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तिल की फसल का रोगों व कीटों से बचाव

तमाम तिल उगाने वाले देशों में भारत का नाम सब से ऊपर है. भारत के राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक सूबों में बड़े पैमाने पर तिल बोया जाता है. भारत में सभी मौसमों में तिल लगाया जाता है. दुनिया में तिल की मांग तेजी से बढ़ रही है. तिल में सेहत सुधारने के सभी गुण मौजूद हैं. इस में उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन व जरूरी अमीनो अम्ल मौजूद होते हैं, जो बुढ़ापा रोकने में मददगार होते हैं. तिल के तेल को तेलों की रानी कहा जाता है, क्योंकि इस में त्वचा निखारने और खूबसूरती बढ़ाने के गुण मौजूद होते हैं. तिल की फसल में भी कई रोग व कीट लग जाते हैं, जिस से इस के उत्पादन व गुणवत्ता पर काफी असर पड़ता है.

तिल के खास रोग

फाइटोफ्थोरा अंगमारी : यह रोग ‘फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका’ नामक फफूंद से होता है. सभी आयु के पौधों पर इस रोग का हमला हो सकता है, पर पुष्प अवस्था तक पौधे इस की ज्यादा चपेट में आते हैं. शुरू में यह रोग जमीन की सतह के साथ पौधों के तनों पर नम काले दागों के रूप में दिखाई पड़ता है. इस से तनों पर काली धारियां बन जाती हैं. रोग ज्यादा फैलने से पौधों की मौत हो जाती है.

इलाज

* एक खेत में लगातार तिल की बोआई न करें.

* बोआई के लिए अच्छी, रोग रहित व रोगरोधी किस्म का चुनाव करना चाहिए.

* संक्रमण रोकने के लिए बोआई से पहले 0.3 फीसदी थीरम, केप्टान या रिडोमिल से बीजोपचार करें.

* रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या कापर आक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

तना व मूल विगलन : यह रोग ‘मैक्रोफोमिना फैजियोलिना’ कवक से होता है. रोगग्रस्त पौधे की जड़ व तने भूरे रंग के हो जाते हैं. जब जमीन की सतह के पास इस का संक्रमण होता है, तब अचानक पौधे मुरझाने लगते हैं. पौधे का संक्रमण वाला भाग काले रंग का हो जाता है और कोयले जैसा दिखाई देने लगता है. रोगी पौधे को ध्यान से देखने पर काले दाने दिखाई देते हैं. रोगी पौधे जल्दी पक जाते हैं और उत्पादन घट जाता है.

इलाज

* कम से कम 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं जिस में धान, मक्का, गेहूं आदि फसलें शामिल करें.

* रोगग्रस्त खेत के अवशेषों को जला कर खेत की सफाई करें.

* बोआई से पहले बीजों को कार्बंडाजिम 0.1 फीसदी और थीरम 0.2 फीसदी या ट्राइकोडर्मा विरिडि 0.4 फीसदी से उपचारित करें.

* ट्राइकोडर्मा विरिडि मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले खेत में डालने से रोग में कमी होती है.

* तिल व मोठ की मिश्रित खेती से रोग कम होता है.

सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा :

* इस रोग से बचाव के लिए स्वस्थ बीजों से बोआई करें.

* खेत में पौधों के रोगी अवशेषों व खरपतवारों को न रहने दें.

* फसलचक्र अपनाएं.

* रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम या 0.2 फीसदी मैंकोजेब घोल का छिड़काव करें.

आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा (झुलसा) : यह रोग ‘आल्टरनेरिया सिसेमी’ कवक से होता है. इस के असर से पत्तियों पर छोटे व भूरे धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में पत्तियां झड़ जाती हैं.

इलाज

* स्वस्थ व प्रमाणित बीजों से बोआई करें.

* ऊपर बताई गई विधि से बीजोपचार करें और फसलचक्र अपनाएं.

* रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 0.2 फीसदी या आइप्रोडियान 0.1 फीसदी या कार्बंडाजिम व मैंकोजेब 0.1 फीसदी का छिड़काव करें.

छाछिया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘एरीसायफी ओरोंटाई’ या ‘एरीसायफी सिकोरेसिएरम’ कवक से होता है. पत्तियों व पौधों के सभी ऊपरी भागों पर रोग के लक्षण सफेद चूर्ण के रूप में दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां झड़ जाती हैं. बीज अधपके रहजाते हैं. पौधा पीला व कमजोर हो जाता है.

लाज

फूल खिलने से फली बनते समय तक यदि रोग के लक्षण दिखाई पड़ें, तो सल्फेक्स (घुलनशील गंधक) 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 10 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

बैक्टीरियल ब्लाइट : यह रोग ‘जेंथोमोनास सिसेमी’ और ‘स्यूडोमोनास सिसेमी’ नामक जीवाणुओं द्वारा होता है. रोग के लक्षण पत्तियों पर अनियमित छोटे धब्बों के रूप में दिखते हैं, जो बाद में तादाद में बढ़ते हैं और भूरे रंग के हो जाते हैं. वातावरण में अधिक तापमान होने और बारबार बौछारों वाली बारिश होने से यह रोग महामारी बन जाता है.

इलाज

* बोआई के लिए जीवाणु रहित बीजों का इस्तेमाल करें.

* रोगी पौधों के अवशेषों व खरपतवारों को नष्ट कर दें. बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.02 फीसदी घोल में 2 घंटे डुबो कर सुखाने के बाद बोआई करें.

* रोग की शुरुआत में स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.01 फीसदी घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर जरूरत के मुताबिक करें.

* रोगरोधी किस्मों का इस्तेमाल करें.

पर्णभित्ता (फिलोडी) : यह रोग ‘फाइटोप्लाज्मा’ जीवाणु से होता है. रोगी पौधों के पुष्पांग हरी पत्तियों जैसे हो जाते हैं. प्रभावित पौधे गुच्छों  में छोटीछोटी पत्तियां उत्पन्न करते हैं.

इलाज

* खेतों को खरपतवार नष्ट कर के साफ रखें.

* रोगी पौधे दिखाई पड़ते ही उखाड़ कर नष्ट कर दें.

* दक्षिण भारत में फसल को जल्दी बोना ठीक रहता है, जबकि उत्तर भारत में फसल को देर से बोना फायदेमंद होता है.* बोआई के 25 से 40 दिनों बाद फसल पर मिथाइल डिमेटान या क्यूनालफास (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करें

पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल) : यह रोग ‘निकोटियाना वायरस 10’ नामक विषाणु से होता है. शुरू में संक्रमित पौधों की पत्तियां नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. निचली सतह पर शिराएं मोटी हो कर उभर जाती हैं. बाद में संक्रमित पौधे छोटे रह जाते हैं और बिना फलियां बने ही नष्ट हो जाते हैं.

इलाज

* यह रोग वायरस जनित है और ‘बेमेसिया टेबेसाई’ नामक सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए खेत में रोगी पौधे दिखाई देते ही उन्हें नष्ट कर दें और मिथाइल डिमेटान (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करें.

* खरपतवार नष्ट कर के खेत साफ रखें.

* रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करें.

तिल के खास कीट

तिल पत्तीमोड़क व फलीछेदक (एंटीगेस्ट्रा कैटालुनालिस) : इस की सूंडि़यां कोमल पत्तियों को खाती हैं और पत्ती की भीतरी जाली छोड़ जाती हैं. यह क्रिया फसल की शुरुआती अवस्था में होती है. बाद में सूंडि़यां फूलों के भीतरी भाग को खाती हैं. ये फली छेद कर पके बीजों को भी खाती हैं.

इलाज

बोआई के 35 दिनों बाद क्यूनालफास 25 ईसी की 1.5 लीटर मात्रा पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें. फिर 45 दिनों की अवस्था पर नीम के तेल की 10 मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें. तिल के साथ मूंग की मिश्रित खेती से तिल में पत्तीछेदक व फलीछेदक कीटों का हमला कम होता है.

तिल गाल मक्खी (एस्फोनडाइलिया सिसामी) : यह फूल के भीतरी भाग को खाना शुरू करती है और बाद में फूल के सभी भागों को नष्ट कर देती है. गाल मक्खी की लटों के कारण फलियां फूल कर गांठ का रूप ले लेती हैं.

इलाज

मैलाथियान 5 फीसदी  चूर्ण या मिथाइल पैराथियान 2 फीसदी चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकें. पानी की सुविधा वाले इलाकों में कारबेरिल 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण 0.1 फीसदी या मोनोक्रोटोफास 0.04 फीसदी के घोल का छिड़काव करें.

तिल हाकमाथ (एकरोनसिया स्टीक्स) : यह तिल का प्रमुख कीट नहीं है. यह तिल की पत्तियों को खाता है और पौधे की सभी पत्तियों को नष्ट करता है. जब फसल पकती है, तब से पूरे मौसम तक यह कीट सक्रिय रहता है.

इलाज

जब इस कीट का हमला दिखाई पड़े तो कारबेरिल या मोनोक्रोटोफास ऊपर बताए अनुसार छिड़कने से बचाव हो जाता है. यह कीट दिखने में बहुत बड़ा होता है.

बिहार रोमयुक्त सूंड़ी (डाइक्रिसिया आबलिगा) : इस के लारवे सभी पौधों पर आक्रमण करते हैं. इस की सूंडि़यां दूसरे पौधों पर जा कर केवल तने को छोड़ कर सभी भागों को नष्ट कर देती हैं. उत्तर भारत में सितंबरअक्तूबर महीनों के दौरान यह कीट ज्यादा घातक हो जाता है.

इलाज

कीटनाशी क्यूनालफास या मोनोक्रोटोफास द्वारा ऊपर बताए तरीकों से इस की भी रोकथाम की जाती है.

ठंडा तरबूज करेगा जेब गरम

गरमियों के तपिश भरे दिनों में अगर कुदरती तौर पर ठंडक पहुंचाने वाली चीज की बात की जाए तो तरबूज पहले नंबर पर आएगा. इस की खेती ज्यादातर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आसाम, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार व पश्चिम बंगाल राज्यों में की जाती है. अगर उन्नत तरीके से इस की थोड़ी अगेती खेती कर ली जाए तो मार्केट में पहले पेश हो कर यह ठंडा फल किसानों की जेब भी खूब गरम कर सकता है. बेबी वाटरमैलन की बढ़ रही है मांग : इस बारे में कृषि विज्ञान केंद्र, दरियापुर, रायबरेली (उत्तर प्रदेश) के उद्यान विशेषज्ञ डा. एसबी सिंह कहते हैं कि किसानों को अच्छा मुनाफा लेने के लिए बोआई से पहले यह तय कर लेना चाहिए कि तरबूज की बिक्री आसपास के बाजारों में करनी है या फिर उसे बड़े शहरों में भेजना है. आजकल महानगरों में छोटे परिवारों की संख्या ज्यादा होने से छोटे आकार के तरबूजों (2-3 किलोग्राम वजन वाले) की मांग ज्यादा बनी रहती है. ऐसे तरबूजों को बेबी वाटरमैलन (छोटा तरबूज) के नाम से जाना जाता है. बेबी वाटरमैलन को फ्रिज में भी आसानी से रख सकते हैं. वैसे देहातों में आज भी बड़े आकार के तरबूजों की ही मांग ज्यादा है.

जमीन : तरबूज की फसल के लिए बलुई दोमट जमीन बेहतर होती है. इसी वजह से नदियों के किनारे की दियारा जमीन इस के लिए सब से अच्छी मानी जाती है. जमीन में जलनिकासी और सिंचाई का अच्छा इंतजाम होना चाहिए. जलभराव से इस फसल को काफी नुकसान पहुंचता है. परीक्षणों के मुताबिक पाया गया है कि दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7 के बीच हो तरबूज की खेती के लिए ज्यादा बढि़या होती है.

बोआई का समय : तरबूज के बीजों के जमाव के लिए 21 डिगरी सेंटीग्रेड से नीचे का तापमान सही नहीं होता है. यह पाले को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. इस की बढ़वार के लिए ज्यादा तापमान की जरूरत होती है. इसी वजह से इस की बोआई देश में अलगअलग समय पर की जाती है. उत्तरी भारत के मैदानी भागों में तरबूज की बोआई जनवरी के शुरुआती दिनों से ले कर मार्च तक की जाती है. उत्तरीपूर्वी और पश्चिमी भारत में इस की बोआई नवंबर से जनवरी तक की जाती है. दक्षिणी भारत में इस की बोआई दिसंबर से जनवरी महीनों के दौरान की जाती है.

खेत की तैयारी : सब से पहले खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 3-4 जुताइयां कल्टीवेटर या देशी हल से कर के मिट्टी को खूब भुरभुरी बना लेना चाहिए. नमी की कमी होने पर पलेवा जरूर करना चाहिए.

प्रजातियां : बेहतर होगा कि आप इलाकाई विशेषज्ञ से राय ले कर अपने इलाके के लिहाज से मुनासिब प्रजातियां ही बोएं. आप की सुविधा के लिए यहां तरबूज की तमाम प्रजातियों की एक सूची दी जा रही है.

बीज दर : बोआई करने से पहले बढि़या अंकुरण के लिए बीजों को पानी में भिगो दें. इस के बाद किसी फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बेंडाजिम, मैंकोजेब या थीरम से बीजशोधन करें. आमतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 2-3 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं. बड़े बीजों वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 5 किलोग्राम बीज लगते हैं.

बोआई की विधि : तरबूज की फसल पानी नहीं बर्दाश्त कर पाती है, लिहाजा इसे थोड़ा ऊपर 1 मीटर लंबे और 1 मीटर चौड़े रिज बेड में बोना चाहिए. इस से भी अच्छा होगा कि बीजों को अलगअलग किसी बर्तन जैसे मिट्टी के प्याले वगैरह में रख कर तैयार करें, इस से पौधे ज्यादा तंदुरुस्त होंगे.

पौधों को लाइनों में ही लगाना चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी पौधों की किस्म पर निर्भर करती है. सुगर बेबी किस्म के लिए लाइन से लाइन की दूरी 2 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 0.6 मीटर मुनासिब होती है.

खाद व उर्वरक : मिट्टी की जांच कराए बिना खाद व उर्वरकों की मात्रा तय नहीं की जा सकती है. मोटे तौर पर 200-300 क्विंटल खूब सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालनी चाहिए. 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से ले कर उस की आधी मात्रा शुरू में डालनी चाहिए और बाकी आधी मात्रा बोआई के लगभग 1 महीने बाद टापड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए. अगर बाद में नाइट्रोजन की कमी महसूस हो तो 2 फीसदी यूरिया के घोल का पर्णीय छिड़काव किया जा सकता है.

बोआई के समय 50-60 किलोग्राम फास्फोरस और 50-60 किलोग्राम पोटाश भी प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में समान रूप से डालनी चाहिए. सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी पाए जाने पर 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोआई के समय ही प्रयोग करना चाहिए.

खरपतवार : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बोआई के बाद व जमाव से पहले या नर्सरी में तैयार किया हुआ पौधा है, तो पौधरोपण के कुछ ही दिनों बाद पेंडीमेथलीन दवा की 3.5 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. समयसमय पर निराईगुड़ाई भी करते रहना चाहिए.

सिंचाई : सिंचाई हमेशा हलकी होनी चाहिए और पानी का ठहराव कभी नहीं होने देना चाहिए. 6-7 दिनों में सिंचाई की जरूरत पड़ती रहती है. फल पकने के समय सिंचाई रोक देनी चाहिए, क्योंकि इस अवस्था में सिंचाई करने से फलों के फटने व मिठास घटने की संभावना बढ़ जाती है. फलों की तोड़ाई करने से 1 हफ्ते पहले सिंचाई जरूर बंद कर देनी चाहिए.

कीट व रोग : कद्दू वर्गीय होने के कारण लगभग वे सारी बीमारियां और कीट इस में भी लगते हैं, जो करेला, कद्दू व लौकी वगैरह में पाए जाते हैं. फफूंदजनित बीमारियों से बचाव के लिए मैंकोजेब जैसे किसी फफूंदीनाशी और कीटों की रोकथाम के लिए किसी हलके कीटनाशी जैसे मैलाथियान वगैरह का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

भंडारण : तोड़ाई करने के बाद तरबूज के फलों का भंडारण 1 हफ्ते से ले कर 3 हफ्ते तक 2.20 डिगरी सेंटीग्रेड से 4.40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और वायुनमी 80-85 फीसदी होने पर किया जा सकता है.

मौसम की मार घट रही गेहूं की पैदावार

इस साल मौसम के बदले मिजाज ने सभी को चौंका कर रख दिया है. खेतीकिसानी के माहिरों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं, तो किसान एक तरह से सकते में हैं कि आखिरकार यह हो क्या रहा है. जाड़ों में पहले सी ठंडक क्यों नहीं है. किसानों की चिंता खुद को ले कर कम और फसलों को ले कर ज्यादा है, जिन्हें बोआई से ले कर कटाई तक एक तय तापमान और नमी की जरूरत रहती है. मौसम की गड़बड़ी से गेहूं सहित रबी की सभी फसलों का रकबा काफी घट गया है. तापमान में बदलाव का आलम यह है कि जानकार और माहिर हैरान हैं और एकदम से किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे. इस के लिए लगातार दुनिया भर के मौसम को बदलने वाली वजहों की निगरानी की जरूरत है और वजह मिल भी जाए तो उस के बाद एक बड़ी जरूरत उस के मुताबिक खेतीकिसानी का कैलेंडर बनाने और उस पर अमल करने की होगी, जो आसान काम नहीं होगा.

केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने बीती 3 जनवरी को जो आंकड़े गेहूं की घटती पैदावार को ले कर जारी किए, वे वाकई चिंताजनक हैं और देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालने वाले हैं.

मंत्रालय के मुताबिक लगातार दूसरे साल सूखा पड़ने और जाड़े के मौसम में ठंडक न पड़ने से गेहूं की बोआई पिछड़ गई है. रबी के मौसम की सब से बड़ी फसल गेहूं की बोआई आमतौर पर अक्तूबर महीने में शुरू हो जाती है और नवंबर के आखिर तक चलती है. लेकिन बीते साल के अक्तूबरनवंबर के महीनों में ठंडक पहले जैसी नहीं थी, इसलिए गेहूं की बोआई का रकबा बमुश्किल 271.46 लाख हेक्टेयर तक ही पहुंच पाया, जबकि बीते सीजन में इसी वक्त तक 293.16 लाख हेक्टेयर रकबे में गेहूं की बोआई हो चुकी थी यानी महज 1 साल में मौसम के बदलते मिजाज के चलते गेहूं की बोआई का रकबा 21.7 लाख हेक्टेयर कम हो गया.

इस आंकड़े का सीधा असर पैदावार और किसानों की माली हालत पर पड़ना तय है. अब देशभर में गेहूं की पैदावार 9 करोड़ टन का तयशुदा आंकड़ा छू पाएगी, इस में शक है. गौरतलब है कि साल 2014-15 में देश में गेहूं की पैदावार 889.5 लाख टन हुई थी. अगर मौसम के तेवर यही रहे तो इस साल गेहूं की पैदावार 850 लाख टन के आसपास सिमट जाने का अंदेशा है. वक्त रहते अगर मौसम के बदलते मिजाज के मुताबिक खेतीकिसानी के तौरतरीके नहीं बदले गए, तो यह घाटा लगातार बढ़ना तय है. जलवायु के लिहाज से देश के सभी सूबे गेहूं की खेती के लिए मुफीद हैं, पर सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में गेहूं की खेती सब से ज्यादा होती है. इस के बाद पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और बिहार का नंबर आता है. इन सभी सूबों में मौसम आमतौर पर एक सा रहता है. गेहूं की बोआई के वक्त ठंडक रहती है और कटाई के वक्त तक धीरेधीरे गरमी बढ़ जाती है.

यह गेहूं की फसल की खूबी है कि वह तापमान का उतारचढ़ाव बरदाश्त कर जाती है और किसान को निराश नहीं करती. इस का बीज 4-5 डिगरी सेल्सियस पर भी अंकुरित हो जाता है और 35 डिगरी सेल्सियस पर भी, लेकिन ज्यादा और अच्छे अंकुरण के लिए सही तापमान 20-25 डिगरी सेल्सियस है. कम और ज्यादा तापमान पर अंकुरण कम होता है, जिस से पैदावार भी कम होती है. देश में गेहूं की प्रति हेक्टेयर औसत पैदावार 30 क्विंटल है, लेकिन इस के लिए जरूरी है कि तापमान फसल की मांग और जरूरत के मुताबिक रहे. पिछले अक्तूबरनवंबर में तापमान औसत से ज्यादा रहा, इस से अंकुरण कम हुआ.

इसी तरह गेहूं की बेहतर बढ़वार के लिए सही तापमान 25 डिगरी  सेल्सियस माना जाता है. बोआई के समय तापमान कम हो और फसल की बढ़वार के साथ बढ़ता जाए तो नतीजा बेहतर होता है. मार्च के महीने में औसत तापमान 25 डिगरी  सेल्सियस होने से फसल समय पर और अच्छी पकती है. लेकिन जब दिसंबरजनवरी जैसे ठंडे महीनों में ही औसत तापमान 30 डिगरी सेल्सियस रहे जैसा कि इस साल हुआ, तो ज्यादा पैदावार की उम्मीद करना बेमानी है.

जनवरी के महीने में जब बाली में दाना पड़ रहा होता है तब गेहूं की फसल को ज्यादा ठंडक की जरूरत होती है, जो हर साल पड़ती भी थी. लेकिन इस साल हैरतअंगेज तरीके से दिसंबर का महीना गरम रहा, जिस का फर्क गेहूं की फसल पर देखने में आया. कहीं दाने बराबर नहीं पड़े, तो कहीं फसल पीली पड़ कर मुरझा गई. कहीं रोग और कीटों ने अपना असर दिखाया, तो कहीं फसल बढ़ी ही नहीं. अंदाजा है कि इस से प्रति हेक्टेयर 5 क्विंटल का नुकसान हुआ. अगर यही हाल रहा तो फरवरी में पारा 25 डिगरी सेल्सियस से ऊपर ही रहेगा, जो गेहूं को जल्द पकाएगा. नतीजा यह होगा कि दाना छोटा व घटिया होगा और फसल इसी महीने में पक कर पीली पड़ जाएगी.

और भी हैं वजहें

बात अकेले तापमान में उतारचढ़ाव की नहीं है, बल्कि इस से जुड़ी और भी वजहें हैं जिन के चलते गेहूं की पैदावार पर बुरा असर पड़ रहा है. इस साल बारिश भी औसत से कम हुई और गरमी ज्यादा रही, जिस से जमीन में नमी की कमी रही. नतीजा यह हुआ कि असिंचित इलाकों में किसानों ने जैसेतैसे गेहूं बोने की तसल्ली कर ली.

रहीसही कसर बारिश ने पूरी कर दी, जो इस साल ढंग से हुई ही नहीं. बढ़वार के वक्त अगर एक बार भी हलकी बारिश हो जाए तो गेहूं की फसल अच्छी तरह बढ़ती है और उस में दाने भी खूब पड़ते हैं. इस साल गेहूं की फसल वही किसान ले पा रहे हैं, जिन के पास सिंचाई के साधन हैं और हर कोई जानता है कि ऐसे किसानों की तादाद 25 फीसदी भी नहीं है. मौसम के बदलाव से गेहूं पर रोगों व कीटों का हमला भी ज्यादा होता है. गंजबासौदा के एग्रीकल्चर कालेज के प्रोफेसर आशीष श्रीवास्तव बताते हैं कि गेहूं को सब से ज्यादा नुकसान रस्ट यानी रतुआ बीमारी पहुंचाती है, जिस की रोकथाम के तमाम उपायों के बाद भी पैदावार में 10 फीसदी तक गिरावट आती है. आशीष  बताते हैं कि जैसे कमजोर आदमी को बीमारियां जल्द अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं, वैसे ही गेहूं की फसल पर तापमान का असर पड़ रहा है. हर फसल एक तय तापमान पर बढ़ती और पकती है. इस में 5-6 डिगरी सेल्सियस का अंतर ज्यादा असर नहीं डालता, लेकिन इस से कम या ज्यादा अंतर होने पर बीमारियां और कीड़े ज्यादा असर दिखाते हैं. कीटनाशक रसायनों का इस्तेमाल फसल की लागत बढ़ाता है. इस के बाद भी परेशानी खत्म होना पक्का नहीं होता.

यानी दिक्कत कम पैदावार की ही नहीं, बल्कि फसल की बढ़ती लागत की भी है. सिंचाई, खाद और कीटनाशक वगैरह सभी ज्यादा तादाद में किसानों को बढ़ते तापमान के चलते फसलों को देने पड़ रहे हैं.

क्या करें किसान

घटतेबढ़ते तापमान पर किसानों का कोई जोर नहीं चलता. ऐसे कारगर तरीके भी कोई नहीं बता सकता, जिन से वे इस मार और घाटे को कम कर सकें. सीहोर के एक खेती के माहिर डीएम राठौर की मानें तो यह ठीक है कि खेतीकिसानी मौसम के हाथ में है, लेकिन गेहूं की फसल के लिए किसान कुछ एहतियात बरतें तो घाटा कुछ कम किया जा सकता है. ये उपाय हैं :

* गेहूं की फसल में सिंचाई ज्यादा और कम वक्त के अंतर से करें. 10-12 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहने से गरमी का असर कम किया जा सकता है.

* निराई के बाद खरपतवारों को फेकें नहीं, बल्कि उन्हें खेत में ही बिछा दें जिस से नमी भाप बन कर कम से कम मात्रा में उड़े.

* ज्यादा तापमान के दिनों (25 डिगरी सेल्सियस से ज्यादा) में 2 फीसदी यूरिया का घोल खेत में डालें. इस से खेती की बढ़वार रुकेगी नहीं.

* खेतों में कृषिक्रियाएं जरूरत के मुताबिक ही करें और खाद भी उचित मात्रा में ही डालें.

* अगर अगले साल अच्छी फसल लेनी है, तो बारिश के बाद कम जुताई करें ताकि खेत में नमी बनी रहे. जुताई के तुरंत बाद बोआई करें, जिस से नमी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो सके.

* देर से बोई जाने वाली किस्मों का इस्तेमाल करें. गेहूं की ऐसी खास किस्में हैं एचडी 2327, जे 405, गिरिजा, हीरा, एचडी 2285 और राज 3765.

मौसम आधारित फसल बीमा योजना

जयपुर समेत राजस्थान के 12 जिलों में मौसम आधारित फसल बीमा योजना लागू है, जिस के तहत बीमा कंपनी सरकार व किसानों से प्रीमियम ले कर अपना खजाना भर रही है, लेकिन रिस्क कवर देने के नाम पर कंपनी सरकार व किसानों से ठगी कर रही है. दिलचस्प बात तो यह है कि बीमा कंपनी किसानों से ज्यादा सरकार से फायदा उठा रही है. वजह साफ है, सरकार पहले तो बीमा कंपनी को प्रीमियम की आधी राशि देती है और फिर फसल खराब होने पर अरबों रुपए किसानों को मुआवजे के रूप में देती है, जबकि फसल खराब होने पर बीमा कंपनी द्वारा किसानों को क्लेम देना चाहिए. देखने में आया है कि बीमा कंपनी किसानों को कभीकभार फसल खराब होने का मुआवजा तो देती है, लेकिन यह मुआवजा ऊंट के मुंह में जीरा जितना ही होता है. गौरतलब है कि बीमा कंपनी किसानों को क्लेम दे तो सरकारी खजाने से किसानों को अरबों रुपए मुआवजा देने की नौबत ही न आए.

बावजूद इस के मौसम आधारित फसल बीमा योजना की शर्तें भी इतनी जटिल हैं कि यह मामला हर किसी की समझ में नहीं आता और बीमा कंपनी कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से हर साल अरबों रुपए का प्रीमियम चट कर जाती है. यानी हर हालत में बीमा कंपनी रिस्क कवर देने में फिसड्डी है और सरकार को इस की भरपाई करनी पड़ती है. इस में यह भी मजे की बात है कि किसानों को फसल बीमा दिलाने में सरकार के नुमाइंदों की ओर से भी कुछ खास नहीं किया जा रहा है.

यह है हकीकत

रबी या खरीफ फसल में ज्यादा बारिश होने, ओले पड़ने या अकाल पड़ने पर सरकार किसानों को सरकारी खजाने से अरबों रुपए का मुआवजा देती है, जबकि प्राकृतिक आपदा या अकाल की स्थिति में फसल बीमा योजना के तहत किसानों को बीमा क्लेम दिया जाना चाहिए. बीमा क्लेम मिलने के बाद किसानों को किसी मदद या अनुदान की जरूरत ही नहीं रहेगी. ऐसे में महज उन किसानों को ही अनुदान देना होगा, जिन्होंने केसीसी के तहत कर्ज नहीं लिया हुआ है. हालांकि ऐसे किसानों की तादाद अब बहुत कम रह गई है.

इन का होता है बीमा

किसान क्रेडिट कार्ड यानी केसीसी के तहत बैंकों से कर्ज लेने वाले किसानों का खुद ही अनिवार्य फसल बीमा हो जाता है. बीमा प्रीमियम की आधी राशि किसान के खाते से काटी जाती है, जबकि आधी राशि सरकार देती है. यह फसल के अनुसार कमज्यादा हो सकती है. केसीसी के तहत कर्ज लेने वाले किसानों को आमतौर पर बैंक वाले इस बारे में नहीं बताते, जिस के कारण किसान कभी क्लेम की बात भी नहीं करते. वैसे किसान चाहें तो अपनी मर्जी से भी फसल बीमा करा सकते हैं.

दिखावा बने बीमामापन मौसमयंत्र

मौसम आधारित बीमा योजना में बीमा कंपनी कई जगहों पर  आटोमैटिक यानी अपनेआप चलने वाले मौसमयंत्र लगवाती है, जिन की रिपोर्ट के आधार पर क्लेम तय होता है. जयपुर में कुल 637 ग्राम पंचायतें हैं, लेकिन आटोमैटिक मौसमयंत्र महज 35 ही हैं. आज जहां 1 किलोमीटर दायरे में भी बारिश व अकाल का कहर हो सकता है, वहीं यह बीमा कंपनी 40 से 50 किलोमीटर की दूरी का मौसम एक ही यंत्र से रिकार्ड करती है, जो कभी भी सटीक नहीं हो सकता है.

किसानों की कमाई के लिए सूअरपालन व मछलीपालन

पहले दलहन, तिलहन व गन्ना आदि को ही किसानों की नकदी फसल माना जाता था, क्योंकि इन्हें बेच कर किसान रुपए प्राप्त करते थे, लेकिन अब सूअरपालन और मछलीपालन भी किसानों के लिए नकदी के जरीए बन गए हैं. सूअरपालन और मछलीपालन असम के किसानों के लिए काफी फायदेमंद हैं. वक्त के साथसाथ अब मछलीपालन और सूअरपालन के तरीके में काफी बदलाव आ चुका है. सूअरपालन और मछलीपालन अलगअलग न कर के एकसाथ करना काफी फायदेमंद होता है. एक ही जगह पर दोनों का पालन आसानी से हो जाता है.

सूअरपालन करने में काफी पानी की जरूरत पड़ती है. जिस तालाब में मछलीपालन किया जाता?है, उसी तालाब में अलग से पानी की जरूरत नहीं पड़ती है. असम में मछली और सूअर के कारोबारियों के लिए यह तरीका काफी फायदेमंद साबित हो रहा है. मछलीपालन के लिए तालाब के पानी को हमेशा साफ रखा जाता है. उसी पानी का इस्तेमाल सूअरपालन में करने से सूअरों को बीमारी का खतरा कम रहता है. देश के कई अन्य राज्यों में भी अब सूअरपालन और मछलीपालन एकसाथ हो रहा है. ऐसा करने से इस कारोबार में खूब फायदा मिलता है, क्योंकि इस तरीके से कम उत्पादन लागत में मछली और सूअर के मांस दोनों का ही भरपूर उत्पादन होता है.

असम में मांस और मछली दोनों की काफी मांग है. इसीलिए वहां के ढेर सारे बेरोजगार युवकयुवतियां इस समय सूअरपालन व मछलीपालन के काम में लगे हुए हैं और मोटी रकम कमा रहे?हैं. मछलीपालन व सूअरपालन के काम को सरल बनाने और किसानों को इस बारे में नईनई जानकारियां मुहैया कराने के लिए ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ की पूर्वोत्तर शाखा ने प्रदेश में एक योजना भी चला रखी है. इस के अलावा ‘राष्ट्रीय सूअर अनुसंधान संस्थान’ की ओर से भी किसानों को इस बारे में जानकारियां मुहैया कराई जा रही हैं. ये संस्थान मछलीपालन व सूअरपालन में प्रदेश के किसानों की मदद भी कर रहे?हैं, इस से किसानों को काफी फायदा पहुंच रहा है. गौरतलब है कि ‘राष्ट्रीय सूअर अनुसंधान संस्थान’ के निदेशक इस व्यवसाय को आगे बढ़ाने में काफी जोरशोर से लगे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि प्रदेश का एकमात्र ‘पालन महाविद्यालय’ नगांव जिले के रोहा में मौजूद है. इस महाविद्यालय के अधिकारी इस क्षेत्र में अपना अहम योगदान देते रहते हैं. ऐसे में मछलीपालन और सूअरपालन का काम छोटे किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रहा है.

खाद नहीं जैविक खाद : घटेगी लागत बढ़ेगा मुनाफा

चालू मौसम में गेहूं की बोआई के समय एक बार फिर से खाद की बढ़ी कीमतों से किसानों की लागत बढ़ रही?है और मुनाफा घट रहा?है. ऐसे में अगर किसान रासायनिक खाद की जगह पर जैविक खाद का प्रयोग करें तो न केवल किसानों का मुनाफा बढ़ेगा, बल्कि खेत की सेहत भी ठीक रहेगी. रासायनिक खाद का प्रयोग खेत की मिट्टी की जांच के बाद ही जरूरत के अनुसार करें. अंधाधुंध रासायनिक खाद का प्रयोग करने से पैदावार बढ़ने के बजाय खेत को नुकसान होता है और खेती की लागत भी बढ़ती है. ऐसे में किसान को ही परेशान होना पड़त है.

जिस समय किसान अपने खेतों में बोआई कर रहे थे, उस समय खाद की दुकानों से डीएपी खाद गायब हो गई?थी, जिस से किसानों को महंगे दामों पर खादें खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा. जब किसान गेहूं की फसल काटने के लिए तैयार हो रहे थे और गेहूं की फसल में आखिरी बार खाद डालने की बारी आई तो दुकानों से यूरिया खाद गायब हो गई. यूरिया संकट ने किसानों के सामने समस्या खड़ी कर दी. रबी की फसलों विशेषकर गेहूं की फसल में जनवरीफरवरी के दौरान खाद डालने की जरूरत होती है. इस समय तक गेहूं में दूसरी और तीसरी सिंचाई की जरूरत होती है. इस के बाद यूरिया खाद डाली जाती?है.

यूरिया खाद दुकानों में भरपूर मात्रा में न होने से किसानों को महंगे दामों पर इसे खरीदना पड़ रहा है. इस के चलते यूरिया के लिए मारामारी मची है. उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों में यूरिया खाद की कालाबाजारी शुरू हो गई?है. तमाम किसान कृषि विभाग को इस बारे में शिकायतें भी भेज रहे?हैं, लेकिन विभाग इस बात को मान ही नहीं रहा है कि प्रदेश में यूरिया खाद की कोई कमी है. उत्तर प्रदेश में यूरिया खाद का भाव 3 सौ रुपए प्रति बोरी है. खाद की कमी के चलते किसानों को 375 से 400 रुपए प्रति बोरी खाद खरीदनी पड़ रही?है. सब से बड़ी परेशानी उन जिलों में है, जहां पर सहकारी संस्थाएं काम नहीं कर रही?हैं. मगर अब खाद की कमी से परेशान होने की जरूरत नहीं?है. किसानों को इस की जगह पर जैविक खाद का प्रयोग करना चाहिए. इस से पैदावार बढ़ेगी और लागत मूल्य कम होगा.

रासायनिक खाद की जगह जैविक खाद

गेहूं की बोआई के समय प्रदेश में डीएपी खाद की कमी हो गई थी, जिस का प्रभाव गेहूं की फसल पर पड़ रहा है. डीएपी खाद की कमी को पूरा करने के लिए किसान गेहूं में यूरिया ज्यादा डालना चाह रहे थे. अब यूरिया भी नहीं मिल रही है, जिस से गेहूं की पैदावार पर असर पड़ेगा. गेहूं की बोआई के समय ही आलू की बोआई भी होती है, इसलिए आलू किसान भी डीएपी खाद न मिलने से परेशान हुए थे. किसान सेवा केंद्रों पर आधी रात से लाइन लगाए खड़े किसान जब बेकाबू हो जाते थे, तो धरनाप्रदर्शन करने लगते?थे, जिसे काबू करने के लिए पुलिस को लाठियां चलानी पड़ती थीं. किसानों को खाद मिलने की जगह पर पुलिस की लाठियां खानी पड़ती थीं.

उस समय भी कृषि विभाग के अधिकारी खाद की कमी को नहीं मानते थे. अफसरों का कहना था कि किसान खाद को खरीद कर जमा कर रहे हैं, जिस से बाजार में खादों के दाम बढ़ गए हैं. किसान जबरदस्ती की हड़बड़ी दिखा कर परेशानी पैदा कर रहे हैं. किसानों का कहना?है कि जब तक गेहूं की बोआई चली तब तक खाद का संकट बना रहा. कृषि विभाग ने रबी फसलों की बोआई के लिए बहुत सारी योजनाएं तो पहले बना ली थीं, पर खाद संकट न हो इस की कोई योजना नहीं बनाई. इसी का नतीजा है कि डीएपी के बाद यूरिया खाद का संकट आ गया है. कृषि विभाग ने हर जिले में खाद वितरण पर नजर रखने के लिए कंट्रोल रूप भी बनाए थे, जहां पर किसान अपनी शिकायत दर्ज करा सकते थे. यह व्यवस्था की गई कि खाद का वितरण सरकारी कर्मचारी की मौजूदगी में ही किया जाए. इस के लिए ब्लाक, तहसील या फिर विभाग का कर्मचारी वहां पर मौजूद रहे. इस के बाद भी जिलेवार हालात बहुत खराब दिखे.

जब बोआई का समय आता है तभी बाजार से खाद गायब हो जाती है. खाद की कमी से कालाबाजारी होने लगती है. किसानों को महंगे दामों पर खाद खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता?है. नए तरीके से बनाएं जैविक खाद : खाद की कमी केवल बड़े शहरों में ही नहीं है. छोटे शहरों का?हाल भी बुरा है. जालौन जिले के माधौगढ़, आटा व जोल्हूपुर इलाके के किसान डीएपी और यूरिया खाद के न मिलने से परेशान हैं. जालौन के किसानों का कहना?है कि मटर, चना, मसूर, तिलहन और गेहूं की बोआई के समय डीएपी खुले बाजार में मौजूद नहीं थी, जिस के कारण उन्हें बहुत परेशान होना पड़ा.

सरकार ने किसानों को राहत देने के नाम पर सरकारी कीमत पर खाद वितरण का काम पीसीएफ और सहकारी समितियों के द्वारा कराने की योजना भी बनाई, समितियों के जरीए उन किसानों को खाद मिल रही?है, जो समितियों के सदस्य हैं. जरूरत इस बात की है कि रासायनिक खाद की जगह पर जैविक खाद का प्रयोग किया जाए. किसानों को नए तरीके से जैविक खाद बनाने के तरीके बताए जाएं, जिस से उन को लाभ हो. समितियों के कर्मचारियों के द्वारा भी खाद की बिक्री में मनमानी की जा रही?है. ये लोग मनचाहे तरीके से खाद बांटते हैं. कुछ समितियां लाइसेंस धारक खाद विक्रेताओं को अधिक पैसे ले कर खाद बेच देती हैं. समितियों द्वारा 1 एकड़ खेत के लिए 1 बोरी खाद दी गई थी, जो जरूरत से काफी कम थी.

फतेहपुर और कानपुर जिलों में भी खाद की कमी नजर आती?है. साधन सहकारी समितियों में खाद की खेप आते ही दबंग और बड़े किसान उस पर कब्जा कर लेते?हैं. इस से छोटे किसानों को खाद का संकट पैदा हो जाता है. बाजार में खाद की कीमत उछाल मारने लगती है. अफरातफरी में किसान खाद को ज्यादा खरीद लेते हैं. खाद की कमी की परेशानी को दूर करने का एकमात्र उपाय है कि जैविक खाद का प्रयोग बढ़ाया जाए. इस से ही किसानों को लाभ होगा.

जलवायु परिवर्तन का खेती पर प्रभाव

महिला किसानों में जागरूकता जरूरी

महिलाओं की खेती में भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है. गांवों में ज्यादातर खेती महिला किसानों के जिम्मे होती है. आज खेती पर जलवायु परिवर्तन का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ रहा है. समय पर बरसात न होने से गेहूं और धान सहित हर फसल की पैदावार प्रभावित हो रही है. ऐसे में जरूरी है कि महिला किसानों को भी ऐसे बदलाव की जानकारी हो. प्रचारप्रसार के जरीए ही महिला किसानों को जागरूक किया जा सकता है. गांव में रहने वाले ज्यादातर कमजोर और गरीब परिवारों  के लोग कम रकबे की खेती करते हैं. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सब से अधिक इन पर पड़ता है. बड़े किसान इस से कम प्रभावित होते हैं, पर छोटे किसान इस से ज्यादा प्रभावित होते हैं. ऐसे में जरूरी है कि उन्हें खेती पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और उस से बचाव कीजानकारी दी जाए. लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में गोरखपुर एनवायरन्मेंटल एक्शन ग्रुप ने 2 दिवसीय एक राज्य स्तरीय ‘महिला किसान संवाद’ का आयोजन किया. इस का उद्घाटन कृषि राज्यमंत्री राधे श्याम सिंह ने किया.

राधे श्याम सिंह ने कहा कि आज आवश्यकता है महिला किसानों द्वारा किए जा रहे प्रयासों को बड़े पैमाने पर प्रसारित करने की. महिला किसानों द्वारा की जा रही गतिविधियों को बड़े पैमाने पर पहचान दिलाने की भी जरूरत है. छोटी जोत की महिला किसानों द्वारा किए गए सफल प्रयोगों की जानकारी को बड़े स्तर पर ले जाना चाहिए. इस आयोजन में जमीनी स्तर पर जुड़ी महिला किसानों, कृषि क्षेत्र व आजीविका से जुड़े स्वैच्छिक संगठनों, शोधकर्ताओं व कृषि क्षेत्र से जुड़े तमाम अधिकारियों ने हिस्सा लिया.

बीज और खाद का सही इस्तेमाल

कृषि राज्यमंत्री राधे श्याम सिंह ने कहा कि महिला किसानों के जलवायु के मुताबिक कृषि के परंपरागत ज्ञान, बीज चयन, संरक्षण व जैविक खाद विधियों को कृषि प्रसार सेवाओं के तहत जोड़ा जाए. उन्हें जलवायु परिवर्तन नापने केयंत्रों का ज्ञान दिया जाए व उन्हें चलाने में उन का सहयोग लिया जाए. यह काम हर पंचायत में पक्केतौर पर हो. महिलाओं को जलवायु परिवर्तन व उस के जीवन और सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानकारी देने के साथ ही जलवायु परिवर्तन से निबटने के तरीकों के विषय में जानकारी दी जाए. महिला किसानों की खातिर मौसमबदलाव के जोखिम से निबटने के लिए बीमा, फसल बीमा, कृषि दुर्घटना बीमा और पशु बीमा का लाभ तय हो. महिला किसानों को किसान की प्रचलित परिभाषाओं के दायरे में लाया जाए, ताकि जलवायु अनुकूलन कृषि को बढ़ावा मिले और देश की खाद्य सुरक्षा व आर्थिक सुरक्षा में उन का योगदान तय हो सके.

छोटी जोत पर ज्यादा ध्यान की जरूरत

डा शीराज वजीह (अध्यक्ष, गोरखपुर, एनवायरन्मेंटल एक्शन ग्रुप) ने कार्यशाला का मकसद बताते हुए कहा कि कार्यशाला में जलवायु परिवर्तन से जुड़े कामों में महिला किसानों की अहमियत पर चर्चा की गई. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के कारण खराब हालात पैदा हो रहे हैं. यहां पर लगभग 80 फीसदी आबादी की आजीविका का जरीया आज भी छोटी जोत की खेती या खेतिहर मजदूरी है. इस में भी करीब 93 फीसदी काम महिला किसानों द्वारा किए जाते हैं. रोपाई व बोआई से ले कर भंडारण तक के सभी कामों में महिला किसानों का योगदान होता है.

महिला किसानों ने बताया अच्छी फसल का राज

रामरती देवी साड़े कलां, मेहदावल, संत कबीरनगर से आई थीं. उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचने के लिए उन्होंने खाली पड़ी बेकार जमीन की खुदाई करा कर तालाब तैयार कराया. उस में मछलीपालन किया और ऊपर मुरगीपालन भी किया. मेड़ों पर केले व दूसरे पेड़ लगाए. मुरगियों की बीट को वे मछलियों के भोजन के रूप में इस्तेमाल करती हैं. तालाब के पोषक पानी से वे खेतों की सिंचाई करती हैं. उर्मिला देवी मेदिनीपुर, घुघली, महाराजगंज से आई थीं. उन्होंने बताया कि उन की खेती बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में है. मौसम की खराबी की वजह से वे भिंडी, करेला व बंडा वगैरह की मिश्रित खेती करती हैं. उन्हें 8500 रुपए लागत के मुकाबले सिर्फ भिंडी से 67 हजार रुपए की आमदनी 5 महीने में हुई. उसी जमीन में बोड़ा, सरपुतिया, करेला व बंडा की खेती से 8500 रुपए की लागत के मुकाबले 73450 रुपए की आमदनी हुई.

संतरी देवी कुशीनगर से आई थीं. उन्होंने बताया कि उन की खेती बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में है. मौसम की गड़बड़ी की वजह से खेती की लागत में लगातार इजाफा हो रहा है, पर उस हिसाब से फायदा नहीं हो रहा है. आखिरकार साल 2013 के खरीफ में उन्होंने छोटे पैमाने पर टांगुन, मंडुआ व सांवा की खेती शुरू की. इन मोटे अनाजों की खेती में लागत कम लगती है और फसल में रोग व कीड़ों का प्रकोप भी नहीं रहता. ऐसा करने के बाद उन्हें अच्छी पैदावार हासिल हुई. कार्यशाला में प्रदेश के तमाम जिलों से करीब 3सौ महिला किसानों के साथ तमाम कृषि विशेषज्ञों ने भाग लिया. एके विश्नोई, डा. वीके तोमर, नवीन राय, प्रशांत अंचल, केके सिंह, विजय पांडेय, डा. बीसी श्रीवास्तव व डा. अरविंद खरे जैसे खेती के माहिरों ने भी इस बात पर जोर दिया कि महिला किसानों को भी जलवायु परिवर्तन और दूसरे मसलों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए.      

गरमी में भिंडी की खेती

सदाबहार सब्डी की खेती सभी प्रकार की जमीन में हो सकती है, मगर अच्छे जलनिकास वाली दोमट मिट्टी व जैविक खादों से भरपूर खेत इस के लिए ज्यादा बढि़या साबित होते हैं. इस की खेती हलकी अम्लीय जमीन में भी की जा सकती है.

1.बोआई का समय : गरमियों की भिंडी की खेती करने के लिए आसाम, बंगाल, उड़ीसा और बिहार के कुछ हिस्सों में जनवरी के अंत तक बोआई कर दी जाती है. इन सूबों में पाले का खतरा कम होता है. उत्तर भारत के राज्यों में भी भिंडी की अगेती फसल लेने के लिए जनवरी में ही पलवार आदि बिछा कर इस की खेती आसानी से कर सकते हैं. अगर ऐसा मुमकिन न हो तो उत्तरी राज्यों में मध्य फरवरी तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. दरअसल इस के बीजों का जमाव 20 डिगरी सेंटीग्रेड से नीचे नहीं हो पाता?है. इसलिए यदि तापमान अनुकूल न हो तो पलवार का सहारा जरूर लेना चाहिए. पहाड़ी इलाकों में भिंडी की बोआई अप्र्रैल और मई में की जाती है.

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2.बीज दर : भिंडी के बीज काफी कठोर होते हैं, लिहाजा बीज के जमाव में 10-12 दिन तक लग जाते?हैं. इसलिए बेहतर है कि बोने से पहले बीजों को 24 घंटे के लिए पानी में भिगो दें या 12 घंटे भिगोने के बाद किसी सूती कपड़े को भिगो कर उस में बीजों को रख दें. इस से जमाव जल्दी होने की संभावना बढ़ जाएगी. जहां तक बीज दर की बात है तो आमतौर पर 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरी होते?हैं.

3.खेत की तैयारी : भिंडी की खेती के लिए मिट्टी खूब भुरभुरी होनी चाहिए. खेत को 1 बार गहराई से मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 बार हैरो या देशी हल से जोत कर बढि़या तरीके से तैयार करना चाहिए.

सिंचाई एकसमान मिले इस के लिए खेत का समतलीकरण भी खूब अच्छी तरह से करें. यदि खेत में पर्याप्त नमी नहीं है, तो बोआई से पहले 1 बार सिंचाई जरूर कर देनी चाहिए. पलेवा भी किया जा सकता है.

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4.खाद व उर्वरक : बोआई से 2 हफ्ते पहले खेत में खूब सड़ी हुई गोबर की खाद 30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. रासायनिक उर्वरकों को खेत की मिट्टी की जांच के अनुसार ही प्रयोग करना चाहिए. वैसे मोटे तौर पर 80 किलोग्राम नाइट्रोजन,40 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश प्रयोग किया जा सकता?है.

5.प्रजातियां : अपने इलाके के अनुकूल रोगरोधी प्रजातियों की ही बोआई करनी चाहिए.

सिंचाई ?: 5-6 दिनों पर या जरूरत के हिसाब से सिंचाई करते रहना चाहिए.

6.खरपतवार नियंत्रण : भिंडी में यदि शुरुआती 30-40 दिनों के अंदर खरपतवार पर नियंत्रण कर लिया जाए तो फसल अच्छी होती है. इसलिए बोआई के बाद व जमाव से पहले ही किसी अच्छे खरपतवारनाशी जैसे पेंडीमिथलीन या एलाक्लोर का इस्तेमाल करना चाहिए.

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7.खास रोग व कीट : भिंडी की फसल को कीटों और रोगों से तकरीबन 40-50 फीसदी तक नुकसान होता है, लिहाजा कीटों व रोगों की सही तरीके से रोकथाम करनी चाहिए. भिंडी के खास रोग व कीट निम्न प्रकार हैं:

8.पीत शिरा मोजैक : यह भिंडी का सब से खतरनाक रोग है. वायरस से होने वाले इस रोग की वजह से कई बार पूरी फसल चौपट हो जाती?है. रोग के ज्यादा बढ़ने पर इस का इलाज मुमकिन नहीं हो पाता है. इस रोग का फैलाव सफेद मक्खी द्वारा होता है. इस रोग की वजह से पत्तियों पर नसों का पीला जाल सा दिखाई पड़ता है, शिराएं सामान्य से मोटी, चमकीली व पीली हो जाती हैं, पत्तियां छोटी रह जाती हैं और पूरा पौधा बौना रह जाता?है.

इलाज

इस की रोकथाम के लिए विषाणु फैलाने वाली सफेद मक्खियों पर काबू पाना बेहद जरूरी?है. पीत शिरा मोजैक अवरोधी प्रजातियां जैसे पंजाब पद्मिनी, पंजाब 8, परभनी क्रांति, हिसार उन्नत या अपने क्षेत्र विशेष की अवरोधी प्रजातियों का चयन करना चाहिए. खेत में इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही प्रभावित पौधों को तुरंत सावधानीपूर्वक उखाड़ कर जला दें. जरूरत पड़ने पर अच्छी दवाओं जैसे इंडोक्साकार्बा का आधा मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.

9.चूर्णिल आसिता : यह फफूंद के कारण फैलने वाली बीमारी है. फफूंद के बीजाणु पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के चूर्ण की तरह जमा हो जाते?हैं. ज्यादा प्रभावित पत्तियां पीली पड़ कर गिर जाती हैं. इस की रोकथाम के लिए रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से सल्फरयुक्त कोई रसायन या मैंकोजेब जैसे किसी फफूंदीनाशी का इस्तेमाल करना चाहिए.

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10.पत्तीधब्बा : यह रोग भी फफूंद के कारण फैलता है. इस में पहले पत्तियों पर छोटेछोटे गोल, अंडाकार या अनियमित आकार के गहरे भूरे धब्बे पड़ते?हैं, जो बाद में बढ़ कर पूरी पत्ती को घेर लेते हैं. अंत में पत्ती सूख कर गिर जाती है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर 2-3 बार छिड़काव करें.

11.तनाबेधक व फलबेधक कीट : इस कीट की सूड़ी का रंग सफेद होता है, जिस के ऊपर काले और भूरे धब्बे पाए जाते?हैं. इसलिए इसे चित्तीदार सूड़ी भी कहते?हैं. ये सूडि़यां तने व फलों में छेद कर के नुकसान पहुंचाती हैं, नतीजतन तने व फल मुरझा कर गिर जाते?हैं.

इस कीट की सूंडि़यां भिंडी के फूलों, कलियों व पौधों की कोमल टहनियों को नुकसान पहुंचाती हैं. इन के प्रकोप से कलियां नहीं खिलतीं, फूल झड़ने लगते हैं और फल खाने लायक नहीं रह जाते हैं.

इलाज

रोकथाम के लिए प्रभावित शाखाओं व फलों को तोड़ कर नष्ट कर दें. प्रकाश प्रपंच और फेरोमोन ट्रैप का इंतजाम करें. जरूरी होने पर कृषि वैज्ञानिकों की सलाह से किसी रासायनिक दवा का कुछ दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

12.हरा फुदका (जैसिड) : ये हरे रंग के कीट होते हैं, जिन की पीठ के पिछले भाग पर काले रंग के धब्बे पाए जाते हैं. ये पौधे की पत्तियों व नर्म भागों से रस चूसते?हैं, जिस से पत्तियां मुड़ जाती हैं और बाद में धीरेधीरे सूखने लगती हैं. रासायनिक रोकथाम के लिए मैलाथियान दवा की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

13.सफेद मक्खी : ये पत्तियों की निचली सतह पर बैठ कर रस चूसती हैं, जिस से पत्तियां पीली पड़ जाती?हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है, पौधों में फूलों व फलों की संख्या कम हो जाती है. यह कीट अपने शरीर से एक मीठा पदार्थ भी छोड़ता है, जिस के ऊपर काली फफूंद उग आती है.

इलाज

रोकथाम के लिए खेत में उगे खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए. रासायनिक इलाज के लिए डायमेथोएट (रोगोर) दवा का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

तोड़ाई : भिंडी की तोड़ाई प्रजातियों के अनुसार फूल खिलने के 5-7 दिनों बाद की जाती?है. केवल नरम भिंडियों की तोड़ाई ठीक रहती है.

कुछ ध्यान देने वाली बातें

.* रासायनिक दवाओं द्वारा रोकथाम करने की दशा में, दवाओं का बेहतर तरीके से पत्तियों व तनों के पिछले भागों पर भी प्रयोग करें. कई बार लोग दवाओं का छिड़काव तो कर देते?हैं, मगर फिर भी इस का पूरा फायदा नहीं मिल पाता है. इस की वजह यह?है कि कीड़े या उन के लारवे वगैरह पीछे छिपे रह जाते?हैं और उन पर दवा नहीं पड़ पाती है.

* रासायनिक दवाओं के घोल में किसी अच्छे चिपकने वाले रसायन का प्रयोग करें, इस से ज्यादा प्रभावकारी असर होगा.

* समस्या से नजात पाने के लिए ज्यादा खतरनाक रसायन का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि भिंडियों को जल्दी ही सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

फरवरी के दौरान होने वाले खेती के खास काम

फरवरी में सर्दी के तेवर ढीले पड़ने से पिछले महीनों से ठंडाए किसान काफी राहत और सुकून महसूस करते हैं. फरवरी के मध्यम मौसम में किसानों को हर घड़ी बीमार पड़ जाने का खौफ नहीं रहता और वे खुल कर काम करने की हालत में रहते हैं. जनवरी में तो किसानों का ज्यादा वक्त आग तापते ही बीतता है. कंबल पर कंबल लादने के बाद भी बदन सर्दी से सुन्न बना रहता है, मगर फरवरी की फिजा और आबोहवा तनबदन में चुस्तीफुरती भरने वाली होती है.

काम चाहे गन्ने की बोआई का हो या तेजी से तैयार हो रही गेहूं की फसल की देखभाल का, किसान पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं. फरवरी में सुस्ती एकबारगी नौदोग्यारह हो चुकी होती है और खेतों में चहलपहल बढ़ जाती है.

आइए लेते हैं एक जायजा, फरवरी के दौरान खेतीजगत में होने वाले खास कामों का :

* शुरुआत मिठास से करें, तो 15 फरवरी के बाद गन्ने की बोआई का सिलसिला शुरू किया जा सकता है. बोआई के लिए गन्ने की ज्यादा पैदावार देने वाली किस्मों का चुनाव करना चाहिए. किस्मों के चयन में अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से मदद ली जा सकती है.

* गन्ने का जो बीज इस्तेमाल करें वह पक्के तौर पर बीमारी रहित होना चाहिए. इस के बावजूद बोआई से पहले बीजों को अच्छे किस्म के फफूंदीनाशक से उपचारित कर लेना चाहिए. बोआई के लिए 3 पोरी व 3 आंख वाले गन्ने के स्वस्थ टुकड़े बेहतर होते हैं.

* गन्ने के जिन खेतों में रटून यानी पेड़ी की फसल रखनी हो, तो नौलख फसल यानी पौधा फसल की कटाई खेत की सतह से बिलकुल सटाते हुए बढि़या धारदार गंड़ासे से करें.

* सही समय से बोई गई गेहूं की फसल में फरवरी में फूल लगने लगते हैं. इस दौरान खेत की सिंचाई हर हालत में कर देना जरूरी है. सिंचाई करते वक्त इस बात का खयाल रखें कि ज्यादा तेज हवाएं न चल रही हों. हवा चल रही हो तो उस के थमने का इंतजार करें और मौसम ठीक होने पर ही खेत की सिंचाई करें. हवा के फर्राटे के बीच सिंचाई करने से पौधों के उखड़ने का पूरा खतरा रहता है.

* इस बीच चना, मटर व मसूर के खेतों का मुआयना कर लेना चाहिए. अगर फसल पर फलीछेदक कीट का हमला नजर आए, तो बगैर चूके मोनोक्रोटोफास दवा का इस्तेमाल करें.

* चूर्णी फफूंदी नामक बीमारी मटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाती है. इस का हमला होने पर बचाव के लिए कैराथेन दवा के 0.06 फीसदी घोल का छिड़काव करें. कैराथेन काफी कारगर दवा है, लिहाजा इस के इस्तेमाल के बाद फसल उम्दा होगी.

* साल का यह दूसरा महीना लोबिया, राजमा व भिंडी जैसी फसलों की बोआई के लिए मुफीद होता है. अगर इन चीजों की खेती का इरादा हो, तो इन की बोआई निबटा लेनी चाहिए.

* मध्य फरवरी यानी 15 फरवरी के बाद तेल की फसल सूरजमुखी की बोआई करना मुनासिब रहता है. अगर यह फसल लगानी हो तो 15 से 29 फरवरी के बीच इस की बोआई कर देनी चाहिए. बोआई के लिए अपने इलाके के मुताबिक किस्मों का चयन करें. इस के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक से भी बात कर सकते हैं. हां, सूरजमुखी के बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम या थीरम से उपचारित करना न भूलें.

* यदि अभी तक टमाटर की गरमी वाली फसल की रोपाई का काम बाकी पड़ा है, तो उसे फटाफट निबटाएं.

* टमाटर के पौधों की रोपाई 45×60 सेंटीमीटर के फासले पर करें. रोपाई धूप ढलने के बाद यानी शाम के वक्त करें. रोपाई के बाद बगैर चूके हलकी सिंचाई करें.

* जनवरी के दौरान लगाए गए टमाटर के पौधों को नाइट्रोजन मुहैया कराने के लिए पर्याप्त मात्रा में यूरिया डालें. ऐसा करने से फसल उम्दा होगी.

* यह महीना बैगन की रोपाई के लिहाज से भी मुफीद होता है, लिहाजा उम्दा नस्ल का चयन कर के बैगन की रोपाई निबटा लें.

* बैगन की उम्दा फसल के लिए रोपाई से पहले खेत की कई बार जुताई कर के उस में खूब सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद भरपूर मात्रा में मिलाएं. इस के अलावा खेत में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस व 80 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डाल कर अच्छी तरह खेत की मिट्टी में मिला दें.

* बैगन के पौधों की रोपाई भी सूरज ढलने के बाद यानी शाम के वक्त ही करें, क्योंकि सुबह या दोपहर में रोपाई करने से धूप की वजह से पौधों के मुरझाने का डर रहता है. रोपाई करने के फौरन बाद पौधों की हलकी सिंचाई याद से करें.

* फरवरी में ही मैंथा की बोआई भी निबटा लेनी चाहिए. इस के लिए 400-500 किलोग्राम जड़ों का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. बोआई से पहले 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* मैंथा की बोआई करने से पहले खेत के तमाम खरपतवार निकालना न भूलें, क्योंकि ये फसल की बढ़वार में रुकावट पैदा करते हैं. बोआई के बाद खेत की हलकी सिंचाई करना न भूलें.

* अपने आम के बगीचे का मुआयना करें. इन दिनों आम में चूर्णिल आसिता बीमारी का काफी अंदेशा रहता है, लिहाजा कैराथेन दवा का छिड़काव करें. श्यामवर्ण और छोटी पत्ती वाले रोग की रोकथाम के लिए ब्लाइटाक्स 50 और जिंक सल्फेट का छिड़काव करें. ऐसा करने से आम के पेड़ महफूज रहेंगे.

* बीमारियों के साथसाथ इन दिनों आम के पेड़ों को कुछ कीटों का भी खतरा रहता है. अगर कीटों का हमला नजर आए तो कृषि विज्ञान केंद्र के फल वैज्ञानिक की राय ले कर कीटों का निबटारा करें.

* आम के साथसाथ सदाबहार फल केले के बागों का खयाल रखना भी लाजिम है. बाग में फैली तमाम सूखी पत्तियां बटोर कर खाद के गड्ढे में डाल दें. बाग की बाकायदा सफाई के बाद 15 दिनों के फासले पर 2 दफे सिंचाई भी करें.

* केले की उम्दा फसल हासिल करने के लिए बाग की निराईगुड़ाई करने के बाद पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन व पोटाश वाली खादें डालें.

* केले के पेड़ों पर अगर किसी बीमारी या कीटों का हमला नजर आए तो तुरंत उस का इलाज फल वैज्ञानिक की राय के मुताबिक करें.

* इस महीने नीबू नस्ल के पौधों के लिए बोआई करना मुनासिब रहता है, लिहाजा नीबू, संतरा व मौसमी वगैरह के बीजों की बोआई पौधशाल में की जा सकती है. पौधशाला में कली बांधने का काम भी निबटाएं.

* पहले से लगे नीबू, संतरा व मौसमी वगैरह के पेड़ों में नाइट्रोजन व पोटाश वाली खादें माहिरों से राय ले कर डालें.

* आड़ू के पेड़ों का मुआयना करें. उन में पर्णकुंचन माहू कीट लगने पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं. अगर कीट का असर हो तो बचाव के लिए मेटासिस्टाक्स दवा का छिड़काव करें. एक बार का छिड़काव पूरी तरह कारगर न हो, तो 2 हफ्ते बाद दोबारा छिड़काव करें.

* आड़ू के पेड़ पूरी तरह स्वस्थ भी नजर आएं, तो भी उन में निराईगुड़ाई कर के जरूरी खादें डालना न भूलें.

* इस कम ठंडे महीने में अंगूर की कलमें लगाना सही रहता है. कलमों की रोपाई के लिए उम्दा नस्ल की कलमों का बंदोबस्त करें.

* अंगूर की कलमों की रोपाई के साथसाथ पहले से लगी बेलों की देखभाल भी जरूरी है. अकसर इस दौरान अंगूर की बेलों पर श्यामवर्ण रोग लग जाता है. ऐसी हालत में इलाज के लिए ब्लाइटाक्स 50 ईसी दवा का इस्तेमाल करें. इस कारगर दवा के छिड़काव से श्यामवर्ण बीमारी ठीक हो जाती है.

* आमतौर पर फरवरी तक ठंडक का मौसम काफी हद तक खत्म सा हो जाता है, लिहाजा कई पशुपालक लापरवाह हो जाते हैं और अपने मवेशियों को सर्दी से बचाने के उपाय बंद कर देते हैं. मगर ऐसा करना अकसर काफी घातक साबित होता है, लिहाजा सावधान रहें.

* हकीकत तो यह है कि जाती हुई सर्दी इनसानों के साथसाथ जानवरों को भी बीमार करने वाली होती है, इसलिए सर्दी से बचाव के उपाय एकदम से बंद न कर के धीरेधीरे बंद करें. बेहतर तो यह होगा कि मार्च की शुरुआत तक अपने जानवरों को गरम कपड़े ओढ़ा कर रखें.

* अपने मुरगामुरगियों के मामले में भी चौकन्ने रहें ताकि वे बीमार न होने पाएं.

* गाय या भैंस हीट में आए तो उसे पशु चिकित्सक के जरीए गाभिन कराने में लापरवाही न बरतें.

बहुफसली बोआई यंत्र : न्यूमैटिक प्लांटर

यह मशीन देखने में सीडड्रिल मशीन जैसी ही लगती है. इस यंत्र से सभी प्रकार के बीजों की बोआई सफलतापूर्वक कर सकते?हैं. इसे मक्का, मटर, मूंगफली, बाजरा, सूरजमुखी, सोयाबीन, चना व कपास वगैरह के बीज बोने के लिए इस्तेमाल किया जाताहै. इस मशीन से बीजों का अंतर रखने के लिए पौधे से पौधे की दूरी तय रहती?है. इस मशीन से एक ही बार में एक से ज्यादा फसलों की बोआई की जा सकती है.

इस मशीन में सेंट्रीफ्यूगल ब्लोअर लगा होता है. यह ब्लोअर हवा के दबाव से बीज को उठा कर बीज बोने की प्रकिया पूरी करता?है. बीज की दर आप अपनी मनचाही मात्रा के अनुसार तय कर सकते?हैं. इस न्यूमैटिक प्लांटर को ट्रैक्टर के पीछे जोड़ कर चलाया जाता है. इस मशीन को कुछ खास निर्माता ही बनाते?हैं. हम आप को नेशनल न्यूमैटिक प्लांटर के बारे में कुछ खास जानकारी दे रहे?हैं.

न्यूमैटिक प्लांटर की विशेषताएं

* इस से एक ही समय में एक ही जगह एक ही बीज गिरता?है. छूटने या डबल बीज गिरने की गुंजाइश न के बराबर होती?है.

* बोआई के समय बीज को कोई नुकसान नहीं पहुंचता?है.

* बोआई के दौरान बीजों के बीच सही दूरी होने से फसल अच्छे तरीके से होती है, नतीजतन अच्छी पैदावार मिलती?है.

* बीज की सही गहराई पर बोआई करने से, फसल की बढ़वार एकसमान होती?है.

* डेप्थ व्हील व प्रेस व्हील से बीज की गहराई को नियंत्रित किया जा सकता?है.

* इस मशीन का इस्तेमाल करने से मजदूरी में कमी आती है और बोआई में होने वाला खर्च कम होता है. साथ ही समय की बचत भी होती है.

* इस मशीन से आप 2, 4 या 6 लाइनों में अपनी मरजी के मुताबिक बोआई कर सकते?हैं.?

* इस के इस्तेमाल से कीमती बीजों की बचत होती है.

अधिक जानकारी के लिए नेशनल एग्रो इंडस्ट्रीज के फोन नंबरों : 91-161-2222041, 5087853, 4641299 और मोबाइल नंबर 91-8146101101 पर संपर्क कर सकते हैं.

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