुसलमान दुनिया के गरीबों में भी सब से गरीब हैं.’’

कई देश हैं जो अकेले इतना उत्पादन करते हैं जितना 57 मुसलिम देश मिल कर नहीं कर पाते. तेल के बूते अमीर बनने वाले देशों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर) का मिला कर सकल घरेलू उत्पाद 430 बिलियन डौलर्स ही है. नीदरलैंड जैसे छोटे देश और बौद्ध धर्मावलंबी थाईलैंड का सकल घरेलू उत्पाद इस से कहीं ज्यादा है. दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी मुसलिम है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उन का योगदान 5 प्रतिशत का है. चिंता की बात यह है कि यह प्रतिशत भी लगातार गिरता जा रहा है. दुनिया के जो 9 सब से ज्यादा गरीब देश हैं उन में से 6 मुसलिम देश हैं.

साक्षरता का अभाव

फारुक सलीम ने संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूएनडीपी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर ईसाई और मुसलिम देशों की शिक्षा की स्थिति की तुलना की. 15 ईसाई बहुल देश ऐसे हैं जहां साक्षरता 100 प्रतिशत है. मगर एक भी मुसलिम देश ऐसा नहीं है जहां साक्षरता 100 प्रतिशत हो. मुसलिम बहुल देशों में औसत साक्षरता 40 प्रतिशत के नजदीक है. ईसाई देशों में 40 प्रतिशत ने कालेज शिक्षा भी ली है जबकि मुसलिम देशों में यह आंकड़ा केवल 2 प्रतिशत का है. फारुक सलीम इस के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि मुसलिम देशों में ज्ञान पैदा करने की क्षमता का ही अभाव है. ऐसे में वे ज्ञानविज्ञान की प्रगति में कहीं शामिल हैं ही नहीं.

मुसलिम देशों की जनता साक्षरता में बहुत पीछे है, इसलिए ज्ञान और सूचनाओं का प्रचार करने वाले अखबारों व किताबों के मामले में भी वे बहुत पीछे हैं. पाकिस्तान के कायदेआजम विश्वविद्यालय में 3 मसजिदें हैं, चौथी बनने वाली है लेकिन वहां किताबों की कोई दुकान नहीं है. यह इस बात का प्रतीक है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल कोर्स की किताबों को रटना भर है न कि आलोचनात्मक दृष्टि पैदा करना. सऊदी अरब की सरकार के स्कूलों में जो कुछ किताबें पढ़ाई जाती हैं उन से यही पता नहीं चलता कि धर्म की किताबें हैं या विज्ञान की, जैसे एक किताब का नाम है–‘अन चैलेंजिएबल मिरेकल औफ द कुरान’ या ‘द फैक्ट्स दैट कैन नौट बी डिनाइड बाय साइंस’.

किसी देश द्वारा किए गए निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का कितना हिस्सा है, यह पैमाना होता है कि कोई देश ज्ञानविज्ञान का कितना इस्तेमाल कर पा रहा है. पाकिस्तान के निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का हिस्सा एक प्रतिशत है तो कुवैत, मोरक्को, अल्जीरिया और सऊदी अरब आदि मुसलिम देशों में यह आंकड़ा 0.3 प्रतिशत है. दूसरी तरफ सिंगापुर में यह आंकड़ा 57 प्रतिशत का है. इस से स्पष्ट है कि मुसलिम देश विज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग या तकनीकी क्षेत्र में प्रयोग में कहीं है ही नहीं. नोबेल पुरस्कार भी किसी देश या समाज की वैज्ञानिक प्रगति को नापने का पैमाना होता है. अब तक केवल 2 मुसलिम वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं मगर दोनों ही ने अपनी उच्चशिक्षा पश्चिमी देशों में पाई है. दूसरी तरफ यहूदी, जिन की आबादी दुनिया में मात्र 1 करोड़ 40 लाख है, अब तक 15 दर्जन नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं.

मुसलिम देशों के पिछड़ेपन के बारे में ये चौंकाने वाले आंकड़े देख कर डा. फारुक सलीम सवाल उठाते हैं कि मुसलिम गरीब, निरक्षर और कमजोर हैं. आखिर क्या गलत हो गया? फिर वे खुद ही जवाब देते हैं कि हम पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि हम ज्ञान का निर्माण नहीं कर रहे. हम ज्ञानविज्ञान को अमल में लाने में भी नाकाम रहे हैं. जबकि आज का युग सूचना और ज्ञान का युग है.

इन सारे कारणों से मुसलिम देशों में ज्ञान पर आधारित समाज बनने की संभावना दूरदूर तक नजर नहीं आती. इस की पहली शर्त है शिक्षा व ज्ञान के प्रति जिज्ञासा जिस का मुसलिम समाज में घोर अभाव है. ये तथ्य बात की ओर इंगित करते हैं कि मुसलिम केवल भारत में ही नहीं, दुनियाभर में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हैं. भारत पर दोष मढ़ा जाता है कि यहां की सरकार मुसलमानों से भेदभाव करती है लेकिन उन 57 मुसलिम देशों का क्या? यहां तो मुसलिम सरकारें हैं, फिर मुसलिम शिक्षा में पिछड़े क्यों हैं. इसलिए भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए केवल भारतीय समाज और भारत सरकार को दोषी ठहराना बेकार है.

दरअसल, सच्चर कमेटी को भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का भी पता लगाना चाहिए था, साथ ही साथ, इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि क्यों मुसलमान दुनियाभर में पिछड़े हैं. कहीं

उन की विशिष्ठ धार्मिक सोच, धर्मांधता, रीतिरिवाजों का कट्टरपन, मुल्लामौलवियों का शिकंजा इस पिछड़ेपन की वजह तो नहीं?

इसलाम के कुछ जानकारों का कहना है कि मुसलमानों में अपने हर सवाल के जवाब अपने धर्मग्रंथों में खोजने की आदत पड़ी हुई है जो उन की जिज्ञासा को कुंठित कर देती है. उन्हें यह गलतफहमी है कि उन की हर जिज्ञासा का जवाब कुरान व हदीस में मौजूद है. फिर पढ़नेलिखने की जरूरत क्या है.

ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति

इसलामी धर्मशास्त्र के मुताबिक, इसलाम के पूर्व का युग अज्ञान और अंधकार का युग रहा है, इसलिए उस से कुछ लेने का सवाल ही नहीं उठता. इसलाम खुद कोई ज्ञानविज्ञान कभी पैदा नहीं कर सका. दूसरे धर्मों द्वारा पैदा किए गए ज्ञानविज्ञान को वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाया. यही वजह है कि मुसलिम आक्रांताओं ने कई विश्वविद्यालयों को नेस्तनाबूद कर दिया. उन के ग्रंथालयों को जला डाला. मुसलमान तो इस देश में 7 सदियों तक शासक रहे और काफी लूटखसोट की मगर उस से महल बनवाए, मकबरे बनवाए लेकिन उच्चशिक्षा का कोई संस्थान नहीं बनवाया. अगर उन के नाम पर दर्ज हैं तो कुछ इसलामी शिक्षा देने वाले संस्थान.

मुसलमान आज बाकी समुदायों की तुलना में पिछड़े हैं तो इसलिए कि वे शिक्षा में पिछड़े हैं. वे अपने शैक्षणिक पिछड़ेपन की कीमत चुका रहे हैं और इस के लिए पूरी तरह से मुसलमान ही दोषी हैं. मुसलिम उलेमाओं ने कई फतवे जारी कर दावा किया है आधुनिक शिक्षा गैर इसलामी है. यह मुसलिमों के पिछड़ेपन का कारण है. उलेमाओं के प्रभाव में मुसलिम मानते हैं कि असली शिक्षा धार्मिक शिक्षा ही है. इसलिए सब से पहले मुसलमानों को इस बात के प्रति जागरूक बनाना होगा कि आधुनिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण है.

कई विद्वान मानते हैं कि मुसलमानों में ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति ही उन के आर्थिक और राजनीतिक पतन का मुख्य कारण है. मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने विश्व मुसलिम संगठन की बैठक में मुसलिमों को बहुत सही सलाह दी थी कि मुसलमानों को अपनी रूढि़वादिता छोड़ कर नए समय में नई पहचान बनानी चाहिए क्योंकि सामाजिक परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं. मुसलमानों को यह याद रखने की जरूरत है कि आज के वैज्ञानिक विकास से परिभाषित विश्व में किसी भी देश की इज्जत और शक्ति उस की जनसंख्या पर आधारित नहीं है. आज के विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास ही शक्ति, इज्जत और संसाधनों की गारंटी है.

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अधिक जनसंख्या के साथ आर्थिक पिछड़ापन और कम सामरिक सामर्थ्य है. यहूदी देश इसराईल को देखिए, छोटा सा देश पूरे अरब पर हावी रहता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एक आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से समृद्ध देश है, जिस के सामने पिछड़ेपन के शिकार अरब देशों को झुकना पड़ता है, हार मान लेनी पड़ती है. एक तरफ वे मुसलमान हैं जो आज पश्चिमी देशों में रहते हैं और अपनी समृद्धि से खुश हैं. जबकि वहीं वे मुसलमान भी हैं जो मुसलिम बाहुल्य देशों के बाशिंदे हैं और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे हुए हैं. यूरोप में रहने वाले 2 करोड़ मुसलमानों की आय पूरे भारतीय महाद्वीप के 50 करोड़ मुसलमानों से अधिक है.

कर्मकांडों में समय की बरबादी

पिछले दिनों अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के भाई और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति जमीरुद्दीन शाह ने बहुत पते की बात कही कि मुसलमान अपनी सामाजिक हालत के लिए खुद ही दोषी हैं. वे नमाज और रमजान महीने के कर्मकांडों पर बहुत समय बरबाद करते हैं. इस के अलावा वे अपनी आधी आबादी यानी औरतों का उत्पादन में कोई इस्तेमाल नहीं करते, जिन को उन्होंने घरों में गुलाम बना कर रखा है. अपना सऊदी अरब का अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि वहां भी यही हालात हैं. औरतों को घरों में कैद कर के रखा जाता है. ये हालात सारी मुसलिम दुनिया के हैं. इस कारण मुसलिम देश पिछड़े हुए हैं. रमजान के दिनों में वे काम नहीं करते. सामान्य दिनों में वे ढाई घंटा काम नहीं करते. शुक्रवार के दिन तो बहुत सारा समय नमाज पर खर्च कर देते हैं. इस के बाद बाकी विश्व का वीकेंड आ जाता है. शिक्षा को तो उन्होंने छोड़ दिया है. किसी गैर इस्लामी देश में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है लेकिन इस के बावजूद मुसलमान अवसर न मिलने का रोना रोते रहते हैं. मुसलिम समुदाय उस भेदभाव का रोना रोता है जो असल में है ही नहीं.

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जफर आगा कहते हैं, ‘‘मुसलमान उस दकियानूसी सोच के भी शिकार हुए जिसे उन के उन्हीं उलेमाओं ने पोषित किया और आगे बढ़ाया जो आधुनिकता को गैर इसलामी मानते हैं. यह वह खौफ था जो 19वीं सदी में ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत से मुसलमानों की पराजय के बाद सामने आया.’’

1857 के बाद मुसलिम नेतृत्व ने उभरती हुई पश्चिमी सभ्यता और नई तकनीक को अपनी तहजीब पर हुए हमले के तौर पर लिया. उन्हें इस से इसलाम और मुसलमानों के अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिखाई दिया. यह वह सोच थी जो मदरसों से उभरी. इस सोच ने पश्चिमी ईसाई और पूरब के इसलाम के बीच जारी तहजीबों में मानसिक टकराव का रूप ले लिया. मुसलिम धार्मिक नेतृत्व पश्चिमी सभ्यता से बहुत ज्यादा नफरत करने लगा.

19वीं व 20वीं सदी के आरंभ में उन्होंने मुसलमानों को यह नसीहत देनी शुरू कर दी कि वे आधुनिक शिक्षा, विज्ञान, आधुनिक उद्योग, राजनीति और आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था से दूरी बना लें. मुसलिम नेतृत्व ने फतवों के जरिए मुसलमानों से अपील की कि वे पश्चिमी सभ्यता पर आधारित आधुनिकता को सिरे से नकार दें. इस दौरान सर सैय्यद अहमद खां एकमात्र समाजसुधारक थे जिन्होंने आधुनिक शिक्षा, विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता पर बल दिया.

संकीर्ण सोच के शिकार

दुख की बात यह है कि नेताओं को मुसलमानों के नेतृत्व और भद्रलोक को इस दारुण त्रासदी का कोई एहसास ही नहीं है. वे मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के बजाय उन की धार्मिक अस्मिता से संबंधित सवालों, मदरसे के परंपरागत चरित्र को बनाए रखना, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के मुसलिम चरित्र की रक्षा और बाबरी मसजिद जैसे सवालों में ही उलझे रहे और शिक्षा का मसला हाशिये पर चला गया. अगर पश्चिमी एशिया में तेल के कुएं न हों तो इन देशों की हालत अफ्रीका के गरीब देशों जैसी होती.

यही बात भारतीय संदर्भ में बहुत बेबाकी के साथ मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘मेरा मुसलमानों के लिए 2 सूत्री कार्यक्रम है. एक, वे बड़े पैमाने पर शिक्षा को अपनाएं. शिक्षा से मेरा मतलब है सैकुलर शिक्षा. यह बेहद महत्त्वपूर्ण है. दूसरा, समुदाय पर आधारित सोच को छोड़ वे देश के बारे में सोचें, अपने और अपने संकीर्ण स्वार्थों के बजाय सारे देश के बारे में सोचें.’’ दरअसल, मौलाना की बातों में काफी दम है. आधुनिक शिक्षा और उस से निकली आधुनिक सोच ही ऐसे जहाज हैं जो मुसलिमों का बेड़ा पार लगा सकते हैं.

मैला ढोने की प्रथा राष्ट्रीय कलंक

स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय को ले कर देशभर में खूब चर्चा है. एक पक्ष इस को ले कर वाहवाही लूट रहा है, नित नए दावे और आंकड़े पेश कर रहा है तो दूसरा पक्ष इन दावों की कलई खोलने में जीजान से लगा हुआ है. साथ ही, वह इस अभियान के बहाने लगाए गए टैक्स की आलोचना कर रहा है. इन सब के बीच, मानवता को शर्मसार करने वाली सिर पर मैला ढोने की प्रथा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं हो रहा है. जबकि इस प्रथा को खत्म करने का कागजी अभियान काफी पुराना है. आजादी के बाद 1948 में इसे खत्म करने की मांग पहली बार हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई थी. तब से ले कर अब तक, इस प्रथा को खत्म करने की जबानी कोशिश बहुत हुई है. कानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. यह प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है.

दुनिया के सब से बडे़ लोकतंत्र में यह प्रथा एक कलंक है. बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ जब दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था इस समय मंदी की मार झेल रही है और दूसरी तरफ सरकारी दस्तावेजों में ही सही, भारत ने एक सम्मानित विकास दर को प्राप्त कर लिया है और विदेशी निवेशकों के लिए हमारा देश लाभकारी बन गया है, तब भी इस देश में यह देखना कि एक विशेष समुदाय के लोग मैला अपने सिर पर ढोने के लिए अभिशप्त हैं, बेहद दुखद है.

2 अक्तूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा के साथ झाड़ू को तो इतना अधिक प्रचार मिला कि दिल्ली की सत्ता अरविंद केजरीवाल के हाथ लग गई. यह और बात है कि स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने और केजरीवाल के सत्ता पर काबिज होने के बाद देश की राजधानी दिल्ली में कुछ ज्यादा ही कचरा फैला. अभियान शुरू होने के साथ समयसमय पर सूखे पत्ते बटोर कर स्वच्छ अभियान में शामिल होते प्रधानमंत्री समेत छुटभइए नेता तसवीरों में खूब कैद हुए लेकिन किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया कि हजारोंहजार सालों से हमारे ही देश में कुछ लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सिर पर मैला ढो रहे हैं, पाखाने को हाथों से उठा रहे हैं, सैप्टिक टैंक में कमर तक डूब कर सफाई कर रहे हैं. यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है? स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद अछूता रहा यह मुद्दा अभियान के मुंह पर क्या झन्नाटेदार तमाचा नहीं है?

वर्णव्यवस्था के साथ सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. नारद संहिता और वाजसनेयी संहिता के अनुसार, दलितों के जिम्मे यह काम सौंपा गया है. इस के बाद बौद्ध व मौर्यकाल में भी यह परंपरा रही है. 1556 ईसवी में मुगलकाल में जहांगीर ने दिल्ली से लगभग 120 किलोमीटर दूर अलवर में 100 परिवारों के लिए एक सार्वजनिक शौचालय बनवाया था. लेकिन वहां मानव मैला का निबटारा कैसे किया जाता था, इस का विस्तृत ब्यौरा नहीं मिला है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वहां भंगी मैला ढोते थे. ब्रिटिश भारत के म्यूनिसिपल रिकौर्ड के अनुसार भी मल का निबटारा भंगी या मेहतर द्वारा होता था.

मैला ढोने का चलन

दुख की बात है कि आज भी यह परंपरा बदस्तूर जारी है. विभिन्न राज्यों में आज भी शुष्क शौचालय उपयोग में होता है. इन शौचालयों में पाखाना उठाने का काम इंसान करते हैं, वह भी हाथों से झाड़ू के जरिए. झाड़ू, बाल्टी और पैन के अलावा कोई विशेष उपकरण उन के पास नहीं होता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब के गांवदेहात में आज भी पाखाना सिर पर ढो कर ले जाने का चलन है.

हालांकि आजादी के बाद 1948 में महाराष्ट्र हरिजन सेवक संघ ने मैला ढोने की प्रथा का पहली बार विरोध करते हुए इसे खत्म करने की मांग की थी.

1949 में बर्वे समिति ने सफाईकर्मियों के लिए काम के माहौल में सुधार की सिफारिश की थी. अगर राज्यों की बात की जाए तो पहली बार 1950 में तमिलनाडु के गोबिचेट्टीपलयाम म्युनिसिपल्टी के चेयरमैन व स्वतंत्रता सेनानी जी एस लक्ष्मण अय्यर ने इस पर प्रतिबंध लगाया था. इस के बाद 1957 में एक अन्य समिति ने भी सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की सिफारिश की. 1968 में राष्ट्रीय श्रम आयोग ने एक समिति का गठन किया, जिस के जिम्मे झाड़ूदार और मैला ढोने वाले के कामकाज के माहौल की जांच का काम था. इन तमाम संगठन और समितियों ने सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की मांग व सिफारिश की थी.

बहरहाल, 2001 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन शुष्क शौचालयों की सफाई के काम में तब लगभग 7 लाख लोग लगे हुए थे, जबकि गैर सरकारी आंकड़ा 12 लाख बताता है. लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़े की मानें तो 10 सालों के बाद हमारे देश के 13 लाख लोग सिर पर मैला ढोने और अस्थायी शौचालयों की सफाई के काम में लगे हुए हैं.

उन से इस तरह का काम कराया जाना अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार प्रतिरोध) कानून के तहत भी अपराध करार दिया गया है. 1993 में नरसिम्हा राव सरकार में शहरी विकास मंत्रालय ने सिर पर मैला ढोने के रोजगार और शुष्क शौचालय निर्माण (निवारण) कानून को पारित किया. इस का उल्लंघन किए जाने पर 1 साल के लिए जेल या 2 हजार रुपए का जुर्माना या दोनों का प्रावधान किया गया था. केंद्र सरकार की ओर से सफाई कर्मचारी राष्ट्रीय आयोग का भी गठन किया गया. उसी साल सफाई कर्मचारियों और उन के परिजनों के लिए पुनर्वास योजना की भी घोषणा की गई. योजना के कार्यान्वयन का दायित्व सामाजिक न्याय व आधिकारिता मंत्रालय पर था.

बहरहाल, 2003 की कैग रिपोर्ट के अनुसार, 16 राज्यों ने उक्त कानून को अपने यहां मान्यता दी. लेकिन किसी ने इसे लागू नहीं किया. महज 6 राज्यों ने अपने यहां हर्जाने का कानून लागू किया. 2002-07 तक की 10वीं पंचवर्षीय योजना में मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य निर्धारण किया गया था. कैग रिपोर्ट के अनुसार, 600 करोड़ रुपए व्यय किए जाने के बाद भी परियोजना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाई. इस की वजह सामाजिक जटिलता को बताया गया.

17 जून, 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस पेशे को भारत की विकास की प्रक्रिया में एक धब्बा बताते हुए अगले 6 महीनों में इस प्रथा को खत्म करने का वादा किया था, जो पूरा नहीं हुआ. 10 सितंबर, 2011 को तमिलनाडु विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव आया, जिस में कहा गया कि पुराना कानून कमजोर ही नहीं, उस में बहुत तरह की खामियां हैं. इसीलिए केंद्र को एक नया और पुख्ता कानून बनाना चाहिए, जो देश के सभी राज्यों को मान्य हो.

इस के बाद 12 मार्च, 2012 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में कहा कि सरकार मैला ढोने और मैला की सफाई को ले कर 2 नए कानून ले कर आएगी, जिन में समाज के इन लोगों के लिए पुनर्वास और वैकल्पिक सम्मानित रोजगार का प्रावधान होगा. गौरतलब है कि 1993 में पारित हुए कानून में केवल मैला ढोने वालों को ही शामिल किया गया था. लेकिन 2012 के नए कानून में शुष्क शौचालय, खुली नालियों, रेललाइन से मैला उठाने वालों, सैप्टिक टैंक की सफाई करने वालों को शामिल कर इस कानून को विस्तृत और व्यापक बनाने की कोशिश की गई.

मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार ने मैला ढोने का रोजगार निवारण और पुनर्वास अधिनियम 2013 पारित किया. चूंकि यह मामला केंद्र व राज्य दोनों का है इसीलिए इस से संबंधित अधिसूचना तमाम राज्यों को भी भेज दी गई.

इस कानून के तहत ऐसे शौचालय के निर्माण करने पर या किसी से इस तरह के काम ले कर पहली बार कानून का उल्लंघन करने पर 2 साल की सजा या 2 लाख रुपए का जुर्माना या दोनों दिए जाने का प्रावधान है. फिर से इस के उल्लंघन पर 5 साल की सजा या 5 लाख रुपए का जुर्माना भरने या जेल व जुर्माना दोनों दिए जाने का प्रावधान है.

यह गैर जमानती कानून है. इस के अलावा, आर्थिक मदद के साथ आवास सुविधा और बच्चों को छात्रवृत्ति, अन्य कोई पेशा अपनाने के लिए कर्ज व प्रशिक्षण दे कर उन के पुनर्वास का भी प्रावधान किया गया. लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी महकमे में इतना भ्रष्टाचार है कि सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए लोग आगे आते ही नहीं हैं.

नतीजतन, 1993 में और फिर 2013 में बनाए गए कानून के तहत सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर कानूनन प्रतिबंध के बावजूद आज की तारीख में भी यह प्रथा देश के विभिन्न हिस्सों में बदस्तूर जारी है. पिछले 22 सालों में इस कानून के तहत किसी को सजा नहीं हुई है. शायद 13 लाख लोगों का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है. यही जमीनी हकीकत है.

दलित समाज की पीड़ा

दलितों की राजनीति कर के अपना राजनीतिक कैरियर संवारने वाले नेता इस बात से बाखबर हैं कि इस काम में दलित समुदाय के लोग ही लगे हुए हैं. इस पर भी, उन में से लगभग 80 प्रतिशत दलित महिलाएं हैं जो यह काम कर रही हैं. वहीं, केंद्र सरकार आंखें मूंदे स्वच्छ भारत अभियान में अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है. जाहिर है ईमानदार कोशिश के अभाव में सरकारी अभियान तसवीरों, पोस्टरों और नारों तक सिमट कर रह गया है और इस प्रथा के खिलाफ बना कानून आज केवल कागजों का पुलिंदा बन कर रह गया है.

बहरहाल, इस समस्या के कई पक्ष हैं. एक, देश में इस प्रथा के खिलाफ समयसमय पर कानून बने, सरकारी योजनाओं की घोषणाएं की गईं लेकिन इन का ठीक तरीके से क्रियान्वयन नहीं हो पाया. दो, हमारी जातिपांति और भेदभाव की मानसिकता नहीं बदली है. जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदल जाती तब तक न तो इस प्रथा को खत्म किया जा सकता है और न ही कानून और तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें मिल पाएगा. तीन, जातिपांति की इसी सामाजिक मानसिकता का लाभ राजनीतिक पार्टियां और नेता उठाते हैं. इस मानसिकता के चलते वे अपना वर्तमान व भविष्य चमकाने में लगे हुए हैं. दलित राजनीति के बल पर नेता केवल सत्ता ही नहीं हासिल करते हैं, बल्कि सत्ता पर काबिज होने के बाद अपनी मूर्तियां लगाने में लग जाते हैं. इस से दलितों का भला कहां हो पाता है. जाहिर है मानवता पर लगे इस धब्बे को मिटाने के लिए इस मुद्दे पर जमीनी स्तर पर ईमानदारी के साथ काम करने की जरूरत है.

1917 में महात्मा गांधी के निर्देश पर साबरमती आश्रम के निवासियों ने खुद अपने शौचालयों की सफाई की. इसीलिए मोदी सरकार ने 2 अक्तूबर, 2014 को 5 साल तक के लिए स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया और इस में समाज के सभी स्तर के लोगों के सक्रिय सहयोग का प्रयास किया. लेकिन इस अभियान में कहीं भी सिर पर मैला ढोने वालों का कोई जिक्र नहीं है. यह अभियान केवल सफाई, शौचालय निर्माण और निकासी पर केंद्रित हो कर रह गया है. स्वच्छ भारत निर्माण अभियान के तहत इस अमानवीय प्रथा को भी शामिल किया जाना चाहिए. अगर मोदी सरकार की नीयत वाकई साफ है तो 5 साल क्या, अगले 2 साल में इस अमानवीय प्रथा को समूल खत्म किया जाना संभव है. वरना तो आजादी के 6 दशक के बाद भी हजारोंहजार परिवार समाज के निचले स्तर का जीवन जीने को मजबूर हैं. हां, यह प्रथा हमारे देश के लिए राष्ट्रीय लज्जा है. इसे खत्म होना ही चाहिए.

बोलिए लालूजी

बिहार में अब शांति है. लोग अगले 5 सालों के लिए फुरसत पा चुके हैं लेकिन जीत के बाद हीरो बन कर उभरे राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव की बातें सुनने के लिए जरूर बेचैन हैं जो जाने क्यों खामोश हैं. जीत के बाद लालू ने कई फिल्मों सरीखे डायलौग मारे थे कि अब काशी जा कर मोदी की लुटिया डुबो दूंगा, इसलिए न केवल बिहार, बल्कि देशभर के लोग पटना से काशी का रास्ता ताक रहे हैं लेकिन लालू ने कदम नहीं उठाए तो तरहतरह की बातें होना भी लाजिमी हैं, जो आमतौर पर देश के बड़े विश्लेषक केंद्रों, चाय के होटलों और पान की गुमटियों पर होती हैं. ये विश्लेषक किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं पर उन की खामोशी को उन के समधी मुलायम सिंह यादव की इच्छा और अस्तित्व से जोड़ कर देख रहे हैं.

लोकायुक्त और जनहित

लोकायुक्त क्या करता है और उस की जरूरत क्या है, इस सवाल पर कोई नहीं सोचता. वजह, लोगों ने मान लिया है कि चूंकि लोकायुक्त होता है इसलिए उसे होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने लोगों की इन्हीं भावनाओं का यथोचित सम्मान करते हुए रिटायर्ड जज वीरेंद्र सिंह को लोकायुक्त नियुक्त कर बेवजह के झंझट से मुक्ति और उत्तर प्रदेश की सरकार को झटका दे दिया, लेकिन लखनऊ के एक नागरिक सच्चिदानंद गुप्ता ने इस पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगा दी. ऐसी याचिकाओं में बड़ा मजा आता है. इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने बीती 20 दिसंबर को सुनवाई करते हुए वीरेंद्र सिंह के शपथग्रहण पर रोक लगा दी. यानी कि आरोप बड़े शाकाहारी थे कि राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने तथ्य नहीं रखे.

साध्वी का उखड़ा मूड

कुंभ मेले की रेलमपेल में नदी में शुभमुहूर्त में डुबकी लगा पाना वाकई जोखिम वाला, रोमांचक और चुनौती भरा काम है. इसीलिए इस पुण्य को लूटने व मोक्ष पाने के लिए करोड़ों श्रद्धालु जिंदगी दांव पर लगाने को तैयार रहते हैं क्योंकि वह नश्वर होती है. लेकिन उज्जैन में होने जा रहे सिंहस्थ को ले कर जाने क्यों साध्वी उमा भारती का मूड उखड़ा हुआ है. उन्होंने घोषणा कर दी है कि वे कुंभ में नहीं जाएंगी. अब निकालने वाले तरहतरह के मतलब निकाल रहे हैं जिन में से पहला यह है कि शिवराज को यह कमजोर करने का तरीका है. एक मतलब यह भी निकाला जा रहा है कि क्षिप्रा नदी गंदी है जो उमा के डुबकी लगाने लायक नहीं है. पर यह ज्यादा अहम है कि वे दरअसल कुंभ के सियासी अखाड़े की सियासत का हिस्सा नहीं बनना चाहतीं.

जश्न मनाओ, भरोसा जीतो

आमलोग गुंडेमवालियों से ज्यादा खौफ खाते हैं या पुलिस वालों से, इस सवाल का जवाब निष्पक्षता से दिया जाए तो औसत नतीजा पुलिस वालों के हक में तो नहीं निकलने वाला. पुलिस वालों को ऐसा क्या करना चाहिए जिस से उन की छवि सुधरे. इस बाबत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कच्छ के रण में आयोजित 3 दिवसीय सम्मेलन में देशभर के पुलिस निदेशकों को महत्त्वपूर्ण टिप्स दिए. इन में से एक अहम यह था कि पुलिस वालों को थानों में आम लोगों की उपलब्धियों का जश्न मनाना चाहिए. बात में दम इस लिहाज से है कि वाकई थानों का बाहरी माहौल बेहद खौफनाक सा रहता है. वैसे देशभर के थानों में अंदरूनी और कथित तौर पर रोज दारू, मुरगा पार्टियां होती रहती हैं. बस इस में आम लोग नहीं, बल्कि खास लोग होते हैं जो इन पार्टियों को स्पौंसर करते हैं.

घोटालों की गिरफ्त में क्रिकेट संघ

क्रिकेट में घोटाले के एक और मामले ने सियासी उबाल ला दिया है. आईपीएल के सरताज रहे ललित मोदी के साथ भाजपा की केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नाजायज कारोबारी रिश्तों की बदनामी का दाग धुला भी नहीं था कि अब वित्त मंत्री अरुण जेटली के दामन पर क्रिकेट का कलंक चस्पां हो गया है.

बीसीसीआई, आईपीएल और राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व जम्मूकश्मीर जैसे राज्य क्रिकेट संघों में व्याप्त अनियमितताओं के खुलासों के बाद ताजा मामला दिल्ली और जिला क्रिकेट संघ (डीडीसीए) में भ्रष्टाचार का सामने आया है. मामले में केंद्र और दिल्ली सरकार आमनेसामने हैं पर मामले में भाजपा मुसीबत से घिरी दिख रही है. उस के भ्रष्टाचारमुक्त भारत और अच्छे दिन आएंगे जैसे नारे झूठे साबित होते जा रहे है.

डीडीसीए में भ्रष्टाचार के मामले में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कठघरे में हैं. जेटली करीब 13 साल तक डीडीसीए के अध्यक्ष रहे हैं. उन पर सीधेसीधे आरोप तो नहीं हैं पर उन के कार्यकाल में हुए कोटला स्टेडियम के निर्माण व अन्य मामलों में हुई अनियमितताओं के चलते वे विपक्ष के निशाने पर हैं. जेटली पर आरोप कोई और नहीं, उन्हीं की पार्टी के सांसद और पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद ने लगाए हैं. दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने मामले की जांच शुरू कर केंद्र को और भड़का दिया. दिल्ली सरकार के जांच के आदेश के अधिकार पर ही सवाल उठाए गए और जेटली ने अरविंद केजरीवाल पर मानहानि का दावा ठोंक दिया. इस मामले के बाद पहले से ही उभर रहे असंतोष के बीच भाजपा की सियासी और कानूनी दिक्कतें भी बढ़ गई हैं.

असल में डीडीसीए में भ्रष्टाचार की बात उस समय उजागर हुई जब 15 दिसंबर को दिल्ली सचिवालय में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर सीबीआई ने छापा मारा और कुछ फाइलें टटोल कर अपने साथ ले गई. इस छापे से अरविंद केजरीवाल केंद्र सरकार पर नाराज हुए. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हुए आरोप लगाया कि यह छापा प्रधानमंत्री के कहने पर उन के दफ्तर पर मारा गया. इसे राज्य की स्वायत्तता पर हमला बताया. पूरी आम आदमी पार्टी भाजपा हमलावर हो गई.

अरविंद केजरीवाल ने खुलासा किया कि असल में उन के पास डीडीसीए में भ्रष्टाचार संबंधी फाइलें थीं और वे शीघ्र ही जांच बैठाने वाले थे. इसलिए मोदी ने अपने वित्त मंत्री को बचाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया और उन के दफ्तर की फाइलें टटोली गईं. उधर, भाजपा नेताओं का कहना है कि सीबीआई ने छापा केजरीवाल के दफ्तर में नहीं, प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार के यहां मारा. राजेंद्र कुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की जा रही है. विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने अपने लोगों को सरकारी खजाने से लाभ पहुंचाया.

केजरीवाल ने राजेंद्र कुमार को ईमानदार अधिकारी के तौर पर प्रमुख सचिव बनाया था. प्रधान सचिव बनाने से पहले ही राजेंद्र कुमार के भ्रष्टाचार के मामलों पर चर्चा सामने आ चुकी थी. इस से केजरीवाल की ईमानदारी पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

मामले में कीर्ति आजाद के पार्टी से निलंबन और दूसरे नेताओं की नाराजगी से  संदेश यह जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व भ्रष्टाचार को संरक्षण देने में शामिल है. बहरहाल, आम आदमी पार्टी और कीर्ति आजाद के आरोपों पर यकीन किया जाए तो जेटली के कार्यकाल के दौरान क्रिकेट संघ में 400 करोड़ रुपए की हेराफेरी की गई.

क्या है मामला

डीडीसीए ने स्टेडियम बनाने के लिए 24 करोड़ रुपए आवंटित किए थे. इस के निर्माण में 114 करोड़ रुपए खर्च हो गए. इतना पैसा कैसे खर्च हो गया? एक कंस्ट्रक्शन कंपनी को 57 करोड़ रुपए दिए गए तो 57 करोड़ रुपए कहां गए? कहा गया है कि स्टेडियम में कौर्पोरेट बौक्स समेत अन्य निर्माण कराए गए. आम आदमी पार्टी का आरोप है कि 1.55 करोड़ रुपए का 3 कंपनियों को कर्र्ज दिया गया, उस का कोई ब्योरा नहीं है. जिन 5 कंपनियों को अलगअलग ठेके दिए गए, उन के ईमेल, पते और निदेशक सब एक हैं. यह सब बड़ा फर्जीवाड़ा है. डीडीसीए के खजांची नरेंद्र बत्रा के साथ अरुण जेटली के रिश्तों पर भी सवाल उठाए गए.

आरोप है कि डीडीसीए द्वारा लैपटौप के एक दिन के किराए की राशि 16 हजार रुपए चुकाई गई. इस राशि में थोक के हिसाब से एक नया लैपटौप खरीदा जा सकता है. प्रिंटर का एक दिन का किराया 3 हजार रुपए बताया गया जो करीब उस की कीमत के बराबर है.

कहा गया है कि सरकार द्वारा 5 हजार करोड़ रुपए से अधिक कीमत की 14 एकड़ जमीन कुछ लाख रुपए सालाना दर पर डीडीए को दिए जाने के  अलावा उसे करोड़ों रुपए सालाना टैक्स छूट भी मिलती है.

धांधलियों को उठाने वाले कीर्ति आजाद कई सालों से कोशिश में थे कि डीडीसीए में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार पर अरसे से अध्यक्ष रहे अरुण जेटली कार्यवाही करें पर उन की नहीं सुनी गई. आजाद के साथ पूर्व क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी भी मामले को उठाते रहे हैं. जेटली ने आजाद पर मानहानि का केस दायर नहीं कराया. इस पर आजाद ने उन्हें चुनौती दी. बहरहाल, कीर्ति आजाद और बिशन सिंह बेदी दोनों की डीडीसीए की सदस्यता पर खतरा मंडराने लगा है.

मामले में दिल्ली सरकार ने विधानसभा का एक दिन का विशेष सत्र बुला कर डीडीसीए में 1992 से 2015 के बीच हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए पूर्व सौलिसिटर गोपाल सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में एक जांच आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी. सरकार ने आयोग को कहा कि 3 महीने में वह अपनी रिपोर्ट सौंपे.

भाजपा ने विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया और इस अधिसूचना को उप राज्यपाल नजीब जंग ने असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि दिल्ली सरकार को जांच आयोग बैठाने का अधिकार नहीं है क्योंकि डीडीसीए कंपनी ऐक्ट के तहत रजिस्टर्ड है और यह विभाग केंद्र के अधीन है. इसे ले कर दोनों ओर से बहस जारी है.

इस से पहले केजरीवाल ने प्रैस कौन्फ्रैंस कर के मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने प्रमुख सचिव के बहाने सीबीआई द्वारा छापा मेरे दफ्तर पर मारा. यह खेल केवल अरुण जेटली को बचाने के लिए किया गया क्योंकि दिल्ली सरकार डीडीसीए में भ्रष्टाचार पर जांच आयोग बैठाने की तैयारी कर रही थी. यह भी कहा गया कि डीडीसीए को अमीरों के क्लब की तरह चलाया गया, आम आदमी वहां जा ही नहीं सकते थे.

छापे पर गुस्साए केजरीवाल द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा मांगा गया और ट्विटर पर उन्हें कायर व मनोरोगी करार दिया गया. केजरीवाल के इस ट्वीट पर भाजपा ने उन्हें इस तरह की भाषा को ले कर खूब आड़े हाथों लिया.

इसी बीच, पूर्व आईपीएस के पी एस गिल ने जेटली पर आरोप लगाया कि  एडवाइजरी बौडी का सदस्य रहते हुए उन्होंने अपनी बेटी सोनाली जेटली को हौकी इंडिया का वकील बनाया और फीस के तौर पर भारी भुगतान दिलवाया. गिल ने केजरीवाल से हौकी इंडिया में हुई अनियमितताओं की जांच की मांग भी की है.

मामले में भाजपा के सांसद और सीनियर वकील सुब्रह्मण्यम स्वामी और पूर्व भाजपाई व वकील राम जेठमलानी भी केजरीवाल के पक्ष में आ गए. कीर्ति आजाद का दावा है कि उन की लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, डीडीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार से है.

क्रिकेट में भ्रष्टाचार का मामला नया नहीं है. आएदिन किसी न किसी राज्य क्रिकेट संघ में अनियमितताओं के होने का भंडाफोड़ होता आया है. अभी दिसंबर माह में राजस्थान क्रिकेट संघ में ललित मोदी की वापसी ने सब को चौंका दिया. कुछ माह पहले हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ के अध्यक्ष भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर पर करोड़ों रुपयों की गड़बडि़यों के आरोप सामने आए थे. कहा गया था कि अनुराग ठाकुर ने भाजपा के पिछले कार्यकाल के दौरान अपने पिता के नाम का फायदा उठाते हुए ग्रामीणों से खिलाडि़यों के लिए आलीशान होटल बनाने के लिए जमीन अधिगृहीत कर ली थी. कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने आरोप लगाया था कि हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ को 16 एकड़ जमीन 1 रुपए महीने किराए पर 99 साल के लिए दी गई थी. इस से सरकार को 100 करोड़ का घाटा हुआ.

इस मामले में भी भाजपा नेता की कथित कंपनी को निर्माण का ठेका देने का आरोप है. कांग्रेस ने कहा था कि हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ अगर कोई कंपनी चलाना चाहता है तो उसे इस के लिए भूमि खरीदनी चाहिए.

कोर्ट का आदेश

कुछ दिन पहले जम्मूकश्मीर हाईकोर्ट ने राज्य क्रिकेट संघ के खिलाफ करोड़ों रुपए के क्रिकेट घोटाले की सीबीआई जांच किए जाने के आदेश दिए थे. घोटाले में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला समेत जम्मूकश्मीर क्रिकेट संघ के कई अधिकारी शामिल बताए गए.

2012 में सामने आए इस घोटाले के मद्देनजर, राज्य में क्रिकेट के विकास के लिए दी गई करोड़ों की राशि राज्य क्रिकेट संघ के अधिकारियों द्वारा अलगअलग खातों में स्थानांतरित कर दी गई थी. इस पर स्थानीय क्रिकेट खिलाडि़यों-अब्दुल माजिद डार और निसार अहमद खान द्वारा दायर जनहित याचिका पर न्यायालय ने यह आदेश दिया था.

पिछले दिनों केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर ललित मोदी की नाजायज मदद किए जाने के आरोप लगे थे. इन दोनों नेताओं पर मोदी की मदद के बदले लाभ लेने की बातें सामने आई थीं. मोदी ने गलत तरीके से विदेशी कंपनी के शेयर वसुंधरा के सांसद बेटे दुष्यंत सिंह की कंपनी में ट्रांसफर कराए थे तो सुषमा की बेटी को आईपीएल के वकील के पैनल में रखा गया था. सुषमा स्वराज के पति पहले से ही ललित मोदी के कानूनी मामले दिखते रहे हैं.

2009 में राज्यसभा में जेटली द्वारा दाखिल शपथपत्र के अनुसार, उन के पास मात्र 23 करोड़ रुपए संपत्ति थी. नियमित वकालत न करने के बावजूद जेटली 120 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक बन गए. संपत्ति इजाफे के मामले में जेटली ने किसी कौर्पारेट कंपनी को भी पीछे छोड़ दिया. केवल 5 साल में इतना इजाफा आश्चर्यजनक है. कहा जाता है कि यह दौलत पटियाला में उन के प्रतिद्वंद्वी रहे महाराज अमरिंदर सिंह की संपत्ति से भी अधिक है.

जेटली पिछले करीब 3 दशकों से बिना कोई चुनाव जीते पार्टी में शीर्ष पर बने रहे हैं. पार्टी ने उन्हें चोर दरवाजे से संसद में भेजती रही. वे जनता के नेता भले न बन पाए हों, ताकतवर नेता और वकील होने के नाते कौर्पोरेट और कंपनियों की वकालत करते रहे हैं. कई बार उन्होंने काले कारनामे करने वालों को बचाने से परहेज नहीं किया.

आईपीएल की गड़बडि़यां जगजाहिर हैं. बीसीसीआई के कामकाज में बदलाव के लिए गठित लोढा कमेटी की रिपोर्ट में इस संस्था के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का खुलासा है और इसे दूर करने की सिफारिशें हैं.  

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नेता और व्यापारी भारतीय खेलों को बरबाद कर रहे हैं. इन सब के बावजूद देश में क्रिकेट माफिया द्वारा सरकारी संसाधनों की लूट जारी है. हर राज्य क्रिकेट संघ में राजनीतिबाज काबिज हैं. ये अपनेअपने तरीके से क्रिकेट संघों को हांक रहे हैं. इन संघों को न सरकार का भय है, न कानूनकायदों का. क्रिकेट संघों पर लंबे समय से आरोप लगते आ रहे हैं पर इन की जांच करने वाला कोई नहीं है.

गुजरात में पहले नरेंद्र मोदी थे, फिर अमित शाह को गुजरात राज्य क्रिकेट संघ का प्रमुख बना दिया. राजस्थान में सी पी जोशी रहे, ललित मोदी वसुंधरा के करीबी माने जाते हैं. बिहार में लालू प्रसाद यादव रहे, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, महाराष्ट्र में शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, राजीव शुक्ला, दिगंबर कामथ जैसे दिग्गज क्रिकेट में चौधराहट से जुड़े रहे हैं. यही नेता खेल और खिलाडि़यों के खेवनहार बने रहे हैं, जिन को खेलों की कोई जानकारी नहीं है.

असल में क्रिकेट संघों में खूब माल है. राजनीतिबाजों ने खिलाडि़यों को दरकिनार कर दिया और राज्य क्रिकेट संघों पर खुद कुंडली मार कर बैठ गए. इन में हर पार्टी के लुटेरे हैं और लुटेरो का धर्म केवल लूट है. इन में गजब की एकता है. लूट का भांड़ा फूटने पर एकदूसरे को बचाना फर्ज समझने लगते हैं, इसीलिए एनसीपी के शरद पवार अरुण जेटली के पक्ष में बोल रहे हैं तो कांग्रेसी राजीव शुक्ला भी जेटली के पक्ष में हैं.

इधर, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मोदी की ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ वाली बात पर निशाना साधते हुए यह भूल जाते हैं कि 2013 में उन्हीं की सरकार ने डीडीसीए में मनी लौंड्रिंग और बोगस कंपनियों को गैर कानूनी पेमैंट जैसे आपराधिक मामलों के गंभीर अपराधों की जांच से संबंधित विभाग ने सामान्य पैनल्टी लगा कर रफादफा कर दिया था.

जेटली कहते हैं कि उन्होंने कोई लाभ नहीं लिया पर सवाल है कि फिर क्यों वे एक बड़े राजनीतिबाज होते हुए जिला क्रिकेट खेल संघ के 13 साल तक अध्यक्ष रहे? जेटली खुद इस मामले में पाक साफ हो सकते हैं पर डीडीसीए के 13 साल तक अध्यक्ष और बाद में संरक्षक बने रहने से क्या उन की जवाबदेही खत्म हो जाती है?

बिचौलियों का बोलबाला

क्रिकेट में मैच फिक्सिंग से ले कर सट्टेबाजी, नशाखोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार आम है. इस में कर्पोरेट, बौलीवुड, राजनीति और बिचौलिए मिल कर कराड़ों रुपए कमा रहे हैं. यह वह खेल है जिस में खिलाड़ी देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारतरत्न तक दिया जाता है. इस बदनाम खेल के लिए पिछले दिनों सचिन तेंदुलकर को यह सम्मान दिया गया था. क्रिकेट संघों में सुनियोजित, संगठित गिरोहों का भ्रष्टाचार है जो अपने बचाव के लिए कानून को वर्षों तक खेल के तौर पर खेलने में माहिर हैं. नेता और नौकरशाहों द्वारा मिल कर लाखोंकरोड़ों रुपए के वारेन्यारे किए जा रहे हैं. मोटे अनुमान के अनुसार, ऐसे घोटालों में 70 फीसदी तक रकम इन की जेब में चली जाती है. मुश्किल यह है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के तमाम दावों के बाद भी मामले खुलते जा रहे हैं और राजनीतिक पार्टियों व सरकारों की नीयत भ्रष्टों पर कानूनी कार्यवाही करने की नहीं, उन्हें बचाने की दिखाई पड़ती है.

दुख की बात है कि जो नेता कानून बनाते हैं, किसी न किसी रूप में अमल भी उन्हीं के हाथों में होता है. भ्रष्ट नेता या नौकरशाह के खिलाफ कार्यवाही का आदेश सरकार ही देगी. ऐसे में ईमानदारी की उम्मीद कौन करे? कहा जाता है कि सीबीआई के पास करीब 1 हजार नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की रिपोर्ट है पर उन के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं हुई. ये लोग राजनीतिबाजों के घपलों में शामिल हैं, लिहाजा इन्हें बचाने का जिम्मा नेताओं का ही है, इसलिए कार्यवाही कौन करे. जाहिर है हमारा देश किसी विदेशी द्वारा नहीं, अपनों द्वारा ही लूटा जा रहा है. मजे की बात देखिए, अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर भुक्तभोगी जनता के अधिकारों की अनदेखी की जा रही है.

बदलाव की मोदी ने जो उम्मीद जगाई थी वह अब धराशायी होती जा रही है. अच्छे दिनों की उम्मीद में भाजपा को कई मोरचों पर नाकामी के बाद भ्रष्टाचार पर आखिरी आस थी पर मोदी दिल्ली सचिवालय में सीबीआई द्वारा मारे गए छापे में निकले भूत को उतारने का मंत्र भूल गए हैं. उन की मुश्किल यह है कि अगर जेटली से इस्तीफा लें तो सरकार का नुकसान, न लेने पर बचीखुची साख जाने का खतरा. मामले में पार्टी के लिए मुसीबतें बढ़ सकती हैं. अगर प्रथमदृष्ट्या मामला जेटली के खिलाफ आया तो उन का कुरसी पर बने रहना तो मुश्किल होगा ही, सरकार और पार्टी को भी फजीहत झेलनी होगी.

कैटरीना कैफ की मुरीद हुई अनुष्का, बताया हॉट एंड फिट

हाल ही में प्रदर्शित ‘फितूर’ के एक गीत को देखने के बाद अभिनेत्री अनुष्का शर्मा अपनी सह-अभिनेत्री कैटरीना कैफ की फिटनेस की मुरीद हो गयी हैं. अभिषेक कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म के दूसरे गीत ‘पश्मीना’ में कैटरीना सह-अभिनेता आदित्य राय कपूर के साथ डांस करती हुयी नजर आ रही हैं.

अनुष्का ने ट्वीट किया है कि फितूर के नए गीत में कैटरीना कितनी हॉट और फिट लग रही हैं. कैटरीना ने शानदार नृत्य किया. पश्मीना कल बेव पर जारी की गयी है. इस गीत का संगीत अमित त्रिवेदी ने दिया है और स्वानंद किरकिरे ने गीत के बोल लिखे हैं. यह फिल्म 12 फरवरी को सिनेमा घरों में प्रदर्शित हो रही है.

साहिर लुधियानवी पर होगी भंसाली की अगली फिल्म

अपनी पिछली फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ की जबर्दस्त सफलता के बाद निर्देशक संजय लीला भंसाली जाने माने कवि-गीतकार साहिर लुधियानवी पर आधारित अपनी अगली फिल्म पर काम शुरू करने की तैयारी में हैं.

‘गुस्ताखियां’ नाम से बन रही इस फिल्म का निर्माण उनके भंसाली प्रोडक्शन के बैनर तले होगा. भंसाली ने यहां एक बयान में कहा, ‘साहिर का गुरूर, उनकी नज्में और उनकी नजाकत ना केवल मुझे बल्कि पूरे फिल्म उद्योग को प्रभावित करती है. वह अपनी मां के साथ रहते थे. उनकी प्रेमकहानी अधूरी ही रही और जिस दर्द से वह गुजरे उसने उन्हें कुछ चमत्कारिक लिखने में मदद की.’

उन्होंने कहा, ‘मैं उनसे खास लगाव महसूस करता हूं, बाजीराव से लेकर अब तक की सभी फिल्मों में मेरे सारे मुख्य पात्र उनसे प्रभावित हैं और इनमें से कोई भी प्यार से महरूम नहीं है.’ फिल्मकार ने अभी फिल्म के सितारों और अन्य विवरण की घोषणा नहीं की है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें