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चांद निकल आया

रेशमी जुल्फों पर कभी गुमान करते नहीं थकता था. मगर अब बादलों के बीच चांद ने कुछ यों दस्तक दी कि बाल कम होते जा रहे है और चांद पूरनमासी की तरह बढ़ता जा रहा है. भले ही तेल, आसन से ले कर दवादारू के सारे नुसखे फेल हो गए हों पर कमबख्त मजाल है कि हम हार मान जाएं. कुछ साल पहले की बात है, ज्यादा नहीं तो 5 साल जरूर हुए होंगे, उस समय मेरे सिर पर बहुत ही खूबसूरत बाल हुआ करते थे. एकदम कालेकाले, घने, मजबूत, रेशम जैसे मुलायम, चमकीले, झबरीले, बहुत ही शानदार. मैं अपने बालों में गजमोती पिरोया करता था. लोग कहते, ‘अरे, इस के बाल तो एकदम शाहरुख खान जैसे हैं.’

लोगों के कहतेकहते मैं सचमुच अपनेआप को शाहरुख खान समझने लगा और मेरे आदर्श शाहरुख खान हो गए. उस समय की फोटो जब भी मैं देखता हूं तो मेरा दिल बागबाग हो जाता है. मैं इतराने लगता हूं. अपने दोस्तों को बता कर अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता हूं यानी अपनी बालों की तारीफ खुद करता हूं. लेकिन वह जमाना कुछ और था, घर में खानेपीने की कुछ कमी न थी. दूधदही तो हम लोग खाते नहीं, नहाते थे. लेकिन आजकल तो सबकुछ नकली मिलता है. खानेपीने की चीजों में मिलावट, दूध के नाम पर यूरिया वाला दूध, जैसे कुछ भी इन दिनों असली नहीं है. इसलिए इस समय अच्छे शरीर तथा अच्छे शरीर में अच्छे बालों की कल्पना भी नहीं कर सकते.

एक दिन की बात है, मैं बाथरूम में नहा रहा था. बालों में शैंपू किया तथा शरीर में साबुन लगाया. जब अच्छी तरह नहा कर तौलिये से अपने बालों को सुखाने लगा, उसी दौरान मेरी नजर तौलिये पर गई. मैं तौलिये को देख कर दंग रह गया. मेरे तौलिये में असंख्य टूटे हुए बाल थे. मैं उसी दिन समझ गया कि मेरा आने वाला भविष्य अंधकारमय है. मैं ने तुरंत आईने में देखा, मेरे सिर पर ‘दूज का चांद काले बादलों के बीच’ झांक रहा था. उसी दिन मैं ने अपने खास मित्र की सलाह ली. वे बोले, ‘‘अपने बालों में तेल क्यों नहीं लगाते? जैसे शरीर के लिए विभिन्न तरह के भोजन की जरूरत होती है उसी तरह बालों के लिए तेल भी आवश्यक है.’’ मैं बाजार से बहुत सारे तेल ले कर आया, जैसे शुद्ध सरसों का तेल, बादाम तेल, नारियल तेल, आंवला तेल, औलिव औयल और अरंडी तेल. मित्र के निर्देशानुसार तेल लगाना शुरू किया. यह बात भूल कर कि लोग मुझे चिपकू कहेंगे.

दरअसल, मेरे अपने स्कूल में जो भी बच्चे तेल लगा कर आते थे, हम सभी साथी उन्हें चिढ़ाने के लिए चिपकू कहा करते थे. पहले मेरी जुल्फें उड़ा करतीं, लहराया करतीं पर अब हमेशा चिपकी रहती हैं. कुछ दिनों तक उपचार चला पर बालों का झड़ना फिर भी न रुका. सारे तेल व्यर्थ गए, कुछ फायदा न हुआ और न ही सिर में मसाज ही काम आया. मेरे दिल के जितने अरमान थे उन का तेल जरूर निकल गया. एक दिन मैं टैलीविजन में समाचार देख रहा था. कुछ देर बाद उस में विज्ञापन आने शुरू हो गए. विज्ञापन में चैनल दिखा रहा था कि एक गंजे व्यक्ति के भी सिर में बाल आ जाते हैं. कुछ महीने का एक कोर्स करना होता है जिस में कैप्सूल खाना तथा कुछ तेल लगाने होते हैं. कुछ दिन कोर्स करने के उपरांत उस व्यक्ति के सिर में पहले जैसे बाल वापस आ जाते हैं.

प्रचार वाला बोल रहा था, ‘‘अभी और्डर करें. नीचे दिए फोन नंबर पर. पूरे कोर्स के लिए 5 हजार रुपए लगेंगे. नहीं ठीक होने पर पूरे पैसे वापस किए जाएंगे. अभी और्डर करने पर आप को मात्र 3 हजार रुपए लगेंगे यानी पूरे 40 प्रतिशत की छूट. आप सभी और्डर करें और पाएं 2 हजार रुपए की छूट.’’

टैलीविजन में दिखाया जा रहा था कि उपचार शुरू होते ही एक बाल की जड़ में 3-4 बाल उग आए हैं और 2-3 महीने में गंजापन पूरी तरह से गायब हो जाता है. मैं ने टैलीविजन में नंबर देख कर तुरंत और्डर कर दिया. दवा का पैकेट आने पर उपचार प्रारंभ किया. 2-3 महीने उपचार के उपरांत बालों में बाल बराबर भी फायदा न हुआ.  धीरेधीरे मेरे सिर के बाल और कम हो गए. स्किन के डाक्टर को भी दिखाया पर समस्या थोड़ी भी कम न हुई, बल्कि गहरी होती जा रही थी. न दिन को चैन न रातों को आराम, बस एक ही चिंता, केवल बाल ही बाल. सपने में भी बालबाल नजर आते. मैं हमेशा सोचता था कि मेरा बदन जब अच्छा है तो मेरे बाल भी अच्छे ही रहेंगे, मेरे बालों का कोई बाल भी बांका न कर सकेगा. पर ऐसा हो न सका.

मेरे एक और करीबी मित्र ने एक सलाह दी जो पहले वे अपने पर आजमा चुके थे. वे बोले, ‘‘ये बाल मैं ने धूप में नहीं पकाए हैं. मेरा अनुभव है, तभी मैं बोल रहा हूं. आप अपने बालों को ट्रिमिंग (बाल मशीन से एकदम छोटा करना) करा लीजिए, इस से जड़ भी मजबूत होंगी और बाल टूटेंगे भी नहीं.’’ एक दूसरे मित्र बोले, ‘‘आप सिर सफा (मुंडन) करा लीजिए. सिर की रूसी खत्म हो जाएगी और बाल मजबूत हो जाएंगे.’’ मुझे इन दोनों का वैज्ञानिक कारण समझ के परे था, पर मरता क्या न करता वाली बात चरितार्थ हो रही थी. मैं ने अपने बालों की ट्रिमिंग तथा सफा एक बार नहीं कईकई बार कराया. बस, इसी उम्मीद में कि मेरे बालों की बगिया में शायद फिर से बहार आ जाए. लेकिन ट्रिमिंग तथा सफा से बस एक बात का दुख होता, जब भी घर से बाहर निकलता तो लोग पूछते, कोई दुखांत घटना हो गई है क्या? कोई मर गया है क्या? मैं व्याख्या देतेदेते परेशान हो जाता.

आखिर मैं ने निर्णय लिया कि मैं टोपी लगा लूंगा जिस से सिर पूरी तरह ढक जाएगा और लोग परेशान भी नहीं करेंगे. टोपी लगाने पर भी लोग टोपी के अंदर झांकते और पूछते, ‘कोई मर गया है क्या?’ मतलब कि लोगों को किसी भी तरह चैन नहीं है.

कुछ दिनों तक नहाने के बाद तौलिए में बाल ढूंढ़ा करता, पर एक न मिलता. मेरा दिल कहता, मैं तो बालबाल बचा. बाल आता कहां से, सिर में बाल रहे तब न बाल आएंगे. कुछ दिनों बाद जब बाल लंबे हुए, फिर भी समस्या कम न हुई. मेरे सिर पर अब दूज का चांद नहीं, अब तो अष्टमी का चांद निकल आया था.

एक बहुत ही करीबी मित्र ने सलाह दी कि आप बालों की रोपाई क्यों नहीं करा लेते हैं. सिर के पीछे के बाल आगे की ओर रोप देते हैं और खर्च भी ज्यादा नहीं, मात्र 60 हजार रुपए से ले कर 1 लाख रुपए के बीच ही आएगा अथवा आप विग (नकली बालों की टोपी) लगा लीजिए, जैसे कि बहुत सारे फिल्मी हीरोहीरोईन या रईस लोग बालों की रोपाई करा लेते हैं या विग लगा लेते हैं. मैं ठहरा आदर्शवादी विचारधारा वाला, मेरा दिल इस बात को मानने को तैयार न हुआ. मैं सोचता कि रोपाई किए हुए बाल या बालों की विग तो नकली हुई न, मुझे तो असली चाहिए, पर मैं वह कर न सका.

मेरे एक और मित्र ने सलाह दी. वे बोले, ‘‘देखिए, मेरे खिचड़ी बाल भले हो गए हैं पर एक भी नहीं गिरे. मेरी बात मानिए, आप आसन करिए, जैसे शीर्षासन. इस से सिर में खून का दौरा बढ़ जाता है और सिर के बालों को काफी फायदा होता है.’’

मैं तो शुरूशुरू में कर नहीं पाता था लेकिन धीरेधीरे अभ्यास करतेकरते करना सीख गया. कुछ दिन करने के उपरांत कुछ भी लाभ न दिखाई दिया, उलटे सिर में जो भी कुछ बचे हुए बाल थे वे भी धीरेधीरे चले गए. और मेरे सिर पर अब चौदहवीं का चांद निकल आया था. यानी मैं एकदम से परमानैंट गंजा हो गया था. पहले मेरे आदर्श हुआ करते थे शाहरुख खान पर आज मेरे आदर्श हैं अनुपम खेर एक जन बोले, ‘‘अरे भाई, यह तो वंशागत है. यह कभी भी ठीक न होगा.’’ पर मैं ने आज भी उम्मीद नहीं छोड़ी है क्योंकि उम्मीद पर तो दुनिया कायम है, दोस्तों. बरसों का प्रयास व्यर्थ रहा और यह आज तक संभव न हो सका. अब तो मेरे खास मित्र, मुझे ‘उजड़ा चमन’ कह कर बुलाते हैं. मैं बिलकुल बुरा नहीं मानता. आज भी मैं मित्रों, दोस्तों, संबंधियों, रिश्तेदारों, जो बालों के बारे में सलाह देते हैं, की बातों का पालन करता हूं, वह भी बिना बाल की खाल निकाले.

मैं आज भी सकारात्मक उम्मीद लिए जेब में कंघी ले कर घूमता हूं. इस वैज्ञानिक युग में शायद कभी खोए हुए मेरे बाल वापस आ जाएं. फिलहाल, गंजे सिर पर हाथ फेर कर अपने दिल को सुकून देने की कोशिश करता रहता हूं.

प्रत्यूषा बनर्जी : आत्महत्या और अनसुलझे सवाल

अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी का स्वर अभी भी कानों में गूंज रहा है. मेरे साथ पहले इंटरव्यू के दौरान उस ने बताया था कि टीवी धारावाहिक ‘बालिका वधू’ में बड़ी आनंदी के किरदार को निभाने के लिए हजारों लड़कियों के बीच से उसे कैसे चुना गया था. 18 वर्ष की उम्र में इतने बड़े शो की मुख्य भूमिका का मिलना काफी अहम था क्योंकि मुंबई में बड़ी संख्या में लड़के, लड़कियां एक अच्छी भूमिका के लिए सालोंसाल दिनरात न जाने कितने प्रोडक्शन हाऊसों के चक्कर लगाते रहते हैं. प्रत्यूषा को बचपन से अभिनय का शौक था. वह कई बार आईने के सामने खड़ी हो कर अभिनय किया करती थी. जमशेदपुर के साधारण बंगाली परिवार में पलीबढ़ी प्रत्यूषा को जब बालिका वधू के लिए औडिशन का मौका मिला तो वह पहले लखनऊ, फिर मुंबई आई. इस धारावाहिक की मुख्यपात्र बन कुछ ही दिनों में वह सब की चहेती बन गई. उस की बातों में दृढ़ विश्वास था. वह हंसमुख थी, सौम्य थी. मुंबई में अभिनय की दुनिया की चकाचौंधभरी जिंदगी, ग्लैमरस पार्टियां प्रत्यूषा को अच्छी लगने लगीं. उस ने पहले विकास गुप्ता, मकरंद मलहोत्रा से डेटिंग की और फिर अभिनेतानिर्माता राहुल राज सिंह से डेटिंग करती रही. राहुल भी जमशेदपुर के हैं. एक बर्थडे पार्टी में एक कौमन फ्रैंड के जरिए वे दोनें मिले थे.

‘बालिका वधू’ की प्रसिद्धि से प्रत्यूषा खुश थी लेकिन इस धारावाहिक का अतिव्यस्त शूटिंग कार्यक्रम उस को रास नहीं आया. 2013 में जब यह धारावाहिक अपनी लोकप्रियता के चरम पर था तभी प्रत्यूषा ने इस धारावाहिक को यह कह कर छोड़ दिया कि वह बे्रक चाहती है, रोजरोज की शूटिंग से तंग आ चुकी है.बाद में यह भी सुना गया कि उस ने अपनी मां की बीमारी के चलते शो छोड़ा था. इस के बाद उस ने रिऐलिटी शो ‘झलक दिखला जा’ के 5वें सीजन और ‘बिग बौस’ के 7वें सीजन, ‘कौमेडी क्लास’, ‘ससुराल सिमर का’, ‘पावर कपल’ आदि किए.

24 वर्षीय प्रत्यूषा बनर्जी की मौत सब को चौंकाने वाली थी क्योंकि अप्रैल में ही वह राहुल राज सिंह से शादी करने वाली थी. उस ने अपनी भावी शादी का जोड़ा डिजाइनर रोहित वर्मा को डिजाइन के लिए दिया था. ऐसे में पंखे से लटक कर आत्महत्या की वजह समझ में नहीं आ रही. आखिर इतनी हंसमुख और स्पष्टवादी लड़की किस तरह से ऐसा कदम उठा सकती है. कुछ लोगों ने तो 1 अप्रैल के इस दिन को ‘अप्रैल फूल’ माना. पर जब हकीकत सामने आई तो फैमिली और फ्रैंड्स के होश उड़ गए. हालांकि पोस्टमौर्टम रिपोर्ट में मौत की वजह आत्महत्या माना गया है लेकिन प्रत्यूषा के दोस्त और साथी कलाकार इसे हत्या मानते हैं. उन के अनुसार, राहुल एक ऐयाश लड़का है. इस से पहले उस ने कोलकाता की एक लड़की से शादी की थी और फिर उसे छोड़ दिया था. इस के बाद वह प्रत्यूषा से मिला. और 1 साल से प्रत्यूषा के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रहा और प्रत्यूषा से वह शादी करने वाला था.

इस बीच, उस के जीवन में सलोनी शर्मा नाम की एक लड़की आई जो एक धारावाहिक में काम करती है. राहुल और सलोनी की नजदीकी प्रत्यूषा को पसंद नहीं थी. उस ने राहुल से सलोनी को छोड़ने के लिए कहा पर राहुल नहीं माना. प्रत्यूषा के दोस्त और साथी कलाकारों का कहना है कि राहुल को अपनी गर्लफ्रैंड्स के पैसों पर ऐश करने में मजा आता है. रात की पार्टियों में वह अकसर दिखाई पड़ता था. प्रत्यूषा काफी दिनों से तनाव में जी रही थी. ऐसे में उस का अकेले रहना कहां तक ठीक था? प्रत्यूषा अपने और राहुल के रिश्ते से खुश थी. इंस्टाग्राम पर वह काफी तसवीरें पोस्ट किया करती थी. ऐसे में आत्महत्या की वजह समझना मुश्किल हो रहा है. यह सही है कि लिवइन रिलेशनशिप आजकल के युवाओं का पसंदीदा रिश्ता है. यह बड़े शहरों में बढ़ भी रहा है. ग्लैमरवर्ल्ड में तो लिवइन की भरमार है. छोटे शहरों से आई लड़कियां या लड़के जब मायानगरी मुंबई की इस चकाचौंध को देखते हैं तो इसे हजम कर पाना उन के लिए मुश्किल होता है. ऐसी घटनाएं यहां होती रहती हैं जब रिलेशनशिप में रहने वाले लड़के और लड़कियां अपना काम पूरा होने के बाद एकदूसरे को छोड़ देते हैं. कुछ तो डिप्रैशन के शिकार हो कर आत्महत्या कर लेते हैं तो कुछ तांत्रिक, पंडेपुजारी के जाल में फंस जाते हैं और अपना पैसा व इज्जत दोनों गंवा बैठते हैं.

लिवइन रिलेशनशिप में रहने वाले प्रत्यूषा और राहुल की यही कहानी थी. जिस में राहुल ने ऐश किया और प्रत्यूषा मंजिल से भटक कर मौत के मुंह में समा गई. प्रत्यूषा की मौत को उस के दोस्त मर्डर मानते हैं. प्रत्यूषा की दोस्त काम्या पंजाबी और विकास गुप्ता ने दावा किया है कि प्रत्यूषा ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उस की हत्या की गई है. राहुल की प्रेमिका सलोनी शर्मा भी, राहुल की गैरहाजिरी में, प्रत्यूषा के साथ दुर्व्यवहार करती थी. काम्या ने कहा कि मृत्यु से 3-4 दिन पहले प्रत्यूषा ने फोन कर उसे राहुल की बात बताई थी और उस से मदद मांगी थी. काम्या उस समय दिल्ली में थी और 4 अप्रैल को मुंबई पहुंच कर उस से मिलने वाली थी.

लिवइन रिलेशनशिप में रहना आज लड़के और लड़कियों में आम है पर इस रिश्ते में आई समस्याओं को झेलना उन के लिए आसान नहीं होता. इस बारे में मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं, ‘‘प्रत्यूषा उदासीनता की शिकार थी. अभी तक जो बात सामने आ रही है उस के हिसाब से उस का निजी जीवन, मातापिता से संबंध और कैरियर ये तीनों ही सही नहीं थे, ऐसे में डिप्रैशन होना स्वाभाविक है.’’ लिवइन रिलेशनशिप की बढ़ती संख्या को देख कर सुप्रीम कोर्ट ने 13 अप्रैल, 2015 को इसे मान्यता दे दी है. कोर्ट के अनुसार, अगर लड़का या लड़की अपनी मरजी से साथ रहते हैं तो उन्हें शादीशुदा माना जाएगा. उन के बच्चे भी जायज ठहराए जाएंगे.

रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट डा. संजय मुखर्जी कहते हैं, ‘‘लिवइन रिलेशनशिप में लड़का या लड़की दोनों में आपसी समझ अच्छी होनी चाहिए. एकदूसरे पर जल्दी भरोसा करना ठीक नहीं होता. अंधविश्वासी होना ठीक नहीं है. इस रिश्ते में टाइमपास कर दोनों पार्टनरों में से कोई भी रिश्ते को छोड़ सकता है.’’ डा. संजय आगे कहते हैं, ‘‘प्रत्यूषा की घटना को पर्सनैलिटी डिस्और्डर कहना ठीक होगा जिसे ‘न्यूरोटिसिज्म’ कहते हैं. यह अधिकतर आनुवंशिकी होता है. प्रत्यूषा अपने मांबाप की इकलौती संतान थी. ऐसे में राहुल का उसे धोखा दे कर किसी और के साथ समय बिताना उसे ‘हर्ट’ कर गया. ऐसे लोगों को अगर प्यार, खुशी सबकुछ ठीक तरह से मिले तो ये मस्त जिंदगी जीते हैं और अगर इन्हें जरा भी किसी से तकलीफ मिलती है, ये बरदाश्त नहीं कर पाते.’’

प्रत्यूषा ने कम उम्र में सफलता हासिल की थी. लेकिन पैसा, बौयफ्रैंड आदि सब धीरेधीरे उस से छिनता चला गया. अभिनय से शिखर पर पहुंची प्रत्यूषा अभिनय की ग्लैमरस दुनिया की शिकार हो गई. उस ने आत्महत्या की, उसे आत्महत्या करने को मजबूर किया गया या उस की हत्या की गई, इस पर संशय रहेगा.

अब अंबेडकर को देवता बनाने की साजिश

असलियत को ढकने का सब से अच्छा तरीका यह है कि उस पर राजनीति का परदा डाल दो. ऐसा करने से लोगों का बात की तह तक पहुंच पाना मुश्किल हो जाता है. और उस परदे के पीछे धर्म व उस के ठेकेदार इत्मीनान से साजिशें रचते रहते हैं.

14 अप्रैल को डा. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती देशभर में, बिलकुल धार्मिक जलसों की तरह, धूमधाम से मनाई गई. जगहजगह शोभायात्राएं निकलीं, अंबेडकर की फोटुओं और मूर्तियों का पूजन हुआ, कई जगह प्रसाद भी चढ़ाए गए. पंडाल, झांकियों की तरह सजाए गए और आतिशबाजी भी की गई. आरती की जगह भीम गीत गाए गए. ऐसा लगा, मानो आज रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, हनुमान जयंती या दुर्गा अष्टमी जैसा कोई त्योहार है. बच्चे, औरतें, बूढ़े और जवान सब एक जनून में नाचतेगाते रथयात्राओं के साथ चले तो सहज लगा कि ये अंबेडकरपूजक, दरअसल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उन से अंबेडकर को दूर करने की कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है.

दलितों का जोश और जनून देख सभी भौचक थे कि इस साल ही क्यों अंबेडकर जयंती इतनी ज्यादा धूमधाम से मनाई जा रही है, इस के पहले तक 14 अप्रैल को दलित हिमायती कुछ दल और संगठन अपनेअपने दफ्तरों में अंबेडकर को याद कर भाषण दे कर चलते बनते थे. एकाध जगह बड़ी मीटिंग कर ली जाती थीं जिन में कुछ दलित नेता बाबासाहेब के दलित उत्थान में योगदान को ले कर हर साल दिया जाने वाला भाषण दोहरा देते थे. पर इस साल अंबेडकर जयंती पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी की तरह नए तरीकों व सलीके से मनाई गई तो कहने, देखने, सुनने वालों ने यही कहा कि यह वोटों की राजनीति है और सभी सियासी पार्टियां दलितों को लुभाने में लगी हैं. हालांकि ऐसा तो इस देश में होता रहता है लेकिन इस साल कुछ ज्यादा ही हो गया.

शो महू का

अंबेडकर के नाम पर सब से बड़ा और अहम जलसा ‘दलित कुंभ’ इंदौर के नजदीक महू में हुआ जो अंबेडकर की जन्मस्थली भी है. इस जलसे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. नरेंद्र मोदी ने जो बोला उस के भी माने हैं और जो वे नहीं बोल पाए, उस के भी माने थे.

मोदी का महू आना इत्तफाक या महज सियासी बात नहीं थी बल्कि भाजपा की महती जरूरत हो गई थी. इस जलसे की तैयारियां दरअसल इस जनवरी में ही शुरू हो गई थीं जिस के कर्ताधर्ता मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे. बिहार विधानसभा चुनाव में दलितों ने भाजपा को ठेंगा दिखा दिया था और इस का दोहराव मध्य प्रदेश की लोकसभा सीट रतलाम-झाबुआ में हुआ था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया ने भाजपा की निर्मला भूरिया को तकरीबन एक लाख वोटों से शिकस्त दी थी. इस नतीजे की खास बात यह थी कि शहरी इलाकों, जहां अधिकतर ऊंची जाति वाले रहते हैं, से भाजपा ने बढ़त ली थी लेकिन गांवदेहातों, जहां अभी भी पिछड़ों, अतिपिछड़ों व दलितों की तादाद ज्यादा है, से कांग्रेस आगे रही थी. मध्य प्रदेश भाजपा का गढ़ है फिर भी भाजपा हारी तो शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के रणनीतिकारों का चौंकना लाजिमी था. लिहाजा, जम कर इस हार पर बारीकी से चर्चा हुई और जब वजह सामने आई तो पता चला कि दलित और आदिवासी अब पौराणिकवादी भाजपा के साथ नहीं हैं.

यह वाकई बेहद चिंता की बात थी. लिहाजा, शिवराज सिंह चौहान और आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के बीच कई दफा लंबी मीटिंगों के दौर चले कि कैसे दलितों को अपने खेमे में लाया जाए. इसी बीच, मध्य प्रदेश की मैहर विधानसभा सीट का उपचुनाव आया जिस में हैरतअंगेज तरीके से भाजपा जीती.

यह जीत भगवा खेमे के लिए गर्व की बात थी. जीत के पीछे वजह इतनी भर थी कि चुनाव के पहले ही शिवराज सिंह चौहान ने मैहर में दलितों के एक संत रविदास की जयंती सरकारी तौर पर मनाने का ऐलान किया था और रविदास का मंदिर बनाने के लिए जमीन व मदद देने का भी ऐलान किया था. चुनाव प्रचार में मैहर की दलित बस्तियों में घूमघूम कर खुद शिवराज सिंह चौहान ने ये बातें दोहराई थीं.

यही वह वक्त था जब दलित समुदाय आरएसएस को ले कर डरा हुआ था क्योंकि वह आरक्षण पर दोबारा सोचविचार की बात कर रहा था. इस से दलितों और भाजपा के बीच खुदी खाई और गहरी हो गई थी. लेकिन शिवराज सिंह चौहान का आइडिया मैहर में चल गया कि दलितों को लुभाने का एक बेहतर और कारगर तरीका यह भी है कि उन्हें उन के संतों के नाम पर बहलायाफुसलाया जाए, इस में हर्ज की कोई बात नहीं, उलटे फायदा यह है कि भाजपा के सिर से ऊंची जाति वालों और मनुवादी पार्टी होने का ठप्पा हटने में सहूलियत रहेगी.

भाजपा और आरएसएस ने सार यह निकाला कि अब 12-15 फीसदी ऊंची जाति वालों को खुश रखने के लिए दलित, आदिवासियों के 35-40 फीसदी वोट गंवाना समझदारी की बात नहीं क्योंकि वे अब राजनीति में पहले सी दिलचस्पी नहीं लेते. लिहाजा, बड़े पैमाने पर दलितों को धर्म से इस तरह जोड़ा जाए कि वे ऊंची जाति वाले देवीदेवताओं को ही पूजने की जिद न करें और दबंग व पैसे वाले होते जा रहे पिछड़े भी नाराज न हों जो तकरीबन सवर्ण हो चुके हैं.

इस के लिए जरूरी था कि अंबेडकर की जन्मस्थली महू में नरेंद्र मोदी को लाया जाए. इस बाबत शिवराज सिंह 2 मर्तबा पीएम से मिले और आरएसएस के जरिए भी दबाव बनवाया. लिहाजा, मोदी को महू आने को तैयार होना पड़ा.

शिवराज सिंह और आरएसएस की जोड़ी ने मोदी की सभा को कामयाब बनाने के लिए दिनरात एक कर दिया और महू में 5 लाख दलितों को जुटाने का टारगेट अपनेआप को दिया जो हालांकि पूरा नहीं हुआ. लेकिन मोदी की कदकाठी के लिहाज से लाज बचाने लायक भीड़ इकट्ठा करने में यह जोड़ी कामयाब रही.

मोदी जो नहीं बोले

नरेंद्र मोदी क्या बोलेंगे, इस में सभी की दिलचस्पी थी पर मोदी की दिक्कत यह थी कि जरूरत से ज्यादा दलितों की हिमायत की या हमदर्दी दिखाई तो दांव उलटा भी पड़ सकता है. लिहाजा, वे बेहद सधे ढंग से बोले.

उन्होंने अंबेडकर को महज आदमी नहीं, बल्कि एक संकल्प बताया और इस के बाद ग्राम उदय योजना और बिजली, पानी व शौच पर भाषण देते वक्त उन के बारे में बात काट दी. जिस से दलितों के हाथ मायूसी ही लगी जो आस लगाए आए थे कि प्रधानमंत्री एक दफा इस गलतफहमी को अंबेडकर जयंती पर खुलेतौर पर दूर कर दें कि कुछ भी हो जाए, आरक्षण नहीं हटेगा. इस से लगा कि इस मसले पर भगवा खेमा ही 2 धड़ों में बंटा हुआ है. अपने जानेपहचाने अंदाज में यह कहकर जरूर मोदी ने तालियां पिटवा दीं कि एक चाय बेचने वाला, यानी  अंबेडकर और उन के बनाए संविधान की वजह से ही, पीएम है. खुद को गरीब तबके का बताते मोदी ने यह भी दोहराया कि उन की मां घरों में काम करती थीं.

खुद को गरीब बता कर पीएम बनने के लिए वे पहले से ही हमदर्दी बटोर रहे हैं पर महू में पुराने डायलौग को दोहराने का मकसद यह था कि जाति की बात खुलेतौर पर कहने से बचा जाए. ऐसा पहली बार हुआ कि मोदी के बोलने में पहले सा दम नहीं दिखा क्योंकि वे मुद्दों की बात नहीं बोल पा रहे थे. मुद्दे की बातें थीं कि हिंदू धर्म में पसरी छुआछूत, भेदभाव और वर्ण व्यवस्था के चलते अंबेडकर ने 11 अक्तूबर, 1956 को हिंदू धर्म छोड़ बौद्ध धर्म अपनाते यह कहा था कि ऐसा लग रहा है कि आज मेरा दूसरा जन्म हुआ है. आज भी हालात बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं. इसी दिन हैदराबाद के खुदकुशी कर चुके दलित छात्र रोहित वेमुला के घरवालों ने बौद्ध धर्म अपनाया तो नागपुर में जेएनयू के छात्र कन्हैया

कुमार की जम कर बेइज्जती हिंदूवादी संगठनों ने की क्योंकि कन्हैया सीधेसीधे आरएसएस पर उस के घर में घुस कर निशाना साध रहा था. ऐसे में आरएसएस का भोपाल सहित देश के कई हिस्सों में पौराणिक व ब्राह्मणी तर्ज पर अंबेडकर जयंती पर पथ संचलन करना यानी जुलूस निकालने की तुक क्या थी, बात समझ से परे है. भोपाल में स्वयंसेवकों ने पहली दफा अंबेडकर की मूर्ति पर फूलमाला चढ़ाई. भारत माता के वेष में छोटी लड़कियों को इस्तेमाल किया तो आरएसएस का मकसद साफ था कि अब मुद्दा भारत माता होगा क्योंकि वह सभी तरह के हिंदुओं का है. मान्य देवियां अब ऊंचे सवर्णों, पिछड़ों के लिए रिजर्व हो गई हैं. बिना घरबार वाली भारत माता को दलितों और पिछड़ों के अछूत वर्गों को पकड़ाया जा रहा है.

हांका जा रहा है दलितों को

दलितों का पढ़ालिखा, बुद्धिजीवी तबका नरेंद्र मोदी से आरक्षण पर उन का रुख एकदम साफ करने के अलावा यह सुनने की उम्मीद भी पाले बैठा था कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव बड़े अभिशाप हैं, इन से छुटकारा दिलाया जाएगा. पर मोदी खुले में शौच जाने पर चिंता जताते रहे तो साफ हो गया कि इस बार बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाए जाने का मकसद इतना भर था कि दलित अपनेआप को हिंदू मानने लगें और वे अंबेडकर को देवता मानें तो यह और खुशी की बात है क्योंकि इस पर पिछड़ों को भी कोई एतराज नहीं है. हर एक पिछड़ी जाति का अपना एक अलग देवता है जिस की जयंती वे भी धूमधाम से मनाने लगे  हैं. शौच पर बात तो नरेंद्र मोदी करते हैं पर सीवर डलवाने और नल से पानी जाने की नहीं क्योंकि उस के बिना शौचालय बेमतलब का है. शौचालय को तो बहाना बनाया जा रहा है.

दरअसल, दलितों को हांका जा रहा है ताकि वे मुसलमान, ईसाइ या बौद्ध न बनें. अंबेडकर के नाम पर ही नए पुजारियों के साथ सही पूजापाठ तो करें, आरती गाएं, झांकियां लगाएं, शोभायात्राएं निकालें, प्रसाद चढ़ाएं, नाचेगाएं, अगरबत्तियांमोमबत्तियां जलाएं. यह खुशी की बात है और इस के लिए उन के सामने मोदी, शिवराज या भागवत को सवर्णों की तरफ से झुकना पड़े तो हर्ज या नुकसान की कोई बात नहीं. आरएसएस के लिए तो हमेशा की तरह आज भी हिंदू धर्म खतरे में है जिसे बचाए रखने के लिए दलितों की तादाद अहम है और भाजपा को वोट दे कर सत्ता में बैठाए रखने में भी दलितों का रोल अहम हो चला है.

अब यह दलितों को तय करना है कि कौन सा रास्ता उन के लिए भले का है– पूजापाठ वाला जिस के लिए अंबेडकर को उन का देवता बनाया जा रहा है या फिर सामंत व सवर्णवाद से लड़ने के लिए तालीम व रोजगार हासिल करने वाला जिस के लिए उन्हें किसी देवीदेवता की जरूरत नहीं. भाजपा जिस सामाजिक समरसता की बात कर रही है, उस का रास्ता मंदिरों और पंडेपुजारियों से हो कर नहीं जाता बल्कि बराबरी का अपना हक हासिल करने से है.

पहले वाले रास्ते में दलित खुद भी यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि छोटी जाति में पैदा होना उन का पिछले जन्मों का फल है, इसलिए लातें तो खानी पड़ेंगी, यही प्रायश्चित्त है. यही वह हालत थी जिस का बुद्ध ने विरोध किया था और अंबेडकर ने भी. उन दोनों ने अपनेअपने समय में आगाह भी किया था कि उन्हें या किसी और आदमी को देवता या भगवान मत बना देना वरना पूजापाठ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा. हिंदूवादी आज दलितों को पौराणिक तर्ज पर पूजापाठ में उलझा व उकसा रहे हैं और इस बाबत पहली दफा आरएसएस ने भी कमर कस ली है. दलित कल बेचारे थे और आज भी वे बेचारे जैसे हैं क्योंकि वे भाजपा व आरएसएस की इस साजिश को समझ नहीं पा रहे.

दलित और आरक्षण

भाजपा अब दलितों को गले तो लगा रही है पर आरक्षण का क्या होगा, इस सवाल का वह साफ जवाब नहीं दे पा रही. आरक्षण का राग आरएसएस ने छेड़ा था. बिहार में तो वोटर ने इस का करारा जवाब दे दिया पर अब हालात बदले हैं.

आरक्षण पर दोबारा सोचविचारी का गाना आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गाया था पर महू शो के बाद लग ऐसा रहा है कि वह दलितों के मुंह से ही कहलवाना चाह रही है कि पैसे वाले दलितों को आरक्षण छोड़ देना चाहिए. रामविलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान ने इस बात का समर्थन किया तो महू में नरेंद्र मोदी ने इसी बात को दूसरी तरह से इशारों में कहा कि उन के कहने पर कई पैसे वालों ने गैस सब्सिडी छोड़ दी.

क्या इस बात का मतलब यह समझा जाए कि पैसे वाले दलित खुद आरक्षण छोड़ दें? इसे ले कर दलित समुदाय में बेहद कशमकश का माहौल है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान कहते रहे हैं कि कुछ भी हो जाए, मौजूदा आरक्षण व्यवस्था खत्म नहीं होगी.

मौजूदा आरक्षण व्यवस्था बदली नहीं जाएगी, इस की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं. ऐसे में तो पढ़ेलिखे दलित चिंता में हैं कि कहीं ऐसा न हो कि बदलाव के नाम पर उन्हें ठग लिया जाए. कांग्रेस देशभर में कमजोर हो चुकी है तो बसपा के पास भी पहले सा जनाधार नहीं रहा. उलटे, खुद मायावती यह कहती रहती हैं कि गरीब सवर्णों को आरक्षण देने में हर्ज नहीं.

यानी सवर्ण दल अब दलितों को और दलित दल अब सवर्णों को लुभाने की बातें व राजनीति कर रहे हैं. इस में नुकसान दलितों का ही होना है. उधर, आरएसएस का दलितों को संदेशा साफ है कि पूजापाठ करो तो स्वागत है और बराबरी चाहिए तो सवर्ण हो चले दलितों को आरक्षण छोड़ने को तैयार रहना चाहिए. लेकिन ऐसे में अगर अब आरएसएस ने आरक्षण का गाना दोबारा गाया तो तय है इस की कीमत भाजपा को और उस से भी पहले नरेंद्र मोदी को चुकानी पड़ेगी क्योंकि महू शो इन दोनों की ही मिलीभगत से तय हुआ था.

दलित वोटबैंक भुनाने में कोई भी पीछे नहीं

दलितों पर राजनीति किया जाना नई बात नहीं है और अंबेडकर जयंती इस के लिए सुनहरा मौका होता है. भाजपा के महू शो की तैयरियों का अंदाज सभी पार्टियों को था. लिहाजा, सभी ने अंबेडकर के बहाने दलितों को लुभाने और बहकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बसपा सुप्रीमो लखनऊ से तिलमिलाती हुई बोलीं कि भाजपा को देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं होने देंगे तो उन का मकसद इतना भर जताना था कि भाजपा मनुवादी पार्टी है और दलित हिंदू नहीं हैं.

ऐसा पहली बार हुआ जब भाजपा ने बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाई जिस से मायावती को दलित वोटों पर अपना दबदबा खतरे में नजर आया.  मायावती की तरह कांग्रेस ने भी भाजपा को जम कर यह कहते  कोसा कि वह धर्म के नाम पर देश को बांट रही है और अंबेडकर के नाम पर राजनीति कर रही है. इधर, महू में यही आरोप मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के सिर मढ़ दिया कि वह अंबेडकर के नाम पर राजनीति करती रही है, नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो बाबासाहेब की जन्मस्थली तक उन की जयंती पर आए.

कांग्रेस ने तो बाकायदा भीम ज्योति यात्रा का आयोजन किया था जो 18 अप्रैल को लखनऊ में खत्म हुई. इस मौके पर कांग्रेसी नेता मोहसिना किदवई ने भाजपा को निशाने पर लेते कहा कि वह जिन्ना की मुसलिम लीग की तरह है और लोगों को सांप्रदायिक तौर पर बांटने व उन में नफरत फैलाने का काम करती है. कांग्रेस के दलित नेता सुशील कुमार शिंदे ने महू शो पर निशाना साधते कहा कि दरअसल, अंबेडकर जयंती धूमधाम से मनाने का पहला फैसला कांग्रेस ने लिया था जिस की भनक भाजपा को लगी तो उस की नींद खुली.

दलितों और अंबेडकर पर सियासत कर रहे इन तमाम दलों की नींद जरूर अभी तक नहीं खुली है कि असल में गड़बड़झाला कहां है. शिवराज सिंह चौहान महू में मोदी के गुणगान में लगे रहे तो मोहसिना किदवई और शिंदे लखनऊ में सोनिया व राहुल की तारीफों में कसीदे गढ़ते रहे. दलित राजनीति के अखाड़े में बिलाशक बाजी भाजपा ने मारी जिस ने सभी के अंदाजों को झुठलाते हुए दलितों के सामने अपना सिर झुका दिया. उत्तर प्रदेश में चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं, ऐसे में महू का शो बसपा और कांग्रेस दोनों को भारी पड़ सकता है.

यह हकीकत दलित समुदाय बेहतर जानता है कि कोई पार्टी उस की सगी नहीं है. कांग्रेस का लंबे वक्त तक दलित वोटों पर एकछत्र राज रहा तो इस सिलसिले को कांशीराम ने बसपा बना कर तोड़ा. बाद में मायावती दलितों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं तो दलितों ने उन्हें भी खारिज कर दिया.

दलित अब भाजपा को गले लगाएंगे, इस में शक है. पिछले अनुभव बताते हैं कि जिस किसी भी पार्टी ने भी दलितों पर जरूरत से ज्यादा राजनीति की है वह सत्ता पाने में कामयाब नहीं हुई है. इस की बेहतर मिसाल मध्य प्रदेश है जिस के 2003 के विधानसभा चुनाव में तब के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का दलित प्रेम इतने शबाब पर था कि वे यह तक कहने लगे थे कि कांग्रेस को सवर्ण वोटों की जरूरत नहीं. तब से कांग्रेस सूबे की सत्ता से बाहर है.

इस का एक मतलब यह भी निकलता है कि जरूरत से ज्यादा लगाव और हमदर्दी दिखाने वालों को दलित नकार देता है क्योंकि इस से उस की सामाजिक परेशानियां हल नहीं होतीं, न ही उसे बराबरी का हक मिलता है. वह शुरू से ही दोयम दरजे का रहा है, इस से उसे कोई छुटकारा नहीं दिलाता. ऐसे में जातिगत समीकरण का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कह पाना मुश्किल है.

कुंभ में नहलाएंगे दलितों को

दलित अब पूरी तरह खुद को हिंदू महसूस करने लगे, इस बाबत आरएसएस और शिवराज सिंह चौहान दलित आदिवासियों को कुंभ में नहाने का भी इंतजाम कर रहे हैं. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की रजामंदी से ‘दलित आदिवासी स्नान’ की डुबकी उज्जैन में 12 मई से 15 तक होगी. इस डुबकी को संघ ने समरसता स्नान नाम दिया है. इस के लिए बाकायदा अलग पंडाल लगाया जा रहा है और खुद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत व दूसरे पदाधिकारी दलितों के साथ नहाएंगे, खाना खाएंगे और पूजापाठ करेंगे. इन टोटकों को और कारगर बनाने के लिए अंबेडकर की जन्मस्थली महू से पानी लाया जाएगा. यह ‘दलित स्नान’ अपनेआप में भेदभाव से भरा है. जिस के जरिए संदेश यह भी दिया जा रहा है कि दलित ऊंची जाति वालों से अलग हैं और अंबेडकर भले ही पूजापाठ व नदी स्नान सहित दूसरे कर्मकांडों की मुखालफत करते थे पर उन्हें भगवान मानने वाला दलित नहीं करता, क्योंकि वह हिंदू है.

दलित आदिवासी क्यों कुंभ नहाएं, इस  सवाल का एक जवाब यह भी है कि वे तर जाएं और पुराने जन्मों के पाप धो लें जिन के चलते वे शूद्र योनि यानी छोटी जाति में पैदा हुए. दलित डुबकी के दूसरे माने ये हैं कि कुंभ में आए पंडों, संतों और महंतों को चढ़ावा ज्यादा मिले. उज्जैन में बड़े नामीगिरामी संत और उन के अखाड़े तंबू गाड़े हिंदुत्व के इन नए ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं. दलितों को महू की तरह उज्जैन तक ले जाने की सूबे में तैयारियां जोरों पर हैं जिस का एक मकसद यह भी है कि दलित नए हिंदूवाद में आरएसएस का साथ दें जिस के तहत हरएक को भारत माता की जय बोलना चाहिए. जय श्रीराम की जगह भारत माता को दे दी गई है जिस से ऊंची जाति वाले हिंदू राममंदिर निर्माण के बाबत सवाल न पूछें.

दलितों को कुंभ नहलाने के ऐलान से सब से ज्यादा खुश पिछड़े तबके के लोग हैं जिन्हें दलितों से अलग कर बड़ा हिंदू मान लिया गया है. वर्णव्यवस्था का विरोध करते रहने वाले अंबेडकर के उसूलों को क्षिप्रा नदी में डुबकी लगा कर दलित भूल जाएं और नई वर्णव्यवस्था को मंजूरी दे दें. इस का असल मकसद है कि तुम हिंदू तो हो पर अभी छोटे हो. इसलिए और बड़ा बनने के लिए कर्मकांडों में उलझ जाओ.

उत्तर प्रदेश : मुखौटा भर हैं भाजपा के नए अध्यक्ष

भारतीय जनता पार्टी राजनीतिक सुचिता की पक्षधर रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव के समय उस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा कि लोकसभा मंदिर की तरह है. जब हमारी सरकार आएगी तो लोकसभा के दागी सदस्यों को संसद से बाहर किया जाएगा. नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के समय इस बात को खुल कर कहा कि केवल दूसरे दलों के लोगों को ही नहीं, भाजपा के भी ऐसे सदस्यों को संसद से बाहर कर दिया जाएगा.

मोदी ने देश को अपराधमुक्त राजनीति का सपना दिखाया था. सत्ता में आने के बाद पहली बार जब नरेंद्र मोदी संसद में प्रवेश करने लगे तो संसद की सीढि़यों से पहले रुक कर उन्होंने संसद की सीढि़यों को छू कर सिर झुकाया और नमन किया. उस समय भी नरेंद्र मोदी ने संसद को अपराधियों से मुक्त करने की अपनी बात को दोहराया. राजनीतिक सुचिता की बात करने वाली भाजपा ने संसद में बैठे अपराधी नेताओं के संबंध में तो कोई नया बदलाव नहीं किया, उलटे भाजपा में जो दागी नेता चुनाव जीत कर आए उन को पार्टी में ऊंचा ओहदा दे कर उन का सम्मान और बढ़ा दिया. इन में सब से बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या हैं. केशव प्रसाद मौर्या 2014 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर संसदीय सीट से चुनाव जीत कर लोकसभा सदस्य बने.

केशव प्रसाद मौर्या पर हत्या, लूट, दंगा फैलाने और ऐसे ही तमाम आरोपों के 11 आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. केशव प्रसाद पर पहला मुकदमा 1996 में कौशांबी जिले के पश्चिम शरीरा थाने में दंगा, सरकारी काम में बाधा, पुलिस पर हमला और बलवा फैलाने का दर्ज हुआ. 1998 में दूसरा मुकदमा थाने पर बलवा, धमकी, पुलिस पर हमला और सरकारी काम में बाधा डालने की धाराओं में इलाहाबाद जिले के कर्नलगंज थाने में दर्ज हुआ. 2008 में कौशांबी जिले के मोहम्मदपुर रईसा थाने में धोखाधड़ी, जालसाजी समेत कई दूसरी धाराओं के तहत तीसरा मुकदमा दर्ज हुआ. इसी थाने में धार्मिक स्थल तोड़ने, बलवा और दंगा भड़काने का मुकदमा भी लिखा गया. 2011 में 3 मुकदमे दर्ज हुए. पहला मंझनपुर थाने में बलवा, दंगा भड़काने, मारपीट और धमकी देने का. कोखराज थाने में अल्पसंख्यक युवक की हत्या और साजिश का मुकदमा लिखा गया और कोखराज थाने में ही दंगा भड़काने का मुकदमा भी लिखा गया.

साल 2013 में कौशांबी जिले के मंझनपुर थाने में बलवा, लूट, मारपीट का मुकदमा लिखा गया. इसी साल सिविल लाइन थाने में भीड़ एकत्र कर पुलिस टीम पर हमला करने का मुकदमा लिखा गया. इस में उन को पकड़ा भी गया. 2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ आंदोलन में वे कूद पड़े. तब उन पर बलवा करने, पुलिस पर हमला करने और सरकारी संपत्ति को तोड़ने के आरोप लगे.2012 में कौशांबी जिले की सिराथू विधानसभा सीट से विधायक चुने गए. इस के बाद उन्होंने 2014 में फूलपुर लोकसभा सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और चुनाव जीत कर सांसद बन गए. 47 साल के केशव प्रसाद 18 साल तक विश्व हिंदू परिषद के प्रचारक रहे. अयोध्या आंदोलन के दौरान विश्व हिंदू परिषद से वे जुड़े थे और बाद में कौशांबी व इलाहाबाद को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर पहचान बनानी शुरू कर दी. अपनी चाय की दुकान पर काम करने वाले केशव कम समय में करोड़पति बन गए. कई कंपनियों में मालिक तो कई कंपनियों में वे साझेदार हैं.

सांसद से प्रदेश अध्यक्ष

भाजपा के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी के कई बड़े नेता दौड़ में थे. जिन लोगों के नाम बाहर चल रहे थे उन में केशव प्रसाद का नाम शामिल नहीं था. भाजपा के ही कई नेता कहते हैं कि भाजपा के संगठन से जुड़े कुछ प्रमुख नेताओं को पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई की सरल कार्यशैली पसंद नहीं आ रही थी. इन नेताओं को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का करीबी माना जाता है. डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई के फेसबुक पेज पर भाजपा के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने मन की भड़ास को निकाला भी है. इस में तमाम तरह के आरोप लगाए गए हैं. केवल भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं में ही केशव का यह विरोध नहीं दिखाई देता, विरोधी दल भी केशव पर हमलावर हैं. इलाहाबाद और कानपुर में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने भी केशव प्रसाद पर सवाल उठाए हैं. कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने पोस्टर लगा कर पूछा, ‘चाय बेचने वाले केशव भैया, रहस्य पर से परदा हटाओ. करोड़पति बनने का राज तो बताओ.’ कानपुर में कार्यकर्ताओं ने ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ नाम से पोस्टर लगा कर केशव को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया.

भाजपा में केशव को कृष्ण का अवतार बता कर उन का प्रचार करने वाले पोस्टर भी लगाए गए. भाजपा के हाईकमान ने केशव को प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिया पर वह विधानसभा चुनाव में उन की भूमिका को कम करने की जुगाड़ में भी नई योजनाएं बना रहा है. भाजपा को प्रदेश में ऐसा नेता चाहिए था जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का मुखौटा बन कर काम कर सके.

जातीय समीकरण

उत्तर प्रदेश में पिछड़ी और दलित जातियों के बीच अतिपिछड़ी जातियां भी हैं. इन की संख्या पिछड़ी जातियों से कम नहीं है. भाजपा बहुत समय पहले से अतिपिछड़ी जातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है. केशव प्रसाद अतिपिछड़ी जातियों में से ही आते हैं. पिछड़ी जातियों में अतिपिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी करीब 55 फीसदी है. इन के पास पैसा नहीं है और पिछड़ी जातियों के ही दबंगों से डरे रहते हैं इसलिए इन को सवर्ण जातियों के करीब माना जाता है. मौर्या जाति से सवर्णों को कोई खतरा महसूस नहीं होता. यह जाति हिंदूवादी विचार, पूजापाठ में यकीन रखती है. खुद केशव प्रसाद की छवि हिंदूवादी नेता की है. भाजपा उन की छवि का लाभ लेना चाहती है. भाजपा विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण का पूरी तरह से ध्यान रख रही है. पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोटबैंक हैं. जिन से अतिपिछड़ी जातियों को परेशानी महसूस होती है.

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में मौर्या बिरादरी की 2 लड़कियों की हत्या कर उन के शवों को पेड़ पर लटकाने की जो घटना हुई थी उस में पिछड़ी जाति के बीच आपसी भेदभाव को सामने रख दिया गया था. जातीय आधार पर पिछड़ी जातियों में जो दूरियां हैं, भाजपा उन का लाभ उठा कर विधानसभा चुनावों में अतिपिछड़ी जातियों का नया वोटबैंक बनाना चाहती है. उधर, समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव 17 अतिपिछड़ी जातियों को दलित वर्ग में शामिल कराने के प्रयास में लगे हैं. मुलायम सिंह यादव का कहना है कि ये 17 जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद कमजोर और दलितों जैसी हालत में हैं. उन को दलित वर्ग में शामिल कर लिया जाएगा तो उन को भी दलितों वाली सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा. इस राजनीतिक दांवपेंच से अतिपिछड़ी जातियों के महत्त्व को समझा जा सकता है. केशव प्रसाद मौर्या की छवि जातीय नेता के बजाय हिंदूवादी नेता की है. ऐसे में अतिपिछड़ी सभी जातियां उन के साथ खड़ी होंगी, इस बात को ले कर भाजपा भी पूरी तरह से विश्वस्त नहीं है.

खामोश ने गरमाई सियासत

बिहारी बाबू उर्फ शत्रु भैया उर्फ शौटगन उर्फ खामोश, शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी जीवनी का विमोचन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव से करवा कर बिहार की सियासत में जो चिंगारी भड़काई थी वह भयानक आग का रूप लेती जा रही है. नीतीश और लालू के हाथों बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार के जख्म से भाजपा उबर भी नहीं पाई थी कि उस के ही सांसद ने विरोधी दलों के नेताओं के हाथों अपनी जीवनी जारी करवा कर भाजपा के जख्मों को फिर से हरा कर दिया. फिल्मी परदे के विलेन अब अपनी पार्टी के लिए भी विलेन बन चुके हैं. लिहाजा उन के नाम पर भाजपा का हर बड़ाछोटा नेता ‘खामोश’ हो कर कन्नी काट जाता है.

18 मार्च को पटना में भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी बायोग्राफी ‘एनीथिंग बट खामोश’ का विमोचन लालूनीतीश की जोड़ी से करवा कर बिहार की राजनीति और भाजपा के भीतर तूफान पैदा कर दिया है. उन के जलसे में भाजपा के किसी भी नेता को न्योता नहीं दिया गया था. इस से भाजपाई तिलमिलाए हुए हैं, लेकिन उस के बाद भी शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ पार्टी कोई कार्यवाही नहीं कर पा रही है. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा कर पार्टी फिलहाल अपनी छीछालेदर कराने के मूड में नहीं है, जबकि शत्रु, इसी का इंतजार कर रहे हैं. पार्टी की लाख बेरुखी के बाद भी शत्रुघ्न पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं. वे चाहते हैं, पार्टी ही उन्हें बाहर निकालने की पहल करे, ताकि वे शहीद का सेहरा ले कर अपने वोटरों के बीच जा सकें. शत्रु ने लालू और नीतीश से दोस्ती गांठ कर अपना राजनीतक विकल्प पहले से ही तैयार कर रखा है. गौरतलब है कि किताब के विमोचन जलसे में लालू ने शत्रु को भाजपा छोड़ने की सलाह तक दे डाली थी. साथ ही, उन्हें जोश दिलाते हुए कहा कि अपनी खामोशी तोडि़ए. नो रिस्क नो गेन. चुप्पी तोडि़ए और आगे बढि़ए.

लालू के साथ नीतीश ने भी शत्रुघ्न सिन्हा को पटाने के लिए अपना पासा फेंक दिया. उन्होंने शत्रु के बिहार में फिल्मसिटी बनाने के ड्रीम प्रोजैक्ट में मदद देने का ऐलान कर डाला. अपनी जीवनी के बहाने शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी शौटगन से एक बार फिर पौलिटिकल फायरिंग शुरू कर दी है. यह उन का पुराना हथकंडा है. अपनी बयानबाजी से पार्टी में अलगथलग किए जाने के बाद वे फिल्मी स्टाइल में दहाड़ लगा कर सामने वाले को ‘खामोश’ करने की कवायद शुरू कर देते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव के पहले जब शत्रुघ्न को बेटिकट करने की हवा उड़ी तो बौखलाहट में उन्होंने ‘नीतीश चालीसा’ पढ़ना शुरू कर दिया था.

खामोश की गर्जना

फिल्मों में तो शत्रुघ्न की ‘खामोश’ की गर्जना सुन कर सामने वाला चुप हो जाता था, पर सियासत में उन का यह मशहूर डायलौग लोगों को कई तरह की बातें बोलने के लिए उकसाता रहा है. सियासत में लोगों को खामोश होने के बजाय बकबक करने में ज्यादा महारत हासिल होती है. इस के पहले पार्टी लाइन से अलग चलते हुए उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता कर अपनी और पार्टी की फजीहत कराई थी. उन का मानना था कि पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सीनियर और काबिल नेताओं को किनारे लगा कर नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ किया गया, जो पार्टी के लिए ठीक नहीं हैं.

लोकसभा चुनाव के पहले ‘नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है’ और ‘बिहार में राजग गठबंधन के टूटने के लिए नीतीश जिम्मेदार नहीं हैं’ कह कर शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी पार्टी भाजपा की छीछालेदर कर दी थी. गठबंधन टूटने के बाद से भाजपा लगातार नीतीश कुमार और उन की सरकार पर हमला कर रही थी और कई मसलों पर उन्हें कठघरे में कर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई थी. ऐसे में उस के ही सांसद शत्रु ने नीतीश के तारीफों के पुल बांध कर उस की राजनीति को मटियामेट कर डाला था. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि शत्रु अकसर अपने नाम के लिहाज से ही काम करते हैं. दोस्ती निभाना उन की फितरत में नहीं है. जहां रहते हैं वहां वे ‘शत्रु’ की तरह व्यवहार करते हैं. इसी वजह से फिल्म इंडस्ट्री और राजनीति में उन्होंने अपने कई ‘शत्रु’ खड़े कर लिए हैं. वे कहते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, इसी वजह से भाजपा में कभी वे कोई बढि़या पद नहीं पा सके, जिस का उन्हें मलाल भी रहता है.

सत्ता का सफर

सिनेमा में खलनायक के रोल से अपने ऐक्ंिटग कैरियर की शुरुआत करने वाले शत्रुघ्न बाद में भले ही नायक बन गए पर 80 के दशक में सियासत में उतरने के बाद से अब तक उन के भीतर दबाछिपा खलनायक बारबार बाहर आता रहा है. फिलहाल उन की सियासी खलनायकी कुछ ज्यादा ही तेज हो चुकी है. साल 1996 में भाजपा ने उन्हें पहली बार राज्यसभा का सदस्य बनाया और फिर साल 2002 में भी उन्हें राज्यसभा भेजा गया. साल 2009 में भाजपा ने पटना साहिब संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया और वे करीब ढाई लाख वोट से जीत गए. केंद्र में राजग सरकार के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा को 2 बार कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया. साल 2003 में उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और साल 2004 में उन्हें जहाजरानी मंत्री बनाया गया था. इस के बाद भी उन्हें हमेशा यह महसूस होता रहा कि उन की क्षमता का भाजपा ने बेहतर इस्तेमाल नहीं किया.

अभिनय यात्रा

9 दिसंबर, 1945 को पटना में जन्म लेने वाले शत्रुघ्न सिन्हा कालेज की पढ़ाई पूरी कर फिल्मों में हीरो बनने के लिए घर से बगावत कर मुंबई पहुंच गए थे. पूना फिल्म ऐंड टैलीविजन इंस्टिट्यूट से ऐक्ंिटग की ट्रेनिंग लेने के बाद 1969 में देवानंद ने उन्हें अपनी फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ में पहली बार अभिनय करने का मौका दिया था. उस के बाद वे ‘साजन’ समेत कुछेक फिल्मों में छोटेमोटे रोल करते रहे. पर 1970 में बनी फिल्म ‘खिलौना’ में बिहारी के किरदार ने उन्हें पहचान दिलाई और फिल्म इंडस्ट्री में उन की जगह पक्की कर दी. 1976 में सुभाष घई की फिल्म ‘कालीचरण’ में साइड हीरो का रोल निभाने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा खलनायक का चोला उतार कर नायक बन गए.

वे अपने बड़बोलेपन की वजह से हमेशा चर्चा में तो बने रहे पर उन्हें वह जगह हासिल नहीं हो सकी जिस के वे हकदार थे. अमिताभ बच्चन के साथ उन्होंने ‘दोस्ताना’, ‘नसीब’, ‘काला पत्थर’ और ‘शान’ जैसी फिल्मों में काम किया पर दोनों के बीच खुद को बड़ा साबित करने की होड़ ने दोनों के रास्ते अलगअलग कर दिए. राजनीति में भी वे डायलौगबाजी और हवाबाजी कर के ही अपनी नैया पार लगाते रहे हैं. साल 2009 और 2014 में पटना साहिब सीट से चुनाव जीतने के बाद भी वे अपने क्षेत्र में सियासी जमीन मजबूत करने में नाकाम रहे. अपने क्षेत्र की जनता के लिए वे हमेशा दूर की कौड़ी बने रहे हैं.

शत्रुघ्न सिन्हा को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वे कब, किस बात से पलट जाएंगे या कब किस का गुणगान करने लगेंगे, यह आज तक किसी के समझ में नहीं आया. जब नीतीश कुमार ने बिहार को स्पैशल स्टेट का दरजा दिए जाने की मांग करते हुए 16 मार्च, 2013 को दिल्ली में अधिकार रैली का आयोजन किया था और उस में भाजपा नेताओं को शामिल नहीं किया था तो शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कह कर नीतीश कुमार को ‘खामोश’ कर दिया था कि गुजरात में ‘नमो’ (नरेंद्र मोदी) के बाद अब बिहार में ‘सुमो’ (सुशील मोदी) की बारी है. नमो और सुमो की जोड़ी अगर मिल कर काम करेगी तो लोकसभा चुनाव में शानदार कामयाबी मिलेगी. वही शत्रुघ्न अब ‘नमो’ और ‘सुमो’ को भूल कर ‘नीकु’ (नीतीश कुमार) की चापलूसी में लग गए हैं, ताकि भाजपा से बाहर किए जाने के बाद वे नीतीशलालू की सियासी ऐक्सप्रैस पर सवार हो सकें. गौरतलब है कि राजद सुप्रीमो लालू यादव हमेशा से बिहारी बाबू को भाव नहीं देते रहे हैं और उन्हें नचनियाबजनिया नेता बता कर वे उन की बोलती बंद करते रहे हैं.

मराठवाड़ा का सूखा सुलतानी या आसमानी?

महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाका 1972 के बाद सब से बड़े सूखे की चपेट में है. वहां के लोग बूंदबूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. पिछले 4 सालों से चल रहे सूखे के कारण खेत रेगिस्तान जैसे नजर आने लगे हैं. सूखा तो इन इलाकों में अकसर हर साल ही पड़ता है लेकिन मौजूदा सूखे ने पिछले 4 दशकों का रिकौर्ड तोड़ दिया है. फसलें तबाह होने के चलते किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के कारण मराठवाड़ा सुर्खियों में ज्यादा रहता है.

यहां का लातूर जिला इन दिनों पानी के अकाल के कारण चर्चा में है. यहां पानी का अकाल इस सीमा तक पहुंच चुका है कि सारे देश से रेल के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है. पानी को ले कर ऐसी मारामारी रही कि पानी के लिए यहां धारा 144 लगानी पड़ी. लातूर में पानी का अकाल चरम पर है. लगातार 3 सालों से पड़ रहे सूखे ने किसानों की तो सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, उस पर पानी के जबरदस्त संकट ने इलाके को घेर लिया है. तालाब सूख चुके हैं, हैंडपंप बेकार हो गए हैं. कुओं में पानी नहीं, कुएं की तली दिखाई देती है. मराठवाड़ा की धरती भी प्यासी है और लोग व मवेशी भी प्यासे हैं.

जलाशयों में जल नहीं

मराठवाड़ा के बांधों में पिछले साल जलस्तर 18 प्रतिशत था, इस साल उन में केवल 3 प्रतिशत ही पानी रह गया है. बीड़, लातूर और उस्मानाबाद के बांधों में जलस्तर एक फीसदी से भी नीचे आ चुका है. औद्योगिक इलाके औरंगाबाद में आने वाले कुछ महीनों में पानी बंद हो सकता है. 2014 से इलाके में कम बारिश हो रही है. यह सब देखने पर लगता है कि कोई क्या कर सकता है यह तो प्रकृति के खेल हैं, भुगतने ही होंगे. लेकिन जानकार कहते हैं कि हम प्रकृति को बेकार ही दोष दिए जा रहे हैं. यह विभीषिका आसमानी नहीं, सुलतानी है, प्रकृति निर्मित नहीं, मनुष्य निर्मित है. महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने महाराष्ट्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सूखा एक रात में आई हुई आपदा नहीं है. राज्य की शिवसेनाभाजपा सरकार इस के लिए तैयारी नहीं कर रही थी. सरकार को सिंचाई पर ज्यादा जोर देना चाहिए. जब तेलंगाना जैसे छोटे राज्य ने अपने बजट में इस मद में 25 हजार करोड़ रुपए रखे हैं तो महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य ने केवल 7 हजार करोड़ रुपए क्यों रखे?

इलाके प्यासे हैं

महाराष्ट्र का अपना सिंचाई का अनुभव कम दर्दनाक नहीं है. महाराष्ट्र देश में सब से अधिक बांध बनाने वाला राज्य है. वहां 1,845 बड़े बांध बने हैं. लेकिन इस के बावजूद महाराष्ट्र के इलाके प्यासे हैं, लोग बूंदबूंद पानी को तरस रहे हैं. इस की वजह यह है कि पहले की सरकारों ने पानी के संसाधनों का इतना अपराधपूर्ण दुरुपयोग होने दिया है कि बांध होने के बावजूद भी मराठवाड़ा जैसे कई इलाके सूखे के शिकार हो रहे हैं. मराठवाड़ा में तो 90 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की कोई सुविधा है ही नहीं. बड़ी संख्या में बांध तो बने लेकिन राजनीतिज्ञों ने वहां बांध बनवाए जहां उन की व उन के अपनों के कारखाने, सहकारी चीनी कारखाने और डेयरी आदि जैसे व्यावसायिक हित थे न कि वहां जहां आम किसानों को लाभ हो सके. बांध बनवाने में क्षेत्रीय संतुलन का खयाल भी नहीं रखा गया.

पानी किल्लत के पीछे घोटाला

गलेगले तक भ्रष्टाचार में डूबे महाराष्ट्र की त्रासदी तब सारे देश के सामने उजागर हो गई जब राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का सिंचाई घोटाला उजागर हुआ. उन पर आरोप है कि उन के कार्यकाल में सिंचाई परियोजनाओं पर 72 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए मगर राज्य की सिंचाई की क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. सारा पैसा राजनेता डकार गए. सिंचाई खेतों की नहीं, नेताओं के जेबों की हुई. कई जिलों में भूजलस्तर 1,500-1,600 फुट नीचे तक पहुंच गया है. पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ग्रामीण इलाकों में किसान 1,500 फुट नीचे तक बोरवैल लगा कर पानी खींच रहे हैं जबकि वैधानिक रूप से 300 फुट से नीचे बोरवैल नहीं लगाए जाने चाहिए. लोगों ने करोड़ों रुपए इन बोरवैल्स पर खर्च किए हैं और अरबों रुपयों की बिजली बरबाद की है.

बेमौत दम तोड़ते सपने

सूखे के चलते गांवों में बसने वाले किसानों के सपनों ने बेमौत दम तोड़ दिया है. इन गांवों में से एक है उस्मानाबाद जिले का परांडा गांव. मराठवाड़ा के इस गांव में रहने वाले कोंडिबा जाधव ने सपना देखा था कि गन्ने की पैदावार से वे अपना कर्ज कम करने की कोशिश करेंगे. कोंडिबा के घर का हर सदस्य कुछ न कुछ काम करता है. बेटे दूसरों की खेती पर जा कर मजदूरी करते हैं और भिकाजी अकेले ही अपने खेत में पसीना बहाते हैं. लेकिन इस बार बारिश ऐसी रूठी कि सूखे ने कोंडिबा की सारी फसल बरबाद कर दी. कर्ज कई गुना और बढ़ गया. किसान बाबू काले का कहना है कि 3 एकड़ में उस ने गन्ना लगाया. रिश्तेदारों से कर्ज ले कर बीज, खाद खरीदा. डेढ़ लाख रुपए खर्च कर चांदनी डैम से यहां तक पाइपलाइन डाली. डैम में पानी आया ही नहीं तो पाइपलाइन भी बेअसर रही. पैसे के अभाव में बच्चों की शिक्षा का खर्च पूरा नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्हें स्कूल से निकाल लिया. गन्ने के पैसों से बेटी का ब्याह करने को सोचा था लेकिन फसल आई ही नहीं.

कारण और भी हैं

2 वर्षों के दौरान कम बारिश हुई. मराठवाड़ा जैसे हमेशा ही पानी किल्लत से त्रस्त क्षेत्र में 40 प्रतिशत कम बारिश हुई लेकिन केवल यही मराठवाड़ा के अभूतपूर्व सूखे के संकट की वजह नहीं है. यदि हम सारे राज्य में हुई बारिश के आंकड़ों पर सरसरी नजर डालें तो बारिश की कमी के कारण सूखा पड़ने का तर्क हजम नहीं होता. पिछले वर्ष महाराष्ट्र में 1,300 एमएल (मिलीमीटर) बारिश हुई जो बारिश के राष्ट्रीय औसत 1,100 से ज्यादा है. राज्य के कोंकण जैसे इलाकों में तो 3,000 एमएम बारिश हुई. मराठवाड़ा जैसे सूखाग्रस्त इलाके में औसत 882 एमएम बारिश हुई और विदर्भ में 1,034 एमएम. इस की तुलना बहुत सूखे या राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों से कीजिए जहां आमतौर पर 400 एमएम से ज्यादा बारिश नहीं होती. ऐसे में राजस्थान के हालात उतने बुरे नहीं हैं जितने महाराष्ट्र के हैं.

इस का जवाब केवल इतना ही है कि महाराष्ट्र में जल प्रबंधन के मामले में अपराधपूर्ण लापरवाही की गई. यदि 1958 में महाराष्ट्र बनने के बाद बनी तमाम सरकारों में एक बात कौमन है तो यह कि सभी ने पानी संग्रहण और भूमिगत जलस्तर को बढ़ाने की अहम समस्याओं की घोर उपेक्षा की. यह पानी के बेजा इस्तेमाल का ही नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में भूगर्भ में जलस्तर 20 फुट से 200 फुट तक गिर गया है. जमीन में मौजूद पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई और पीने के लिए इस्तेमाल किया गया. लेकिन पानी दोबारा जमीन में कैसे जाएगा, इंसान इस सवाल को ही भूल गया. महाराष्ट्र की भयावह पानी समस्या का एक बड़ा खलनायक है गन्ने की फसल. इस ने महाराष्ट्र का बहुत ही अजीब तरीके से विकास किया. इस ने गरीबी के महासागर में कुछ समृद्धि के द्वीप खड़े कर दिए हैं लेकिन इस समृद्धि का खमियाजा बाकी महाराष्ट्र को भुगतना पड़ रहा है.

महाराष्ट्र के निर्माण के साथ ही राजनीतिज्ञों की छत्रछाया में सहकारी चीनी मिलों की शृंखला पश्चिमी महाराष्ट्र में खड़ी होने लगी थी. धीरेधीरे यह बीमारी राज्य के बाकी इलाकों में भी फैलने लगी. आज महाराष्ट्र में 205 सहकारी चीनी मिलें नेताओं की बिक्री की जागीरें हैं. इस के अलावा 80 प्राइवेट चीनी मिलें हैं. ये सहकारी मिलें नाम के लिए सहकारी हैं, इन में ज्यादातर पर राजनीतिक दलों और खास कर कांगे्रस व शरद पंवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कब्जा है जो सत्तारुढ़ होने के कारण राज्य के सत्ता केंद्रों पर हावी रहे हैं.  वे मनमाना खेल खेलते रहे हैं. गन्ने की फसल की एक सब से बड़ी खासीयत यह है कि यह निरंतर पानी पीने वाली फसल है. इसे 12 महीने कई फुट पानी में रखना पड़ता है. इस का अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि राज्य की 4 प्रतिशत कृषि जमीन पर ही गन्ने की फसल होती है लेकिन उस पर 71 प्रतिशत सिंचित पानी खर्च होता है.

देश में कुल चीनी का 66 फीसदी उत्पादन करने वाले महाराष्ट्र में गन्ने की फसल किसानों के लिए आय का बड़ा जरिया है. लेकिन गन्ने की फसल के लिए पानी ज्यादा लगता है. ऐसे में किसान मुनाफा कमाने के चक्कर में जायजनाजायज हर तरीके से खेती को पानी देता रहता है. खेती के इस रिवाज को बदलने की कोशिश किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं की.

वजह साफ है. सत्ताधारी हो या फिर विपक्षी दल, सभी पार्टियों की आर्थिक रीढ़ यहां की को-औपरेटिव शुगर फैक्टरियां मानी जाती हैं. लेकिन यह स्थिति तो सालोंसाल महाराष्ट्र में मौजूद थी, तो ऐसा क्या हुआ कि इस साल हालात इतने बदतर हो गए? दरअसल, इस का एक बड़ा कारण है सिंचाई घोटाला. महाराष्ट्र में जल आपूर्ति के लिए सिंचाई योजनाएं शुरू तो हुईं लेकिन वे सालोंसाल अधूरी रहीं.

लापरवाह सरकारें, स्वार्थी नेता

यह बात सारी सरकारें जानती थीं तब भी राज्य में चीनी मिलों की संख्या बढ़ती गई. इसे किसी सरकार ने नहीं रोका क्योंकि इन मिलों को चलाने वाले ज्यादातर राजनेता ही हुआ करते थे. पहले चीनी मिलों पर कांग्रेस का ही कब्जा था मगर बाद में विपक्षी राजनेताओं को भी इस का चस्का लग गया. जो भी नामी राजनेता होता वह अपने राजनीतिक साम्राज्य को मजबूत करने के लिए चीनी मिल जरूर बनवाता. इस का सब से बड़ा उदाहरण है कि भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे की भी चीनी मिलें थीं. पहले मिलें केवल पश्चिमी महाराष्ट्र तक ही सीमित थीं, फिर मराठवाड़ा जैसे सूखाग्रस्त इलाके में भी बनने लगीं. यहां अब 70 चीनी मिलें हैं. इन में से 20 तो पिछले 3-4 सालों में ही बनी हैं. इस इलाके में जहां 10 प्रतिशत जमीन ही सिंचित है, वहां गन्ने की फसल की प्यास हैंडपंप से ही पूरी की जाती है. नतीजतन, भूमिगत जलस्तर तली तक पहुंच गया है. वैसे तो भारत और इसराईल के बीच बरसों से बैठकें होती रहती हैं मगर हम कभी इसराईल से सूखे की स्थिति से निबटने की सिंचाई तकनीक कभी नहीं सीखते. इसराईल पानी की भारी किल्लत वाला देश है जिस ने आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रयोग कर सूखे पर विजय पाई है. भारत को भी सूखे पर विजय पाने के लिए उन तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए. पर सत्ता के सुलतानों को जनता की फिक्र भला कब रही है.

धर्मगुरुओं की आधी आबादी को हाशिए पर रखने की मंशा

महिलाओं को धार्मिक क्रियाकलापों में व्यस्त रखने के पीछे धर्म के ठेकेदारों की साजिश है ताकि उन की दुकानदारी चलती. आज महिलाएं हर मारेचे पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर न केवल आगे बढ़ रही हैं बल्कि कई मामलों में पुरुषों को पीछे छोड़ भी रही हैं. ऐसे में केरल के सुन्नी मुसलिम नेता कनथापुरम एपी अबूबकर मुस्लीयर ने यह बयान दिया, ‘‘महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं क्योंकि वे केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं. औरतों की भूमिका तय है और वे सिर्फ बच्चे पैदा कर उन का लालनपालन करें. महिलाओं में मानसिक मजबूती और दुनिया को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं होती क्योंकि यह ताकत पुरुषों में होती है. लैंगिक समानता ऐसी चीज है जो कभी वास्तविकता में तबदील होने वाली नहीं है. यह इसलाम व मानवता के खिलाफ है व बौद्धिक रूप से गलत है.’’

अबूबकर ने आगे कहा कि महिलाओं में संकट की स्थितियों का सामना करने की क्षमता नहीं होती. उन में बड़ी सर्जरी करने की हिम्मत नहीं होती. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हार्ट के हजारों सर्जनों में एक भी महिला है?’’ कालेजों में लड़के और लड़कियों की सीटें साझा करने की अनुमति पर जारी बहस के संदर्भ में अबूबकर ने कहा, ‘‘यह इसलाम और संस्कृति को खराब करने के सुनियोजित अभियान का हिस्सा है.’’ आधुनिकीकरण के इस युग में समाज बदल रहा है और बहुत तेजी से विज्ञान का विकास हो रहा है. ऐसे में अबूबकर और अन्य धर्मगुरुओं के द्वारा जबतब किए जाने वाले महिला विरोधी बयान महिलाओं के प्रति उन की रुढि़वादी सोच को ही दर्शाते हैं.

महिलाओं के प्रति दोयम भाव

धर्मगुरु तो शास्त्रों को मानते हुए स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, काली का दरजा देते हैं जहां धर्म के शत्रुओं को उन से मरवाया गया, कोई मेहनत का काम करने की उन्हें प्रेरणा नहीं दी गई. इस के बाद आज धर्मगुरु अपने बेतुके बयानों से आधी आबादी यानी महिलाओं को हाशिए पर रखने का षड्यंत्र रच रहे हैं. शिया मुसलिम धर्मगुरु कल्बे जव्वाद के अनुसार, ‘‘लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उन का काम लीडर पैदा करना है. कुदरत ने महिलाओं को इसलिए बनाया है कि वे अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें.’’ कुछ इसी मानसिकता से त्रस्त आसाराम ने दिल्ली की दिवंगत बलात्कार पीडि़ता को ही गुनाहगार बताते हुए कहा था, ‘‘यदि उस लड़की ने सरस्वती मंत्र का जाप किया होता या उन से दीक्षा ली होती तो वह उस बस में सवार ही न हुई होती.’’ इस से पहले उन्होंने कहा कि यदि उस लड़की ने बलात्कारियों को भाई कहा होता तो वे उस के साथ बलात्कार न करते. साथ ही, एक अन्य आपत्तिजनक बयान भी दे डाला, ‘‘एक हाथ से ताली नहीं बज सकती.’’

भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज ने कहा था, ‘‘हिंदू महिलाओं को अपने धर्म की रक्षा करने के लिए कम से कम 4 बच्चे पैदा करने चाहिए.’’ यानी जो करो धर्म की रक्षा के लिए करो ताकि धर्म की दुकानें चलती रहें. 4 और 5 बच्चे पैदा करने का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ कि बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने हैरान करने वाला बयान दिया. उन्होंने हिंदुओं से आह्वान किया वे 10-10 बच्चे पैदा करें. उन के अनुसार ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि हिंदू बहुसंख्यक बने रहें. हाल ही में जयपुर की 2 महिलाओं अफरोज बेगम और जहांआरा ने मुंबई के दारुल उलूम लिस्वान से महिला काजी का 2 वर्षीय प्रशिक्षण लेने के बाद काजी बनने की इच्छा जाहिर की तो मुसलिम संगठन और उलेमा विरोध में उतर आए. उन का कहना था कि महिलाएं काजी बनने की ट्रेनिंग तो ले सकती हैं लेकिन काजी बन नहीं सकती हैं . कहने को शास्त्रों का कथन कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है पर यह केवल बहकाने की बात है. असल में तो हाल ही में शनि श्ंिगणापुर मंदिर में महिलाओं के पूजा करने के अधिकार पर विवाद उठ गया. इस बारे में द्वारकापीठ के शंकराचार्य ने कहा कि अगर महिलाएं शनि की पूजा करेंगी तो उन का अनिष्ट होगा. इस वक्तव्य से एक कदम आगे बढ़ कर अयोध्या के रामलला मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास ने तो यह तक कह दिया कि महिलाओं को किसी भी देवता की पूजा करने से पहले पति की अनुमति लेनी चाहिए क्योकि जो महिलाएं पति की मरजी के बगैर पूजाअर्चना करती हैं वे विधवा मानी जाती हैं.

दक्षिण भारत की एक लोकप्रिय महिला धर्मगुरु ने वेश्यावृत्ति को वैध करने की मांग की है. उन्होंने दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के लिए महिलाओं के पहनावे को जिम्मेदार बताया है. लिंगायत समुदाय की धर्मगुरु माथे महादेवी ने कहा कि रेप के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं और इसलिए वेश्यावृत्ति को कानूनी दरजा दिए जाने का वक्त आ गया है. इस धर्मगुरु ने कालेज में पढ़ने वाली और मल्टीनैशनल कंपनियों में काम करने वाली लड़कियों के चुस्त कपड़े पहनने की भी आलोचना की. उन्होंने कहा कि लड़कियां ऐसा कर के अवांछित तरीके से लोगों का ध्यान खींचती हैं और अपराधियों के निशाने पर आ जाती हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अभिभावकों को अपनी बेटियों को देररात तक घर से बाहर नहीं रहने देना चाहिए. धर्मगुरुओं द्वारा महिलाविरोधी उक्त बयान दर्शाते हैं कि महिलाओं को ले कर उन की सोच खतरनाक रूप से रूढि़वादी और सामंतवादी है. जब कोई धर्मगुरु महिला को सिर्फ बच्चा पैदा करने के काबिल माने तो समझ जाइए कि महिलाओं के प्रति उस की सोच कैसी होगी. कोई इन धर्मगुरुओं से पूछे कि अगर महिला में बच्चा पैदा करने की ताकत नहीं होती तो वे इस दुनिया में कैसे होते? जिस महिला के बल पर वे इस दुनिया में हैं उस की काबिलीयत पर शक करना महिला के प्रति उन के दकियानूसी खयालात को जाहिर करता है.

आधुनिक दौर में महिलाएं नौकरी करने जा सकती हैं, सिनेमा जा सकती हैं, वायुसेना में भरती हो सकती हैं, संसद व विधानसभाओं में प्रवेश पा सकती हैं, यहां तक कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री जैसे वरिष्ठ व अहम पद हासिल कर सकती हैं. ऐसे में धर्मगुरुओं द्वारा महिलाओं की काबिलीयत पर सवाल उठाना और महिलाओं के प्रति उन का दोयम भाव उन की सामंती सोच को ही दर्शाता है और साथ ही दर्शाता है कि वे आज भी महिलाओं के उठनेबैठने, उन के कपड़ों यानी उन की जिंदगी पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. पिछले दिनों काशी विश्वनाथ मंदिर में ड्रैस कोड लागू करने की बात की गई, यहां तक कि विदेशी महिलाओं को भी साड़ी पहन कर ही मंदिर में दर्शन करने पर जोर दिया गया. हालांकि विरोध के बाद इसे हटा दिया गया. ये खबरें महिलाओं के प्रति कुत्सित सोच को अभिव्यक्त करती हैं. महिला क्या पहने, क्या करे, इस का निर्णय वह खुद ले न कि कोई धर्मगुरु. ऐसा क्यों है कि धर्मगुरु आज भी हर कदम पर महिला की अभिव्यक्ति व स्वच्छंदता से जीने की इच्छाओं के पर कतरने की फिराक में रहते हैं और जबतब उस के अस्तित्व को ले कर टिप्पणियां करते रहते हैं. धर्मगुरु आज भी महिला समाज को 200 साल पहले की स्थिति में रखना चाहते हैं जब समाज की धुरी धर्मगुरुओं के हाथ में रहती थी. राजा भी धर्म के गुलाम होते थे.

परिवार की धुरी

धर्मगुरु यह समझते हैं कि एक महिला किसी भी परिवार की धुरी होती है और जब किसी परिवार की महिला सशक्त होती है तो वह परिवार तेजी से प्रगति करता है क्योंकि उस परिवार की प्रगति में पुरुष के अतिरिक्त महिला की भी मेहनत और कोशिश शामिल हो जाती है. वे यह भी जानते हैं कि जिस परिवार की मां सशक्त होती है उस परिवार की बेटी को भी सशक्त होने की प्रेरणा मिलती है और यह प्रोत्साहन किसी भी परिवार के विकास में एक मजबूत कड़ी का काम करता है.

पर यही औरत फिर धर्मगुरुओं की गुलाम नहीं रहती और न धर्म से न तन से उन की सेवा करती है. नारी जाति पर अनापशनाप टिप्पणी करने वाले धर्मगुरु  समझते हैं कि यदि देश में आधी आबादी यानी महिलाएं कमजोर न रहेंगी तो वे बैठ कर खाली हाथ ताली बजाते नजर आएंगे. इसलिए उन के महिला विरोधी वक्तव्य महिलाओं को कमजोर बनाने की साजिश की ओर बढ़ता एक कदम है. धर्मगुरुओं की आपत्तिजनक टिप्पणियों का परिणाम यह होता है कि उन का अनुसरण करने वालों के मन में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं पुरुषों के बराबर नहीं हैं, उन्हें समाज में बराबरी का दरजा प्राप्त नहीं है और फिर वे स्वयं भी महिलाओं के साथ दोयम दरजे का व्यवहार करने लगते हैं. महिलाओं के लिए कोई सीमांकन ही गलत है. महिलाओं को भी उतनी ही आजादी देने की जरूरत है जितनी पुरुष को मिली हुई है. जब तक महिलाओं पर धर्मगुरुओं का दबाव बना रहेगा, महिलाओं का पूर्ण विकास संभव नहीं.

सारी बंदिशें महिलाओं के लिए

क्या हम सभी ने कभी गौर किया है कि सारी दुनिया के धर्म, धर्मग्रंथ और धर्मगुरु सिर्फ महिलाओं को ही सीख क्यों देते हैं. जितने नियमकायदे वे महिलाओं को मानने के लिए कहते हैं उतने पुरुषों को क्यों नहीं कहते? वे पुरुषों से क्यों नहीं कहते कि वे अपनी पत्नी की लंबी आयु के लिए निर्जल व्रत रखें. कोई भी धर्मगुरु सिर्फ महिलाओं को ही अच्छी बेटी, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनने की सलाह क्यों देता है, पुरुषों को अच्छा पति, अच्छा बेटा, अच्छा पिता बनने की सलाह क्यों नहीं देता? धर्मगुरुओं की बात को आंख बंद कर के मानने वाले धर्मभीरू उन की ताकत को बढ़ाने का ही काम करते हैं और वे अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए जबतब महिला विरोधी बयान देते रहते हैं. अगर धर्मगुरु चाहें तो अपनी इस ताकत का सदुपयोग स्त्रियों के साथ भेदभाव, हत्या, दहेज, बलात्कार, यौन शोषण जैसी समस्याओं को सुलझाने में कर सकते हैं लेकिन भोगविलास में डूबे धर्मगुरु तो सिर्फ भोग भावनाओं को भड़काने में लगे रहते हैं और महिलाओं को पुरुषों से कमतर और उन की दासी बना कर रखने का षड्यंत्र रचते रहते हैं.

करारा जवाब

श्रीमती एसआर मेहता ऐंड सर के पी कार्डिएक इंस्टिट्यूट, मुंबई की कंसल्टैंट कार्डिएक सर्जन ?डा. रत्ना मागोत्रा ने केरल के सुन्नी नेता अबूबकर के वक्तव्य, जिस में उन्होंने महिलाओं के अस्तित्व को नकारते हुए पूछा था कि क्या हार्ट के हजारों सर्जनों में एक भी महिला है, का करारा जवाब देते हुए कहा कि अबूबकर शायद यह नहीं जानते कि न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में अनेक महिलाएं कार्डिएक सर्जन हैं. यही समय है कि अबूबकर और महिलाओं के विरुद्ध सोच रखने वाले उन के जैसे विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को त्यागें और महिलाओं को अकेला छोड़ दें ताकि वे बंधनमुक्त हो कर अपने सपनों को पूरा कर सकें. जहां तक लैंगिक समानता का सवाल है तो 40 किलोग्राम की महिला व 130 किलोग्राम के पुरुष को हैवीवेट टाइटल के रिंग में एकसाथ खड़े कर के उन की तुलना करना कहीं से भी जायज नहीं है. लैंगिक समानता का अर्थ दोनों को उन की शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुसार वाजिब अवसर देना है.

फेसबुक में महिलापुरुष बराबर

एक तरफ अबूबकर व उन के जैसे धर्मगुरु महिला को असहाय व दबेकुचले रूप में देखने व उन के अस्तित्व को नकारने जैसे वक्तव्य देते हैं वहीं फेसबुक में जहां फ्रैंड्स आइकन में पुरुष की छवि आगे होती थी और महिला की पीछे होती थी, वहां इस आइकन को बदल कर महिला को आगे व पुरुष को पीछे कर दिया गया है. इतना ही नहीं, महिला व पुरुष के बालों व शारीरिक आकृति को भी बराबर रखा गया है यानी कंधे से कंधा मिला कर.

मुसलिम महिलाओं में बदलाव की बेताबी

धर्म की नाजायज बंदिशों को तोड़ने के लिए मुसलिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रही हैं. धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुसलिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं. इसी कड़ी में अफरोज बेगम और जहांआरा ने महिला काजी ट्रेनिंग ली है. नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर देश व समाज की सेवा की है.

बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्त्व के बीच हिंदुस्तान की मुसलिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेडि़यों को झकझोरना शुरू कर दिया है. उन में अपना जीवन बदलने की बेताबी है और हर वह हक वे पाना चाहती हैं जो उन का अपना है. विरोध के स्वर और अपने हक की आवाज उठाती, बैनर व तख्ती लिए, अब मुसलिम महिलाएं भी दिखने लगी हैं. यह कटु सत्य है कि शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है. इतिहास गवाह है कि शिक्षित कौमों ने ही हमेशा समाज में तरक्की की है. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्त्व दे रहे हैं, वहीं मुसलिम समाज इस मामले में आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में महिलाओं खासकर मुसलिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. 1983 की अल्पसंख्यक रिपोर्ट यानी गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट में मुसलिम लड़कियों की निराशाजनक शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा किया गया था. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े तो सारी पोल ही खोल देते हैं. वे साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुसलिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया था कि एक तो कर्ज जैसी सुविधाओं तक मुसलिम महिलाओं की पहुंच बहुत कम होती है, इस के अलावा कर्ज वितरण में उन के साथ भेदभाव भी किया जाता है. इस भेदभाव के पीछे कर्जदाता संस्थानों के अधिकारियों की तंग सोच के अलावा उन महिलाओं का कम शिक्षित होना, अपने हक को हासिल करने के लिए मजबूती से स्टैंड न लेना आदि वजहें भी हो सकती हैं. मुसलिम महिलाओं के सशक्तीकरण का मसला काफी अहम है. सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, मुसलिम महिलाएं देश के निर्धनतम, शैक्षिक स्तर पर पिछड़े, राजनीति में हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं.

अशिक्षा की मार

हमारे मुल्क में सब से ज्यादा निरक्षर मुसलिम लड़कियां और महिलाएं ही हैं. ग्रैजुएट व पोस्टग्रैजुएट स्तर पर स्थिति खासी चिंताजनक है. भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 40 प्रतिशत है. इस में मुसलिम महिलाएं मात्र 11 प्रतिशत हैं. हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाओं का प्रतिशत मात्र 2 है और स्नातक तक पहुंचते ही यह घट कर 0.81 प्रतिशत ही रह जाता है. उधर, मुसलिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुसलिम लड़कों का अनुपात 56.5 फीसदी है. छात्राओं का अनुपात महज 40 प्रतिशत है. इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात 52.3 है तो छात्राओं का 30 प्रतिशत है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुसलिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुसलिम लड़कियों के उच्च शिक्षा से दूर रहने के सब से सामान्य कारण उन की युवावस्था, महिला टीचर्स की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी व दकियानूसी रवैया है. वैसे, मुसलिम महिलाओं की शैक्षिक दुर्दशा का सवाल नया नहीं है. गुलामी के दौर में ब्रिटिश सरकार ने मुसलिम महिलाओं की शिक्षा का स्तर जानने के लिए 1920 में एक कमेटी का गठन किया था. उस के बाद तत्कालीन सरकार ने पुरानी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके बुलबुली खाना में बुलबुल-ए-खाना नामक स्कूल की स्थापना की थी.

वैसे आधुनिक समाज के तमाम लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को यह अधिकार देने पर सहमत हैं. लेकिन यह आरोप लगाया जाता है कि मुसलिम धर्मगुरु अभी भी शरीयत कानून का हवाला दे कर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं. यानी मुसलिम औरतों के हक तथा तालीम की राह का इतिहास बड़ा पेचीदा है और आगे भी इस दिशा में रास्ता मुश्किलों भरा प्रतीत होता है.

राजनीति की बात की जाए तो यहां भी मुसलिम महिलाओं की मौजूदगी नाममात्र है. फिर सवाल खड़ा होता है कि जब भारत में एक महिला प्रधानमंत्री बन सकती है, राष्ट्रपति बन सकती है, राजनीतिक दल की अध्यक्ष बन सकती है तो लोकसभा में उन का प्रतिनिधित्व महज 10.86 प्रतिशत क्यों है? इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की 2011 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के हिसाब से भारत 78वें स्थान पर है जबकि पाकिस्तान और नेपाल इस मामले में भारत से आगे हैं. जब सामान्य वर्ग और दूसरे समुदाय की महिलाओं की उच्च राजनीति में यह हैसियत है तो मुसलिम महिलाओं की हैसियत का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सब से बड़े गणराज्य भारत में लोकसभा चुनावों के इतिहास में अब तक सिर्फ 12 मुसलिम महिलाओं ने ही प्रतिनिधित्व किया है. देश के पहले लोकसभा चुनाव में 23 महिलाएं चुन कर संसद पहुंचीं, जिन में से एक भी मुसलिम महिला नहीं थी. दूसरे लोकसभा चुनाव में चुनी गईं 24 महिलाओं में कांगे्रस के टिकट पर 2 मुसलिम महिलाएं, माफिदा अहमद (जोरहट) तथा मैमूना सुल्तान (भोपाल), लोकसभा में पहुंचीं. बेगम आबिदा और बेगम नूर बानो 2 बार सांसद बनीं. लेकिन मोहसिना किदवई देश की पहली महिला मुसलिम सांसद हैं जो 3 बार जीतीं और संसदीय इतिहास में अपना नाम दर्ज किया.

देश में असहिष्णुता, गैर बराबरी और भेदभाव पर पिछले दिनों खूब बहस चली. लेकिन इन तीनों की शिकार मुसलिम महिलाओं की हालत पर चर्चा के लिए कोई तैयार नहीं. चुनावी नारों में विकासविकास की गूंज तो चारों तरफ सुनाई पड़ती है लेकिन इस विकास में मुसलिम महिलाएं कहां हैं, उन का खुशहाल चेहरा कहीं नहीं दिखता. क्या मुसलिम महिलाओं के बड़े तबके को आजादी के 68 साल बाद भी असली आजादी नसीब हो पाई है? यह बड़ा सवाल तमाम सरकारों से ले कर मुसलमान नेताओं, रहनुमाओं और बातबात पर मजहब का झंडा बुलंद करने वाली तंजीमों के सामने खड़ा है.

आवाजें उठने लगी हैं

बदलते वक्त के साथ भेदभाव के खिलाफ मुसलिम महिलाएं खुद आवाज उठाने लगी हैं. जब आवाज उठी है तो कई सवाल भी उठे हैं. सवाल यह कि क्या मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की जरूरत है? देशभर में ज्यादातर सियासी दल मुसलिम पर्सनल ला के मुद्दे पर भले ही चुप हों लेकिन कई वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में मुसलिम महिलाओं ने उन धार्मिक नियमों का विरोध किया है, जिन्हें वे महिला विरोधी मानती हैं और इस लड़ाई में कई महिलाओं ने अभूतपूर्व हिम्मत व सूझबूझ का परिचय भी दिया है. लखनऊ में मुसलिम महिलाओं के एक समूह ने एक समानांतर पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना कर के उस के जरिए मुसलिम महिलाओं को न्याय दिलाने का प्रयास किया था. इसी तरह, चेन्नई की महिला वकील बदरे सैय्यद ने उच्च न्यायालय में काजियों के तलाक की पुष्टि के अधिकार के विरोध में याचिका दायर की थी. लेकिन सब से प्रभावशाली प्रयास भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन यानी बीएमएमए ने किया.

आंदोलन की संस्थापक नूरजहां, सफिया नियाज और जकिया सोमन हैं. उन का मानना रहा है कि जिस तरह से शरीयत कानून का क्रियान्वयन भारत में होता है उस से मुसलिम महिलाओं के विकास के रास्ते में बहुत सी बाधाएं आती हैं. इसलिए उन्होंने एक मौडल निकाहनामा तैयार किया है और हजारों मुसलिम महिलाओं के हस्ताक्षर ले कर, एकतरफा तलाक के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के सामने याचिका प्रस्तुत की है. बीएमएमए का दावा है कि उस ने देश के 10 राज्यों में 4,710 महिलाओं से बातचीत के आधार पर सर्वे किया. सर्वे के अनुसार, ज्यादातर मुसलिम महिलाओं ने एकसाथ 3 दफा बोल कर तलाक देने की परंपरा को बदलने की मांग की है.

कोर्ट से गुहार

सर्वे में कहा गया है कि देश की महिलाओं ने माना कि तलाक से पहले कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए और इन मामलों में मध्यस्थता का प्रावधान होना चाहिए. इसी तरह 23 फरवरी को उत्तराखंड के काशीपुर की एक मुसलिम महिला सायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि मुसलिम पर्सनल ला में 3 बार तलाक कहने पर तलाक की प्रक्रिया को पूरा मान लेने की परंपरा को खत्म किया जाए. सायरा बानो ने कोर्ट से यह भी गुहार लगाई कि निकाह हलाला (पति से तलाक के बाद उस से दोबारा शादी की प्रथा) पर भी प्रतिबंध लगाया जाए. साथ ही, पुरुषों द्वारा एक से ज्यादा शादियों पर भी रोक लगाई जाए. इन सभी मामलों में सायरा बानो ने भारतीय नागरिक के लिए संविधान की धारा 14, 15, 21 और 25 के तहत अपने मूल अधिकारों के हनन की बात कही है. गौरतलब है कि संविधान की ये सभी धाराएं देश के सभी नागरिकों को एकसमान अधिकार देती हैं और अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए वे सीधे देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं.

पर्सनल ला में सुधार

देश के विभिन्न राज्यों से तकरीबन 70 हजार मुसलिम महिलाओं ने मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की मांग को ले कर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है. गौरतलब है कि मुसलिम पर्सनल ला में निकाह, तलाक, हलाला जैसे कई प्रावधान हैं, जिन की आड़ में मुसलिम औरतों का शोषण होता है. शोषण या अन्याय की स्थिति में महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है क्योंकि अदालतों के हाथ मुसलिम पर्सनल ला से बंधे होते हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में कई संप्रदायों के लेग निवास करते हैं. एक ही देश के नागरिक होने के बावजूद उन की संस्कृति में खासा अंतर है. पारिवारिक मामले जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के लिए अलगअलग कानून हैं. हिंदू एक्ट बहुत हद तक पारंपरिक नियमों का संशोधित स्वरूप है और सभी प्रकार के हिंदुओं, बौद्ध, सिख, जैन पर लागू होता है. जबकि ईसाई, पारसी और मुसलिम तीनों अपनेअपने धर्मानुसार व्यक्तिगत कानूनों से यानी पर्सनल ला से शासित हैं.

इन कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर निष्कर्ष आता है कि कई मामलों में स्त्री के अधिकार पुरुषों की तुलना में ही नहीं, बल्कि दलितों व शूद्रों की तुलना में भी काफी सीमित हैं, खासतौर से मुसलिम महिलाओं की कानूनी व सामाजिक स्थिति दयनीय है. मुसलिम नागरिकों पर लागू होने वाला पर्सनल ला शरीयत पर आधारित है. मुसलिम पर्सनल ला के अंतर्गत महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्मानजनक नहीं कही जा सकती.

मुसलिम महिलाओं को गिनेचुने आधारों पर ही तलाक के बेहद सीमित हक मिले हैं. उस पर भी यदि तलाक की मांग औरत खुद करे तो उसे अपना मेहर छोड़ना पड़ता है. मेहर वह रकम है, जो निकाह से पहले दोनों पक्षों की सहमति से तय होती है और यह रकम शौहर अपनी बीवी को देता है. पुरुष जब चाहे बिना कारण बताए मौखिक रूप से 3 बार तलाक शब्द बोल कर तलाक दे सकता है. पुरुष पर अपनी पत्नी के भरणपोषण का कर्तव्य भी तलाक के बाद इद्दत काल यानी 3 महीनों तक ही होता है.

मुसलिम समुदाय में हलाला प्रथा भी चलन में है. इस के तहत तलाकशुदा पतिपत्नी किसी कारणवश यदि दोबारा वैवाहिक संबंध बनाना चाहें, तो उस के पहले अनिवार्य रूप से पत्नी को किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर के, एक तय समयावधि पत्नी के तौर पर, उस पुरुष के साथ गुजारनी पड़ती है. इस के बाद नियमानुसार ही तलाक ले कर वह पहले पति से शादी कर सकती है. भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की ओर से हलाला को दंडनीय अपराध घोषित करने और तलाक व भरणपोषण के संबंध में नए व बेहतर कानून बनाए जाने की मांग की गई है. मौलिक अधिकारों और न्याय के सिद्धांतों पर एकसमान नागरिक संहिता लागू करने की जब भी बात हुई है उस का सब से ज्यादा विरोध मुसलिम समुदाय द्वारा ही किया जाता रहा है और इस का दुष्परिणाम मुसलिम महिलाओं को सब से ज्यादा भुगतना पड़ा है. ऐसे में मुसलिम समुदाय की ही 70 हजार महिलाओं का पर्सनल ला में सुधार किए जाने के लिए पीएम को पत्र लिखना बड़ी व खास बात है.

तमाम मुश्किलों के बावजूद कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल की और देश व समाज की सेवा भी की. इस संबंध में पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा, मोहसिना किदवई, नजमा हेपतुल्लाह, समाजसेविका व अभिनेत्री शबाना आजमी, ब्यूटी एक्सपर्ट शहनाज हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हौकी कप्तान रजिया जैदी, टैनिस सितारा सानिया मिर्जा, साहित्य में नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा परवेज, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऐन हैदर तो पत्रकारिता में नगमा और सादिया के नाम लिए जा सकते हैं.

महिलाओं की इसी जमात से निकली उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के छोटे से गांव कम्हरिया की रहने वाली अंजुम आरा, बिहार के बाढ़ जिले में जन्मी गुंचा सनोबर, बिहार की ही सहला निगार और मुंबई के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी सारा रिजवी जैसे कुछ

नाम हैं जिन्होंने भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी बन कर लाखों मुसलिम लड़कियों के लिए एक नई राह दिखाई है.

तरक्की में भागीदारी

मुसलिम महिलाओं की ये सफलताएं मिसाल हैं. इसी तरह वाराणसी के खजूरी इलाके में रहने वाली मुसलिम महिला नौशाबा मुसलिम महिलाओं के लिए किसी उदाहरण से कम नहीं हैं. उन्होंने न सिर्फ अपनी जिंदगी को संवारा बल्कि अब दूसरी मुसलिम महिलाओं को शिक्षा से जोड़ने के साथ ही उन्हें स्वावलंबी बनाने का भी जिम्मा बखूबी निभा रही हैं. उन के ट्रेनिंग कैंप से प्रशिक्षित हो कर लगभग 2 हजार लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी हैं. कानपुर की नूरजहां, जो कई घरों को रोशन कर रही हैं, का जिक्र तो पीएम मोदी अपने भाषण में कर चुके हैं.

बहरहाल, ये उदाहरण इस बात के साक्ष्य हैं कि यदि मुसलिम औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वे भी देश व समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं. लेकिन यह तय है कि मुसलिम महिलाएं सुधारों की इस बहस को अकेले सरकारों, सियासी दलों के ऊपर नहीं छोड़ सकती हैं बल्कि इस के लिए समुदाय, विशेषकर महिलाओं, को पूरी ताकत के साथ सामने आना भी होगा, तभी सुधार, चर्चा तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि आगे बढ़ सकेंगे.

काजी बनती मुसलिम महिलाएं
मुसलिम महिला काजी बन सकती है या नहीं, यह विवाद का विषय बना हुआ है. महिलाओं के जहां अपने तर्क हैं और वे इसे इसलामी शरीअत के अनुरूप बता रही हैं वहां मुसलिम संगठन काजी के रूप में उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. वादविवाद में यह सवाल भी चर्चा में है कि क्या देश के वर्तमान कानून में काजी की कोई व्यवस्था है? यदि हां, तो उस के चुनाव की प्रक्रिया क्या है और उस के दायित्व एवं अधिकार क्या हैं?जानकारों की मानें तो अंगरेजों ने काजी के पद को तो बाकी रखा लेकिन उस के दायित्व एवं अधिकार को खत्म कर दिया. जिस के बाद इस की हैसियत परामर्शदाता पद के तौर पर है. तो फिर काजी बनने को ले कर किसी हंगामे का औचित्य क्या है? कहीं यह पुरुषप्रधान समाज को चुनौती देना जैसा तो नहीं है जिस की वजह से इस का विरोध शुरू हो गया है.

इसलामी न्यायविधि यानी फिकहा के जानकार मानते हैं कि औरत जिन मामलों में गवाही दे सकती है उन मामलों में वह काजी बन कर फैसले भी कर सकती है. लेकिन जिस तरह पूरे मामले को पेश किया जा रहा है उस से यह धारणा सामने आ रही है कि इसलाम, महिला अधिकारों का विरोधी है.

सचाई यह है कि मुसलिम समाज ने महिलाओं को वे अधिकार नहीं दिए जो इसलाम ने उन्हें दिए हैं. इस ओर जमाते इसलामी हिंद के महासचिव व इंजीनियर मोहम्मद सलीम ने अपने एक बयान में इशारा कर महिलाओं को उन के अधिकार देने की वकालत की है. सब से रहस्यमय भूमिका दारुल उलूम देवबंद की रही. उस ने पहले महिला काजी बनने का समर्थन किया, दूसरे दिन इस का खंडन कर स्पष्ट किया कि महिला काजी नहीं बन सकती. दारुल उलूम की यह भूमिका निश्चय ही जांच का विषय है.

काजी होने के दावे

राजस्थान की 2 महिलाओं द्वारा काजी होने का दावा करने के बाद मामला सामने आया है. अफरोज बेगम और जहांआरा ने मुंबई स्थित दारुल उलूम निस्वान से ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ ली है. मुंबई के इस मदरसे में 30 अन्य महिलाएं भी काजी बनने के लिए अध्ययन कर ट्रेनिंग ले रही हैं. दारुल उलूम निस्वान की ट्रस्टी जकिया सोनम और नूरजहां नियाजी का मानना है कि इस से महिलाएं निकाह, तलाक और मेहर जैसे रिवाजों को सीधे तौर पर खुद देख सकेंगी एवं इस से मात्र 3 बार तलाक देना कह देने और हलाला जैसे मामलों का गलत इस्तेमाल नहीं होगा क्योंकि पुरुष काजी अकसर महिला अधिकारों की अनदेखी करते हैं.

3 बार तलाक कहने और हलाला के मामले में वे असंवेदनशील होते हैं. महिला अधिकारों की रक्षा के लिए महिलाएं भी काजी बनें, यह जरूरी है.

पहले भी काजी बनी महिलाएं

किसी महिला के काजी बनने का मामला अब सामने आया है, ऐसा नहीं है. अतीत में भी काजी बन चुकी हैं महिलाएं. कोलकाता में जब 2004 में एक महिला काजी बनी तो उसे अदालत में चैलेंज किया गया. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने उस याचिका को निरस्त कर उस में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. दरअसल, पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम के काजी व मैरिज रजिस्ट्रार का 2003 में निधन हो गया तो उन की बेटी शबाना बेगम ने इंस्पैक्टर जनरल, रजिस्ट्रेशन (जुडीशियल) को आवेदन किया कि उसे अपने पिता के स्थान पर काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त किया जाए. उस ने तर्क दिया कि वह इस पद के लिए हर लिहाज से योग्य है और अपने पिता की जिंदगी में उन के सहायक के तौर पर निकाह मजलिस में शामिल हुआ करती थी. 8 अप्रैल, 2004 को सरकार ने नंदीग्राम में शबाना को काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त कर दिया.

वर्तमान में उलेमा के विरोध की बुनियादी वजह दारुल उलूम निस्वान से भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन के तहत 2 साल की ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ है. उन को डर सता रहा है कि इस से पुरुष वर्चस्व में सेंध लग जाएगी और उन का महत्त्व कम हो

जाएगा. इस बात को उलेमा कह नहीं रहे हैं लेकिन उन की भाषा से इस का आभास होता है.

भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इसलामिक स्कौलर मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी इसलामी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो लोग यह तर्क देते हैं कि इसलाम में मर्द को संरक्षक बनाया गया है तो वह मियांबीवी के घरेलू मामलों में है न कि आम मर्द व औरत के मामले में. यदि किसी संस्था अथवा कंपनी की मालिक कोई महिला हो तो उस से वहां काम करने वाले मर्दों के संरक्षक होने का क्या मतलब हो सकता है. मर्द का उस के अधीन काम करने में कोई शरई रुकावट नहीं है. मर्द पर खाना, खर्चा यानी गुजाराभत्ता एवं अन्य जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी की वजह से मियांबीवी में शौहर को घर का संरक्षक बनाया गया है अन्यथा इंसान होने के नाते दोनों बराबर हैं. यदि फिकहा (न्यायविधि) की बुनियादी किताबों हिदाया, कुदुरी और अन्य इस्लामी फिकहा की किताबों में कुछ सामाजिक मामलों के लिए औरत के काजी बनने को जायज करार दिया गया है तो उसे इसलामी शरीयत के खिलाफ करार नहीं दिया जा सकता.

मालूम हो कि काजी धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करता है. काजी के पद पर अब तक पुरुषों की ही नियुक्ति होती थी जो निकाह, तलाक व अन्य मामलों में शरीया की पुरुषवादी व्याख्या करते थे जिस में महिलाओं के साथ अकसर भेदभाव होता था. यदि महिलाओं की नियुक्ति काजी के पद पर होती है तो वे ऐसे मामलों में अधिक संवेदनशीलता से विचार कर फैसला देंगी, जिस से मजहब की आड़ में महिलाओं के साथ नाइंसाफी होने की संभावना कम रहेगी.

– खुरशीद आलम साथ में मदन कोथुनियां

अपराधी नहीं हैं बिल्डर

बिल्डरों के खिलाफ माहौल बहुत तेजी से खराब होता जा रहा है. नया कानून बनाया गया है जो न केवल बिल्डरों को शरीफ रखने के बहाने उन पर सैकड़ों टन कागजों का बोझ डाल देगा, बल्कि अदालतें तो बिल्डरों को तरहतरह की सजाएं देने भी लगी हैं. इस में शक नहीं कि बिल्डर जो कहते हैं, करते नहीं हैं और साधारण घर खरीदार के पास न लड़ने का समय होता है, न पैसा. ऐसे में उसे बिल्डरों की नाजायज बातें भी माननी पड़ती हैं. भवन निर्माण व्यवसाय की जड़ में बिल्डरों का लालच तो है ही पर उस से ज्यादा खलनायकी सरकारी विभाग दिखाते हैं जो छिपे रहते हैं. यह व्यवसाय भी दूसरे व्यवसायों की तरह प्रतियोगिता से भरा है और बिल्डर नाम व पैसा कमाने के साथ अपना काम चालू रखना चाहता है. वह चाहता यही है कि उस की एक बिल्डिंग पूरी हो तो वह दूसरी, तीसरी शुरू करे और ज्यादा मुनाफा कमाए.

कठिनाइयां यहां जमीन खरीद से ले कर कंपलीशन सर्टिफिकेट तक की हैं जो सरकारी हाथों में हैं जिन्हें असल उपभोक्ता की कोई फिक्र नहीं होती. नया कानून और अदालतें सरकारी नियमों को ब्रह्मवाक्य मान कर उन के पालन पर जोर देती हैं. अगर सब तरह के टेढ़ेसीधे कानून लागू करना ही देश के लिए उपयोगी व व्यावहारिक होता तो देश इस तरह अस्तव्यस्त नहीं लगता. आज कहीं कोई निर्माण देख लें. सरकारी ही देख लें. कैसे बनते हैं सरकारी दफ्तर, देखिए. सरकारी पुल देखिए. सरकारी रिहायशी मकान देखिए. सरकारी स्टेडियम देखिए. इन में से कौन सा सही है? कौन सा बजट में बना है? कौन सा समय पर बना है? कौन सा नियमों का पालन कर रहा है? अगर कोई मानकों पर नहीं उतर रहा तो साफ है कि इस देश में किसी की मंशा, सरकार की भी, सही काम करने की है ही नहीं, न सही कानून बनाने की है, न सही सेवा देने की.

फिर बिल्डरों को ही महाखलनायक क्यों बनाया जाए? जो लाखों लोग बिल्डरों के मकानों में रह रहे हैं और जिन्होंने 20 सालों में अपनी संपत्ति का मूल्य 5-7 से 20-25 गुना होते देखा है, वे भी बिल्डरों को कोसते हैं जबकि उन का पैसा बिल्डरों की वजह से ही फलाफूला. वहां वे अपने बुद्धि को श्रेय देते हैं कि उन्होंने सही समय पर सही बिल्डर चुना पर उसे धन्यवाद के दो शब्द नहीं देते. क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी को नीचा देखना पड़ा जब उस के स्पौंसर आम्रपाली समूह की पोल खुली पर आम्रपाली के बिल्डरों को दूसरों से क्या परेशानियां हैं, उस की फेहरिस्त क्या किसी ने उस से मांगी?

बिल्डर दूध के धुले नहीं हैं. हर बिल्डर बेईमानी कर रहा है पर फिर भी वे मकान तो मुहैया करा ही रहे हैं. दूध वाले पानी मिलाते हैं पर दूध वालों पर पुलिस का पहरा बैठाने से क्या काम चलेगा? उस गाय को उतना न मारो कि वह शक्तिमान घोड़ा बन जाए जिस पर भारतीय जनता पार्टी के विधायक गणेश जोशी ने डंडे बरसाए, मानो वह कोई दलित हो और मर गया. बिल्डरों को अपराधी न मानें, उन्हें सिर्फ कालिख लगे व्यवसायी मानें जो हर चीज में डंडी मारते हैं पर सेवा तो आखिरकार दे ही देते हैं.

गुजरात में पटेल पेच

गुजरात में पटेल आंदोलन को कुचलने के लिए मुख्यमंत्री आनंदीबाई पटेल की सरकार उसी तरह का अलोकतांत्रिक कदम उठा रही है जिस तरह का खालिस्तान आंदोलन के समय इंदिरा गांधी की सरकार ने उठाया था. आनंदीबाई पटेल को आपातकाल की तरह के कदम उठाने में कोई हिचक नहीं हो रही है क्योंकि उन्हें डर है कि अगर यह आंदोलन पनप गया तो गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की गद्दी हिल सकती है. आनंदीबाई और नरेंद्र मोदी ने हार्दिक पटेल को जेल में डाल दिया है. अक्तूबर से जेल में बंद हार्दिक पटेल को विभिन्न अदालतों से छूट नहीं मिल रही. चूंकि पटेल जाति के लोग अभी तक हरियाणा के जाटों, आंध्र प्रदेश के कापुओं और राजस्थान के गुर्जरों की तरह मरनेमारने को तैयार नहीं है, इसलिए पटेल आंदोलन को काबू में करना सरकार के लिए आसान हो रहा है. शायद यह महात्मा गांधी की विरासत है कि गुजरात के पटेल भी आमतौर पर शांतिप्रिय हैं.

पर इस का अर्थ यह नहीं कि सरकार इंटरनैट और मोबाइल सेवाएं बंद कर के सूचना के आदानप्रदान पर कर्फ्यू लगा सकती है. आंदोलनकारी एकदूसरे को भड़का न सकें. इस के लिए सरकार के पास इंटरनैट या मोबाइल को बंद करने का अगर कानूनी हक है तो भी उसे असंवैधानिक माना जाना चाहिए. किसी भी सरकार को चाहे वह कश्मीर की हो, गुजरात की हो या हरियाणा की, दंगों को भड़कने से रोकने के लिए प्रैस, टैलीविजन, इंटरनैट, मोबाइल आदि को बंद करने का हक नहीं है. संवाद के ये तरीके मानव के अब मौलिक अधिकार हैं और एक तरह से संविधान से भी ऊपर हैं. किसी भी सरकार, चाहे तानाशाही क्यों न हो, को इन अधिकारों को छीनने का हक नहीं है. इन अधिकारों को छीनना असल में मानसिक हत्या के रूप में माना जाना चाहिए. यह एक तरह का नरसंहार है जो अंतर्राष्ट्रीय अपराध है और भारत भी इंटरनैशनल कोर्ट औफ क्रिमिनल जस्टिस का सदस्य है. ऐसे में गुजरात सरकार के खिलाफ इस तरह के अपराध का मुकदमा चलना चाहिए.

आज का विश्व नागरिक केवल देश के स्थानीय कानूनों से बंधा नहीं रह सकता. कोई सरकार ऐसे कानून नहीं बना सकती जो उस के अपने नागरिकों के जीने के पूर्ण अधिकार छीने. इंटरनैट और मोबाइल सेवाएं केवल आनंद लेने के लिए नहीं हैं, जीनेमरने के माध्यम भी हैं. लोगों ने हजारों मील जा कर काम करना शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि वे तो एक तरह से इंटरनैट और मोबाइल के जरिए 2 तल्ले के मकान में केवल ऊपरनीचे रह रहे हैं. सत्ता हाथ से निकलते दिखेगी तो भाजपा सरकारें क्याक्या कर सकती हैं, गुजरात में क्या इस बात का ट्रेलर दिखाया जा रहा है?

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