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आज छा जाएगा अंधेरा

आज भारत-पाकिस्तान के बीच मैच के दौरान भारत समेत कई देशों में अंधेरा छा जाएगा, सभी जगह बिजली की लाइटें बंद हो जाएंगी, प्रकृति से प्यार करने वाले प्रकृति को देंगे एक प्यार भरा उपहार, पृथ्वी को मिलेगा बिना तपिश भरा एक घंटा.

घबराइए नहीं, आज अर्थ पावर डे है, इसी के तहत एक घंटे तक बिजली बंद रहेंगी. अर्थ पावर का समय रात के साढ़े आठ बजे से रात के नौ बजे तक होगा. इस दौरान घरों व कार्यस्थलों के गैर जरूरी लाइट्स व उपकरण को बंद रखने की अपील की गई है. राजधानी दिल्ली की बिजली कंपनी बीएसईएस ने दिल्लीवासियों से अपील की है कि जलवायु परिवर्त्तन को ध्यान में रखकर एक घंटा बिजली के सभी उपकरणों को बंद रखें और जलवायु परिवर्त्तन को  रोकने में अपना योगदान दें.

ब्रेकअप के बाद रिवेंज क्यों…?

बौलीवुड अपने ब्रेकअप और पैचअप के लिए हमेशा से प्रसिद्ध रहा है. यहां अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के रिश्ते बनतेबिगड़ते रहते हैं. किसी का किस्सा शादी पर खत्म होता है तो किसी का ब्रेकअप पर और किसी का ब्रेकअप के बाद भी नहीं.

कंगना रनोट और ऋतिक रौशन का विवादित अफेयर इसी कड़ी का हिस्सा है. इन में गुपचुप प्यार हुआ और गुपचुप ब्रेकअप भी, लेकिन ब्रेकअप के बाद दोनों के बीच चल रहा विवाद सरेआम सुर्खियां बटोर रहा है. दोनों ने अपने रोमांस के दिनों में जिन बातों को दिल की संदूकची में दबा कर रखा था अब चुनचुन कर उन्हीं बातों को एकदूसरे को नीचा दिखाने के लिए हथियार बना रहे हैं.

कंगना और ऋतिक के रिश्तों के बारे में पहली बार तब पता चला जब ऋतिक की बीवी सुजैन ने तलाक के लिए कोर्ट में अर्जी डाली तब अफवाह फैली थी कि सुजैन और उन के मित्र अभिनेता अर्जुन रामपाल की नजदीकियों की वजह से सुजैन ऋतिक को तलाक दे रही है. लेकिन मसले की गुत्थी जैसेजैसे खुलती गई सचाई सामने आती गई.

सूत्रों की मानें तो कंगना ऋतिक की प्रेम कहानी फिल्म काइट्स की शूटिंग के दौरान ही शुरू हो गई थी. लेकिन किसी ने भी इस लव स्टोरी पर ध्यान नहीं दिया, खुद ऋतिक भी इस रिलेशनशिप को ले कर सीरियस नहीं थे. कंगना को पहले ही साफ कह चुके थे कि हमारा अफेयर बस अफेयर ही रहेगा, क्योंकि सुजैन को वो कभी भी तलाक देना नहीं चाहते थे. लेकिन कंगना से नजदीकियों की बात जैसे ही सुजैन को पता चली तो उन्होंने ऋतिक के साथ बात तो दूर सोना तक छोड़ दिया. दोनें 6 महीनें तक अलग बेडरूम में सोते रहे. यह बात ऋतिक ने कंगना को बताई भी. सुजैन के साथ विवाद होने के बावजूद ऋतिक ने क्रिष-3 के लिए कंगना को चुना. इस के बाद तो सुजैन ने तय ही कर लिया कि वो तलाक ले कर ही मानेंगी.

2014 में दोनों का तलाक हो भी गयाए लेकिन ऋतिक ने कंगना से अपने प्रेम प्रसंग की बातों को तब भी नहीं कबूला. एक दिन अचानक ही एक इंटरव्यू में कंगना से पूछा गया कि क्या ऋतिक ने उन्हें फिल्म ‘आशिकी-3’ से बाहर करवाया है? इस के जवाब में कंगना ने कहा कि, उन्होंने भी ऐसा ही सुना है. रिपोर्टर उन से दूसरा सवाल करता उस से पहले ही कंगना ने बोल दिया, पता नहीं सिली एक्स पार्टनर्स पब्लिसिटी के लिए ये सब क्यों करते हैं.

कंगना के इसी स्टेटमेंट पर ऋतिक ने ट्विटर पर बिना कंगना का नाम लिए बहुत कुछ कह डाला. अब तक मीडिया और लोगों के सामने यह बात तो साफ हो ही चुकी थी कि कंगना ऋतिक के बीच कुछ तो पक रहा था, लेकिन यह बात अब तक किसी को नहीं पता कि आखिर क्यों कंगना ऋतिक का ब्रेकअप हुआ. हां, बीते दिनों दोनों के विवादित अफेयर ने कानून का दामन थाम लिया है.

ऋतिक ने कंगना के स्टेटमेंट पर उन के ऊपर मानहानि का दावा किया है. इसी कड़ी में यह बात भी सामने आई है कि कंगना ऋतिक को रोज 50-50 ईमेल भेज कर परेशान कर रही थी और अब तक 1400 के ऊपर मेल भेज चुकी है. कंगना के ईमेल्स से तंग आ कर ऋतिक ने कंगना के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की है. वहीं कंगना ने भी 21 पन्नों का जवाब देते हुए ऋतिक को लिखा है कि उन्होंने अपने स्टेटमेंट में उन का नाम तक नहीं लिखा तो किस बात की मानहानि का दावा.

वैसे कंगना की बात तो सही है कि उन्होंने ऋतिक से अपने रिश्तों को ले कर कभी किसी से बात नहीं की, बल्कि उन के तलाक के वक्त भी कंगना का नाम आया तब भी वो चुप थीं. कंगना ने तो अपने नोटिस में ऋतिक द्वारा उन को ईमेल भेजने के इलजाम को झूठा साबित कर दिया है. नोटिस के एक पैराग्राफ में उन्होंने लिखा है ‘ऋतिक का मेरे द्वारा रोज उन्हें 50 ईमेल भेजने का दावा गलत है. पूरे घटनाक्रम को 600 दिन से ऊपर हो चुके हैं और 50 के हिसाब  से ईमेल की संख्या 30 हजार के करीब होनी चाहिए. साथ ही कंगना ने यह भी कहा है कि यदि मैं ने मेल किए भी हैं तो उन मेल्स पर ऋतिक की कोई आपत्ति नहीं आई है. इस से साफ है कि मेरे मेल्स उन्हें उन की सहमति से प्राप्त हो रहे थे.’

कंगना ऋतिक का यह विवाद अभी और कितना खिंचेगा. यह कह पाना मुश्किल होगा. इस का नतीजा बताना भी जल्दबाजी ही कहलाएगा लेकिन यह कितना सही है कि रिश्तों को आपसी समझ से सुलझाने की जगह उन्हें कानूनी कठघरों में ला कर खड़ा कर दिया जाए. वो भी टूटे हुए रिश्तों पर कानूनी जंग लड़ने से क्या हल निकलगा.

यदि बौलीवुड से बाहर निकल कर देखा जाए तो आम कपल्स भी कुछ ऐसा ही करते दिख जाएंगे. भले ही उन की लड़ाई कानूनी स्वरूप न लेती हो मगर टूटे रिश्ते की बखिया उधेड़ने में वे भी पीछे नहीं है. खासतौर पर लिव इन रिलेशनशिप के ट्रैंड ने इसे और भी बढ़ावा दिया है. अपने एक्स लवर से रिवेंज लेने में आखिर क्या सुकून मिलता होगा. बल्कि रिवेंज लेने के आइडिया खोजतेखोजते चैन भरी जिंदगी नरक सी बन जाती है. जिन रिश्तों का भविष्य ही नहीं है उन के लिए लड़ कर भी क्या फायदा.

‘बैंजो’ के लिए रितेश देशमुख का सिक्स पैक लुक

इरोज इंटरनेशनल की फिल्म बैंजो में रितेश देशमुख के लुक को देख कर सभी लोग दंग रह गए थे. ​रितेश को खास कर जाना जाता है उनके ब्रिलियंट सेन्स ऑफ़ ह्यूमर , उनकी मस्ती और मस्करा अंदाज के लिए. 

​​कृषिका लूला, एरोस इंटरनेशनल​ हमेशा ही स्ट्रांग कॉन्टेंट से भरी फिल्म पर पैसा लगाते आये है, उन्होंने हाल ही में बैंजो फिल्म की घोषणा की. इस फिल्म के निर्देशक हैं रवि जाधव. हाल ही में रितेश न सेट पर से कुछ हास्य से भरपूर फोटो एक माइक्रोब्लॉगिंग साइट पर अपलोड किये. 

इन फोटोज में एक फोटो ऐसी थी जिसमे रितेश के सिक्स पैक थे, जी हां सिक्स पैक पर वह बिस्किट्स से बने हुए सिक्स पैक एब्स थे, रितेश ने अपने पेट पर 6 बिस्किट रखे और उन्हें मिल गया सिक्स पैक एब लुक. 

कृषिका कहती है "रितेश का सेट पर होना एक मजेदार अनुभव होता है, वे फिल्म इंडस्ट्री में से एक बहुत ही उम्दा अभिनेता है.”

आधी बातें

तेरे पूरे खत में आधी बातें

कुछ जागी कुछ सोई रातें

कुछ चूडि़यों की खनक लिए

कुछ टूटी चूडि़यों की वो यादें

रुनझुन पायलिया के बोल

कुछ टूटे झुमके की सौगातें

बहकीबहकी वो मादक सांसें

वो नाजुक करधन में उलझी बातें

याद बहुत आती हैं हम को

आधी उजली काली रातें.

                               – धीरेंद्र कुमार दुबे

 

भ्रष्टाचार और नौकरशाही

देश में भ्रष्टाचार की हालत ऐसी हो चुकी है कि अफसर अब भ्रष्टाचार रोकने वाले विभागों में नियुक्ति नहीं चाहते. केंद्र सरकार ने उन अफसरों को काली सूची में डालना शुरू किया है जिन्होंने विभिन्न विभागों में चीफ विजिलैंस औफिसर का पद संभालने से इनकार कर दिया. एक समाचार के अनुसार सतीश कुमार कौशिक, अनुराधा शंकर और सरदार सिंह मीना को सरकारी विभागों व निकायों में नियुक्त किया गया था पर उन्होंने पद नहीं संभाले. अब न उन्हें केंद्र सरकार में पद दिया जाएगा न विदेश में.

समाचार में पद को न संभालने के कारण नहीं बताए गए पर इन्हें समझना कठिन नहीं है. वैसे, यह पद शक्तिशाली है और अफसर किसी की भी नकेल कस सकता है लेकिन प्रशासनिक सेवाओं का स्टील फ्रेम जानता है कि इस स्टील का हर पेंच जंग खाया हुआ है और किसी से भी दुश्मनी मोल लेना जन्मभर के लिए खुद को जख्मी कर लेना है. चीफ विजिलैंस औफिसर जिस के खिलाफ भी जांच करेगा वह अपने बहुत से हितरक्षकों को सामने ले आएगा. अगर जांच में किसी को दंडित कर दिया गया तो उसे काली भेड़ ही नहीं, काला सूअर मान लिया जाएगा और जब वह पद छोड़ेगा तो उसे कहीं पोस्ंिटग नहीं मिलेगी, कोई संरक्षक नहीं मिलेगा, कोई दोस्त उस का साथ न देगा.

इस पद पर आने वाला हर अफसर जानता है कि उस ने पिछली पोस्ंिटगों पर खुद क्याक्या किया है और बदले की कार्यवाही की गई तो उस की पिछली करतूतों की फेहरिस्त बनाई जा सकती है. इस देश में दंडित करने के लिए आरोप लगाना काफी है, साबित करना नहीं. हजारों कागजों और बीसियों गवाहों के बाद छूट भी गए तो क्या, जिंदगी तो बरबाद हो ही जाएगी.नरेंद्र मोदी अगर यह दावा करें कि वे भ्रष्टाचार को खत्म कर देंगे तो यह चुनावी सभाओं तक ही ठीक है. प्रशासन में भ्रष्टाचार की जगह पर सीमेंट लगाना न संभव है न इस के लिए मोदी का कोई साथ देगा. जब कोई विजिलैंस औफिसर ही बनने को तैयार न हो तो फिर देश का आप क्या कर सकते हैं?

हास्य व्यंग्य से क्यों डरता है धर्म?

मशहूर फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्दो के साल 2011 में एक व्यंग्यात्मक कार्टून के प्रकाशित होते ही खासा बवाल मचा था क्योंकि वह कार्टून मुसलमानों के पैगंबर हजरत मुहम्मद से ताल्लुक रखता हुआ था. 9/11 के हमले के बाद यों तो पूरे यूरोप में मुसलमानों और इसलाम का विरोध हो रहा था लेकिन शार्ली एब्दो के कार्टून ने कट्टरवादियों को हिला कर रख दिया था. इस की परिणति अच्छी नहीं हुई. आतंकियों ने बीते साल शार्ली एब्दो के दफ्तर में घुस कर संपादक सहित पत्रिका के 12 कर्मचारियों की हत्या कर दी थी.

दूसरी कई बातों के साथसाथ इस हादसे से खासतौर से एक बात यह भी साबित हुई थी कि हर धर्म और उस के प्रचारक व अनुयायी स्वस्थ हंसीमजाक, कटाक्ष और व्यंग्य से डरते हैं क्योंकि धर्म उन्हें खुश रहने की इजाजत नहीं देता. प्रचारित धारणा गलत है कि धर्म का पालन कर लोग खुश रह सकते हैं. लेकिन कहीं भी लोग खुश नहीं हैं जबकि विज्ञान ने जिंदगी बेहद आसान कर दी है और लगातार करता भी जा रहा है. उलट इस के धर्म, वैज्ञानिक खोजों व आविष्कारों को ही हथियार बनाते हुए जिंदगी को जटिल बनाने के काम में जुटा है जिस की एक मिसाल सोशल मीडिया है. फेसबुक और वाट्सऐप का कैसा बेजा इस्तेमाल हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है. इन पर धर्म का प्रचार हो रहा है, पाखंड व अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं और लोगों को पहले से ज्यादा आसानी से धर्मभीरु बनाया जा रहा है. अच्छी बात यह है कि इन्हीं सोशल साइट्स पर धर्म की वास्तविकता बताने वाले भी हैं लेकिन वे हमेशा की तरह संख्या में कम हैं.

धर्म को बांचने वाले हमेशा ही उसे शाश्वत बताते रहे हैं. इस की बड़ी वजह यह है कि धर्म एक परिकल्पना भर है जिस में कूटकूट कर धूर्तता भरी है. यह कल्पना या परिकल्पना सिद्ध करती है कि जो भी हो रहा है वह ऊपर वाले यानी भगवान की मरजी है, आदमी तो उस का बनाया खिलौना और निमित्त मात्र है. यह परिकल्पना परवान इसलिए चढ़ी कि लोग अनुकूलताएं चाहते हैं, दुखों व परेशानियों से सब डरते हैं और बचे रहना चाहते हैं. धर्म इसी कमजोरी की देन है जिस में दुख है, उदासी है, तनाव हैं, तकलीफें हैं और इन से छुटकारा पाने के तथाकथित तरीके भी हैं, लेकिन हर एक सुविधा या सुख के बाबत धर्म के दुकानदारों, धर्मस्थलों और संगठनों को भुगतान करना यानी दान देना जरूरी है.

याद करें फिल्म ‘ओ माई गौड’ का वह दृश्य जिस में कांजी भाई अदालत में पूरे दमखम व आत्मविश्वास से एक धर्मगुरु से कह रहा है, ‘मैं ने पैसे इसीलिए दिए थे कि मेरे घर में सुखशांति रहे लेकिन हुआ उलटा, वह तो छिन गई.’

जीवन को जटिल बनाता धर्म

देश में कहीं भी चले जाएं, हर कहीं कुछ और हो न हो, धार्मिक आयोजन जरूर सार्वजनिक रूप से होते दिख जाएंगे. इन आयोजनों में पंडाल के सिंहासन या मंच पर बैठा धर्मगुरु, धर्म की जो व्याख्या करता है उस का सार यही रहता है कि धर्म को न मानने या पालन न करने से ही आदमी दुखी है, इसलिए सुख, मुक्ति और मोक्ष के लिए धर्म और ईश्वर को मानो और उन्हें पाने के लिए दान जरूर करो. यह घुट्टी तरहतरह से पिलाई जाती रही है. कोई धर्मगुरु यह बताने के लिए गाना गाता है तो कोई मंच पर नाचने लगता है, कोई रौद्र रूप धारण कर लेता है. यह मदारीपना व्यवसाय नहीं तो क्या है जिस में सिवा उदासी, झल्लाहट और अवसाद के कुछ नहीं. इन से भी ज्यादा अहम वह डर है जो रोजरोज तरहतरह से बढ़ाया जाता है.

इन प्रपंचों का मकसद एकदम साफ है कि लोग ईश्वर और धर्म से परे न सोचने लगें, वे यह महसूस करते रहें कि जीवन में बड़े दुख हैं. हम पापी हैं और अगले जन्म में इन से बचना अर्थात मोक्ष प्राप्त करना है तो भक्ति, पूजापाठ, हवन, यज्ञ में लगे रहो. सीधेसीधे कहा जाए तो यह साजिश इसलिए रची जाती है कि लोग खुश रहना सीख न जाएं. उन में दुखी रहने की आदत डाल दो. किसी को वायरल बुखार भी हो तो वह इलाज के पहले पूजापाठ व प्रसाद की सोचे. वह बोले कि हे भगवान, मुझे ठीक कर दो, नारियल प्रसाद और इतने रुपए चढ़ाऊंगा. दुखियारे न रहें तो धर्म व भगवान की जरूरत खत्म हो जाएगी.

ऊपर वाले से इस सौदेबाजी की देन है कि लोग मनोरंजन, सुख और खुशी से दूर होते जा रहे हैं और इन से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे व्यावहारिकता और सच से कतराने लगे हैं. धर्म की परिभाषा और सत्य वगैरा एक अलग बहस का विषय है. रोजमर्राई सच यह है कि एक स्वस्थ व सुखी समाज का निर्माण और विकास महज धर्म की वजह से नहीं हो पा रहा. धर्म बातबात में रोनागाना और शोक मनाने का राग अलापता रहता है. ‘ओ माई गौड’ फिल्म कई मानो में अहम व धर्म की वास्तविकता के नजदीक थी जिस के आखिर में धर्मगुरु बना मिथुन चक्रवर्ती कहता है कि यह भीड़ ईश्वर में आस्था रखने वालों की नहीं, बल्कि उस से डरने वालों की है. इसलिए धर्म के धंधे को कोई खतरा नहीं.

मुद्दतों बाद लोग इस फिल्म को देख दिल से हंसे थे लेकिन 2 साल में ही नजारा बदल गया. जिंदगी के दुख ज्यों के त्यों हैं, बीमारियां हैं, पैसों की कमी है, रिश्तों में तनातनी है और वे तमाम परेशानियां हैं जो एक जिंदगी में अनिवार्य होती हैं. नहीं है तो वास्तविकता और व्यावहारिकता, जो लोगों को यह समझा पाए कि ये तो घटनाएं हैं, होती रही हैं और होती रहेंगी, इन में कोई धर्म या धर्मगुरु कुछ नहीं कर सकता. गौर से देखें तो धर्मगुरु खुद भी इन्हीं की गिरफ्त में हैं लेकिन पैसे ले कर इसे छुटकारा दिलाने का झूठा दावा करते हैं. यह सनातनी धंधा है धर्मगुरुओं का जिन्हें पिछड़े इलाकों में तांत्रिक, मांत्रिक, गुनिया या ओझा कहते हैं. सभ्य शिक्षित समाजों में ब्रैंडेड धर्मगुरु यह कारोबार कर रहे हैं. इन सभी का मकसद बगैर मेहनत किए पैसे कमाना है.

सुख की अपनी परिभाषाएं और उदाहरण हो सकते हैं लेकिन मनोरंजन पर यह बंदिश लागू नहीं होती जिस की तरफ धर्मगुरु पीठ कर सोते हैं. आप ने किसी धर्मगुरु को शायद ही हंसते देखा होगा, शायद ही वह ताना कसता हो या फिर कटाक्ष करता हो. ऐसा इसलिए कि ये धर्मगुरु नहीं चाहते कि लोग धर्म के बिछे मकड़जाल से मुक्त हों. मुक्त हो गए, तो धर्म की दुकानें बंद हो जाएंगी. लोग दान देना बंद कर देंगे और ईश्वर के अस्तित्व को नकारने लगेंगे. इसलिए इन्हें खुशी, मनोरंजन और हास्यव्यंग्य से दूर रखो फिर भले ही इस के लिए उन्हें खूनखराबा कराना पड़े, आतंक और अशांति फैलवानी पड़े. धर्म पूरी तरह से उदासी, खेद और अवसाद का विषय है. इस में न तो कहीं खुशी है न मनोरंजन है और न ही हास्यव्यंग्य. लोग दुखी हैं, वे मौलिक और स्वतंत्र रूप से न तो सोच पा रहे, न ही लिख पा रहे. और जो इस तरफ पहल करता है उस का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है. और इस बाबत सहारा दैवीय चमत्कारों या शक्तियों का नहीं, बल्कि हथियारों का लिया जाता है. इस से साबित होता है कि धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कार और जादू भी उन्हीं की तरह मिथ्या हैं. क्या यही धर्म है, इस विषय पर सोचने और सोचने देने के लिए धर्मगुरु तैयार नहीं. वे आलीशान पंचसितारा मठों में बैठे शाही जिंदगी जी रहे हैं जो दरअसल आम लोगों के दुखों पर खड़े और बने हैं.

हास्य व्यंग्य और धर्म

धर्मगुरुओं के दहला देने वाले प्रवचन तो अपनी जगह दुखद हैं ही, उन का उद्भव धार्मिक साहित्य और धर्मग्रंथ भी हास्यव्यंग्य से परहेज करते नजर आते हैं. वे ऐसे काल्पनिक संसार की बातें करते हैं जहां हर चीज, मौज व सुविधा शर्तों या दानदक्षिणा से मिलती है. मौजूदा दौर में तनाव में जी रहे लोगों को जरूरत हंसनेहंसाने की है, न कि उन्हें अवसाद व हताशा के गर्त में ढकेलने की. जिंदगी बोझिल और उबाऊ न हो, इस के लिए जरूरी है कि हर एक विसंगति पर कटाक्ष हो, उन पर ताने कसे जाएं और उन का मजाक बनाया जाए. मौजूदा व्यंग्यकारों का प्रिय विषय यही है कि वे ढोंग, पाखंड और अंधविश्वासों पर जम कर प्रहार करते हैं, इसलिए वे प्र्रताडि़त भी किए जाते हैं. जो धर्म यह नसीहत देता है कि सच बोलो, वही सच बोलने वालों का मुंह बंद करने में आगे है. कुछ दिन पहले वाट्सऐप पर एक ऐसा ही मैसेज बहुत वायरल हुआ था और पसंद किया गया  था कि एक पंडे ने एक घर में सत्यनारायण की कथा करवाई और ‘सबकुछ भगवान का है’ का उपदेश देता रहा. आखिर में सारा सामान व दानदक्षिणा समेट कर चलता बना.

इस में गलत क्या है, जिस ने भी यह मसौदा बनाया, तय है उस ने बहुत बारीकी से विश्लेषण किया और देखा व भोगा हुआ सच प्रसारित कर दिया. लेकिन ऐसी हिम्मत सभी नहीं कर पाते क्योंकि धर्मगुरुओं ने उन्हें डरा रखा है कि ऐसा करोगे तो अनिष्ट हो जाएगा. ये डरे हुए लोग बोझिल जिंदगी इसीलिए जी रहे हैं कि वे सच और वास्तविकता देखते हुए भी उस पर कमैंट नहीं कर पाते. ऐसे में इन से हंसनेमुसकराने और खुश रहने की उम्मीद कैसे की जाए. यह ठेका तो धर्म ने ले रखा है. धर्म में जो है उस का सार यह है कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया, फिर शुरू होती है हिंसा, मारकाट और सुंदरियों के लिए युद्ध, चमत्कार व छलप्रपंच. इस में कहीं हंसी या व्यंग्य नहीं है, मनोरंजन नहीं है. उलटे, इन सब तनाव वाले प्रसंगों को धर्म का मकसद बताते हुए ऐसे थोप दिया गया है कि भक्तों और श्रद्धालुओं ने उसे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया है. जिन धर्मग्रंथों के हर पृष्ठ पर हिंसा हो, उन से हंसी की उम्मीद कैसे की जाए? लोग खुश नहीं होंगे, तभी तो धर्म और धर्मगुरुओं की तरफ खुशी और सुखों की तलाश में जाएंगे, उन्हें घंटेघडि़याल बजा कर ढूंढें़गे पर एवज में उन्हें मिलेंगे उन के तनाव को दोहरा करने वाले प्रवचन व उपदेश.

इस से जाहिर है धर्म व धर्मगुरु लोगों को खुश नहीं देखना चाहते. जो इस खुशी से उन का परिचय कराता है उसे कट्टरवादी दुनिया से रवाना कर देते हैं. शायद यही सब देख कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम का नशा करार दिया था.

कट्टरवादी सोच और धर्म

वैलेंटाइन डे पर कट्टरवादी विरोध करते नजर आते हैं ताकि लोग अपनी मरजी से प्यार और शादी न करने लगें. धर्म और संस्कृति के नाम पर प्यार करने का हक तक ये लोग छीनते हैं. इन सब से जाहिर यही होता है कि उन्हें धार्मिक तौर पर पंगु समाज चाहिए जो उन के कट्टर उसूलों व इशारों पर नाचता व पैसा चढ़ाता रहे, आपस में जातियों के नाम पर झगड़ता रहे. इस के लिए जरूरी है कि समाज खुश न हो, तनाव में पड़ा रहे. तीजत्योहारों के नाम पर एक होली ही है जिस पर थोड़ी हंसीठिठोली लोग कर लेते हैं पर इसे भी शूद्रों का त्योहार करार दे कर धर्म के ठेकेदारों ने बड़े संपन्न वर्ग के लिए एक खाई खोद दी. दरअसल, होली पर दान का विधान नहीं है, इसलिए मान लिया गया कि यह गरीब, फूहड़ और दरिद्रों का त्योहार है जिन के हंसने और खुश होने व न होने का इन के कारोबार पर कोई फर्क नहीं पड़ता. 

भक्त हूं, तुम्हारी दासी नहीं

लुटाना आता है, मांगना सीखा नहीं

दे कर खुश होती हूं, पाना सीखा नहीं

समझो तो आदर समझ लो, नहीं तो मजाक

सही पर जिस दिन दासी समझो

मुझे सम्मान भी जाएगा और आदर भी

समझो तो स्नेह समझ लो, नहीं तो ठिठोली

सही पर मेरी यह बात याद रखना, भूलना नहीं

कहना तो और बहुत चाहती हूं, कैसे कहूं

हर बात बोल कर बताना, जरूरी तो नहीं

अलविदा कहने की भी जरूरत नहीं

जरूरी हो भी तो सामर्थ्य नहीं

भरोसा करने की तुम में ताकत नहीं

फिर भी कोई गिलाशिकवा नहीं

रोकने का तो हक नहीं, साथ चल लेती मगर

वादे कुछ खुद से किए हैं, झुठला सकती नहीं

गरूर की चिंगारी तो कभी थी ही नहीं

स्वाभिमान की लौ अभी बुझी नहीं

जो मैं ने सीखा, उस के लिए धन्यवाद

मेरे बाद जीवन तुम्हारा, रहे आबाद

भूल भी जाओ मुझे तो गम नहीं

भक्त थी तुम्हारी, दासी नहीं.      

                        – नेहा सैनी

कपूर एंड संसः चार दीवारी के अंदर रिश्तों की कश्मकश

लंबे समय से फिल्मों में परिवार गायब हो गया था. पर ‘प्रेम रतन धन पायो’ के बाद अब निर्माता करण जोहर और निर्देशक शकुन बत्रा भी अपनी नई फिल्म ‘‘कपूर एंड संस’’ में एक परिवार लेकर आए हैं. जिसमें कुछ भी नयापन नही है. वैसे भी फिल्म की कहानी ऐसे उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की है, जिसके दोनो बेटे न्यू जर्सी और लंदन में रहते हैं. ऐसे परिवार महानगरों में ही मिल सकते है. निर्देशक शकुन बत्रा के अलावा फिल्म से जुड़े कलाकारों फवाद खान, सिद्धार्थ मल्होत्रा और आलिया भट्ट ने दावा किया है कि इस फिल्म के उनके पात्रों के साथ हर इंसान रिलेट करेगा. मगर छोटे शहरों या कस्बों व गांवों में रहने वाले लोग खुद को अर्जुन कपूर, राहुल कपूर या टिया के साथ रिलेट कर पाएंगे? इस फिल्म को देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या आज की युवा पीढ़ी सेक्स के अलावा कुछ सोचती ही नही है. हमें ऐसा नहीं लगता. वैसे फिल्मकार के अनुसार यह रोमांटिक कामेडी ड्रामा फिल्म है.

फिल्म की कहानी चार दीवारी के अंदर बिखरे हुए परिवार की है. जिसके मुखिया अमरजीत कपूर उर्फ दादू (ऋषि कपूर) हैं, जिनके दो बेटे हैं – हर्ष कपूर और हरी. हरी का पूरा परिवार किसी अन्य जगह रहता है. जबकि हर्ष अपनी पत्नी सुनीता कपूर (रत्ना पाठक शाह) के साथ दादू के साथ रहते हैं. हर्ष के दोनो बेटे राहुल कपूर (फवाद खान) और अर्जुन कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) पिछले पांच साल से न्यू जर्सी और लंदन में रह रहे हैं. राहुल एक स्थापित लेखक है, जबकि अर्जुन लेखक बनने के लिए संघर्ष रत है. दादू को हार्ट अटैक आता है. इस खबर को सुनकर राहुल कपूर और अर्जुन कपूर अपने भारत में अपने पैतृक गांव कुन्नूर पहुंचते हैं. राहुल और अर्जुन के बीच शीतयुद्ध की स्थिति है. क्योंकि अर्जुन को लगता है कि उसके भाई राहुल ने उसकी कहानी चुराकर अपने नाम से छपवा कर शोहरत बटोर ली. पर दोनो भाई अपने दादू की खुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं.

इधर हर्ष और उसकी पत्नी सुनीता के बीच भी कई तरह के मतभेद हैं. कहानी में कई उतार चढ़ाव व मोड़ आते हैं. राहुल और अर्जुन अलग अलग परिस्थितियों में टिया (आलिया भट्ट) से मिलते हैं. बाद में टिया की ही वजह से राहुल और अर्जुन के बीच झगड़ा हो जाता है. उधर राहुल को पता चल जाता है कि उसकी मां सुनीता का शक सही है. उसके पिता हर्ष का किसी अन्य महिला के संग संबंध है. इतना ही यह राज भी सामने आता है कि अर्जुन की ही कहानी राहुल के नाम से छपी थी. सुनीता कबूल करती हैं कि उसने खुद ही अर्जुन की लिखी कहानी को चुराकर अपने ‘परफैक्ट बच्चा’ यानी कि राहुल को दी थी. पर राहुल को सच नही पता था. अर्जुन को लगता है कि राहुल का टिया से संबंध है. जबकि राहुल ‘गे’ है. उसे किसी भी लड़की में कोई रूचि नही है. पर वह इस सच को परिवार के लोगों से छिपाकर रखता आया है. वह सभी से झूठ बोलता रहा है कि न्यू जर्सी में उसकी गर्ल फ्रेंड है.

दादू की इच्छा के चलते परिवार तस्वीर के लिए जब परिवार के सभी लोग इकट्ठा होते हैं, तो सब के बीच ऐसे झगड़े होते हैं कि तस्वीर नहीं खिंच पाती है और गुस्से में घर से निकले हर्ष की कार दुर्घटना में मौत हो जाती है. एक माह बाद सभी अपने अपने गंतव्य को वापस चले जाते हैं. कुछ समय बाद फिर दादू के कहने पर वापस आते हैं. इस कहानी के बीच में टिया की भी कहानी है कि उसने अपने 13वें जन्मदिन पर विदेश से वापस आ रहे अपने माता पिता को बुरा भला कह दिया था, जो उसी दिन उसके जन्मदिन पर उसके साथ होने के लिए आते समय हवाई जहाज दुर्घटना में मारे गए थे. टिया को गम है कि वह अपने माता पिता से माफी भी नही मांग पायी थी.

फिल्म इंटरवल से पहले ऋषि कपूर की वजह से ठहाके लगाते हुए बीत जाती है. पर इंटरवल के बाद फिल्म की गति धीमी हो जाती है. वैसे शकुन बत्रा ने चार दीवारी के अंदर परिवार के सदस्यों के बीच की आपसी अनबन को बेहतर तरीके से चित्रित किया है. रिश्तों की कश्मकश भी सही अंदाज में उभरकर आती है. करण जोहर निर्मित फिल्म में ‘गे’ यानी कि समलैंगिक पात्र का होना अनिवार्य शर्त सी बनती जा रही है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो बड़े भाई व अपने माता पिता के ‘‘परफैक्ट बच्चा’’ के  किरदार में फवाद खान ने काफी अच्छा अभिनय किया है. ऋषि कपूर के अभिनय पर तो कोई सवाल उठाया ही नहीं जा सकता. वह इस फिल्म की जान हैं. आलिया भट्ट, सिद्धार्थ मल्होत्रा, रजत कपूर व रत्ना पाठक शाह ने अपने किरदारों को ठीक से निभाया है.

दो घंटे बीस मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘कपूर एंड संस’’ का निर्माण ‘‘धर्मा प्रोडक्शंस’’ के बैनर तले किया गया है. निर्देशक शकुन बत्रा, संगीतकार अमाल मलिक हैं.

 

दिन दहाड़े

मेरे भैयाभाभी अपने बेटे के लिए लड़की की तलाश में थे. कहीं भी बात न बनने के कारण उन्होंने न्यूजपेपर में 2-3 बार वैवाहिक विज्ञापन दिया. इस के 1 महीने बाद एक फोन आया और वे लोग घर का पता और लड़के के बारे में जानकारी लेने लगे. भाई ने सोचा कि विज्ञापन देख कर फोन किया होगा, उन्होंने अपना पता और विवरण दे दिया. इस के 1 घंटे बाद एक दंपती ने दरवाजे पर दस्तक दी और बताया कि वे बरेली से आए हैं. यहां उन का एक रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है और वे उसे देखने आए थे. उन्होंने पेपर में हमारा विज्ञापन देखा था तो सोचा दोनों काम हो जाएंगे.

बोलचाल में वे भले इंसान लग रहे थे, इसी कारण भाभी ने भी उन की अच्छी खातिरदारी की. उन्होंने घर देखा, लड़के से भी मिले और आगे की बात पक्की करने के लिए अपना फोन नंबर और पता दे कर अगले दिन फोन करने की बात कह कर रुखस्त होने लगे. जाने से पहले बोले, ‘‘बहनजी, आप को एक तकलीफ दे रहे हैं. असल में आते समय किसी ने मेरी जेब से पर्स निकाल लिया और हमें पता नहीं लगा. अब यहां आते समय जब रिकशा वाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला तो पर्स नहीं था. अगर आप को तकलीफ न हो तो 2 हजार रुपए दे दीजिए, हम अगली मुलाकात में हिसाब कर लेंगे.’’ मेरी भाभी ने उन्हें रुपए दे दिए और वे चले गए. अगले दिन उन का कोई फोन नहीं आया. फिर जब भाभी ने उन के दिए नंबर पर फोन किया तो ‘यह नंबर मौजूद नहीं है’ का संदेश आता रहा. दिन, हफ्ते और महीने बीत गए इस बात को, उन का कहीं पता नहीं चला. मेरी भाभी लड़की की तलाश के चक्कर में दिन दहाड़े ठगी गईं.

मधु गोयल, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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शहर में प्रदर्शनी लगी हुई थी जिस में विभिन्न स्थानों से आए हस्तशिल्प, कारीगर, कपड़े आदि की दुकानें लगी हुई थी. मैं भी एक दिन प्रदर्शनी देखने गई. वहां साडि़यों की भी कई दुकानें थीं. मुझे एक दुकान में रखी साड़ी बहुत पसंद आई. मैं ने दुकानदार से कीमत पूछी तो उस ने मुझे 800 रुपए बताए. मैं ने मोलभाव किया और अंत में वह दुकानदार 500 रुपए में साड़ी देने को तैयार हो गया. मैं खुशीखुशी साड़ी ले आई. कुछ दिनों बाद मेरी कामवाली बाई भी प्रदर्शनी देखने गई और उस ने घर आ कर मुझे बताया कि मेरी जैसी साड़ी उस ने भी खरीदी है, वह भी 200 रुपए में. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ परंतु उस ने मुझे साड़ी ला कर दिखाई. मैं तो हतप्रभ थी, इतनी ठगी वह भी दिनदहाड़े.

वंदना मानवटकर, सिवनी (म.प्र.) 

मैन इज अ लाफिंग एनीमल

हास्य कलाकार कपिल शर्मा के कौमेडी शो ‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ के शटर बंद होने के बाद दर्शकों की आई तीखी प्रतिक्रिया संकेत है कि हास्य की नियमित खुराक लोगों के लिए कितनी जरूरी है. आज सब को हास्य की कितनी शिद्दत से तलाश है, इस का प्रमाण उन सिनेमाघरों के समक्ष लंबीलंबी कतारें देख कर सहज ही लग जाता है जहां हास्य फिल्में चल रही होती हैं. अंगरेजी में मशहूर कहावत है, ‘मैन इज अ लाफिंग एनीमल’. यानी मनुष्य एक हंसने वाला प्राणी है.

दुनिया में हंसने का हुनर करोड़ों जीवों में सिर्फ हमें ही हासिल है. ऐसे में रोजमर्रा की बातों पर हंसीठिठोली और हलकेफुलके मजाक, जो रिश्तों में माधुर्य ही घोलते हैं, से चिढ़ने की जरूरत क्या है.

कुछ सामाजिक सिरफिरे होते हैं जिन्हें हास्य से पता नहीं क्यों ऐतराज रहता है. कुछ लोगों की ऐसी ही कारस्तानी के चलते दर्शकों को हंसाहंसा कर उन का मूड दुरुस्त करने वाले पलक यानी कीकू शारदा को अरैस्ट होना पड़ा. डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म ‘एमएसजी-टू’ के एक सीन को हंसोड़ अंदाज में पेश करने के लिए बेचारे को पुलिस के चक्कर में फंसाने वाले भूल गए कि इस तरह के कलाकार सिर्फ हंसी का सामान बांटते हैं, ये कोई अपराधी नहीं हैं. वैसे भी भारत में हास्य परंपरा आज की तो है नहीं. इस तरह के शो में पहले भी बड़े फिल्म कलाकारों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ले कर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पर हास्य कसा जाता है. ऐसे में ‘एमएसजी-टू’ जैसी फिल्म जो खुद राम रहीम की इमेज को रजनीकांत (फिल्म में राम रहीम एक मुक्के से हाथी को हवा में उड़ा देते हैं और एक हाथ से सैकड़ों तीरों को हवा में रोकने जैसे चमत्कारी स्टंट्स को अंजाम देते हैं) सरीखी पेश करती है, पर हास्य करना बड़ी बात नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन हमारे यहां तो धर्म का नशा अफीम से भी ज्यादा तेज है, लिहाजा, राम रहीम के बुरा लगने से पहले ही उन के अंधभक्तों, समर्थकों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं.

भाभीजी और रिश्तों की ठिठोली

पड़ोसी और भाभीजी के रिश्तों को बड़े चुटीले और मनोरंजक अंदाज में पेश करते धारावाहिक ‘भाबीजी घर पर हैं’ की बढ़ती लोकप्रियता से अंदाजा हो जाता कि लोगों में हास्य बोध तो बचा है, बस, जरूरत है उसे अपने आम जीवन और व्यवहार में उतारने की. धारावाहिक में आम दिनों की बोलचाल वाले तकियाकलाम बड़े मजेदार हैं, जैसे अंगूरी भाभी का गलत अंगरेजी बोलने पर ‘सही पकड़े हैं’, मनोज तिवारी का ‘हट पगली’, अनोखे लाल सक्सेना का ‘आई लाइक इट’, अंगूरी के पिता का ‘खचेडू कहां है’, दारोगा हप्पू सिंह का ‘जे का हो रओ है/कसम से बहुत बड़ी चिरांध हो तुम’ और अम्माजी का फोन पर ‘ए बहुरिया, ओ बैल कहां है.’ ये तमाम बातें हम अपने सामाजिक दायरे में कभी न कभी जरूर सुनते हैं. और उन्हीं से जुड़ कर हम धारावाहिक में दिखाए जा रहे किरदारों से भी जुड़ जाते हैं.

इसी तरह ‘लापतागंज’ और ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ धारावाहिक भी एक सोसायटी के कुछ किरदारों के जरिए हमारी रोजमर्रा की सामाजिक गतिविधियों को हंसी के कलेवर में पेश करते हैं. दरअसल, हमारा समाज भी कभी ऐसा ही था. गांवकसबों में तो आज भी ऐसा ही है. जहां भाभी व देवर की होली या दूसरे त्योहारों में चुहलबाजी स्वस्थ मानी जाती है. पड़ोसी का भाभी से हलकाफुलका मजाक और चौपालों व नुक्कड़ों में हर गंभीर मसले को हंसी में उड़ाने की परंपरा रही है.

सामाजिक विसंगतियां 

हास्य का समाजशास्त्र बताता है कि हास्य सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाता है. हास्य जहां एक ओर समाज की विसंगतियों की मरम्मत करता है वहीं दूसरी ओर वह इंसान की तनावग्रस्त व आक्रामक परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सेतु का कार्य भी करता है. होली, दीवाली व दशहरा जैसे उत्सवों पर हास्य की अभिव्यक्ति के उदाहरण हमें स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ते हैं. भारत में हास्य की परंपरा चौपालों और पनघटों से चल कर हास्य कवि सम्मेलनों तक पहुंची. एक जमाने में बड़ेबड़े राजामहाराजा स्वांग, नौटंकी के शौकीन थे. दरबार में तनाव दूर करने के हंसोड़ कलाकारों की नियुक्ति करते थे. अकबरबीरबल की हाजिरजवाबी के किस्सों से अगर हास्यबोध निकाल दें तो क्या बचेगा. इसी तरह तेनालीराम से ले कर पंचतंत्र आदि साहित्य अपने चुटीले हास्य के चलते आज भी पसंद किए जाते हैं.

सोशल मीडिया भी काफी हद तक हास्य के कंधे पर सवार हो कर ही इतनी पहुंच बना सका है. समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में सालों से प्रकाशित व्यंग्य, कार्टून, हर बड़ी हस्ती को मजाक की चाशनी में लपेट कर कटाक्ष करते आए हैं और सब ने खुले दिल से इस पर मुसकराहट बिखेरी है.

मनुष्य को पशुओं से इतर बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि के साथ हास्य का जो तोहफा मिला है उसे यों ही जाया जाने देना मूर्खता होगी. लेकिन अब हम हास्य से इतना चिढ़ने क्यों लगे हैं, क्यों हम हर बात पर गंभीर हो जाते हैं, हास्य से इतना परहेज आखिर किसलिए?

खुद पर हंसना सीखें

‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ नामक टैलीविजन धारावाहिक में डाक्टर साहब जरूरत से ज्यादा मोटे हैं. लेकिन कोई उन के मोटापे का मजाक उड़ाए उस से पहले ही उन्होंने अपना नाम हाथीभाई रख लिया है. जब उन्हें खुद ही अपने पर हंसना आता है तो जाहिर है कोई उन का क्या मजाक उड़ाएगा. हास्य से चिढ़ने वाले को भी यही सीखना होगा. जो लोग खुद पर हंसना सीख जाते हैं उन पर किसी के मजाक का असर नहीं होता.

कोई आप का मजाक तब तक ही उड़ाता है जब तक आप इस मजाक से चिढ़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं. अगर आप भी मजाक में शामिल हो कर खुद पर ठहाका लगाना सीख लें तो कभी भी मजाक से दूर नहीं भागेंगे. मशहूर हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन भी इसी सिद्धांत पर चलते थे. एक बार उन्होंने कहा था, ‘जब मुझे रोना आता है तो मैं बारिश में खड़ा हो जाता हूं और बारिश में किसी को आंसू नजर नहीं आते.’ अपनी फिल्मों में सब से ज्यादा मजाक वे खुद का उड़ाते थे. यही वजह है कि उन के हास्य की प्रासंगिकता आज भी जस की तस है. इस मामले में आलिया भट्ट से सबक लेने की दरकार है. आलिया ने करन जौहर के शो में भारत के राष्ट्रपति का नाम पृथ्वीराज चव्हाण बताया था. इसी के बाद आलिया भट्ट के नाम से जोक्स भी चलने लगे. उन के आईक्यू, सामान्य ज्ञान और मूर्खता को ले कर सोशल मीडिया में जम कर चुटकुलेबाजी हुई. इस बात पर चिढ़ने या किसी पर मानहानि का दावा ठोकने के पहले आलिया ने एक वीडियो के जरिए खुद का मजाक बनाया और अपने आत्मविश्वास का परिचय दे कर सब का मुंह बंद कर दिया.

मर्ज, मजाक और इलाज

कैलिफोर्निया के लिंडा विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ताओं-लीवर्क और डा. स्टेनलेटैन का निष्कर्ष यह है कि हास्य की क्रिया रक्तचाप को कम करती है, तनाव पैदा करने वाले हार्मोंस के स्तर को घटाती है. शोध बताते हैं कि हंसीमजाक कई मर्जों की दवा है, फिर भी हास्य को ले कर समाज में उदासीनता दिखाना समझ से परे है. डिप्रैशन के चलते लोग मानसिक व्याधियों की चपेट में आ रहे हैं. मजे की बात तो यह है कि हंसना भूल चुके लोगों को डाक्टर्स और मनोवैज्ञानिक लाफिंग थैरेपी और लाफिंग क्लब जौइन करने का सुझाव दे रहे हैं. हास्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए बड़ेबड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हंसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्यविनोद की व्यवस्था मुहैया कराई जाती है.

हमारे गंभीर होने की आदत, सैंस औफ ह्यूमर की कमी और हर मजाक को ले कर उग्र हो जाने के रवैये ने जिंदगी में न सिर्फ हास्यरस कम कर दिया है बल्कि हमें मानसिक तौर पर तनावग्रस्त व नीरस बना दिया है.

सैंस औफ ह्यूमर

उदाहरण के तौर पर इस चुटकुले को ही लीजिए :

संतो और बंतो, अपने पतियों के बारे में बात कर रही थीं.

संतो ने कहा, ‘विधवाएं हम से बेहतर हैं.’

बंतो, ‘वह कैसे?’

संतो, ‘कम से कम उन्हें यह तो पता होता है कि उन के पति कहां हैं.’

इस जोक को हास्यबोध से सुनें, समझें और हंसें तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन अगर सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करना है तो इस पर संतोबंतो समेत तमाम विधवा समाज भी आहत होने की बात कर सकता है. यहां तो हमें खुद फैसला करना है कि हास्य को स्वस्थ मनोरंजन की तरह लें या फिर… इस मसले पर वरिष्ठ लेखक खुशवंत सिंह बड़े दिलचस्प अंदाज में कहते थे, ‘सिखों के बारे में सरदारजी के नाम के चुटकुले सब से ज्यादा हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं फिर भी इन्हें बिना दिमाग वाला कहा जाता है.’ मजे की बात यह है कि ऐसे ज्यादातर चुटकुले सिख कौम के लोग ही बनाते हैं. जातबिरादरी को ले कर गढे़ गए चुटकुले भले ही आमतौर से अच्छे नहीं समझे जाते लेकिन दुनियाभर में इन चुटकुलों की भरमार है. चुटकुलों का लक्ष्य हमेशा वह समुदाय होता है जो देश में दूसरों से बेहतर होता है या कहें तरक्की कर चुके तबके से ईर्ष्या के प्रतिरूप इस तरह के चुटकुले बनते हैं. अपनेआप पर वही हंस सकता है जिस में आत्मविश्वास होता है.

दुख की बात है कि यह आत्मविश्वास अब न सिर्फ सिख समाज, बल्कि समाज का हर तबका खो चुका है, बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने किसी समुदाय का मजाक उड़ाने वाले चुटकुलों को ले कर गाइडलाइन बनाने की संभावना पर विचार करने को कहा है. गौर करने वाली बात यह है कि अगर सिख समुदाय पर संताबंता जोक्स सिर्फ इस आधार पर बैन कर दिए जाते हैं तो फिर हर तरह के जोक्स बंद होने चाहिए. क्योंकि कई तरह के जोक्स यूपी, बिहार और उत्तरपूर्व के लोगों पर केंद्रित होते हैं. न सिर्फ संताबंता बल्कि,  पतिपत्नी, टीचरस्टूडैंट, पड़ोसी, जीजासाली और इस तरह से किसी भी जाति या वर्ग विशेष को निशाना बनाने वाले जोक्स पर गौर कीजिए, कहीं न कहीं, किसी न किसी की भावना आहत हो ही रही होगी. हम अंगरेजों, विदेशियों को ले कर भी मजाक बनाते हैं. क्या अदालतों में इन्हें बैन करने को ले कर भी  याचिका डाल देनी चाहिए? इस तरह से हास्य और जोक्स के नाम पर शून्य ही बचेगा. दरअसल, हास्य किसी खास धर्मसमुदाय के अपमान के लिए, बल्कि मनोरंजन के लिए मजाकिया तौर पर प्रयोग किया जाता है और इसे हलकेफुलके हास्य की तरह ही लेना चाहिए.

गोल्डन केला और रैस्बेरी अवार्ड

अमेरिका के फिल्म उद्योग में सैंस औफ ह्यूमर को खासी तरजीह मिलती है. इसीलिए वहां बाफ्टा, एकेडमी अवार्ड्स को ले कर जितनी उत्सुकता देखने को मिलती है, उतनी उत्सुकता गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स में भी मिलती है. बता दें कि हौलीवुड के मनोरंजन जगत में गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स के जरिए साल के सब से खराब सिनेमा, अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक आदि को ट्रौफी दी जाती है. इसी की नकल पर भारत में कई सालों से गोल्डन केला अवार्ड्स साल की सब से खराब और हंसी का पात्र बनी फिल्मों को पुरस्कृत किया जाता है. यह मनोरंजन का एक जरिया माना जाता है. जैसे कि हमारे यहां आज भी कई इलाकों में महामूर्ख सम्मेलन में चुने हुए लोगों को सम्मानित किया जाता है.

गीतकार और स्टैंडअप आर्टिस्ट वरुण ग्रोवर एक ऐसे ही अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं. उन्होंने एक दफा भारतीयों के ड्राइविंग और ट्रैफिक के दौरान हौंक यानी तेज आवाज में हौर्न बजाने की आदत पर कटाक्ष किया तो दर्शकदीर्घा में बैठे एक सज्जन ने उन्हें यहां तक कह डाला कि भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए शर्म नहीं आती. वरुण के मुताबिक, हम भारतीय कभीकभी मजाक की बात को भी गंभीरता से ले कर उग्र हो जाते हैं जबकि डार्क ह्यूमर और ब्लैक कौमेडी में इतना तो चलता है. हमारे यहां लोग हंसना तो चाहते हैं, कमी है तो सिर्फ कौमन सैंस और सैंस औफ ह्यूमर की.

मजाक उड़ाना बनाम बनाना

मिमिक्री आर्टिस्ट और टीवी कलाकार सुगंधा मिश्र को लता मंगेशकर की बेहतरीन मिमिक्री के लिए जाना जाता है. लेकिन जब हाल में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यही ऐक्ट दोहराया तो कुछ लोगों ने तीखी आलोचना की. हालांकि लताजी का सैंस औफ ह्यूमर ज्यादा बेहतर निकला. इसलिए उन्होंने मामले को हंसी में लेते हुए कहा, यह आजाद देश है और हर कोई अपना व दूसरों का मनोरंजन करने के लिए स्वतंत्र है. इस बाबत मशहूर स्टैंडअप आर्टिस्ट राजू श्रीवास्तव कहते हैं, जरा सोचिए भारत में सैकड़ों मिमिक्री आर्टिस्ट हैं, जिन को देखते ही दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाते हैं. उन के द्वारा की गई सितारों की नकल के जरिए ही हम कई पुराने कलाकारों के अंदाज से वाकिफ होते हैं वरना नई पीढ़ी को आज भी पुरानी पीढ़ी के कई बड़े कलाकारों के नाम और शक्ल तक याद नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी एक कार्यक्रम में विरोधियों पर व्यंग्य कसते हुए कह रहे थे, ‘आप हार्वर्ड से आए होंगे, मैं यहां हार्ड वर्क से पहुंचा हूं.’ हालांकि वे भी जानते हैं कि सोशल मीडिया में विदेशी यात्राओं को ले कर उन की भी कम खिंचाई नहीं होती. शायद, इसलिए वे व्यंग्य कसने के बाद यह कहना नहीं भूले कि मुझे मालूम है कि मेरी इन बातों का मजाक उड़ाया जाएगा.

औफिस में चाहे बौस को ले कर गढ़े गए चुटकुले हों या फिर राजनीति की हस्तियों के नामों पर मौनी बाबा, पप्पू, फेंकू जैसे जुमलों का इस्तेमाल, इन पर चिढ़ने के बजाय हंसना ही चाहिए. हां, जब मजाक की सीमा लांघी जाए तब विरोध दर्ज करना जरूरी है क्योंकि मजाक उड़ाना कई बार मजाक बनाना बन जाता है. फोटोशौप के जरिए सोशल मीडिया में तसवीरों को अभद्र तरीके से जोड़ कर बेहूदा हास्य पैदा करना भी हास्य की शीलता भंग करता है. इस का विरोध होना जरूरी है. इसी तरह चुनावों के दौरान व्यंग्यशैली की आड़ ले कर व्यक्तिगत बयानबाजी भी कहीं से हास्य के दायरे में नहीं आती.  बहरहाल, जिंदगी के प्रति सकारात्मक रुख अपनाइए. हंसने के मौकों की तलाश कीजिए ताकि बोझिल हो रहे पलों को हलका बनाया जा सके.

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