गरमियों के तपिश भरे दिनों में अगर कुदरती तौर पर ठंडक पहुंचाने वाली चीज की बात की जाए तो तरबूज पहले नंबर पर आएगा. इस की खेती ज्यादातर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आसाम, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार व पश्चिम बंगाल राज्यों में की जाती है. अगर उन्नत तरीके से इस की थोड़ी अगेती खेती कर ली जाए तो मार्केट में पहले पेश हो कर यह ठंडा फल किसानों की जेब भी खूब गरम कर सकता है. बेबी वाटरमैलन की बढ़ रही है मांग : इस बारे में कृषि विज्ञान केंद्र, दरियापुर, रायबरेली (उत्तर प्रदेश) के उद्यान विशेषज्ञ डा. एसबी सिंह कहते हैं कि किसानों को अच्छा मुनाफा लेने के लिए बोआई से पहले यह तय कर लेना चाहिए कि तरबूज की बिक्री आसपास के बाजारों में करनी है या फिर उसे बड़े शहरों में भेजना है. आजकल महानगरों में छोटे परिवारों की संख्या ज्यादा होने से छोटे आकार के तरबूजों (2-3 किलोग्राम वजन वाले) की मांग ज्यादा बनी रहती है. ऐसे तरबूजों को बेबी वाटरमैलन (छोटा तरबूज) के नाम से जाना जाता है. बेबी वाटरमैलन को फ्रिज में भी आसानी से रख सकते हैं. वैसे देहातों में आज भी बड़े आकार के तरबूजों की ही मांग ज्यादा है.
जमीन : तरबूज की फसल के लिए बलुई दोमट जमीन बेहतर होती है. इसी वजह से नदियों के किनारे की दियारा जमीन इस के लिए सब से अच्छी मानी जाती है. जमीन में जलनिकासी और सिंचाई का अच्छा इंतजाम होना चाहिए. जलभराव से इस फसल को काफी नुकसान पहुंचता है. परीक्षणों के मुताबिक पाया गया है कि दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7 के बीच हो तरबूज की खेती के लिए ज्यादा बढि़या होती है.
बोआई का समय : तरबूज के बीजों के जमाव के लिए 21 डिगरी सेंटीग्रेड से नीचे का तापमान सही नहीं होता है. यह पाले को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. इस की बढ़वार के लिए ज्यादा तापमान की जरूरत होती है. इसी वजह से इस की बोआई देश में अलगअलग समय पर की जाती है. उत्तरी भारत के मैदानी भागों में तरबूज की बोआई जनवरी के शुरुआती दिनों से ले कर मार्च तक की जाती है. उत्तरीपूर्वी और पश्चिमी भारत में इस की बोआई नवंबर से जनवरी तक की जाती है. दक्षिणी भारत में इस की बोआई दिसंबर से जनवरी महीनों के दौरान की जाती है.
खेत की तैयारी : सब से पहले खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 3-4 जुताइयां कल्टीवेटर या देशी हल से कर के मिट्टी को खूब भुरभुरी बना लेना चाहिए. नमी की कमी होने पर पलेवा जरूर करना चाहिए.
प्रजातियां : बेहतर होगा कि आप इलाकाई विशेषज्ञ से राय ले कर अपने इलाके के लिहाज से मुनासिब प्रजातियां ही बोएं. आप की सुविधा के लिए यहां तरबूज की तमाम प्रजातियों की एक सूची दी जा रही है.
बीज दर : बोआई करने से पहले बढि़या अंकुरण के लिए बीजों को पानी में भिगो दें. इस के बाद किसी फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बेंडाजिम, मैंकोजेब या थीरम से बीजशोधन करें. आमतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 2-3 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं. बड़े बीजों वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 5 किलोग्राम बीज लगते हैं.
बोआई की विधि : तरबूज की फसल पानी नहीं बर्दाश्त कर पाती है, लिहाजा इसे थोड़ा ऊपर 1 मीटर लंबे और 1 मीटर चौड़े रिज बेड में बोना चाहिए. इस से भी अच्छा होगा कि बीजों को अलगअलग किसी बर्तन जैसे मिट्टी के प्याले वगैरह में रख कर तैयार करें, इस से पौधे ज्यादा तंदुरुस्त होंगे.
पौधों को लाइनों में ही लगाना चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी पौधों की किस्म पर निर्भर करती है. सुगर बेबी किस्म के लिए लाइन से लाइन की दूरी 2 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 0.6 मीटर मुनासिब होती है.
खाद व उर्वरक : मिट्टी की जांच कराए बिना खाद व उर्वरकों की मात्रा तय नहीं की जा सकती है. मोटे तौर पर 200-300 क्विंटल खूब सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालनी चाहिए. 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से ले कर उस की आधी मात्रा शुरू में डालनी चाहिए और बाकी आधी मात्रा बोआई के लगभग 1 महीने बाद टापड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए. अगर बाद में नाइट्रोजन की कमी महसूस हो तो 2 फीसदी यूरिया के घोल का पर्णीय छिड़काव किया जा सकता है.
बोआई के समय 50-60 किलोग्राम फास्फोरस और 50-60 किलोग्राम पोटाश भी प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में समान रूप से डालनी चाहिए. सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी पाए जाने पर 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोआई के समय ही प्रयोग करना चाहिए.
खरपतवार : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बोआई के बाद व जमाव से पहले या नर्सरी में तैयार किया हुआ पौधा है, तो पौधरोपण के कुछ ही दिनों बाद पेंडीमेथलीन दवा की 3.5 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. समयसमय पर निराईगुड़ाई भी करते रहना चाहिए.
सिंचाई : सिंचाई हमेशा हलकी होनी चाहिए और पानी का ठहराव कभी नहीं होने देना चाहिए. 6-7 दिनों में सिंचाई की जरूरत पड़ती रहती है. फल पकने के समय सिंचाई रोक देनी चाहिए, क्योंकि इस अवस्था में सिंचाई करने से फलों के फटने व मिठास घटने की संभावना बढ़ जाती है. फलों की तोड़ाई करने से 1 हफ्ते पहले सिंचाई जरूर बंद कर देनी चाहिए.
कीट व रोग : कद्दू वर्गीय होने के कारण लगभग वे सारी बीमारियां और कीट इस में भी लगते हैं, जो करेला, कद्दू व लौकी वगैरह में पाए जाते हैं. फफूंदजनित बीमारियों से बचाव के लिए मैंकोजेब जैसे किसी फफूंदीनाशी और कीटों की रोकथाम के लिए किसी हलके कीटनाशी जैसे मैलाथियान वगैरह का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
भंडारण : तोड़ाई करने के बाद तरबूज के फलों का भंडारण 1 हफ्ते से ले कर 3 हफ्ते तक 2.20 डिगरी सेंटीग्रेड से 4.40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और वायुनमी 80-85 फीसदी होने पर किया जा सकता है.