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चीन: आबादी नियंत्रण का नुस्खा पड़ गया उलटा

दशकों तक 1 संतान की नीति के चलते चीन में इन दिनों कामकाजी लोगों की कमी की समस्या पैदा हो गई है. फर्राटे से आगे बढ़ती चीनी अर्थव्यवस्था को मुद्रा के अवमूल्यन से बड़ा झटका लगा है. इसे संभालने के लिए चीन को बड़े कार्यबल की जरूरत होगी. पर लगभग साढ़े 3 दशक पहले आबादी नियंत्रण के मद्देनजर लिया गया फैसला अब उस के गले की फांस साबित होने जा रहा है. 1 संतान की नीति के कारण एक तरफ चीन में बुजुर्गों की तादाद बढ़ती चली गई है तो दूसरी ओर युवाओं की संख्या में भारी कमी हो गई है जो उस के लिए चिंता का विषय है. इस स्थिति का प्रभाव सीधे कार्यबल पर पड़ने जा रहा है.

विशेषज्ञों की राय है कि अनुमानतया 1 संतान की नीति के कारण चीन ने अब तक कम से कम 40 करोड़ जन्म को रोका है. कार्यबल की समस्या का एहसास चीन को 5 साल पहले ही हो चुका था, लेकिन आबादी के मामले में अपनी नीति की समीक्षा करने और उस के मद्देनजर फैसला लेने में सरकार ने देर लगा दी. स्थिति इस कदर गंभीर हो गई कि चीन को 1 संतान की नीति बदलनी पड़ी. और अब चीन ने उस विवादास्पद नीति को खत्म कर देश में दो बच्चों की नीति को लागू कर दिया है. बिगड़ते लिंगानुपात और जन आक्रोश के चलते लिए गए इस फैसले से चीन की दुनियाभर में आलोचना हुई. हालांकि अब दो बच्चों की नई नीति लागू होने पर भी अलग तरह की सामाजिक समस्या पेश आ रही है.

जनता की मुसीबत

चीन ने जब 1 संतान नीति को देश में लागू किया तब पूरे विश्व समेत खुद चीन में इस की जम कर आलोचना की गई. मानवाधिकार का भी मामला उठा. लेकिन जल्द ही चीनी परिवार अपनी 1 संतान से ही खुश रहने लगा और अपनी पूरी सोचसमझ को 1 संतान पर केंद्रित कर लिया. यानी चीनी आबादी 1 संतान की नीति में रचबस गई. लगभग साढ़े 3 दशकों के बाद इस में बदलाव, चीनी जनता के लिए आसान नहीं है. ऐसा क्यों? कोलकाता में ब्यूटीपार्लर चलाने वाली रोजी चैंग, जो 1960 से भारत में हैं और अब बाकायदा भारतीय नागरिक हैं, का कहना है कि उन के तमाम रिश्तेदार चीन के विभिन्न प्रांतों में हैं. उन का मानना है कि 1 संतान की नीति ही सही है. यह अब उन की जीवनशैली में रचबस गई है. इस से बाहर निकलना अब लगभग नामुमकिन है. एक अच्छी जीवनशैली में ज्यादा बच्चे बाधक बन जाते हैं. बच्चों की परवरिश में भी इस का असर पड़ता है.

वहीं, कोलकाता में लेदर शू की दुकान चलाने वाले कौंग लू का कहना है कि उन का पोता चीन में है, जो 5 साल के बच्चे का पिता है. वह दूसरी संतान के बारे में कतई सोचना नहीं चाहता. उस का कहना है कि मौजूदा स्थिति में दूसरे बच्चे के बारे में सोचना इसलिए भी सही नहीं होगा क्योंकि समाज का इन्फ्रास्ट्रक्चर अभी उस तरह का नहीं है. सब से पहले तो पतिपत्नी दोनों कामकाजी हैं. उन के लिए दूसरे दुधमुंहे बच्चे की देखभाल संभव नहीं. बच्चों के लिए अच्छी गवर्नेस व आया भी नहीं मिलती है, जो बच्चों को सही परवरिश दे सके. वहीं, 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए उपयुक्त तरह के प्ले स्कूलों व किंडरगार्टन स्कूलों की कमी है. जाहिर है इसे अपनाने में दिक्कत पेश आनी है.

सामाजिक बदलाव

गौरतलब है कि 1980 में आबादी पर नियंत्रण करने के लिहाज से चीन ने 1 संतान की नीति को लागू किया था. इस से पहले चीन में एक परिवार में 3 से 4 बच्चे हुआ करते थे. लेकिन 1979 में सरकार ने1 संतान नीति की घोषणा की, जिसे 1980 में पूरी तरह से लागू कर दिया गया. इस नियम का उल्लंघन करने वालों पर कड़ी कार्यवाही की भी घोषणा की गई थी, जिस में जुर्माने से ले कर नौकरी से हाथ धोने और जबरन गर्भपात कराने तक की सजा का प्रावधान रखा गया था. हालांकि एक समय के बाद कुछ प्रांतों में विशेषरूप से अल्पसंख्यकों व ग्रामीण दंपतियों को 1 से अधिक बच्चे पैदा करने की छूट दे दी गई थी.

बहरहाल, इस नीति के कारण चीनी समाज में बड़ा बदलाव आया. कुछ बदलाव सकारात्मक था तो कुछ नकारात्मक. परिवार में बच्चे अकेलेपन के शिकार होने लगे. आस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं द्वारा बीजिंग में कराए गए एक सर्वे की रिपोर्ट में पाया गया कि 1980 के बाद पैदा हुए बच्चों में मातापिता की आकांक्षाओं का बोझ बढ़ने लगा. इस से उन में आत्मविश्वास की कमी आई है. 1980 के बाद पैदा हुए बच्चे तुलनात्मक रूप से निराशावादी, कम भरोसेमंद पाए गए. प्रतिस्पर्धा को झेलने की मानसिकता भी कम पाई गई. एक सामाजिक समस्या यह भी रही कि चीनी समाज में लड़कों की पैदाइश पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा. जाहिर है इस दौरान भारत की ही तरह गर्भ परीक्षण के बाद कन्याभू्रण की हत्या का चलन शुरू हो गया. इस का असर चीन के समाज में नजर आने लगा. लड़केलड़कियों के अनुपात में भारी गिरावट आ गई. विवाह में समस्या के साथ तरहतरह के सामाजिक अपराध बढ़ने लगे.

परिवार में बच्चे या तो कुत्तों के साथ पलने लगे या टेडीबियर के साथ. बताया जाता है कि 1980 के दशक में चीन में कुत्ते पालना साम्यवाद के खिलाफ माना जाता था. इसी के साथ यह पूरी तरह से कानूनी भी नहीं था. इसीलिए कम ही लोग कुत्ते पालते थे. संभवतया इसीलिए चीन में टैडीबियर का चलन बढ़ा. बड़ी संख्या में बच्चे अपने सहोदर भाईबहन के बजाय टैडीबियर के साथ बड़े होते रहे हैं. 1 संतान नीति के कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे. सब से पहले तो मातापिता का ध्यान 2 या 3 के बजाय 1 बच्चे पर केंद्रित हो गया. उधर, बच्चों को मातापिता का प्यार अन्य भाईबहनों के न होने से बंटा नहीं. बच्चों की परवरिश के मद्देनजर खर्च का दबाव कम हो गया. इस से परिवार की आय एक हद तक बढ़ भी गई. अभिभावक बच्चों की उच्चशिक्षा पर जोर देने लगे. अकेली संतान वाले परिवार पहले की तुलना में कहीं अधिक शिक्षित होने लगे. हालांकि इस का एक अन्य पक्ष यह भी रहा कि चीन में शिक्षा दिनोंदिन महंगी होती चली गई.

घटती श्रमिक आबादी

चीन की चिंता तब बढ़ी जब 2013 में नैशनल ब्यूरो औफ स्टैटिस्टिक्स की ओर से जनसांख्यिकी के मद्देनजर एक रिपोर्ट आई, जिस में कहा गया था कि 2012 में देश में 35 लाख श्रमिकों की कमी देखने में आई है. वहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या विभाग के अनुसार, अगली सदी तक चीन में श्रमिक आबादी महज 54.8 करोड़ रह जाएगी और दुनिया के सब से बड़े श्रमिक आबादी वाले देश में कार्यबल के लिए लगातार कमी चिंता का विषय है. 1949 में जन्मदर प्रति 1 हजार में 227 थी, 1981 में यह 53 पर पहुंच गई. लेकिन तब इस कमी की गंभीरता को भांपा नहीं जा सका था. अब जा कर देखने में आ रहा है कि जन्म नियंत्रण दर में तेजी से गिरावट के चलते उम्र के बीच अंतराल एक खाई बन गई है. बताया जाता है कि 2030 तक चीन की आबादी में उम्र के अंतराल में जो इजाफा होगा वह लगभग एकतिहाई होगा. मालूम हो कि चीन का श्रमिक तबका देश में बुनियादी ढांचे के निर्माण और निर्यात आधारित विनिर्माण उद्योग से जुड़ा हुआ है, इसीलिए चीन के आर्थिक मौडल पर यह गिरावट बहुत बड़ा प्रभाव डालने वाली है.

यह स्थिति तब और भी गंभीर मानी जाने लगी जब कार्यबल की समस्या का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ने का अंदेशा गहराने लगा. चीनी अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि को देखते हुए यह माना जाने लगा था कि जैसे 19वीं सदी ब्रिटिश सदी और 20वीं सदी अमेरिकी सदी रही है वैसे 21वीं सदी चीनी सदी होगी. गौरतलब है कि चीन का जीडीपी अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है. पिछले 30 सालों के इस सफर में चीन ने एक के बाद एक कई देशों को पछाड़ा है. 2007 में जरमनी की अर्थव्यवस्था को पछाड़ने के बाद 2010 तक आतेआते जापानी अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती बन गई चीनी अर्थव्यवस्था. चीन तब अमेरिका के समकक्ष खड़ा हो गया. इस समय चीनी अर्थव्यवस्था 4.99 खरब डौलर की है. इस समय चीन विश्व का दूसरा सब से बड़ा व्यापारिक राष्ट्र, सब से बड़ा निर्यातक और दूसरा सब से बड़ा आयातक है. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री रौबर्ट फौजेल का मानना है कि 2040 तक चीनी अर्थव्यवस्था 123 खरब डौलर तक पहुंच जाएगी. लेकिन विकास की इन नई ऊंचाइयों तक पहुंचने में बाधा बन सकती है चीन में कार्यबल की कमी. यह कमी 30 सालों के किएधरे पर पानी फेर देगी.

बदलाव पर नजर

अब चीन 1 संतान नीति से आधिकारिक रूप से पीछे हटने को मजबूर हुआ. इसी के साथ चीनी बाजार में एक बड़ा बदलाव देखने में आ रहा है. उधर, विश्व में वित्तीय सेवा मुहैया कराने वाली कंपनी क्रैडिट सुइस का अनुमान है कि 2017 से ले कर अगले 5 सालों तक यानी 2021 तक हर साल चीन में अतिरिक्त 30 से 50 लाख बच्चे पैदा होंगे. इसी अनुमान के मद्देनजर, बच्चों का सामान बनाने वाली कंपनियों को जबरदस्त बढ़ावा मिला है. बताया जा रहा है कि अभी से चीनी शेयर बाजार में बच्चों की परवरिश से संबंधित सामान तैयार करने वाली कंपनियों की चांदी ही चांदी है. इन दिनों पेरांबुलेटर, नैपी, बेबीफूड की मांग में बड़ा इजाफा होने का अनुमान है. इसी वजह से निवेशक बच्चों की सामग्री बनाने वाली कंपनियों में निवेश के लिए आगे आ रहे हैं.

यह और बात है कि बच्चों की सामग्री बनाने वाली कंपनियों के शेयर के भाव ऊपर की ओर चढ़ रहे हैं तो गर्भ निरोधक चीजों के निर्माता कारोबार में मंदी झेलने को मजबूर हैं. इस का सब से बड़ा असर कंडोम उद्योग पर पड़ा है. चीन में कंडोम की आपूर्ति करने वाली जापानी कंपनी ओकामोतो इंडस्ट्रीज पर सब से बुरा असर पड़ा है. जापान में पर्यटन के लिहाज से आए चीनी लोगों के बीच कंपनी का कंडोम बहुत लोकप्रिय बनते ही कंपनी ने अपने पांव चीन में फैलाए. बताया जाता है कि यह कंपनी अकेले चीन में कंडोम की सप्लाई कर के महज 3 सालों में बड़ी कंपनी के रूप में उभर कर सामने आई थी. लेकिन 1 संतान नीति में ढील देने की घोषणा के बाद इन कुछ दिनों में इस कंपनी की बिक्री में केवल टोकियो में ही 10 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है. वहीं, गर्भ निरोधक गोलियों की बिक्री में भी गिरावट आई है. गर्भ निरोधक कंपनियों को उम्मीद है कि 2 बच्चों की परवरिश में होने वाले खर्च के मद्देनजर सरकारी प्रतिबंध उठा लिए जाने के बावजूद दंपतियों को इस की तैयारी में अभी कम से कम 1 साल तो लगेगा ही. जाहिर है रातोंरात जन्म दर बढ़नी मुमकिन नहीं होगी. यही एक उम्मीद है गर्भ निरोधक सामान का कारोबार करने वाली कंपनियों को.

 इसे विडंबना नहीं तो क्या कहा जाए, विश्व की सब से बड़ी आबादी वाले देश के रूप में दुनिया की आलोचना झेलता रहा है चीन. फिर उस ने आबादी नियंत्रण के लिए जो नीतिगत फैसले लिए वे आज उसी की अर्थव्यवस्था के लिए सिरदर्द बन कर उभर रहे हैं.

बहुत मुसकराई होगी

पढ़ कर दर्दीला अफसाना

हाल ही में तुम

बहुत मुसकराई हो

कुछ देर रोने के बाद

यादों के आशियाने में छिपे

झरोखे को ढूंढ़ पाने के दौरां

जहां बोझल होती थीं पलकें

चेहरा तुम्हारा चूमती थीं

सुबह की देख कर किरणें

चांद के ढल जाने के बाद

तुम बहुत मुसकराई होगी

कुछ देर रोने के बाद.

          – राजीव रोहित

बहुत मुसकराई होगी

पढ़ कर दर्दीला अफसाना

हाल ही में तुम

बहुत मुसकराई हो

कुछ देर रोने के बाद

यादों के आशियाने में छिपे

झरोखे को ढूंढ़ पाने के दौरां

जहां बोझल होती थीं पलकें

चेहरा तुम्हारा चूमती थीं

सुबह की देख कर किरणें

चांद के ढल जाने के बाद

तुम बहुत मुसकराई होगी

कुछ देर रोने के बाद.

          – राजीव रोहित

मेरे पापा

मेरे पापा नेकदिल, बहुत जिम्मेदार, स्पष्टवादी एवं सत्यप्रिय इंसान थे. सभी लोग उन्हें अजातशत्रु कहते थे. हम दोनों बहनों को उन्होंने अच्छे संस्कार दिए. आज उन्हीं की बदौलत हम पढ़लिख कर स्वावलंबी हैं.  जीवन के हर मोड़ पर, जिस के पिता साथ हों, वह इंसान सचमुच खुशहाल होता है. उन्होंने शिक्षा विभाग में 38 वर्ष अध्यापन कार्य किया. अध्यापन उन का शौक था. उन की अंगरेजी बहुत अच्छी थी. हर कठिनाई, हर समस्या में जो पिता अपने बच्चों का हाथ थामे रहे, उस से बढ़ कर नेक इंसान भला कौन हो सकता है. उन्होंने सिर्फ अपनी ही दोनों बेटियों पर स्नेह नहीं लुटाया, बल्कि अपने सभी छोटेबड़े भायों, भतीजी, भतीजों को भी खूब प्यार करते थे.

उन के भतीजे कहते हैं कि मेरे चाचा तो बहुत रौयल थे. उन को संसार छोड़े 8 वर्ष हो चुके हैं लेकिन ऐसा महसूस होता है कि वे अभी भी हमारे साथ हैं.

मायारानी श्रीवास्तव, मिर्जापुर (उ.प्र.)

*

मेरे जिंदादिल, कर्मठ पापा अचानक कूल्हेजांघ के मल्टीपल फ्रैक्चर की चपेट में इतनी बुरी तरह आए कि डाक्टरों ने औपरेशन के लिए हाथ खड़े कर दिए. उन की दुनिया पलंग पर सिमट कर रह गई. चलनाफिरना बिल्कुल बंद, ऐसे में मैं ने छुट्टी ले कर पूरा समय उन्हें देने का निर्णय किया. उन की दवा व देखभाल कर के मुझे जितना सुख मिलता उस से अधिक दुख उन की विवशता की पीड़ा से हरदम डबडबाई आंखें देख कर होता था. दूसरों के चार काम कर के खुशी बटोरने वाले लोगों का इस तरह दूसरों पर निर्भर हो जाने के दर्द का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.

पिताजी खाली नहीं बैठते थे. कुछ न कुछ करते ही रहते. अब कुछ न करने के लिए विवश थे. पिताजी बारबार प्यार से कहा करते थे, ‘‘बेटा, जैसा सुख तुम मुझे दे रहे हो वैसा ही तुम्हें प्राप्त होगा. यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि जो जस करइ सो तस फल चाखा.’’ 4 महीने इस तरह बिता कर उन्होंने संतुष्ट मन से संसार से विदा ली. आज मैं जीवन की संध्या में हूं. शक्ति क्षीण हो गई है और बीमार रहता हूं. जब अपने बेटेबहू और उन के बच्चों को खुशीखुशी अपनी सेवा करते देखता हूं, बेटे को नियमित रूप से दोनों समय अपने हाथ से दवा खिलाते और अपने व्यस्त प्रोफैशनल समय में से समय निकाल कर प्रतिदिन अपने साथ व्यतीत करते देखता हूं तो लगता है, पापा की कही बात सच हो रही है.

प्रभुदयाल माहेश्वरी, जनकपुरी (न.दि.)

बिकने बिकाने के दौर में

कई दिनों से बराबर महसूस कर रहा था कि पोता अपनी दादी के साथ खींची मेरी पुरानी फोटो से परेशान है. इस बारे में उस ने मुझ से कई बार हंसीहंसी में गंभीरता से कहा भी, ‘‘दादू, या तो दीवार पर से इस फोटो को हटा दो या फिर इस घर से खुद हट जाओ. पुराने इस्तेमाल हो चुके सामान की अब यहां कोई जगह नहीं. यार दादू, समझते क्यों नहीं कि अब पुरानी चीजें संभाल कर रखने का रिवाज खत्म हो गया है. अगर आंखों में जरा सी भी रोशनी बची हो तो देखो, लोग कैसे घर का बेकार पड़ा सामान निकालनिकाल कर नोटों से फटी जेबें भरे जा रहे हैं और एक आप हो कि बाबाआदम के जमाने में जी रहे हो. अगर अपने पर तरस नहीं आता तो हम पर तो तरस खाओ, दादू.

‘‘जरा सुनो तो दादू, पूरे महल्ले में जहां पहले सब आपस में बहानेसहाने एकदूसरे पर चीखनेचिल्लाने के बाद ही अन्नजल ग्रहण करते थे, आज उसी महल्ले में बस एक ही आवाज सुनाई देती है, ‘बेच दे.’ और एक आप हो कि अपने कानों में रुई घुसेड़े…माई डियर दादू, लोग आजकल खरीदने के कम बेचने के चक्कर में अधिक हैं. वे अपना सबकुछ बेचने पर उतारू हैं. उन्हें उन का जीवन तक खरीदने वाला कोई मिल जाए तो…बेकार के सामान का अब क्या काम?  इसीलिए तो जिस के दिल में जो आ रहा है, बेचे जा रहा है. आह रुपया, वाह रुपया, ओह रुपया कहता हर मुंह बड़बड़ाता अपने घर का तो अपने घर का, दूसरे के घर के सामान पर भी हाथ साफ करते वह धड़ल्ले से क्वीकर और ओएलएक्स पर सामान की फोटो अपलोड कर बेचे जा रहा है, और एक आप हो कि पुरानी चीजों को सीने से लगाए…’’

‘‘तो तुम ही कहो अब इन का क्या करूं? ये पुरानी चीजें मुई छोड़ने के बाद भी नहीं छूटतीं. मैं ने अपने को हाशिए पर डालते हुए पोते से पूछा तो वह बोला, ‘‘बुरा मत मानना दादू, ये आप के वक्त की इस्तेमाल हो चुकी, धूल चाटती ईमानदारी अब किस काम की? ये

आप के वक्त की वैल्यूज बेकार हो गई हैं. ये रिश्तों का प्यार आज किस काम का?

‘‘आप के जमाने की हमदर्दी की ओर तो अब कोई देखता तक नहीं. आज की सोसाइटी में माफ करना दादू, इन्हें पूछता ही कौन है? और एक आप हो कि… देखो तो, ये सब घर के कोने में पड़ेपड़े सड़ रहे हैं और घर में बदबू फैला रहे हैं. अगर घर से इन्हें बाहर नहीं किया तो देख लेना, घर में एक दिन प्लेग फैल जाएगा. आधे से अधिक घर तो आप के जमाने की ऐसी ही बेकार, बीमार चीजों से अटा पड़ा है.’’

‘‘तो?’’

‘‘आप कहो तो इस पुरानी ईमानदारी के अमेरिका में एक ग्राहक 200 डौलर देने को तैयार है. रिश्तों में प्यार के लिए भी ओएलएक्स पर 4 खरीदार हैं. फटी हमदर्दी की फोटो ओएलएक्स पर आप कहो तो अपलोड कर देता हूं. कोई न कोई तो फंस ही जाएगा. आप की पुरानी वैल्यूज के 5 हजार डौलर देने वाला लंदन में एक ग्राहक है मेरे पास. आप कहो तो…?’’

‘‘प्यार के भी खरीदार? ईमानदारी के भी खरीदार? अरे वाह, खरीदने वाले क्याक्या खरीद रहे हैं, कमाल है.’’

‘‘हां दादू, आप को क्या पता, वे आप के वक्त के भाईचारे के तो 50 हजार रुपए देने की बात कर रहे हैं,’’ पोता जोर से उछला.

‘‘नहीं, यह तो तुम्हारी दादी के वक्त का प्यार है. मैं इसे नहीं बेच सकता. बस, इसी के सहारे तो जी रहा हूं.’’

‘‘दादू, क्या करना पुराने प्यार का? यह जमाना प्यार का थोड़े ही है. आज अगर कोई मन से प्यार करता है तो लोग उसे गधा ही समझते हैं. आज का वक्त तो बस दिखावे का है दादू, पैसे का है. वैसे भी, प्यार से पेट थोड़े भरता है दादू?’’

‘‘पर मन तो भरता है मेरे यार.’’

‘‘ओह दादू, आप भी न, रह गए न पुराने के पुराने दादू. इन से जो पैसे मिलेंगे उतने में तो घर में 50 नई चीजें आ जाएंगी दादू. हम भी मौडर्न हो जाएंगे.’’

‘‘तो मुझे भी बेच दे.’’

‘‘लो, अभी आप की फोटो क्वीकर पर अपलोड कर देता हूं. आप के तो मुंहमांगे दाम मिलेंगे,’’ पोते ने उछलते हुए कहा तो मैं उस का मुंह ताकता रह गया.

हमारी बेडि़यां

हमारे समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियां फैली हैं. मुझे उसी रास्ते से गुजरना पड़ता है जिस पर से मृत शरीर को ले कर जाते हैं. कभीकभी रास्ते में बहुत से खीलमखाने बिखरे हुए मिलते हैं. परंपरानुसार लोगों का यह विश्वास है कि ऐसा करने से वृद्ध लोगों की आत्मा को शांति मिलती है. ऐसा कर के वे वृद्ध व्यक्ति को सम्मान दे रहे हैं. यह कैसी शांति व सम्मान है? खीलमखाने तो सड़क पर बिखरे पड़े रहते हैं, राह चलते व्यक्तियों के पैरों से वे कुचले जाते हैं. वे बाद में किसी मतलब के नहीं रह जाते.

– संतोष शर्मा, मोदी नगर (उ.प्र.)

*

‘मंगल’ शब्द वैसे तो शुभ होने से जुड़ा है लेकिन शानू के अभिभावक उस की शादी किसी मांगलिक लड़के के साथ ही करना चाहते थे, अन्यथा वे मानते थे कि कुछ अनर्थ हो जाएगा. सीए करने के बाद शानू मुंबई में एक अच्छी कंपनी में काम करने लगी थी. वह समयसमय पर घर आती रहती थी. अंधविश्वास के कारण उस के मातापिता को बिरादरी का ही सीए लड़का जो मांगलिक भी हो, मिलना मुश्किल होता जा रहा था. उम्र कहां रुकती है, 35 वर्ष के बाद मातापिता ने हार मान कर कहा, चलो, अब समझौता करना पड़ेगा अन्यथा शानू कुंआरी ही रह जाएगी. आज शानू 5 सालों से सीए लड़के, जो मांगलिक नहीं है, के साथ शादी कर के बड़े आराम का जीवन काट रही है. कोई अनर्थ नहीं हुआ. अभिभावकों के अंधविश्वास के चक्कर में वह 40 की भी हो कर कुंआरी ही रहती. उस के मातापिता को अब एहसास हो गया कि जमाना कितना तरक्की कर रहा है और वे कितने पीछे रह गए.

– तरुणा मालपाणी

*

हमारे यहां रिवाज है कि शादी के समय जब दूल्हा द्वारपूजा से शादी के मंडप तक आता है, तो उसे पैदल नहीं आना होता, उस का बड़ा भाई गोद में उठा कर लाता है. मेरी बहन की शादी में उस के सब से बड़े जेठ को यह काम करना था. उन का कुछ महीने पहले ही स्कूटर से ऐक्सिडैंट हुआ था. शादी के दिन वे माने नहीं और जिद पर अड़ गए कि अपने छोटे भाई को वे ही गोद में उठा कर ले जाएंगे. बस, फिर क्या था, भाई को उठा कर ले जाने की खुशी में उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहा कि 5 मिनट के रास्ते में उन की कमर का क्या हाल हुआ. डाक्टरी जांच पर पता चला कि वे स्लिप डिस्क के शिकार हो गए हैं और 3 महीने का बैडरैस्ट करना पड़ेगा.

वाह री, हमारी बेडि़यां, 21वीं सदी में तो तोड़ दे इन्हें हमारा समाज, वरना बैठेबिठाए कितने कष्ट झेलने पड़ जाते हैं.

– श्वेता मिश्रा, गुड़गांव (हरि.)

कमजोरियों को कामयाबी में बदलती प्रियंका चोपड़ा

प्रियंका चोपड़ा ने बौलीवुड में बतौर अभिनेत्री बेहद औसत शुरुआत की थी. उन्हें देख कर कोई नहीं कहता था कि यह सितारा एक दिन हौलीवुड में भी अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ देगा. बीते दिनों प्रियंका ने अपने अमेरिकी टीवी शो ‘क्वांटिको’ के लिए बैस्ट एक्ट्रैस का ‘पीपुल्स चौइस’ अवार्ड जीत कर इतिहास रच दिया. वे पहली भारतीय अभिनेत्री हैं जिन्होंने इस अंतर्राष्ट्रीय खिताब को अपने नाम किया है.

बीता साल प्रियंका के लिए कई माने में खास रहा. पहले तो फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ की कामयाबी, फिर अमेरिकी शो में मिली शोहरत और हालिया रिलीज ‘जय गंगाजल’ का ट्रेलर. प्रकाश झा की फिल्म ‘गंगाजल’ के इस सीक्वल में प्रियंका खाकी वरदी में दबंगई करेंगी तो वहीं क्वांटिको के अगले सीजन की भी तैयारियां उन के ‘सितारा’ कद को ऊंचा करने का काम कर रही हैं. करीब 50 फिल्मों में अलगअलग भूमिका निभा कर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा देश में ही नहीं, विदेशों में भी काफी पौपुलर हो चुकी हैं. वे बौलीवुड की सब से अधिक फीस पाने वाली अभिनेत्रियों में से एक हैं. फिल्मी बैकग्राउंड से न होने के बावजूद उन्होंने अपनेआप को हर चरित्र में सिद्ध किया, अपनी अलग पहचान बनाई. यह काम आसान नहीं था. जब उन्होंने फिल्मी क्षेत्र में कदम रखा तो लोगों ने उन्हें कई तरह से निराश किया, पर वे डटी रहीं और कामयाब हुईं.

सफलता के इस मुकाम पर पहुंच कर प्रियंका कहती हैं, ‘‘मैं बहुत खुश हूं कि मेरा काम सब को पसंद आया. काशीबाई का चरित्र मेरे लिए आसान नहीं था. इतने कम संवाद में भूमिका निभाना कठिन था. यह चरित्र मेरे लिए चुनौती था.

‘‘मेरा कैरियर ही मेरी ‘ग्रोथ’ है. मुझे हर बार हर चरित्र से डर लगता है. विदेश में मैं जब ‘क्वांटिको’ कर रही थी तो मेरे पसीने छूट रहे थे. क्योंकि मैं अमेरिकन नहीं, फिर भी उन्हें विश्वास दिलाना था कि मैं अमेरिकन हूं, जो मुझे अभिनय के द्वारा करना था. मैं ने वहां का संवाद बोलने का तरीका सीखा, आज 120 जगहों पर क्वांटिको प्रसारित किया जा रहा है. मेरा नाम ‘बैस्ट एक्ट्रैस’ के लिए वहां नौमिनेट हुआ और अवार्ड भी मिला.’’

काशीबाई के किरदार को ले कर प्रशंसित हो रही प्रियंका इस किरदार की तैयारी को ले कर बताती हैं, ‘‘महाराष्ट्र में रहने के बाद मैं इस चरित्र को करने को काफी उत्सुक थी. मेरी पूरी टीम इस के पीछे थी. मुझे साड़ी पहनने में 2 घंटे का समय लगता था. उस जमाने में ‘रौयल्टी’ का पैमाना अलग होता था. राजा रवि वर्मा की पेंटिंग ही हमारी प्रेरणा थी. मैं एक पेशविन की भूमिका निभा रही थी, ऐसे में हेयर और मेकअप पर अधिक ध्यान देना था. मेरे बालों में एक भी इलैक्ट्रौनिक वस्तु का प्रयोग नहीं किया गया. मेरी हेयरड्रैसर हाथ से ‘कर्ल’ बनाती थी जिसे बनाने में डेढ़ घंटा लगता था ताकि विश्वसनीय लगे. बिंदी मेरे मेकअप आर्टिस्ट सिंदूर से रोज पेंट करते थे, क्योंकि बिंदी चिपका नहीं सकते थे.

‘‘मैं एक कलाकार हूं. हर चरित्र को निर्देशक के अनुसार निभाना मेरा काम है. फिल्म सफल होती है तो लगता है कि मैं उस चरित्र में उतर पाई. बर्फी, मैरी कौम, फैशन, बाजीराव मस्तानी-ये मेरे जीवन की माइलस्टोन फिल्में हैं.’’

‘मिस वर्ल्ड’ से यहां तक के सफर को ले कर प्रियंका का मानना है, ‘‘यहां तक पहुंचना मेरे लिए गर्व की बात है. 17-18 साल पहले जब मैं ने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा तो पता नहीं था कि मैं कौन हूं, कैसे कपड़े पहनने हैं, कैसे बात करनी है, 6 से 7 साल लगे मुझे ये सब समझने में. समझ में आ गया है कि आप सब को खुश नहीं कर सकते. सब में कुछ न कुछ कमी है. उसी पर काम किया. मुझे याद है जब मैं इंडस्ट्री में आई थी, लोग मुझे काली और सांवली कहते थे. मैं ने अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बनाया. मेहनत से काम किया. इतना बेहतर कि कोई मना ही न कर सके.’’

समाज को ले कर आप क्या बदलाव चाहती हैं, इस विषय पर उन का कहना है, ‘‘हमारे देश में 60 प्रतिशत युवा ऐसे हैं जिन्हें नौकरी नहीं मिलती. उन के लिए नौकरी की व्यवस्था और महिलाओं के लिए पूरी शिक्षा, ताकि वे अपने परिवार व समाज की सोच को बदल सकें.’’

फिलहाल कैरियर के लिहाज से वे स्वीकार करती हैं, ‘‘मेरे पास 6-7 फिल्मों की चौइस है जिन में से केवल 2 फिल्में करने का समय है, क्वांटिको की शूटिंग करनी है. सिंगिंग का काम थोड़ाथोड़ा कर रही हूं. कुछ रीजनल फिल्म बनाने की योजना है. हौलीवुड की फिल्में मैं तब कर पाऊंगी जब वे मेरे अनुसार होंगी और उन के लिए मेरे पास वक्त होगा.’’

हालांकि इस से इनकार नहीं किया जा सकता कि मैरी कौम, एतराज और बाजीराव मस्तानी जैसी चंद फिल्में छोड़ कर उन के द्वारा निभाए गए किरदार औसत ही रहे लेकिन मार्केटिंग में शाहरुख खान की तरह प्रियंका ने कैरियर को एक नई दिशा दी. फिलहाल प्रियंका साल में ज्यादातर वक्त अमेरिकी शो की शूटिंग और वहां की ग्लैमरस पार्टियों में बिताती हैं. अभी तो उन्हें काम मिल रहा है लेकिन हौलीवुड का रवैया एशियन कलाकारों के साथ कुछ खास नहीं रहा है. कबीर बेदी, सईद जाफरी से ले कर ओमपुरी व नसीरुद्दीन शाह जैसे नाम इस बात की तसदीक करते हैं. बहरहाल, प्रियंका इन दिनों अपने कैरियर को ले कर बेहद गंभीर हैं और यह जरूरी भी है.

फिल्म रिव्यू: वजीर

इस फिल्म का शतरंज के खेल से सीधेसीधे तो कुछ लेनादेना नहीं है परंतु फिल्म में जो चालें दिखाई गई हैं वे शतरंजी चालों जैसी हैं. फिल्म में शतरंज की चालों और रंगबिरंगे बोर्ड दिखाए गए हैं, जिन्हें शतरंज के खेल की जानकारी नहीं है उन्हें बताया गया है कि इस खेल में घोड़ा ढाई चाल चलता है, ऊंट टेढ़ी चाल चलता है, हाथी के सामने वाला प्यादा जब मरता है तो वह पागल हो जाता है. सब से बड़ी बात प्यादा जब सही चाल चलेगा तो वह वजीर बन जाएगा. फिल्म में अमिताभ बच्चन को छोटा सा प्यादा बताया गया है जो अपनी चालें चल कर वजीर बन जाता है. ‘वजीर’ उन लोगों को समझ अच्छी तरह आएगी जो शतरंज के खेल से वाकिफ हैं. वैसे यह रोचक थ्रिलर मर्डर मिस्ट्री है, जिस की परतें परत दर परत खुलती जाती हैं और अंत में ही पता चलता है कि कौन क्या है.

फिल्म की शुरुआत काफी अच्छी है, मगर मध्यांतर के बाद यह आम मुंबइया फिल्म बन कर रह जाती है. कहानी का क्लाइमैक्स पहले ही पता चल जाता है, यह फिल्म की कमजोरी है. फिल्म सीरियस है, हंसने का मौका नहीं देती, हीरोइन सुंदर है परंतु फिल्म में रोमांस नदारद है. इमोशन दिल पर कोई असर नहीं छोड़ पाते. फिर भी फिल्म अगर बांधे रखती है तो अमिताभ बच्चन और फरहान की दमदार अदायगी के कारण.

फिल्म की कहानी दिल्ली पुलिस ऐंटी टैररिस्ट स्क्वायड के अफसर दानिश (फरहान अख्तर) से शुरू होती है. रूहाना (अदिति राव हैदरी) उस की पत्नी है और 6 साल की नूरी उस की बेटी है. एक आतंकवादी मुठभेड़ के दौरान दानिश की बेटी की मौत हो जाती है. वह बेटी के गम को भुला नहीं पाता और आत्महत्या की असफल कोशिश करता है. तभी उसे वहां पड़ा एक पर्स मिलता है. वह पर्स लौटाने जिस घर में जाता है वहां उस की मुलाकात पंडित ओंकारनाथ (अमिताभ बच्चन) से होती है, जो बच्चों को शतरंज का खेल सिखाते हैं. पंडितजी दानिश को बताते हैं कि उस की बेटी की हत्या एक मंत्री यजाद कुरैशी (मानव कौल) ने की थी.

पंडितजी और दानिश में दोस्ती हो जाती है. एक दिन पंडितजी को पता चलता है कि उस की बेटी की हत्या की फाइल बंद कर दी गई है तो वह मंत्रीजी की कार पर जूता फेंकता है. तभी यजाद कुरैशी का वजीर (नील नितिन मुकेश) पंडितजी पर हमला कर देता है. वजीर दानिश को भी धमकी देता है कि वह पंडितजी को कश्मीर जाने से रोके. दानिश के रोकने से पहले ही वजीर पंडितजी की कार को बम से उड़ा देता है.

कश्मीर में चुनाव होने वाले हैं. यजाद कुरैशी के पीछेपीछे दानिश भी वहां पहुंच जाता है. यजाद कुरैशी दरअसल एक आतंकवादी था. उस ने पूरे गांव को ही खत्म कर दिया था. उसी ने पंडितजी की बेटी को मार डाला था. उस के बारे में सचाई जान कर दानिश उसे खत्म कर देता है. अंत में पता चलता है कि दानिश खुद एक मोहरा बन रहा था जब उसे एक पेनड्राइव मिलती है जिस में उसे बताया जाता है कि किस तरह पहली चाल जो दानिश को पंडितजी के घर तक ले आई थी और आखिरी चाल यजाद कुरैशी तक ले गई. इस तरह शतरंज के खेल में वजीर कौन बना यह आखिरी लमहों में पता चलता है. फिल्म की यह कहानी रोमांचक है. भले ही कहानी हवाहवाई हो परंतु कहानी को हकीकत पर खड़ा करने की कोशिश की गई है. व्हीलचेयर पर बैठे अमिताभ बच्चन ने अपने किरदार में जान डाल दी है. निर्देशन में भी झोल है. एक अपाहिज इंसान को एक तेजतर्रार अफसर को अपने मकसद के लिए है. प्यादा बनाने के लिए इतनी जानकारी कहां से मिलती है. नील नितिन मुकेश का होना न होना बराबर है. अदिति राव हैदरी की भूमिका छोटी सी है और बेअसर है. मानव कौल की भूमिका और ज्यादा होती तो अच्छा होता. फिल्म का गीतसंगीत सामान्य है. संवाद अच्छे हैं. अधिकांश फिल्म दिल्ली में शूट की गई है. छायांकन अच्छा है.

नोबेल का मच्छर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एकाएक ही क्यों पाकिस्तान गए थे, इस सवाल का जवाब लोग अपनेअपने तरीके से ढूंढ़ते रहे पर कांग्रेसी नेता मनीष तिवारी की मानें तो नरेंद्र मोदी को नोबेल के मच्छर ने काट लिया है. वे चाहते हैं कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिले, इसलिए वे पाकिस्तान गए थे.

मच्छर के काटने से मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां ही नहीं होतीं बल्कि नोबेल की बीमारी भी लग जाती है. यह मच्छर कहां पाया जाता है, यह तो मनीष ने नहीं बताया पर अपनी बौखलाहट का दैनिक संस्करण जरूर व्यक्त कर दिया. वे कभी यह कहते हैं कि भाजपा और संघ का बस चले तो लाहौर में राम मंदिर बनवा दें और कभी सत्ता पर सेना के कब्जा जमाने की भूमिका पर व्याख्यान देने लगते हैं. अच्छी बात यह है कि भगवा खेमे ने इस आरोप का यह कहते खंडन नहीं किया कि मोदी शांति की कोशिश कर रहे हैं और इतिहास गवाह है कि जो जितना ज्यादा कट्टर होता है वही शांति और भाईचारे की बातें ज्यादा करता है.

 

नई इमारत क्यों

लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने एक प्रस्ताव के जरिए देश में नए संसद भवन के लिए एक अदद नई इमारत की जरूरत जताई है. सुमित्रा के तर्क ये हैं कि मौजूदा संसद भवन 88 साल पुराना हो गया है और इस में आने वालों की संख्या बढ़ रही है. इन में कर्मचारी, सुरक्षाकर्मी, मीडियाकर्मी और आम लोग भी शामिल हैं. बात कमजोर न लगे, इसलिए उन्होंने यह भी याद दिला डाला कि 2026 के बाद लोकसभा सीटों की संख्या के बढ़ने की संभावना है. ऐसे में यह भवन और छोटा पड़ने लगेगा.

बातें सच हैं लेकिन सच यह भी है कि जब संसद में हंगामा ही मचना है, कुरसियां फेंकी जानी हैं, सांसदों को सवाल नहीं पूछना और महिला सांसदों की साडि़यों पर चर्चा करनी है तो फिर नई इमारत की जरूरत क्या? बेहतर होता सुमित्रा ताई यह कहतीं कि सभी सांसद नियमित आएं, बहस में हिस्सा लें, सवाल पूछें और सुझाव दें, तो बात में वजन होता.

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