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तलाक की सुलझन

अभिनेत्री करिश्मा कपूर और संजय कपूर में सुलह हो गई है और जो केस करिश्मा ने संजय के खिलाफ दायर किए थे, वापस ले लिए. गौरतलब है कि 2014 में दोनों ने आपसी सहमति से कोर्ट में तलाक की याचिका दायर की थी. हालांकि आपसी मतभेद के कारण यह याचिका वापस ले ली गई थी. फिर बात और बिगड़ी तो करिश्मा ने संजय और अपनी सास के खिलाफ उत्पीड़न का केस दर्ज करा दिया. यहां तक कि दोनों का विवाद इतना गहरा हो गया था कि संजय ने करिश्मा पर लालची होने का आरोप लगाया और करिश्मा के पिता रणधीर कपूर को भी प्रैस में बयानबाजी करनी पड़ी. फिलहाल, फैमिली कोर्ट ने सैटलमैंट स्वीकार कर लिया है.

सरकार पर अविश्वास

देश की जनता को सरकार पर इतना ज्यादा अविश्वास है कि वह सरकार से अपने लेनदेन हरगिज शेयर नहीं करना चाहती. सरकार कंप्यूटर तकनीक का इस्तेमाल कर के औनलाइन फाइलिंग, पैन कार्ड, आधार कार्ड, कैश की जगह बैंक से लेनदेन पर जितना जोर दे रही है उतना ही लोग अपना कैश संभाल कर रख रहे हैं और नए आंकड़ों के अनुसार, लोगों ने मकानों व सोने में पैसा लगाना बंद कर दिया है. एंबिट कैपिटल नाम की कंपनी ने बताया है कि इस बार 53 साल बाद पहली बार बैंकों में जमा होने वाली राशि की वृद्धि 10 प्रतिशत से भी कम रह गई. यानी लोगों को भरोसा नहीं है कि खातों में रखा गया बैंकों में पैसा उन्हें वापस मिलेगा भी.

सरकार ने बड़ेबड़े विज्ञापन दे कर जनधन योजना को शुरू किया था पर उस के बावजूद, लोगों ने क्रैडिटडैबिट कार्डों में भरोसा करना कम कर दिया और उन की वृद्धि दर एकतिहाई रह गई है. बैंक अब क्रैडिट कार्डों पर छूट देना भी बंद कर चुके हैं और मोबाइल व क्रैडिट कार्ड बेचने के लिए पिनपिनाते नहीं हैं. बड़ी रकमें जो बैंकों से इधर से उधर भेजी जाती थीं उन की वृद्धि भी 15 प्रतिशत सालाना से घट कर 7 प्रतिशत रह गई है. एंबिट कैपिटल का कहना है कि देश की 20 प्रतिशत अर्थव्यवस्था कालेधन पर चल रही है. असल में 2014 की भाजपा सरकार और 1950 की कांग्रेस सरकार में कोई ज्यादा फर्क नहीं है. तब भी और आज भी व्यापारी व पैसे वालों को गुनाहगार समझा जाता है. यह हमारे धर्मग्रंथों की देन है जो माया को मानव की मेहनत का परिणाम नहीं, मोह समझते हैं. ब्राह्मणवादी सोच के अनुसार, माया कमाने वाले के हाथ में नहीं, ईश्वर के एजेंटों के हाथों में रहनी चाहिए और 1947 के बाद की कांगे्रस और आज की भाजपा राजा को ईश्वरतुल्य समझती हैं.

आम व्यक्ति अपने पैसे को अपने पास रखना चाहता है. गरीब लोग पैसा जमीन में दबा कर रखते हैं और अमीर लोग तिजोरियों में. पहले जब कालाधन व्यापार व मकानों में लग रहा था तब लोगों ने खूब लगाया और अर्थव्यवस्था बढ़ी थी. लेकिन अब पंडिताई सोच के अनुसार, धन तो सरकारी खजाने में जाना चाहिए, इसलिए अब नकदी के रूप में रखा जा रहा है. सब जानते हैं कि अब पहले के हिंदू राजाओं की तरह पैसा या तो मंदिरों में लगाया जाएगा या यज्ञहवनों में स्वाहा कर दिया जाएगा. लोग अपनी मेहनत को पत्थरों में या लकडि़यों में नष्ट होते नहीं देखना चाहते, चाहे वे जितना तिलक लगाते हों. सरकार चाहे कहती रहे कि भारत की अर्थव्यवस्था सब से तेजी से बढ़ रही है पर ये आंकड़े वैसे ही भ्रामक हैं जैसे यह कहना कि हमारे पास पौराणिक युग में विमान थे और आदमी के सिर पर हाथी का सिर लगाने की सर्जरी की कला थी. झूठ बोलने में माहिर पौराणिकवादी, अर्थव्यवस्था को अर्थपुराण मात्र मानते हैं.

लंगोट, दंगल और भेड़चाल का सिनेमा

बौलीवुड अभिनेता सलमान खान की फिल्म ‘सुलतान’ का ट्रेलर रिलीज होते ही सोशल मीडिया में लंगोट और दंगल जैसे की-वर्ड्स ट्रेंड कर रहे हैं. ये की-वर्ड्स पहले फिल्म और वर्चुअल दुनिया में इतने जोर से कभी नहीं सुने और देखे गए. बड़ी फिल्में आते ही की-वर्ड्स और किरदारों को ट्रैंडिंग टौपिक बना देती हैं. सुलतान का ट्रेलर जब से रिलीज हुआ है, डिजिटल मीडिया में इसे लाइक करने वालों की बाढ़ सी आ गई है. यह फिल्म हरियाणा के मशहूर पहलवान सुलतान अली खान के जीवन पर आधारित है. फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा हैं और इस के पटकथा लेखक व निर्देशक अली अब्बास जफर हैं. यह फिल्म ईद पर रिलीज होगी. जाहिर है आमिर की ‘दंगल’ के साथ भी ऐसा होगा. यह भी इसी विषय पर केंद्रित है.

जिस तरह देश के ज्यादातर स्पोर्ट्स चलन से बाहर हो गए हैं, वैसे ही दंगल भी हरियाणा जैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर और कहीं कम ही होता है. पहले गांवों, कसबों का हर मेला और जलसा बिना दंगल के पूरा नहीं होता था. यह तब की बात है जब टीवी का रोग और इंटरनैट की लत नहीं थी. अब तो दंगल का मतलब डब्लूडब्लूएफ की फर्जी फाइट से निकाला जाता है. हिंदी फिल्मों में सामाजिक सरोकार की कहानियों से जुड़े विषयों का टोटा रहता है. वहां दलित व पिछड़े समाज से जुड़े किरदारों को तो हमेशा से ही हाशिए पर रखा गया है. ‘दंगल’ और ‘सुलतान’ के पहलवान या तो पिछड़े समाज से आए हैं या फिर दलित से, लेकिन हर साल सैकड़ों फिल्में बौलीवुड में बनती हैं, पर इन्हें नायक की तरह कम ही पेश किया जाता है.

सामाजिक सरोकार

पिछले दशकों में हिंदी में ढेरों फिल्में बनीं पर इन में सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. एक अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 2 वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थीं जिन में शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दिखाया गया. याद करें तो फिल्म ‘लगान’ का कचरा याद आता है या फिर फिल्म ‘मांझी : द माऊंटैन मैन’ का दशरथ मांझी. वरना ज्यादातर हिंदी फिल्मों में दलित व पिछड़ों को या तो रामू काका के घिसेपिटे किरदार में पेश किया जाता है या फिर ड्राइवर या दुकानदार. जबकि नायक कोई सिंघानिया, मल्होत्रा या कपूर होता है. फिल्म ‘गंगाजल’ में भी एक दलित को अहम किरदार दिया गया था लेकिन फिर भी मुख्य नायक सवर्ण ही था. आज का सिनेमा समाज के उस धड़े को भूल गया है जो आज भी अपनी मेहनत और लगन से देश के आर्थिक हालात को मजबूत कर रहा है और अपनी सामाजिक जगह भी मजबूत कर रहा है.

अगर फिल्म बिरादरी इन के साथ जातिगत भेदभाव न करती तो आज ‘दंगल’ और ‘सुलतान’ के अलावा ‘पार’, ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मांझी’ जैसे फिल्में अधिक संख्या में बनतीं और इस दबेकुचले वर्ग की पीड़ा को उठातीं. हालांकि इस में भी कोई शक नहीं है कि ‘सुलतान’ या ‘दंगल’ इस वर्ग के हित की कोई बात करेंगी. होगा यही कि मसाला फिल्मों की तरह इस कथानक को पेश किया जाएगा.

एक कहानी, एक फार्मूला

बौलीवुड में अकसर देखा गया है कि प्रयोगधर्मी सिनेमा को कभी तरजीह नहीं दी गई. इस की जिम्मेदारी गिनेचुने औफबीट फिल्म बनाने वाले निर्देशकों पर डाल दी जाती है. और जिन के पास करोड़ों का बजट और वितरण की बड़ी मार्केट्स हैं वे भेड़चाल में चलते हुए उसी फार्मूले को दोहरा रहे हैं जो एक बार हिट हो जाता है. अगर कौमेडी फिल्में हिट हो गई तो एकसाथ ऐसी फिल्मों की लाइन लग जाएगी और अगर हौरर चल निकली तो फिर इसी विषय पर फिल्में बनाई जाएंगी. कभीकभी ऐसा भी दौर आता है जब अचानक से एक ही कहानी पर कई सारे फिल्ममेकर न सिर्फ एकसाथ फिल्म बनाने लगते हैं बल्कि एक ही सप्ताह या एक ही दिन रिलीज करने पर भी अड़ जाते हैं.

कहानी और विषयों को ले कर भेड़चाल का चलन कुछ यों है कि जो विषय सालों से अनछुए रहते हैं, अचानक एक ही वक्त टपक जाते हैं, जैसा कि भगत सिंह के जीवन पर आधारित फिल्मों के मामले में हुआ था, साल 2002 में इस विषय पर बौबी देओल, अजय देवगन और सोनू सूद को ले कर 3 फिल्में बनीं और मजे की बात तो यह है कि तीनों ही अपनी फिल्म को एक ही तारीख पर रिलीज करने के लिए अड़ गए थे. ऐसा हुआ भी. नतीजतन, सारी फिल्में पिट गईं क्योंकि दर्शक एक ही विषय को ले कर बंट गए थे.

इस साल भी सलमान खान जहां अली अब्बास जफर निर्देशित ‘सुलतान’ में लंगोट बांध कर दंगल करते नजर आएंगे तो वहीं मिस्टर परफैक्शनिस्ट आमिर खान फिल्म ‘दंगल’ में धरती पकड़ पहलवान के किरदार में नजर आएंगे. आखिरी बार किस अभिनेता ने पहलवान का किरदार किया था, आप को याद नहीं आएगा. दरअसल, यह विषय कभी भेड़चाल का हिस्सा नहीं बना, पर अब लगता है बन जाएगा.

चोरी वाली भेड़चाल

कहानियों की भेड़चाल की तरह है चोरी वाली भेड़चाल. इस में निर्मातानिर्देशक थोक के भाव विदेशी फिल्मों की डीवीडी खरीदते हैं और अपने लेखक से उस का हूबहू संस्करण बनवा लेते हैं. इस कला में सब से ज्यादा माहिर भट्ट ब्रदर्स (महेश भट्ट और मुकेश भट्ट) रहे हैं. उन के बैनर की 90 प्रतिशत फिल्मों की कहानियां हौलीवुड फिल्मों से उड़ाई गई हैं. भट्ट कैंप की कामयाबी की देखादेखी 90 के दशक में इस भेड़चाल में सब निर्मातानिर्देशकों ने हाथ आजमाए. हालांकि अब परिदृश्य बदल चुका है. अब अंगरेजी फिल्मों की स्टोरी चुराना जोखिमभरा है. हौलीवुड की फिल्मों की रीमेक के अधिकार खरीदने के लिए बड़ी राशि चुकानी पड़ती है. इस के अलावा हौलीवुड में ज्यादातर प्रोडक्शन हाउस जैसे फौक्स फिल्म्स, सोनी पिक्चर, लाइंस गेट और वायकौम 18 के दफ्तर मुंबई में खुल चुके हैं. जाहिर है इन के नाक के नीचे से इन की फिल्में चुराना आसान नहीं है. सोहेल खान ने अंगरेजी फिल्म ‘हिच’ की कौपी कर डेविड धवन से जब ‘पार्टनर’ बनवाई थी तो मूल फिल्म के निर्माता सोनी पिक्चर ने सोहेल पर धावा बोल दिया था. मामला किसी तरह कोर्ट के बाहर मोटी रकम दे कर सुलझाया गया.

साउथ का मसाला डोसा

हौलीवुड फिल्मों की चोरी जब पकड़ने लगी तो भेड़चाल का रुख दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरफ मुड़ गया. यहां जो फिल्में क्षेत्रीय स्टार पर ज्यादा कामयाब होने लगीं, उन के राइट्स सस्ते में खरीद कर मुंबई के निर्माताओं ने खूब कमाया. यह भेड़चाल आज भी जारी है. सालभर में रिलीज हिट चंद अच्छी हिंदी फिल्में ज्यादातर साउथ इंडियन फिल्मों की रीमेक थीं. दरअसल, एक सफल फिल्म का रीमेक करना बिजनैस के हिसाब से आसान और सफल प्रयोग होता है. सलमान, अक्षय कुमार से ले कर आमिर खान तक रीमेक फिल्मों से 100 करोड़ क्लब में शामिल हुए हैं. ‘दृश्यम’, ‘ट्रैफिक’, ‘गजनी’, ‘गोलमाल’, ‘बौडीगार्ड’, ‘रेडी’, ‘सिंघम’, ‘हाउसफुल 2’, ‘राऊडी राठौर’, ‘मैं तेरा हीरो’, ‘बागी’ और ‘सन औफ सरदार’ जैसी सफल फिल्में दक्षिण भारतीय फिल्मों की रीमेक हैं. इन की जगह अगर समाज के निचले तबके के विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें तो मनोरंजन जगत की सार्थकता समझ आए.

पुलिस, पब्लिक और अंडरवर्ल्ड

एक भेड़चाल ऐसी है जो किसी खास किरदार या थीम के हिट होते ही निर्मातानिर्देशक उसी फार्मूले को इतना घिसते हैं कि पब्लिक उकता जाए. बीते 4-5 सालों में पुलिस सिस्टम और दबंग किरदारों पर फिल्में बनाने का चलन कुछ यों शुरू हुआ कि ‘सिंघम’, ‘दबंग’ से ले कर ‘राऊडी राठौर’ और ‘पुलिसगीरी’ तक न जाने कितनी फिल्में बनीं, इन के सीक्वल भी बने. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक यह सब्जैक्ट पब्लिक ने नकार नहीं दिया. पुलिस का अपराध से चोलीदामन का साथ है, लिहाजा राम गोपाल वर्मा सरीखे निर्देशकों ने ‘सत्या’, ‘कंपनी’, ‘डी’ जैसी सफल फिल्मों के केंद्र में उन कुख्यात अपराधियों को रखा जो एक समय अंडरवर्ल्ड के सरगना थे. ऐसी फिल्में पसंद भी की गईं. बाद में जब यह विषय भी भेड़चाल का शिकार हुआ तो इसी विषय पर बनी ‘डिपार्टमैंट’ और ‘सत्या 2’ जैसी कई फिल्में औंधे मुंह गिरीं.

अकर्मण्यता और अंधविश्वास

ऐतिहासिक फिल्मों का दौर ‘जोधा अकबर’ से ले कर ‘बाजीराव मस्तानी’ तक चला और अगस्त में ‘मोहन जोदड़ो’ भी रिलीज होगी. हास्य व मसाला फिल्मों की घिसाई तो सालों से हो रही है. जिस तरह आज दंगल और लंगोट के चर्चे हैं, आगे चल कर कोई और नया विषय ट्रेंड में आएगा और उस पर भी भेड़चाल होने लगेगी. लेकिन जिस तरह फिल्मों के हर दूसरे सीन में देवीदेवताओं की पूजा, घंटी बजाते ही आंखें आ जाने जैसे चमत्कार और तमाम अंधविश्वास दृश्य रच कर आमजन को गुमराह किया जाता है, उसी तरह ‘रागिनी एमएमएस’ और तमाम भूतिया फाइलों में हनुमान चालीसा का पाठ हो या क्राइस्ट सिंबल का प्रयोग, समाज को अंधविश्वास के गहरे गर्त में ले जाता है.

इस के अलावा अपराधियों, चोर और गैंगबाजी वाली फिल्मों में जाहिर किया जाता है कि बड़ा आदमी बनने के लिए मेहनत की नहीं, शौर्टकट की जरूरत है, बैंक लूट लो, हफ्ता वसूलो, गुंडा बन जाओ या फिर लौटरी लगेगी या फिर भगवान चमत्कार कर देगा. फिल्मों में काम को प्रधान नहीं दिखाया जाता जिस के चलते समाज में अकर्मण्यता को बढ़ावा मिलता है. फिल्मों के दृश्यों से इंस्पायर हो कर डकैती की असल वारदातें या फिर हत्या जैसे जघन्य अपराध अंजाम दिए जाते हैं.

समय आ गया कि फिल्मकार और कलाकार अपने सामाजिक सरोकार समझें और फिर नाचगाने के फूहड़ सिनेमा से परे कुछ समाज के बाहर और कुछ परदे के अंदर करने की जहमत करें.  

 

शहंशाह के दौर से गुजर रहे हैं बादशाह

‘फैन’ के साथ इतनी बुरी बीतेगी, यह न तो शाहरुख खान ने सोचा होगा और न ही इसे बनाने वाले यशराज जैसे बड़े बैनर ने, जिन की कमोबेश हर फिल्म बौक्स औफिस पर कामयाबी पा लेती है. यशराज और शाहरुख का मेल तो ऐसा है जिस की सफलता पर संदेह किया ही नहीं जा सकता. फिर इस फिल्म को समीक्षकों की तरफ से तारीफें भी भरपूर मिली थीं और यहां तक कहा गया कि अब तक की अपनी तमाम फिल्मों में से शाहरुख दूसरी बार ऐसे किरदार में दिखाई दिए जिस में लोगों ने परदे पर शाहरुख को नहीं, बल्कि उस किरदार को देखा. पहली बार ऐसा ‘चकदे इंडिया’ के कबीर खान के साथ हुआ था और दूसरी बार अब ‘फैन’ के गौरव चांदना के साथ. संयोग से ये दोनों ही फिल्में यशराज बैनर से आईं. तो फिर चूक कहां हो गई? खतरे की घंटी तो पिछले साल दीवाली पर आई शाहरुख की फिल्म ‘दिलवाले’ से ही बज चुकी थी. शाहरुखकाजोल की सर्वप्रिय जोड़ी की मौजूदगी वाली और शाहरुख के साथ ‘चैन्नई ऐक्सप्रैस’ जैसी सुपरहिट फिल्म दे चुके निर्देशक रोहित शैट्टी की इस फिल्म ने दीवाली जैसे हौट कारोबारी मौके पर आने के चलते कमाई तो की लेकिन वह कमाई इतनी नहीं थी कि उसे किंग खान के स्तर की कमाई कहा जाता. ‘दिलवाले’ के बाद फिल्म जानकारों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि बादशाह की बादशाहत अब फीकी पड़ने लगी है. और अब रहीसही कसर ‘फैन’ को मिले ठंडे रैस्पौंस ने पूरी कर दी. आखिर वजह क्या है?

फिल्म ट्रेड विश्लेषक विनोद मिरानी कहते हैं, ‘‘शाहरुख अब अपने कैरियर के उस दौर से गुजर रहे हैं जहां से हर बड़ा स्टार हो कर गुजरा है. दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन जैसे सुपरस्टार तक इस दौर से अछूते नहीं रहे.’’ यह बात सही भी लगती है. याद कीजिए, बरसों पहले अमिताभ बच्चन के साथ भी ठीक यही हो रहा था. 1991 में आई फिल्म ‘हम’ की कामयाबी के बाद एक लंबे समय तक अमिताभ बच्चन भी ऐसे ही दौर से गुजर रहे थे जिस में उन की बड़ीबड़ी फिल्में टिकट खिड़की पर औंधेमुंह गिर रही थीं. ‘अजूबा’, ‘इंद्रजीत’, ‘अकेले’, ‘इंसानियत’ जैसी इन फिल्मों में अमिताभ के किरदार भी काफी कमजोर थे और उन के आभामंडल की वह कलई उतरने लगी थी जिस के बूते उन की कमजोर फिल्में भी हिट हो जाया करती थीं. यहां तक कि उस जमाने की हिट जोड़ी अमिताभश्रीदेवी वाली ‘खुदागवाह’ को भी अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल सकी थी.

अमिताभ की उम्र का वह 50वां बरस था और पारंपरिक नायक के किरदारों के लिए वे बुढ़ाने भी लगे थे. ऐसे में अमिताभ ने समझदारी दिखाते हुए स्वनिर्वासन की राह पकड़ी और इंतजार किया कि उम्र उन के चेहरे पर पूरी तरह से आ जाए ताकि वे खुद के लिए कोई और रास्ता तलाश सकें. यह बात अलग है कि 4-5 साल बाद उन्होंने जिन फिल्मों ‘मृत्युदाता’, ‘मेजर साहब’, ‘कोहराम’, ‘लाल बादशाह’, ‘सूर्यवंशम’, ‘हिंदुस्तान की कसम’ से अपनी वापसी की, वे भी काफी खराब बनी थीं. लेकिन इन में से भी ‘मेजर साहब’ और फिर 1999 में दीवाली पर आई डेविड धवन की कौमेडी फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ की कामयाबी ने उन की राह आसान कर दी और आखिरकार वर्ष 2000 यानी 58 बरस की उम्र में आई उन की फिल्म ‘मोहब्बतें’ से उन्होंने अपने कैरियर की एक नई और न रुक सकने वाली ऐसी पारी शुरू की जिस की कोई मिसाल हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नहीं मिलती. संयोग से साल 2000 में 30 जून को उन के बेटे अभिषेक की पहली फिल्म ‘रिफ्यूजी’ आई थी जिस के 3 दिन बाद अमिताभ ने छोटे परदे पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से एक नई और अनोखी शुरुआत भी की थी.

शाहरुख भी अपनी उम्र के 50 साल पूरे कर चुके हैं. तो क्या यह मान लिया जाए कि वह वक्त आ चुका है जब उन्हें अपनी राह बदल लेनी चाहिए? कुछ अरसे के लिए उन्हें खुद को फिल्मी परदे से दूर कर लेना चाहिए? यों देखा जाए तो खुद को बदलने की कवायद तो शाहरुख ने शुरू कर ही दी है. उन की हालिया फिल्मों को देखें तो 2014 में आई ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के बाद से वे बदलेबदले से और अपनी असली उम्र को परदे पर जीते हुए से भी नजर आ रहे हैं. ‘दिलवाले’ में वे लगभग वैसे ही किरदार में थे जैसा अमिताभ ने ‘हम’ में निभाया था. और अब ‘फैन’ में तो वे खुद की ही छवि को जी रहे थे. अब वे राहुल ढोलकिया की ‘रईस’ में एक गुजराती माफिया की भूमिका में दिखेंगे. यह किरदार 80 के दशक में गुजरात में शराब का नाजायज कारोबार करने वाले अब्दुल लतीफ के जीवन से प्रेरित बताया जा रहा है. यानी शाहरुख ने खुद में बदलाव लाने की दिशा में कदम तो उठा दिए हैं पर बड़ा सवाल अभी भी बाकी है कि क्या वे खुद को परदे से दूर ले जाएंगे या ले जा पाएंगे?

गौर करें तो इस बात की नौबत शायद ही आए. अमिताभ ने जब कुछ वक्त के लिए परदे से दूरी बनाई थी, उस समय वे साल में कईकई फिल्में कर रहे थे जबकि शाहरुख लंबे समय से सालभर में बमुश्किल एक फिल्म कर रहे हैं और साथ ही साथ, खुद को धीरेधीरे बदल भी रहे हैं. यानी अगर वे यों ही चलते रहे तो भी बिना नजरों से ओझल हुए अगली पीढ़ी में छलांग लगा सकते हैं जहां उन के लिए ज्यादा सशक्त, ज्यादा गहरी भूमिकाएं इंतजार करती हुई मिल सकती हैं. वक्त बताएगा, शाहरुख में यह बदलाव कब और किस तरह आएगा.

कनिका का फलसफा

संगीत महज तालीम से नहीं निखरता है, बल्कि वह गायक की निजी जिंदगी के अनुभवों, उतारचढ़ावों, उस की अपनी भावनाओं से निखरता है. इस का ताजातरीन उदाहरण बौलीवुड की चर्चित गायिका कनिका कपूर हैं. कनिका कपूर के मुताबिक, ‘इंसान की जिंदगी के उतारचढ़ाव का उस के संगीत पर बहुत असर पड़ता है. जब मैं 18 साल की थी, तब मैं अपना म्यूजिक अलबम बनाने की कोशिश कर रही थी. धीरेधीरे जैसे ही मेरी यात्रा आगे बढ़ी, मेरे संगीत में ठहराव आ गया. इंसान जब निजी जिंदगी में दुखदर्द सहता है तो उस की अपनी भावनाएं जागृत होती हैं जो संगीत में नजर आती हैं.’ कनिका बेबी डौल, चिट्टियां कलाइयां, जब छाए मेरा जादू जैसे गीतों से म्यूजिक वर्ल्ड में जाना- पहचाना नाम बन चुकी हैं.

 

ट्रैवल इंश्योरैंस: बेफिक्री में बीतें छुट्टियां

एक महिला पत्रिका में उपसंपादक अनुराधा ने अपनी 10वीं एनिवर्सरी के मौके पर शादी के समय पूरे न हुए ख्वाबों को अब पूरा करने और जीभर एंजौय करने की ठानी थी. इस के लिए उस ने महीनों से तैयारी की थी. एकएक पैसा जोड़ा था. अपनी तमाम सहेलियों से इस संबंध में खुशीखुशी चर्चा की थी. जिस हिल स्टेशन उन्हें जाना था, उस ने वहां के इतिहासभूगोल के बारे में खूब ढूंढ़ढूंढ़ कर पढ़ा था. लेकिन ऐन मौके पर समय फिर दगा दे गया. पता चला कि उत्तरपूर्व में कानून और व्यवस्था की हालत खराब होने के कारण उसे जहां जाना था वहां कर्फ्यू लगा दिया गया है. इस कारण वहां जाने वाली सभी फ्लाइटें कैंसिल कर दी गई हैं. अनुराधा, उस के पति और उन के 2 छोटेछोटे बच्चे महीनों से एकएक दिन गिनगिन कर गुजार रहे थे और हर शाम उन्होंने एक बड़ा वक्त उन योजनाओं को बनाने में खर्च किया था कि वे कैसेकैसे एंजौय करेंगे.

आर्थिक नुकसान से बचें

ऐन मौके पर बिगड़ी कानून और व्यवस्था की स्थिति ने सब गुड़गोबर कर दिया. लेकिन यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी. उत्तरपूर्व के जो राजनीतिक हालात हैं उन के कारण वहां ऐसा अकसर हो जाता है. यह अकेले अनुराधा के साथ घटी घटना नहीं थी बल्कि और भी तमाम लोगों के साथ भी पहले ऐसा हो चुका था. सवाल है ऐसी स्थिति में जब ऐन मौके पर आप के तमाम सपनों पर पानी फिर जाए, आप का सबकुछ कियाधरा बराबर हो जाए तो क्या करें? क्या इसे नियति मान कर चुपचाप बैठ जाएं और जो आर्थिक चपत लग चुकी हो उसे बुरे सपने की तरह भूल जाएं? या फिर घूमने न जा सकने पर कम से कम अपने आर्थिक नुकसान को तो बचाएं? आप पूछेंगे यह कैसे संभव है? हम कहेंगे ये सब संभव है बशर्ते हम कहीं घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते समय इस आशंका को भी ध्यान में रखें कि ऐन मौके पर जाना कैंसिल भी हो सकता है.

जी हां, आप बिलकुल सही सुन रहे हैं. किसी प्राकृतिक आपदा को रोकना, ऐन मौके पर कानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ जाना या ऐसी ही किसी परिस्थिति पर हमारा कोई वश नहीं होता. ऐसी तमाम स्थितियों पर हम असहाय हो जाते हैं. लेकिन इस स्थिति से बचना भले ही न संभव हो पर आप अपनी यात्रा का बीमा करवा सकते हैं ताकि आप की गाढ़ी कमाई बरबाद न हो. छुट्टियों का आनंद मनाते हुए आप के साथ कुछ अनहोनी न हो, लेकिन यदि ऐसा हो ही जाए तो इस की वजह से आप के पीछे बचे आप के परिवार के लोग एक झटके में ही अनाथ जैसा न महसूस करें.

रिस्क कवर कराएं

खराब मौसम या लचर कानून व्यवस्था की स्थिति के चलते अगर आप की फ्लाइट कैंसिल हो जाती है या आप का पासपोर्ट गुम हो जाता है तो आप को दरदर की ठोकरें न खानी पड़ें. ठीक है कि एक जमाना था जब छुट्टियों का बीमा संभव नहीं था. लेकिन अब यह कोई अजनबी शब्द नहीं है. यूरोप और अमेरिका में तो पिछले 70 के दशक से ही यात्रा का बीमा होता रहा है. हमारे यहां भी पिछले कई सालों से ट्रैवल इंश्योरैंस हो रहा है. मुंबई, गोआ, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद तमाम शहरों में हौलिडे इंश्योरैंस अब काफी बड़ी संख्या में होने लगे हैं.

जब तक देश में बीमा सिर्फ सरकारी एजेंसियों के हाथ में था तब तक बहुत सारी स्थितियों, चीजों और अवस्थाओं का बीमा संभव नहीं था. लेकिन अब बीमा क्षेत्र सिर्फ सरकारी एकाधिकार में नहीं रहा. आज की तारीख में बीमा के क्षेत्र में निजी कंपनियों का खासा दखल होचुका है. यही वजह है कि नई से नई परिघटनाएं, चीजें और अवस्थाएं बीमा के दायरे में आ रही हैं. हौलिडे इंश्योरैंस यानी ट्रैवल इंश्योरैंस बीमा के दायरे में आने वाली नई चीज है. हालांकि अभी हमारे यहां यात्रा का बीमा कराए जाने का इतना ज्यादा चलन नहीं बढ़ा कि आप को अपने इर्दगिर्द चारों तरफ ऐसे लोग नजर आएं. लेकिन हां, अगर आप कोशिश करें तो ऐसे लोगों से आप जरूर मिल सकते हैं क्योंकि जैसेजैसे हिंदुस्तानियों की आय बढ़ रही है, हौलिडे इंश्योरैंस पर्यटन जीवनशैली का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है.

भरपूर लुत्फ उठाएं

आज की तारीख में यात्रा का मतलब महज किसी मशहूर जगह जा कर किसी भी तरह, कितनी भी मुसीबतों में रहते हुए उस जगह को देख आना भर नहीं है और न ही समुद्र के किनारे मौजमस्ती या किसी पहाड़ी रिजौर्ट की सैर करना भर रह गया है. आज पर्यटन में बंगी जंपिंग, पैरासेलिंग, पैराग्लाइडिंग, डीप सी वौकिंग, ट्रैकिंग जैसे तमाम एडवैंचरस स्पोर्ट्स भी शामिल हो चुके हैं. लोग अपनी छुट्टियों का भरपूर लुत्फ उठाने के लिए जब पर्यटन के लिए निकलते हैं तो इन तमाम चीजों को भी अपने कार्यक्रमों में शामिल करते हैं. पिछले साल चेन्नई स्थित एक निजी साधारण बीमा कंपनी ने ऐसे तमाम एडवैंचरस स्पोर्ट्स के लिए इंश्योरैंस की सुविधा उपलब्ध कराई ताकि आप अपने पैसों का भरपूर लुत्फ ले सकें और अगर लुत्फ नहीं ले पाए तो आप का पैसा यों बरबाद न हो.कहते हैं पुराने जमाने में जब लोग यात्रा पर निकलते थे तो अपने आसपड़ोस वालों से, रिश्तेदारों से, घरपरिवार के लोगों से मिल कर जाया करते थे क्योंकि कोई निश्चित नहीं होता था कि वे लोग सकुशल वापस लौट पाएंगे.

लेकिन अब स्थिति बदल गई है, यात्राएं छोटी हो गई हैं, कम खतरनाक रह गई हैं. हर जगह मैडिकल की सुविधा उपलब्ध है. इंटरनैट, मोबाइल और टैलीफोन आदि के चलते आदमी हर समय अपने घरपरिवार से जुड़ा भी रहता है. लेकिन संकट तो संकट है. अभी भी ऐसा नहीं है कि आप घर से खुशियों का लुत्फ उठाने के लिए पर्यटन को जाएं और गारंटी से घर सकुशल वापस लौट ही आएं. माना कि कई तरह की समस्याओं पर काबू पा लिया गया है लेकिन दुस्साहसिक खेलों में हिस्सा लेतेसमय कब कोई जिंदगी से चूक जाए, भला इस की गारंटी कौन ले सकता है. इसलिए छुट्टियों में घर से निकलते समय रिस्क कवर करा लेना अक्लमंदी का ही काम है.

मीराजी का न्याय

मैं बिक्री कर विभाग में अपीलीय अधिकारी था. स्टेनो के रूप में जो महिला कर्मचारी मिलीं, उन का नाम मीरा था. मीराजी शौर्टहैंड भी जानती थीं और टाइपिंग भी. आखिरकार विभाग में स्टेनो के पद पर थीं. यह दूसरी बात है कि या तो वे कहीं खोई रहती थीं या उन की शौर्टहैंड और टाइपिंग की आपस में बनती नहीं थी. यह भी हो सकता है कि ‘लिखें आप और समझें ऊपरवाला’ की तर्ज पर उन की ‘शौर्टहैंड’ ढली हो. कुछ भी हो, अर्थ का अनर्थ करने या फिर सस्पैंस पैदा कर देने, जिस में डिक्टेशन देने वाला बड़ी देर तक यह सोचता, खोजता, अनुमान लगाता रह जाए कि आखिर उस ने कहा क्या था, में माहिर थीं मीराजी. कुछ खास मौकों पर तो उन की बानगी देखने लायक है. आप भी मुलाहिजा फरमाइए :

मशीनरी पार्ट के निर्माता व्यापारी के संबंध में मेरे द्वारा डिक्टेशन दिया गया था. उस में एक वाक्य था, ‘स्वत: निर्मित मशीनरी पार्ट्स के व्यापार में वृद्धि है.’ लेकिन टंकित हो कर आया, ‘स्वत: गिरमिट मशीनरी पार्ट्स के व्यापार में बुद्धि है.’ गनीमत है गिरमिट के बजाय गिरगिट नहीं छपा.

किसी प्रकरण में हाईकोर्ट में की गई बहस का हवाला था. मेरे डिक्टेशन में था, ‘याची ने हाईकोर्ट में कहा…’ छप कर आया ‘चाची ने हाईकोर्ट में कहा.’ शायद, इन की चाची वकील हों.

किसी केस में व्यापारी ने अपने किसी कर्मचारी के लिए कहा था कि उक्त कर्मचारी को व्यापारविरोधी गतिविधियों के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था. यही बात मैं ने लिखाई भी थी. पर धन्य हों मीराजी. टंकण में यह हो गया ‘उक्त कर्मचारी को परिवार नियोजी गतिविधियों के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था.’ फैमिली प्लानिंग डिपार्टमैंट वालों को पता चल जाए तो व्यापारी की तो शामत ही आई समझिए, कि किसी बेचारे कर्मचारी को परिवार नियोजी गतिविधियों के कारण नौकरी से ही हाथ धोना पड़ा.

मेरा डिक्टेशन था, ‘आलोच्य वर्ष में व्यापारी को लाभ हुआ है.’ छपा था, ‘आलूचिप्स में व्यापारी को लाभ हुआ है.’ मैं देर तक हैरान हो कर फाइल उलटपलट कर देखता रहा कि मैं ने आलूचिप्स का व्यापार कहां नोट किया था, व्यापारी तो स्टेशनरी का था.

एक मामले में याची मुसलिम महिला थी. नाम था ‘शमाना वहाब’. पर मीराजी की कृपा से नाम छपा था ‘सामना बहाव’. ऐसा लगता है कि मीराजी के घर में या महल्ले में सीवर की कोई समस्या जोर पकड़े थी. इसी प्रकार एक मामले में मैं ने लिखवाया था कि ‘दो साझीदार परदानशीन महिलाएं हैं. वहां छपा था ‘दो साझीदार परदानसीब महिलाएं हैं.’ जाहिर सी बात है, हमारी मीराजी को परदानशीन महिलाओं से बहुत हमदर्दी थी और कहीं न कहीं वे उन का दोष न पा कर उन के नसीब को मन ही मन कोसती रह जाती थीं. विभाग में रेलवे स्टेशन के बाहर चैकिंग स्क्वायड की तैनाती के लिए मुझे योजना बना कर देनी थी. मेरे डिक्टेशन में कहीं पर आया था, ‘विभागीय अधिकारी के लिए रेलवे स्टेशन की प्रिमाइस में एक कक्ष का निर्माण कराना आवश्यक होगा.’ पर मीराजी का हृदय शायद विभाग से बेहद जलाभुना बैठा था, सो टाइप हुआ, ‘विभागीय अधिकारी के लिए रेलवे स्टेशन की प्रिमाइस पर एक कब्र का निर्माण आवश्यक होगा.’

और तो और, मेरे एक डिक्टेशन में था, ‘व्यापारी ने इस वर्ष ‘हार्ड कोक’ नहीं बेचा है.’ पर यह हो गया, ‘व्यापारी ने इस वर्ष हाईकोर्ट नहीं बेचा है.’ वाह रे व्यापारी, हर वर्ष एक न एक हाईकोर्ट ही बेचता रहता है, जैसे इस की बपौती हो. जब हाईकोर्ट ही बिकाऊ हो गया तो देश की न्याय व्यवस्था का तो कोई ऊपरवाला ही मालिक है. यही है मीराजी का न्याय…  

मैंने किसी के साथ लगातार एक महीने तक हमबिस्तरी की है, उस से कुछ होगा क्या.

सवाल

मैं 23 साल का हूं. मेरे रिश्ते की दादी 35 साल की हैं. उन के 4 बच्चे हैं और पति 4 साल पहले गुजर चुके हैं. मैं ने उन के साथ लगातार एक महीने तक हमबिस्तरी की है, उस से कुछ होगा क्या? वे मुझे फोन कर के बारबार बुलाती हैं?

जवाब

35 साल की औरत मजेदार होती है और आप ने महीनेभर मौज की. इस से वे पेट से भी हो सकती हैं. तब आप फंस सकते हैं. बेहतर होगा कि उन के पास न जाएं.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

 

 

 

याद आती हो

याद आती हो

तुम बहुत याद आती हो

गए पहर जब

धूप पेड़ों की छत से

डालियों की

खिड़कियों तक उतरती है

वो फर्श पर

लिख जाती है

कईकई तरीकों से

तुम्हारा नाम

और एक दर्द सी

एक याद सी

तुम बहुत सताती हो

शाम जब बादलों से

आसमान घिरा होता है

और पंछी लौट रहे होते हैं

अपनेअपने घर को

मेरे खयाल भी

बिना तुम से मिले

अनखुले खत से

लौट आते हैं.

          

– अमरदीप

 

बच्चों के मुख से

मेरी पोती प्रीशा पढ़नालिखना पसंद नहीं करती. पढ़ने के लिए जब भी बोलो तो कोई न कोई बहाना बना देती. हर तरह से समझा दिया, फिर भी नहीं सुनती. मैं ने कहा कि बादाम रोज खाने से दिमाग तेज होता है. फिर पढ़ाई में अपनेआप मन लगता है. लेकिन उसे तो बादाम भी पसंद नहीं. मैं ने एक दिन उसे 2 बादाम जबरदस्ती खिला दिए. फिर क्या था, पढ़ने बैठी तो सारा होमवर्क कर के ही दम लिया. मैं ने पूछा, ‘यह सब कैसे हुआ? तो फटाक से जवाब मिला, ‘2 बादाम खाए थे न, दिमाग तेज हो गया और सब हो गया. अब मैं रोज खाऊंगी फिर किसी को कुछ कहना नहीं पड़ेगा.’

हम सब खुश, वह भी खुश.

डा. बीना गोयल, इंदौर (म.प्र.)

*

एक दिन मैं ने अपनी छोटी बेटी श्रेया से अपने नए सिम कार्ड के नंबर को नोट करने को कहा कि बेटी, मेरे नए सिम कार्ड का नंबर कहीं नोट कर लो, ताकि नया नंबर मिलाने में तुम लोगों को कोई परेशानी का सामना न करना पड़े. कुछ दिनों बाद मुझे ध्यान आया कि मैं ने अपनी बेटी से नया नंबर नोट करने के लिए कहा था, देखूं कि उस ने नोट किया है कि नहीं, यह जानने के लिए मैं ने उस से पूछा, बेटा, मेरे नए सिम कार्ड का नंबर तुम ने नोट कर लिया? श्रेया ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हां पापा, मैं ने अपने मोबाइल में आप का नया नंबर सेव कर लिया है.’

मैं ने पूछा, ‘कैसे नया सिम नंबर सेव किया है, जरा मुझे भी बताना तो?’ श्रेया ने तपाक से कहा, ‘मैं ने पापा नं. 2 के नाम से आप का नया आइडिया सिम कार्ड नंबर सेव कर लिया है.’

इतना सुन मेरे मुख से जोर का एक ठहाका गूंजा. ठहाका लगते ही मेरी बेटी मेरा मुंह ताकती रह गई.

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

*

रेडियो पर ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए…’ गीत आ रहा था. मेरे देवर ने से कहा, ‘भाभी, सब गाने औरतों पर ही क्यों बनते हैं? जैसे ये गाने, ‘दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ…’ या ‘तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, ओ मां…’

मैं ने कहा, ‘मर्दों पर भी गाने जरूर होंगे. वैसे अभी कोई याद नहीं आ रहा है. पास में ही बैठा मेरा 5 वर्षीय भतीजा तपाक से बोला, ‘‘नाना पर गाना मुझे याद है, ‘नाना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे…’’’ उस की हाजिरजवाबी एवं भोलेपन पर हम सब हंस दिए.

संध्या, बेंगलुरु (कर्नाटक)

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