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कपूर एंड संसः चार दीवारी के अंदर रिश्तों की कश्मकश

लंबे समय से फिल्मों में परिवार गायब हो गया था. पर ‘प्रेम रतन धन पायो’ के बाद अब निर्माता करण जोहर और निर्देशक शकुन बत्रा भी अपनी नई फिल्म ‘‘कपूर एंड संस’’ में एक परिवार लेकर आए हैं. जिसमें कुछ भी नयापन नही है. वैसे भी फिल्म की कहानी ऐसे उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की है, जिसके दोनो बेटे न्यू जर्सी और लंदन में रहते हैं. ऐसे परिवार महानगरों में ही मिल सकते है. निर्देशक शकुन बत्रा के अलावा फिल्म से जुड़े कलाकारों फवाद खान, सिद्धार्थ मल्होत्रा और आलिया भट्ट ने दावा किया है कि इस फिल्म के उनके पात्रों के साथ हर इंसान रिलेट करेगा. मगर छोटे शहरों या कस्बों व गांवों में रहने वाले लोग खुद को अर्जुन कपूर, राहुल कपूर या टिया के साथ रिलेट कर पाएंगे? इस फिल्म को देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या आज की युवा पीढ़ी सेक्स के अलावा कुछ सोचती ही नही है. हमें ऐसा नहीं लगता. वैसे फिल्मकार के अनुसार यह रोमांटिक कामेडी ड्रामा फिल्म है.

फिल्म की कहानी चार दीवारी के अंदर बिखरे हुए परिवार की है. जिसके मुखिया अमरजीत कपूर उर्फ दादू (ऋषि कपूर) हैं, जिनके दो बेटे हैं – हर्ष कपूर और हरी. हरी का पूरा परिवार किसी अन्य जगह रहता है. जबकि हर्ष अपनी पत्नी सुनीता कपूर (रत्ना पाठक शाह) के साथ दादू के साथ रहते हैं. हर्ष के दोनो बेटे राहुल कपूर (फवाद खान) और अर्जुन कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) पिछले पांच साल से न्यू जर्सी और लंदन में रह रहे हैं. राहुल एक स्थापित लेखक है, जबकि अर्जुन लेखक बनने के लिए संघर्ष रत है. दादू को हार्ट अटैक आता है. इस खबर को सुनकर राहुल कपूर और अर्जुन कपूर अपने भारत में अपने पैतृक गांव कुन्नूर पहुंचते हैं. राहुल और अर्जुन के बीच शीतयुद्ध की स्थिति है. क्योंकि अर्जुन को लगता है कि उसके भाई राहुल ने उसकी कहानी चुराकर अपने नाम से छपवा कर शोहरत बटोर ली. पर दोनो भाई अपने दादू की खुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं.

इधर हर्ष और उसकी पत्नी सुनीता के बीच भी कई तरह के मतभेद हैं. कहानी में कई उतार चढ़ाव व मोड़ आते हैं. राहुल और अर्जुन अलग अलग परिस्थितियों में टिया (आलिया भट्ट) से मिलते हैं. बाद में टिया की ही वजह से राहुल और अर्जुन के बीच झगड़ा हो जाता है. उधर राहुल को पता चल जाता है कि उसकी मां सुनीता का शक सही है. उसके पिता हर्ष का किसी अन्य महिला के संग संबंध है. इतना ही यह राज भी सामने आता है कि अर्जुन की ही कहानी राहुल के नाम से छपी थी. सुनीता कबूल करती हैं कि उसने खुद ही अर्जुन की लिखी कहानी को चुराकर अपने ‘परफैक्ट बच्चा’ यानी कि राहुल को दी थी. पर राहुल को सच नही पता था. अर्जुन को लगता है कि राहुल का टिया से संबंध है. जबकि राहुल ‘गे’ है. उसे किसी भी लड़की में कोई रूचि नही है. पर वह इस सच को परिवार के लोगों से छिपाकर रखता आया है. वह सभी से झूठ बोलता रहा है कि न्यू जर्सी में उसकी गर्ल फ्रेंड है.

दादू की इच्छा के चलते परिवार तस्वीर के लिए जब परिवार के सभी लोग इकट्ठा होते हैं, तो सब के बीच ऐसे झगड़े होते हैं कि तस्वीर नहीं खिंच पाती है और गुस्से में घर से निकले हर्ष की कार दुर्घटना में मौत हो जाती है. एक माह बाद सभी अपने अपने गंतव्य को वापस चले जाते हैं. कुछ समय बाद फिर दादू के कहने पर वापस आते हैं. इस कहानी के बीच में टिया की भी कहानी है कि उसने अपने 13वें जन्मदिन पर विदेश से वापस आ रहे अपने माता पिता को बुरा भला कह दिया था, जो उसी दिन उसके जन्मदिन पर उसके साथ होने के लिए आते समय हवाई जहाज दुर्घटना में मारे गए थे. टिया को गम है कि वह अपने माता पिता से माफी भी नही मांग पायी थी.

फिल्म इंटरवल से पहले ऋषि कपूर की वजह से ठहाके लगाते हुए बीत जाती है. पर इंटरवल के बाद फिल्म की गति धीमी हो जाती है. वैसे शकुन बत्रा ने चार दीवारी के अंदर परिवार के सदस्यों के बीच की आपसी अनबन को बेहतर तरीके से चित्रित किया है. रिश्तों की कश्मकश भी सही अंदाज में उभरकर आती है. करण जोहर निर्मित फिल्म में ‘गे’ यानी कि समलैंगिक पात्र का होना अनिवार्य शर्त सी बनती जा रही है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो बड़े भाई व अपने माता पिता के ‘‘परफैक्ट बच्चा’’ के  किरदार में फवाद खान ने काफी अच्छा अभिनय किया है. ऋषि कपूर के अभिनय पर तो कोई सवाल उठाया ही नहीं जा सकता. वह इस फिल्म की जान हैं. आलिया भट्ट, सिद्धार्थ मल्होत्रा, रजत कपूर व रत्ना पाठक शाह ने अपने किरदारों को ठीक से निभाया है.

दो घंटे बीस मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘कपूर एंड संस’’ का निर्माण ‘‘धर्मा प्रोडक्शंस’’ के बैनर तले किया गया है. निर्देशक शकुन बत्रा, संगीतकार अमाल मलिक हैं.

 

दिन दहाड़े

मेरे भैयाभाभी अपने बेटे के लिए लड़की की तलाश में थे. कहीं भी बात न बनने के कारण उन्होंने न्यूजपेपर में 2-3 बार वैवाहिक विज्ञापन दिया. इस के 1 महीने बाद एक फोन आया और वे लोग घर का पता और लड़के के बारे में जानकारी लेने लगे. भाई ने सोचा कि विज्ञापन देख कर फोन किया होगा, उन्होंने अपना पता और विवरण दे दिया. इस के 1 घंटे बाद एक दंपती ने दरवाजे पर दस्तक दी और बताया कि वे बरेली से आए हैं. यहां उन का एक रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है और वे उसे देखने आए थे. उन्होंने पेपर में हमारा विज्ञापन देखा था तो सोचा दोनों काम हो जाएंगे.

बोलचाल में वे भले इंसान लग रहे थे, इसी कारण भाभी ने भी उन की अच्छी खातिरदारी की. उन्होंने घर देखा, लड़के से भी मिले और आगे की बात पक्की करने के लिए अपना फोन नंबर और पता दे कर अगले दिन फोन करने की बात कह कर रुखस्त होने लगे. जाने से पहले बोले, ‘‘बहनजी, आप को एक तकलीफ दे रहे हैं. असल में आते समय किसी ने मेरी जेब से पर्स निकाल लिया और हमें पता नहीं लगा. अब यहां आते समय जब रिकशा वाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला तो पर्स नहीं था. अगर आप को तकलीफ न हो तो 2 हजार रुपए दे दीजिए, हम अगली मुलाकात में हिसाब कर लेंगे.’’ मेरी भाभी ने उन्हें रुपए दे दिए और वे चले गए. अगले दिन उन का कोई फोन नहीं आया. फिर जब भाभी ने उन के दिए नंबर पर फोन किया तो ‘यह नंबर मौजूद नहीं है’ का संदेश आता रहा. दिन, हफ्ते और महीने बीत गए इस बात को, उन का कहीं पता नहीं चला. मेरी भाभी लड़की की तलाश के चक्कर में दिन दहाड़े ठगी गईं.

मधु गोयल, गाजियाबाद (उ.प्र.)

*

शहर में प्रदर्शनी लगी हुई थी जिस में विभिन्न स्थानों से आए हस्तशिल्प, कारीगर, कपड़े आदि की दुकानें लगी हुई थी. मैं भी एक दिन प्रदर्शनी देखने गई. वहां साडि़यों की भी कई दुकानें थीं. मुझे एक दुकान में रखी साड़ी बहुत पसंद आई. मैं ने दुकानदार से कीमत पूछी तो उस ने मुझे 800 रुपए बताए. मैं ने मोलभाव किया और अंत में वह दुकानदार 500 रुपए में साड़ी देने को तैयार हो गया. मैं खुशीखुशी साड़ी ले आई. कुछ दिनों बाद मेरी कामवाली बाई भी प्रदर्शनी देखने गई और उस ने घर आ कर मुझे बताया कि मेरी जैसी साड़ी उस ने भी खरीदी है, वह भी 200 रुपए में. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ परंतु उस ने मुझे साड़ी ला कर दिखाई. मैं तो हतप्रभ थी, इतनी ठगी वह भी दिनदहाड़े.

वंदना मानवटकर, सिवनी (म.प्र.) 

मैन इज अ लाफिंग एनीमल

हास्य कलाकार कपिल शर्मा के कौमेडी शो ‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ के शटर बंद होने के बाद दर्शकों की आई तीखी प्रतिक्रिया संकेत है कि हास्य की नियमित खुराक लोगों के लिए कितनी जरूरी है. आज सब को हास्य की कितनी शिद्दत से तलाश है, इस का प्रमाण उन सिनेमाघरों के समक्ष लंबीलंबी कतारें देख कर सहज ही लग जाता है जहां हास्य फिल्में चल रही होती हैं. अंगरेजी में मशहूर कहावत है, ‘मैन इज अ लाफिंग एनीमल’. यानी मनुष्य एक हंसने वाला प्राणी है.

दुनिया में हंसने का हुनर करोड़ों जीवों में सिर्फ हमें ही हासिल है. ऐसे में रोजमर्रा की बातों पर हंसीठिठोली और हलकेफुलके मजाक, जो रिश्तों में माधुर्य ही घोलते हैं, से चिढ़ने की जरूरत क्या है.

कुछ सामाजिक सिरफिरे होते हैं जिन्हें हास्य से पता नहीं क्यों ऐतराज रहता है. कुछ लोगों की ऐसी ही कारस्तानी के चलते दर्शकों को हंसाहंसा कर उन का मूड दुरुस्त करने वाले पलक यानी कीकू शारदा को अरैस्ट होना पड़ा. डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म ‘एमएसजी-टू’ के एक सीन को हंसोड़ अंदाज में पेश करने के लिए बेचारे को पुलिस के चक्कर में फंसाने वाले भूल गए कि इस तरह के कलाकार सिर्फ हंसी का सामान बांटते हैं, ये कोई अपराधी नहीं हैं. वैसे भी भारत में हास्य परंपरा आज की तो है नहीं. इस तरह के शो में पहले भी बड़े फिल्म कलाकारों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ले कर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पर हास्य कसा जाता है. ऐसे में ‘एमएसजी-टू’ जैसी फिल्म जो खुद राम रहीम की इमेज को रजनीकांत (फिल्म में राम रहीम एक मुक्के से हाथी को हवा में उड़ा देते हैं और एक हाथ से सैकड़ों तीरों को हवा में रोकने जैसे चमत्कारी स्टंट्स को अंजाम देते हैं) सरीखी पेश करती है, पर हास्य करना बड़ी बात नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन हमारे यहां तो धर्म का नशा अफीम से भी ज्यादा तेज है, लिहाजा, राम रहीम के बुरा लगने से पहले ही उन के अंधभक्तों, समर्थकों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं.

भाभीजी और रिश्तों की ठिठोली

पड़ोसी और भाभीजी के रिश्तों को बड़े चुटीले और मनोरंजक अंदाज में पेश करते धारावाहिक ‘भाबीजी घर पर हैं’ की बढ़ती लोकप्रियता से अंदाजा हो जाता कि लोगों में हास्य बोध तो बचा है, बस, जरूरत है उसे अपने आम जीवन और व्यवहार में उतारने की. धारावाहिक में आम दिनों की बोलचाल वाले तकियाकलाम बड़े मजेदार हैं, जैसे अंगूरी भाभी का गलत अंगरेजी बोलने पर ‘सही पकड़े हैं’, मनोज तिवारी का ‘हट पगली’, अनोखे लाल सक्सेना का ‘आई लाइक इट’, अंगूरी के पिता का ‘खचेडू कहां है’, दारोगा हप्पू सिंह का ‘जे का हो रओ है/कसम से बहुत बड़ी चिरांध हो तुम’ और अम्माजी का फोन पर ‘ए बहुरिया, ओ बैल कहां है.’ ये तमाम बातें हम अपने सामाजिक दायरे में कभी न कभी जरूर सुनते हैं. और उन्हीं से जुड़ कर हम धारावाहिक में दिखाए जा रहे किरदारों से भी जुड़ जाते हैं.

इसी तरह ‘लापतागंज’ और ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ धारावाहिक भी एक सोसायटी के कुछ किरदारों के जरिए हमारी रोजमर्रा की सामाजिक गतिविधियों को हंसी के कलेवर में पेश करते हैं. दरअसल, हमारा समाज भी कभी ऐसा ही था. गांवकसबों में तो आज भी ऐसा ही है. जहां भाभी व देवर की होली या दूसरे त्योहारों में चुहलबाजी स्वस्थ मानी जाती है. पड़ोसी का भाभी से हलकाफुलका मजाक और चौपालों व नुक्कड़ों में हर गंभीर मसले को हंसी में उड़ाने की परंपरा रही है.

सामाजिक विसंगतियां 

हास्य का समाजशास्त्र बताता है कि हास्य सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाता है. हास्य जहां एक ओर समाज की विसंगतियों की मरम्मत करता है वहीं दूसरी ओर वह इंसान की तनावग्रस्त व आक्रामक परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सेतु का कार्य भी करता है. होली, दीवाली व दशहरा जैसे उत्सवों पर हास्य की अभिव्यक्ति के उदाहरण हमें स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ते हैं. भारत में हास्य की परंपरा चौपालों और पनघटों से चल कर हास्य कवि सम्मेलनों तक पहुंची. एक जमाने में बड़ेबड़े राजामहाराजा स्वांग, नौटंकी के शौकीन थे. दरबार में तनाव दूर करने के हंसोड़ कलाकारों की नियुक्ति करते थे. अकबरबीरबल की हाजिरजवाबी के किस्सों से अगर हास्यबोध निकाल दें तो क्या बचेगा. इसी तरह तेनालीराम से ले कर पंचतंत्र आदि साहित्य अपने चुटीले हास्य के चलते आज भी पसंद किए जाते हैं.

सोशल मीडिया भी काफी हद तक हास्य के कंधे पर सवार हो कर ही इतनी पहुंच बना सका है. समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में सालों से प्रकाशित व्यंग्य, कार्टून, हर बड़ी हस्ती को मजाक की चाशनी में लपेट कर कटाक्ष करते आए हैं और सब ने खुले दिल से इस पर मुसकराहट बिखेरी है.

मनुष्य को पशुओं से इतर बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि के साथ हास्य का जो तोहफा मिला है उसे यों ही जाया जाने देना मूर्खता होगी. लेकिन अब हम हास्य से इतना चिढ़ने क्यों लगे हैं, क्यों हम हर बात पर गंभीर हो जाते हैं, हास्य से इतना परहेज आखिर किसलिए?

खुद पर हंसना सीखें

‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ नामक टैलीविजन धारावाहिक में डाक्टर साहब जरूरत से ज्यादा मोटे हैं. लेकिन कोई उन के मोटापे का मजाक उड़ाए उस से पहले ही उन्होंने अपना नाम हाथीभाई रख लिया है. जब उन्हें खुद ही अपने पर हंसना आता है तो जाहिर है कोई उन का क्या मजाक उड़ाएगा. हास्य से चिढ़ने वाले को भी यही सीखना होगा. जो लोग खुद पर हंसना सीख जाते हैं उन पर किसी के मजाक का असर नहीं होता.

कोई आप का मजाक तब तक ही उड़ाता है जब तक आप इस मजाक से चिढ़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं. अगर आप भी मजाक में शामिल हो कर खुद पर ठहाका लगाना सीख लें तो कभी भी मजाक से दूर नहीं भागेंगे. मशहूर हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन भी इसी सिद्धांत पर चलते थे. एक बार उन्होंने कहा था, ‘जब मुझे रोना आता है तो मैं बारिश में खड़ा हो जाता हूं और बारिश में किसी को आंसू नजर नहीं आते.’ अपनी फिल्मों में सब से ज्यादा मजाक वे खुद का उड़ाते थे. यही वजह है कि उन के हास्य की प्रासंगिकता आज भी जस की तस है. इस मामले में आलिया भट्ट से सबक लेने की दरकार है. आलिया ने करन जौहर के शो में भारत के राष्ट्रपति का नाम पृथ्वीराज चव्हाण बताया था. इसी के बाद आलिया भट्ट के नाम से जोक्स भी चलने लगे. उन के आईक्यू, सामान्य ज्ञान और मूर्खता को ले कर सोशल मीडिया में जम कर चुटकुलेबाजी हुई. इस बात पर चिढ़ने या किसी पर मानहानि का दावा ठोकने के पहले आलिया ने एक वीडियो के जरिए खुद का मजाक बनाया और अपने आत्मविश्वास का परिचय दे कर सब का मुंह बंद कर दिया.

मर्ज, मजाक और इलाज

कैलिफोर्निया के लिंडा विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ताओं-लीवर्क और डा. स्टेनलेटैन का निष्कर्ष यह है कि हास्य की क्रिया रक्तचाप को कम करती है, तनाव पैदा करने वाले हार्मोंस के स्तर को घटाती है. शोध बताते हैं कि हंसीमजाक कई मर्जों की दवा है, फिर भी हास्य को ले कर समाज में उदासीनता दिखाना समझ से परे है. डिप्रैशन के चलते लोग मानसिक व्याधियों की चपेट में आ रहे हैं. मजे की बात तो यह है कि हंसना भूल चुके लोगों को डाक्टर्स और मनोवैज्ञानिक लाफिंग थैरेपी और लाफिंग क्लब जौइन करने का सुझाव दे रहे हैं. हास्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए बड़ेबड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हंसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्यविनोद की व्यवस्था मुहैया कराई जाती है.

हमारे गंभीर होने की आदत, सैंस औफ ह्यूमर की कमी और हर मजाक को ले कर उग्र हो जाने के रवैये ने जिंदगी में न सिर्फ हास्यरस कम कर दिया है बल्कि हमें मानसिक तौर पर तनावग्रस्त व नीरस बना दिया है.

सैंस औफ ह्यूमर

उदाहरण के तौर पर इस चुटकुले को ही लीजिए :

संतो और बंतो, अपने पतियों के बारे में बात कर रही थीं.

संतो ने कहा, ‘विधवाएं हम से बेहतर हैं.’

बंतो, ‘वह कैसे?’

संतो, ‘कम से कम उन्हें यह तो पता होता है कि उन के पति कहां हैं.’

इस जोक को हास्यबोध से सुनें, समझें और हंसें तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन अगर सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करना है तो इस पर संतोबंतो समेत तमाम विधवा समाज भी आहत होने की बात कर सकता है. यहां तो हमें खुद फैसला करना है कि हास्य को स्वस्थ मनोरंजन की तरह लें या फिर… इस मसले पर वरिष्ठ लेखक खुशवंत सिंह बड़े दिलचस्प अंदाज में कहते थे, ‘सिखों के बारे में सरदारजी के नाम के चुटकुले सब से ज्यादा हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं फिर भी इन्हें बिना दिमाग वाला कहा जाता है.’ मजे की बात यह है कि ऐसे ज्यादातर चुटकुले सिख कौम के लोग ही बनाते हैं. जातबिरादरी को ले कर गढे़ गए चुटकुले भले ही आमतौर से अच्छे नहीं समझे जाते लेकिन दुनियाभर में इन चुटकुलों की भरमार है. चुटकुलों का लक्ष्य हमेशा वह समुदाय होता है जो देश में दूसरों से बेहतर होता है या कहें तरक्की कर चुके तबके से ईर्ष्या के प्रतिरूप इस तरह के चुटकुले बनते हैं. अपनेआप पर वही हंस सकता है जिस में आत्मविश्वास होता है.

दुख की बात है कि यह आत्मविश्वास अब न सिर्फ सिख समाज, बल्कि समाज का हर तबका खो चुका है, बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने किसी समुदाय का मजाक उड़ाने वाले चुटकुलों को ले कर गाइडलाइन बनाने की संभावना पर विचार करने को कहा है. गौर करने वाली बात यह है कि अगर सिख समुदाय पर संताबंता जोक्स सिर्फ इस आधार पर बैन कर दिए जाते हैं तो फिर हर तरह के जोक्स बंद होने चाहिए. क्योंकि कई तरह के जोक्स यूपी, बिहार और उत्तरपूर्व के लोगों पर केंद्रित होते हैं. न सिर्फ संताबंता बल्कि,  पतिपत्नी, टीचरस्टूडैंट, पड़ोसी, जीजासाली और इस तरह से किसी भी जाति या वर्ग विशेष को निशाना बनाने वाले जोक्स पर गौर कीजिए, कहीं न कहीं, किसी न किसी की भावना आहत हो ही रही होगी. हम अंगरेजों, विदेशियों को ले कर भी मजाक बनाते हैं. क्या अदालतों में इन्हें बैन करने को ले कर भी  याचिका डाल देनी चाहिए? इस तरह से हास्य और जोक्स के नाम पर शून्य ही बचेगा. दरअसल, हास्य किसी खास धर्मसमुदाय के अपमान के लिए, बल्कि मनोरंजन के लिए मजाकिया तौर पर प्रयोग किया जाता है और इसे हलकेफुलके हास्य की तरह ही लेना चाहिए.

गोल्डन केला और रैस्बेरी अवार्ड

अमेरिका के फिल्म उद्योग में सैंस औफ ह्यूमर को खासी तरजीह मिलती है. इसीलिए वहां बाफ्टा, एकेडमी अवार्ड्स को ले कर जितनी उत्सुकता देखने को मिलती है, उतनी उत्सुकता गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स में भी मिलती है. बता दें कि हौलीवुड के मनोरंजन जगत में गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स के जरिए साल के सब से खराब सिनेमा, अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक आदि को ट्रौफी दी जाती है. इसी की नकल पर भारत में कई सालों से गोल्डन केला अवार्ड्स साल की सब से खराब और हंसी का पात्र बनी फिल्मों को पुरस्कृत किया जाता है. यह मनोरंजन का एक जरिया माना जाता है. जैसे कि हमारे यहां आज भी कई इलाकों में महामूर्ख सम्मेलन में चुने हुए लोगों को सम्मानित किया जाता है.

गीतकार और स्टैंडअप आर्टिस्ट वरुण ग्रोवर एक ऐसे ही अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं. उन्होंने एक दफा भारतीयों के ड्राइविंग और ट्रैफिक के दौरान हौंक यानी तेज आवाज में हौर्न बजाने की आदत पर कटाक्ष किया तो दर्शकदीर्घा में बैठे एक सज्जन ने उन्हें यहां तक कह डाला कि भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए शर्म नहीं आती. वरुण के मुताबिक, हम भारतीय कभीकभी मजाक की बात को भी गंभीरता से ले कर उग्र हो जाते हैं जबकि डार्क ह्यूमर और ब्लैक कौमेडी में इतना तो चलता है. हमारे यहां लोग हंसना तो चाहते हैं, कमी है तो सिर्फ कौमन सैंस और सैंस औफ ह्यूमर की.

मजाक उड़ाना बनाम बनाना

मिमिक्री आर्टिस्ट और टीवी कलाकार सुगंधा मिश्र को लता मंगेशकर की बेहतरीन मिमिक्री के लिए जाना जाता है. लेकिन जब हाल में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यही ऐक्ट दोहराया तो कुछ लोगों ने तीखी आलोचना की. हालांकि लताजी का सैंस औफ ह्यूमर ज्यादा बेहतर निकला. इसलिए उन्होंने मामले को हंसी में लेते हुए कहा, यह आजाद देश है और हर कोई अपना व दूसरों का मनोरंजन करने के लिए स्वतंत्र है. इस बाबत मशहूर स्टैंडअप आर्टिस्ट राजू श्रीवास्तव कहते हैं, जरा सोचिए भारत में सैकड़ों मिमिक्री आर्टिस्ट हैं, जिन को देखते ही दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाते हैं. उन के द्वारा की गई सितारों की नकल के जरिए ही हम कई पुराने कलाकारों के अंदाज से वाकिफ होते हैं वरना नई पीढ़ी को आज भी पुरानी पीढ़ी के कई बड़े कलाकारों के नाम और शक्ल तक याद नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी एक कार्यक्रम में विरोधियों पर व्यंग्य कसते हुए कह रहे थे, ‘आप हार्वर्ड से आए होंगे, मैं यहां हार्ड वर्क से पहुंचा हूं.’ हालांकि वे भी जानते हैं कि सोशल मीडिया में विदेशी यात्राओं को ले कर उन की भी कम खिंचाई नहीं होती. शायद, इसलिए वे व्यंग्य कसने के बाद यह कहना नहीं भूले कि मुझे मालूम है कि मेरी इन बातों का मजाक उड़ाया जाएगा.

औफिस में चाहे बौस को ले कर गढ़े गए चुटकुले हों या फिर राजनीति की हस्तियों के नामों पर मौनी बाबा, पप्पू, फेंकू जैसे जुमलों का इस्तेमाल, इन पर चिढ़ने के बजाय हंसना ही चाहिए. हां, जब मजाक की सीमा लांघी जाए तब विरोध दर्ज करना जरूरी है क्योंकि मजाक उड़ाना कई बार मजाक बनाना बन जाता है. फोटोशौप के जरिए सोशल मीडिया में तसवीरों को अभद्र तरीके से जोड़ कर बेहूदा हास्य पैदा करना भी हास्य की शीलता भंग करता है. इस का विरोध होना जरूरी है. इसी तरह चुनावों के दौरान व्यंग्यशैली की आड़ ले कर व्यक्तिगत बयानबाजी भी कहीं से हास्य के दायरे में नहीं आती.  बहरहाल, जिंदगी के प्रति सकारात्मक रुख अपनाइए. हंसने के मौकों की तलाश कीजिए ताकि बोझिल हो रहे पलों को हलका बनाया जा सके.

आईआरसीटीसी को मिली नई जिंदगी

रेल मंत्रालय के सार्वजनिक उपक्रम भारतीय रेल कैटरिंग एवं टूरिज्म कारपोरेशन (आईआरसीटीसी) को रेलमंत्री सुरेश प्रभु की ओर से नई जिंदगी मिल गई है. इस कंपनी को एक दफे फिर से ट्रेनों के साथसाथ स्टेशन परिसर में भी कैटरिंग का हक हासिल हो गया है. सुरेश प्रभु ने वित्तीय साल 2016-17 का रेल बजट पेश करते हुए कहा कि खरीदारों की तसल्ली के लिए खानपान का मुद्दा बेहद खास है. रेलयात्रा से जुड़े ग्राहकों को उम्दा किस्म का खाना मुहैया कराने के लिए खानपान सेवा सिलसिलेवार तरीके से आईआरसीटीसी को सौंपी जाएगी.

आईआरसीटीसी को स्टेशन परिसरों में कैटरिंग की जिम्मेदारी के अलावा ई कैटरिंग के लिए भी तमाम अधिकार मिले हैं. पहले इस कंपनी के पास सिर्फ 45 बड़े स्टेशनों पर ई कैटरिंग सेवा देने का ही हक था. अब इस का दायरा बढ़ा कर ए और ए1 दरजे के सभी 408 स्टेशनों तक कर दिया गया है. पहले यह कंपनी सिर्फ उन गाडि़यों में ई कैटरिंग सेवा दे पा रही थी, जिन में पैंट्रीकार नहीं थी. अब कंपनी शताब्दी एक्सप्रेस व राजधानी एक्सप्रेस सहित सभी गाडि़यों में ई कैटरिंग सेवा दे सकेगी. गौरतलब है कि साल 2010 से पहले तमाम ट्रेनों में कैटरिंग सेवा आईआरसीटीसी के पास ही थी, मगर तब की रेल मंत्री ममत बनर्जी ने इसे रोक दिया था.

बासमती चावल में भारत से हारा पाक

बासमती चावल के मामले में भारत को पीछे छोड़ने की पाकिस्तान की कोशिशों को करारा झटका लगा है. आईपीएबी यानी इंटेलैक्चुअल प्रोपर्टी एपीलेट बोर्ड ने पाकिस्तान के बासमती चावल को जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग देने की अपील को खारिज कर दिया है, इसलिए उम्मीद बढ़ी है कि अब भारत के बासमती को जीआई टैग मिल सकता है. बता दें कि लाहौर स्थित पाकिस्तान की बासमती ग्रोवर्स एसोसिएशन ने भारतीय संस्था एपीडा यानी कृषि प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण की अर्जी को चुनौती देने के लिए आईपीएबी का रुख किया था. एपीडा ने भारत के 7 राज्यों पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और उत्तराखंड में उगाए जाने वाले बासमती चावल के लिए जीआई टैग की मांग की थी.

बीजीए यानी बासमती ग्रोवर्स एसोसिएशन ने भारत के बासमती चावल की समग्रता में जीआई टैग दिए जाने की खिलाफत की थी. उस ने दलील दी थी कि चेन्नई में जीआई के असिस्टेंट रजिस्ट्रार ने मध्य प्रदेश के इलाकों में उगाए जाने वाले चावल की क्वालिटी पर सवाल उठाए थे. हालांकि आईपीएबी ने इन दलीलों को खारिज कर दिया था और कहा था कि बीजीए नियमों का पालन करने में नाकाम रहा है 

बता दें कि जीआई टैग खेती में उगाई जाने वाली चीजों, प्राकृतिक या बनी हुई चीजों के लिए जारी किया जाता है, इसलिए इन में अपने भौगोलिक मूल से संबंधित कोई खास बात, क्वालिटी या दूसरी खूबी होनी चाहिए.

अभी तक तो भारत और पाकिस्तान की जंग ज्यादातर क्रिकेट के स्टेडियमों में होने वाले बड़ेबड़े मुकाबलों में ही देखी जाती थी. पर अब बासमती चावल की इस नई जंग से दोनों देशों के बीच एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी है. यहां भी मुकाबला दिलचस्प ही रहा. 

पाकिस्तान में फिल्मों की अहमियत नहीं: मावरा होकाने

विनय सप्रू और राधिका राव की फिल्म ‘सनम तेरी कसम’ में अभिनय कर अभिनेत्री के रूप में पहचान बनाने वाली पाकिस्तानी अभिनेत्री मावरा होकाने का असली नाम मावरा हुसैन है. महज 3 सालों में 14 पाकिस्तानी सीरियलों में अभिनय कर जबरदस्त शोहरत बटोरने वाली मावरा के मातापिता सिडनी में रहते हैं. मावरा अभिनय करने के साथसाथ लंदन में एलएलबी की पढ़ाई भी कर रही हैं. वे अभिनेत्री बनने से पहले मैडिकल की पढ़ाई के अलावा फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई भी कर चुकी हैं. मावरा अभी बौलीवुड में 2 बड़े बैनरों की फिल्में कर रही हैं.

पेश हैं, उन से हुई गुफ्तगू के कुछ अंश:

अभिनय में दिलचस्पी कब और कैसे पैदा हुई?

मैं बहुत छोटी थी जब मैं ने अपनी मां से कहा था कि मुझे ‘मिस यूनिवर्स’ बनना है. उसी वक्त उन्हें पता चल गया कि मुझ में कुछ कर गुजरने का जज्बा है. मैं स्कूल के हर नाटक में अभिनय भी करती थी. 13 साल की उम्र में मैं ने प्रोफैशनल थिएटर में काम किया और मुझे 8 हजार का चैक मिला था. 18 साल की उम्र में मुझे पाकिस्तानी टीवी सीरियल ‘मेरे हुजूर’ में पहली बार अभिनय करने का मौका मिला. इस सीरियल को और मुझे जबरदस्त शोहरत मिली. उस के बाद मेरे पास एक के बाद एक अच्छे सीरियलों के औफर आते चले गए. मैं ने अपने देश के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों और सर्वश्रेष्ठ कलाकारों के साथ काम किया. बहुत मानसम्मान मिला. मैं पाकिस्तान की पहली अदाकाराओं में हूं, जिस ने सब से कम उम्र में और सब से कम समय में अंतर्राष्ट्रीय सीरियलों में अभिनय कर शोहरत बटोरी. अब बौलीवुड की मेरी पहली फिल्म ‘सनम तेरी कसम’ प्रदर्शित हो चुकी है और भारतीयों ने मुझे स्वीकार लिया है.

जब आप को अभिनेत्री ही बनना था, तो फिर डाक्टरी की पढ़ाई करना, उसे बीच में छोड़ कर फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करना और अब एलएलबी कर रही हैं, ये सब क्यों?

मैं अपने पिता और भाई की बहुत शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे हमेशा अपनी मरजी का काम करने की छूट दी. पाकिस्तान में जहां परिवार में पिता व भाई, अपनी बेटी व बहन पर कई तरह की बंदिशें लादते हैं, वहीं मेरे पिता व भाई ने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया. यदि मैं अब भी पढ़ाई कर रही हूं, तो इस का श्रेय मेरे मातापिता को ही जाता है.

एलएलबी की परीक्षा के दौरान मुझे हिंदी फिल्म ‘सनम तेरी कसम’ मिल गई, तो मैं ने परीक्षा नहीं दी क्योंकि मेरे लिए यह फिल्म अति महत्त्वपूर्ण थी. अब फिल्म प्रदर्शित हो चुकी है तो अब मैं एलएलबी की फाइनल परीक्षा दूंगी.

पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां पर लड़कियों व औरतों पर ढेर सारी बंदिशें हैं. आप ने बताया कि आप को पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है. तो क्या अब पाकिस्तान के हालात बदले हैं?

मेरे डैड ने मुझे सिखाया है कि जो करना है, हमेशा उसी पर फोकस करो. यदि आप बुराई देखने जाएंगे, तो बुराई कभी खत्म नहीं होगी. मैं ने हमेशा यही किया. पाकिस्तान में ऐसे हालात आज भी हैं, पर मुझे पाकिस्तान और वहां के लोगों से प्यार है. मैं एकमात्र ऐसी अदाकारा हूं, जिस की कभी पाकिस्तान में आलोचना नहीं हुई.

क्या बौलीवुड से जुड़ने के लिए ‘सनम तेरी कसम’ को सही शुरुआत मानती हैं?

अब जबकि फिल्म सफल हो चुकी है, दर्शकों ने मुझे स्वीकार लिया है, तो मुझे नहीं लगता कि इस से बेहतर कोई फिल्म मेरे लिए हो सकती थी. इस में 7 सुपरहिट गाने हैं. मैं उम्मीद करती हूं कि मेरे बाद दूसरे नए कलाकारों को भी विनय सप्रू व राधिका राव जैसे निर्देशक मिलें.

आप के लिए प्यार की परिभाषा क्या है?

मेरे लिए प्यार कोई इमोशन नहीं है. मेरे लिए प्यार एक जीवनशैली है. मेरे लिए प्यार की परिभाषा यह है कि आप बिना किसी शर्त और स्वार्थ के जहां भी जाएं, प्यार बरसाएं, प्यार बांटें, पर अपनेआप को भी सुरक्षित रखें.

पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री की क्या स्थिति है?

बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती. इस की वजह यह है कि वहां फिल्मों की बजाय सीरियलों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. जबकि भारत में सीरियलों के बजाय फिल्मों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. बौलीवुड फिल्मों में हर अच्छी प्रतिभा काम करती है. इसी तरह पाकिस्तान में हर अच्छी प्रतिभा पहले सीरियल से जुड़ना चाहती है.

बौलीवुड के किन कलाकारों से प्रभावित हैं?

मुझे रणबीर कपूर के साथ काम करना है. जिस माह मैं अपने पहले सीरियल की शूटिंग कर रही थी, उसी माह मैं ने ‘रौक स्टार’ देखी तो यकायक मुंह से निकला था कि काश, मुझे इस कलाकार के साथ काम करने का मौका मिले. मुझे यकीन है कि एक न एक दिन मैं रणबीर कपूर के साथ जरूर फिल्म करूंगी.

हम दोनों की पसंद में समानता है: कुनाल-सोहा

अभिनेत्री सोहा अली खान और अभिनेता कुनाल खेमू बहुत ही सुलझे पति पत्नी हैं. इन दिनों वे हर इवेंट में साथ रहने की कोशिश करते हैं.

पेश हैं, पिछले दिनों उन से हुई मुलाकात के कुछ खास अंश:

आप दोनों का मिलन कैसे हुआ और एकदूसरे की कौनकौन सी खूबियां मन को भा गईं?

सोहा: मुझे कुनाल की स्माइल और आंखें बहुत पसंद आईं. कुनाल को जाननेसमझने में समय लगा. मैं आउट स्पोकेन हूं जबकि कुनाल शांत स्वभाव के हैं. कुछ महीनों बाद ही मैं उन्हें समझ पाई. मैं कुनाल से फिल्म ‘ढूंढ़ते रह जाओगे’ के सैट पर मिली थी. मुझे लगा कि वे औरों से अलग हैं. उस के तुरंत बाद फिल्म ‘99’ की वहां हम ने बातचीत की. मुझे अच्छा लगा कि वे अपनी हर बात पर कायम रहते हैं. उस समय वे 26 वर्ष के थे पर उन की बातें बड़ी मैच्योर थीं. जो कहते थे उसे निभाते भी थे.

कुनाल: मुझे सोहा की आंखें और उस का डाउन टु अर्थ स्वभाव बेहद पसंद आया. उस से बात करने पर पता चला कि मुझे एक अच्छा दोस्त मिल गया है. अब लगता है कि मैं ने अपने करीबी दोस्त से शादी की.

आप दोनों ने आपसी तालमेल बनाए रखने के लिए क्याक्या सीमाएं तय की हैं?

सोहा: किसी भी रिश्ते के स्थायित्व के लिए आपसी तालमेल बहुत जरूरी है. हर व्यक्ति के जीने का अपना अलग स्टाइल होता है. जैसेकि इतने बजे उठना है, काम करना है, घूमने जाना है आदि. ऐसे में अगर आप के जीवन में कोई आए और साथ रहे तो आप को भी थोड़ा बदलना पड़ता है. दोनों की पसंद को ध्यान में रख कर बीच का रास्ता निकालना पड़ता है.

कुनाल: मेरे हिसाब से जब 2 व्यक्ति घर बसाते हैं तो उन्हें एकदूसरे का सम्मान करना आना बहुत जरूरी है. एकदूसरे को सम्मान देना, काम का बंटवारा करना, छोटीछोटी बातों को भी समझना बहुत जरूरी है. जब हमें लगता है कि हमारा रिश्ता हमारे लिए कितना महत्त्वपूर्ण है तब हम सब कुछ करने के लिए राजी हो जाते हैं. मेरे हिसाब से जब व्यक्ति शादी करता है, गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है, तो वह पहले ही यह सोच चुका होता है कि उसे आपस में तालमेल बैठाना है. यही सोच हम दोनों ने भी अपने अंदर लाए.

शादी के लिए पहल किस ने की?

सोहा: हम दोनों 2 साल तक रिलेशनशिप में रहे. दोनों के परिवार वाले चाहते थे कि हम शादी कर लें. मेरी मां तो सब से पहले तैयार थीं. हम दोनों की इच्छा देख कर दोनों परिवार वालों ने खुद ही पहल कर ली और हमारी शादी हो गई.

कुनाल: मेरे परिवार वाले खुश हुए जब मैं ने सोहा की बात उन्हें बताई. खुश होना ही था, क्योंकि मेरी पसंद उन की पसंद रही है.

एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल कैसे रखते हैं?

कुनाल: हम दोनों की पसंद में काफी समानता है, क्योंकि हम बहुत सालों से साथ हैं. दोनों को ही एकदूसरे की पसंदनापसंद का पता है. जिस में हमारी राय एक होती है उसे हम साथ कर लेते हैं. जो पसंद नहीं उसे अलगअलग करते हैं. सोहा शांत स्वभाव की है और मैं गुस्सैल हूं. पर रूठने पर मनाने की पहल मैं ही करता हूं. उसे मैं कैसे मनाता हूं, इसे मैं सीक्रेट ही रखना चाहता हूं.

सोहा (हंसती हुई): कुनाल गुस्सैल जरूर हैं पर जितनी जल्दी गुस्सा आता है उतनी ही जल्दी शांत भी हो जाते हैं. इसीलिए मैं चुप रहती हूं.

एकदूसरे को गिफ्ट देने में कितना विश्वास करते हैं?

कुनाल: गिफ्ट देना बहुत मुश्किल काम होता है. अब तक हम दोनों बहुत सारी चीजें एकदूसरे को दे चुके हैं. मैं किसी और का इंतजार नहीं करता. जिस भी चीज की सोहा को जरूरत होती है, ला देता हूं. इसी वजह से जब कोई खास मौका आता है तो दोनों ही के पास एकदूसरे को देने को कुछ नहीं होता.

सोहा: मुझे उपहार देना और लेना अच्छा लगता है. कुनाल को कैमरा बहुत पसंद है. इस बार मैं उन के जन्मदिन पर जूम लैंस वाला कैमरा दूंगी.

सोहा, आप की मां ने कैरियर और वैवाहिक जीवन में तालमेल बनाए रखा. क्या आप ने उन से इस संबंध में कुछ सीख ली?

मेरी मां ने हमेशा सीख दी है कि खुशहाल रिलेशनशिप के लिए आप पति के ईगो का सम्मान करो. इसी तरह पति को भी पत्नी की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. इस से रिश्ता मजबूत बना रहता है. मैं इस का हमेशा ध्यान रखती हूं.

कुनाल आजकल शादियां बहुत जल्दी टूट रही हैं. ऐसे में आप बेहतर शादीशुदा जीवन बिताने के लिए क्या सुझाव देना चाहेंगे?

विवाह की रस्म दोनों की इच्छा से संपन्न होती है. 2 लोगों के एकसाथ रहने पर थोड़ाबहुत मनमुटाव जरूर होता है. ऐसे में अगर किसी बात को शांति से सोचा जाए तो उस का हल मिल जाता है. आज हर चीज फास्ट हो चुकी है. पहले गाने बड़े बनते थे, अब छोटे बनने लगे हैं. लोग सुनना नहीं चाहते. शांत हो कर एकदूसरे को समय दें तो अच्छाई एकदूसरे में दिखने लगेगी. विवाह को बनाए रखना मुश्किल नहीं. बस इसे बचाए रखने की दोनों की कोशिश होनी चाहिए.                     

हाल ही में सोहा की फिल्म ‘घायल वंस अगेन’ और कुनाल की फिल्म ‘गुड्डू की गन’ प्रदर्शित हुईं, पर दोनों को ही दर्शकों ने औसत दर्जा दिया.

पहरे में सोनोग्राफी मशीन

सुरक्षित प्रसव के लिए सोनोग्राफी मशीन की अहमियत अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है. जच्चाबच्चा की बेहतरी के लिए वरदान साबित होने वाली इस मशीन के इस्तेमाल पर मध्य प्रदेश में एक और नियम लागू कर दिया गया है, जिस से जाहिर यह होता है कि सरकार को गर्भवती महिलाओं की चिंता कम बेमतलब के कायदेकानून बना कर उन पर अमल करने की सनक ज्यादा है. तमाम सरकारी और प्राइवेट नर्सिंगहोम्स में एक सूचना चिपकाना कानूनन अनिवार्य है कि यहां प्रसवपूर्व गर्भ में लिंग परीक्षण नहीं किया जाता. यह कानूनी अपराध है. गर्भ में पल रहा बच्चा लड़का है या लड़की यह जानने का हक मां को है या नहीं और होना चाहिए या नहीं इस पर बहस की काफी गुंजाइश है, लेकिन लिंग परीक्षण को गैरकानूनी करार देने और ऐसी जांच करने वालों को अपराधी मानने के बाद भी सरकार को तसल्ली नहीं हुई तो उस ने और एक नया फरमान जारी कर दिया.

यह फरमान भी पहले के नियमों जैसा अव्यावहारिक और गर्भवती महिलाओं के लिए झंझट खड़ा करने वाला है, जिस के मुताबिक अब गर्भवती महिलाओं को सोनोग्राफी करवाने से पहले एक फार्म जिस का नाम एफ है औनलाइन भरना पड़ेगा. इस फार्म को भरे बगैर अगर सोनोग्राफी होती है तो संबंधित डाक्टर के खिलाफ पीसी ऐंड पीएनडीटी ऐक्ट के उल्लंघन का मामला दर्ज करने के साथ ही उस की मशीन भी सील कर दी जाएगी.

गत जुलाई को जैसे ही गर्भधारणपूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम की राज्य सलाहकार समिति की बैठक में यह फैसला लिया गया वैसे ही अधिकतर प्राइवेट नर्सिंगहोम संचालकों ने अपनी सोनोग्राफी मशीनें डब्बों में बंद कर के रख दीं और कुछ ने तो एक नई तख्ती टांग दी कि यहां सोनोग्राफी की ही नहीं जाती. बहुतों ने बाकायदा लिखित में स्वास्थ्य विभाग को इस बाबत सूचना देने में ही अपनी भलाई और बेहतरी समझी तो बात हैरत की नहीं, बल्कि कई मानों में चिंता की है कि आखिर क्यों सरकार कोख पर इतने पहरे लगाने पर उतारू है कि लोग बच्चा पैदा करने के नाम से ही घबराने लगें.

गर्भवती का कुसूर क्या

फार्म एफ औनलाइन भरवाने का तुक क्या है, यह बात वाकई समझ से परे है जिसे समझाते हुए राज्य के स्वास्थ्य संचालक डा. नवनीत कोठारी की दलील यह है कि इस से सोनोग्राफी क्लीनिकों की निगरानी आसान हो जाएगी.सीधेसीधे कहा जाए तो बात हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण भी है कि गर्भवती महिलाओं को चारे की तरह सरकार इस्तेमाल कर रही है. सोनोग्राफी क्लीनिकों की निगरानी करने के लिए और दूसरे हथकंडे सरकार पहले भी अपना चुकी है, लेकिन कामयाब नहीं हुई तो अब यह बचकानी हरकत, जिस से नुकसान गर्भवती महिलाओं का है, कर रही है. पहली ही नजर में स्वास्थ्य संचालक का बयान इस की पुष्टि भी करता है कि सोनोग्राफी जांच की प्रक्रिया कठिन बनाई जा रही है, जिस से नाजायज मशीनों, क्लीनिकों और नर्सिंगहोमों की गरदन पकड़ी जा सके.

जायजनाजायज की बहस और औचित्य से परे देखें तो तमाम प्रतिबंधों के बाद भी भ्रूण लिंग परीक्षण आम बात है और कानूनी रोक के चलते और महंगा हो गया है. सरकार की मंशा कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाने की है या उसे और बढ़ाने की यह खुद फैसले लेने वाले अधिकारी बेहतर जानते हैं.

यह कानून कैसे लड़केलड़कियों का अनुपात बिगड़ रहा है इसे समझना अब कठिन नहीं रह गया है. अगर भ्रूण लड़का है और डाक्टर उसे लड़की बता दे तो कोई क्या कर लेगा. चूंकि सारा सौदा मौखिक होता है, इसलिए इस का कोई प्रमाण भी नहीं होता. जिन्हें लड़की नहीं चाहिए वे गर्भपात करा लेते हैं और इस बाबत भी फीस नर्सिंगहोम वालों को देते हैं. इस तरह पैसा कमाने के चक्कर में कानून की नजर में नाजायज कारोबार करने वाले एक लड़का पैसा कमाने के लिए खत्म कर देते हैं.

अगर व्यक्तिगत संबंधों मानवीयता या ईमानदारी से भी सोनोग्राफी वाला डाक्टर सच बता दे कि भ्रूण लड़की है तो भी कमाई होना तय होता है. ऐसे में यह कानून नुकसानदेह ज्यादा साबित हो रहा है, जिस की सारी तकलीफ और शारीरिक व मानसिक परेशानी गर्भवती को उठानी पड़ती है. वजह भ्रूण से उस का लगाव स्वाभाविक होता है पर पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक दबाव उसे मजबूर करते हैं कि वह लड़की पैदा न करे. वैसे भी एक से ज्यादा लड़की पैदा करना अब परवरिश, महंगी पढ़ाई और खर्चीली शादी के हिसाब से घाटे का सौदा साबित होने लगा है. लिहाजा, लोग क्व20-25 हजार में भू्रण से छुटकारा पा कर लाखों रुपए बचा लेने का व्यावहारिक रास्ता अपनाते हैं.

अब फार्म एफ का झंझट

नाजायज तरीके से सोनोग्राफी करने वाले डाक्टरों और क्लीनिकों पर शिकंजा कसने के लिए सरकार ने सोनोग्राफी मशीनों में एक ऐक्टिव डिवाइस लगाने का फैसला किया है. इस डिवाइस के मशीन में इंस्टौल होने से चोरीछिपे भ्रूण लिंग परीक्षण करने वाले सोनोलौजिस्ट छिपे नहीं रह पाएंगे, ऐसा स्वास्थ्य विभाग का दावा है.

इस डिवाइस का नाम साइलैंट औब्जर्वर है, जिसे विजन इंडिया सौफ्टवेयर ऐक्सपोर्ट नाम की कंपनी ने खासतौर से बनाया है. जिस सोनोग्राफी मशीन में यह डिवाइस इंस्टौल कर दिया जाएगा उस का सारा रिकौर्ड औनलाइन हो कर स्वास्थ्य विभाग के पास होगा. इस से पता चल जाएगा कि कब किस महिला ने यहां सोनोग्राफी कराई यानी निजता कतई नहीं रह जाएगी.

इस प्रक्रिया से होगा यह कि जिन्हें नाजायज कारोबार करना होगा वे सोनोग्राफी मशीन में यह डिवाइस इंस्टौल ही क्यों करवाएंगे और जो लोग मरीजों खासतौर से गर्भवती महिलाओं के हित में करवा भी लेंगे वे जांच कर इशारों में बता भी देंगे कि गर्भ में पल रहा भू्रण लड़का है या लड़की. तब सरकार कौन सी तकनीक से उन का मुंह बंद करेगी? होगा सिर्फ इतना कि किस महिला की किस क्लीनिक या नर्सिंगहोम की सोनोग्राफी मशीन से जांच कब हुई यह जानकारी सरकार के पास होगी. हालांकि अभी भी यह जानकारी संचालकों को सरकार को देनी पड़ती है. लेकिन इस से हेरफेर होता था, इसलिए अब नए तरीके से करने के लिए सरकार उन्हें मजबूर कर रही है.

तय है यह काम भी अब दलाल करेंगे या सोनोग्राफी मशीन उपयोग करने वाले साइबर कैफे भी खोल कर तगड़ा पैसा फार्म भरने के एवज में वसूलेंगे. इस में सरकार शुरू में कुछ नहीं कर पाएगी, लेकिन साल 2 साल बाद उन कंप्यूटरों और इंटरनैट कैफों पर छापे मारेगी जो फार्म एफ भरवा कर गर्भवतियों की मदद कर रहे होंगे. मुमकिन है इन के लिए भी कोई नया नियमकानून बना दिया जाए और फिर इन से सरकार कमीशन लेने लगे जो आखिरकार गर्भवती की जेब सेही जाएगा. भोपाल के एक नामी डाक्टर जिन का खुद का क्लीनिक है कहते हैं कि सजा के डर से अब डाक्टर सोनोग्राफी मशीन से डरने लगे हैं. हम बेवजह का झंझट पाल कर अपना व्यवसाय खोटा नहीं करना चाहते. हालांकि इस से नुकसान मरीजों का हो रहा है. अकेले भोपाल में 1 साल में 60 फीसदी सोनोग्राफी मशीनें बंद हो गई हैं. अब मरीज इधरउधर भटक रहे हैं और जांच में देर हो जाने से उन की बीमारी बढ़ती जा रही है.

भोपाल के पौश इलाके अरेरा कालोनी में सोनोग्राफी क्लीनिक चलाने वाली एक डाक्टर के यहां अब हालत यह है कि सोनोग्राफी के लिए 15 दिन तक की वेटिंग चल रही है. इस की एक संचालिका का कहना है कि मरीज ज्यादा हैं और मशीनें कम. इस पर भी हमें दुनिया भर की खानापूर्ति कर स्वास्थ्य विभाग को भेजनी पड़ रही है और अकसर सरकारी महकमे वाले हम से बेवजह के सवालजवाब करते हैं.

2 पाटों के बीच में

सरकारी डाक्टरों का दुखड़ा यह है कि उन्हें तो सूखी पगार से काम चलाना पड़ता है जबकि प्राइवेट क्लीनिक वाले मनमाना पैसा जांच और इलाज के नाम पर वसूलते हैं. उन्हें कोई कुछ नहीं कहता. वह इसलिए नहीं कि लोगों के पास पैसा है और वे सहूलत व सुरक्षा चाहते हैं. दरअसल, चमचमाते फाइवस्टार अस्पतालों में लोग भरती रह कर इलाज का खर्च उठाते हैं तो सरकारी डाक्टरों और स्वास्थ्य विभाग के अफसरों के पेट में दर्द होने लगता है. उलट इस के प्राइवेट डाक्टरों और नर्सिंगहोम वालों का आरोप यह है कि सरकारी डाक्टर और स्वास्थ्य विभाग अरबों की योजनाओं में से अपना हिस्सा भ्रष्टाचार कर निकाल लेते हैं और बातें साधुसंतों जैसी करते हैं मानो ईमानदारी से सरकारी अस्पतालों में अपनी कुरसी पर बैठे गरीब मरीजों का इलाज कर रहे हों. हकीकत तो यह है कि सरकार अपने ही डाक्टरों को रास्ते पर नहीं ला पा रही है. आए दिन शिकायतें आती रहती हैं कि सरकारी अस्पतालों में दवा नहीं है और इतने का घपला हुआ. डाक्टर तो दूर की बात है सरकारी अस्पताल का स्टोरकीपर भी करोड़पति निकलता है.

इन 2 पाटों के बीच फार्म एफ नई परेशानी है. भोपाल के हमीदिया अस्पताल में जब यह प्रतिनिधि पहुंचा तो पता चला कि ज्यादातर गर्भवती महिलाओं को नहीं मालूम कि यह नया फार्म एफ कहां से लेना है, कैसे भरना है इसलिए जांच नहीं हो पा रही है. कुछ गर्भवतियों की मदद अस्पताल के मुलाजिमों ने फार्म भरवाने में जरूर की, लेकिन बदले में पैसे लिए. इस परेशानी की जड़ सरकारी कानून और नियम हैं, जिन की शिकार गर्भवती महिलाएं हो रही हैं. प्राइवेट नर्सिंगहोम वाले कहते हैं कि स्वास्थ्य विभाग हम से ज्यादा घूस वसूलना चाहता है, इसलिए हर रोज ऐसे तुगलकी फरमान जारी करता है जिस से हमारा कम मरीजों का नुकसान ज्यादा होता है. हमें मरीजों और गर्भवती महिलाओं से सहानुभूति है, लेकिन हमारी अपनी कुछ मजबूरियां हैं, जिन के चलते हम तटस्थ रहना ही उचित समझते हैं.

जाहिर है यह नया नियम गर्भवती महिलाओं के लिए झंझट खड़ा कर रहा है और बजाय नाजायज क्लीनिकों व नर्सिंगहोम्स पर शिकंजा कसने के उन का कारोबार और आमदनी दोनों बढ़ा रहा है. पारिवारिक और सामाजिक बंदिशों में जी रही गर्भवतियां अब नई कानूनी बंदिश में फंस गई हैं जो एक बार सुरक्षित प्रसव और सहूलतों के लिए तो ज्यादा पैसा दे सकती हैं पर जांच में देर होने से होने वाले नुकसानों से कैसे बचेंगी, यह किसी सरकार, स्वास्थ्य विभाग या प्राइवेट डाक्टर को नहीं मालूम. उन के लिए गर्भवती महिला मरीज कम पैसा उगलने वाली मशीन ज्यादा साबित होती है

निजता पर हमला

फार्म एफ में जो जानकारी गर्भवती महिलाओं को सरकार को देनी है, उस में यह भी शामिल है कि आखिरी बार मासिकधर्म कब हुआ था. इस के अलावा सोनोग्राफी कराने वाली गर्भवती को फोटोयुक्त पहचानपत्र भी अनिवार्य रूप से जमा कराना है. बाकी तमाम औपचारिकताएं सरकारी फार्मों जैसी हैं, जिन में तरहतरह की जानकारी खुद के बारे में देनी पड़ती है मानो किसी मकान की रजिस्ट्री कराई जा रही हो या पासपोर्ट बनवाया जा रहा हो. यह एक तरह से हलफनामा ही है, जिस में गर्भवती को यह घोषणा भी करनी है कि उस ने लिंग पहचान की गरज से सोनोग्राफी नहीं कराई है और सोनोग्राफी करने वाले डाक्टर को भी बताना है कि उस ने जच्चाबच्चा की बेहतरी के लिए सोनोग्राफी की है, लिंग परीक्षण नहीं किया है.लेकिन विजन इंडिया सौफ्टवेयर ऐक्सपोर्ट का यह दावा खोखला नजर आता है कि इस डिवाइस की मदद से कन्या भ्रूण हत्या को रोका जा सकता है. यह तय है कि सोनोग्राफी प्रक्रिया औनलाइन होगी तो यह एक तरह की रिकौर्डिंग होगी, लेकिन  डाक्टर अगर इशारे से या किसी दूसरे तरीके से मसलन लड़का हो तो जय हिंद बुदबुदा कर और लड़की हो तो जय मां कह कर लिंग पहचान बताए तो कोई उस का क्या कर लेगा? फिर वह बाद में बाहर भी नतीजा बता सकता है. तय है इस के लिए उसे कोई डिवाइस या कानून नहीं रोक सकता. अलावा इस के कोई भी विशेषज्ञ सौफ्टवेयर इंजीनियर इस की काट आसानी से निकाल सकता है.

युवा पीढ़ी नशे के आगोश में क्यों

युवा पीढ़ी पर नशीले पदार्थों की पकड़ लगातार मजबूत हो रही है. युवतियों में भी ड्रग्स स्टेटस सिंबल बन जाने से इस बुराई की समाप्ति और भी मुश्किल होती जा रही है. स्कूलकालेज भी नशे से अछूते नहीं रहे. नशीले पदार्थों को आमतौर पर 4 भागों में बांटा जाता है- अफीम व अफीम से बने मारफिन, कोडीन, हेरोइन व ब्राउन शुगर, गांजा व गांजे से बने चरस व हशीश, कोकीन, सैन्कोटिक ड्रग्स जैसे एलएसडी, मैंड्रोक्स व पीसीपी. ये सभी बेहद खतरनाक हैं. छोटे नगरों व गांवों में सुल्फे गांजे ने अपने पैर पसार रखे हैं, तो बड़े नगरों में हेरोइन व ब्राउन शुगर ने अपनी जड़ें जमा ली हैं. मुंबई में इन का सेवन करने वालों में 14 से 25 आयुवर्ग के युवकयुवतियों की संख्या सब से अधिक है.

युवकयुवतियों में नशाखोरी की वजह उन का किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होना है. आर्थिक दिक्कत, नौकरी की तलाश, असफल प्रेम, मनचाही सफलता न मिलना, परीक्षा में फेल हो जाना, सुखशांति न मिलना, परिवार में इग्नोर फील करना, किसी काम में मन न लगना जैसे कितने ही कारण हैं, जिन से बचने के लिए उन्हें नशे का सेवन ही आसान व एकमात्र उपाय नजर आता है. जबकि नशा किसी समस्या का हल नहीं है.

नशे की गिरफ्त में लड़कियां

पश्चिमी सभ्यता व आधुनिक विचार अपनाने वाले कितने ही परिवारों की लड़कियां स्कूल व कालेज से ही नशीले पदार्थों का सेवन करने लगती हैं. शुरू में वे चोरीछिपे अपना शौक पूरा करती हैं, पर बाद में यह शौक लज्जा व शर्म की सारी हदें लांघ जाता है. नशे को आधुनिकता का पर्याय व नई पीढ़ी की पहचान समझने वाली लड़कियां फैशन, पारिवारिक परिस्थिति, कुंठा, हीनभावना, तनाव आदि से मुक्ति के लिए इसे अपनाती हैं. इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च लड़कियों के नशा करने के पीछे 3 कारण मानता है- मित्रों का प्रभाव, अपने से बड़ों की नकल व भूख को दबाना. इन में दोस्तों के प्रभाव में नशा करने वाली लड़कियों की संख्या सर्वाधिक है. युवतियों में सिगरेट व शराब पीने की निरंतर बढ़ रही प्रवृत्ति तो हानिकारक है ही, नशीले पदार्थों का सेवन तो इस से भी ज्यादा घातक है.

इन को अपने भविष्य की चिंता नहीं है. नशे के आगोश में डूबी इन लड़कियों का शरीर इस से वास्तविक सुंदरता तो खोता ही है, नशीले पदार्थ के सेवन से गर्भ में पल रहे शिशु पर भी इस का बुरा प्रभाव पड़ता है. सिगरेट व मादक द्रव्यों के प्रयोग से गर्भाशय की मांसपेशियां कमजोर हो जाने के कारण जहां गर्भधारण में दिक्कत आती है, वहीं उन्हें और कई जटिलताओं का भी सामना करना पड़ता है.

दांपत्य जीवन में दरार

शरीर में मादकता की अधिकता रक्तचाप व विक्षिप्तता को जन्म देती है, जिस से आंखों में मोतियाबिंद की शिकायत अंधत्व में बदल सकती है. महिला की कार्यक्षमता कम हो जाती है. मादक पदार्थों के सेवन से दांपत्य जीवन में दरार पैदा हो जाती है. पति, सासससुर व बच्चों आदि के साथ मनमुटाव घर को नर्क बना देता है. दक्षता प्रभावित होने से कार्य क्षेत्र से जुड़ी महिलाएं दफ्तर व संस्थानों में उपहास व क्रोध का पात्र बनती हैं. सरकार ने जनसामान्य के स्वास्थ्य को महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय कर्तव्यों में शामिल करते हुए संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार, चिकित्सीय प्रयोग के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पदार्थों व वस्तुओं के उपयोग को निषिद्ध करने केलिए 1985 में नशीली दवाएं व मनोविकारी पदार्थ कानून- एनडीपीएस ऐक्स बनाया. इस कानून को लागू करने के साथ ही मादक पदार्थों का सेवन करने वालों की पहचान, इलाज, शिक्षा, बीमारी के बाद देखरेख, पुनर्वास व समाज में पुनर्स्थापना के लिए जोरदार प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु समाज में नशाखोरों की बढ़ती संख्या इन पर पानी फेर रही है.

इसे रोकने के लिए फिल्मों व टीवी धारावाहिकों में सिगरेट, शराब व नशीली वस्तुओं के सेवन वाले अनावश्यक दृश्यों के चित्रण व प्रदर्शन पर पूर्णतया पाबंदी लगनी चाहिए. टीनऐजर्स युवतियां समाज की अमूल्य धरोहर हैं. घरपरिवार व समाज को आदर्श रूप देने में अहम भूमिका निभाने वाली. इन का शिक्षित, प्रशिक्षित व आदर्शवान होना जरूरी है. अत: टैलीविजन पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों व फिल्मों में उन का आदर्श चित्रण व प्रस्तुतिकरण भी आवश्यक है. 

अब एटीएम से पैसे की जगह मिलेगा पानी

अभी तक आपने सिर्फ एटीएम से रुपये निकलते ही देखे होंगे, लेकिन अब आपको एटीएम से पानी की सुविधा मिलेगी. समाजवादी पेयजल योजना के तहत उत्तर प्रदेश में सार्वजानिक स्थानों पर पानी के एटीएम लगेंगे. इनसे 2 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से आम जनता को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा.

मुख्य सचिव आलोक रंजन ने सार्वजानिक स्थानों जैसे ब्लाक, तहसील एवं कलेक्ट्रेट कार्यालयों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों  पर पर एटीएम लगाने के निर्देश दिए हैं. उन्होंने यह भी  निर्देश दिये कि समाजवादी पेयजल योजना के तहत आरओ का शुद्ध पानी न्यूनतम 2 रुपये प्रति लीटर पर उपलब्ध कराये जाने की व्यवस्था की जाए, ताकि निचले स्तर के लोगों को भी शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सके.

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