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उत्तर प्रदेश कृषि विभाग : काम भारी महकमा है खाली

उत्तर प्रदेश देश का सब से बड़ा सूबा है. यहां के ज्यादातर लोगों का रोजगार केवल खेतीकिसानी ही है. दूसरे प्रदेशों की तरह यहां?भी खेतीकिसानी की ढेर सारी योजनाएं केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से लागू हैं. योजनाओं का लाभ निचले स्तर तक पहुंचे इस के लिए करोड़ों रुपए का बजट भी?है, मगर जिन के जरीए यह सारा काम होना?है वही नहीं?हैं यानी यहां का कृषि महकमा अधिकारियों और कर्मचारियों की कमी से बुरी तरह जूझ रहा?है. इस वजह से सब से ज्यादा नुकसान किसानों को ही हो रहा?है.

वहीं दूसरी तरफ प्रदेश सरकार अपने को किसानों का सब से बड़ा हितैषी बताने से नहीं थक रही है. साल 2015 को यहां की सरकार ने प्रदेश में किसान वर्ष घोषित कर रखा था, मगर तब से अब तक किसानों और किसानी की स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जा रही है. इस बार भी अखिलेश सरकार ने ‘कृषक दुर्घटना बीमा योजना’ को समाप्त कर के उस के स्थान पर किसानों के लिए एक बेहतर योजना ‘मुख्यमंत्री किसान एवं सर्वहित बीमा योजना’ शुरू की है. बेशक यह योजना बेहतर है, मगर असल सवाल यह है कि बिना अधिकारियों और कर्मचारियों के इन जैसी तमाम योजनाओं का लाभ किसानों को कैसे मिल सकेगा. नए पेश होने वाले बजट को भी सरकार किसानों के लिए अभी से ही वरदान साबित होगा, बता रही?है मगर यह सब बिना स्टाफ के कैसे पूरा होगा? आइए, जानते हैं कि कौनकौन से पद खाली हैं?

निदेशकों के पद खाली : कृषि विभाग में निदेशकों के अनेक पद बनाए गए हैं, जिन में राज्य स्तर पर प्रबंधन हेतु कृषि निदेशक, निदेशक बीज विकास निगम, निदेशक कृषि अनुसंधान परिषद और अपर निदेशकों, संयुक्त कृषि निदेशकों और मंडल व जिला स्तर पर उप कृषि निदेशकों की तैनाती होती?है.

बीते साल 2015 के अंतिम महीने से राज्य स्तर के प्रबंधन हेतु कई महत्त्वपूर्ण निदेशकों के पद खाली पड़े थे. इन में खासतौर पर बीज प्रमाणीकरण निगम, उत्तर प्रदेश बीज विकास निगम, उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद और राज्य कृषि प्रबंधन संस्थान, रहमान खेड़ा लखनऊ के पद शामिल हैं. एक अंगरेजी अखबार की रिपोर्ट के अनुसार बीज विकास निगम में निदेशक व सही प्रबंधन न होने के कारण करोड़ों रुपए की लागत के बीज सड़ गए.

भला हो कृषि प्राविधिक सहायकों के 8 जनवरी से शुरू हुए बेमियादी धरनेप्रदर्शन का, जिन की स्टाफ की तैनाती संबंधी मांग के कारण कृषि मंत्री के हथपांव फूल गए थे और मामले को तूल पकड़ते देख उन्होंने झट से वरिष्ठ अधिकारी मुकेश श्रीवास्तव को अगले दिन ही प्रदेश का कृषि निदेशक नियुक्त कर दिया?था.

अगर प्राविधिक सहायकों का बेमियादी धरनाप्रदर्शन न होता तो कृषि निदेशक का पद भी लंबे समय तक खाली रह सकता?था. इन पदों के लंबे समय तक खाली रहने के पीछे जानकार बताते?हैं कि सरकार अपनी पसंद का नौकरशाह बैठाना चाहती?है. विभाग में पहले से कार्य कर रहे अन्य निदेशकों में इन पदों को हथियाने की होड़ भी खूब है, मगर सरकार है कि अपने लिए सब से अच्छा दावेदार न मिल पाने के कारण देर कर रही है. इस से अन्य कामों के साथ ही साथ नई भर्तियों में?भी देरी हो रही?है, जिस से खेतीबारी भी अछूती नहीं?है.

अधिकारी स्तर के पद खाली : विभाग में राजपत्रित अधिकारियों के कुल 966 पद हैं, जिन में से 474 पद खाली हैं. इसी तरह से अराजपत्रित कर्मचारियों के 172 पद खाली हैं. जिला एवं ब्लाक स्तर पर काम करने वाले विभिन्न कर्मचारियों के लिए कुल 28090 पद हैं, जिन में से 13362 पद खाली हैं.

हाईकोर्ट के आदेश का भी असर नहीं : 2 साल पहले उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने कृषि सेवाओं के तहत प्राविधिक सहायकों की भर्ती का विज्ञापन जारी किया था. अंतिम परिणाम आ जाने के बाद भी विवादों में होने के कारण प्राविधिक सहायकों की तैनाती नहीं हो पा रही थी. जिस पर बीते दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार से कहा कि चयनितों को 1 महीने के अंदर तैनाती दी जाए. 1 महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद राज्य सरकार चयनितों को तैनाती नहीं दे सकी है, जबकि चयनितों की तैनाती से विभागीय काम में तेजी आ सकती है.

नहीं रखे गए कृषिमित्र : सरकार की अनेक कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी गांवगांव तक पहुंचे, इस के लिए केंद्र सरकार ने हर ग्राम पंचायत स्तर पर 1 कृषिमित्र की नियुक्ति करने को कहा है, मगर राज्य सरकार ने इस में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई?है. कुछ साल पहले किसानमित्र मामूली मानदेय पर काम कर रहे थे, बाद में मानदेय न मिलने के कारण किसानमित्रों ने?भी काम बंद कर के दूसरे काम पकड़ लिए. इस से जमीनी स्तर पर खेतीकिसानी की तकनीकों का प्रचारप्रसार बंद हो गया?है.

वेतन को तरस रहे संविदाकर्मी?: प्रदेश में केंद्र द्वारा संचालित नेशनल मिशन औन एग्रीकल्चर एक्सटेंशन एंड टेक्नोलाजी (आत्मा) योजना साल 2012 से चलाई जा रही?है. योजना का मुख्य मकसद किसानों को खेती के नवीनतम  तकनीकी ज्ञान से परिचित कराना?है. योजना में काम करने वाले कर्मियों की संविदा (ठेका) पर तैनाती राज्य सरकार ने गैर सरकारी संगठन के जरीए की?है.

योजना में मुख्य रूप से 2 तरह के पद हैं, जिन में गांव?स्तर पर सहायक तकनीकी प्रबंधक और ब्लाक स्तर पर ब्लाक तकनीकी प्रबंधक हैं. गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) इन संविदाकर्मियों को हर महीने तनख्वाह नहीं दे पाता?है. कभी 6 महीने तो कभी 4 महीने बाद तनख्वाह देता?है. तनख्वाह हर महीने न मिल पाने के कारण संविदाकर्मी कई बार अपना काम पैसे उधार ले कर करते?हैं या घरपरिवार की कई प्रकार की जरूरतें नहीं पूरी कर पाते हैं. इस से तकनीकी कर्मी मन से काम नहीं कर पाते हैं या कुछ लोग नियमित आमदनी बनाए रखने के लिए दूसरे कामों में भी लगे रहते?हैं. इस से सरकार की योजना पर पानी फिर जाता है.

इच्छाशक्ति की कमी : इतनी बातें जाननेसमझने पर तो यही लगता?है कि सरकार जब बड़ेबड़े दावे किसानों के हित में कर रही?है तो बिना अधिकारियों, कर्मचारियों के उन्हें कैसे पूरा करेगी? प्रदेश सरकार की कथनी और करनी में अंतर न होता तो वह बड़े पैमाने पर खाली पदों को जल्दी से भरने में दिलचस्पी दिखाती. शायद यही कारण है सरकार उच्च न्यायालय के आदेश का भी समय से पालन नहीं करा पा रही?है, मगर ऊपर से किसानों का मसीहा होने का ढोल पीट रही?है

भूमिगत जलदोहन से बचें इस्तेमाल करें लेजर लैंड लेवलर

खेती के लिए एकदम फ्लैट यानी समतल खेत ही मुनासिब होता?है, मगर खुरपीफावड़े या हाथों से यह काम बहुत मुश्किल होता?है. इसी काम को आसान बना देता है लेजर लैंड लेवलर. जलसंरक्षण को ध्यान में रखते हुए आज यह जरूरी हो गया है कि पानी की हर बूंद का इस्तेमाल किया जाए. आज खेतों में सिंचाई के लिए पुराने तरीके ज्यादा कारगर नहीं हैं, क्योंकि खेतों की जमीन एकसार नहीं है, जिस से पानी ज्यादा बरबाद होता है. इसलिए सब से पहले खेतों की जमीन को समतल करना जरूरी है.

खेतों की जमीन को समतल करने के लिए हमें पुराने तौरतरीके छोड़ कर आधुनिक नई तकनीक वाले तरीके अपनाने होंगे.

आजकल किसान लेजर लैंड लेवलर से अपने खेतों को समतल करते हैं. यह लेजर लैंड लेवलर मशीन पूरी तरह से कंप्यूटर पर आधारित है और ट्रैक्टर में पीछे जोड़ कर चलाई जाती?है.

लेजर किरणों की तकनीक पर आधारित इस मशीन से ऊबड़खाबड़ जमीन समतल बन जाती है. मशीन में ऊपर लगा लेजर किरण यंत्र इसे नियंत्रित करता है.

इस मशीन को ले कर किसानों का रुझान काफी बढ़ा है, क्योंकि इस से कम समय में ही खेत समतल हो जाता है. समतल खेत में पानी लगाते समय पानी की खपत कम होती है और पूरे खेत में एक जैसा पानी फैल जाता?है.

नई फसल लगाने या धान लगाने से पहले किसान इस मशीन का खासतौर पर इस्तेमाल करते हैं, नतीजतन वे कम पानी की खपत में अच्छी फसल ले पाते हैं. इस मशीन के प्रयोग से तकरीबन 30 फीसदी पानी की बचत होती है, साथ ही खेत की मिट्टी में जो उर्वरक तत्त्व होते हैं वे भी बने रहते हैं.आजकल किसानों द्वारा लेवल मास्टर ब्रांड काफी पसंद किया जाता है. आधुनिक तकनीक का लेजर लैंड लेवलर भारत में सब से पहले साल 2002 में स्पैक्ट्रा प्रीसीजन लेजर द्वारा बनाया गया था, जो जल्द ही किसानों का चहेता बन गया और लेवल मास्टर के नाम से मशहूर हुआ.लेवल मास्टर किसानों के साथसाथ विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषदों, राज्य सरकारों और दूसरे संस्थानों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है.    

लेवल मास्टर के लाभ

*      यह 45 फीसदी तक पानी की बचत करता है.

*      यह बारिश में मिट्टी की ऊपरी परत के कटाव को रोकता?है.

*      यह ऊपरी परत के पानी को प्रदूषित होने से रोकता?है.

*      यह फसल की उपज को 35 फीसदी तक बढ़ाता है.

*      लेवल मास्टर के इस्तेमाल से खाद की खपत कम होती है और खेती का क्षेत्रफल भी बढ़ जाता?है.

*      यह पानी का वितरण समान रूप से करने के साथसाथ खरपतवार की रोकथाम भी करता?है.

कुछ कहती हैं तसवीरें

मेले में मस्ती : मेला चाहे गांवकसबे का हो या कोई मशहूर मेला हो, मकसद महज मौजमस्ती ही होता है. ऐसी ही कशिश सूरजकुंड मेले की भी है. मेले के धमालों के साथसाथ मेला देखने आई हसीनाएं भी मेले में चार चांद लगा देती हैं.

गरम दूध उद्योग शहरों से गांवों तक

शहरों से ले कर गांवों तक गरम दूध का काम तेजी से बढ़ता जा रहा?है. जाड़े के दिनों में यह कारोबार पहले भी खूब चलता था, अब यह पूरे साल चलने लगा है. शहरों में इस का चलन ज्यादा है. गरम दूध में केसर डाल कर भी बेचा जाता है. कहींकहीं दुकानों में इसे बेचने के लिए मिट्टी के कुल्हड़ों का इस्तेमाल किया जाता है, इसीलिए इसे कुल्हड़ वाला दूध भी कहते?हैं. कुल्हड़ वाले 200 मिलीलीटर दूध की कीमत 20 रुपए तक होती है. आमतौर पर आजकल 1 लीटर दूध करीब 50 रुपए प्रति लीटर की दर से मिलता है. 1 लीटर दूध को गरम करने पर करीब 200 मिलीलीटर दूध कम हो जाता है.

ऐसे में 1 लीटर दूध में 4 कुल्हड़ दूध तैयार होता है. 20 रुपए प्रति कुल्हड़ की दर से यह कीमत 80 रुपए हुई. इस तरह से 1 लीटर दूध बेचने में करीब 30 रुपए की बचत होती?है. इस में से अगर चीनी, कुल्हड़ और ईंधन की कीमत निकाल दें, तो भी करीब 15 रुपए का मुनाफा बेचने वाले को होता है. इस प्रकार से गरम दूध का करोबार करना काफी मुनाफे का सौदा होता है. उत्तर प्रदेश में दूध की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है. ऐसे में पशुपालन करने वाले किसानों के लिए नए अवसर पैदा हो रहे?हैं. उत्तर प्रदेश में रोजाना 635 लाख लीटर दूध की मांग है, पर 435 लाख लीटर दूध की आपूर्ति ही रोज होती है. जनता की इस परेशानी को दूर करने के लिए सरकार ने अमूल जैसी बड़ी कंपनी को प्रदेश में अपनी डेरी खोलने की इजाजत दे दी है. यह एशिया की सब से बड़ी डेरी होगी.

अमूल से जुड़े लोगें का मानना है कि अमूल को रोज जितने दूध की जरूरत होगी, उतना दूध उत्तर प्रदेश के किसानों से नहीं मिल पाएगा. ऐसे में उन को बाहरी प्रदेशों से दूध खरीदना पड़ सकता?है. अगर प्रदेश के किसान ही दूध उत्पादन में ध्यान देंगे तो दूध कारोबार को नई दिशा दी जा सकती है. उत्तर प्रदेश में पराग जैसी बड़ी कंपनियां दूध बेचने का काम कर रही हैं. इस के अलावा कई छोटीछोटी कंपनियां भी दूध कारोबार में लगी हैं. उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने प्रदेश में दूध की कमी को पूरा करने के लिए अमूल कंपनी को लखनऊ में डेरी खोलने की इजाजत और सुविधाएं दी हैं. अमूल को लखनऊ शहर से लगे चक गजरिया फार्म में 20 एकड़ जमीन इस के लिए दी गई है.

संघ आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल) बनासकांठा सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ पालनपुर गुजरात की इकाई है. सरकार ने अमूल को छूट दी?है कि अगर उत्तर प्रदेश के किसानों से पूरी मात्रा में दूध न मिल पाए तो वह बाहर के किसानों से दूध खरीद सकती है. अमूल को 20 एकड़ जमीन 48 सौ रुपए प्रति वर्गमीटर की दर से दी गई है. अमूल कंपनी रोजाना 5 लाख लीटर दूध की बाजार में आपूर्ति करेगी. प्लांट लगाने के लिए अमूल को 18 महीने का समय दिया गया?है. दूध बेचने वाली कंपनियां 40 से 50 रुपए प्रति लीटर की दर से दूध बेच रही हैं. इन कंपनयों ने पिछले 2 सालों में दूध की कीमतों में 40 फीसदी का इजाफा किया है. दूध के साथ दूध से बनने वाली दूसरी चीजों जैसे खोया, पनीर, मक्खन, घी और दही के दाम भी तेजी से बढ़े हैं. आमतौर पर खोया 400 रुपए प्रति किलोग्राम, पनीर 300 रुपए प्रति किलोग्राम, दही 60 से 120 रुपए प्रति किलोग्राम, मक्खन 400 रुपए प्रतिकिलोग्राम और घी 450 रुपए प्रति किलोग्राम की दर  बाजार में बिकता है.

चारे ने बढ़ाई दूध की कीमत

लोगों में दूध के साथ ही साथ दूध से बनने वाली चीजों की मांग भी बढ़ी है. इन में खोया, दही, पनीर, रबड़ी, मलाई, आइसक्रीम, मट्ठा और मक्खन शामिल हैं. इस मांग के मुताबिक दूध की आपूर्ति में बदलाव नहीं हुआ है. चारे की कमी के कारण दुधारू पशुओं का पालन करने वालों के सामने परेशानी रहती है.

1 भैंस को चारा खिलाने पर हर रोज करीब 150 रुपए का खर्च आता?है. आजकल चोकर करीब 1100 रुपए, खली व चूनी करीब 1400 रुपए और भूसा करीब 300 रुपए प्रति क्विंटल के?भाव से मिल रहा है. बीते 1 साल में इन की कीमत 50 फीसदी तक बढ़ गई है. आमतौर पर 1 भैंस रोज 6 लीटर दूध देती है, जिसे ज्यादा से ज्यादा 20 रुपए प्रति लीटर की दर से बेचा जाता है. इस हिसाब से 6 लीटर दूध 120 रुपए का हुआ. बिचौलिए पशुपालकों से 20 रुपए प्रति लीटर की दर से दूध लेते?हैं. इसे वे 25 से 28 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचते?हैं. इस प्रकार बिचौलियों को प्रति लीटर दूध से 5 से 8 रुपए का लाभ हो जाता?है. अमूल और पराग जैसी कंपनियां भी इसी तरह से मुनाफा कमा रही?हैं.

बसंत वाले गन्ने की वैज्ञानिक खेती

गन्ना एक नकदी फसल है, जिसे किसान अपनी खास फसल की तरह उगाते हैं. इस की बोआई शरदकाल (सितंबरअक्तूबर) और बसंतकाल (फरवरीमार्च) दोनों ही समयों में की जाती है. आज के समय में खेती एक व्यापार है. खेती से हर किसान एक तय समय में ही अधिक से अधिक फायदा कमाना चाहता है. उत्तर प्रदेश में गन्ने की कम पैदावार के खास कारण हैं गन्ने की खड़ी फसल को महत्त्व न देना, कम पैदावार वाली किस्मों का इस्तेमाल करना, सही मात्रा में खाद का प्रयोग न होना और फसल की देखभाल सही तरह से न करना.

बसंत के मौसम में गन्ने की बोआई के लिए सब से सही समय फरवरी के महीने का है, लेकिन भारत में 15-20 फीसदी किसान ही फरवरी में बोआई कर पाते हैं, क्योंकि ज्यादातर किसानों के खेतों का आकार छोटा होने के कारण रबी की फसलें खेत में लगी रहती हैं. ये फसलें मार्चअप्रैल में कटती हैं. रबी की फसलों की बोआई के समय जल्दी पकने वाली किस्मों को न लगाना, समय से बोआई न कर पाना भी गन्ने की पैदावार पर असर डालता है.

बसंत के समय का महत्त्व

* फसल और सहफसल मिलीजुली खेती प्रणाली में किसानों की कई तरह की जरूरतों को पूरा करती हैं, जैसे खाने के लिए दाल व पशुओं के लिए चारा.

* सहफसल के बीच के समय में होने वाली आमदनी से गन्ने की अच्छी देखभाल की जा सकती है.

* पूरे साल किसान के परिवार के सदस्यों खासतौर से स्त्रियों व बच्चों को काम मिलता रहता है.

* खरपतवारनाशी के प्रयोग से बचा जा सकता है, जिस से खर्च की बचत होती है.

* फसल के कचरे से जमीन की उत्पादन शक्ति कायम रखी जा सकती है.

बीजों का इलाज

गरम हवा से : खासतौर से मशीन द्वारा 54 सेंटीग्रेड गरम हवा से 2-3 घंटे में बीज उपचार.

गरम पानी से : खास मशीन से 50 सेंटीग्रेड तक गरम किए गए पानी में बीजों को 2-3 घंटे डुबो कर रखें.

रसायन से : फफूंदीनाशक रसायन ऐरीटान 6 फीसदी की 280 ग्राम या एगलाल 3 फीसदी की 560 ग्राम या 125 ग्राम बावस्टीन का घोल बना कर उस में 10-15 मिनट बीज डुबो कर रखें.

कीटनाशक क्लोरोपाइरीफास 20 फीसदी का 5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बना कर बीजों का इलाज करना चाहिए.

एजोटोक्टर 2-2.5 किलोग्राम, पीएसवी 2.5 किलोग्राम, माइकोराइजा 5 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से 100-150 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद/केंचुए की खाद में मिला कर प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

खाद

गन्ने के खेत में कोई भी खाद मिट्टी की जांच के मुताबिक डालना सही रहता है. जांच न होने की हालत में 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 80 किलोग्राम पोटाश, 40-60 किलोग्राम गंधक और 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. नाइट्रोजन की एक तिहाई, फास्फोरस, पोटाश, गंधक व जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा बोआई से पहले कूंड़ों में डालनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी दोतिहाई मात्रा का आधा भाग अंकुरण के समय और आधा भाग 1/3 बढ़वार के समय जून तक बारिश से पहले इस्तेमाल करना चाहिए. हरी खाद इस्तेमाल करने से लगभग 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन की आपूर्ति हो जाती है.

बोआई

बोआई की समतल विधि में कूड़ों की गहराई 7-10 सेंटीमीटर रखते हैं.

बोआई की अंतरालित प्रतिरोपण तकनीकी (एसटीपी) : गन्ना अनुसंधान संस्थान लखनऊ द्वारा विकसित इस तकनीकी में 30 हजार 1 आंख वाले गन्ने के टुकड़ों को 50 वर्गमीटर नर्सरी क्षेत्रफल में रोपित किया जाता है. 

खरपतवारों की रोकथाम : बसंत वाले गन्ने में खरपतवारों द्वारा नुकसान का खतरा 60-120 दिनों तक रहता है.

* सही फसलचक्र अपनाएं और हरी खाद या चारे वाली फसल साथ में उगाएं.

* लोबिया, सनई व ढैंचा जैसी फसलें लगाएं.

* बोआई के 30, 60 व 90 दिनों पर गुड़ाई कर के खेत को खरपतवारों से बचाया जा सकता है.

पताई बिछाना : गन्ने की लाइनों के बीच खाली जगहों पर 7-10 सेंटीमीटर मोटी परत बिछाना खरपतवार नियंत्रण व नमी संरक्षण में काफी मददगार होता है. सूखी पत्तियों को कीटनाशक से उपचारित कर के बिछाने से दीमक आर्मी कीट खत्म हो जाते हैं.

सिंचाई

भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान लखनऊ द्वारा किए गए परीक्षणों के आधार पर बताया गया है कि सिंचाई का भरपूर इंतजाम होने पर मार्च, अप्रैल, मई व जून में खेत की सिंचाई जरूर करनी चाहिए.

इस के बाद जरूरत के हिसाब से और सिंचाई की जा सकती है. आमतौर पर जलभराव विधि, एकांतर नाली विधि, फुहारा (स्प्रिंकलर) विधि और बूंदबूंद विधि द्वारा सिंचाई करते हैं.

 

डा. हंसराज सिंह, डा. नीलिमा पंत*, डा. अरविंद कुमार, डा. विपिन कुमार व डा. पीएस तिवारी
(कृषि विज्ञान केंद्र, गाजियाबाद) (*एनआईओएस, नोएडा)

किसान : न नाम मिला न दाम

यह बहुत अफसोस की बात है कि बिहार में किसानों को फायदा पहुंचाने और उन की वाहवाही बटोरने के लिए ‘किसान’ नाम से बनाई गई ज्यादातर योजनाएं अफसरों की लापरवाही की शिकार हो कर रह गई हैं. सरकार ने किसानों का भरोसा जीतने के लिए राज्य में ‘किसान’ नाम से कई योजनाओं की शुरुआत तो कर डाली, पर ज्यादातर आधीअधूरी हालत में हैं और कई तो फाइलों से बाहर ही नहीं निकल सकी हैं.

सब से ज्यादा बुरी हालत किसान पाठशाला योजना की है. अफसरों की लापरवाही और जैसेतैसे काम निबटाने की सोच ने किसान पाठशालाओं का मकसद ही बिगाड़ कर रख दिया?है. किसान पाठशालाओं को खेत में चलाना है, पर अफसर गांव के बरामदों में ही पाठशाला लगा कर किसानों को चलता कर देते हैं.

जहानाबाद जिले के नेवारी गांव के किसान संजय मिश्रा बताते हैं कि कृषि महकमे के अफसर और कृषि वैज्ञानिक खेतों में पहुंच कर किसानों को खेती के नए तरीकों और तकनीकों की जानकारी नहीं देते हैं. वे किसानों को दफ्तर या जिला कृषि कार्यालय में बुला कर भाषण पिला देते हैं, पर किसानों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता है. जब किसान बाद में किसी समस्या को ले कर अफसरों के पास जाते हैं, तो या तो वे मिलते नहीं हैं या फिर डांटडपट कर भगा देते?हैं.

पटना के संपतचक गांव के किसान श्याम साहनी बताते?हैं कि खेतों में प्रैक्टिकल कराने के बजाय अफसर गांव के बरामदों में ही थ्योरी पढ़ा कर काम निबटा रहे?हैं. गौरतलब है कि किसान पाठशाला का नारा है, ‘कर के सीखो और देख कर यकीन करो’. इस के बाद भी अफसर सिर्फ किताबी पढ़ाई करवा कर अपना काम आसान कर रहे?हैं और सरकार की योजना पर पानी फेर रहे हैं.

एक किसान पाठशाला के आयोजन पर सरकार 29 हजार रुपए खर्च करती है, पर इस से किसानों को जरा भी फायदा नहीं हो पा रहा?है. किसान पाठशाला का आयोजन समूह बना कर खेतों में ही किया जाना चाहिए और इस में कम से कम 25 किसानों का होना जरूरी है. किसान पाठशाला योजना के तहत किसानों को बीज प्रबंधन, बीज उपचार, उर्वरक प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, कटाई, खेती की नई तकनीकों और मशीनों की जानकारी, फसलों की मार्केटिंग और मशीनों के इस्तेमाल आदि की जानकारी खेतों में ही देनी है.

किसान क्रेडिट कार्ड योजना की भी हालत बदतर ही?है. यह योजना सही तरीके से जमीन पर नहीं उतर पा रही है, जिस से किसानों को इस का फायदा नहीं मिल पा रहा है. इस में सब से बड़ी बाधा बैंकों की उदासीनता और टालमटोल वाला रवैया है. इसी वजह से किसानों के क्रेडिट कार्ड नहीं बन पा रहे हैं, जिस से वे इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. गौरतलब है कि किसानों को गांवों के साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड योजना की शुरुआत की गई थी, पर इस योजना के फेल होने से किसान साहूकारों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर हैं.

पटना से सटे नौबतपुर गांव के किसान मनोज पंडित कहते?हैं कि पिछले साल बारिश की वजह से उन की प्याज की फसल बरबाद हो गई और उस के बाद आलू की फसल को झुलसा रोग ने चौपट कर दिया. अब उन के पास खेती करने के लिए पैसे नहीं हैं. उन्होंने केसीसी बनवा कर लोन लेने के लिए पिछले 4 महीने में कई बार बैंकों के चक्कर लगाए, पर आज तक उन का केसीसी नहीं बन सका है. जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो मन मार कर उन्हें साहूकार से ही कर्ज लेना पड़ा. बिहटा के किसान चुनचुन राय कहते?हैं कि पिछले 2 सालों से वे किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने की कोशिश कर रहे?हैं, पर बैंक उन की मांग पर जरा?भी ध्यान नहीं दे रहे हैं.

जिन किसानों के केसीसी बने हुए हैं, उन को 5 लाख रुपए तक लोन देने का प्रावधान है, पर बैंक उन्हें 50 हजार रुपए देने में भी आनाकानी करते हैं. ऐसी हालत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना पानी मांगती नजर आने लगी है. किसान शिकायतपेटी योजना भी दम तोड़ रही है. अकसर किसानों की यह शिकायत होती?है कि अफसर उन की सुनते नहीं हैं या उन्हें डांटफटकार कर भगा देते?हैं या किसी काम के एवज में?घूस मांगते हैं या बेवजह दफ्तरों के चक्क लगवाते हैं. इस दर्द से पीडि़त किसानों के लिए सरकार ने किसान शिकायतपेटी योजना बनाई है.

किसानों की शिकायतों की लंबी होती लिस्ट को देखते हुए बिहार सरकार ने यह फरमान जारी किया कि अगर अफसरों ने किसानों को परेशान किया हो तो किसानों की शिकायत पर उन पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी और शिकायत करने वाले किसानों के नाम और पते गुप्त रखे जाएंगे. हर प्रखंड में आयोजित होने वाले कृषि कार्यक्रमों के दौरान वहां किसान शिकायतपेटी भी रखी जाएगी. कार्यक्रम खत्म होने के बाद शिकायतपेटी को जिलाधीशों के सामने ही खोला जाएगा. हर शिकायत की जांच की जाएगी और शिकायत के सही पाए जाने पर अफसर के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. किसानों को भ्रष्टाचार से नजात दिलाने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया?था, लेकिन अब किसानों की एक नई शिकायत है कि किसी भी सरकारी कृषि कार्यक्रम में शिकायतपेटी रखी ही नहीं जाती?है.

तेजाराम : खेती से भरपूर कमाई

अपने काम के माहिर तेजाराम जोधपुर जिले के पिचियाक गांव के एक छोटे किसान हैं. शुरुआती पढ़ाई के बाद वे खेती करने लगे. उन के पास 8 बीघे जमीन है, जिस में वे सौंफ, कपास, मिर्च, गेहूं, ग्वार, मेथी व पालक की खेती करते हैं. तेजाराम बताते हैं कि छोटे किसानों को सब्जी उत्पादन से ज्यादा लाभ मिलता है. उन के गांव में पानी की कमी है और ऊपर से पानी खारा भी है, इसलिए सब्जी वाली ग्वार से ज्यादा लाभ मिलता है.

सब्जी वाली ग्वार की बोआई मई महीने में की जाती है. ग्वार सब्जी के नीलम 51 बीज की किस्म तेजाराम के इलाके के लिहाज से अच्छी है. इस का बीज 300 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से मिलता है, जिसे बाजार से खरीद कर आधा बीघा में बोआई करते हैं. बोआई से पहले 2 ट्रैक्टर ट्रौली गोबर की देशी खाद आधा बीघा में डालते हैं, जिस की कीमत करीब 5 हजार रुपए होती है. अगर घर की खाद उपलब्ध होती है तो पहले उसे काम में ले लेते हैं. उस के बाद ट्रैक्टर से 3-4 बार जुताई कर के ग्वारकी बोआई कर देते हैं.

सब्जी वाली ग्वार की बोआई के 35 से 40 दिनों बाद फसल में फूल आते हैं. उस समय यदि कोई कीट या सफेद मक्खी का प्रकोप होता है, तो कीटनाशी से रोकथाम करते हैं. सब्जी लगने के बाद घर की दवा नीम की निंबोली या नीम की पत्तियों को पीस कर छिड़काव कर देते हैं. इसलिए फसल अच्छी होती है और खराब नहीं होती है.

फसल जब 45 दिनों की हो जाती है, तब फलियां लगती हैं. हर तीसरे दिन फलियां तोड़ कर बाजार में बेच देते हैं. आधा बीघा में हर तीसरे रोज 60 किलोग्राम ग्वार की फलियां प्राप्त हो जाती हैं, जो बाजार में 25 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकती हैं. इस तरह हर तीसरे रोज 1500 रुपए मिल जाते हैं. एक फसल में ग्वार की फलियां 90 दिनों तक मिलती रहती हैं, जिस से लगातार आमदनी होती रहती है. कुल हिसाब लगाएं तो आधा बीघा में ग्वार की फसल से 16 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है. तेजाराम आगे बताते हैं कि छोटे किसानों के लिए सब्जी वाली ग्वार अधिक लाभ देती है. पड़ोसी किसानों ने भी ग्वार की खेती की है.

ग्वार की फसल पूरी होते ही तेजाराम खेत में पालक, मेथी व धनिया डाल देते हैं. पालक की कटाई 50 दिनों बाद की जाती है. वे 2 कटाई पालक की करते हैं. मेथी की कटाई 45 दिनों बाद की जाती है. इस तरह इन पत्तेदार सब्जियों से 7 हजार रुपए प्रति आधा बीघा आमदनी अलग से हो जाती है. इन सब्जियों के बाद गेहूं की बोआई का समय आता है, तो तेजाराम इन्हीं खेतों में गेहूं की बोआई कर देते हैं. आघा बीघा से करीब 3 क्विंटल गेहूं मिल जाता है. इस प्रकार आधा बीघा खेती से ग्वार से 16 हजार रुपए, पत्तेदार सब्जियों से 7 हजार रुपए व गेहूं से 7 हजार रुपए, कुल 30 हजार रुपए 1 साल में मिल जाते हैं.

गेहूं की कटाई के बाद खेत को खाली छोड़ना पड़ता है. तेजाराम खेत में खाद डाल कर खेत को खाली छोड़ देते हैं ताकि जमीन की कूवत बनी रहे. तेजाराम की खेती को देख कर छोटे किसान भी काफी कुछ सीख रहे हैं. ग्वार व मेथी जैसी फसलों से जमीन की उर्वरा कूवत भी बनी रहती है और खेती भी टिकाऊ होती है. तेजाराम बताते हैं कि छोटे किसानों के लिए ये फसलें अधिक कमाई देती हैं.  विद्या देवी व रेखा देवी ने भी ग्वार की फसल को फायदेमंद बताया. इस साल भाव 50 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गया था, इसलिए इस से कमाई अच्छी रही.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान तेजाराम के मोबाइल नंबर 09929736902 और लेखक के मोबाइल नंबर 09414921262 पर बात कर सकते हैं.

वैज्ञानिक विधि से हो उत्तराखंड में सेब की खेती

उत्तराखंड में सेब की खेती ने पिछले 2 दशकों में दम तोड़ दिया है, जिस की खास वजह उम्दा पौधों का न मिलना और सरकारी रवैया है. ब्रिटिश शासनकाल में राज्य के नैनीताल, अल्मोड़ा, उत्तरकाशी, चमोली वगैरह जिलों में सेब के बागों को लगाया गया. तब मुख्य रूप से सेब की उम्दा प्रजातियों जैसे गोल्डन, ग्रेनीस्मिथ, स्टारकिंग डिलिसियस, रेड डिलिसियस व मैक्नटोवस वगैरह को लगाया गया?था. गोल्डन व ग्रेनीस्मिथ वगैरह प्रजातियां परागण करने वाली प्रजातियां थीं. वास्तव में अंगरेज अपने वैज्ञानिक ज्ञान से सेब का उत्पादन करते?थे. लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि हम अपने इन अमूल्य बागों को सहेज कर न रख सके. हालांकि इस का एक बड़ा कारण पर्यावरणीय असंतुलन भी रहा है.

पुराने बागों का सुधार : उत्तराखंड के ज्यादातर बाग 70-80 साल पुराने हैं, जो कि रूट राट, कैकर, रूटबोरर, स्टेम बोरर और कुप्रबंध के शिकार हैं. लिहाजा इन को हटा दें और इस मिट्टी को उपचारित कर दें. उपचार के लिए इस में चूना डाला जा सकता है.

नई प्रजातियों का चयन : नए बाग लगाने से पहले सही प्रजातियों का चयन करना जरूरी है. प्रजाति का चयन भौगोलिक आधार, अनुकूल जलवायु और बाजार की मांग के अनुसार करना बेहतर होता?है. आजकल रायल डिलिसियस के अलावा स्पर की तमाम प्रजातियों का कृषिकरण हिमाचल व अन्य सेब उत्पादक राज्यों में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. इन प्रजातियों को उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में लगाया जा सकता है:

सुपरचीफ : यह प्रजाति 4500 से 8000 फुट ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जुलाई तक तैयार होती है.

स्कारलेट स्पर टू : 6500 फुट से ऊपर वाले क्षेत्रों में भरपूर फल देने का समय जुलाई महीने का पहला पखवाड़ा है.

स्कारलेट स्पर : इस की 2 किस्में हैं जो कि अमेरिका व फ्रांस से यहां लाई गई हैं.

आग्रेन स्पर टू : अमेरिका की यह किस्म 6000 से 8000 हजार फुट तक की ऊंचाई पर लगाई जाती है. जुलाई में इस में खूब फल आते?हैं.

आर्ली रेड वन : 7000 फुट की ऊंचाई से ऊपर के लिए यह मुनासिब किस्म है. पारंरिक रायल डिलिसियस से 2 हफ्ते पहले इस की फसल तैयार हो जाती है.

वाशिंगटन रेड : डिलिसियस अमेरिकी प्रजाति का यह पौधा 6500 से 7000 फुट तक की ऊंचाई पर बहुत कामयाब है.

अमेरिकन शैलेट स्पर : 90 से 100 दिनों में तैयार होने वाली यह प्रजाति 6000 फुट से नीचे वाले स्थानों के लिए सही नहीं है.

ऐस स्पर : अमेरिकी प्रजाति का यह पौधा 8000 फुट की ऊंचाई तक बहुत आसानी से होता?है.

रेड विलाक्स : इटली की यह प्रजाति उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले?क्षेत्रों में बेहतरीन साबित हो सकती है.

जेरोमाइन : इटली की यह प्रजाति मध्यम क्षेत्रों के लिए बहुत अच्छी है, लेकिन यह नई प्रजाति है.

एजटैक फ्यूजी?: पथरीली भूमि पर यह प्रजाति आसानी से सफल होती है और इस के फल की भंडारण कूवत भी बहुत अच्छी?है.

फ्यूजी : चीन की यह बेहतरीन प्रजाति देर नवंबर तक तैयार होती है. 6500 फुट से ऊपर के स्थानों के लिए यह प्रजाति बेहतरीन है.

गेल गाला : ऊंचाई पर होने वाली यह प्रजाति स्वपरागण और नियमित रूप से फल देने वाली है.

ग्रेनी स्मिथ : ग्रेनी स्मिथ की परागण कूवत गोल्डन प्रजाति से अधिक?है.

पिंक लेडी : कम ठंड वाले क्षेत्रों में भी यह प्रजाति आसानी से उगती है. 220 दिनों में तैयार होने वाली यह प्रजाति 4 से 8 हजार फुट तक आसानी से होती है.

वैज्ञानिक तरीकों से प्रबंधन

प्रजातियों के सही चयन के बाद बाग प्रबंधन, पौध रोपण, बाग संरचना, कटाईछंटाई, फल तोड़ाई व पौधों का रखरखाव आदि काम वैज्ञानिक विधियों से माहिरों के मार्गदर्शन में ही किया जाना चाहिए.

वास्तव में आज उत्तराखंड राज्य के लोग सेब उत्पादन को अपना कर अपना भविष्य हिमाचल की तर्ज पर संवार सकते हैं. गौरतलब है कि हिमाचल हर साल 3600 करोड़ रुपए के सेब व्यवसाय को कर रहा?है, जबकि उत्तराखंड में अभी तक इस के लिए कोई नीति नहीं बन पाई है.

– डा. नारायण सिंह, अमित ठाकुर, डा. एलएस लोधियाल

मार्च महीने के दौरान होने वाले खेती के खास काम

महाशिवरात्रि और होली जैसे उत्सवों के लिए मशहूर महीना मार्च खेती के लिहाज से भी रंगारंग ही होता है. इस महीने तमाम किसान होली के खुमार में डूबे रहते हैं, लिहाजा इन के काम का जोश भी बढ़ जाता है. रंगबिरंगे त्योहार की मस्ती किसानों की कूवत में खासा इजाफा कर देती है. इस महीने रबी की तमाम फसलें पकने की दहलीज पर पहुंच चुकी होती हैं, इस से किसानों का जोश ज्यादा ही बढ़ जाता है. एक ओर रबी की फसलें तैयार होने को होती हैं, तो दूसरी तरफ जायद की तमाम फसलों की बोआई का सिलसिला चालू हो जाता है.

एक ओर गेहूं की फसल में दाने बनने लगते हैं, तो दूसरी ओर चीनी की फसल यानी गन्ना कटाई के लिए तैयार हो जाता है. एक ओर त्योहारों का आलम किसानों में नई उमंग भरता है, तो दूसरी तरफ गन्ने व गेहूं की आमदनी की उम्मीद किसानों के परिवारों में खुशी भर देती है. पेश है मार्च के दौरान होने वाले खेती के खास कामों का ब्योरा :

* मार्च में गेहूं की बालियों में दूध बनना शुरू हो जाता है और इसी के साथ गेहूं के दाने बनने का सिलसिला शुरू हो जाता है.

* गेहूं के दाने बनने के दौरान पौधों को पानी की दरकार रहती है, इसलिए खेत में नमी कायम रखना लाजिम होता है. लिहाजा गेहूं के खेत की सिंचाई का पूरा खयाल रखें.

* अकसर मार्च के दौरान दिन में अंधड़ यानी तेज हवाओं का दौर चलता है, लिहाजा रात के वक्त सिंचाई करना बेहतर रहता है.

* अगर उड़द की बोआई का इरादा हो, तो इस काम को 15 मार्च तक निबटा लें. उड़द बोने से पहले इस बात का खयाल रखें कि बीजों को उपचारित करना जरूरी है. इस के लिए कार्बंडाजिम या राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल करें.

* उड़द की बोआई के लिए 30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें, बोआई लाइनों में करें और बीजों के बीच पर्याप्त फासला रखें.

* उड़द की तरह यदि मूंग बोने की भी मंशा हो, तो उस की शुरुआत 15 मार्च से कर सकते हैं. मगर मूंग की बोआई का काम 1 महीने के अंदर यानी 15 अप्रैल तक जरूर निबटा लेना चाहिए.

* मूंग की बोआई के लिए भी उड़द की तरह करीब 30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लेने चाहिए.

* मूंग की बोआई से पहले बीजों को उपचारित कर लें और लाइनों में बोआई करें. 2 लाइनों के बीच 1 फुट का फासला रखें और 2 बीजों यानी पौधों (उगने वाले) के बीच भी पर्याप्त फासला छोड़ना न भूलें.

* यह महीना गन्ना किसानों के लिए बहुत खास होता है. पुरानी फसल के गन्ने मार्च तक कटाई के लिए एकदम तैयार होते हैं और नई फसल की बोआई का वक्त भी शुरू हो जाता है. इस महीने ही पुरानी फसल की कटाई का काम खत्म कर लेना चाहिए.

* मार्च में ही गन्ने की नई फसल की बोआई कर लेना आखिरकार फायदे का सौदा साबित होता है. बोआई के लिए 3 आंखों वाले गन्ने के टुकड़े बेहतर रहते हैं. बोने से पहले इन बीजों को उपचारित कर लेना चाहिए.

* गन्ने की बोआई का काम बराबरी से करने के लिए शुगरकेन प्लांटर इस्तेमाल करें.

* बोआई से पहले गन्ने के खेत में कंपोस्ट खाद या अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद पर्याप्त मात्रा में मिलानी चाहिए.

* बोआई से पहले खेत से हर किस्म के खरपतवार चुनचुन कर निकाल देने चाहिए. इस से गन्ने की फसल का बेहतर जमाव होगा.

* अगर ज्यादा आमदनी का जज्बा हो तो गन्ने के 2 कूंड़ों के बीच मूंग, उड़द या लोबिया जैसी चीजें बोई जा सकती हैं. इन के अलावा मक्के की चारे वाली फसल भी गन्ने के 2 कूंड़ों के बीच बोई जा सकती है.

* जिन किसानों के पास कई मवेशी होते हैं, वे हमेशा चारे के लिए फिक्रमंद रहते हैं. ऐसे किसान इस महीने ज्वार, बाजरा या सूडान घास की बोआई कर सकते हैं.

* मार्च में सरसों की फसल पकने लगती है, लिहाजा उस पर ध्यान देना भी जरूरी है. अगर सरसों की करीब 75 फीसदी फलियां पीलेसुनहरे से रंग की हो जाएं, तो यह उन की कटाई का सब से सही वक्त होता है.

* पिछले महीने बोई गई सूरजमुखी के खेतों का जायजा लें. अगर खेत सूखते नजर आएं, तो जरूरत के हिसाब से सिंचाई करें.

* सूरजमुखी के खेत में अगर पौधे ज्यादा पासपास लगे नजर आएं, तो बीचबीच से फालतू पौधे निकाल दें. इस बात का ध्यान रखें कि 2 पौधों के दर्मियान 2 फुट का फासला दुरुस्त रहता है.

* आलू के खेतों का मुआयना करें, क्योंकि मार्च तक ज्यादातर आलू की फसल तैयार हो जाती है. अगर आप के आलू भी तैयार हो चुके हों, तो उन की खुदाई का काम खत्म करें. आलू निकालने के बाद खेत को आगामी फसल के लिए तैयार करें.

* इस महीने प्याजलहसुन की तेजी से तैयार होती फसलों का खास खयाल रखना चाहिए. तैयार होती प्याजों व लहसुनों को नर्म खेत की जरूरत होती है, लिहाजा निराईगुड़ाई कर के खेत को नर्म बनाएं. अगर जरूरी लगे तो खेत में यूरिया खाद डालें.

* सुनहरी हलदी और खुशबूदार अदरक की बोआई के लिए मार्च का महीना मुफीद होता है. बोआई के लिए हलदी व अदरक की स्वस्थ गांठों का इस्तेमाल करें. इन गांठों की बोआई 50×25 सेंटीमीटर की दूरी पर करें.

* बीते महीने के दौरान बोई गई लोबिया, भिंडी व राजमा के खेतों का जायजा लें. अगर खेत सख्त व गंदा लगे तो निराईगुड़ाई कर के उसे दुरुस्त करें. निराईगुड़ाई के बाद सिंचाई करना न भूलें. इस से फसल को काफी फायदा होता है. सिंचाई के बाद टाप ड्रेसिंग के लिहाज से यूरिया का इस्तेमाल करें.

* मार्च में हरी मटर कम होने के साथसाथ दाने वाली मटर की फसल तैयार हो जाती है. अगर मटर की फलियां सूख कर पीली पड़ जाएं, तो उन की कटाई कर लेनी चाहिए. गहाई करने के बाद मटर के दानों को इतना सुखाएं कि सिर्फ 8 फीसदी नमी ही बचे.

* वैसे तो ज्यादातर किसान बैगन की रोपाई का काम फरवरी तक निबटा लेते हैं, लेकिन मरजी हो तो यह काम मार्च में भी कर सकते हैं. बैगन की रोपाई के बाद सिंचाई करें, इस से पौधे सही तरीके से लग जाते हैं.

* फरवरी में लगाए बैगन के पौधे महीने भर में काफी बढ़ जाते है, लिहाजा उन की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालना जरूरी होता है.

* इस महीने याद से आम के बागों की खोजखबर ले लेनी चाहिए. इस दौरान हापर कीट व फफूंद से होने वाले रोगों का डर बढ़ जाता है. इन रोगों का अंदेशा लगे, तो कृषि वैज्ञानिकों से पूछ कर इलाज करना चाहिए.

* आम के अलावा मार्च में अमरूद के बागों की देखभाल भी जरूरी होती है. इस दौरान अमरूद के पेड़ों में तनाबेधक कीट का प्रकोप हो सकता है. ऐसा होने पर कृषि वैज्ञानिकों से पूछ कर इलाज करना चाहिए.

* इस महीने पपीते के बीज नर्सरी में बोएं ताकि पौध तैयार हो सकें. अगर पहले बीज बो चुके हैं, तो इन के पौध अब तक तैयार हो गए होंगे. जगह के मुताबिक पपीते के पौधों की रोपाई कर सकते हैं या उन्हें दूसरे बागबानों को बेच सकते हैं.

* अपने बाग के अंगूर के गुच्छों को फूल खिलने के दौरान जिब्रेलिक अम्ल के 50 पीपीएम वाले घोल में बेल में लगे हुए ही डुबोएं. ऐसा करने से अंगूर स्वस्थ रहते हैं.

* अगर अंगूर की फसल में रोगों व कीटों का हमला नजर आए तो कृषि वैज्ञानिक की सलाह से जरूरी इलाज करें.

* अपने आम, अमरूद और पपीता वगैरह के बगीचों की ठीक से सफाई करें. उन में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें व खाद डालें. इस बारे में कृषि वैज्ञानिकों से भी राय लें.

* फूलों की खेती में दिलचस्पी रखने वाले किसान इस महीने रजनीगंधा व गुलदाउदी की रोपाई करें. रोपाई करने के बाद बाग की हलकी सिंचाई करना न भूलें.

* जाती सर्दी व आती गरमी के मार्च महीने में गायभैंसों को अकसर अफरा की शिकायत हो जाती है, लिहाजा इन्हें फूली हुई बरसीम न खाने दें. जरूरत के मुताबिक पशुओं का इलाज कराएं.

* मार्च में मवेशियों को सर्दी से तो नजात मिल जाती है, पर उन के मामले में लापरवाह न बनें. उन के रहने की जगह पर उम्दा कीटनाशक दवा छिड़कें.

* सर्दी से नजात पाए मवेशियों की सफाई का बदसतूर खयाल रखें. खासकर भैंसों के शरीर के फालतू बाल कटा दें.

* अगर भेड़बकरियां पाल रखी हों तो उन्हें पेट के कीड़े मारने की दवा खिलाएं.

* अपनी गायभैंसों को भी शिड्यूल के मुताबिक पेट के कीड़ों की दवा खिलाएं.

* गरमी में दूध की किल्लत बढ़ जाती है, ऐसे में अपनी गायभैंसों को हीट में आते ही डाक्टर के जरीए गाभिन कराना न भूलें ताकि दूध की कमी न होने पाए.

* मार्च से अंडों की खपत में कुछ गिरावट आती है, पर अपनी मुरगियों का खयाल कायदे से रखें.

जल की रानी बनाएगी राजा

आजकल देशविदेश में बिहार की पहचान बन चुकी मछलियों की पैदावार बढ़ा कर राज्य को मछली उत्पादन के मामले में अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद शुरू की गई है. मछली को ‘जल की रानी’ कहा जाता है और मछली उत्पादक अब मछलीपालन कर के राजा बनने की राह पर चल पड़े हैं. बिहार में मछली की सालाना खपत 6 लाख टन है, जबकि सूबे का अपना उत्पादन 4 लाख 70 हजार टन है. बाकी मछलियों को दूसरे राज्यों से मंगवाया जाता है.

झींगा मछली : सूबे के जलजमाव वाले इलाकों में झींगा मछली का बेहतर उत्पादन हो सकता है. पहले फेज में उत्तर बिहार के पूर्णियां, कटिहार, सहरसा, अररिया, मधेपुरा और किशनगंज जिलों के जलजमाव वाले इलाकों में झींगापालन योजना की शुरुआत की गई है. बिहार में झींगा की माइक्रो ब्रेकियम रोजाबर्गी और माइक्रो विलियम मालकम सोनी नस्लों का काफी बढि़या उत्पादन हो सकता है. राज्य में हर साल 30 से 50 टन झींगा मछली की खपत होती है और इस की कीमत 500 से 700 रुपए प्रति किलोग्राम है.

मधुबनी जिले के रहिका गांव के मछली उत्पादक सुजय राय बताते हैं कि 1 हेक्टेयर क्षेत्र में झींगापालन करने में 2 लाख 80 हजार रुपए तक की लागत आती है. तालाब में बीज डालने के तुरंत बाद मत्स्य निदेशालय में अनुदान के लिए आवेदन करने पर 1 लाख 40 हजार रुपए झींगापालकों को मुहैया किए जाएंगे.

मांगुर मछली : बिहार की मांगुर मछली की दूसरे राज्यों में खासी मांग है. इस वजह से पिछले कुछ सालों में मांगुरपालन काफी मुनाफा देने वाला धंधा बन गया है. बाजार में वायुश्वासी मछलियों की काफी मांग है, जिन में मांगुर भी शामिल है. बिहार सरकार ने मांगुर को राजकीय मछली का दर्जा दिया है.

मांगुर मछली में आयरन की मात्रा बहुत होती है, जिस से कई बीमारियों में फायदा होता है. इस का स्वाद भी बाकी मछलियों से बेहतर होता है.

राष्ट्रीय मत्स्यिकी विकास बोर्ड द्वारा मांगुर मछली के पालन के लिए सहायता दी जा रही है. मछलीपालकों द्वारा छोटेछोटे तालाब इस्तेमाल कर के इस का पालन किया जा सकता है. कृषि वैज्ञानिक बीएन सिंह ने बताया कि मांगुर मछली के बीज उत्पादन के लिए किसान आगे आ रहे हैं. इस का बीज सस्ती कीमत पर बाजार में मौजूद है. कम पूंजी और मेहनत में मांगुर मछली भरपूर मुनाफा देती है.

जयंती रोहू : बिहार में रोहू मछली की नई किस्म जयंती रोहू से मछलीपालकों  की आमदनी में कई गुना इजाफा होने की उम्मीद है. इस का उत्पादन बढ़ने से दूसरे राज्यों से मछली मंगाने की मजबूरी कम हो सकेगी. केंद्रीय मीठाजल मत्स्य अनुसंधान संस्थान की ताजा रिसर्च का परीक्षण कामयाब रहा है. परीक्षण में पाया गया कि साधारण रोहू की तुलना में इस का वजन डेढ़ गुना ज्यादा होता है.

राज्य सरकार किसानों को इस नई किस्म की मछली का बीज मुहैया कराएगी. इस मछली का रंग सुनहरा होता है और स्वाद सामान्य रोहू से काफी अच्छा होता है. राज्य के सभी इलाकों के तालाबों में जयंती रोहू का उत्पादन किया जा सकता है. साधारण रोहू के मुकाबले इस का वजन बहुत तेजी से बढ़ता है.

पंगेसियस मछली : पंगेसियस मछली के उत्पादन से मछलीपालकों की बल्लेबल्ले हो सकती है. मीठे पानी में पंगेसियस मछली का वजन काफी तेजी से बढ़ता है और यह 8 महीने में ही डेढ़ किलोग्राम की हो जाती है. यह मछली भारतीय मछली की तुलना में 5 गुना ज्यादा तेजी से बढ़ती है.

1 हेक्टेयर क्षेत्र में पंगेसियस मछली के उत्पादन में 5 लाख रुपए का खर्च आता है. इस में 60 हजार रुपए मछली के बीज पर और 4 लाख 40 हजार रुपए मछली के भोजन पर खर्च होते हैं. मत्स्य संसाधन विभाग मछलीपालकों को 1 हेक्टेयर क्षेत्र में 1000 किलोग्राम के बजाय ढाई हजार किलोग्राम मछली उत्पादन के लिए जागरूक कर रहा है. पिछले साल 168 किसानों ने 126 हेक्टेयर में पंगेसियस मछली का पालन किया था और 1117 मीट्रिक टन मछली की पैदावार हुई थी.

पशु एवं मत्स्य संसाधन मंत्री अवधेश कुमार सिंह कहते हैं कि पूर्वी और पश्चिमी चंपारण से कतला और रोहू मछली नेपाल भेजी जा रही हैं, जबकि दरभंगा में पैदा की जाने वाली बुआरी और टेंगरा मछलियां भूटान में खूब पसंद की जाती हैं. वहीं भागलपुर और खगडि़या जिलों में पैदा की जाने वाली मोए और कतला मछलियां सिलीगुड़ी भेजी जा रही हैं. चंडीगढ़ और पंजाब के व्यापारी मुजफ्फरपुर और बख्तियारपुर से बड़ी तादाद में मछलियां मंगा रहे हैं. मंत्री का मानना है कि बिहार की मछलियों का लाजवाब जायका दूसरे राज्यों और तमाम देशों के लोगों को दीवाना बना रहा है. इस से जहां बिहार की मछलियों की मांग बढ़ रही है, वहीं उत्पादकों को ज्यादा कीमत भी मिल रही है. इस से मछली के उत्पादन में तेजी से इजाफा हो रहा है.

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