धर्म की नाजायज बंदिशों को तोड़ने के लिए मुसलिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रही हैं. धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुसलिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं. इसी कड़ी में अफरोज बेगम और जहांआरा ने महिला काजी ट्रेनिंग ली है. नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर देश व समाज की सेवा की है.
बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्त्व के बीच हिंदुस्तान की मुसलिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेडि़यों को झकझोरना शुरू कर दिया है. उन में अपना जीवन बदलने की बेताबी है और हर वह हक वे पाना चाहती हैं जो उन का अपना है. विरोध के स्वर और अपने हक की आवाज उठाती, बैनर व तख्ती लिए, अब मुसलिम महिलाएं भी दिखने लगी हैं. यह कटु सत्य है कि शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है. इतिहास गवाह है कि शिक्षित कौमों ने ही हमेशा समाज में तरक्की की है. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्त्व दे रहे हैं, वहीं मुसलिम समाज इस मामले में आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में महिलाओं खासकर मुसलिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. 1983 की अल्पसंख्यक रिपोर्ट यानी गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट में मुसलिम लड़कियों की निराशाजनक शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा किया गया था. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े तो सारी पोल ही खोल देते हैं. वे साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुसलिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया था कि एक तो कर्ज जैसी सुविधाओं तक मुसलिम महिलाओं की पहुंच बहुत कम होती है, इस के अलावा कर्ज वितरण में उन के साथ भेदभाव भी किया जाता है. इस भेदभाव के पीछे कर्जदाता संस्थानों के अधिकारियों की तंग सोच के अलावा उन महिलाओं का कम शिक्षित होना, अपने हक को हासिल करने के लिए मजबूती से स्टैंड न लेना आदि वजहें भी हो सकती हैं. मुसलिम महिलाओं के सशक्तीकरण का मसला काफी अहम है. सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, मुसलिम महिलाएं देश के निर्धनतम, शैक्षिक स्तर पर पिछड़े, राजनीति में हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं.
अशिक्षा की मार
हमारे मुल्क में सब से ज्यादा निरक्षर मुसलिम लड़कियां और महिलाएं ही हैं. ग्रैजुएट व पोस्टग्रैजुएट स्तर पर स्थिति खासी चिंताजनक है. भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 40 प्रतिशत है. इस में मुसलिम महिलाएं मात्र 11 प्रतिशत हैं. हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाओं का प्रतिशत मात्र 2 है और स्नातक तक पहुंचते ही यह घट कर 0.81 प्रतिशत ही रह जाता है. उधर, मुसलिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुसलिम लड़कों का अनुपात 56.5 फीसदी है. छात्राओं का अनुपात महज 40 प्रतिशत है. इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात 52.3 है तो छात्राओं का 30 प्रतिशत है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुसलिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुसलिम लड़कियों के उच्च शिक्षा से दूर रहने के सब से सामान्य कारण उन की युवावस्था, महिला टीचर्स की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी व दकियानूसी रवैया है. वैसे, मुसलिम महिलाओं की शैक्षिक दुर्दशा का सवाल नया नहीं है. गुलामी के दौर में ब्रिटिश सरकार ने मुसलिम महिलाओं की शिक्षा का स्तर जानने के लिए 1920 में एक कमेटी का गठन किया था. उस के बाद तत्कालीन सरकार ने पुरानी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके बुलबुली खाना में बुलबुल-ए-खाना नामक स्कूल की स्थापना की थी.
वैसे आधुनिक समाज के तमाम लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को यह अधिकार देने पर सहमत हैं. लेकिन यह आरोप लगाया जाता है कि मुसलिम धर्मगुरु अभी भी शरीयत कानून का हवाला दे कर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं. यानी मुसलिम औरतों के हक तथा तालीम की राह का इतिहास बड़ा पेचीदा है और आगे भी इस दिशा में रास्ता मुश्किलों भरा प्रतीत होता है.
राजनीति की बात की जाए तो यहां भी मुसलिम महिलाओं की मौजूदगी नाममात्र है. फिर सवाल खड़ा होता है कि जब भारत में एक महिला प्रधानमंत्री बन सकती है, राष्ट्रपति बन सकती है, राजनीतिक दल की अध्यक्ष बन सकती है तो लोकसभा में उन का प्रतिनिधित्व महज 10.86 प्रतिशत क्यों है? इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की 2011 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के हिसाब से भारत 78वें स्थान पर है जबकि पाकिस्तान और नेपाल इस मामले में भारत से आगे हैं. जब सामान्य वर्ग और दूसरे समुदाय की महिलाओं की उच्च राजनीति में यह हैसियत है तो मुसलिम महिलाओं की हैसियत का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सब से बड़े गणराज्य भारत में लोकसभा चुनावों के इतिहास में अब तक सिर्फ 12 मुसलिम महिलाओं ने ही प्रतिनिधित्व किया है. देश के पहले लोकसभा चुनाव में 23 महिलाएं चुन कर संसद पहुंचीं, जिन में से एक भी मुसलिम महिला नहीं थी. दूसरे लोकसभा चुनाव में चुनी गईं 24 महिलाओं में कांगे्रस के टिकट पर 2 मुसलिम महिलाएं, माफिदा अहमद (जोरहट) तथा मैमूना सुल्तान (भोपाल), लोकसभा में पहुंचीं. बेगम आबिदा और बेगम नूर बानो 2 बार सांसद बनीं. लेकिन मोहसिना किदवई देश की पहली महिला मुसलिम सांसद हैं जो 3 बार जीतीं और संसदीय इतिहास में अपना नाम दर्ज किया.
देश में असहिष्णुता, गैर बराबरी और भेदभाव पर पिछले दिनों खूब बहस चली. लेकिन इन तीनों की शिकार मुसलिम महिलाओं की हालत पर चर्चा के लिए कोई तैयार नहीं. चुनावी नारों में विकासविकास की गूंज तो चारों तरफ सुनाई पड़ती है लेकिन इस विकास में मुसलिम महिलाएं कहां हैं, उन का खुशहाल चेहरा कहीं नहीं दिखता. क्या मुसलिम महिलाओं के बड़े तबके को आजादी के 68 साल बाद भी असली आजादी नसीब हो पाई है? यह बड़ा सवाल तमाम सरकारों से ले कर मुसलमान नेताओं, रहनुमाओं और बातबात पर मजहब का झंडा बुलंद करने वाली तंजीमों के सामने खड़ा है.
आवाजें उठने लगी हैं
बदलते वक्त के साथ भेदभाव के खिलाफ मुसलिम महिलाएं खुद आवाज उठाने लगी हैं. जब आवाज उठी है तो कई सवाल भी उठे हैं. सवाल यह कि क्या मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की जरूरत है? देशभर में ज्यादातर सियासी दल मुसलिम पर्सनल ला के मुद्दे पर भले ही चुप हों लेकिन कई वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में मुसलिम महिलाओं ने उन धार्मिक नियमों का विरोध किया है, जिन्हें वे महिला विरोधी मानती हैं और इस लड़ाई में कई महिलाओं ने अभूतपूर्व हिम्मत व सूझबूझ का परिचय भी दिया है. लखनऊ में मुसलिम महिलाओं के एक समूह ने एक समानांतर पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना कर के उस के जरिए मुसलिम महिलाओं को न्याय दिलाने का प्रयास किया था. इसी तरह, चेन्नई की महिला वकील बदरे सैय्यद ने उच्च न्यायालय में काजियों के तलाक की पुष्टि के अधिकार के विरोध में याचिका दायर की थी. लेकिन सब से प्रभावशाली प्रयास भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन यानी बीएमएमए ने किया.
आंदोलन की संस्थापक नूरजहां, सफिया नियाज और जकिया सोमन हैं. उन का मानना रहा है कि जिस तरह से शरीयत कानून का क्रियान्वयन भारत में होता है उस से मुसलिम महिलाओं के विकास के रास्ते में बहुत सी बाधाएं आती हैं. इसलिए उन्होंने एक मौडल निकाहनामा तैयार किया है और हजारों मुसलिम महिलाओं के हस्ताक्षर ले कर, एकतरफा तलाक के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के सामने याचिका प्रस्तुत की है. बीएमएमए का दावा है कि उस ने देश के 10 राज्यों में 4,710 महिलाओं से बातचीत के आधार पर सर्वे किया. सर्वे के अनुसार, ज्यादातर मुसलिम महिलाओं ने एकसाथ 3 दफा बोल कर तलाक देने की परंपरा को बदलने की मांग की है.
कोर्ट से गुहार
सर्वे में कहा गया है कि देश की महिलाओं ने माना कि तलाक से पहले कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए और इन मामलों में मध्यस्थता का प्रावधान होना चाहिए. इसी तरह 23 फरवरी को उत्तराखंड के काशीपुर की एक मुसलिम महिला सायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि मुसलिम पर्सनल ला में 3 बार तलाक कहने पर तलाक की प्रक्रिया को पूरा मान लेने की परंपरा को खत्म किया जाए. सायरा बानो ने कोर्ट से यह भी गुहार लगाई कि निकाह हलाला (पति से तलाक के बाद उस से दोबारा शादी की प्रथा) पर भी प्रतिबंध लगाया जाए. साथ ही, पुरुषों द्वारा एक से ज्यादा शादियों पर भी रोक लगाई जाए. इन सभी मामलों में सायरा बानो ने भारतीय नागरिक के लिए संविधान की धारा 14, 15, 21 और 25 के तहत अपने मूल अधिकारों के हनन की बात कही है. गौरतलब है कि संविधान की ये सभी धाराएं देश के सभी नागरिकों को एकसमान अधिकार देती हैं और अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए वे सीधे देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं.
पर्सनल ला में सुधार
देश के विभिन्न राज्यों से तकरीबन 70 हजार मुसलिम महिलाओं ने मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की मांग को ले कर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है. गौरतलब है कि मुसलिम पर्सनल ला में निकाह, तलाक, हलाला जैसे कई प्रावधान हैं, जिन की आड़ में मुसलिम औरतों का शोषण होता है. शोषण या अन्याय की स्थिति में महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है क्योंकि अदालतों के हाथ मुसलिम पर्सनल ला से बंधे होते हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में कई संप्रदायों के लेग निवास करते हैं. एक ही देश के नागरिक होने के बावजूद उन की संस्कृति में खासा अंतर है. पारिवारिक मामले जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के लिए अलगअलग कानून हैं. हिंदू एक्ट बहुत हद तक पारंपरिक नियमों का संशोधित स्वरूप है और सभी प्रकार के हिंदुओं, बौद्ध, सिख, जैन पर लागू होता है. जबकि ईसाई, पारसी और मुसलिम तीनों अपनेअपने धर्मानुसार व्यक्तिगत कानूनों से यानी पर्सनल ला से शासित हैं.
इन कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर निष्कर्ष आता है कि कई मामलों में स्त्री के अधिकार पुरुषों की तुलना में ही नहीं, बल्कि दलितों व शूद्रों की तुलना में भी काफी सीमित हैं, खासतौर से मुसलिम महिलाओं की कानूनी व सामाजिक स्थिति दयनीय है. मुसलिम नागरिकों पर लागू होने वाला पर्सनल ला शरीयत पर आधारित है. मुसलिम पर्सनल ला के अंतर्गत महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्मानजनक नहीं कही जा सकती.
मुसलिम महिलाओं को गिनेचुने आधारों पर ही तलाक के बेहद सीमित हक मिले हैं. उस पर भी यदि तलाक की मांग औरत खुद करे तो उसे अपना मेहर छोड़ना पड़ता है. मेहर वह रकम है, जो निकाह से पहले दोनों पक्षों की सहमति से तय होती है और यह रकम शौहर अपनी बीवी को देता है. पुरुष जब चाहे बिना कारण बताए मौखिक रूप से 3 बार तलाक शब्द बोल कर तलाक दे सकता है. पुरुष पर अपनी पत्नी के भरणपोषण का कर्तव्य भी तलाक के बाद इद्दत काल यानी 3 महीनों तक ही होता है.
मुसलिम समुदाय में हलाला प्रथा भी चलन में है. इस के तहत तलाकशुदा पतिपत्नी किसी कारणवश यदि दोबारा वैवाहिक संबंध बनाना चाहें, तो उस के पहले अनिवार्य रूप से पत्नी को किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर के, एक तय समयावधि पत्नी के तौर पर, उस पुरुष के साथ गुजारनी पड़ती है. इस के बाद नियमानुसार ही तलाक ले कर वह पहले पति से शादी कर सकती है. भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की ओर से हलाला को दंडनीय अपराध घोषित करने और तलाक व भरणपोषण के संबंध में नए व बेहतर कानून बनाए जाने की मांग की गई है. मौलिक अधिकारों और न्याय के सिद्धांतों पर एकसमान नागरिक संहिता लागू करने की जब भी बात हुई है उस का सब से ज्यादा विरोध मुसलिम समुदाय द्वारा ही किया जाता रहा है और इस का दुष्परिणाम मुसलिम महिलाओं को सब से ज्यादा भुगतना पड़ा है. ऐसे में मुसलिम समुदाय की ही 70 हजार महिलाओं का पर्सनल ला में सुधार किए जाने के लिए पीएम को पत्र लिखना बड़ी व खास बात है.
तमाम मुश्किलों के बावजूद कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल की और देश व समाज की सेवा भी की. इस संबंध में पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा, मोहसिना किदवई, नजमा हेपतुल्लाह, समाजसेविका व अभिनेत्री शबाना आजमी, ब्यूटी एक्सपर्ट शहनाज हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हौकी कप्तान रजिया जैदी, टैनिस सितारा सानिया मिर्जा, साहित्य में नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा परवेज, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऐन हैदर तो पत्रकारिता में नगमा और सादिया के नाम लिए जा सकते हैं.
महिलाओं की इसी जमात से निकली उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के छोटे से गांव कम्हरिया की रहने वाली अंजुम आरा, बिहार के बाढ़ जिले में जन्मी गुंचा सनोबर, बिहार की ही सहला निगार और मुंबई के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी सारा रिजवी जैसे कुछ
नाम हैं जिन्होंने भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी बन कर लाखों मुसलिम लड़कियों के लिए एक नई राह दिखाई है.
तरक्की में भागीदारी
मुसलिम महिलाओं की ये सफलताएं मिसाल हैं. इसी तरह वाराणसी के खजूरी इलाके में रहने वाली मुसलिम महिला नौशाबा मुसलिम महिलाओं के लिए किसी उदाहरण से कम नहीं हैं. उन्होंने न सिर्फ अपनी जिंदगी को संवारा बल्कि अब दूसरी मुसलिम महिलाओं को शिक्षा से जोड़ने के साथ ही उन्हें स्वावलंबी बनाने का भी जिम्मा बखूबी निभा रही हैं. उन के ट्रेनिंग कैंप से प्रशिक्षित हो कर लगभग 2 हजार लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी हैं. कानपुर की नूरजहां, जो कई घरों को रोशन कर रही हैं, का जिक्र तो पीएम मोदी अपने भाषण में कर चुके हैं.
बहरहाल, ये उदाहरण इस बात के साक्ष्य हैं कि यदि मुसलिम औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वे भी देश व समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं. लेकिन यह तय है कि मुसलिम महिलाएं सुधारों की इस बहस को अकेले सरकारों, सियासी दलों के ऊपर नहीं छोड़ सकती हैं बल्कि इस के लिए समुदाय, विशेषकर महिलाओं, को पूरी ताकत के साथ सामने आना भी होगा, तभी सुधार, चर्चा तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि आगे बढ़ सकेंगे.
काजी बनती मुसलिम महिलाएं
मुसलिम महिला काजी बन सकती है या नहीं, यह विवाद का विषय बना हुआ है. महिलाओं के जहां अपने तर्क हैं और वे इसे इसलामी शरीअत के अनुरूप बता रही हैं वहां मुसलिम संगठन काजी के रूप में उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. वादविवाद में यह सवाल भी चर्चा में है कि क्या देश के वर्तमान कानून में काजी की कोई व्यवस्था है? यदि हां, तो उस के चुनाव की प्रक्रिया क्या है और उस के दायित्व एवं अधिकार क्या हैं?जानकारों की मानें तो अंगरेजों ने काजी के पद को तो बाकी रखा लेकिन उस के दायित्व एवं अधिकार को खत्म कर दिया. जिस के बाद इस की हैसियत परामर्शदाता पद के तौर पर है. तो फिर काजी बनने को ले कर किसी हंगामे का औचित्य क्या है? कहीं यह पुरुषप्रधान समाज को चुनौती देना जैसा तो नहीं है जिस की वजह से इस का विरोध शुरू हो गया है.
इसलामी न्यायविधि यानी फिकहा के जानकार मानते हैं कि औरत जिन मामलों में गवाही दे सकती है उन मामलों में वह काजी बन कर फैसले भी कर सकती है. लेकिन जिस तरह पूरे मामले को पेश किया जा रहा है उस से यह धारणा सामने आ रही है कि इसलाम, महिला अधिकारों का विरोधी है.
सचाई यह है कि मुसलिम समाज ने महिलाओं को वे अधिकार नहीं दिए जो इसलाम ने उन्हें दिए हैं. इस ओर जमाते इसलामी हिंद के महासचिव व इंजीनियर मोहम्मद सलीम ने अपने एक बयान में इशारा कर महिलाओं को उन के अधिकार देने की वकालत की है. सब से रहस्यमय भूमिका दारुल उलूम देवबंद की रही. उस ने पहले महिला काजी बनने का समर्थन किया, दूसरे दिन इस का खंडन कर स्पष्ट किया कि महिला काजी नहीं बन सकती. दारुल उलूम की यह भूमिका निश्चय ही जांच का विषय है.
काजी होने के दावे
राजस्थान की 2 महिलाओं द्वारा काजी होने का दावा करने के बाद मामला सामने आया है. अफरोज बेगम और जहांआरा ने मुंबई स्थित दारुल उलूम निस्वान से ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ ली है. मुंबई के इस मदरसे में 30 अन्य महिलाएं भी काजी बनने के लिए अध्ययन कर ट्रेनिंग ले रही हैं. दारुल उलूम निस्वान की ट्रस्टी जकिया सोनम और नूरजहां नियाजी का मानना है कि इस से महिलाएं निकाह, तलाक और मेहर जैसे रिवाजों को सीधे तौर पर खुद देख सकेंगी एवं इस से मात्र 3 बार तलाक देना कह देने और हलाला जैसे मामलों का गलत इस्तेमाल नहीं होगा क्योंकि पुरुष काजी अकसर महिला अधिकारों की अनदेखी करते हैं.
3 बार तलाक कहने और हलाला के मामले में वे असंवेदनशील होते हैं. महिला अधिकारों की रक्षा के लिए महिलाएं भी काजी बनें, यह जरूरी है.
पहले भी काजी बनी महिलाएं
किसी महिला के काजी बनने का मामला अब सामने आया है, ऐसा नहीं है. अतीत में भी काजी बन चुकी हैं महिलाएं. कोलकाता में जब 2004 में एक महिला काजी बनी तो उसे अदालत में चैलेंज किया गया. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने उस याचिका को निरस्त कर उस में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. दरअसल, पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम के काजी व मैरिज रजिस्ट्रार का 2003 में निधन हो गया तो उन की बेटी शबाना बेगम ने इंस्पैक्टर जनरल, रजिस्ट्रेशन (जुडीशियल) को आवेदन किया कि उसे अपने पिता के स्थान पर काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त किया जाए. उस ने तर्क दिया कि वह इस पद के लिए हर लिहाज से योग्य है और अपने पिता की जिंदगी में उन के सहायक के तौर पर निकाह मजलिस में शामिल हुआ करती थी. 8 अप्रैल, 2004 को सरकार ने नंदीग्राम में शबाना को काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त कर दिया.
वर्तमान में उलेमा के विरोध की बुनियादी वजह दारुल उलूम निस्वान से भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन के तहत 2 साल की ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ है. उन को डर सता रहा है कि इस से पुरुष वर्चस्व में सेंध लग जाएगी और उन का महत्त्व कम हो
जाएगा. इस बात को उलेमा कह नहीं रहे हैं लेकिन उन की भाषा से इस का आभास होता है.
भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इसलामिक स्कौलर मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी इसलामी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो लोग यह तर्क देते हैं कि इसलाम में मर्द को संरक्षक बनाया गया है तो वह मियांबीवी के घरेलू मामलों में है न कि आम मर्द व औरत के मामले में. यदि किसी संस्था अथवा कंपनी की मालिक कोई महिला हो तो उस से वहां काम करने वाले मर्दों के संरक्षक होने का क्या मतलब हो सकता है. मर्द का उस के अधीन काम करने में कोई शरई रुकावट नहीं है. मर्द पर खाना, खर्चा यानी गुजाराभत्ता एवं अन्य जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी की वजह से मियांबीवी में शौहर को घर का संरक्षक बनाया गया है अन्यथा इंसान होने के नाते दोनों बराबर हैं. यदि फिकहा (न्यायविधि) की बुनियादी किताबों हिदाया, कुदुरी और अन्य इस्लामी फिकहा की किताबों में कुछ सामाजिक मामलों के लिए औरत के काजी बनने को जायज करार दिया गया है तो उसे इसलामी शरीयत के खिलाफ करार नहीं दिया जा सकता.
मालूम हो कि काजी धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करता है. काजी के पद पर अब तक पुरुषों की ही नियुक्ति होती थी जो निकाह, तलाक व अन्य मामलों में शरीया की पुरुषवादी व्याख्या करते थे जिस में महिलाओं के साथ अकसर भेदभाव होता था. यदि महिलाओं की नियुक्ति काजी के पद पर होती है तो वे ऐसे मामलों में अधिक संवेदनशीलता से विचार कर फैसला देंगी, जिस से मजहब की आड़ में महिलाओं के साथ नाइंसाफी होने की संभावना कम रहेगी.
– खुरशीद आलम साथ में मदन कोथुनियां