बिल्डरों के खिलाफ माहौल बहुत तेजी से खराब होता जा रहा है. नया कानून बनाया गया है जो न केवल बिल्डरों को शरीफ रखने के बहाने उन पर सैकड़ों टन कागजों का बोझ डाल देगा, बल्कि अदालतें तो बिल्डरों को तरहतरह की सजाएं देने भी लगी हैं. इस में शक नहीं कि बिल्डर जो कहते हैं, करते नहीं हैं और साधारण घर खरीदार के पास न लड़ने का समय होता है, न पैसा. ऐसे में उसे बिल्डरों की नाजायज बातें भी माननी पड़ती हैं. भवन निर्माण व्यवसाय की जड़ में बिल्डरों का लालच तो है ही पर उस से ज्यादा खलनायकी सरकारी विभाग दिखाते हैं जो छिपे रहते हैं. यह व्यवसाय भी दूसरे व्यवसायों की तरह प्रतियोगिता से भरा है और बिल्डर नाम व पैसा कमाने के साथ अपना काम चालू रखना चाहता है. वह चाहता यही है कि उस की एक बिल्डिंग पूरी हो तो वह दूसरी, तीसरी शुरू करे और ज्यादा मुनाफा कमाए.

कठिनाइयां यहां जमीन खरीद से ले कर कंपलीशन सर्टिफिकेट तक की हैं जो सरकारी हाथों में हैं जिन्हें असल उपभोक्ता की कोई फिक्र नहीं होती. नया कानून और अदालतें सरकारी नियमों को ब्रह्मवाक्य मान कर उन के पालन पर जोर देती हैं. अगर सब तरह के टेढ़ेसीधे कानून लागू करना ही देश के लिए उपयोगी व व्यावहारिक होता तो देश इस तरह अस्तव्यस्त नहीं लगता. आज कहीं कोई निर्माण देख लें. सरकारी ही देख लें. कैसे बनते हैं सरकारी दफ्तर, देखिए. सरकारी पुल देखिए. सरकारी रिहायशी मकान देखिए. सरकारी स्टेडियम देखिए. इन में से कौन सा सही है? कौन सा बजट में बना है? कौन सा समय पर बना है? कौन सा नियमों का पालन कर रहा है? अगर कोई मानकों पर नहीं उतर रहा तो साफ है कि इस देश में किसी की मंशा, सरकार की भी, सही काम करने की है ही नहीं, न सही कानून बनाने की है, न सही सेवा देने की.

फिर बिल्डरों को ही महाखलनायक क्यों बनाया जाए? जो लाखों लोग बिल्डरों के मकानों में रह रहे हैं और जिन्होंने 20 सालों में अपनी संपत्ति का मूल्य 5-7 से 20-25 गुना होते देखा है, वे भी बिल्डरों को कोसते हैं जबकि उन का पैसा बिल्डरों की वजह से ही फलाफूला. वहां वे अपने बुद्धि को श्रेय देते हैं कि उन्होंने सही समय पर सही बिल्डर चुना पर उसे धन्यवाद के दो शब्द नहीं देते. क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी को नीचा देखना पड़ा जब उस के स्पौंसर आम्रपाली समूह की पोल खुली पर आम्रपाली के बिल्डरों को दूसरों से क्या परेशानियां हैं, उस की फेहरिस्त क्या किसी ने उस से मांगी?

बिल्डर दूध के धुले नहीं हैं. हर बिल्डर बेईमानी कर रहा है पर फिर भी वे मकान तो मुहैया करा ही रहे हैं. दूध वाले पानी मिलाते हैं पर दूध वालों पर पुलिस का पहरा बैठाने से क्या काम चलेगा? उस गाय को उतना न मारो कि वह शक्तिमान घोड़ा बन जाए जिस पर भारतीय जनता पार्टी के विधायक गणेश जोशी ने डंडे बरसाए, मानो वह कोई दलित हो और मर गया. बिल्डरों को अपराधी न मानें, उन्हें सिर्फ कालिख लगे व्यवसायी मानें जो हर चीज में डंडी मारते हैं पर सेवा तो आखिरकार दे ही देते हैं.

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