Download App

सानटिना का जलवा

महिला टैनिस डबल्स की नंबर 1 जोड़ी स्विट्जरलैंड की मार्टिना हिंगिस और हैदराबाद की सानिया मिर्जा ने वर्ष 2016 में शानदार शुरुआत कर नई बुलंदियों को छू लिया है. पहले जोड़ी ने ब्रिसबेन इंटरनैशनल खिताब अपने नाम कर लिया. फिर दोनों ने डब्लूटीए सिडनी इंटरनैशनल टैनिस, टूर्नामैंट का महिला डबल्स खिताब जीत लिया. पिछले वर्ष इस जोड़ी ने 9 खिताब जीते थे. इस से पहले यह रिकौर्ड जिगी फर्नांडिस और नताशा ज्वेरेवा की जोड़ी के नाम था. अपने शानदार खेल से सानिया मिर्जा न सिर्फ भारत का नाम रोशन कर रही हैं बल्कि नई लड़कियों को खेलों से जुड़ने के लिए प्रेरित भी कर रही हैं. उन्होंने दिखा दिया है कि खेल के प्रति समर्पण भावना के बीच उम्र आड़े नहीं आती. शाबाश सानिया. इस ऐतिहासिक जीत के दौरान समर्थकों ने सानिया व मार्टिना की जोड़ी को सानटिना कह कर प्रशंसित किया. दोनों की जोड़ी कई सालों से जिस तरह जीत दर्ज कर रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले वर्षों में उन का रिकौर्ड तोड़ना बेहद कठिन होगा.

ताकि क्रिकेट का भला हो सके

जब से जस्टिस लोढ़ा समिति ने सुप्रीम कोर्ट को क्रिकेट से संबंधित रिपोर्ट सौंपी है तब से बीसीसीआई के अधिकारियों, सरकार के मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों की नींद गायब है. बीसीसीआई के आकाओं ने रणनीति बनानी शुरू कर दी है. उन्होंने बोर्ड से संबद्ध सभी इकाइयों को पत्र लिख कर राय मांगी है कि वे अपनी राय बताएं वरना उन्हें अब यहां से बाहर कर दिया जाएगा.

लोढ़ा समिति के विरोध में अपनी आवाजें वही बुलंद कर रहे हैं जो वर्षों से खेल संघों में अपना दबदबा बनाए हुए हैं और उन की राजनीति से पूरा खेल चौपट हो चुका है. खेलों के जरिए अपनी तिजोरियां भरने वाले कोई और नहीं, बल्कि वही घाघ लोग हैं जो देश को चलाने का दंभ भरते हैं. देश को तो ये लोग लूट ही रहे हैं, अब वे सब से अमीर संस्था बीसीसीआई में भी कुंडली मार कर वर्षों से बैठे हुए हैं. वे क्रिकेट को कारोबार बना कर उस से मालामाल हो रहे हैं.

लोढ़ा समिति की प्रमुख सिफारिशें :

–       किसी राजनीतिज्ञ को क्रिकेट संस्था का हिस्सा नहीं होना चाहिए.

–       पदाधिकारियों की उम्र 70 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए.

–       बीसीसीआई में एक राज्य का एक ही मत होना चाहिए.

–       आईपीएल और बीसीसीआई के अलगअलग गवर्निंग काउंसिल हों.

–       बीसीसीआई को सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए.

–       इन-बिल्ट मैकेनिज्म तैयार कर सट्टेबाजी को वैध कर दिया जाए.

अगर सुप्रीम कोर्ट लोढ़ा समिति की सिफारिश मान ले तो इन की जेबें गरम नहीं होंगी, इसलिए ये सभी तिलमिलाए हुए हैं और विरोध करने के लिए एकजुट होने लगे हैं. शरद पवार की अगुआई वाले मुंबई क्रिकेट संघ ने तो स्पष्ट कर भी दिया है कि वह पारदर्शिता और मुद्दे पर समर्थन तो करेगा पर बाकी चीजों पर एमसीए सहज नहीं है.

बीसीसीआई में हमेशा से दबदबा बड़े उद्योगपतियों का या फिर राजनेताओं का रहा है पर लोढ़ा समिति ने बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में चारचांद लगाने के लिए बड़े बदलावों की सिफारिश की है तो इन के पेट में दर्द उठ रहा है. यानी ये नहीं चाहते हैं कि क्रिकेट का भला हो. इस का सीधा सा मतलब है कि बीसीसीआई में इन का वर्चस्व खत्म हो जाएगा, जो ये नहीं चाहते हैं.

लोढ़ा समिति की सिफारिश में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रीय खिलाडि़यों का चुनाव सिर्फ वही कर सकते हैं जो पूर्व टैस्ट खिलाड़ी हों, उन के पास गहरी जानकारी के साथसाथ अनुभव भी होते हैं और इस के 5 चयनकर्ताओं के बजाय सिर्फ 3 ही रहें. अभी तक खिलाडि़यों के चुनाव ऐसे व्यक्ति करते आए थे जिन्होंने न तो कभी क्रिकेट खेला और न ही उन्हें कोई गहरी जानकारी है. लोढ़ा समिति ने ऐसी रिपोर्ट की सिफारिश यों ही नहीं कर दी, इस के लिए न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा ने कई क्रिकेटरों व जानकारों से बातचीत की है, छोटीछोटी बातों को ले कर चर्चा की है और तब क्रिकेट की बेहतरी के लिए यह सुझाव दिए हैं. ऐसे में बीसीसीआई के पदाधिकारियों को इस का समर्थन करना चाहिए, न कि विरोध. एक तो ज्यादातर सरकारी कमजोरियां गठन के बाद सही निष्कर्ष पर पहुंचती नहीं, और जो पहुंचती हैं उन्हें रसूखदार अपने प्रभाव से दबा देते हैं. ऐसे में लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर कितना गौर फरमाया जाता है, जटिल प्रश्न है.

चीन में विनिर्माण आंकड़ा गिरने से बाजार में भूचाल

वर्ष 2016 की शुरुआत भारत के लिए अच्छी नहीं रही. पठानकोट में पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने हमला किया जिस में सेना के कई जवान शहीद हो गए. अफगानिस्तान में भारतीय वाणिज्यिक दूतावास पर हमला हुआ. बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई के लिए भी वर्ष की शुरुआत अच्छी नहीं रही. करीब 3 सप्ताह से तेजी पर चल रहे बाजार में, चीन में विनिर्माण क्षेत्र के लगातार 28वें माह गिरावट रहने से भूचाल आ गया. इसी दौरान सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक संपर्क टूटने की खबर आई जिस से निवेशकों में निराशा छा गई और सूचकांक 540 अंक लुढ़क कर 26 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर से काफी नीचे आ गया.

इस दौरान रुपया डौलर के मुकाबले 2 माह के निचले स्तर पर यानी 66.61 पैसे तक पहुंच गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज भी इस दौरान 8 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे उतर गया और सूचकांक 172 अंक तक गिर गया. नए साल के तीसरे कारोबारी दिन में भी बाजार में नकारात्मक माहौल रहा और सूचकांक में गिरावट दर्ज की गई.

कौल ड्रौप का मुआवजा देने से इनकार

भारतीय दूर संचार नियामक यानी ट्राई कौल ड्रौप के मामले पर सख्त हो गया है. उस ने कौल ड्रौप पर सेवा प्रदाताओं को हर्जाना भरने का निर्देश दिया है. ट्राई ने पिछले वर्ष 16 अक्तूबर को दूरसंचार उपभोक्ता सुरक्षा विनियामक में संशोधन करते हुए उपभोक्ता को कौल ड्रौप की स्थिति में प्रति कौल ड्रौप पर 1 रुपया मुआवजा देने का निर्देश दिया था.

निर्देश में कौल ड्रौप पर अधिकतम 3 रुपए प्रतिदिन की सीमा भी निर्धारित की गई थी. केंद्र सरकार ने भी उस पर सख्ती दिखाई और संसद में कौल ड्रौप से छुटकारा दिलाने का देश को आश्वासन दिया. ट्राई ने 1 जनवरी से नया नियम लागू करने को कहा था लेकिन सेवा प्रदाता कंपनियां मुआवजा देने के बजाय न्यायालय पहुंच गईं.

सेवा प्रदाताओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय में ट्राई के आदेश को चुनौती दी है. सेवा प्रदाताओं के एकीकृत संगठन का कहना है कि मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन है. फैसला आने तक हर्जाना नहीं दिया जा सकता. कौल ड्रौप से सेवा प्रदाता कंपनियां भारी फायदा उठा रही हैं. उन्हें 1 मिनट बात करने के लिए जितने पैसे लेने होते हैं वह पैसा महज कुछ सैकंड की वार्त्ता में कमा लेती हैं. हालांकि कंपनियां इसे तकनीकी दिक्कत बताती हैं लेकिन उपभोक्ता की जेब पर वे लगातार डाका डाल रही हैं.

उपभोक्ता के लिए कौल ड्रौप बड़ा संकट है. इस वजह से सामाजिक संबंध प्रभावित हो सकते हैं. व्यक्ति जो बात करना चाहता है, कौल ड्रौप के कारण वह अधूरी रह जाती है. आधी बात का मतलब दूसरे पक्ष के लिए परेशानी पैदा कर सकता है. सेवा प्रदाताओं को न्यायालय जाने के बजाय ट्राई को आश्वासन देना चाहिए कि उस के निर्देशों का पालन किया जाएगा, इसलिए उसे थोड़ी राहत दी जाए.

आधिकारिक संपर्क लिखना अनिवार्य

आयकर विभाग ने सूचना तकनीकी के इस दौर में धोखाधड़ी से करदाताओं को बचाने के लिए कई कारगर तरीके इस्तेमाल किए हैं और इस दिशा में लगातार सुधार की प्रक्रिया जारी है. इसी क्रम में एक कदम आगे बढ़ाते हुए विभाग ने आयकर के संदर्भ में आयकर नहीं देने वाले व्यक्ति तथा कंपनी को भेजे जाने वाले नोटिस में संबद्ध अधिकारी के कार्यालय का फोन नंबर और उस का ईमेल पता लिखना अनिवार्य कर दिया है. नोटिस भेजने वाले अधिकारी के लिए हर बार के पत्राचार में फोन और अपना ईमेल का पता लिखना जरूरी होगा. इस से पत्राचार की प्रामाणिकता बढ़ने के साथ ही धोखाधड़ी से भी बचा जा सकता है.

वित्त मंत्रालय में इस आशय का आदेश पारित कर दिया है और उसे राजस्व महानिदेशालय के सचिव को भेज दिया गया है. आयकर विभाग में अनाधिकृत व्यक्तियों द्वारा धोखाधड़ी किए जाने और करदाता को परेशान करने के कई मामले सामने आए हैं. सामान्य आदमी उन के झांसे में आ जाता है. कई बार फर्जी नोटिस भेज कर व्यापारियों से पैसा ऐंठने के मामले भी सामने आते हैं. इस व्यवस्था से नोटिस की प्रामाणिकता के साथ ही करदाता को फर्जी लोगों के चंगुल से बचाया जा सकेगा.

फर्जी लोग करदाता को डरातेधमकाते हैं और कई बार पैसा ले कर करदाता को छूट देने का आश्वासन देते हैं. बेचारा करदाता आसानी से उन के चंगुल में फंस जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस तरह का नोटिस पा कर करदाता फर्जी लोगों के जाल में नहीं फंसेगा और पारदर्शी तरीके से आयकर विभाग को एक कदम आगे बढ़ कर काम करने का अवसर मिलेगा.

ग्रामीणों की जमीन पर बुरी नजर

चीन विकास के लिए किसी की परवा नहीं करता. पर्यावरण का नुकसान हो, हिमालय का नुकसान हो, खेतखलिहान का हो अथवा मूल अधिकारों का हनन, विकास का सवाल है तो उन सब का चीन के लिए महत्त्व नहीं है. उसे प्रगति चाहिए. यह मानसिकता चीन के जनसामान्य के साथ ही वहां के नेताओं व उद्योगपतियों की भी है. वहां के फैक्टरी मालिक और निर्माण कंपनियां इसी सूत्र पर काम करती हैं. उन का यह रवैया स्वदेश में नहीं बल्कि विदेशों में भी चलता है और वे वहां भी अपनी शर्तों पर काम करना चाहती हैं. चीनी कंपनियों को पश्चिमी देशों में काम करने का अनुभव नहीं है, इसलिए इस मानसिकता के चलते उन्हें वहां विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

अफ्रीका में तेल तथा जस्ता खदानों में चल रहा चीनी कंपनियों का काम मजदूरों की हड़ताल के कारण ठप पड़ा है. मजदूरी कम देना और काम की शर्तों के कारण श्रमिकों में नाराजगी है. म्यांमार में चीन सरकार द्वारा चलाए जा रहे बांध निर्माण का काम पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति बेपरवा रहने के कारण बंद कर दिया गया है.

निकारागुआ में चीनी निर्माता द्वारा नहर के निर्माण कार्य में ग्रामीणों के पुनर्वास को ले कर किए जा रहे काम में गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाए जाने से लोगों का विरोध जारी है. इसी तरह से भारत में गुजरात के शिंदे में चीन की ट्रक निर्माता कंपनी बीकी फोटोन मोटर फैक्टरी लगाना चाहती है. कंपनी ने इस के लिए 250 एकड़ भूमि का चयन किया है लेकिन उसे 1,250 एकड़ भूमि और चाहिए. यह कृषि भूमि है जिस की पीठ पर पहाड़ी और सामने नदी का प्रवाह है.

ग्रामीण इस जमीन को फैक्टरी को नहीं देने के लिए अड़े हुए हैं. उन का कहना है कि कृषि भूमि का इस्तेमाल नहीं होने देंगे और अपना पुश्तैनी गांव नहीं छोड़ेंगे. सवाल यह है कि चीनी कंपनी को वही गांव क्यों चाहिए. वह खाली पड़ी जमीन पर फैक्टरी का निर्माण क्यों नहीं कर रही है? ग्रामीणों का कहना है कि वह खाली पड़ी जमीन पर फैक्टरी बनाए. उस से जमीन का भी इस्तेमाल होगा और उन्हें भी खेती के अलावा रोजगार मिलेगा. साथ ही, संस्कृति और पर्यावरण भी बचे रहेंगे.

खाद्य निगम और श्रमिक

भारतीय खाद्य निगम की पोल खोलने में इस बार अदालतें ही आगे आई हैं और आशा की जानी चाहिए कि वे हर श्रमिक को बेचारा, लुटा हुआ, शोषित, गरीब, असहाय मानने की गलती बंद कर देंगी. पिछले 50-60 सालों में अदालतों ने ऐसे सैकड़ों फैसले दिए हैं जिन में श्रमिकों को आसमान पर चढ़ाया गया है और इसी का नतीजा है कि निजी क्षेत्र के कारखानों के इलाकों में काम कम, लाल झंडे ज्यादा दिखते हैं, औद्योगिक क्षेत्र असल में कारखानों की कब्रगाह ज्यादा दिखते हैं.

कारखानों में श्रमिकों को लाखों की तनख्वाह मिलना कोई आश्चर्य नहीं है. भारतीय खाद्य निगम के लोडर को 4 लाख रुपए का मासिक वेतन मिलता है. यह देख कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चकित तो हुए होंगे पर उन्होंने अभी भी लोडरों की ऊपरी कमाई जोड़ी नहीं है, जो इस से कई गुना ज्यादा होती है.

इस निगम में श्रमिकों की दादागीरी और गुंडागीरी आम है और माल की लदाई व उतराई तो वे खुद करते भी नहीं हैं, अपने चेलोंचपाटों से कराते हैं जिन्हें निगम के भंडारगृहों में आने से कोई रोक नहीं सकता. यह निगम असल में एक बड़ा माफिया समूह है जो सरकारी पैसे का जम कर दुरुपयोग करता है और यह व्यवस्था सूदखोरों व जमाखोरों से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई है. किसान और आम आदमी का हाल गहरी खाई से गहरी दलदल में गिर जाने जैसा हुआ है.

श्रमिकों को अब सेवा बेचने वाला समझा जाना चाहिए, जैसे दुकानदार माल बेचता है वैसे ही श्रमिक अपना उत्पादन बेचता है. हर काम की कीमत का मूल्य बाजार पर छोड़ा जाना चाहिए और योग्य व मेहनती को ज्यादा कमाने का पूरा अवसर मिलना चाहिए. वेतन, आयु व पद के आधार पर नहीं, काम के आधार पर तय हो और प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत को सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों में माना जाना चाहिए.

जैसे जनता को हक है कि वह जिसे चाहे उसे वोट दे कर कुरसी दे, वैसे ही नियोजक भी जिसे चाहें, जितना चाहें, वेतन दें, तभी भारतीय खाद्य निगम जैसी लालझंडा तानाशाही समाप्त होगी. यह भगवाई तानाशाही जैसी खतरनाक है.

फ्री बेसिक्स: मुफ्त की मुसीबत

इंटरनैट की दुनिया अचानक इस बात को ले कर फिक्रमंद दिखने लगी है कि आखिर सूचना की यह आधुनिक तकनीक अपने हर रूपरंग में सिर्फ अमीरों तक सीमित क्यों है, क्यों इस का कारोबार सिर्फ पैसे वालों तक सिमटा हुआ है, क्यों इस पर मनोरंजन और सहूलियतें अमीरों को मिल रही हैं और क्यों वही इस के सब से ज्यादा फायदे उठा पा रहे हैं? इसी चिंता के साथ सोशल नैटवर्किंग वैबसाइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने अक्तूबर, 2015 में भारत का दौरा किया. उस दौरान गरीबों को इंटरनैट से जोड़ने के उद्देश्य से काम कर रहे संगठन इंटरनैटडौटओआरजी (द्बठ्ठह्लद्गह्म्ठ्ठद्गह्ल.शह्म्द्द) के जरिए दुनिया की दोतिहाई आबादी को इंटरनैट का फायदा दिलाने का संकल्प जताते हुए जुकरबर्ग ने इंटरनैट को मौलिक अधिकार बनाए जाने की वकालत भी की. जब देश में इस योजना का विरोध किया गया तो उन्होंने इस योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स’ रख दिया.

क्या है फ्री बेसिक्स

असल में यह इंटरनैटडौटओआरजी के नाम से पहले लाई गई वही योजना है, जिस के बारे में वर्ष 2015 में प्रचारित किया गया था कि इस की मदद से लाखों लोगों को इंटरनैट के मुफ्त इस्तेमाल की सुविधा मिल सकेगी. देश में नैट तटस्थता यानी नैट न्यूट्रैलिटी की मांग उठने के साथ इस योजना का विरोध होने लगा क्योंकि इस में जिन लोगों को मुफ्त इंटरनैट देने की पहल की जा रही थी, उन्हें बहुत सीमित विकल्प दिए जा रहे थे. विरोध बढ़ता देख मार्क जुकरबर्ग ने योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स इंटरनैट सर्विस’ कर दिया और इस के लिए रिलायंस कम्युनिकेशंस के प्लेटफौर्म पर कुछ समय पहले एक एप्लिकेशन लौंच कर दिया. लेकिन नैट न्यूट्रैलिटी पर कोई आम राय नहीं बन पाने की स्थिति में दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने इस सेवा पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि जब तक इस संबंध में जारी किए गए कंसल्टेशन पेपर पर आम लोगों व टैलीकौम कंपनियों के जवाब नहीं मिल जाते, तब तक ऐसी योजना लागू नहीं की जा सकती.

रोक और विवादों के बीच जुकरबर्ग ने विज्ञापनों के जरिए फ्री बेसिक्स के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया है. उन्होंने संगठनों व सरकारों से इस के रास्ते में बाधा नहीं बनने की अपील करते हुए इस के कई फायदे गिनाए हैं, जैसे उन का मत है कि प्रत्येक समाज में कुछ बेसिक सुविधाएं आम जनता को मुफ्त मिलती हैं (शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) हालांकि वे निजी सहूलियतों की तरह पर्याप्त नहीं होतीं. सरकारी अस्पतालों में कुछ हद तक मुफ्त इलाज होता है, सरकारी स्कूलों में एक सीमा तक मुफ्त शिक्षा मिलती है. लेकिन बेहतर इलाज और अच्छी शिक्षा चाहिए तो वह शुल्क के जरिए ही हासिल की जा सकती है. उसी तरह फ्री बेसिक्स के माध्यम से जुकरबर्ग बेसिक इंटरनैट सभी लोगों को मुफ्त देना चाहते हैं ताकि वे कुछ जरूरी वैबसाइटों का इस्तेमाल कर सकें, जैसे फेसबुक देख सकें, औनलाइन शौपिंग की वैबसाइटों से खरीदारी कर सकें आदि. जुकरबर्ग कहते हैं कि जब देश में हर व्यक्ति के पास फ्री बेसिक इंटरनैट सर्विस होगी तो इस से देश में कायम डिजिटल डिवाइड समस्या का खात्मा भी हो सकेगा.

विरोध के तर्क

ऊपर से मार्क जुकरबर्ग की योजना शानदार लगती है लेकिन वे जितने जोरदार ढंग से इस का कैंपेन चला रहे हैं उतने ही जोरशोर से इसे ले कर आशंकाएं भी उठ रही हैं. कहा जा रहा है कि फ्री बेसिक्स के जरिए लोगों को इंटरनैट कनैक्शन मिले या न मिले, पर कुछ कंपनियों की कमाई बेतहाशा बढ़ जाएगी. यही नहीं, यदि फ्री बेसिक्स आया तो इस से देश में एक नए किस्म का डिजिटल डिवाइड (विभाजन) देखने को मिल सकता है. साथ ही, नई इंटरनैट कंपनियों के उभरने के मौके खत्म हो जाएंगे.

मुफ्त सेवा से कमाई कैसे होगी? असल में, फ्री बेसिक्स के प्लेटफौर्म पर आम लोगों को तो इंटरनैट मुफ्त में ही हासिल हो सकता है पर यह जिस सिद्धांत पर काम करेगा, उस में बेशुमार कमाई के मौके हैं. जिस प्रकार दूरदर्शन का डिश एंटीना लगाने वाले लोग सारे चैनल मुफ्त में देख पाते हैं, पर चैनल चलाने वाले लोग उन पर विज्ञापन दिखा कर कमाई करते हैं, उसी तरह फ्री बेसिक्स इस्तेमाल करने वालों को शुरुआत में कोई पैसा नहीं देना होगा लेकिन जो कंपनियां इंटरनैट के जरिए अपनी सेवाएं देना या बेचना चाहेंगी, उन्हें फ्री बेसिक्स के प्लेटफौर्म पर आने के लिए भारी शुल्क देना होगा. मसलन, यदि रेल रिजर्वेशन कराने वाली वैबसाइट ‘आईआरसीटीसी’ फ्री बेसिक्स से जुड़ना चाहेगी तो उसे इस की कीमत देनी होगी. इसी तरह औनलाइन सामान बेचने वाली कंपनियों को फ्री बेसिक्स का मंच इस्तेमाल करने के लिए भारी फीस चुकानी पड़ सकती है. ऐसे में, हो सकता है कि फ्री बेसिक्स पर दोचार बेसिक वैबसाइटों के अलावा सिर्फ उन सेवाओं से जुड़ी वैबसाइटें दिखें जो जुकरबर्ग की कंपनी से समझौता करेंगी.

फ्री बेसिक्स पर दूसरा विरोध डिजिटल विभाजन को ले कर है. अभी इंटरनैट पर स्त्री व पुरुष और अमीर व गरीब का जो भेद है वह तो है ही, पर कहा जा रहा है कि फ्री बेसिक्स पर अमल होने के बाद हो सकता है कि एक तरफ वे लोग हों जो फ्री बेसिक्स के जरिए आधाअधूरा इंटरनैट देख पाते हैं, और दूसरी तरफ शानदार गति से चलने वाला और सारी वैबसाइटों को दिखाने वाले सशुल्क इंटरनैट का इस्तेमाल करने वाले. यदि ऐसा हुआ तो इंटरनैट पर अमीरी और गरीबी की खाई और चौड़ी हो कर नजर आने लगेगी. ऐसी व्यवस्था उस नैट न्यूट्रैलिटी के खिलाफ होगी जिस में इंटरनैट के बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल करने की आजादी की वकालत की जा रही है. अभी पैसे चुका कर इंटरनैट कनैक्शन लेने के बाद तय की गई सीमा तक मनचाहा इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन फ्री बेसिक्स में लोगों को यह आजादी नहीं होगी. ऐसे लोग सिर्फ वही वैबसाइटें देख पाएंगे जिन्हें दिखाने की छूट फ्री बेसिक्स चलाने वाली टैलीकौम कंपनी देगी.

तीसरी अहम समस्या यह पैदा हो सकती है कि इंटरनैट पर एकाधिकार की स्थिति बन जाए. हो सकता है कि फ्री बेसिक्स का चलन बढ़ने से छोटी और नई इंटरनैट कंपनियों का वजूद ही न रहे. और फ्री बेसिक्स के संचालक बिना किसी प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में काम करें. तब वे एक और मोटी रकम ले कर किसी एक कंपनी को फायदा पहुंचाने व उस की प्रतिस्पर्धी कंपनी को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में होंगे. यही वजह है कि देश में फ्री बेसिक्स योजना को संदेह की नजर से देखा जा रहा है. इस के लिए सरकार से अपील की जा रही है कि अगर लोगों को मुफ्त इंटरनैट देना है तो यह काम भी सरकार अपने हाथों में ले.

नजर बाजार पर

मार्क जुकरबर्ग जैसे अमीरों की मंशा सिर्फ गरीबों को इंटरनैट का फायदा दिलाने की नहीं है, वे तो असल में इस के जरिए अपने लिए और ज्यादा पूंजी बनाना चाहते हैं. जुकरबर्ग को इस का एहसास है कि अमेरिका के बाद भारत फेसबुक के लिए सब से बड़ा बाजार है. उन्हें यह बात मालूम है कि पूरी दुनिया में 65 फीसदी लोग फेसबुक का इस्तेमाल गैरअंगरेजी भाषा में करते हैं, जिन में से 10 भाषाएं भारत की हैं. इसी तरह आज भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक पर रजिस्टर हैं यानी उन के फेसबुक अकाउंट हैं. अब चूंकि भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और स्थिर विकास दर के कारण लोगों की आय में बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए यहां अगले ही कुछ वर्षों में कई करोड़ नए लोग फेसबुक जैसी चीजों के मुरीद बन सकते हैं. ये बातें फेसबुक, गूगल या ऐसी ही किसी अन्य कंपनी के कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी करने के संदर्भ में बहुत माने रखती हैं. हाल में, जिस तरह से फेसबुक पर पैसा भेजने की सुविधा का खुलासा किया गया है उस से साफ है कि फेसबुक का इस्तेमाल अब सिर्फ लोगों के समूहों को आपस में जोड़े रखने व उन में संवाद बनाने मात्र के लिए नहीं होगा, बल्कि उस के निशाने पर बाजार है जिस की काफी ज्यादा संभावनाएं भारत जैसे आबादीबहुल मुल्कों में हैं.    

मार्क जुकरबर्ग जैसे अमीरों की मंशा सिर्फ गरीबों को इंटरनैट का फायदा दिलाने की नहीं है, वे तो असल में इस के जरिए अपने लिए और ज्यादा पूंजी बनाना चाहते हैं. जुकरबर्ग को इस का एहसास है कि अमेरिका के बाद भारत फेसबुक के लिए सब से बड़ा बाजार है. उन्हें यह बात मालूम है कि पूरी दुनिया में 65 फीसदी लोग फेसबुक का इस्तेमाल गैरअंगरेजी भाषा में करते हैं, जिन में से 10 भाषाएं भारत की हैं. इसी तरह आज भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक पर रजिस्टर हैं यानी उन के फेसबुक अकाउंट हैं. अब चूंकि भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और स्थिर विकास दर के कारण लोगों की आय में बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए यहां अगले ही कुछ वर्षों में कई करोड़ नए लोग फेसबुक जैसी चीजों के मुरीद बन सकते हैं. ये बातें फेसबुक, गूगल या ऐसी ही किसी अन्य कंपनी के कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी करने के संदर्भ में बहुत माने रखती हैं. हाल में, जिस तरह से फेसबुक पर पैसा भेजने की सुविधा का खुलासा किया गया है उस से साफ है कि फेसबुक का इस्तेमाल अब सिर्फ लोगों के समूहों को आपस में जोड़े रखने व उन में संवाद बनाने मात्र के लिए नहीं होगा, बल्कि उस के निशाने पर बाजार है जिस की काफी ज्यादा संभावनाएं भारत जैसे आबादीबहुल मुल्कों में हैं.    

प्रोटीन भी हैं हानिकारक

क्या आप को इन्फैक्शन हो गया है? अगर हां, तो जरूरी नहीं कि वह वायरस या बैक्टीरिया से ही हुआ हो क्योंकि अब आप को कुछ प्रोटीन भी बीमार कर सकते हैं. तो जरा सावधान हो जाएं. 2 स्विस रिसर्चरों के अनुसार, मैडकाव जैसी बीमारी प्रोटीन के इन्फैक्शन से पैदा होती है. हम में से हर किसी के शरीर में प्रोटीन होते हैं जो इंसानों में क्रौयत्सउसेल्ट याकोब बीमारी पैदा करते हैं. देखा जाए तो यह हानिकारक नहीं हैं पर ये अपना रूप बदल कर बीमार कर देते हैं. ये तंत्रिका की कोशिकाओं में गांठ की तरह जमे रहते हैं. इन में सब से खतरनाक हैं प्रियोन प्रोटीन – ये कोशिकाओं में मंडराते रहते हैं और अपनी तरह के प्रोटीन को बीमार करने वाला वायरस बनने के लिए प्रेरित करते हैं. इस तरह से ये बढ़ने लगते हैं और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने लगते हैं. इस से पैदा हुई घातक बीमारी को रोकना बेहद मुश्किल है.

स्टैम सैल थैरेपी से दूर औटिज्म

औटिस्टिक स्पैक्ट्रम डिसऔर्डर या औटिज्म बीमारी से ग्रस्त बच्चों में समय से न बोल पाना, पढ़ना नहीं सीखना, हर समय उत्तेजित रहना या फिर बोलने के नाम पर एकआध शब्द ही बोलना जैसे लक्षण पाए जाते हैं. इस डिसऔर्डर का अभी तक कोई पुख्ता इलाज नहीं है. इस डिसऔर्डर से ग्रस्त बच्चों को आमतौर पर स्पीच थैरेपी या बिहेवियर थैरेपी की ही जरूरत होती है. जरूरी नहीं है कि यह थैरेपी हर बच्चे पर फायदा करे. कुछ चिकित्सकों ने मिल कर औटिज्म से ग्रस्त बच्चों के लिए स्टैम सैल थैरेपी लेने की सलाह दी है. चिकित्सकों ने बताया कि अगर बच्चे की उम्र 10 वर्ष से कम है तो इस में औटोलोगस स्टैम सैल ट्रांसप्लांटेशन से कुछ हद तक सुधार की उम्मीद की जा सकती है. इस थैरेपी के 3 महीने बाद से ज्यादातर बच्चों ने बोलना शुरू कर दिया और चीजों के बारे में जानने व सीखने की उत्सुकता भी दिखाई.

वैज्ञानिकों के अनुसार, इस डिसऔर्डर का कारण जीन में आए जैनेटिक डिफैक्ट या इम्यून सिस्टम में पैदा हुई गड़बड़ी से होता है. देखा गया है कि स्टैम सैल ट्रांसप्लांटेशन में कुछ खास कोशिकाओं का प्रत्यारोपण होता है जिस से चकित करने वाले प्रमाण सामने आते हैं. स्टैम सैल्स का प्रयोग सिर्फ लाइलाज बीमारियों में ही किया जाता है. रोगियों को ऐसे मामलों में बड़े ही सब्र की जरूरत होती है, क्योंकि यह कोई मैडिसन न हो कर जिंदा कोशिकाओं का प्रत्यारोपण है, जिसे विकसित होने में समय लगता है. इस का प्रभाव धीरेधीरे ही देखने को मिलता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें