बोलने वाले व सुनने वाले कहीं भी मिल जाएंगे. किसी भी पेड़ के नीचे टूटी चारपाइयों पर, बसस्टैंडों पर, चाय की दुकानों में, स्कूलोंकालेजों में, चर्चों, मसजिदों, मंदिरों, गुरुद्वारों में, एयरकंडीशंड हौलों में और यहां तक कि घर की बैठक और रसोई तक में भी. फर्क यह है कि इन बोलने व सुनने वालों की नीयत में हर जगह मतलब अलग होता है.

जहां स्कूलकालेजों में बोलने व सुनने वाले कुछ देना, बताना व जानना चाह रहे होते हैं वहीं सिनेमाहौल या म्यूजिक कंसर्ट में सिर्फ कुछ ऐसा सुनना चाह रहे होते हैं जो घंटों कानों में बजता रहे, कुछ मीठी यादें दिलाता रहे. टीवी, रेडियो भी यही कर रहे हैं. नेताओं को सुनने का मतलब है उन पर भरोसा कर के अपना वोट देना व अपने ऊपर उन के नियंत्रण को इजाजत देना.

मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे में सुनने का अर्थ है अपने को छोटा, बेकार मानना और किसी गुजरे व्यक्ति की पुरानी बात को ले कर आज की जिंदगी चलाना. यही नहीं, जो न सुने उसे जान से मार देना भी चाहे इस दौरान अपनी ही जान चली जाए.

अब बोलने व सुनने की नई विधा आ गई है, मोबाइल. इस में आप जीभर कर हर समय, रातदिन सुनते रह सकते हैं. यह सुनना एकतरफा है. आप सवाल नहीं पूछ सकते. अगर गाने सुन रहे हैं तो सवाल भी मन में पैदा नहीं होते. म्यूजिक सूदिंग होता है, बाहरी शोर को ढक देता है पर वह आप की कुछ सुन कर उस से कुछ सम झने की ताकत को कम कर देता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...