आप ने जवाब दे कर
हमें मार ही डाला
हम ने आप से सवाल तो
पूछा ही नहीं
दिल की किताब पढ़ी
या चेहरा हमारा कुछ कह गया
हाल ए दिल हम ने
सुनाया ही नहीं.
– मीना खोंड
आप ने जवाब दे कर
हमें मार ही डाला
हम ने आप से सवाल तो
पूछा ही नहीं
दिल की किताब पढ़ी
या चेहरा हमारा कुछ कह गया
हाल ए दिल हम ने
सुनाया ही नहीं.
– मीना खोंड
अक्षय कुमार ने आनी आने वाली फिल्म रूस्तम के ट्रेलर के लिए बिल्कुल अनोखा काम किया है. ये काम है, रेडियो पर अलग ट्रेलर देना और शायद रूस्तम पहली बॉलीवुड फिल्म होगी, जिसने ऐसा किया.
लेकिन अक्षय के सरप्राइज़ का पिटारा यहीं खत्म नहीं होता. रूस्तम ट्रेलर की आवाज़ बने हैं वो शख्स, जो 60 के दशक में सबके दिलों की धड़कन थे – अमीन सयानी. सयानी साहब जब 60 के दशक में अपना शो लेकर आते थे, तो सब केवल कान खोलकर रेडियो सुनते थे.
और अब अक्षय कुमार की रूस्तम का ट्रेलर, अमीन सयानी की आवाज़ में उन लोगों के लिए ट्रीट होगा जो उस ज़माने में पले बढ़े. यानि कि अक्षय कुमार एक बेहतरीन स्ट्रैटेजी के तहत अपनी फैन फॉलोइंग बढ़ा ली. इतना ही नहीं, इससे पहले भी अक्षय अपनी फिल्मों के लिए बेहतरीन स्ट्रैटेजी अपना चुके हैं. जैसे कि हाउसफुल का ट्रेलर लॉन्च उन्होंने कई शहरों में एक साथ किया था.
अब ये तो रूस्मत प्रमोशन की शुरूआत है. देखना है कि अक्षय कुमार फिल्म के लिए और क्या क्या नया लेकर आते हैं. गौरतलब है कि रेडियो एड का आईडिया रूस्तम की टीम ने इसलिए भी रखा कि फिल्म उसी दशक की है और 60 के दशक में रेडियो होना भी बहुत बड़ी बात थी. लोगों को अपने बीते दिनों की याद दिलाने का ये नायाब तरीक था.
आप भी सुनिए रूस्तम का रेडियो ट्रेलर…
उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भाजपा अब दलितों को भी अपने पाले में करने के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते. भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने दलित के घर खाना खाया. इस घटना को पूरे देश में बिना सच को जाने प्रचारित किया गया. भाजपा ने भी इस बात का कहीं कोई खंडन नहीं किया. मीडिया से ले कर राजनीतिक पार्टियों तक में अमित शाह के इस भोजन पर सियासी तूफान खड़ा हो गया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से ले कर बसपा नेता मायावती और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य तक ने अमित शाह के दलित के घर भोजन करने पर अपनीअपनी प्रतिक्रिया दी. यह माना गया कि अमित शाह ने दलित के घर भोजन कर प्रदेश की राजनीति में नए संकेत दिए हैं.
सचाई यह है कि अमित शाह ने दलित के घर नहीं, बल्कि अति पिछड़े वर्ग में आने वाले बिंद के घर भोजन किया. बिंद बस्ती में अमित शाह का खाना गिरिजापति बिंद के घर पर तय किया गया. बिंद और मल्लाह जातियां अति पिछड़े वर्ग में आती हैं. इन के यहां अगड़ी जातियां हमेशा से भोजन करती रही हैं. इन से किसी तरह का छुआछूत का व्यवहार नहीं होता है. ऐसे में भाजपा अध्यक्ष के भोजन करने को मुद्दा बनाने का काम क्यों किया गया, समझ से बाहर की बात है. भाजपा ने इस बात पर पूरी चुप्पी साध ली जिस से यह बात साफ हो गई कि दलित के घर खाना खाने के हो रहे प्रचार में वह अपना भला देख ही रही है.
सवर्णों को पूरी तरह से अपने पाले में करने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने शूद्रों अर्थात पिछड़ी जातियों को लुभानेपटाने की मुहिम शुरू कर दी है. भीमराव अंबेडकर को अपने सिर पर बिठा कर भाजपा दलितों की सहानुभूति पाने की कवायद में लग चुकी है. उस ने पिछड़े वर्ग के 2 लोगों को बड़ा मोहरा बना रखा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बाबा रामदेव को आगे कर के आरएसएस अपनी इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ा रहा है. ये दोनों ही पिछड़ी जातियों से आते हैं और इस के बाद भी दोनों ही ब्राह्मणों व अगड़ी जातियों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं.
मायावती, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे पिछड़ोें के मसीहाओं की कामयाबी को देखते हुए आरएसएस उन के ही रास्ते पर चल पड़ा है और पिछड़ों के इन महारथी नेताओं को उन के ही हथियार से मात देने की जुगत शुरू कर दी है. बिहार विधानसभा चुनाव में लालू और नीतीश की जोड़ी से गहरा सियासी जख्म खाने के बाद आरएसएस का पिछड़ा प्रेम उछाले मारने लगा है.
भाजपा, संघ की मुहिम
आरएसएस और भाजपा ने पिछड़ों को रिझानेपटाने की मुहिम को तेज कर दिया है. गौरतलब है कि भारत की कुल आबादी की 41.1 फीसदी आबादी ओबीसी की है, जिस पर संघ और भाजपा ने भी नजरें टिका दी हैं. उन्हें अब महसूस होने लगा है कि केवल अगड़ों के भरोसे सियासत नहीं की जा सकती और राजनीति में लंबी पारी खेलने के लिए हर जाति को खास कर पिछड़ों को साथ ले कर चलना उन के लिए जरूरी या मजबूरी बन चुका है. इसी सोच के तहत 22 फरवरी को संत रविदास की 639वीं जयंती के मौके पर बनारस पहुंच कर नरेंद्र मोदी ने उन के जन्मस्थान पर माथा टेका और छक कर लंगर भी खाया. इस के पहले 22 जनवरी को लखनऊ में अंबेडकर महासभा परिसर में पहुंच कर मोदी ने अंबेडकर के अस्थिकलश पर फूलमाला चढ़ाई. ऐसा कर मोदी ने यह दिखाने व जताने की भरपूर कोशिश की कि वे अपने दलित एजेंडे पर पूरी तरह से कायम हैं.
वोट की रणनीति
राजस्थान के नागौर जिले में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की सालना बैठक का मुख्य मंडप अंबेडकर को समर्पित था. प्रवेशद्वार के भीतर अंबेडकर की बड़ी तसवीर लगाई गई थी. 12-13 मार्च को आयोजित इस बैठक में सामाजिक समरसता पर खास प्रस्ताव पास कर सभी नागरिकों और संगठनों से अपील की गई कि समतामूलक और शोषणमुक्त समाज को बनाने की कोशिश की जाए. दलितों, पिछड़ों को आरक्षण के मसले पर बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को नुकसान पहुंचा चुका आरएसएस अब इस मसले पर संभल कर बोलने लगा है. अब वह संपन्न वर्ग और कमजोर वर्ग की बात करने लगा है.
दलित प्रेम दर्शा कर आरएसएस जताना चाहता है कि उन से ऊंचे पिछड़ों को तो वह दिलोजान से चाहता ही है और अब वह दलित व पिछड़ों से भी प्रेम करने लगा है.
आरएसएस में अब तक ब्राह्मणों और बनियों का मूल आधार रहा है पर पिछले कुछेक सालों से उस ने दलितों और पिछड़ों को भी शामिल करना शुरू कर दिया है. आरएसएस और भाजपा के एक बड़े प्रचारक बताते हैं कि हर राजनीतिक पार्टी ने साजिश के तहत आरएसएस और भाजपा को अगड़ों की पार्टी बता कर उन्हें दलितोंपिछड़ों के एक बड़े वोटबैंक से दूर रखा है. इसी को गलत साबित करने के लिए संघ में दलितों और पिछड़ों को भरती करने का काम जोरशोर से किया जा रहा है. संघ के अंदर आरक्षण और दलित एजेंडे पर काफी तेजी से मंथन भी चल रहा है.
इसी सोच का नतीजा है कि पिछले कुछेक सालों में अंबेडकर के प्रति संघ और भाजपा का ‘प्रेम’ तेजी से हिलोरें मारने लगा है. कई राज्यों में पिछड़े और दलित जाति के नेताओं को भाजपा की कमान थमाई गई है. उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में 20-7 फीसदी दलित हैं. पिछड़े वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए दलित जाति के केशवचंद्र मौर्य को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. कुशवाहा जाति के केशवचंद्र मौर्य आरएसएस के पुराने प्रचारक रहे हैं. पंजाब में विजय संपला को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बना कर पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश की गई है. पंजाब की कुल आबादी में 43 फीसदी दलित हैं, इसलिए आरएसएस और भाजपा ने वहां सांपला के हाथों में कमान सौंपी है. इसी तरह तेलंगाना में पिछड़ी जाति मुनरू कापू से आने वाले के लक्षमण को आगे कर के पिछड़ों का वोट पाने का सपना देखा जा रहा है. इतना ही नहीं, अमित शाह ने भाजपा में पहली बार ओबीसी मोरचे का गठन कर जता दिया कि वे भी पिछड़े वर्गों के वोट को पाने की चाहत रखते हैं.
इस वर्ग के सब से ज्यादा सांसद और विधायक भाजपा के पास हैं. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और झारखंड में रघुवर दास उस के ओबीसी मुख्यमंत्री हैं. पहला ओबीसी प्रधानमंत्री भी भाजपा ने ही दिया है. गौरतलब है कि 2014 के आम चुनाव में भाजपा को ओबीसी का भारी वोट मिला था. इस से भाजपाका उत्साह बढ़ा हुआ है. भाजपा को 32 फीसदी ओबीसी वोट मिला था, जबकि 2009 के आम चुनाव में उसे 22 फीसदी ओबीसी वोट मिला था. भाजपा को मिली कुल 282 सीटों में से 244 सीटें हिंदी बैल्ट से मिलीं और इस में उसे ओबीसी का 48 फीसदी वोट मिला था. उत्तर प्रदेश में भाजपा के कुल 71 सांसदों में से 26 सांसद ओबीसी से हैं.
संघ की सोच है कि 2014 के आम चुनाव में भाजपा को कुल वोट का 31 फीसदी मिला था, जिस से साफ हुआ कि हिंदू वोट जातियों में बंटा हुआ है. इसलिए संघ पूरी योजना के तहत दलितपिछड़े हिंदुओं को भी अपनी ओर लुभाने में लग गया है. उधर, हरियाणा के जाट और गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने सत्तारूढ़ भाजपा और संघ की बेचैनी बढ़ा दी है. गुजरात में पाटीदार हिंसक आंदोलन कर चुके हैं. संघ के एक बड़े नेता कहते हैं कि संघ हमेशा से राष्ट्र की बात करता है और जाति, वर्ग को खारिज करता रहा है. संघ ने आज तक जाति के नाम पर कोई सभा या बैठक नहीं की, पर राजनीतिक दलों के जातिवाद को हवा देते रहने की वजह से संघ में मंथन का दौर शुरू हो चुका है.
दोहरा मापदंड
मोदी के मामले में आरएसएस ने दोहरा मापदंड अपना रखा है. एक तो वह मोदी जैसे कद्दावर पिछड़े नेता के कंधे पर ब्राह्मणवाद की बंदूक रख कर चला रहा है, वहीं मोदी को वह अछूत की तरह ही मानता है. अगर ऐसा नहीं होता तो बनारस में मदन मोहन मालवीय की मूर्ति पर मोदी के माला चढ़ाने के बाद मूर्ति को गंगा के पानी से धोया नहीं जाता. इस से साबित हो जाता है कि आरएसएस पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करना तो चाहता है पर पिछड़ी जातियों को वह हेय की नजर से ही देखता है. उस का मकसद केवल पिछड़ी जातियों के वोटों को हासिल करना भर है.
आरएसएस के कई विरोधी नेता दबी जबान में कहते हैं कि आरएसएस हिंदू और गैर हिंदुओें के बीच एवं हिंदुओं में भी अगड़ेपिछड़े के बीच की खाई को हमेशा ही बढ़ाने में लगा रहा है. जो आरएसएस ईद के मौके पर होने वाली कुरबानी के विरोध में हल्ला मचाता रहता है जबकि हिंदू मंदिरों में सदियों से चल रहे बलिप्रथा के मसले पर चुप रहता है. जीवहत्या को रोकने के बहाने आरएसएस ईद पर होने वाली कुरबानी को रोकने की बात कहता है. इस के पीछे उस का जीवों के प्रति प्रेम नहीं, बल्कि हिंदू और मुसलमानों के बीच की खाई को और बढ़ाना है.
साल 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जब बसपा को करारी हार मिली तो भाजपा को लगा कि पिछड़ी जातियों के वोट को अपने पक्ष में करने का सुनहरा मौका हाथ लग गया है. उसी के बाद 2014 के आम चुनाव में पिछड़े वर्ग से आने वाले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर सामने लाया गया और इस में आरएसएस और भाजपा को बड़ी कामयाबी भी मिली.
गौरतलब है कि जब 2014 के आम चुनाव के पहले भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मदीवार बनाया था तो शंकराचार्य ने उन का विरोध किया था. इस के बाद भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया गया था. मायावती की हार के बाद से ही आरएसएस और भाजपा एक प्लान के तहत अंबेडकर के नाम की माला जपने लगे जबकि उस से पहले आरएसएस को अंबेडकर में कोई दिलचस्पी नहीं थी. आरएसएस महात्मा गांधी के नाम को तो ढोता रहा पर अंबेडकर का नाम लेने से कुछ साल पहले तक परहेज ही करता रहा था.
अंबेडकर का गुणगान क्यों
वंचित मेहनत मोरचा के अध्यक्ष किशोर दास कहते हैं कि अंबेडकर के नाम का हर पार्टी इस्तेमाल करती है, क्योंकि इस से उन्हें लगता है कि पिछड़ों और दलितों का खासा वोट हासिल किया जा सकता है. सच तो यही है कि भाजपा या कांग्रेस को अंबेडकर के विचारों से कोई लेनादेना नहीं है, दोनों ही पार्टियां अंबेडकर को महज ऐसा शख्सभर मानती हैं जो दलितों और पिछड़ों में लोकप्रिय है और उन के नाम पर पिछड़ों का अच्छाखासा वोट हासिल किया जा सकता है. पिछले चुनाव से पहले आरएसएस ने बढ़चढ़ कर प्रचार किया था कि हिंदू धर्मशास्त्र में शूद्रों को अछूत नहीं माना गया है.
आजादी के बाद से ले कर अब तक दलितों और पिछड़ों को महज वोटबैंक ही समझा गया है. किसी को भी उन की तरक्की से कोई लेनादेना रहा ही नहीं है. यही वजह है कि नीतीश, रामविलास और लालू जैसे दलितों के मसीहाओं को यह कभी नजर नहीं आया या जानबूझ कर अनजान बने रहे कि दलित आबादी के 77 फीसदी लोग खेतिहर मजदूर क्यों है? दलितों की साक्षरता दर महज 28 फीसदी क्यों है?
मिसाल के तौर पर बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और
6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी अति पिछड़ी, अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, सूबे में 1 करोड़ 40 लाख महादलित हैं, जो बिहार की कुल आबादी का 15 फीसदी हैं. इसी पर दल की नजरें गड़ी होती हैं.
बहकावे में दलित
राजनीतिक चिंतक हेमंत राव कहते हैं कि साल 2014 के मई महीने में हुए लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों ने गेमचेंजर की भूमिका अदा की थी. इस से साफ हो जाता है कि पिछड़ों और दलितों को महज वोटबैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है. आजादी के बाद से ले कर आज तक उन की तरक्की के लिए एक भी ठोस योजना नहीं बनी, हर योजना दलितों को भिखारी बनाने की है. मुफ्त में खैरात बांटबांट कर दलितों को पंगु और दूसरों का मुहताज बना दिया गया है.
बिहार के 38 जिलों और 40 लोकसभा सीटों पर जीत उसी की होती है जो राज्य की कुल 119 जातियों में से ज्यादा को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब हो जाता है. लालू माय (मुसलिम-यादव) समीकरण के बूते बगैर कुछ काम किए 15 सालों तक बिहार पर राज करते रहे थे. नीतीश बारबार तरक्की का नारा लगाते रहे हैं पर चुनाव के समय उन के इस नारे पर जातिवाद ही हावी होता रहा है. हर चुनाव में टिकट के बंटवारे में हर दल यही देखता है कि उन का उम्मीदवार किस जाति का है और जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा है, वहां कौनकौन सी जातियों का उसे वोट मिल सकेगा.
सांसद पप्पू यादव कहते हैं कि सामाजिक न्याय की ताकतों और दलितपिछड़ों की एकजुटता को तोड़ने की कोशिश की जा रही है. भाजपा समेत सामंती ताकतें पिछड़ों को पिछड़ों से लड़वा रही हैं और अपना उल्लू सीधा कर रही हैं. दलित और पिछड़े नेताओं को भाजपा की घिनौनी कारस्तानियों को एकजुट हो कर नाकाम करना होगा, वरना सामाजिक न्याय की लड़ाई को पूरी तरह से कुचल दिया जाएगा.
आरएसएस और भाजपा का दलित प्रेम आज की राजनीति की जरूरत के लिहाज से उभरा और उमड़ा है. उस के लिए पिछड़ों की बात करना जरूरी नहीं, बल्कि मजबूरी है. साल 2019 मे होने वाले आम चुनाव में साफ होगा कि आरएसएस का पिछड़ों के प्रति दीवानगी का क्या असर होगा. आरएसएस अपनी चाल में कामयाब होगा या लालू, नीतीश, मायावती, मुलायम, जैसे पिछड़ी जाति के इलाकाई दिग्गजों से मात खाएगा, यह वक्त ही बताएगा.
आरएसएस : एक नजर
27 सितंबर, 1925 को आरएसएस की नींव रखी गई थी केशव बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद आरएसएस का गठन किया था. महाराष्ट्र के कुछ ब्राह्मणों को स्वयंसेवक के तौर पर जोड़ कर आरएसएस की शुरुआत की गई थी. शुरुआती दिनों से ले कर आज तक आरएसएस यही दावा करता रहा है कि उस का कोई राजनैतिक मकसद या लक्ष्य नहीं है और केवल सांस्कृतिक जागरूकता फैलाना ही उस का काम है. उस के इस दावे की धज्जियां कई बार उड़ती रहीं क्योंकि वह हमेशा ही कांग्रेस विरोधी रहा है. खुद को भाजपा को वैचारिक संगठन करार देने वाला आरएसएस भाजपा के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष की उम्मीदवारी में पूरा दखल देता रहा है. आज की तारीख में आरएसएस की कुल 56,859 शाखाएं हैं. साल 2010 में आरएसएस की 40 हजार ही शाखाएं थीं. इस में साढ़े 10 हजार शाखाएं 2012 में बनी हैं. साल 2015 में 15 हजार नए कार्यकर्त्ता इस से जुड़े. पिछड़ों को जोड़ने के लिए भी आरएसएस ने खास मुहिम चला रखी है.
मई में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सब से ज्यादा चौंकाने वाला नतीजा था तमिलनाडु का. एग्जिट पोल जयललिता की हार की भविष्यवाणी कर रहे थे मगर जयललिता न केवल जीतीं बल्कि तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास में पिछले 32 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी पार्टी को लगातार दूसरी बार सत्ता मिली हो. यह भी तब जब जयललिता स्वास्थ्य की वजह से रैलियों और प्रचार में कम नजर आई थीं. वहीं, उन्हें चुनौती दे रहे द्रमुक के नेतृत्व ने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी थी. इस लिहाज से जयललिता की पार्टी का यह प्रदर्शन असाधारण कहा जा सकता है. वे देश में सब से ज्यादा बार यानी छठी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली नेता हैं.
उन के राजनीतिक जीवन में बारबार यही हुआ है. लेकिन बहुत से लोग उन्हें तब से जानते हैं जब वे मासूम लड़की थीं. अद्भुत है उन की जिंदगी की कहानी तो कुछ लोग कहते हैं पूरी फिल्मी है उन की कहानी. किसी महाबिकाऊ उपन्यास से कम रोमांचक और सनसनीखेज नहीं है उन की जीवनयात्रा.
एक मासूम लड़की — हालात ने कभी उस के सभी इंद्रधनुषी सपनों को चकनाचूर कर ऐसी दुनिया में उसे ठेल दिया था जिस से उसे सख्त नफरत थी. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी और वहां भी शोहरत व कामयाबी के उन शिखरों को हासिल किया जिन की झलक पाने को भी लोग तरस जाते हैं. मगर इस संघर्ष ने उसे एक ऐसी निष्ठुर व निर्मम लौह महिला बना दिया जो आज पैसा, ग्लैमर, सत्ता व राजनीति के हर खेल की माहिर खिलाड़ी बन चुकी है और इस पुरुष प्रधान दुनिया में पुरुष उस के सामने लोटते हैं.
35 सालों पहले जयललिता नाम के धूमकेतु का उदय तमिलनाडु की राजनीति में हुआ था. तब से उस के दोस्त हों या दुश्मन, समर्थक हों या विरोधी, राजनीतिज्ञ हों या मनोवैज्ञानिक, सभी जयललिता नाम की इस अबूझ पहेली को बूझने की कोशिश करते रहते हैं कि कैसे एक मासूम लड़की अंधी महत्त्वाकांक्षा, विराट अहंकार और विशुद्ध स्वार्थ का पर्याय है, जो खुद तो किसी पर विश्वास नहीं करती, मगर अपने बारे में उसे यह खुशफहमी है कि वह इस दुनिया का केंद्र है, इसलिए सारी दुनिया को उस के इर्दगिर्द घूमना चाहिए.
लंबे समय तक जयललिता के खास सहयोगी रहे भूतपूर्व सांसद वालमपुरी जौन कहते हैं कि जयललिता अंतर्विरोधों का पुलिंदा है. उस के आज के अजीबोगरीब बरताव के बीज उस के अतीत में खोजे जा सकते हैं. उस के पिता, अभिनेता एम जी रामचंद्रन और प्रेमी शोभन बाबू ये पुरुष उस की जिंदगी में आए पर इन में से कोई भी उस की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा. इसलिए आज वह हरेक पर अविश्वास करती है. कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जयललिता के दुखद और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त बचपन में ही आज के विचित्र व्यक्तित्व की वजहें छिपी हुई हैं. जयललिता खुद भी यह स्वीकार करती रही है कि उस का बचपन कष्टपूर्ण था. अकसर बचपन की यादें ताजा होने पर उस की आंखें छलछला जाती हैं.
कई वर्षों पहले सिम्मी ग्रेवाल को दिए गए एक टैलीविजन इंटरव्यू में उस ने बहुत अफसोस के साथ बताया था कि उस का परिवार काफी संपन्न था मगर उस के पिता शराबी और फुजूलखर्च थे. इसलिए उन की मृत्यु के बाद परिवार कंगाल हो गया था. घर का खर्च चलाने के लिए मां को फिल्मों में छोटीछोटी भूमिकाएं करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
जयललिता को हमेशा यह महसूस हुआ कि चूंकि वह छोटीमोटी भूमिकाएं निभाने वाली चरित्र अभिनेत्री की बेटी है, इसलिए उस का मजाक उड़ाया जाता है. यदि वह किसी स्टार की बेटी होती, तो उस के साथी उस का सम्मान करते. उस के इर्दगिर्द घूमते. तब कक्षा में फर्स्ट आ कर उस ने अपने साथियों की जबान पर ताला लगा दिया था.
जयललिता अभिनेत्री या राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि लखपति और वकील बनना चाहती थी. घर की खस्ता माली हालत ने वकील बनने का उस का सपना तोड़ दिया. सोलह वर्षीय जयललिता जयराम को स्टेला मौरिस कालेज में प्रवेश लेने के बजाय श्रीधर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘वेनिश आदाई’ के सैट पर स्पौटलाइटों के बीच जा कर खड़ा होने के लिए मजबूर होना पड़ा. यह उस की जिंदगी का निर्णायक मोड़ था जिस ने हमेशा के लिए उस की राह बदल दी थी.
हुआ यह कि जयललिता की मां संध्या चाहती थीं कि उन की बेटी बालासरस्वती अथवा यामिनी कृष्णमूर्ति की तरह नृत्यागंना बने पर यह मंशा अधूरी रह गई. जयललिता की मां एक बार अपने संग जयललिता को भी एक फिल्मी पार्टी में ले गईं. उस पार्टी में फिल्म निर्मातानिर्देशकों की नजर सोलह साल की जयललिता पर पड़ी औैर वह फिल्म अभिनेत्री बन गई. खूबसूरती की खबर दूसरे राज्यों में पहुंची और जयललिता देखतेदेखते ही तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड़ और हिंदी फिल्मों की पौपलुर हस्ती बन गई.
अभिनय की ग्लैमरस दुनिया में कदम रखने के बाद उस की मुलाकात तमिल फिल्मों के सुपरस्टार एम जी रामचंद्रन से हुई, जिन की नजदीकियों की वजह से जयललिता का जितना नाम हुआ उससे कहीं ज्यादा उसे बदनामी भी झेलनी पड़ी. एम जी रामचंद्रन और जयललिता एकदूजे से प्रेम करते थे पर एम जी रामचंद्रन पहले से विवाहित थे और 2 बच्चों के पिता थे, जिस की वजह से उन की और जयललिता की शादी नहीं हो सकती थी, इसलिए दोनों के रिश्तों को नाम नहीं मिला. सार्वजिनक रूप से जयललिता ने हमेशा कहा कि एम जी रामचंद्रन उन के मैंटर हैं, इस से ज्यादा और कुछ नहीं.
उस के शुरुआती जीवन की आधिकारिक जानकारी केवल 1970 के दशक के अंतिम दौर में तमिल पत्रिका ‘कुमुदम’ में प्रकाशित आत्मकथात्मक लेखों की शृंखला से मिलती है. इसी लेख शृंखला में उस के शुरुआती जीवन के बारे में बताया गया है. जब उस ने एमजीआर (एम जी रामचंद्रन) के साथ अपने निजी संबंधों का जिक्र शुरू किया तो वह शृंखला एकाएक बंद हो गई. कहा जाता है कि एमजीआर ने हस्तक्षेप किया और उस से कहा कि वह लिखना बंद करे.
जयललिता ने प्रेम के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है, ‘‘जिसे ‘प्लेटोनिक प्रेम’ कहते हैं वह सिर्फ पुस्तकों और फिल्मों में ही पाया जाता है.’’ जाहिर है यह विचार गौडफादर और प्रेमी एम जी रामचंद्र्रन और दूसरे प्रेमी तेलुगू अभिनेता शोभन बाबू के साथ उस के प्रेमप्रसंगों का निचोड़ है. इन 2 प्रेमप्रसंगों ने न केवल प्रेम के बारे में बल्कि पुरुष जाति के बारे में उसे तल्खी से भर दिया.
आज उसे हर पुरुष से शिकायत है, क्योंकि, उस की जिंदगी में जो भी पुरुष आए उन्होंने या तो उस का इस्तेमाल किया या फिर विश्वासघात किया. इस में सब से ऊपर नाम एम जी रामचंद्रन का ही है जिन्हें वह अपना मार्गदर्शक मानती रही है और जिन के नाम की दुहाई दे कर वह अब तक राजनीति करती आई है.
लंबी फिल्मी सहयात्रा के बावजूद एमजीआर और जयललिता के रिश्तों में प्रेम व नफरत का अजीब मिश्रण था. जयललिता ने खुद कहा था कि शुरुआत में उसे यह बात बहुत चुभती थी कि एमजीआर के सैट पर आने पर उसे उन के सम्मान में उठ कर खड़ा होना पड़ता और झुक कर अभिवादन करना पड़ता था. यह बात अलग है कि बाद में उस ने स्वयं को पूरी तरह एमजीआर को समर्पित कर दिया और एमजीआर के साथ उस का नाम अटूट रूप से जुड़ जाने के कारण ही वह देखतेदेखते तमिल फिल्मों की सुपरस्टार हो गई. जयललिता सुपरस्टार जरूर बन गई थी मगर अभिनेत्री के तौर पर उसे कभी ऊंचा स्थान प्राप्त नहीं हो पाया.
तमिल फिल्मों में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने के बाद हिंदी फिल्मों में भी अपने अभिनय को आजमाने की कोशिश की जयललिता ने. धमेंद्र के साथ उस ने ‘इज्जत’ नाम की फिल्म में काम किया था. लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर झंडे नहीं गाड़ सकी. इस की वजह यह भी थी कि हिंदी फिल्मों के दर्शक थुलथुल बदन वाली जयललिता को पसंद नहीं कर पाए. नतीजतन, हिंदी फिल्मों की हीरोइन बनने की जयललिता की महत्त्वाकांक्षा पर पानी फिर गया.
एम जी रामचंद्रन और जयललिता की जोड़ी जैसेजैसे तमिल फिल्मों में लोकप्रिय होती गई वैसेवैसे एमजीआर जयललिता को ले कर ज्यादा, और ज्यादा पजैसिव हो गए. वे कतई इस बात को बरदाश्त नहीं कर पाते थे कि जयललिता किसी और हीरो के साथ काम करे या किसी और हीरो के साथ देखी जाए. मगर 1970 में उन्होंने स्वयं एक नई हीरोइन के साथ काम करना शुरू कर दिया.
इस से आगबबूला हो कर जयललिता ने भी अपने लिए एक नया प्रेमी खोज लिया. उस का नाम था-शोभन बाबू. वह तेलुगू फिल्मों का हीरो था. कई वर्षों तक जयललिता उस के साथ रही मगर एमजीआर कभी भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाए. उन्होंने हर तरह के हथकंडे अपना कर शोभन बाबू और जयललिता को अलग होने पर मजबूर कर दिया. इस प्रेमत्रिकोण के टूटने से जयललिता की जिंदगी में एक बार फिर नया मोड़ आया. अब उस का फिल्मी कैरियर खत्म हो चुका था. वह फिल्मों की ग्लैमरस दुनिया से राजनीति की दुनिया की ओर चल पड़ी.
एमजीआर, जो पहले से ही फिल्मों के साथसाथ द्रमुक की राजनीति में भी सक्रिय थे, इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो चुके थे. एमजीआर और जयललिता की दोस्ती फिर परवान चढ़ गई थी, मगर सबकुछ ठीकठाक नहीं था. एमजीआर के गिलेशिकवे पूरी तरह खत्म नहीं हुए थे क्योंकि अब उन्हें अपनी जया पर पहले जैसा विश्वास नहीं रह गया था. वे उस की हर मांग पूरी करते, नाजनखरे उठाते मगर दूसरी ओर उस की जासूसी भी करवाते. एमजीआर के आदमी उस की हर गतिविधि पर कड़ी नजर रखते थे. मजेदार बात यह है कि उस समय एमजीआर ने जयललिता की जासूसी करने के लिए जिन लोगों को नियुक्त किया था उन में से एक थीं शशिकला, जो बाद में जयललिता की सब से खासमखास सहेली बन गईं. दूसरी ओर जयललिता में भी हार का दंश बना रहा. इसलिए वह मौका मिलते ही एमजीआर को डसने से बाज नहीं आई.
जयललिता फिर भी हमेशा एमजीआर को अपना राजनीतिक गुरु मानती रही. मगर एमजीआर सिर्फ गुरु नहीं, गुरुकंटाल थे. एक घुटे हुए राजनीतिज्ञ की तरह राजनीति के सारे दांवपेच जानते थे. इसलिए फिल्मी ग्लैमर से महिमामंडित जयललिता को उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी नेता, उदार व अंधविश्वास विरोधी करुणानिधि की अपार लोकप्रियता की कारगर काट के लिए चुना.
एमजीआर के बहुत से विश्वस्त साथियों और अन्नाद्रमुक के नेताओं ने जयललिता के राजनीति में प्रवेश का डट कर विरोध किया था. कुछ तो यह मानते थे कि यह एमजीआर के राजनीतिक जिंदगी की सब से बड़ी गलती थी. लेकिन एमजीआर ने किसी की सलाह पर ध्यान नहीं दिया. और 1982 में जयललिता को अन्नाद्रमुक का प्रचार सचिव बना दिया. वह पार्टी में आते ही दो नंबर की बन गई थी. लोगों में आमधारणा बन गई थी कि एमजीआर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया है.
राजनीति में पांव जमाते ही जयललिता ने अपने राजनीतिक गुरु की ही जड़ें काटनी शुरू कर दीं. तब एमजीआर को भी अपने किए पर पछताना पड़ा. मगर तब तक काफी देर हो चुकी थी. जयललिता अपने बूते पर अपने लिए मुकाम बना चुकी थी. एमजीआर की गलती की कीमत उन के बजाय तमिलनाडु को ज्यादा चुकानी पड़ी.
एमजीआर की खता इतनी भर नहीं थी कि वे जयललिता को राजनीति में लाए, बल्कि यह भी थी कि उन्होंने उस की हर सनक, हर मांग को पूरा कर उस के दिमाग को सातवें आसमान तक पहुंचा दिया था. अगर उस की छोटी सी जरूरत या इच्छा पूरी न होती तो वह आसमान सिर पर उठा लेती.
उस का एक किस्सा तो लोग आज भी चटखारे लेले कर बताते हैं. 8वें दशक में जब वह सिर्फ राज्यसभा की सदस्य थी, तब अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान अकसर तमिलनाडु भवन में रहती. उस के लिए वहां का स्टाफ उस का खास ड्रिंक (जिन और नारियल पानी) बना कर रखना कभी नहीं भूलता था. लेकिन एक बार वहां के कर्मचारी नारियल खरीदना भूल गए और जयललिता अपनी पसंदीदा ड्रिंक नहीं पी सकी. इस बात से उस का पारा इतना चढ़ गया कि उस ने तमिलनाडु भवन के शीशे तोड़ने शुरू कर दिए.
आखिरकार भवन के अफसरों ने हरियाणा भवन से नारियल पानी मंगा कर जयललिता को उस का पसंदीदा ड्रिंक पेश किया. गला तर होने पर वह शांत हुई. तब से तमिलनाडु भवन के अधिकारियों ने स्टाफ को स्थाई निर्देश दे रखे थे कि जरूरत हो या न हो, नारियल का स्टौक हमेशा रखा जाए.
जयललिता और विवाद का चोलीदामन का साथ रहा है. राजनीति में उस के प्रवेश के साथ ही बखेडे़ शुरू हो गए थे और उन का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है. इन बखेड़ों के लिए वह खुद ही बहुत हद तक जिम्मेदार थी.
दरअसल, जयललिता का अहंकारी स्वभाव और स्वकेंद्रित कार्यशैली ही इस सारे विवाद की जड़ थी. पार्टी में जूनियर होने के बावजूद वह पार्टी के बड़े और वरिष्ठ नेताओं के साथ किसी महारानी की तरह पेश आती. और इस पर तुर्रा यह था कि पार्टी के प्रचार के नाम पर उस ने जगहजगह ‘जयललिता मनरम’ यानी जयललिता फैन्स क्लब बनाना शुरू कर दिया था. इसे पार्टी के अंदर अलग दबाव गुट बनाने की कोशिश माना जा रहा था. जयललिता के सनकभरे और तानाशाही रवैये से पुराने नेता इस कदर नाराज थे कि 1984 में सोमसुंदरम के नेतृत्व में पार्टी के एक गुट ने इस की कार्यशैली और एमजीआर द्वारा उसे नियंत्रित न कर पाने के खिलाफ बगावत कर दी. इस तरह सत्ता में आने के बाद पहली बार अन्नाद्रमुक में फूट पड़ी.
इस के बावजूद एमजीआर अपनी चहेती जयललिता का ही पक्ष लेते रहे. मगर उस की उपस्थिति पार्टी के लिए खतरा बनती जा रही थी, इसलिए एमजीआर ने एक नया रास्ता निकाला. उसे राज्यसभा का सदस्य बना कर दिल्ली भेज दिया. जयललिता कभी इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर पाई. धीरेधीरे उस में स्वयं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पनपने लगी. यह तब तक संभव नहीं था जब तक एमजीआर मुख्यमंत्री की कुरसी पर विराजमान थे. इसलिए एक तरफ वह एमजीआर के नाम की दुहाई दे कर अपने को उन का वारिस साबित करने की कोशिश करती रही और दूसरी ओर अपने राजनीतिक गुरु की जड़ें खोदने में लगी रही. जब एमजीआर गंभीर रूप से बीमार पड़ गए तो उस ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राज्यपाल एस एल खुराना से अनुरोध किया था कि चूंकि एमजीआर का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी नहीं निभा सकते, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए.
तब एमजीआर जयललिता द्वारा उन के खिलाफ छेडे़ गए अभियान से इतने नाराज हुए थे कि उन्होंने जयललिता को संसदीय दल के उपनेता के पद से हटा दिया था. उन दिनों क्रोध से धधक रही जयललिता ने अंगरेजी की एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में एक बयान दिया था. यह बयान एक तरह से एमजीआर के प्रभाव से मुक्त हो कर एक स्वतंत्र हस्ती के रूप में विकसित होने की घोषणा थी. इस के बाद से तमिलनाडु में जयललिता पीरावई नामक संगठन उभरने लगा था. इसे जयललिता के ही समर्थकों ने उसी के इशारे पर शुरू किया था. मगर जयललिता ने एक बयान जारी कर उस से अपना पल्ला झाड़ लिया था और कहा था कि इस संगठन को बनाने में उस का कोई हाथ नहीं है. मगर एमजीआर हकीकत जानते थे. उन्होंने जयललिता को निर्देश दिए कि वह प्रचार सचिव के रूप में काम करना बंद कर दे और उस के खास समर्थक कानन को तो पार्टी से निकाल दिया.
इस बीच, अन्नाद्रमुक में जयललिता का विरोधी गुट एमजीआर को यह समझाने में कामयाब हो गया कि यदि उन्हें पार्टी पर अपना प्रभुत्व बना कर रखना है, पार्टी की एकता और अनुशासन बनाए रखना है तो आमसभा की बैठक बुला कर जयललिता और उस के समर्थकों को पार्टी से निकाल देना चाहिए. एमजीआर इस के लिए राजी भी हो गए. मगर जैसे ही जयललिता को इस की भनक लगी, उस ने अपने गुट के 33 विधायकों के साथ प्रधानमंत्री राजीव गांधी से संपर्क किया. पता रहे कि जयललिता ने राज्यसभा सदस्य के रूप में राजीव गांधी से बहुत मधुर संबंध बना लिए थे और एमजीआर इस से बहुत खफा थे.
राजीव गांधी के जरिए जयललिता ने एमजीआर पर दबाव डलवाया कि वे जयललिता के अन्नाद्रमुक से निष्कासन पर रोक लगा दें. नतीजा यह हुआ कि अन्नाद्रमुक की आमसभा के एजेंडे से जयललिता के निष्कासन का विषय हटा दिया गया और जयललिता को आमसभा को संबोधित करने के लिए बुलाया गया. यह एक तरह से जयललिता की एमजीआर पर राजनीतिक जीत थी.
इस के बावजूद, जयललिता की पार्टी विरोधी गतिविधियां नहीं रुकीं तो एमजीआर ने दोबारा उन्हें पार्टी से निकालने का पक्का फैसला किया. एमजीआर के निकट सहयोगी वीरप्पन बताते हैं- ‘22 दिसंबर, 1987 को एमजीआर ने पार्टी औफिस को जयललिता के फोन को काटने का निर्देश दिया था. 25 दिसंबर को वे राष्ट्रपति की राज्य यात्रा खत्म होने के बाद जयललिता को पार्टी से निष्कासित करने की घोषणा करने वाले थे लेकिन 24 दिसंबर के दिन लंबी बीमारी के कारण एमजीआर की मृत्यु हो गई.’ केवल एक दिन के फर्क ने जयललिता के राजनीतिक कैरियर को बचा लिया. यदि एमजीआर की मृत्यु एक दिन बाद होती तो इतिहास कुछ और होता. एमजीआर जयललिता को पार्टी से निकाल चुके होते. तब एमजीआर की वारिस होने का दावा वह कर नहीं पाती.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि तब तक जयललिता का अपना कोई जनाधार नहीं था. मगर एमजीआर को हटाने की मुहिम में लगी रही जयललिता ने उन की मृत्यु के बाद उन के नाम का जम कर इस्तेमाल किया. लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि वही एमजीआर की असली वारिस है. कहना न होगा कि अपनी कोशिश में वह कामयाब भी हुई. एमजीआर के बाद उन की पत्नी जानकी कुछ दिनों के लिए राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन जयललिता ने खुद को रामचंद्रन का असली उत्तराधिकारी बताते हुए पार्टी तोड़ दी. बाद में हुए विधानसभा चुनाव में उसे 23 सीटें मिलीं, जबकि जानकी वाली अन्नाद्रमुक को सिर्फ एक.
एमजीआर के साथ चले शीतयुद्ध में सफलता ने जयललिता को आत्मविश्वास से भर दिया था. एमजीआर देश के घाघ राजनेताओं में एक माने जाते थे. जब जयललिता अपनी कुटिलता के जरिए उन्हें मैनेज करने में कामयाब रही तो उस में यह भावना जन्मी कि अब वह हर तरह के राजनीतिज्ञों को उन के खेल में मात दे सकती है. और उस ने ऐसा किया भी.
एम जी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद अन्नाद्रमुक 2 हिस्सों में बंट गई थी- एक तरफ थी एम जी रामचंद्रन की पत्नी जानकी तथा अन्नाद्रमुक के नेता वीरप्पन तो दूसरी तरफ थी जयललिता. दोनों पक्षों में एकदूसरे को राजनीतिक रूप से खत्म करने की लड़ाई खुल कर चलती रही. दरअसल, एमजीआर की अंतिम यात्रा के दिन ही यह लड़ाई फूट पड़ी थी. एमजीआर की पत्नी जानकी ने जयललिता को अंतिम दर्शन के लिए उस गाड़ी पर चढ़ने नहीं दिया था जिस में शव को ले जाया जा रहा था. उसे उस गाड़ी से धकेल दिया गया था. जयललिता ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी.
बाद में उस ने जानकी पर यह आरोप लगाया था कि जानकी ने उसे जहर मिली छाछ पिला कर मारने की कोशिश की थी. ज्यादातर लोग इस आरोप को झूठा
और इस बात का सुबूत मानते हैं कि जयललिता अपने विरोधियों से बदला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है.
1989 में हुए विधानसभा चुनावों में जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक को द्रमुक के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा था. इस हार से वह इतनी हताश और निराश हो गई थी कि उस ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलनाजुलना बंद कर दिया था. कई बार उस ने राजनीति से संन्यास लेने तक की धमकी दी. कुछ समय तक तो वह चेन्नई छोड़ कर अपने हैदराबाद वाले बंगले में रहने के लिए चली गई थी.
1989 के विधानसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद एआईएडीएमके के भीतर लामबंदी और तेज हो गई. जयललिता को विपक्ष का नेता चुना गया. उस ने करुणानिधि और डीएमके की नीतियों का जम कर विरोध किया. प्रभावी नेतृत्व के कारण जयललिता का अपनी पार्टी में प्रभुत्व बढ़ता गया. आखिर जानकी रामचंद्रन ने राजनीति से संन्यास ले लिया और दोनों धड़ों का आपस में विलय हो गया. 1991 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में उसे अभूतपूर्व समर्थन के साथ मुख्यमंत्री की कुरसी मिली. हुआ यह कि राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में सहानुभूति लहर के कारण अन्नाद्रमुक और कांग्रेस गठबंधन को अभूतपूर्व सफलता मिली.
द्रमुक को इतनी करारी हार का सामना करना पड़ा कि करुणानिधि के अलावा द्रमुक का एक भी सदस्य विधानसभा में पहुंच नहीं पाया. इस प्रकार जयललिता ने अपनी नाकामी और हार को एक शानदार जीत में बदल दिया था. वह तमिलनाडु की राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गई.
सफलता की लहर पर चढ़ कर जयललिता मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंच गई. मुख्यमंत्री बनने के बाद उस ने भ्रष्टाचार, व्यक्तिपूजा, मनमानी और प्रतिशोध के कीर्तिमान बनाए मगर उस की लोकप्रियता में कभी कोई कमी नहीं आई. राजनीतिक विश्लेषक भगवान सिंह कहते हैं, ‘‘1989 में जब उन्होंने विधानसभा में करुणानिधि के बजट पेश करने के दौरान आपत्ति जताई थी तो वहां अफरातफरी मच गई थी. और एक बार तो ऐसी स्थिति पैदा हो गई थी कि डीएमके के एक वरिष्ठ सदस्य ने उन के कपड़े फाड़ दिए थे. तब उन्होंने कसम खाई थी कि वे विधानसभा में बतौर मुख्यमंत्री ही आएंगी.’’
लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल का भूत अब तक भी उस का पीछा करता रहा है. इसी दौरान (1991-96) उस के कामों या अनदेखियों की वजह से आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज हुआ था. मामले के उतारचढ़ावों की वजह से उसे 2 बार (2002 और 2015) अपनी मुख्यमंत्री की कुरसी खाली करनी पड़ी. पहली बार मुख्यमंत्री रहते हुए जयललिता पर कई आरोप लगे. उस ने कभी शादी नहीं की लेकिन अपने दत्तक पुत्र वी एन सुधाकरण की शादी पर पानी की तरह पैसे बहाए. 2001 में वह दोबारा सत्ता में आई. अकसर जयललिता की तुलना फिनिक्स पक्षी से की जाती है, जिस के बारे में कहा जाता है कि वह मरने के बाद फिर जी उठता है. जयललिता के राजनीतिक कैरियर के साथ भी बारबार ऐसा ही हुआ है. कई बार राजनीतिक पंडितों ने उस के राजनीतिक जीवन को श्रद्धांजलि अर्पित कर दी, मगर नाकामी की राख को झटक कर वह फिर राजनीति के क्षितिज पर उभर आई, ज्यादा ताकत और ज्यादा चमक के साथ.
1996 के विधानसभा चुनावों में जयललिता को बड़ी करारी शिकस्त मिली थी. ऐसा होना लाजिमी था. मुख्यमंत्री के तौर पर उस के 5 साल चरम भ्रष्टाचार, परले दरजे की अक्षमता और राजनीतिक प्रतिशोध के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे. चुनावों में पराजय के अलावा जेल की हवा खा कर उसे इस अपराध की कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन ढाई साल बाद ही फिर उस का राजनीतिक कायाकल्प हो गया जब 1998 के लोकसभा चुनाव में उस ने भाजपा और अन्य कई दलों से गठबंधन कर द्रमुक और तमिल मनीला कांग्रेस को धूल चटा दी. राज्य की 38 लोकसभा सीटों में से 27 सीटें उस के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिलीं. इस प्रकार राष्ट्रीय राजनीति में वह एक ऐसी निर्णायक शक्ति के रूप में उभरी, जिस के पास दिल्ली की किसी भी केंद्र सरकार को बनाने अथवा बिगाड़ने की कुंजी थी. इस शक्ति का जयललिता ने उपयोग कम, व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग ज्यादा किया.
आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार के आरोपों को ले कर सत्ता छोड़ने के लिए बाध्य हुई अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने मई 2015 को, करीब 8 माह बाद, फिर से 5वीं बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. गौरतलब है कि 27 सितंबर, 2014 को बेंगलुरु की एक निचली अदालत ने आय से अधिक 66.66 करोड़ रुपए की संपत्ति के मामले में जयललिता को दोषी ठहराया था जिस से वह मुख्यमंत्री पद के लिए अयोग्य हो गई थी. हालांकि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 11 मई, 2015 को उसे इन आरोपों से बरी कर दिया था. जयललिता के बरी होने के साथ ही उस के फोर्ट सेंट जौर्ज स्थित सत्ता की पीठ में वापसी की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी.
एक नाजुकमिजाज महारानी
कोई भला कहे या बुरा, जयललिता का हर राजनीतिज्ञ की तरह का एक ही एजेंडा है-अपना हित साधना. और इसी की पूर्तता के लिए वह अपनी पार्टी और अपने सारे जनाधार का इस्तेमाल कर रही है. जो भी इस एजेंडे में जरा भी बाधक बनता है, जयललिता उसे अपना दुश्मन समझने लगती है. उसे सही रास्ते पर लाने के लिए वह हर तरीके का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती.
झूठे आरोप लगाने में तो जयललिता का कोई सानी नहीं है. बहुत सारे लोग उस की इस आदत के शिकार हो चुके हैं. इन में छोटेमोटे लोग नहीं, पी वी नरसिंहा राव, करुणानिधि और जी के मूपनार जैसे बड़ेबड़े नाम हैं. जब प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के साथ जयललिता के रिश्ते कुछकुछ बिगड़ने लगे थे तब एक बार तमिलनाडु विधानसभा में कांग्रेसी सदस्यों ने राज्य में बढ़ रही डकैतियां करवाने का आरोप लगाते हुए कहा था, ‘हो सकता है मेरी सरकार को बदनाम कराने के लिए नरसिंहा राव यह सब करा रहे हों.’ किसी जमाने में जयललिता के राजीव गांधी से मधुर संबंध थे. मगर अहंकार पर थोड़ी चोट लगने पर जयललिता उन्हें भी आडे़ हाथों लेने से चूकी नहीं. हुआ यह कि किसी दिन जयललिता ने रात 10.30 बजे राजीव गांधी को फोन किया तो राजीव गांधी फोन पर नहीं आए. इतने भर से जयललिता को इतना सदमा लगा कि दूसरे दिन एक बयान जारी कर के उस ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया, ‘जो व्यक्ति 10.30 बजे फोन पर उपलब्ध नहीं हो सकता, वह कैसे देश का प्रधानमंत्री बना रह सकता है.’
ये सारी घटनाएं इस बात की ओर इंगित करती हैं कि जयललिता एक नाजुकमिजाज महारानी की तरह है जो अपनी शान में कोई गुस्ताखी पसंद नहीं कर सकती, गुस्ताखी करने वाले को मजा चखा कर ही दम लेती है. ताजा विधानसभा चुनाव में जयललिता का करिश्मा खूब नजर आया. जयललिता के कम दिखने के चलते कई जानकारों ने उन की वापसी पर शक जताया था. कई एग्जिट पोल भी ऐसी ही संभावना जता चुके थे.
गरीबों की पकड़ी नब्ज
जयललिता को यह विश्वास था कि गरीबों के लिए चलाई गई उन की योजनाएं चुनाव में अपना असर दिखाएंगी ही. इन योजनाओं पर गौर करें तो उन की सुपर हिट ‘अम्मा कैंटीन’ का विपक्ष के पास भी कोई जवाब नहीं है. इस कैंटीन में सुबह के नाश्ते में 2 रुपए की 2 इडली, सांभर के साथ मिलती हैं. साथ ही, 3 रुपए में 2 चपातियां भी मिलती हैं जिन के साथ दाल मुफ्त होती है. कैंटीन में 5 रुपए में प्लेटभर ‘लेमन राइस’ या ‘कर्डराइस’, सांभर के साथ मिलता है. इस तरह जयललिता ने इस योजना से गरीबों की नब्ज पकड़ी है जिन के लिए दो वक्त का खाना ही सब से बड़ी चीज मानी जाती है. तभी तो अम्मा कैंटीन शायद एकमात्र ऐसी स्कीम है जिसे विधानसभा चुनाव में जीत की स्थिति में विपक्षी डीएमके ने भी जारी रखने का वादा किया था.
जयललिता ने पिछले चुनाव में 54 वादे किए थे जिन्हें उन्होंने पूरा भी किया. इन में राशनकार्ड धारकों को 20 किलो चावल, महिलाओं को मिक्सर, ग्राइंडर, पंखा, ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों को दुधारू गाय और बकरियां मुफ्त देने जैसी कई योजनाएं शामिल हैं. इस के अलावा उन्होंने वे योजनाएं भी चलाईं जिन का उन्होंने वादा नहीं किया था. इन में अम्मा कैंटीन, अम्मा पानी, अम्मा नमक, अम्मा सीमेंट और गरीब महिलाओं के लिए मुफ्त सेनेटरी नैपकिन देना शामिल हैं. ये सभी योजनाएं ऐसी हैं जिन्होंने जयललिता को लोगों में लोकप्रिय बना दिया. इस बार भी जयललिता ने चुनाव से पहले मतदाताओं को तमाम मुफ्त चीजें देने के वादों की बारिश की थी. इन में पूर्ण शराबबंदी, महिलाओं को स्कूटर और मोपेड खरीदने पर 50 प्रतिशत सब्सिडी, किसानों को ऋणमाफी, 100 यूनिट मुफ्त बिजली और लड़कियों को शादी से पहले सरकार की ओर से दिए जाने वाले 4 ग्राम सोने को बढ़ा कर 8 ग्राम करना शामिल हैं.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, ‘‘वे आक्रामक, अहंकारी और कठोर रही हैं. लेकिन इन्हीं खासीयतों के चलते लोग उन्हें पसंद करते रहे हैं. उन्हें ‘लोहे की तितली’ भी कहते हैं.’’ उन के मुताबिक, साल 2000 की शुरुआत में जयललिता अकसर अपनी सार्वजनिक सभाओं में कहती थीं, ‘आप के सामने आप की बहन खड़ी है.’ लेकिन 2012 में सत्ता में आने के बाद वे अम्मा बन गईं. एक देवी जैसी, जो जानबूझ कर लोगों से दूरी तो बनाए रखती है, लेकिन परोपकारी भी है, उन का दुखदर्द भी जानती है.
शशिकला से जिगरी दोस्ती की कहानी
जयललिता और शशिकला की जिगरी दोस्ती की कहानी पिछले 25 सालों से सियासत के गलियारों में सुनी जाती रही है. तमिलनाडु में वी के शशिकला को जयललिता का साया कहा जाता है. उन्हें देश की सब से ताकतवर महिला नेताओं में से एक और मुख्यमंत्री जयराम जयललिता के पीछे की ताकत कहा जाता है. लेकिन किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि दोनों की कहानी में केवल प्यार और विश्वास ही था. उस में साजिश, धोखा और फरेब का मसाला भी रहा है. कई बार दोस्ती टूटी भी. मगर फिर जुड़ भी गई.
तमिलनाडु के तंजौर जिले के मन्नारगुडी गांव की शशिकला की पढ़ाई तो शुरुआत में ही छूट गई और फिल्मों से नाता गहरा होता चला गया. फिल्मों का ही असर था कि शशिकला फिल्मस्टारों जैसे ऐशोआराम वाली जिंदगी जीने के ख्वाब देखने लगी.
जयललिता की बढ़ती लोकप्रियता के कारण शशिकला उन की वीडियो फिल्म बना कर उन के करीब आना चाहती थीं. जयललिता ने भी फिल्म बनाने की अनुमति दे दी. शशिकला शूटिंग के दौरान जयललिता की हर छोटीबड़ी जरूरत का खयाल रखने लगी. यहीं से शशिकला ने जयललिता पर शिकंजा कसना शुरू किया. शशिकला के प्रभाव के चलते ही जयललिता ने वी एन सुधाकरन को अपना दत्तक पुत्र बनाया. मुख्यमंत्री के तौर पर 1991 से 1996 तक के जयललिता के पहले कार्यकाल में शशिकला संविधान से परे एक शक्ति के तौर पर काम करने लगी.
राजनीति के गलियारे में लोग शशिकला को मन्नारगुड़ी का माफिया कह कर बुलाने लगे. 1995 में वी एन सुधाकरन की शादी पूरी दुनिया में चर्चित हुई, इस पर 100 करोड़ रुपए जो खर्च हुए थे. 1996 के आम चुनाव में इसी वजह से जयललिता की पार्टी राज्य की सभी 39 सीटें हार गई. इस से घबराई जयललिता ने शशिकला और उस के परिवार से दूरी बना ली. इसी दौरान शशिकला को विदेशी मुद्रा के लेनदेन के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से बाहर आने पर उस ने जयललिता से माफी मांगी. अपने सभी रिश्तेदारों तक से दूरी बनाने का विश्वास दिलाया. दोनों सहेलियां फिर एक हो गईं. 2001 में जयललिता के सत्ता में आने पर शशिकला ने खुद को परदे के पीछे रखा. एक पत्रिका ने दावा किया था कि जयललिता की खास दोस्त शशिकला ने जयललिता को धीमा जहर दे कर तमिलनाडु का ताज पाने की साजिश रची थी.
जयललिता को अपनी सरकार के तख्तापलट की साजिश का पता चला तो उन्होंने 17 दिसंबर, 2011 को शशिकला व उन के रिश्तेददारों समेत 12 लोगों को पार्टी से निकाल दिया. हालांकि, यह अलगाव भी 100 दिन ही चला. शशिकला द्वारा माफी मांग लेने पर जयललिता ने उसे दोबारा दोस्त के तौर पर अपना लिया. ऐसा माना जाता है कि आजकल शशिकला ही एआईएडीएमके के सभी मामले देखती हैं और एक प्रकार से सरकार के कामकाज पर भी नजर रखती हैं.
भाजपा से रिश्तों में उतारचढ़ाव
जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता पर 1991 से 1996 के दौरान आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाते हुए अदालत में निजी शिकायत दर्ज कराई मगर बाद में दोनों में सुलह हो गई. इस मामले में 27 सितंबर, 2014 को विशेष अदालत ने जयललिता और 3 अन्य को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया. उन्हें 4-4 साल कारावास की सजा सुनाई गई. सजा मिलने के कारण विधायक के तौर पर अयोग्य हो जाने के बाद जयललिता को मुख्यमंत्री पद की कुरसी छोड़नी पड़ी. हालांकि 8 महीने बाद कर्नाटक हाईकोर्ट ने जयललिता को आय से अधिक संपत्ति के मामले में बरी कर दिया और जयललिता एक बार फिर मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन स्वामी के साथ तब हुई सुलह के कारण जयललिता ने उन के कहने पर वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. उस के बाद आए अविश्वास प्रस्ताव में वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनने वाली पहली भाजपा सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. राष्ट्रपति ने दूसरी बार भाजपा को सरकार बनाने से पूर्व उस को सभी गठबंधन सहयोगियों से एक चिट्ठी पर हस्ताक्षर करवाने की शर्त रखी थी. सरकार बनाने की और नए सहयोगियों को जुटाने की जल्दबाजी में भाजपा एक बड़ी चूक कर बैठी कि वह अपने सभी गठबंधन सहयोगियों से समर्थन की औपचारिक चिट्ठी लेना भूल गई.
अन्नाद्रमुक की जयललिता ने भाजपा की इस गलती का राजनीतिक फायदा उठाते हुए चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने के बदले अपनी कुछ शर्तें रख दीं. जयललिता ने सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनाना उन्हीं शर्तों में शामिल था.
19 मार्च, 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन गए तो दूसरी तरफ कांग्रेस की बागडोर पहली बार सोनिया गांधी के हाथ में आ गई. यहीं से कांग्रेस एक बार फिर से नेहरुगांधी परिवार की जागीर बन गई. सुब्रह्मण्यम स्वामी वित्त मंत्री न बनाए जाने से खफा थे, इसलिए उन्होंने राजग सरकार को अस्थिर करने के लिए जयललिता और सोनिया गांधी का टी पार्टी के जरिए मिलन करवाया. गुपचुप तरीके से दोनों नेत्रियों ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला कर लिया. टी पार्टी के कुछ दिनों के बाद सुनियोजित तरीके से जयललिता ने राजग सरकार से समर्थन वापस ले लिया.17 अप्रैल, 1999 का दिन अटल बिहारी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए किसी अग्निपरिक्षा से कम नही था क्योंकि संसद में उस के समक्ष सत्ता के लिए जरूरी 273 का आकंड़ा पूरा करना था. संसद के मतदान में 269 और सरकार के विरोध में 270 वोट पड़े. इस प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार महज 13 महीने तक ही चल सकी.
कॉल के दौरान नंबर सेव करना आपके लिए थोड़ा मुश्किल होता होगा. कई बार ऐसा होता है कि हम कॉल के समय ही डायलर में नंबर टाइप करते हैं लेकिन जैसे ही कॉल पूरी होती है नंबर गायब हो जाता है. जबकि एंड्रायड फोन में आप यह आसानी से कर सकते हैं.
जी हां! एंड्रायड फोन में आप आराम से कॉल के दौरान ही नंबर सेव कर सकते हैं. इसके लिए एंड्रायड प्लेटफॉर्म पर एक शानदार एप मौजूद है. आइए आपको बताते हैं कि इस एप से आप कैसे नंबर सेव कर पाएंगे.
कॉल राइटर एप का इस्तेमाल
एंड्रायड यूजर सबसे पहले अपने फोन में कॉल राइटर एप को डाउनलोड कर उसे इंस्टॉल कर लें.
कस्टमाइज करें
जब आप एप को खोलेंगे, आपको एक तीन लाइन का साइन बटन मिलेगा. सेटिंग्स में जाकर आप एप को अपनी तरह से कस्टमाइज कर पाएंगे.
एक टैप से सेव करें
आप भी कॉल करेंगे या कॉल रिसीव करेंगे तो आप एक डायलर स्क्रीन पर देखेंगे. आपको जब भी कुछ सेव करना है तो आप इस पर टैप कर सकते हैं.
सेव हो चुका है आपका कांटेक्ट
जैसे ही कॉल खत्म होगी, लिखा हुआ नोट खुद ही सेव हो जाएगा.
हर पिता अपने बच्चों को हर मुसीबत से महफूज रखना चाहता है. वह अपने बच्चे की मुसीबत को भी खुद पर ओढ़ लेता है. फिर चाहे वह पिता एक आम इंसान हो या कोई बड़ी सेलीब्रिटी. इसी के चलते कुछ माह पहले जब कुछ वेबसाइट पर शाहरुख खान की बेटी सुहाना की एक समुद्री बीच पर बिकनी पहने हुए कुछ तस्वीरें आयीं, तो शाहरुख खान तुरंत हरकत में आ गए थे. उन्होने उन वेबसाइट के मालिकों से संपर्क कर सभी से निवेदन किया कि वह सुहाना की बिकनी वाली तस्वीरों को हटा दें. पर इस मसले पर वह चुप्पी साधे हुए थे.
अब लगभग दो माह बाद उन्होने एक अखबार से बात करते हुए कहा है-‘‘मैं मानता हूं कि मेरी बेटी सुहाना बिकनी पहने हुए थी और वह उस वक्त बीच पर थी. अपने छोटे भाई के साथ थी. पर आप लोगो ने इसे इस हेडलाइन से पेश किया कि शाहरुख खान की बेटी ने दिखायी बाडी. यह कुछ चीप नहीं है क्या? मुझे तो ऐसा ही लगा. मैने उस वेबसाइट से संपर्क किया और कहा कि आपकी वेबसाइट मेरी बेटी की बिकनी वाली फोटो से नहीं चलेगी. मेरी बेटी को यह थोड़ा अजीब सा लगा था…वह केवल 16 साल की है. बहुत आक्वर्ड महससू कर रही थी. कुछ वेबसाइट पर तो ऐसी हेडलाइन्स लगी थी…कमाल है. मेरे स्टारडम की वजह से इसे इतना बढ़ा चढ़ा दिया गया. अगर सुहाना की जगह कोई दूसरी लड़की होती तो शायद इतना बवाल न होता. हम बहुत लिबरल लोग हैं और इस पर हम हंसे भी थे. लेकिन फिर भी यह सब अजीब तो था ही..’’यानी कि शाहरुख खान का पिता होने का दर्द छलक पड़ा.
आप भले ही देश में इंटरनेट यूजर्स की बढ़ती संख्या पर खुश हो लें लेकिन अगर इंटरनेट स्पीड की बात की जाए तो दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले इंडिया कहीं नहीं टिकता. यूएस बेस्ड डिलिवरी और क्लाउड सर्विस प्रोवाइडर अकामाई की रिपोर्ट के अनुसार एशियाई देशों में 3.5 Mbps की एवरेज इंटरनेट स्पीड के साथ भारत एकदम निचले पायदान पर है.
अकामाई की रिपोर्ट के अनुसार साउथ कोरिया इस लिस्ट में टॉप पर है. साउथ कोरिया में एवरेज इंटरनेट स्पीड 29 Mbps और 103.6 Mbps पीक स्पीड है. इंडिया में पीक स्पीड 25.5 Mbps और एवरेज स्पीड 3.5 Mbps है. एवरेज इंटरनेट स्पीड की लिस्ट में भारत का स्थान 114वां है.
हालांकि इंडिया के सर्विस प्रोवाइडर्स ने 25 Mbps से ऊपर स्पीड ऑफर करनी शुरू कर दी है. कई ऑपरेटर जैसे You Broadband और ACT broadband तो 100 Mbps का भी प्लान दे रहे हैं, लेकिन यह इस्तेमाल करने वालों की संख्या बहुत बड़ी नहीं है.
हाल में ही मैरी मीकर ने एक रिपोर्ट दी थी जिसके अनुसार भारत सबसे ज्यादा इंटरनेट यूज करने वालों की संख्या की लिस्ट में दुनिया में दूसरे स्थान पर है. इसका कारण देश में धड़ल्ले से बिकने वाले स्मार्टफोन्स की संख्या है. कई सस्ते स्मार्टफोन लॉन्च हो रहे हैं, जो लोगों को काफी पसंद भी आ रहे हैं. गूगल प्रॉजेक्ट लून को भारत में लॉन्च करने की योजना भी बना रहा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में भी दूर-दूर तक इंटरनेट की पहुंच बने.
एक नए प्रयोग के तहत देश का सबसे बड़ा बैंक भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) इस महीने उत्तराखंड के हल्द्वानी में अपनी पहली मानव रहित शाखा खोलने जा रहा है. इस शाखा में हर तरह के बैंकिग काम जैसे: खाता खुलवाने, पासबुक अपडेट कराने और अन्य कामें के लिए स्वचालित मशीनों की व्यवस्था होगी. बैंक अधिकारियों ने कहा कि बैंक रोजाना औसतन 5 से 7000 ग्राहकों की सेवा कर सकता है.
एसबीआई रीजन 1 के असिस्टेंट जनरल मैनेजर एम.पी. सिंह ने कहा, 'बैंक में दो कर्मचारियों के अलावा अन्य कोई कर्मचारी नहीं होगा. ये दो कर्मचारी भी ग्राहकों को मशीन संचालित करने में मदद करेंगे. ब्रांच सप्ताह के सातों दिन काम करेगी. यह डिजिटाइजेशन का युग है और इस व्यवस्था से आम लोग अत्याधुनिक तकनीक से परिचित होंगे.' एसबीआई बैंक की भारत के 70 जिलों में मानवरहित शाखाएं हैं लेकिन उत्तराखंड में यह पहली शाखा होगी.
बैंक अधिकारियों ने बताया कि इस पहल की शुरुआत ग्राहकों का समय बचाने के लिए की गई है. इस तरह की नई शाखाओं में कई तरह की सुविधाएं होंगी जिनमें तुरंत खाता खोलना, प्रिंटिंग, डेबिट कार्ड जारी करना और निवेश के लिए विडियोकॉन्फ्रेंस के जरिए विशेषज्ञों की सलाह देना शामिल है.
ब्रांच में एक ऑनलाइन कियोस्क भी होगा जिससे लोग इन्टरनेट बैंकिंग करना सीख सकते हैं. हल्द्वानी के लोगों ने इस खबर का स्वागत किया है.
बेचारे रोहित शेट्टी..फिल्म ‘‘दिलवाले’’ से पहले वह सफलता के मद में चूर थे. जिसके चलते उन्होंने अपने पुराने साथी व अभिनेता अजय देवगन को भी धता बताते हुए शाहरुख खान के साथ पींगे बढ़ानी शुरू कर दी थी. लेकिन फिल्म ‘‘दिलवाले’’ की असफलता ने शाहरुख खान के साथ साथ रोहित शेट्टी को भी ऐसा मंझधार में डुबोया, कि दोनों को ही किनारा नहीं मिल पा रहा है.
‘दिलवाले’ की असफलता के बाद रोहित शेट्टी ने करण जौहर का दामन थामने का असफल प्रयास किया. शाहरुख खान के साथ उनकी अनबन हो चुकी है. हर तरफ से निराश होकर रोहित शेट्टी ने पुनः अजय देवगन के साथ समझौता कर अपनी ‘‘गोलमाल’’ फ्रेंचाइजी का चौथा भाग यानी कि ‘‘गोलमाल 4’’ पर काम करना शुरू किया. रोहित शेट्टी ने बड़ी उम्मीदों के साथ ‘‘गोलमाल 4’’ के लिए अजय देवगन के साथ ही करीना कपूर खान को भी साइन किया.
ज्ञातब्य है कि करीना कपूर खान इससे पहले ‘गोलमाल’ सीरीज की दो फिल्मों में अजय देवगन के साथ अभिनय कर चुकी हैं. अपनी सोच के अनुसार सब कुछ सही जमाकर रोहित शेट्टी ने जैसे ही फिल्म ‘‘गोलमाल 4’’ की पटकथा पर काम करना शुरू किया, वैसे ही उनके सिर पर ओले गिर पडे़.
जी हां! करीना कपूर के पति सैफ अली खान की दिसंबर माह तक खुद के पिता व करीना के मां बनने की घोषणा ने रोहित शेट्टी की उम्मीदो पर कुठाराघात कर दिया. अब करीना कपूर खान के साथ ‘‘गोलमाल 4’’ का बनना असंभव सा हो गया है. उधर रेाहित शेट्टी चुप हैं. पर उनकी समझ में नही आ रहा है कि वह अब किस तरह अपने करियर की गाड़ी को आगे बढ़ाएं. बड़ी मुश्किलों से तो उन्हें ‘‘गोलमाल 4’’ के शुरू होने की उम्मीदें बंधी थी. पर वह भी गड़बड़ नजर आने लगा है. इसे ही कहते हैं सिर मुड़ाते ही ओेले पड़े..
फिल्म ‘‘उड़ता पंजाब’’ के बाद जिस तरह से ‘‘शोरगुल’’ भी तमाम विवादों के बावजूद बाक्स आफिस पर दर्शक बटोरने में नाकाम रही है, उससे यह बात उभर कर आती है कि फिल्मकारों को दर्शकों को मूर्ख समझने की भूल नही करनी चाहिए. यह दोनों ही फिल्में पिछले एक माह के दौरान जबरदस्त विवादों में रहीं. फिल्म ‘‘शोरगुल’’ के निर्माताओं ने अपनी फिल्म के ट्रेलर के साथ ही हवा फैलायी थी कि उनकी फिल्म ‘‘शोरगुल’’ उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में हुए दंगो पर आधारित है.
जब विवाद गहराया, अदालत में पीआईएल दाखिल हुई, तो फिल्म के मुख्य कलाकार जिम्मी शेरगिल सहित निर्माता तक ने पैर खींच लिए. सभी सफाई देने लगे कि उनकी फिल्म दंगों पर नही बल्कि एक प्रेम कहानी है. इस फिल्म का वास्तविक पात्रों से कोई संबंध नहीं है. उसके बाद निर्माताओ ने अपनी फिल्म ‘‘शोरगुल’’ को बाक्स आफिस पर सर्वाधिक सफल फिल्म साबित करने के लिए इसके प्रदर्शन की तारीख 24 जून से 17 जून की, फिर उसे 24 जून की और 24 जून को फिल्म प्रदर्शित नहीं की. इसकी वजह बतायी गयी कि मुस्लिम संगठन विरोध कर रहे हैं और फतवा जारी हो गया है.
बहरहाल, प्रचार के हर तरह के हथकंडे अपनाने के बाद जब एक जुलाई को ‘‘शोरगुल’’ सिनेमाघरों में पहुंची, तो कोई शोर नहीं हुआ. पता चला कि इसे दर्शक नहीं मिल रहे हैं. पहले दिन ‘‘शोरगुल’’ ने पूरे उत्तर प्रदेश और दिल्ली को मिलाकर सिर्फ साढ़े दस लाख रूपए ही इकट्ठा कर सकी. इसके मुकाबले ‘शोरगुल’ ने मुंबई में पहले दिन सात लाख रूपए इकट्ठा किए. पूरे देश का हाल देखा जाए, तो ‘शोरगुल’ ने पूरे देश में सिर्फ 30 लाख रूपए ही कमा सकी. यानी कि दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मुंबई को हटा दें, तो ‘शोरगुल’ को पूरे देश से तेरह लाख रूपए जुटाना मुश्किल हो गया. इससे यह बात साबित हो जाती है कि फिल्म का कंटेंट, कहानी और कलाकारों की परफार्मेंस अच्छी हो, तभी फिल्म देखने के लिए दर्शक उमड़ता है, महज प्रचार के हथकंडे या फिल्म को लेकर विवाद पैदा करने से दर्षक नहीं मिलते.
सूत्रों की माने तो पहले दिन पूरे देश से ‘शोरगुल’ ने जो कमाई की है, उससे वह सिनेमाघरों का किराया भी नहीं चुका पाएगी. ‘शोरगुल’ की ही तरह 17 जून को प्रदर्शित फिल्म ‘‘उड़ता पंजाब’’ के साथ भी यही हुआ. दो सप्ताह में ‘उड़ता पंजाब’ महज 56 करोड़ रूपए ही इकट्ठा कर पायी. जबकि फिल्म को विवादों में रखने, इसके प्रचार व अदालत आदि पर उससे कहीं ज्यादा खर्च कर दिए गए. इन दोनों अतिविवादित फिल्मों के विपरीत बिना किसी विवाद के पंजाबी भाषा की फिल्म‘ ‘सरदारजी 2’’ ने सिर्फ पंजाब में ही एक सप्ताह के अंदर लगभग 14 करोड़ रूपए कमा लिए. इससे हर फिल्मकार को सबक लेना चाहिए.