हास्य कलाकार कपिल शर्मा के कौमेडी शो ‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ के शटर बंद होने के बाद दर्शकों की आई तीखी प्रतिक्रिया संकेत है कि हास्य की नियमित खुराक लोगों के लिए कितनी जरूरी है. आज सब को हास्य की कितनी शिद्दत से तलाश है, इस का प्रमाण उन सिनेमाघरों के समक्ष लंबीलंबी कतारें देख कर सहज ही लग जाता है जहां हास्य फिल्में चल रही होती हैं. अंगरेजी में मशहूर कहावत है, ‘मैन इज अ लाफिंग एनीमल’. यानी मनुष्य एक हंसने वाला प्राणी है.
दुनिया में हंसने का हुनर करोड़ों जीवों में सिर्फ हमें ही हासिल है. ऐसे में रोजमर्रा की बातों पर हंसीठिठोली और हलकेफुलके मजाक, जो रिश्तों में माधुर्य ही घोलते हैं, से चिढ़ने की जरूरत क्या है.
कुछ सामाजिक सिरफिरे होते हैं जिन्हें हास्य से पता नहीं क्यों ऐतराज रहता है. कुछ लोगों की ऐसी ही कारस्तानी के चलते दर्शकों को हंसाहंसा कर उन का मूड दुरुस्त करने वाले पलक यानी कीकू शारदा को अरैस्ट होना पड़ा. डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म ‘एमएसजी-टू’ के एक सीन को हंसोड़ अंदाज में पेश करने के लिए बेचारे को पुलिस के चक्कर में फंसाने वाले भूल गए कि इस तरह के कलाकार सिर्फ हंसी का सामान बांटते हैं, ये कोई अपराधी नहीं हैं. वैसे भी भारत में हास्य परंपरा आज की तो है नहीं. इस तरह के शो में पहले भी बड़े फिल्म कलाकारों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ले कर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पर हास्य कसा जाता है. ऐसे में ‘एमएसजी-टू’ जैसी फिल्म जो खुद राम रहीम की इमेज को रजनीकांत (फिल्म में राम रहीम एक मुक्के से हाथी को हवा में उड़ा देते हैं और एक हाथ से सैकड़ों तीरों को हवा में रोकने जैसे चमत्कारी स्टंट्स को अंजाम देते हैं) सरीखी पेश करती है, पर हास्य करना बड़ी बात नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन हमारे यहां तो धर्म का नशा अफीम से भी ज्यादा तेज है, लिहाजा, राम रहीम के बुरा लगने से पहले ही उन के अंधभक्तों, समर्थकों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं.
भाभीजी और रिश्तों की ठिठोली
पड़ोसी और भाभीजी के रिश्तों को बड़े चुटीले और मनोरंजक अंदाज में पेश करते धारावाहिक ‘भाबीजी घर पर हैं’ की बढ़ती लोकप्रियता से अंदाजा हो जाता कि लोगों में हास्य बोध तो बचा है, बस, जरूरत है उसे अपने आम जीवन और व्यवहार में उतारने की. धारावाहिक में आम दिनों की बोलचाल वाले तकियाकलाम बड़े मजेदार हैं, जैसे अंगूरी भाभी का गलत अंगरेजी बोलने पर ‘सही पकड़े हैं’, मनोज तिवारी का ‘हट पगली’, अनोखे लाल सक्सेना का ‘आई लाइक इट’, अंगूरी के पिता का ‘खचेडू कहां है’, दारोगा हप्पू सिंह का ‘जे का हो रओ है/कसम से बहुत बड़ी चिरांध हो तुम’ और अम्माजी का फोन पर ‘ए बहुरिया, ओ बैल कहां है.’ ये तमाम बातें हम अपने सामाजिक दायरे में कभी न कभी जरूर सुनते हैं. और उन्हीं से जुड़ कर हम धारावाहिक में दिखाए जा रहे किरदारों से भी जुड़ जाते हैं.
इसी तरह ‘लापतागंज’ और ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ धारावाहिक भी एक सोसायटी के कुछ किरदारों के जरिए हमारी रोजमर्रा की सामाजिक गतिविधियों को हंसी के कलेवर में पेश करते हैं. दरअसल, हमारा समाज भी कभी ऐसा ही था. गांवकसबों में तो आज भी ऐसा ही है. जहां भाभी व देवर की होली या दूसरे त्योहारों में चुहलबाजी स्वस्थ मानी जाती है. पड़ोसी का भाभी से हलकाफुलका मजाक और चौपालों व नुक्कड़ों में हर गंभीर मसले को हंसी में उड़ाने की परंपरा रही है.
सामाजिक विसंगतियां
हास्य का समाजशास्त्र बताता है कि हास्य सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाता है. हास्य जहां एक ओर समाज की विसंगतियों की मरम्मत करता है वहीं दूसरी ओर वह इंसान की तनावग्रस्त व आक्रामक परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सेतु का कार्य भी करता है. होली, दीवाली व दशहरा जैसे उत्सवों पर हास्य की अभिव्यक्ति के उदाहरण हमें स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ते हैं. भारत में हास्य की परंपरा चौपालों और पनघटों से चल कर हास्य कवि सम्मेलनों तक पहुंची. एक जमाने में बड़ेबड़े राजामहाराजा स्वांग, नौटंकी के शौकीन थे. दरबार में तनाव दूर करने के हंसोड़ कलाकारों की नियुक्ति करते थे. अकबरबीरबल की हाजिरजवाबी के किस्सों से अगर हास्यबोध निकाल दें तो क्या बचेगा. इसी तरह तेनालीराम से ले कर पंचतंत्र आदि साहित्य अपने चुटीले हास्य के चलते आज भी पसंद किए जाते हैं.
सोशल मीडिया भी काफी हद तक हास्य के कंधे पर सवार हो कर ही इतनी पहुंच बना सका है. समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में सालों से प्रकाशित व्यंग्य, कार्टून, हर बड़ी हस्ती को मजाक की चाशनी में लपेट कर कटाक्ष करते आए हैं और सब ने खुले दिल से इस पर मुसकराहट बिखेरी है.
मनुष्य को पशुओं से इतर बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि के साथ हास्य का जो तोहफा मिला है उसे यों ही जाया जाने देना मूर्खता होगी. लेकिन अब हम हास्य से इतना चिढ़ने क्यों लगे हैं, क्यों हम हर बात पर गंभीर हो जाते हैं, हास्य से इतना परहेज आखिर किसलिए?
खुद पर हंसना सीखें
‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ नामक टैलीविजन धारावाहिक में डाक्टर साहब जरूरत से ज्यादा मोटे हैं. लेकिन कोई उन के मोटापे का मजाक उड़ाए उस से पहले ही उन्होंने अपना नाम हाथीभाई रख लिया है. जब उन्हें खुद ही अपने पर हंसना आता है तो जाहिर है कोई उन का क्या मजाक उड़ाएगा. हास्य से चिढ़ने वाले को भी यही सीखना होगा. जो लोग खुद पर हंसना सीख जाते हैं उन पर किसी के मजाक का असर नहीं होता.
कोई आप का मजाक तब तक ही उड़ाता है जब तक आप इस मजाक से चिढ़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं. अगर आप भी मजाक में शामिल हो कर खुद पर ठहाका लगाना सीख लें तो कभी भी मजाक से दूर नहीं भागेंगे. मशहूर हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन भी इसी सिद्धांत पर चलते थे. एक बार उन्होंने कहा था, ‘जब मुझे रोना आता है तो मैं बारिश में खड़ा हो जाता हूं और बारिश में किसी को आंसू नजर नहीं आते.’ अपनी फिल्मों में सब से ज्यादा मजाक वे खुद का उड़ाते थे. यही वजह है कि उन के हास्य की प्रासंगिकता आज भी जस की तस है. इस मामले में आलिया भट्ट से सबक लेने की दरकार है. आलिया ने करन जौहर के शो में भारत के राष्ट्रपति का नाम पृथ्वीराज चव्हाण बताया था. इसी के बाद आलिया भट्ट के नाम से जोक्स भी चलने लगे. उन के आईक्यू, सामान्य ज्ञान और मूर्खता को ले कर सोशल मीडिया में जम कर चुटकुलेबाजी हुई. इस बात पर चिढ़ने या किसी पर मानहानि का दावा ठोकने के पहले आलिया ने एक वीडियो के जरिए खुद का मजाक बनाया और अपने आत्मविश्वास का परिचय दे कर सब का मुंह बंद कर दिया.
मर्ज, मजाक और इलाज
कैलिफोर्निया के लिंडा विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ताओं-लीवर्क और डा. स्टेनलेटैन का निष्कर्ष यह है कि हास्य की क्रिया रक्तचाप को कम करती है, तनाव पैदा करने वाले हार्मोंस के स्तर को घटाती है. शोध बताते हैं कि हंसीमजाक कई मर्जों की दवा है, फिर भी हास्य को ले कर समाज में उदासीनता दिखाना समझ से परे है. डिप्रैशन के चलते लोग मानसिक व्याधियों की चपेट में आ रहे हैं. मजे की बात तो यह है कि हंसना भूल चुके लोगों को डाक्टर्स और मनोवैज्ञानिक लाफिंग थैरेपी और लाफिंग क्लब जौइन करने का सुझाव दे रहे हैं. हास्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए बड़ेबड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हंसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्यविनोद की व्यवस्था मुहैया कराई जाती है.
हमारे गंभीर होने की आदत, सैंस औफ ह्यूमर की कमी और हर मजाक को ले कर उग्र हो जाने के रवैये ने जिंदगी में न सिर्फ हास्यरस कम कर दिया है बल्कि हमें मानसिक तौर पर तनावग्रस्त व नीरस बना दिया है.
सैंस औफ ह्यूमर
उदाहरण के तौर पर इस चुटकुले को ही लीजिए :
संतो और बंतो, अपने पतियों के बारे में बात कर रही थीं.
संतो ने कहा, ‘विधवाएं हम से बेहतर हैं.’
बंतो, ‘वह कैसे?’
संतो, ‘कम से कम उन्हें यह तो पता होता है कि उन के पति कहां हैं.’
इस जोक को हास्यबोध से सुनें, समझें और हंसें तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन अगर सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करना है तो इस पर संतोबंतो समेत तमाम विधवा समाज भी आहत होने की बात कर सकता है. यहां तो हमें खुद फैसला करना है कि हास्य को स्वस्थ मनोरंजन की तरह लें या फिर… इस मसले पर वरिष्ठ लेखक खुशवंत सिंह बड़े दिलचस्प अंदाज में कहते थे, ‘सिखों के बारे में सरदारजी के नाम के चुटकुले सब से ज्यादा हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं फिर भी इन्हें बिना दिमाग वाला कहा जाता है.’ मजे की बात यह है कि ऐसे ज्यादातर चुटकुले सिख कौम के लोग ही बनाते हैं. जातबिरादरी को ले कर गढे़ गए चुटकुले भले ही आमतौर से अच्छे नहीं समझे जाते लेकिन दुनियाभर में इन चुटकुलों की भरमार है. चुटकुलों का लक्ष्य हमेशा वह समुदाय होता है जो देश में दूसरों से बेहतर होता है या कहें तरक्की कर चुके तबके से ईर्ष्या के प्रतिरूप इस तरह के चुटकुले बनते हैं. अपनेआप पर वही हंस सकता है जिस में आत्मविश्वास होता है.
दुख की बात है कि यह आत्मविश्वास अब न सिर्फ सिख समाज, बल्कि समाज का हर तबका खो चुका है, बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने किसी समुदाय का मजाक उड़ाने वाले चुटकुलों को ले कर गाइडलाइन बनाने की संभावना पर विचार करने को कहा है. गौर करने वाली बात यह है कि अगर सिख समुदाय पर संताबंता जोक्स सिर्फ इस आधार पर बैन कर दिए जाते हैं तो फिर हर तरह के जोक्स बंद होने चाहिए. क्योंकि कई तरह के जोक्स यूपी, बिहार और उत्तरपूर्व के लोगों पर केंद्रित होते हैं. न सिर्फ संताबंता बल्कि, पतिपत्नी, टीचरस्टूडैंट, पड़ोसी, जीजासाली और इस तरह से किसी भी जाति या वर्ग विशेष को निशाना बनाने वाले जोक्स पर गौर कीजिए, कहीं न कहीं, किसी न किसी की भावना आहत हो ही रही होगी. हम अंगरेजों, विदेशियों को ले कर भी मजाक बनाते हैं. क्या अदालतों में इन्हें बैन करने को ले कर भी याचिका डाल देनी चाहिए? इस तरह से हास्य और जोक्स के नाम पर शून्य ही बचेगा. दरअसल, हास्य किसी खास धर्मसमुदाय के अपमान के लिए, बल्कि मनोरंजन के लिए मजाकिया तौर पर प्रयोग किया जाता है और इसे हलकेफुलके हास्य की तरह ही लेना चाहिए.
गोल्डन केला और रैस्बेरी अवार्ड
अमेरिका के फिल्म उद्योग में सैंस औफ ह्यूमर को खासी तरजीह मिलती है. इसीलिए वहां बाफ्टा, एकेडमी अवार्ड्स को ले कर जितनी उत्सुकता देखने को मिलती है, उतनी उत्सुकता गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स में भी मिलती है. बता दें कि हौलीवुड के मनोरंजन जगत में गोल्डन रैस्बेरी अवार्ड्स के जरिए साल के सब से खराब सिनेमा, अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक आदि को ट्रौफी दी जाती है. इसी की नकल पर भारत में कई सालों से गोल्डन केला अवार्ड्स साल की सब से खराब और हंसी का पात्र बनी फिल्मों को पुरस्कृत किया जाता है. यह मनोरंजन का एक जरिया माना जाता है. जैसे कि हमारे यहां आज भी कई इलाकों में महामूर्ख सम्मेलन में चुने हुए लोगों को सम्मानित किया जाता है.
गीतकार और स्टैंडअप आर्टिस्ट वरुण ग्रोवर एक ऐसे ही अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं. उन्होंने एक दफा भारतीयों के ड्राइविंग और ट्रैफिक के दौरान हौंक यानी तेज आवाज में हौर्न बजाने की आदत पर कटाक्ष किया तो दर्शकदीर्घा में बैठे एक सज्जन ने उन्हें यहां तक कह डाला कि भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए शर्म नहीं आती. वरुण के मुताबिक, हम भारतीय कभीकभी मजाक की बात को भी गंभीरता से ले कर उग्र हो जाते हैं जबकि डार्क ह्यूमर और ब्लैक कौमेडी में इतना तो चलता है. हमारे यहां लोग हंसना तो चाहते हैं, कमी है तो सिर्फ कौमन सैंस और सैंस औफ ह्यूमर की.
मजाक उड़ाना बनाम बनाना
मिमिक्री आर्टिस्ट और टीवी कलाकार सुगंधा मिश्र को लता मंगेशकर की बेहतरीन मिमिक्री के लिए जाना जाता है. लेकिन जब हाल में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यही ऐक्ट दोहराया तो कुछ लोगों ने तीखी आलोचना की. हालांकि लताजी का सैंस औफ ह्यूमर ज्यादा बेहतर निकला. इसलिए उन्होंने मामले को हंसी में लेते हुए कहा, यह आजाद देश है और हर कोई अपना व दूसरों का मनोरंजन करने के लिए स्वतंत्र है. इस बाबत मशहूर स्टैंडअप आर्टिस्ट राजू श्रीवास्तव कहते हैं, जरा सोचिए भारत में सैकड़ों मिमिक्री आर्टिस्ट हैं, जिन को देखते ही दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाते हैं. उन के द्वारा की गई सितारों की नकल के जरिए ही हम कई पुराने कलाकारों के अंदाज से वाकिफ होते हैं वरना नई पीढ़ी को आज भी पुरानी पीढ़ी के कई बड़े कलाकारों के नाम और शक्ल तक याद नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी एक कार्यक्रम में विरोधियों पर व्यंग्य कसते हुए कह रहे थे, ‘आप हार्वर्ड से आए होंगे, मैं यहां हार्ड वर्क से पहुंचा हूं.’ हालांकि वे भी जानते हैं कि सोशल मीडिया में विदेशी यात्राओं को ले कर उन की भी कम खिंचाई नहीं होती. शायद, इसलिए वे व्यंग्य कसने के बाद यह कहना नहीं भूले कि मुझे मालूम है कि मेरी इन बातों का मजाक उड़ाया जाएगा.
औफिस में चाहे बौस को ले कर गढ़े गए चुटकुले हों या फिर राजनीति की हस्तियों के नामों पर मौनी बाबा, पप्पू, फेंकू जैसे जुमलों का इस्तेमाल, इन पर चिढ़ने के बजाय हंसना ही चाहिए. हां, जब मजाक की सीमा लांघी जाए तब विरोध दर्ज करना जरूरी है क्योंकि मजाक उड़ाना कई बार मजाक बनाना बन जाता है. फोटोशौप के जरिए सोशल मीडिया में तसवीरों को अभद्र तरीके से जोड़ कर बेहूदा हास्य पैदा करना भी हास्य की शीलता भंग करता है. इस का विरोध होना जरूरी है. इसी तरह चुनावों के दौरान व्यंग्यशैली की आड़ ले कर व्यक्तिगत बयानबाजी भी कहीं से हास्य के दायरे में नहीं आती. बहरहाल, जिंदगी के प्रति सकारात्मक रुख अपनाइए. हंसने के मौकों की तलाश कीजिए ताकि बोझिल हो रहे पलों को हलका बनाया जा सके.