असलियत को ढकने का सब से अच्छा तरीका यह है कि उस पर राजनीति का परदा डाल दो. ऐसा करने से लोगों का बात की तह तक पहुंच पाना मुश्किल हो जाता है. और उस परदे के पीछे धर्म व उस के ठेकेदार इत्मीनान से साजिशें रचते रहते हैं.

14 अप्रैल को डा. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती देशभर में, बिलकुल धार्मिक जलसों की तरह, धूमधाम से मनाई गई. जगहजगह शोभायात्राएं निकलीं, अंबेडकर की फोटुओं और मूर्तियों का पूजन हुआ, कई जगह प्रसाद भी चढ़ाए गए. पंडाल, झांकियों की तरह सजाए गए और आतिशबाजी भी की गई. आरती की जगह भीम गीत गाए गए. ऐसा लगा, मानो आज रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, हनुमान जयंती या दुर्गा अष्टमी जैसा कोई त्योहार है. बच्चे, औरतें, बूढ़े और जवान सब एक जनून में नाचतेगाते रथयात्राओं के साथ चले तो सहज लगा कि ये अंबेडकरपूजक, दरअसल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उन से अंबेडकर को दूर करने की कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है.

दलितों का जोश और जनून देख सभी भौचक थे कि इस साल ही क्यों अंबेडकर जयंती इतनी ज्यादा धूमधाम से मनाई जा रही है, इस के पहले तक 14 अप्रैल को दलित हिमायती कुछ दल और संगठन अपनेअपने दफ्तरों में अंबेडकर को याद कर भाषण दे कर चलते बनते थे. एकाध जगह बड़ी मीटिंग कर ली जाती थीं जिन में कुछ दलित नेता बाबासाहेब के दलित उत्थान में योगदान को ले कर हर साल दिया जाने वाला भाषण दोहरा देते थे. पर इस साल अंबेडकर जयंती पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी की तरह नए तरीकों व सलीके से मनाई गई तो कहने, देखने, सुनने वालों ने यही कहा कि यह वोटों की राजनीति है और सभी सियासी पार्टियां दलितों को लुभाने में लगी हैं. हालांकि ऐसा तो इस देश में होता रहता है लेकिन इस साल कुछ ज्यादा ही हो गया.

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