इस बार राधेश्यामजी होली में खुद को रोक न पाए. भई महबूबा संग बाथटब में होली मनाने का मौका कोई छोड़ता है भला. उन के दबे अरमान फिर से जाग उठे और फिर निकल पड़े वे सफेद कुरतापाजामा पहने... इधर राधेश्यामजी ने कई सालों से होली नहीं खेली थी. होली पर वे हमेशा घर में ही कैद हो कर रहते थे. एक दिन रविवार को सुबहसुबह राधेश्यामजी का मोबाइल बजा, तो उन्होंने तुरंत हरा बटन दबा कर फोन को कान पर लगाया. उधर से आवाज आई, ‘‘धौलीपुरा वाले राधू बोल रहे हो?’’ राधेश्यामजी ने कहा, ‘‘हां भई हां, बोल रहा हूं. मगर अब मैं धौलीपुरा महल्ले को छोड़ कर ‘रामभरोसे लाल’ सोसाइटी में रह रहा हूं. गंदी नाली और गलीकूचे वाला महल्ला छोड़ गगन चूमते अपार्टमैंट में रहने का मजा ही अलग है और यहां मु झे अब कोई राधू नहीं कहता.

यहां मेरी इज्जत है. इसलिए इस सोसाइटी के लोग मु झे प्यार से राधेश्यामजी कह कर इज्जत से बुलाते हैं. बताइए आप कौन साहिबा बोल रही हैं?’’ फिर उधर से आवाज आई, ‘‘मैं वही जिस के महल्ले की गलियों और कालेज के आसपास तुम चक्कर लगाया करते थे. मैं रिकशे पर बैठ कर कालेज जाती थी, तो तुम अपनी साइकिल पर सवार हो कर आहिस्ता से मु झे छेड़ते और फिल्मी प्रेमगीत गाते हुए निकल जाते थे. होली पर तो हमेशा ही मु झे अकेले में रंगने और मेरे ही आसपास फटकने की कोशिश में लगे रहते थे तुम. कई बार तो होली आने से पहले ही तुम ने मेरे घर की छत पर बने बाथरूम में मु झे पकड़ कर अकेले में मेरे अंगअंग रंगने और मेरे कोमल गाल अपने कठोर गाल से रगड़ने की बुरी कोशिश भी की थी. लेकिन यह सब मैं आज बोल रही हूं, तुम्हारी अपनी शन्नो.’’ ‘‘अरे, अरे... शन्नो. वह तपेश्वरी देवी मंदिर के पास पटकापुर वाली शन्नो. कहो, कैसी हो

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