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मासिकधर्म पर भारी धर्म

कभी किसी ने खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों ने तो कल्पना तक नहीं की होगी कि कभी उन्हें प्राकृतिक रूप से होने वाले महिलाओं में मासिकधर्म के मामले पर भी सुनवाई करनी पड़ेगी जिस का धर्मग्रंथों में विस्तार से उल्लेख है. धर्मप्रधान इस देश की अदालतों में रोजरोज बेमतलब के वक्त बरबाद करने वाले जो मुकदमे दायर किए जाते हैं उन में से एक सबरीमाला मंदिर में मासिकधर्म से गुजर रही महिलाओं के प्रवेश का विवाद भी है.

वैसे महिलाओं को कम मुश्किलें नहीं हैं मगर महीने के उन मुश्किल भरे 5 दिनों में बंदिशों का कोई अंत नहीं. घरपरिवार के बड़ेबुजुर्गों को स्पर्श नहीं किया जा सकता. उन्हें पीने के लिए पानी तक नहीं दिया जा सकता. धुले कपड़ों की अलमारी या ड्रौअर को हाथ नहीं लगाया जा सकता. रसोई में प्रवेश की मनाही होती है.

कहने की जरूरत नहीं कि पूजा, मंदिर, भगवान तो इन दिनों में दूर की ही कौड़ी हैं. मासिकधर्म को धार्मिक कुसंस्कार से जोड़ कर इन मुश्किल दिनों में महिलाओं को अछूत, अपवित्र माना जाता है. कुसंस्कार की बलिहारी है कि कुछ धार्मिक स्थलों में तो 5 दिनों की तो छोडि़ए, सिरे से महिलाओं के ही प्रवेश पर रोक है. इस मामले में दक्षिण के मंदिर काफी चर्चा में रहे हैं.

दक्षिण के ब्रह्मचारी अयप्पन के केरल में तिरुवनंतपुरम स्थित सबरीमाला मंदिर मासिकधर्म के दिनों से गुजरने वाली महिलाओं के लिए मैनस्ट्रुएशन स्कैनर लगाने की तैयारी में है. मंदिर के ट्रस्ट ‘सबरीमाला देवासम बोर्ड’ के पदाधिकारी प्रयार गोपालकृष्णन ने केरल में दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि मासिकधर्म से गुजरने वाली किसी महिला को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने के लिए मंदिर का ट्रस्ट एक विशेष तरह का स्कैनर लगाने पर विचार कर रहा है बशर्ते ऐसा कोई स्कैनर उन के हाथ लग जाए. मंदिर में प्रवेश करने से पहले महिलाओं को स्कैनर से हो कर गुजरना होगा.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाल में केरल सरकार से इस बाबत सवाल किया है कि सबरीमाला मंदिर में मासिकधर्म की उम्र वाली महिलाओं के प्रवेश पर बैन क्यों है? कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा है कि क्या यह सही है कि पिछले 1,500 वर्षों से महिलाओं का मंदिर परिसर में प्रवेश वर्जित है?

इस मामले में कोर्ट चाहे जो भी फैसला दे पर मासिकधर्म के वैज्ञानिक पहलू और शारीरिक क्रिया विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों से परे इस दिलचस्प मामले से कई अहम बातें एकसाथ उजागर हुईं जिन में पहली यह कि रजस्वला स्त्रियों से भगवान भी डरता है और उन्हें अछूत मानता है जबकि धर्म के नजरिए से देखें तो यह व्यवस्था भी उसी की बनाई हुई है. ऐसे में यह वाजिब है कि उस ने ऐसी चीज बनाई ही क्यों जिस से खुद उसे डरना पड़े.

दूसरी बात यह सामने आई कि मासिकधर्म से गुजर रही महिला की धार्मिक और सामाजिक स्थिति दलितों व शूद्रों सरीखी हो जाती है.तीसरी सब से अहम बात यह उजागर हुई कि आसानी से तो दूर की बात है, कोई तमाम कोशिशों के बाद भी यह दावा नहीं कर सकता कि फलां महिला रजस्वला वाले दौर से गुजर रही है. इस बात से सबरीमाला सहित तमाम मंदिरों के पंडेपुजारी आशंकित रहते हैं कि कहीं रजस्वला से गुजर रही महिला मंदिर में आ कर उन के ‘प्रभु’ की मूर्ति छू कर उसे अपवित्र न कर दे या फिर बाहर जा कर वह महिला यह हल्ला न कर दे कि वह तो उन के प्रभु को हाथ लगा आई और उसे कुछ नहीं हुआ.

गौरतलब है कि अयप्पा मंदिर में 10 से 50 साल तक की लड़कियों और महिलाओं के प्रवेश पर रोक को ले कर हमेशा से विवाद रहा है. संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला दिया जाता रहा है. इस प्रतिबंध पर मानवाधिकार संगठन और राष्ट्रीय महिला आयोग भी सवाल उठाते रहे हैं.

हालांकि अभी तक दुनिया में ऐसा कोई स्कैनर ईजाद नहीं हुआ है लेकिन देवासम बोर्ड के पदाधिकारी के इस बयान के साथ विरोधप्रदर्शन शुरू हो गया और मामला अदालत की चौखट तक पहुंच गया है. राज्य सरकार को अदालत में हलफनामा पेश करना पड़ा, जिस में उस ने महिलापुरुष के समानाधिकार की बात कहते हुए मंदिर के इस नियम पर विचार के लिए विद्वानों का एक पैनल बनाने का सुझाव दिया है.

नवंबर से ले कर जनवरी तक लाखों लोग अयप्पा के दर्शन को आते हैं. ऐसे में सरकार का तर्क है कि इतनी भीड़ के बीच महिलाओं को सुविधा देने में चूंकि दिक्कत पेश आती है, इसीलिए व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए सरकार ने महिलाओं के लिए अलग से तीर्थयात्रा का समय निर्धारित करने का सुझाव भी दिया है.

केरल के ही पद्मनाभस्वामी मंदिर में भी महिलाओं के प्रवेश पर रोक है. इस से पहले भी लड़कियों के मंदिर में प्रवेश को ले कर विवाद होते रहे हैं. 2006 में कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला ने सबरीमाला बोर्ड को फैक्स भेज कर यह दावा किया था कि किशोरावस्था में उस ने एक बार गर्भगृह में भीड़ के साथ प्रवेश किया था. इतना ही नहीं, उस ने अयप्पा की मूर्ति को स्पर्श भी किया था. इस के बाद बहुत बड़ा विवाद खड़ा हो गया था. यहां तक कि जयमाला की गिरफ्तारी भी हुई.

अकेले सबरीमाला, शनि मंदिर ही नहीं, हमारे देश में ऐसे बहुत सारे धार्मिक स्थल हैं जहां महिलाओं के प्रवेश पर रोक है. केवल राजस्थान के पाली जिले में रनकपुर जैन मंदिर, पुष्कर में कार्तिकेय मंदिर में भी महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकतीं. छत्तीसगढ़ के मावली माता मंदिर में यह रोक है. रोक का तर्क बड़ा अजीब है.

कहते हैं चूंकि मावली माता कुंआरी हैं इसीलिए महिलाओं का प्रवेश वहां वर्जित है, केवल पुरुष ही वहां पूजा कर सकते हैं. इसी तरह मध्य प्रदेश के मुक्तागीरी जैन मंदिर, जो कि जैनियों का बड़ा तीर्थस्थल है, में पश्चिमी पहनावे में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है. पुरुष पैंटशर्ट में प्रवेश कर सकते हैं. मध्य प्रदेश में ही जाटखेड़ा गांव में 300 साल पुराना पार्वती देवी का मंदिर है. 20 सीढि़यों की चढ़ाई वाले इस मंदिर में 17 सीढि़यों से ऊपर महिलाओं, लड़कियों को जाने की अनुमति नहीं है. 18वीं सीढ़ी पर लाल रंग से यह चेतावनी लिखी हुई है. लेकिन महिलाएं किसी अपशकुन के डर से सीढि़यां ही नहीं चढ़ती हैं. असम में 500 साल पुराने पतबौसी सत्र मंदिर में महिलाएं नहीं जातीं, हालांकि मंदिर परिसर में लिखित रूप से किसी तरह की चेतावनी या सूचना नजर नहीं आती है.

महिलाएं बेझिझक बढ़ें आगे

धर्म और उस के ठेकेदार भले ही मासिकधर्म से गुजर रही महिलाओं को दुत्कारने और कोसने का अपना धर्म निभाते रहें लेकिन महिलाओं में कतई यह निराशा, हताशा, अवसाद या कुंठा की बात नहीं होनी चाहिए. उन्हें सेनेटरी नेपकिंस के उत्साहभर देने वाले विज्ञापनों से सबक लेना चाहिए जिन में पूरे आत्मविश्वास से बताया जाता है कि उन 5 दिनों में वे कैसे बगैर किसी झंझट या परेशानी के न केवल अपने रोजमर्रा के कामकाज कर सकती हैं बल्कि खेलकूद में भी झंडे गाड़ सकती हैं. यानी दिक्कत की बात गीलापन या चिपचिप नहीं, बल्कि धर्म है जो मासिकधर्म से भी पैसा बनाने के जुगाड़ में है.

ताजे विवाद इस की मिसाल हैं जो महिलाओं ने नहीं, बल्कि पंडों ने परंपराओं का हवाला दे कर खड़े किए. मकसद, अपने कारोबार को इस फंडे पर चलाना है कि इन्हें वंचित रखो, फिर अपनी शर्तों और कीमत पर दे दो. भगवान के दर्शन से शूद्रों और रजस्वला से गुजर रही महिलाओं को दूर रख कर उन में इस उत्पाद के प्रति जिज्ञासा पैदा की गई और अब फसाद खड़े कर दुकान चलाई जा रही है. अदालत का फैसला जब आएगा तब देखा जाएगा लेकिन तबतक कुछ जागरूक और उत्साही महिलाओं, जिन्होंने खुद को आधुनिक भी मान लिया है, ने ऐलान कर दिया है कि वे मंदिरों में जाएंगी और दर्शन वगैरा करेंगी, यही धर्म के दुकानदार और कारोबारी चाह रहे हैं यानी महिलाएं अब भी उन के इशारों पर नाच रही हैं. जबरन मंदिरों में दाखिल हो कर महिलाएं कोई जंग नहीं जीत जाएंगी बल्कि उन की हार तय दिख रही है.

अब होगा यह कि वे मंदिरों में जाएंगी, धर्म की ब्रैंडिंग करेंगी, भीड़ बढ़ाएंगी और दिल खोल कर दक्षिणा भी देंगी. इस से फायदा क्या और किसे, यह बात अगर महिलाएं सोच पाएं तो ही आत्मसम्मान और स्वाभिमान हासिल कर पाएंगी वरना बेवजह की जिद से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला, बल्कि वाकई यह साबित हो जाएगा कि वे दलितों जैसी हालत और हैसियत की हैं जो सदियों से मंदिर में जाने की जिद पूरी करने के लिए यही सब करते रहे हैं और उस के एवज में धर्म का निचला हिस्सा बन कर पंडों की मंशा पूरी करते रहे हैं.

लेकिन इस बात में दोराय नहीं कि भारत के गांवों और छोटे शहरों में आज भी लड़कियों में मासिकधर्म के प्रति जागरूकता नहीं है. कई लड़कियां और औरतें आज भी कई सारी गलत जानकारियों, गलतफहमियों, अज्ञानता और पुरानी परंपराओं का शिकार हैं जिन के चलते महिलाओं को काफी तकलीफों का सामना करना पड़ता है. युवतियों की इन्हीं समस्याओं को दूर करने और उन में मासिकधर्म को ले कर जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से अदिति गुप्ता ने अपने पति तुहिन पौल के साथ मिल कर मैंस्ट्रूपीडिया डौट कौम (द्वद्गठ्ठह्यह्लह्म्ह्वश्चद्गस्रद्बड्ड.ष्शद्व) नाम की वैबसाइट बनाई है. अदिति इस वैबसाइट के जरिए बड़े ही रोचक, अनोखे और लुभावने अंदाज में लड़कियों व औरतों में मासिकधर्म के प्रति जागरूकता ला रही हैं.

अदिति की वैबसाइट को हर महीने 2 लाख लोग देखते हैं. इस वैबसाइट में 3 प्रमुख सुविधाएं हैं-क्विक गाइड, सवालजवाब और ब्लौग. वैबसाइट पर लोग मासिकधर्म से जुड़ी बातें जान सकते हैं, सवालजवाब कर सकते हैं तथा व्यावहारिक लेख लिख सकते हैं. अदिति ने 90 पन्नों की एक कौमिक्स भी निकाली है जो हिंदी और अंगरेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है. अदिति का मानना है, ‘‘धर्म से जुड़ी बहुत सी मान्यताएं ऐसी हैं जिन का कोई वजूद ही नहीं है पर फिर भी वे हमें जकड़े हुए हैं, जैसे कि मासिकधर्म के समय मां ही अपनी बेटी पर रोकटोक करने लगती है कि यह न छुओ, वह न छुओ. यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, लेकिन जैसे ही किसी एक पीढ़ी की स्त्री मान्यताओं को तोड़ देगी, माहवारी के बारे में सारी गलतफहमियां दूर हो जाएंगी.’’

अदिति का यह कार्य सराहनीय है पर सब से बड़ी विडंबना इस देश की यही है कि बहुत सारे राज्यों में रजस्वला के दौरान महिलाओं का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है, रसोई में वे जा नहीं सकतीं, पति से संभोग नहीं कर सकतीं. अचार नहीं छू सकतीं. पेड़पौधों को हाथ नहीं लगा सकतीं, आईने में चेहरा देख नहीं सकतीं. इन राज्यों में गुजरात का नाम सब से ऊपर है. वहां 95 प्रतिशत महिलाओं के रसोई में प्रवेश करने पर बंदिश है.

नेपाल की चौपदी प्रथा

पश्चिमी नेपाल में भी रजस्वला स्त्रियों के साथ अछूतों के समान व्यवहार किया जाता है. पश्चिमी नेपाल के कई इलाकों में माहवारी के दौरान महिलाओं को अपने ही घर के अंदर आने की इजाजत नहीं दी जाती. उन्हें पानी के सार्वजनिक स्रोतों से भी दूर रखा जाता है. वे शादी व अन्य उत्सवों में भी नहीं भाग ले सकतीं.

माहवारी के दौर से गुजर रही महिलाओं को घर से बाहर बने एक दड़बेनुमा छोटे कमरे में रहना पड़ता है. (देखें मुखपृष्ठ)जहां ठंड से बचने व जंगली जानवरों से सुरक्षा के कोई उपाय नहीं होते. यह रिवाज यहीं खत्म नहीं होता, माहवारी वाली महिलाओं को जो व्यक्ति खाना देता है वह भी इस बात का खयाल रखता है कि जो खाना वह दे रहा है उस का स्पर्श भी उस से न हो. इस अमानवीय कुप्रथा के कारण कई महिलाएं व लड़कियां बाहर ठंड से और जंगली जानवरों के कारण मौत का शिकार बन चुकी हैं. नेपाली सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में इस कुप्रथा पर रोक लगा दी थी. पर धर्म के भय में जकड़ा समाज ऐसी कुप्रथाएं मानने के लिए आज भी महिलाओं को बाध्य करता है.

केवल हिंदू ही नहीं, इसलाम में भी रजस्वला महिलाओं के लिए प्रतिबंध है. 15वीं शताब्दी में मुंबई की वर्ली रोड पर बनी सूफी संत हाजी अली की दरगाह के ट्रस्ट ने 2011 से महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. हालांकि इस प्रतिबंध के खिलाफ भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की ओर से बौंबे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया. संस्था की सहसंस्थापक नूरजहां नियाज का मानना है कि ट्रस्ट का यह कदम असंवैधानिक है. मासिकचक्र महिलाओं के शरीर का प्राकृतिक धर्म है. इस की वजह से महिलाओं को अशुद्ध कैसे करार दिया जा सकता है.

बौंबे हाईकोर्ट के जस्टिस वी एम कनाडे के नेतृत्व वाली पीठ ने हाजी अली ट्रस्ट से इस फैसले पर फिर से विचार करने को कहा. लेकिन ट्रस्ट ने अदालत को पत्र लिख कर बता दिया कि शरीयत कानून के तहत महिलाओं का मुसलिम संत की मजार के बहुत ज्यादा करीब जाना इसलाम के अंतर्गत गंभीर गुनाह माना गया है. ट्रस्ट ने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए धार्मिक मामलों के प्रबंधन को मौलिक अधिकार बताया है. हाजी अली दरगाह के अलावा दिल्ली की जामा मसजिद में सूर्यास्त के बाद और 11वीं सदी में बने हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की मनाही है.

प्राकृतिक है मासिकधर्म

अगर वाकई भगवान नामक कोई शक्ति है तो कम से कम उस ने तो लड़केलड़की का भेद नहीं किया. अगर करता तो आज तथाकथित रूप से उस की यह सृष्टि ही नहीं होती. वैसे इस भेदभाव के लिए अकेले पुरुषवर्ग जिम्मेदार नहीं है. महिलाएं भी बड़ी संख्या में ऐसे अंधविश्वास का समर्थन करती हैं कि महीने के 5 दिनों तक लड़कियों का शरीर अपवित्र रहता है. लगभग हर घर में कुछ महिलाएं हैं जो आंखें मूंदे खुद तो परंपरा के नाम पर इन नियमों का पालन करती ही हैं, अपने बच्चों पर भी यह कुसंस्कार थोपती रहती हैं.

मासिकधर्म शर्मनाक नहीं, प्राकृतिक है. यह बात हर महिला को समझनी होगी, उसे इस कुसंस्कार को तोड़ने के लिए बेझिझक आगे आना होगा जैसा कि मासिक धर्म से जुड़ी परंपराओं के खिलाफ कनाडा में रहने वाली भारतीय मूल की रूपी कौर ने आवाज उठाई है. उन्होंने फोटो शेयरिंग साइट इंस्ट्राग्राम पर एक तसवीर शेयर की थी जिस में एक महिला की पैंट पर खून लगा था, महिला मासिकधर्म के दौर से गुजर रही थी. इंस्टाग्राम ने इस फोटो को जब यह कहते हुए हटा दिया कि यह फोटो ‘कम्यूनिटी गाइड लाइन के खिलाफ है’ तो रूपी ने उस फोटो को दोबारा शेयर किया और लिखा, ‘‘यह तसवीर न तो किसी ग्रुप की भावना को ठेस पहुंचाती है और न ही पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देती है. यह कोई स्पैम भी नहीं है. यह मेरी खुद की तसवीर है, पीरियड आना शर्मनाक नहीं, प्राकृतिक है.’’

इंस्टाग्राम ने फिर उस पोस्ट को हटा दिया. विरोधस्वरूप रूपी इंस्टाग्राम के खिलाफ कोर्ट पहुंची, जहां कोर्ट ने रूपी को सही ठहराया और इंस्टाग्राम से माफी मांगने को कहा, जिस के बाद इंस्टाग्राम ने रूपी से माफी मांगी. मासिकधर्म से जुड़े अंधविश्वासों की यह लड़ाई बहुत लंबी है जिस के लिए अनेक रूपी कौर को सामने आना होगा. महिला जब वंश को बढ़ाती है तो पूरा खानदान खुशी मनाता है. जबकि वंश को आगे बढ़ाने के मुख्य आधार यही मासिक ऋतुस्राव ही तो है. यह नए जीवन के बीज का वाहक है. इसीलिए कहींकहीं इस की खुशी मनाई जाती है. कुछ राज्य हैं जहां लड़कियों के मासिकधर्म को धूमधाम से मनाया जाता है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, असम ऐसे राज्य हैं जहां लड़कियों के पहले ऋतुस्राव की खुशियां मनाई जाती हैं, परिजनों को भोज दिया जाता है.

असम में यह तोलिनी ब्याह के नाम से जाना जाता है. वहां मासिकधर्म शुरू होने पर केले के पेड़ से लड़की का ब्याह रचाया जाता है. पहले यह परंपरा केवल ब्राह्मण और निचली जाति में थी. हालांकि ब्राह्मण इसे छिप कर मनाया करते थे क्योंकि उन के बीच लड़की की शादी माहवारी शुरू होने से पहले कर दिए जाने का रिवाज था पर अब असम के हर वर्ग में यह परंपरा बड़ी धूमधाम के साथ चल पड़ी है. असम में ही लड़कियों के मासिकधर्म शुरू होने पर परिजनों को भोज दे कर खुशियां मनाई जाती हैं. हालांकि इस परंपरा में अंधविश्वास का भी पुट है और इसी कारण कड़े नियम भी हैं. पहला ऋतुस्राव शुरू होने के पहले दिन केवल पानी पी कर रहना पड़ता है, जमीन पर सोना होता है. दूसरे व तीसरे दिन फल और कच्चे दूध पर रहना पड़ता है. पका हुआ खाना उस के लिए वर्जित होता है. कहींकहीं तो लड़की को अपना खाना खुद बनाना पड़ता है. 3 दिनों तक लड़की को सूर्य की रोशनी से भी बचाया जाता है. जब तक रस्म पूरी न हो जाए, लड़की किसी पुरुष का मुंह नहीं देखती.

लड़की तीसरे दिन ऋतुस्नान के बाद ही कपड़े बदलती है. उसे पारंपरिक मेखला पहनाया जाता है. लड़की को सोनेचांदी के जेवर से दुलहन की तरह सजाया जाता है और केले के पेड़ के साथ उस का गठबंधन किया जाता है. लड़की की मामी अपने कंधे पर उसे उठा कर पूजास्थल तक लाती है. कुछ रस्मोरिवाज के बाद उस की मांग में सिंदूर भरा जाता है. शादी के बाद गोदभराई की रस्म की जाती है. उस के बाद पान, तांबुल और फूल वगैरा ले कर अंगोछे में बांध दिया जाता है. यह अंगोछा बच्चे का प्रतीक होता है. भोज में शामिल महिलाएं इस बच्चे को अपने गोद में लेती हैं. इस के बाद लड़की को भरपूर खाना खिलाया जाता है, जिस में मांस, मछली, चावल और चटनी समेत तरहतरह के व्यंजन व पकवान शामिल होते हैं.

कहते हैं इस उत्सव का मकसद यह जताना होता है कि लड़की ब्याह लायक हो गई है. इस के बाद बिहू उत्सव के दौरान कोई लड़का अगर किसी लड़की को पसंद कर लेता है तो वे भाग कर शादी करते हैं. ऐसे में शादी करवाने का मातापिता का अरमान अधूरा रह जाता है. इसीलिए पहली माहवारी शुरू होने पर इस मौके को धूमधाम से मनाया जाता है.

हर राज्य में हावी धर्म

आंध्र प्रदेश में भी पहले ऋतुस्राव का जश्न मनाया जाता है. लेकिन इन मुश्किल दिनों में बहुत सारी बंदिशें होती हैं. पहली बार रजस्वला हुई लड़की को लगातार 21 दिनों तक घर के एक कोने में लगभग बंद कर के रखा जाता है, ताकि उस पर किसी पुरुष की नजर न पड़े. यही नहीं, मौसम कोई भी हो, कमरे की पवित्रता को बरकरार रखने व बुरी ताकतों को दूर रखने के मकसद से 21 दिनों तक 24 घंटे आग जला कर रखी जाती है. बताया जाता है कि यह परंपरा तकरीबन हर जाति, समुदाय व वर्ग में है. एक तो लड़की का सामना पहली बार ऐसे शारीरिक बदलाव से होता है, दर्द और पीड़ा अलग से होती हैं, उस पर इतनी तरह की बंदिशें.

सदियों के संघर्ष के बाद आज लड़कियां हर जगह लड़कों के साथ चल रही हैं. जिन तमाम पेशों को परंपरागत रूप से लड़कों का माना जाता था, उन में आज लड़कियों को भी अपनी काबिलीयत साबित करने का मौका मिल गया है. लेकिन महीने के 5 दिन लड़कियों के जीवन पर अब भी भारी पड़ रहे हैं. महिलाओं को चाहिए कि वे उन 5 दिनों में ही नहीं, कभी भी मंदिरों में न जाएं. जो दुकानें उन्हें दोयम दरजे का कहती हैं, उन्हें दूर से ही ‘गुडबाई’ कर लें क्योंकि उन की हालत व सोच सुधर रही है. शिक्षित और सभ्य समाज उन्हें मासिकधर्म के दिनों में पहले जैसा तिरस्कृत नहीं करता. वे खाना बना रही हैं, दफ्तर भी जा रही हैं, पुरुषों से ज्यादा मेहनत भी कर रही हैं. मासिकधर्म को ले कर जो थोड़ेबहुत पूर्वाग्रह हैं वे दूर हो रहे हैं तो इस की वजह कोई धर्म नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता है जो शिक्षा से आ रही है.

बदलते दौर में बदलती सोच

मासिकधर्म के दिनों में नए दौर की युवतियां कोई परहेज नहीं करतीं. न ही वे किसी की परवा करतीं लेकिन नए विवाद उन में उत्सुकता पैदा कर रहे हैं. भले ही ऐसी युवतियों व महिलाओं की संख्या अभी कम हो लेकिन उन की सशक्तता जिन कथित कमजोरियों पर भारी पड़ती है, मासिकधर्म उन में से एक है. जाहिर है वक्त के साथ यह तादाद और बढ़ेगी. औरत होना और मासिकधर्म से गुजरना कोई पाप नहीं है, न ही बेचारगी का पर्याय है पर मंदिर जाना, जबरन दाखिल होना, घंटेघडि़याल बजाना, पैसे चढ़ाना, पंडेपुजारियों के पांव छूना जैसे कृत्य जरूर उन्हें बेचारी साबित करने के लिए काफी हैं जिस के लिए एक हद तक वे ही जिम्मेदार हैं. बदलते हालात में खुद को ढाल चुके पुरुष तो चाहने लगे हैं कि महिला घर के बाहर जाए और पैसा कमाए जिस से घरगृहस्थी की गाड़ी बेहतर ढंग से चले. ऐसे में महिला बाहर मंदिर में जा कर पैसा और वक्त बरबाद करेगी तो परिवार व समाज में बन रहे अपने मुकाम को ही खोएगी.       

औफिस में न बन जाएं पेज थ्री सैलिब्रिटी

‘‘डाक्टर साहिबा, मैं बहुत परेशान हूं. मेरे औफिस के कर्मचारी मुझे ले कर हर वक्त गौसिप करते हैं. ऐसा लगता है कि उन की आपसी बातचीत में चर्चा का विषय बस मैं ही होती हूं. मैं क्या खाती हूं, क्या पहनती हूं, कौन से गाने सुनती हूं, औफिस के बाद कहां और किस के साथ जाती हूं, किसे देख कर मुसकराती हूं…बस, यही सब. हर कोई मुझे कनखियों से देखता है और होंठ दबा कर रहस्यमयी तरीके से मुसकरा देता है. उन की हरकतों से कभीकभी तो इतना दम घुटता है कि औफिस जाने का मन ही नहीं करता. इसी समस्या के चलते मैं अब तक कई औफिस बदल चुकी हूं. यहां भी सब चटखारे लेले कर मेरी ही चर्चा करते थे. मेरी समझ में नहीं आता कि लोग मेरी लाइफस्टाइल और वर्किंगस्टाइल से इतनी ईर्ष्या क्यों करते हैं? कृपया मेरा मार्गदर्शन करें.’’

रोनिता कुंद्रा, उम्र 22 वर्ष (अखबार में डाक्टर की सलाह कौलम में प्रकाशित पत्र)

मिताली ने पहली जौब जौइन की. बड़े उत्साह के साथ उस ने औफिस जाना शुरू कर दिया. लेकिन बमुश्किल 8-10 दिन बीते होंगे. कई कलीग्स ने उसे प्रपोज करना शुरू कर दिया. कोई उसे कौफी पिलाने को उतावला था तो कोई मल्टीप्लैक्स में मूवी दिखाने को. एक ने तो मुंह पर कह दिया, ‘‘तुम बड़े खुले विचारों वाली लगती हो. चलो किसी होटल में चलते हैं.’’

मिताली ने बड़ी बेइज्जती महसूस की. रोंआसी हो कर उस ने उसी दिन से औफिस छोड़ दिया. मिताली ने कभी सोचा भी नहीं था कि लोगों के साथ बिंदास हो कर हंसीमजाक करने और वैस्टर्न स्टाइल के मौडर्न कपड़े पहनने से औफिस में उस के कैरेक्टर को ले कर इस तरह की धारणा बन जाएगी.

ऐसी समस्या का सामना औफिस जाने वाली युवतियों को कई बार करना पड़ जाता है. कलीग्स, क्लाइंट या बौस उन के काम में दिलचस्पी न ले कर पर्सनल लाइफ में ज्यादा रुचि लेने लगते हैं. दरअसल, ये युवतियां पहनावे, व्यवहार और हावभाव में असावधानी बरतती हैं और पेज थ्री सैलिब्रिटीज की तरह सजधज कर अपने औफिस या क्लाइंट के पास जाती हैं. इस वजह से लोगों में गलत संदेश चला जाता है और वे उन्हें ‘अवेलेबल’ या ‘चालू’ मान लेते हैं.

अगर आप चाहती हैं कि औफिस में जीना दुश्वार न हो, लोग आप को फैशन आइकन के रूप में न जान कर आप के काम के लिए पहचानें तो कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है :

शोऔफ से बचें

याद रखें आप औफिस काम करने जाती हैं, नए फैशन का प्रदर्शन करने नहीं. आप को स्वत: अनुशासित हो कर अशोभनीय और अंग प्रदर्शन करने वाले कपड़ों से बचना चाहिए. नित नए हील सैंडिल, तड़कभड़क और ग्लिटर करने वाले कपड़े व एक्सेसरीज औफिस के लिए नहीं, पार्टियों के लिए होते हैं. गाढ़ी लिपस्टिक, कलर्ड आई शेडो और गालों पर रूज लगा कर औफिस जाएंगी तो स्वाभाविक है लोगों का ध्यान आप के काम पर कम मेकअप पर ज्यादा होगा.

पर्सनल न हों

औफिस में सहकर्मियों से दोस्ती हो जाए तो उसे औफिस तक ही निभाएं. न किसी को अपने घर आने का न्यौता दें, न खुद किसी के घर जाएं. हां, अपनी निजी जिंदगी के बारे में ज्यादा बातचीत कर के खुली किताब न बन जाएं. चाहे वह महिला सहकर्मी हो या पुरुष कलीग. बाद में ये बातें जंगल की आग की तरह फैल जाती हैं. महीने में एकाध बार किसी वजह से अपने सहकर्मी के लिए घर से टिफिन ले जाना अलग बात है, लेकिन रोजरोज किसी पुरुष सहकर्मी के लिए आप घर से ले जा कर खाना खिलाएंगी तो लोगों को उस का दूसरा अर्थ निकालने में देर नहीं लगेगी.

हाथमुंह पर नियंत्रण

सहकर्मियों के साथ बातचीत के दौरान किसी जोक के कारण या मजाक के कारण हंसनामुसकराना स्वाभाविक है, लेकिन अति उत्साहित हो कर ठहाके लगाना, ताली बजाना, उन के गाल पर चुटकी काटना, पीठ पर धौल जमाना या आंख मारना आप के लिए भले ही सिंपल व्यवहार या आदत हो, लेकिन सामने वाले को इस से गलत संकेत मिलता है. वह समझता है आप उस से ‘बहुत फ्रैंडली’ हो गई हैं. इसी प्रकार किसी के कान में फुसफुसा कर बात करने या काफी देर तक अकेले बैठ कर बातें करने से भी बचें.

विनम्र मगर दृढ़ बनें

औफिस में सभी सहकर्मियों के साथ विनम्र और आत्मीय व्यवहार करें और उन की यथासंभव मदद करें लेकिन अगर आप को लगे कि कोई सहकर्मी आप की विनम्रता को सीधापन या मूर्खता समझ कर आप को गलत तरीके से छू रहा है या कोई गलत हरकत कर रहा है तो पूरी दृढ़ता के साथ उस का विरोध करें. कोई द्विअर्थी बातों के जरिए गलत प्रस्ताव रखता हो तो पहली बार में ही मुंहतोड़ जवाब दे देने में ही समझदारी है ताकि वह अपनी सीमाओं को समझ जाए.

मोबाइल को संभाल कर रखें

पर्सनल मोबाइल या टैब में हम अपने खास मित्रों के कई ऐसे मैसेज सहेज कर रखते हैं जिन्हें सब के साथ शेयर नहीं किया जा सकता. कुछ निजी तसवीरें भी ऐसी हो सकती हैं, जिन्हें सीक्रेट रखना जरूरी है. ऐसे में सदैव सजग रहें कि कहीं आप का मोबाइल या टैब किसी दूसरे के हाथ न लग जाए. और वह ऐसे मैसेज या तसवीरों का गलत फायदा न उठा ले. बेहतर होगा पर्सनल गैजेट्स को लौक रखें.

सोशल मीडिया पर संभल कर

औफिस में लोग फेसबुक या ट्विटर पर आप को आसानी से खोज सकते हैं. बेहतर होगा कि कलीग्स को सोशल नैटवर्किंग पर न जोड़ें. उन्हें फ्रैंड लिस्ट में शामिल करने से आप की निजता छिन जाएगी. कई बार खुराफाती दिमाग के लोग यहां मौजूद आप की तसवीरों को गलत ढंग से भी पेश कर सकते हैं इसलिए सोशल मीडिया पर बेहद सतर्क रहें.

जीवन सरिता: बड़ा कौन, छोटा कौन

भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि जिस व्यक्ति के पास अधिक धन, संपदा या संपत्ति हो या जिस व्यक्ति के पास बड़ा पद हो वही बड़ा व्यक्ति है, वही प्रतिष्ठित है. यदि किसी व्यक्ति के पास धन, संपदा या बड़ा पद नहीं है तो समाज में उसे प्रतिष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाता. किसी के मन की संवेदनाएं, मानवतावादी दृष्टिकोण, बृहद हृदय या मन, किसी भी व्यक्ति को वांछित सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. मन में यह प्रश्न बारबार कौंधता है कि क्या बड़ा पद या पैसा ही, किसी व्यक्ति को बड़ा कहने के लिए पर्याप्त है? क्या यही किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को आंकने का एकमात्र पैमाना है?

जीवन के 65 पतझड़ झेलने के बाद भी मैं इस सामाजिक मान्यता को तोड़ने का प्रयास कभी नहीं कर पाया कि पैसा, पद या बड़ा व्यापार, किसी भी व्यक्ति को बड़ा मानने का आधार नहीं है, न हो सकता है. बस, मैं स्वयं भी जीवनभर समाज की इसी विचारधारा के साथ ही बहता चला गया. परंतु अकस्मात हाल में ही घटी 2 छोटीछोटी घटनाओं ने मुझे यह मानने के लिए विवश कर दिया कि पद या पैसा बड़ा होने का आधार नहीं है, बड़ा होने का एकमात्र आधार तो बड़ा मन होता है, वृहद हृदय होता है. यानी व्यक्ति की सोच होती है, व्यक्ति का ज्ञान होता है जो किसी को महान बनाता है. पद या पैसा न होने पर भी व्यक्ति पद व पैसा रखने वाले व्यक्ति से बड़ा हो सकता है.

दोनों घटनाओं को समझने के लिए यह आवश्यक है कि मैं पहले स्वयं के बारे में बता दूं. वास्तव में मैं ने एक न्यायाधीश के रूप में जीवन व्यतीत किया है और न्यायाधीश के कार्यकाल में लगभग 5 वर्ष की अवधि तक उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार जनरल के पद पर भी कार्य किया है. लगभग 31 वर्ष की सेवा के बाद सेवानिवृत्त होने पर फिर नियुक्ति भी हो गई थी और पद की सभी सुविधाएं प्राप्त होती रही थीं. न्यायाधीश का पद समाज में प्रतिष्ठित पद माना जाता है. समाज की इसी मान्यता के आधार पर मैं स्वयं को समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति मानता रहा और इसी भ्रम में जीता रहा. पद की गरिमा के अनुसार मुझे सब सुविधाएं भी प्राप्त रहीं. 3 महीनों की अवधि में मेरे साथ 2 घटनाएं घटित हो गईं जिन से मेरा प्रतिष्ठित होने का मिथ्या भ्रम चूरचूर हो गया.

व्यक्ति कर्म से होता है बड़ा

पहली घटना नैनीताल की है, जहां पर मैं ने अपर जिला न्यायाधीश एवं फिर उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार जनरल के पद पर कार्य किया है और अब फिर नियुक्ति के बाद भी मैं, प्रत्येक माह में 1 सप्ताह के लिए कैंप कोर्ट करने के लिए नैनीताल जाता हूं. सितंबर 2015 में अकस्मात मुझे उच्च न्यायालय के मेरे कार्यकाल में मेरे अनुसेवक का भाई मिला जो नैनीताल नगर के पास ही के गांव का निवासी है व उच्च न्यायालय में कार्यकाल के दौरान वह अपने भाई के साथ कई बार मुझ से मिला भी था. तब वह बेरोजगार था और मुझ से बारबार यही अनुरोध करता था कि वह अत्यंत निर्धन है, मैं उसे कोई कार्य दिला दूं ताकि उस के जीवन का निर्वाह हो सके. परंतु मैं उस की कोई सहायता नहीं कर पाया था.

अब वह संभवतया दैनिक मजदूरी पर कार्यरत है. अनायास ही भेंट होने पर उस ने मेरे पैर छुए और पूछा कि आप कहां ठहरे हो, कैसे हो और फिर कहा, ‘‘मैं आप को कुछ लहसुन देना चाहता हूं जो गांव में मेरे घर के आंगन में पैदा हुआ है.’’ और अगले दिन उस ने लगभग आधा किलो लहसुन मुझे ला कर दे दिया जो मेरे लिए एक बहुत छोटी वस्तु थी. मेरे लिए उस का मूल्य अल्प था परंतु उस ने यह कार्य कर के मुझे यह सोचने को विवश कर दिया कि भले ही वह निर्धन है, भले ही मैं उस के लिए कुछ न कर पाया, तब भी उस ने लहसुन को देने में कृतज्ञता प्रदर्शित की, जो उस के बड़ेपन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थी. मेरे पास भले ही कितने साधन हों परंतु मैं ने उस के लिए कभी कुछ नहीं किया. उस ने अपने कर्म से मुझे बता दिया कि निर्धन व साधनहीन हो कर भी कोई व्यक्ति कितना बड़ा हो सकता है.

दूसरी घटना अक्तूबर 2015 में देहरादून में घटित हुई जहां पर मैं आवासित हूं. आवास के पास ही स्थित ‘मानव केंद्र’ नाम का एक विस्तृत आश्रम है जहां मैं सुबह की सैर को जाता हूं. अकसर वहां पर मुझे बृजमोहन नामक एक कर्मचारी मिलता है व बड़े सम्मान के साथ नमस्ते करता है. वह आश्रम में ही रहता है. उस का परिवार उस के साथ नहीं रहता है. वह आश्रम में घास इत्यादि काटने का काम करता है. उस के पास ठीक से पहनने के कपड़े नहीं हैं. चूंकि सर्दी शुरू हो रही थी, सो, मैं ने घर पर बुला कर उसे एक अपना पुराना स्वेटर व 50 रुपए दे दिए. और ऐसा कर के मेरे मन में आया कि संभवतया मैं ने कोई बड़ा काम किया है.

मेरी इस छोटी सी उदारता से तो बृजमोहन एकदम खुश हो गया था परंतु मेरा यह भ्रम बहुत दिनों तक नहीं रह सका. इस घटना के 2 दिन बाद ही सुबह के भ्रमण के समय ही अचानक बृजमोहन ने मुझ से पूछा, ‘‘बाबूजी, क्या आप बाजरे की रोटी खाते हो?’’ मैं ने कहा, ‘‘हां, खाता तो हूं. परंतु यह बात तुम क्यों पूछ रहे हो?’’ तब उस ने बताया कि वह दीपावली पर अपने गांव जाएगा जो रेवाड़ी (हरियाणा) के पास है. वहां पर उस के खेत में बाजरे की फसल होती है. उस में से कुछ आप के लिए लाऊंगा. मैं ने कहा कि ठीक है, लेते आना, परंतु मैं उस का पैसा दूंगा. तब उस ने कहा, ‘‘बाबूजी, बाजरे का पैसा मैं बिलकुल नहीं लूंगा. वह तो मेरे खेत में उत्पन्न होता है.’’

उस की यह बात सुन कर मैं दंग रह गया. वह आश्रम में भोजन करता है. किसी के दिए हुए कपड़े पहनता है. उस के पास धन भी नहीं है तब भी वह मुफ्त में मुझे बाजरा देना चाहता हूं. उस के मन का बड़प्पन देख कर तो मुझे लगा कि मैं स्वयं उस के सामने कितना छोटा हूं कि मैं एक पुराना स्वेटर व 50 रुपए दे कर स्वयं को गौरवान्वित समझ रहा था, जो मेरा भ्रम मात्र था बृजमोहन ने मेरे दिए 50 रुपए के बदले मुझे 500 रुपए का बाजरा लाने का प्रस्ताव कर के मुझे बता दिया कि पद या पैसा बड़ा नहीं, बड़ा तो मन है. बृजमोहन ने मुझे दर्पण दिखा दिया कि सबकुछ होते हुए भी मैं बड़ा नहीं जबकि कुछ नहीं होते हुए भी वह बड़ा है और तब से मैं यह निर्णय नहीं कर पाता कि बड़ा कौन और छोटा कौन.

इन दोनों घटनाओं ने मुझे यह सिखा दिया कि धन, पद या संपदा किसी व्यक्ति को महान नहीं बनाते, बल्कि किसी व्यक्ति की विस्तृत एवं मानवता वाली सोच ही उसे प्रतिष्ठा प्रदान करती है.

मीत तुम्हारी वो बातें

हंसी रेशमी अधरों वाली
सजीसंवरी थी प्रातें
बिसरा मन का सूनापन
पाई थीं सतरंगी सौगातें

तनहा सी एक दुपहरी में
आए थे बादल मंडराते
भर अंक में की थी तुम ने

स्नेह की निर्झर बरसातें
ढलती थी सांझ सुरमई
पलपल प्यार को पाते
बातें करते कट जाती थीं

महकीचहकी वो रातें
किस से कहते कैसे कहते
मीत तुम्हारी वो बातें
कैसे सुनहले दिन बीते
कैसी बीतीं रुपहली रातें.

इन्हें भी आजमाइए

– बेकिंग सोडा कीटनाशक को पूरी तरह से साफ करता है, बड़े कटोरे में 5 गिलास पानी भरें फिर उस में . 4 चम्मच बेकिंग सोडा मिलाएं. अब इस पानी में सब्जियां और फल डुबो दें और 15 मिनट के बाद निकाल कर सुखा लें. ये खाने के लिए सुरक्षित हैं.

– खीरे में तुरंत मुंहासे को ठीक करने और साफ करने की शक्ति होती है. खीरे को कस लें और अपने चेहरे पर 1 घंटे के लिए लगाएं और फिर ठंडे पानी से चेहरा धो लें. इस से न केवल मुंहासे ठीक होते हैं बल्कि यह मुंहासों को होने से रोकता भी है.

– पीरियड्स में महिलाएं दर्द को कम करने के लिए बेकार की दवाएं न खाएं क्योंकि यह हार्मोन पर बुरा असर डालेगीं और शरीर पर भी. अच्छा होगा कि कोई घरेलू उपचार अपनाएं.

– आंवला हो या उस का पाउडर, दोनों ही बालों को काला करने में मददगार होते हैं. आंवले का रस अगर बादाम के तेल में मिक्स कर के बालों में लगाया जाए तो बाल काले होंगे.

– सौल्मन फिश में ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है जो लहसुन के साथ मिल कर शरीर को काफी फायदा पहुंचाता है.

– पैनकेक के लिए कैचप की स्क्वीज बोतल का प्रयोग करें. इस से पैनकेक बनाने में आसानी होगी.

असिन का बैंड बाजा बरात

दक्षिण भारतीय फिल्मों की लोकप्रिय अभिनेत्री असिन ने कुछ साल मुंबई में हिंदी फिल्मों में अभिनय कर बिताए. ठीकठाक चलते कैरियर में ब्रेक तब लगा जब उन का दिल बिजनैसमैन राहुल शर्मा ने चुरा लिया. प्यार का यह सिलसिला अब शादी में तबदील हो गया है. दिलचस्प बात यह है कि इस शादी को फिक्स कराने में खिलाड़ी भइया अक्षय कुमार का अहम योगदान है. दरअसल, राहुल शर्मा अक्षय के करीबी मित्र हैं और असिन ने अक्षय के साथ एक फिल्म में काम करने के दौरान राहुल से बातचीत की और शादी फिक्स होने तक अक्षय की भूमिका निरंतर सक्रिय रही. शायद इसीलिए असिन ने अपनी वैडिंग का पहला कार्ड अक्षय कुमार को ही दिया और उन्हें अपनी वैडिंग का बैस्ट मैन भी बनाया है.

हाफ गर्लफ्रैंड पर सस्पैंस

बतौर लेखक चेतन भगत का भले ही खूब मजाक उड़ाया जाता रहा हो लेकिन भारत के वे पहले युवा उपन्यासकार हैं जिन के ज्यादातर उपन्यासों पर बनी फिल्में सफल रही हैं. फिर चाहे वह ‘थ्री इडियट्स’ हो या ‘काईपोचे’ और ‘टू स्टेट्स’. अब उन की लेटेस्ट नौवेल ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ पर भी फिल्म बनाई जा रही है. पहले खबर थी कि इस फिल्म में अभिनेता सुशांत सिंह भोलेभाले बिहारी युवक माधव का किरदार निभाएंगे और कृति सेनन दिल्ली की मौडर्न लड़की रिया का. पर अब अटकलें लग रही हैं कि निर्देशक मोहित सूरी ‘आशिकी 2’ व ‘एक विलेन’ की स्टार श्रद्धा कपूर के साथ यह फिल्म बनाने की सोच रहे हैं. अब मोहित को श्रद्धा या कृति में किसी एक को चुनना होगा. तब तक सस्पैंस कायम रहेगा.

देश का पहला ट्रांसजैंडर बैंड

संगीत की दुनिया में यशराज बैनर और सोनू निगम ने एक अनोखी पहल करते हुए देश का पहला ट्रांसजैंडर बैंड लौंच किया है. 6 पैक बैंड नाम के इस म्यूजिक ग्रुप में 6 ट्रांसजैंडर सिंगर हैं और पहले एलबम में गाने भी 6 ही हैं. इस एलबम के कुछ गानों में सोनू निगम और अनुष्का शर्मा ने आवाज भी दी है.

यह स्वागत योग्य कदम इसलिए भी है क्योंकि हम इस समुदाय की पहचान पर सवाल तो खड़े करते आए हैं, इन्हें जबतब दुत्कारते भी रहे हैं लेकिन मुख्यधारा में लाने की कोशिश में कभी कदम आगे नहीं बढ़ाए. काबिलीयत को जैंडर के तराजू में तोलना बंद कर हमें ऐसे टैलेंट्स को आगे ला कर उन्हें मुख्यधारा में जोड़ कर सामाजिक ढांचे को दुरुस्त करने की बड़ी आवश्यकता है. यशराज ने इस बैंड के साथ न सिर्फ गाने रिकौर्ड किए हैं बल्कि इन को ले कर वीडियो भी शूट किया है.

सितारों की आत्मकथा

फिल्म कलाकार जबतब अपनी आटोबायोग्राफी रिलीज कर अपनी जिंदगी के निजी पहलुओं से पाठकों को वाकिफ कराते रहे हैं. ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथाएं इस लिहाज में काफी संजीदा मानी गई हैं. पिछले दिनों जब शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी आत्मकथा ‘एनीथिंग बट खामोश’ लौंच की तो फिल्म व राजनीति के तमाम किस्सों को जगजाहिर किया. अब अभिनेता इमरान हाशमी भी अपनी आत्मकथा अप्रैल माह में रिलीज करने की तैयारी में हैं. गौरतलब है कि इमरान के 5 वर्षीय पुत्र को कैंसर हो गया था जिस को ले कर इमरान ने लंबा संघर्ष किया और बेटे को इस बीमारी से बाहर लाने के अनुभवों पर इस किताब को लिखा है.

रितिका की साला खड़ूस

बौलीवुड में स्पोर्ट्स ड्रामा बीते सालों में एक हिट जौनर बन कर उभरा है. राजकुमार हीरानी भी इस जौनर में फिल्म ‘साला खड़ूस’ ले कर आए हैं जो बौक्सिंग पर केंद्रित है. आर माधवन स्टारर इस फिल्म में बौक्सर रितिका सिंह अपना बौलीवुड डेब्यू कर रही हैं. रितिका एक प्रोफैशनल बौक्सर हैं, लेकिन फिल्म का कथानक सुन कर उन्होंने अभिनय का जोखिम उठाया. अब एक रियल बौक्सर को परदे पर बौक्सिंग स्टार के किरदार में देखना काफी दिलचस्प होगा. फिल्म में आर माधवन एक गुस्सैल बौक्सिंग कोच की भूमिका में हैं जबकि रितिका उन की शागिर्द बनी हुई हैं.

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