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जब वित्त मंत्री की ही आय घट जाए, तो देश का क्या होगा

वित्त मंत्री अरुण जेटली की संपत्ति वित्त वर्ष 2015-16 में 2.83 करोड़ रुपये कम हो गई है. बैंक खाते में नकदी कम होने से उनकी संपत्ति 68.41 करोड़ रुपये रह गई है.

प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाइट पर डाले गये संपत्ति के ब्यौरे के अनुसार जेटली ने कहा है कि पिछले वित्त वर्ष के दौरान आवासीय भवन और भूखंड सहित उनकी अचल संपत्ति का मूल्य 34.49 करोड़ रुपये पिछले साल के बराबर ही रहा है.

ब्यौरे के अनुसार उनके चार बैंकों के खातों में बकाया राशि 3.52 करोड़ रुपये से घटकर एक करोड़ रुपये रह गई.

इसके अलावा डीसीएम श्रीराम कंसोलिडेटेड लिमिटेड और एंप्रो ऑयल लिमिटेड सहित अन्य कंपनियों में उनकी जमाराशि 17 करोड़ रुपये पर अपरिवर्तित रही. जेटली के पास उपलब्ध नकदी जो कि मार्च 2015 में 95.35 लाख रुपये थी, वह मार्च 2016 में घटकर 65.29 लाख रुपये रह गई. पीपीएफ और अन्य निवेशों को मिलाकर यह राशि 11 करोड़ रुपये रह गई जो कि एक साल पहले 11.24 करोड़ रुपये थी.

उनके पास जो सोना, चांदी और हीरे हैं उनका मूल्य मार्च 2016 में बढ़कर 1.86 करोड़ रुपए हो गया जो पिछले साल मार्च में 1.76 करोड़ रुपये था.

भज्जी ने किया एक और चौंकाने वाला खुलासा

भारतीय क्रिकेट टीम के गेंदबाज हरभजन सिंह का विवादों से पुराना नाता रहा है. आईपीएल की एक घटना तो आपको जरूर याद होगी. आईपीएल में किंग्स इलेवन पंजाब और मुंबई के मैच के बाद तेज गेंदबाज एस श्रीसंत मैदान पर रोते हुए नजर आए थे. कहा जा रहा था कि मैच के बाद हरभजन ने एस. श्रीसंत को थप्पड़ मार दिया था. इस घटना के बाद हरभजन और श्रीसंत के रिश्तों में भी खटास आ गई थी.

हाल ही में एक टीवी को दिये इंटरव्यू के दौरान हरभजन सिंह ने राज खोलते हुए बताया कि उन्होंने आखिर क्यों श्रीसंत को थप्पड़ मारा था. इंटरव्यू के दौरान भज्जी ने यह बात भी मानी कि फील्ड पर ये हरकत उनकी लाइफ की सबसे बड़ी गलती रही.

उन्होंने कहा कि श्रीसंत ने तब बहुत नौटंकी की थी जिसके बाद उन्होंने ऐसा किया. मैंने हर बार यह बोला है कि कुछ चीजें लाइफ में मैंने बहुत गलत की हैं. लेकिन श्रीसंत ने इस तरह से रोना शुरू कर दिया जैसे मैंने बहुत जोर से मारा हो. ऐसा कुछ नहीं था.

बता दें कि यह घटना अप्रैल, 2008 में हुए आईपीएल की थी जब हरभजन ने किंग्स इलेवन पंजाब के खिलाड़ी श्रीसंत को मैदान में ही थप्पड़ जड़ दिया था. इसकी वजह से हरभजन पर 11मैचों का प्रतिबंध और एक मैच की फीस का जुर्माना भी लगा था.

अब शॉपिंग के साथ करिए फ्लाइट टिकट बुक

स्नैपडील ने अपने प्लेटफार्म पर कई नई सेवाओं की शुरुआत की है. ऑनलाइन मार्केटिंग कंपनी ने इसकी घोषणा सोमवार को की. स्नैपडील अपने ग्राहकों को अब फ्लाइट और बस के टिकट की बुकिंग के साथ ही होटल बुकिंग और पसंदीदा खाने के ऑर्डर सुविधा दे रहा है.

स्नैपडील ने इन सेवाओं के लिए क्लियरट्रिप, रेडबस, अर्बनक्लैप और जोमैटो के साथ साझेदारी की है. साल 2020 तक भारत में ऑनलाइन सेवाओं के कारोबार 100 अरब डॉलर तक पहुंचने की संभावना है. स्नैपडील के सहसंस्थापक रोहित बंसल ने एक बयान जारी कर बताया, 'हमने देश के सबसे विश्वसनीय और घर्षणहीन वाणिज्य पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया है, स्नैपडील पर इन सेवाओं की शुरुआत हमारे लगभग सभी ग्राहकों की खपत जरूरतों को पूरा करने में एक बड़ी छलांग है.'

उपभोक्ता अब इन सेवाओं के लिए स्नैपडील पर आकर्षक ऑफर का लाभ भी उठा पाएंगे. जोमैटो के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संस्थापक दीपिंदर गोयल ने बताया, 'यह हमें सबसे बड़ी भारतीय ऑनलाइन बाजार का एक बड़े प्रयोक्ता समूह तक पहुंचने के लिए सक्षम बनाएगा और ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ताओं को खाने का ऑर्डर आसानी से और जल्दी से करने में सक्षम बनाएगा.'

तो ये हैं आरबीआई के नए डिप्टी गवर्नर

एनएस विश्वनाथन ने सोमवार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गवर्नर का पदभार संभाला. इससे पहले वे भारतीय रिजर्व बैंक के एग्जिक्युटिव डायरेक्टर के पद पर थे. एचआर खान के रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गवर्नर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद एनएस विश्वनाथन ने उनका स्थान ले लिया है.

डिप्टी गवर्नर के पद पर विश्वनाथन का चयन कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली एक चयन समिति ने किया है. यह पहली नियुक्ति है जो इस समिति के माध्यम से की गई है. इससे पहले डिप्टी गवर्नर की नियुक्ति रिजर्व बैंक के गवर्नर की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाती थी.

अभी तक विश्वनाथन आरबीआई में एग्जिक्युटिव डायरेक्टर के तौर पर बैंकिंग रेग्युलेशन और नॉन बैंकिंग डिपार्टमेंट देख रहे थे. वर्तमान में आरबीआई में चार डिप्टी गवर्नर हैं.

तो ऐसे खेला जाता है पत्नियों की अदला-बदली का खेल…!

ब्रिटेन में पत्नियों की अदला-बदली का चौंकाने वाला मामला सामने आया है. आपको बता दें कि ब्रिटेन के वेल्स में सबसे बड़ा स्विंगर फेस्टिवल हुआ, जिसमें करीब 700 लोग शामिल हुए है. जानकारी के मुताबिक ये फेस्टिवल सीक्रेट लोकेशन पर होता है और सिर्फ मेंबर्स को ही कुछ दिन पहले इसकी इन्फॉर्मेशन दी जाती है. यहां लोग नेकेड या अंडरवियर में घूम सकते हैं. दरअसल उन्हें इसके लिए स्ट्रिक्ट रूल्स के मुताबिक चलना होता है.

बताया गया है कि 3 दिन चले इस फेस्टिवल में अकेले व्यक्ति के लिए एक दिन की टिकट 5000 रुपए थी. वहीं, करीब 16,000 रुपए में 3 दिन की कपल टिकट अवेलेबल थी. बता दें कि पिछलने 3 साल से आयोजित हो रहा यह फेस्टिवल सेक्स पार्टियों और वाइफ स्वैपिंग (पत्नियों की अदला-बदली) के लिए फेमस है.

इस फेस्टिवल की खासियत

इस बार फेस्टिवल में होटल जैसी स्टाइल वाले टेंट्स का भी अरेंजमेंट था. लोग चाहें तो इन लोकेशंस पर खुद के टेंट, गाड़ियां और मोटरहोम भी ला सकते हैं. या टेंट रेंट पर ले सकते हैं. इतना ही नहीं इसमें गेस्ट्स के लिए बड़े-बड़े ट्विन बेड्स का इंतजाम किया गया. इसमें रहने का चार्ज करीब 56 हजार रुपए था.

म्यूजिक थीम पर पार्टी का फ्यूजन

बताया जा रहा है कि इस फेस्टिवल पर लोग हॉट टब में नहाते हैं, डिफरेंट कॉस्ट्यूम्स में घूमते हैं और डेक चेयर्स पर बैठकर बातें करते हैं. यहां सेक्स थीम पर धमाल मचाने के लिए नाइट क्लब का भी इंतजाम किया जाता है. इसके अलावा ग्रुप सेक्स पार्टियां भी ऑर्गेनाइज की जाती हैं. वाइफ स्वैपिंग इस फेस्टिवल की मेन अट्रैक्शन रहता है, जिसमें कोई भी किसी के पार्टनर के साथ सेक्स कर सकता है.

सशक्त जातियों को क्यों चाहिए आरक्षण?

पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न हिस्सों में सशक्त जातियां आरक्षण के लिए आंदोलन कर रही हैं. हरियाणा में आरक्षण को ले कर जाट दोबारा आंदोलन कर रहे हैं. जाट, कापू, पटेल, गुर्जर और मराठा जातियां हरियाणा से आंध्र प्रदेश तक फैली हुई हैं. उन में एक बात समान है कि वे अपनेअपने क्षेत्रों की प्रभुत्वसंपन्न, सशक्त और अमीर जातियां हैं. इस के बावजूद  आरक्षण के लिए कोहराम मचाए हुए हैं. देश की ऐसी जातियों को 5वें दशक में  जानेमाने समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने प्रभुजातियां या प्रभुत्वशाली जातियां कहा था. जाट तो उन की प्रभुत्वशाली जाति की कसौटी पर सौ फीसदी खरे उतरते हैं.

श्रीनिवास ने यह नाम उन को दिया था जिन का अपने इलाकों में अच्छीखासी तादाद के कारण अहम स्थान होता है या फिर उन के पास इतनी बड़ी तादाद में जमीन होती है कि जिस के जरिए वे सत्ता के केंद्र बन जाते हैं. हरियाणा के जाटों की तादाद एकचौथाई से ज्यादा है मगर उन के पास हरियाणा की तीनचौथाई जमीन है. इस कारण जाट शब्द जमींदार का पर्याय बन गया है. लेकिन हाल ही में हुए उन के आरक्षण आंदोलनों में इन जातियों में जैसा आक्रोश नजर आया, उस से यह स्पष्ट हो गया कि उन के लिए सबकुछ ठीकठाक नहीं है. तब से लोगों के मन में सवाल है कि प्रभुत्वशाली जातियां होने के बावजूद आरक्षण को ले कर वे इतनी बेकरार क्यों हैं?

आरक्षण की मांग

कई महीनों से नरेंद्र मोदी की जेलों में बंद 22 साल का हार्दिक पटेल गुजरात के 20 प्रतिशत आबादी वाले संपन्न और सशक्त पटेल समुदाय के बीच आरक्षण की मांग का चेहरा बन गया है. लाखों लोग आ रहे थे उस की सभाओं में उसे सुनने के लिए. कुछ राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि वह नरेंद्र मोदी के राज्य में मोदी के लिए चुनौती बनता जा रहा है. कुछ महीनों पहले की ही तो बात है, दुबई के एक क्रिकेट स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक झलक पाने को 40 हजार भारतीय बेताब नजर आए थे. और ठीक 12 घंटे पहले गुजरात के एक शहर में हार्दिक पटेल नाम का युवा 5 लाख लोगों की भीड़ इकट्ठा कर मोदी के लिए एक नई चुनौती खड़ी कर रहा था.

गुजरात के सूरत शहर की सूरत 6 घंटों के लिए बदल सी गई थी. सूरत के कपोद्रा इलाके में हुई रैली में पटेल समुदाय के

5 लाख से ज्यादा लोग मौजूद थे. भीड़ में ‘जागो पाटीदार, जय सरदार’ का नारा गूंज रहा था. हार्दिक पटेल को इस के पहले तक गुजरात में लोग ठीक से नहीं जानते थे. गुजरात के भाजपा नेता भारत भाई पटेल का बेटा होने के बावजूद हार्दिक पटेल के सामने अपना कद बनाने की चुनौती थी. इस के लिए हार्दिक पटेल ने अपने पिता की पार्टी की सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. 6 जुलाई, 2015 को गुजरात के मेहसाणा से शुरू हुआ ‘पाटीदार अनामत आंदोलन समिति’ पहला प्रदर्शन. कुछ हजार लोग ही जुटे थे इस रैली में और 2 महीनों में ही लाखों लोग रैलियों में जुटने लगे हैं. पाटीदार पटेल जाति का ही दूसरा नाम है.

घबरा कर नरेंद्र मोदी सरकार ने उस पर देशद्रोह के आरोप लगा कर उसे बंद कर दिया है. पर वे उसे कमजोर कर पाएंगे, इस में संदेह है. इस तरह के मामलों में जेल तो प्रतिष्ठा दे देती है, खासतौर पर जब बंदी लोकप्रिय हो चुका हो.

 इन दिनों गुजरात की सब से संपन्न व राजनीतिक और सामाजिक ताकत वाली पटेल जाति पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण को पाने के लिए राज्यभर

में आंदोलन चला रही है. आरक्षण का प्रावधान सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए है और कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि पटेलों को किसी भी तरीके से पिछड़ा माना जा सकता है. लेकिन आरक्षण अब सामाजिक न्याय का औजार नहीं रहा, वह ताकतवर जातियों के लिए सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने का खेल हो गया है. गुजरात में पटेलों का आरक्षण आंदोलन सत्ता में अपने को और मजबूत करने का खेल है. इस आंदोलन ने गुजरात की राजनीति में भूचाल ला दिया है. पटेल समाज मांग कर रहा है कि उसे भी अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी की श्रेणी में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया जाए.

गुजरात के पटेल कोई सामान्य जाति नहीं, समृद्ध और सत्तासंपन्न जाति के माने जाते हैं. लाखों गुजराती पश्चिमी देशों में बसे हुए हैं जहां वे अपना व्यापारधंधा करते हैं. गुजरात में रहने वाले पटेल भी कुछ कम नहीं हैं. हर क्षेत्र में उन का खासा दबदबा है. नरेंद्र मोदी के गुजरात मंत्रिमंडल में आधे से ज्यादा मंत्री पटेल समुदाय के थे. आज भी मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष आर सी फलदु दोनों ही पटेल हैं. 

सियासी भीड़

गुजरात में पटेल समुदाय पिछले कई सालों से भाजपा का समर्थक माना जाता है. 1985 में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने एक नया प्रयोग किया था, जिसे ‘खाम’ के रूप में जाना जाता है. खाम यानी क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुसलिम. तब ओबीसी आरक्षण को ले कर पटेलों और अन्य पिछड़े वर्ग के बीच काफी हिंसा हुई थी. पटेल तभी से कांग्रेस से नाराज माने जाते हैं. शायद यही कारण है कि आज गुजरात में भाजपा पर पूरी तरह से पटेलों का प्रभुत्व माना जाता है.

बहुत से राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस आंदोलन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को चुनौती दी जा रही है. इसी कारण भाजपा इस आंदोलन से सकते में है और आंदोलन को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश में जुटी है. जिस तरह से यह आंदोलन तेजी से पूरे राज्य में फैल रहा है, उस से भाजपा चिंतित है. गुजरात में अक्तूबर में महानगर पालिका और नगर पालिका के चुनावों में परिणाम दिख गए जिन में भाजपा को इस का खमियाजा भुगतना पड़ा. यही कारण है कि यह पूरा मामला राजनीतिक तौर पर संवेदनशील बनता जा रहा है.

आंदोलन के धीमी आंच पर सुलगने के बावजूद सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं कह रही, क्योंकि इस मुद्दे पर कोई भी टिप्पणी करना फायदे से ज्यादा नुकसान कर सकता है. गुजरात में करीब 20 फीसदी आबादी पटेल समाज की है. यह समुदाय 2 दशकों से भाजपा के साथ रहा है. इस आंदोलन के संयोजक हार्दिक पटेल आंदोलन की सार्थकता के पक्ष में दलील देते हुए कहते हैं कि यों तो उन के समुदाय को आर्थिक दृष्टि से मजबूत माना जाता है लेकिन इस में करीब 40 फीसदी लोगों की हालत इस से अलग है और इसलिए सरकार को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देना चाहिए.

यह आंदोलन शुरू होने की कथा भी काफी दिलचस्प है. कुछ महीनों पहले राज्य सरकार ने पुलिस के 1,000 पद निकाले  लेकिन जब भरतियां हुईं तो पटेल या पाटीदार समुदाय के केवल 100 से कुछ ही ज्यादा पद थे जो उन की जनसंख्या की तुलना में भी कम थे. यह बात जब फैली तो पाटीदार समाज को बहुत खटकी.

अकसर सरकारी भरतियों में पाटीदार समाज के खासी संख्या में लोग होते थे. लेकिन राज्य की आरक्षण व्यवस्था के कारण पटेलों का प्रतिशत कम हुआ.

20 प्रतिशत आबादी वाले समुदाय को 20 प्रतिशत से कम पद मिले. तब से पटेलों में यह बात पैठ कर गई है कि केवल आरक्षण के जरिए ही सत्ता पर अपना वर्चस्व और पकड़ को मजबूत रखा जा सकता है. बिना आरक्षण के तो सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उन की संख्या कम होती जाएगी. इसलिए वे अपने को पिछड़े वर्ग में शामिल करने और आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

आरक्षण आंदोलन से जुड़े एक नेता ने कहा कि उन के बच्चों को अच्छे नंबर पाने के बावजूद अच्छे कालेजों में प्रवेश नहीं मिल पा रहा. यदि पटेलों को ओबीसी में शामिल किया गया तो ही भावी पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित हो पाएगा.

पिछड़ा कौन

पटेल समुदाय की यह भी दलील है  कि गुजरात राज्य में आबादी का बड़ा हिस्सा होने के बावजूद पाटीदार समाज को सरकारी भरती में मौजूदा आरक्षण प्रणाली के चलते योग्य प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. इसलिए इस समाज को भी शैक्षणिक व अन्य पिछड़े वर्गों की आरक्षण व्यवस्था में शामिल कर के उचित न्याय दिया जाना चाहिए.

पटेल समाज अधिकांशतया गांवों में रहता है और खेती पर आधारित है. सीमित आय के संसाधन एवं अनियमित मौसम के चलते इस किसान समुदाय की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय है. इस का अनुमान प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के आकंड़ों से लगाया जा सकता है. लेकिन पटेल समाज इस बात का खयाल नहीं कर रहा कि क्या कोई आयोग पटेलों की राजनीतिक रूप से ताकतवर, बड़ी जाति वाली, व्यापारिक तौर पर संपन्न, विदेशों में 200 साल से व्यापार करने वाली जाति को पिछड़ा मान सकता भी है या नहीं.

आरक्षण ने आज समाज की धारा को ही बदल दिया है. एक वक्त था जब अंगरेजों ने जनगणना कराई थी और निम्न जाति के लोगों में अपने को ऊंची जाति का लिखाने की होड़ लग गई थी. हर कोई सामाजिक श्रेणी क्रम में ऊंची सीढ़ी हासिल करना चाहता था. लेकिन आरक्षण के प्रावधान ने इस धारा को उलट दिया है. अब सशक्त जातियों में पिछड़ों में शामिल होने की होड़ लग गई है. आज देश का नजारा यह है कि देश के कई हिस्सों में सशक्त जाति पिछड़ी जातियों वाला आरक्षण पाने की होड़ में लगी हैं. सशक्त जातियां सामाजिक रूप से पंगु जातियों के लिए बनी आरक्षण  की बैसाखी को पाना चाहती हैं.

 केवल गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी  ऐसा ही हुआ है. कुछ समय पहले तक लोगों में अपने को ऊंची जाति का बताने की होड़ थी. आरक्षण ने इस प्रवृत्ति को बदल दिया.

अब फौरवर्ड जातियों में अपने को पिछड़ा साबित करने की होड़ है. इस का उदाहरण है-महाराष्ट्र की मराठा जाति. कभी मराठा जाति के लोग अपने को क्षत्रिय कहते थे. आज वे अपने को पिछड़ा साबित करने में लगे हैं. मराठा महाराष्ट्र की एक जाति है जिस में युद्ध करने वाले भी हैं और खेती करने वाले भी.

महाराष्ट्र में मराठा जाति पंजाब और हरियाणा के जाटों की तरह राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त हैं. इस जाति के लोग शिवाजी को अपना महानायक मानते हैं क्योंकि उन्होंने इसे सत्तासंपन्न बनाया. आज यह जाति राज्य की राजनीति पर हावी है. ज्यादातर मुख्यमंत्री और मंत्री इसी जाति के रहे हैं.

राजनीति में इस समुदाय को अपनी संख्या से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. 35 प्रतिशत आबादी वाली इस जाति को राज्य विधानसभा में 43 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हासिल है. पंचायतों, पंचायत समिति और जिला परिषदों पर भी उस का कब्जा है.

हिंसक चेहरा

कुछ माह पहले आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले में कापू समुदाय के लिए आरक्षण की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों ने जम कर हिंसा की थी. हिंसक आंदोलन में कई ट्रेनों को आग लगा दी थी. गौरतलब है कि कापू समुदाय आंध्र प्रदेश में प्रमुख रूप से सीमावर्ती जिलों में रहते हैं जिन में उत्तरी तेलंगाना और रायलसीमा इलाके प्रमुख हैं. इस समुदाय को अगड़ी जातियों में शुमार किया जाता है लेकिन यह समुदाय पिछड़े वर्ग में शामिल हो कर आरक्षण की मांग कर रहा है. दरअसल पिछले साल आंध्र प्रदेश सरकार ने इस समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल करने की घोषणा की थी लेकिन वादा पूरा होते न देख कापू समुदाय ने भी जाट आरक्षण आंदोलन की तर्ज पर चक्का जाम, आगजनी की घटनाओं को अंजाम दिया.

आर्थिक रूप से वह खासा सशक्त है. इस समुदाय के पास जमीनजायदाद है. चीनी कारखाने, कोऔपरेटिव, कोऔपरेटिव बैंक, शिक्षा संस्थाएं जो महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन पर इस जाति का ही नियंत्रण है. इन सब के बल पर मराठाओं ने सत्ता पर भी अपनी पकड़ मजबूत  कर रखी  है. मगर तब भी उन्हें आरक्षण चाहिए.

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग नई नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन चल रहा था. गोपीनाथ मुंडे और छगन भुजबल जैसे ओबीसी जातियों के नेता शुरुआत में आरक्षण का विरोध कर रहे थे. उन का मानना था कि मराठा जाति राज्य की राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त जाति है, उसे आरक्षण देना आरक्षण का मजाक है. तब उन्हें आशंका थी कि पिछड़ों के आरक्षण में से मराठा जाति को आरक्षण दिया जाएगा. लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया है कि मराठा आरक्षण से पिछड़ों के आरक्षण पर कोई आंच नहीं आएगी, उन्होंने विरोध छोड़ दिया है. और मराठा आरक्षण का समर्थन करने लगे. वैसे मराठा जाति की विशाल आबादी को देखते हुए कोई भी राजनीतिक दल  मराठा आरक्षण का विरोध नहीं करता.

राज्य सरकार ने आखिरकार उन्हें आरक्षण दे भी दिया जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया. अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में भी आरक्षण का वही हश्र हो सकता है क्योंकि मराठा आरक्षण मिलने के बाद राज्य में आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगा.

दरअसल, सशक्त और संपन्न जातियों को आरक्षण देना आरक्षण के सिद्धांत का मजाक उड़ाना है. पर अब सरकारी नौकरियों में घुसने का रास्ता ही यह बचा है. कई बार तो ऐसी जातियों को खुश करने के लिए सरकारें आरक्षण दे भी देती हैं. महाराष्ट्र में ऐसा ही हुआ. सरकार को पता था कि मराठा समुदाय को आरक्षण देने

पर आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगा और कोर्ट उसे खारिज कर देगा. हुआ भी यही. महाराष्ट्र सरकार ने आरक्षण दिया जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया.

पटेलों ने इस से सबक ले कर अपने को ओबीसी सूची में शामिल करने की बात की है. इस से दूसरी ओबीसी जातियों और पटेलों में तनाव पैदा होगा. आखिर पटेलों से कमतर ओबीसी जातियां नहीं चाहेंगी कि उन के आरक्षण में पटेल समुदाय की भी हिस्सेदारी हो जाए. इस तरह पटेल आरक्षण की मांग ने गुजरात भाजपा के लिए नया सिरदर्द पैदा कर दिया है जिस से छुटकारा पाना आसान नहीं है.

सामाजिक इकाइयां जिस तरह विघटन की ओर जा रही हैं, उस में भाजपा सरीखी पार्टियों की भूमिका अहम रही है. पिछले 30-40 सालों में जिस तरह सियासी दल अलगाव की नीति अपना कर देश, समाज, परिवार को जाति, धर्म व आर्थिक मोरचे पर तितरबितर कर वोटबैंक की रणनीति अपना रहे हैं उस से लोगों में वैमनस्य व दूरियां बढ़ी हैं. यह विघटन पहले हिंदूमुसलिम, अगड़ीपिछड़ी जातियों, ओबीसीदलित और शहर, गांव व कसबों के बीच होता था. सांप्रदायिक दंगे और दलित व सवर्णों के बीच की लड़ाइयां बढ़तेबढ़ते आरक्षण आंदोलनों तक पहुंच चुकी हैं. लेकिन इन सब प्रक्रियाओं में विघटन का एक खतरनाक रूप सामने आया है वह है परिवारों में विघटन. सैकड़ों सालों से एक ही छत के नीचे रहने वाले परिवार अब बिखर रहे हैं. साथ रहना तो दूर, एक चूल्हे से बना खाना तक नहीं खाते. दफ्तरों व बाहर सफर के दौरान टिफिन शेयर करना भी प्रचलन से बाहर हो गया है. परस्पर भरोसे की भावना पूरी तरह से दम तोड़ चुकी है. आपसी मतभेद उभर गए हैं और संपत्ति के लिए सासबहू, बापबेटा एकदूसरे का खून करने से परहेज नहीं करते.

यह पारिवारिक टूटन कहीं न कहीं राजनीतिक दलों की अलगावभरी राजनीति का प्रतिबिंब है जो घरघर में जहर बन कर विघटन की नई कब्र खोद रही है. यह देश, समाज व परिवार के आर्थिक, सामाजिक व राजनीति धरातल के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है.

हल्ला आरक्षण पर और काम टांयटांय फिससरकारी नौकरियों में आरक्षण को ले कर हल्ला अब उतना ही आम हो चला है जितना इस बात पर होता रहता है कि आम लोगों के काम नहीं हो रहे, चारों तरफ भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व भाईभतीजावाद है और सरकारी अफसर एक नंबर के निकम्मे व घूसखोर हैं.

हर किसी को आएदिन सरकारी मुलाजिमों से काम पड़ता है, हजार में से एक ही मिलेगा जो यह कहे कि उस का काम कुछ लिएदिए बगैर आसानी से हो गया था वरना बाकी 999 सरकारी दफ्तरों में जा कर बेबस और खीझे ही नजर आते हैं. सरकारी सिस्टम में ईमानदारी, लगन और मेहनत से काम होने या करने की बातें किताबी भर हैं.

इस हालत पर कोई चूं नहीं करता, न ही विरोध, प्रदर्शन करता लेकिन बीती 30 अप्रैल को मध्य प्रदेश के जबलपुर हाईकोर्ट ने एक फैसले में जब यह कहा कि प्रमोशन में आरक्षण नाजायज है तो देशभर में हल्ला मच उठा. सामान्य वर्ग वालों ने इस फैसले का स्वागत किया और आरक्षित वर्ग वालों ने एतराज जताया. आरक्षण वाले मुलाजिमों की तरफ से मध्य प्रदेश सरकार भागीभागी सुप्रीम कोर्ट गई और इस फैसले पर 12 दिनों में ही स्टे और्डर ले आई यानी अगली सुनवाई तक हाईकोर्ट का फैसला रद्द रहेगा.

इसी दौरान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपने एक आदेश में यह फरमान जारी कर डाला कि अब उच्च शिक्षा विभाग में पिछड़े वर्ग के प्राध्यापकों को दी जा रही आरक्षण व्यवस्था खत्म की जाती है पर हैरतअंगेज तरीके से कुछ दिनों बाद ही आयोग ने इस आदेश को वापस भी ले लिया और आरक्षण व्यवस्था यथावत रखने के निर्देश विश्वविद्यालयों को दिए. जाहिर है सरकार पिछड़े वर्ग के प्राध्यापकों से किसी तरह का बैर नहीं लेना चाहती.

जबलपुर हाईकोर्ट का फैसला इस लिहाज से भी अहम है कि अधिकांश लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि आखिर नौकरी में प्रमोशन के इंतजाम हैं या नहीं. इस बाबत 2 दर्जन लोगों ने हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर कर रखी थीं कि प्रमोशन में आरक्षण नाजायज है. हाईकोर्ट ने इन याचिकाकर्ताओं से इत्तफाक रखते साफ किया कि नौकरी देने में तो आरक्षण के इंतजाम हैं पर पदोन्नति में आरक्षण को जायज नहीं माना जा सकता क्योंकि इस में सामान्य वर्ग वाले को एससी, एसटी और ओबीसी से वरिष्ठता के मामले में नीचे रखा जाता है.

इस फैसले से आम लोगों की यह गलतफहमी भी दूर हो गई कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने के बाबत संविधान में इंतजाम हैं. दरअसल, सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने का फैसला राज्य सरकार ने साल 2002 में लिया था. जिस के तहत यह इंतजाम किया गया था कि पदोन्नति में एससी वर्ग के लिए 16 फीसदी और एसटी वर्ग के लिए 20 फीसदी आरक्षण रहेगा. इस के लिए बाकायदा रोस्टर बनाया गया था. आरक्षण पर खार खाए बैठे सवर्ण मुलाजिम कोर्ट गए तो इस नए इंतजाम में अदालत ने कई खामियां पाईं हालांकि राज्य सरकार को एक हद तक आरक्षण के बारे में फैसला ले कर नियम बनाने का हक है. 2002 के बाद धड़ल्ले से प्रमोशन में एससी, एसटी वर्ग के मुलाजिमों को फायदा मिला, पर हाईकोर्ट ने साफ यह भी कहा कि जो मुलाजिम इस नियम के तहत प्रमोशन का फायदा ले चुके हैं

उन्हें वापस अपने ओहदे पर जाना होगा यानी फायदा छोड़ना होगा. इस तरह कोई 38 हजार कर्मचारी इस प्रमोशन के दायरे में आ रहे थे जबकि 42 हजार और कर्मचारियों को नुकसान होना तय दिख रहा था.फैसले पर सामान्यवर्ग के लोगों ने खूब जश्न मनाया और पटाखेफुलझडि़यां छोड़े. लेकिन राज्य सरकार तुरंत सुप्रीम कोर्ट गई तो वहां उसे राहत मिली पर वह फौरी तौर पर ही मिली कही जाएगी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने हालफिलहाल यह कहा है कि जोजहां जिस हालत में है वह वहीं रहेगा यानी अब न प्रमोशन होगा, न ही किसी का डिमोशन होगा. अगली सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर के तीसरे हफ्ते का वक्त तय किया है. अब राज्य सरकार क्या दलील देती है, यह देखना दिलचस्प होगा.

काम पर चुप्पी क्यों

कोर्ट के इन दोनों फैसलों को कानून के जानकार बारीकी से पढ़ रहे हैं और मुलाजिम होहल्ला मचा रहे हैं पर किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा कि अगर प्रमोशन में आरक्षण मिले या न मिले, काम करने के पैमाने पर नफानुकसान क्या है और किस का है.इन फैसलों का सरकारी मुलाजिमों के काम से कोई लेनादेना नहीं है, जो आम लोगों की असल परेशानी है. किसी भी दफ्तर में चले जाइए, जिस से आप को काम है वह सीट से नदारद मिलेगा. यदि मिल भी गया तो इतनी चालाकी से आप को टरकाएगा कि आप हैरान रह जाएंगे. अभी यह नहीं है, वह नहीं है, यह गलत है, वह कौलम पूरा नहीं भरा, यह काम नियम के खिलाफ है, कल आइए, फलां के पास जाइए जैसे ढेरों रेडीमेड जवाब आप को दे दिए जाएंगे.काम न करने की इस आदत का आरक्षण से कोई लेनादेना नहीं है. कर्मचारी चाहे आरक्षित वर्ग का हो या अनारक्षित वर्ग का, उस ने तो काम न करने की या घूस लिए बगैर काम न करने की कसम खा रखी है.

सरकारी कर्मचारियों की तरफ से बेफिक्रीभरी धौंस इसलिए दी जाती है कि सरकारी नौकर का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. उसे पूरी तरह नौकरी से निकाल पाना तो उस सरकार के बूते की भी बात नहीं जो उसे काम करने के लिए नौकरी देती है. जब लोग ज्यादा परेशान हो जाते हैं तो लोकायुक्त पुलिस से घूस मांगे जाने की शिकायत कर देते हैं. जो मुलाजिम घूस लेते पकड़े जाते हैं उन्हें सस्पैंड कर दिया जाता है. मुकदमा चलता है तो कई बार समझौता हो जाता है या आरोप ही साबित नहीं हो पाता. जिन में आरोप साबित हो जाता है उन में घूसखोर को सजा हो जाती है लेकिन ऐसे मुलाजिमों की कुल तादाद आधा फीसदी भी नहीं है.

निजी फायदा

सरकारी नौकरी की तरफ लोगों का खिंचाव अनापशनाप सहूलियतों की वजह से भी है जिन में छुट्टियों की भरमार, हर साल बढ़ते वेतन, महंगाई भत्ते सहित दूसरे भत्ते बढ़ाने के लिए ये लोग अकसर प्रदर्शन भी करते हैं.आरक्षण पर सियासत होती है, इस में शक नहीं. लेकिन पैसों की मारामारी पर कोई सियासत नहीं होती. वजह, इस गंगा में सभी बराबरी से डुबकी लगा कर पुण्य कमाते यानी फायदा उठाते हैं.एक बार जो सरकारी नौकरी में घुस गया, उस की जिंदगी बन जाती है. यही बेफिक्री उसे अलाली, लापरवाही और भ्रष्टाचार के लिए शह देने वाली होती है. यही वजह है कि सरकारी चपरासी तक बनने के लिए हाईस्कूल, हायरसैकंडरी तो दूर की बात है पीएचडी कर चुके उम्मीदवार तक लाइन में लगे नजर आते हैं. यह हालत आरक्षित और अनारक्षित वर्ग दोनों में बराबरी से है.

आरक्षित कैटेगरी के लोग अब तेजी से पढ़ रहे हैं और प्राइवेट नौकरियों में न के बराबर हैं क्योंकि उन का मकसद ही सरकारी नौकरी हासिल करना होता है. लेकिन इस तबके में भी बढ़ती होड़ के चलते मारामारी मचने लगी है इस तबके के भी हजारों पढ़ेलिखे नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं.ऐसे में पदोन्नति में आरक्षण पर रोनागाना और होहल्ला सभी का मिलाजुला ड्रामा है कि जिस में काम की क्वालिटी को सुधारने की बात कहीं नहीं हो रही, बात ज्यादा से ज्यादा पैसा और लूट में अपना हिस्सा तय करने की हो रही है.                                   
– भारत भूषण श्रीवास्तव

मथुरा कांड: राजनीतिक संरक्षण या प्रशासनिक चूक

धर्म का प्रचार करने वाले बाबा धार्मिक शिक्षा देने का आडंबर करते हैं. रूढि़वादी विचारों में फंसे लोग आंख पर धर्म के अंधविश्वास की पट्टी बांध कर इन की बातों पर यकीन कर अपना सबकुछ इन को सौंप देते हैं.  जब इन की सचाई सामने आती है तब लोगों की आंखें खुलती तो हैं पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है. धार्मिक अंधविश्वास का प्रचार करने वाले बाबा टाइप लोग नए आडंबर के सहारे लोगों को बरगलाने में जुट जाते हैं. लोगों को मायामोह से दूर रहने की शिक्षा देने वाले ये बाबा खुद करोड़पति हो जाते हैं. करोड़ों की संपदा कहां से आती है, इस का एक ही जबाव होता है कि यह भक्तों ने दान में दिया है. दान का गणित ही बाबाओें की अमीरी का आधार स्तंभ होता है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के जवाहरबाग राजकीय उद्यान केंद्र की 270 एकड़ जमीन पर स्वाधीन भारत सुभाष सेना के अगुआ रामवृक्ष यादव ने 2 साल से अधिक समय तक अवैध कब्जा कर रखा था. कोर्ट के आदेश के मद्देनजर जिला प्रशासन ने जब अवैध कब्जा हटाने की कोशिश की तो संघर्ष में एसपी सिटी और थानाध्यक्ष सहित 29 लोगों की जान चली गई. इस के पीछे की मूल वजह धार्मिक आडंबर और उस का राजनीतिक संरक्षण है. रामवृक्ष यादव मूलरूप से बाबा जय गुरुदेव का चेला था. जय गुरुदेव मरने से कुछ समय पहले रामवृक्ष यादव को अपने से दूर कर चुके थे. बाबा जय गुरुदेव के मरने के बाद उन की करोड़ों रुपए की जायदाद के बंटवारे को ले कर रामवृक्ष यादव और बाबा के ड्राइवर पंकज यादव के बीच झगड़ा हुआ था. अंत में पंकज यादव बाबा का उत्तराधिकारी बनने में सफल रहा. इस बात का मलाल रामवृक्ष यादव को हमेशा रहा. रामवृक्ष ने बाबा जय गुरुदेव की ही तरह आश्रम बनाने का फैसला किया. जिस के फलस्वरूप उस ने मथुरा के जवाहरबाग पर कब्जा किया. जय गुरुदेव की ही तरह रामवृक्ष यादव ने भी अपने राजनीतिक संबंध बनाए हुए थे. इस कारण ही उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा रामवृक्ष को लोकतंत्र सेनानी पैंशन भी दी गई. जो व्यक्ति सरकारी संपत्ति पर अवैध कब्जा करने का दोषी हो उस को सरकारी पैंशन दिए जाने का फैसला सवालों के घेरे में है.

जय गुरुदेव से प्रभावित रामवृक्ष

रामवृक्ष के गुरु जय गुरुदेव उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के खितौरा गांव के रहने वाले थे. जय गुरुदेव का असली नाम तुलसीदास था. उन के बचपन के संबंध में लोगों को बहुत कम जानकारी है.  बचपन में ही उन के पिता का देहांत हो गया था. उन के पिता इलाके के यादव जाति के जमींदार थे. उन की माता ने ही उन का पालनपोषण किया. 7 साल की उम्र में उन की मां का भी देहांत हो गया था. मरने से पहले मां ने तुलसीदास से भगवान की खोज करने और शादी न करने की बात कही थी. भगवान की खोज में घर से निकले तुलसीदास को अलीगढ़ की इगलास तहसील के चिरौली गांव में घूरेलाल शर्मा मिले. वे सालों इन के पास रहे. यही उन के पहले गुरु बताए जाते हैं. घूरेलाल के साथ रहतेरहते वे बाबा बन गए थे. 1948 में घूरेलाल के देहांत के बाद तुलसीदास यहां से मथुरा पहुंचे और 1953 में अपने गुरु के स्थान चिरौली के नाम पर चिरौली संत आश्रम की स्थापना की. 1962 में तुलसीदास ने मथुरा में ही आगरा-दिल्ली हाइवे पर आश्रम बना कर अपने मिशन को विस्तार देना शुरू किया. तुलसीदास अपने काम को करने से पहले जय गुरुदेव का शंखनाद करते थे. इसी वजह से तुलसीदास को उन के समर्थक जय गुरुदेव कहने लगे. और वे बाबा जय गुरुदेव बन गए.

अध्यात्म की राह पर चलने की बात करने वाले बाबा जय गुरुदेव अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाना चाहते थे. वे खुद को नेताजी सुभाष चंद्र बोस मानते थे. जनवरी 1975 में यह बात फैलाई गई कि 23 जनवरी के दिन कानपुर में सुभाष चंद्र बोस सब के सामने प्रकट होंगे. नेताजी को देखने के लिए हजारों की भीड़ जुट गई थी. तय समय पर सफेद दाढ़ी में एक व्यक्ति पहुंचा. उसे देख कर भीड़ नेताजी जिंदाबाद के नारे लगाने लगी. जैसे ही इस आदमी ने भाषण देना शुरू किया, सचाई खुल गई. लोगों ने मंच पर ईंटपत्थर चलाने शुरू कर दिए. पुलिस ने बीचबचाव कर के बाबा को वहां से निकाला था. देश में आपातकाल के दौरान दूसरे नेताओं की तरह बाबा जय गुरुदेव को भी जेल जाना पड़ा. रामवृक्ष यादव भी इसी दौरान जेल में था.

सफल न हो सकी दूरदर्शी पार्टी

बाबा जय गुरुदेव इस दौरान यह समझ चुके थे कि राजनीतिक ताकत हासिल करना जरूरी होता है. इस विचार पर चलते हुए उन्होंने ‘दूरदर्शी पार्टी’ का गठन किया. 1989 के लोकसभा चुनावों में 12 राज्यों में उन की पार्टी ने 289 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. पर इस पार्टी का एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया. दूरदर्शी पार्टी के लोग टाट से बने कपडे़ पहनते थे. ज्यादातर साइकिल से ही अपनी यात्राएं करते थे. ये लोग मांस नहीं खाते थे और शाकाहार का समर्थन करते थे. बाद के कुछ विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में  ‘दूरदर्शी पार्टी’ के उम्मीदवार चुनाव लडे़ जरूर पर सफल नहीं हुए. धीरे धीरे बाबा जय गुरुदेव राजनीति से दूर होते गए और अपने आश्रम के विस्तार पर लग गए. इस समय तक बाबा जय गुरुदेव के कई बडे़ नेताओं से संबंध बन चुके थे. कांग्रेस और भाजपा से दूर वह समाजवाद की राह पर चलने वाले नेताओं के बेहद करीब हो गए.

दूरदर्शी पार्टी भले ही सफल न हो सकी हो पर धर्म और अध्यात्म के सहारे बाबा जय गुरुदेव का साम्राज्य बढ़ता जा रहा था. 18 मई, 2012 को जब बाबा जय गुरुदेव की मौत हुई तो उन के नाम 4 हजार करोड़ रुपए की संपत्ति, 100 करोड़ रुपए नकद और 150 करोड़ रुपए की महंगी गाडि़यां थीं. साल 2000 में उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम ने जय गुरुदेव के खिलाफ अलगअलग अदालतों में जय गुरुदेव के आश्रम पर औद्योगिक जमीन के हड़पने का आरोप लगाया था. मथुरा के जिलाधिकारी कार्यालय को भी बाबा के आश्रम द्वारा किसानों की जमीन हड़पने की शिकायतें मिली थीं. दूरदर्शी पार्टी के टिकट पर ही रामवृक्ष यादव ने गाजीपुर से पहले लोकसभा और बाद में विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा था.

आश्रम के प्रभाव में रामवृक्ष

मथुरा में आगरा-दिल्ली हाइवे पर 150 एकड़ जमीन पर बाबा जय गुरुदेव का आश्रम बना है. यहां उन के अनुयाइयों का आनाजाना लगा रहता है. व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सुधारने का संकल्प ले कर जय गुरुदेव धर्म प्रचारक संस्था और जय गुरुदेव धर्म प्रचारक ट्रस्ट सहित कई संस्थाएं चल रही हैं. यहां पर बड़ी संख्या में किसान आते हैं. दूरदर्शी पार्टी के समय से ही पार्टी में भूमिजोतक खेतिहर काश्तकार संगठन भी चल रहा है. आश्रम के जरिए तमाम स्कूल और अस्पताल जैसी संस्थाएं भी चल रही हैं. मथुरा के आसपास का पानी स्वाद में खारा होता है पर आश्रम का पानी मीठा होने के कारण यहां से कई गांवों को पीने का पानी दिया जाता है. आश्रम की करीब 80 एकड़ जमीन पर आधुनिक तरीके से खेती होती है. इसी से ही आश्रम की भोजन व्यवस्था चलती है. आश्रम में आधुनिक सुविधा वाले गेस्टहाउस, गोशाला, आटाचक्की और मोटर वर्कशौप व कई बड़े भोजनालय हैं.

आश्रम में 160 फुट ऊंचा योग साधना मंदिर है. यह सफेद संगमरमर का बना है. दूर से यह ताजमहल जैसा दिखता है. अपने क्षेत्र का यह सब से ऊंचा और अनोखा मंदिर है. इस में 200 फुट लंबा और 100 फुट चौड़ा हौल है. 60 हजार व्यक्ति इस में एकसाथ बैठ सकते हैं. इस में बने ताज का मूल ढांचा तांबे का बना है. उस पर सोने की पर्त चढ़ी है. यहां कोई मूर्ति नहीं है. यहां हर साल नवंबर माह में आध्यात्मिक मेला लगता है.  जिस में देशविदेश से लोग शामिल होते हैं. बाबा जय गुरुदेव की इसी सल्तनत पर कब्जे को ले कर रामवृक्ष यादव लगातार प्रयास में था. इस बात की जानकारी बाबा को अपने जिंदा रहते ही मिल गई थी. रामवृक्ष यादव बाबा के समय से ही गलत काम करने लगा था. अपनी मौत से कुछ साल पहले बाबा ने रामवृक्ष से संबंध खत्म कर लिए थे. रामवृक्ष का आरोप था कि बाबा के उत्तराधिकार का हक पंकज यादव ने गलत तरह से हासिल किया है. इस बात को ले कर वह आंदोलन करने लगा था. रामवृक्ष भी बाबा जैसा आश्रम और प्रभाव बनाना चाहता था.

रामवृक्ष बना स्वंयभू बाबा

बाबा जय गुरुदेव से दूर होने के बाद भी रामवृक्ष खुद को उन से अलग नहीं कर  पाया था. वह बाबा जैसी ही ताकत हासिल करने की होड़ में जुट गया. इस के लिए उस ने स्वाधीन भारत सुभाष सेना का गठन किया. रामवृक्ष कहता था कि सुभाष चंद्र बोस आने वाले हैं. उन के आते ही देश के हालात बदल जाएंगे. कुछ समय के बाद रामवृक्ष के लोगों ने रामवृक्ष को ही सुभाष चंद्र बोस बताना शुरू कर दिया. रामवृक्ष कहता था कि उस के आंदोलन का मकसद देश में आजाद हिंद सरकार की स्थापना है. यही कह कर रामवृक्ष ने अपने 3 हजार लोगों के साथ 14 जनवरी, 2014 को मध्य प्रदेश के सागर जिले से संदेश यात्रा शुरू की. रामवृक्ष के ज्यादातर लोग लड़ाके टाइप के थे. ये लोग देश के तमाम हिस्सों से आए थे. रामवृक्ष इन लोगों से समयसमय पर मिलता था और इन लोगों को बाहर के लोगों से बातचीत करने के लिए मना कर रखा था. ये सब रामवृक्ष को बाबा कहने लगे थे.

14 मार्च, 2014 को रामवृक्ष यादव ने अपने लोगों के साथ मथुरा के जय गुरुदेव पैट्रेल पंप पर मारपीट की और जय गुरुदेव के मृत्यु प्रमाणपत्र की मांग को ले कर जवाहरबाग राजकीय उद्यान में कब्जा कर रहना शुरू कर दिया. 9 मई को मृत्यु प्रमाणपत्र पाने के बाद भी इन लोगों ने जवाहर बाग खाली नहीं किया. धीरेधीरे इन लोगों ने जवाहरबाग में अपने लोगों की संख्या बढ़ानी शुरू कर दी. हालात यहां तक बन गए कि रामवृक्ष के लोगों ने उद्यान विभाग की संपदा को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया. जवाहरबाग में रामवृक्ष की पूरी सरकार चलती थी. यहां किसी के आनेजाने पर रोक थी. आनेजाने वाले को पूरा विवरण लिख कर जाना होता था. उद्यान विभाग के कर्मचारियों ने यहां अपने औफिस और आवास आना बंद कर दिया था. जिला प्रशासन से ले कर राजधानी लखनऊ में बैठे उच्चाधिकारियों तक को पूरा मामला पता था इस के बाद भी किसी में बाबा रामवृक्ष से टकराने का साहस नहीं था.

अपनी सेना, अपने हथियार

बाबा रामवृक्ष की अपनी सेना और अपने हथियार थे. यहां बहुत सारे ऐसे लोग भी थे जिन को बाबा के आंदोलन और सत्याग्रह का कोई मतलब पता नहीं था. वे पूरी तरह से बहकावे में फंस गए थे. बाबा ऐसे लोगों को बाहर नहीं जाने देता था. बाबा को पता था कि जब तक ऐसे लोगों की संख्या उस के साथ है, कोई उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा. जब प्रशासन पूरी तरह से नाकाम हो चला तो मामला अदालत तक गया. 20 मई, 2015 को विजयपाल तोमर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में हाईकोर्ट ने जवाहरबाग खाली कराने का आदेश दिया था. जिस के बाद बातचीत करने के लिए मथुरा के एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और थाना प्रभारी संतोष कुमार यादव जवाहरबाग गए थे. रामवृक्ष और उस के अनुयाइयों को लगा कि पुलिस उन को जबरन यहां से हटाने आई है. ऐसे में इन लोगों ने घेर कर पहले एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी की पीटपीट कर हत्या कर दी. जब थानाप्रभारी संतोष यादव ने उन को बचाने की कोशिश की तो उन को गोली मार दी. पुलिस ने जवाहरबाग की दीवार तोड़ दी तो रामवृक्ष के लोगों ने अंदर झोपडि़यों में आग लगा कर पुलिस को रोकने का प्रयास किया. जवाहरबाग में मौजूद बहुत सारे लोग भागने लगे. जवाहरबाग हादसे में 2 पुलिसकर्मियों सहित 29 लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में बहुतों की पहचान कई दिनों तक नहीं हो पाई. जेल में बंद रामवृक्ष के सहयोगी हरीनाथ ने एक शव की पहचान रामवृक्ष यादव के रूप में की.

जवाहरबाग कांड ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरम कर दिया. विरोधी भारतीय जनता पार्टी ने इसे समाजवादी पार्टी के नेताओं से जोड़ कर देखना शुरू किया. उस ने इस मसले में प्रदेश सरकार के मंत्री शिवपाल यादव को निशाने पर लिया है. इस पूरे प्रकरण को ले कर अखिलेश सरकार बैकफु ट पर है.

ऐसा भी होता है

हम लोग दुर्गापुर नएनए आए थे. मेरे पति का तबादला वहां हुआ था. वे एक सरकारी नौकरी में हैं. संयोग से उस समय पति की तबीयत बहुत खराब थी. हम लोग दिल्ली में उन का इलाज करा कर दुर्गापुर जौइन करने गए थे. हम लोग होटल में रुके थे. मैं इस चिंता में थी कि होटल में इन का परहेज कैसे होगा. बीमारी की हालत में होटल का खाना मुश्किल था. मकान लेने तथा सामान शिफ्ट करने में समय लगना था. उसी समय इन के औफिस के एक अधिकारी हमें अपने घर ले गए. वे अकेले रहते थे. परंतु उन के यहां सारी व्यवस्था थी. वे अपना काम छोड़ कर निस्वार्थ भाव से अपनी गाड़ी ले कर हाजिर हो जाते थे. आज भी उन्हें याद कर मैं कृतज्ञ हो जाती हूं.

डा. संजु झा, टैगोर गार्डन (न.दि.)

*

हमारे शहर से 200 किलोमीटर की दूरी पर दूसरे शहर में हमारी मौसी का घर था. एक दिन हमारे मामाजी की दुकान पर एक अनजान आदमी ने आ कर बताया कि वह हमारी मौसी के पड़ोस में रहता है, और उन के बारे में एक दुखद सूचना देने आया है. उस ने बताया कि हमारी मौसी का निधन हो गया है. यह सुन कर मामाजी सन्न रह गए क्योंकि मौसी की उम्र भी ज्यादा नहीं थी और वे स्वस्थ थीं. उन दिनों मोबाइल फोन जैसी सुविधा नहीं थी. लैंडलाइन फोन भी सब के घर में नहीं होते थे. मैं तब 10वीं कक्षा में पढ़ती थी, और छुट्टियों में मां के साथ मामाजी के यहां आई हुई थी. हम बच्चों को घर में ठीक से रहने की हिदायत दे कर मेरे मामा, मामी व मां एक टैक्सी ले कर दुखी मन से मौसी के शहर की ओर रवाना हो गए.

जब सब लोग मौसी के यहां पहुंचे तो दरवाजा बंद देख कर सब को कुछ अटपटा सा लगा. मेरे मामाजी ने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी. दरवाजा मौसी ने खोला. उन्हें सहीसलामत देख कर किसी को कुछ समझ नहीं आया कि क्या कहें, क्या न कहें. सब की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे. मौसी उन्हें इस हाल में देख कर समझ नहीं पा रही थीं कि माजरा क्या है. जब सब थोड़े सहज हुए तो मामाजी ने मौसी और मौसाजी को सचाई बताई. सरल स्वभाव की मौसी सब सुन कर हंस पड़ीं और बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, मेरी उम्र बढ़ गई है इस झूठी खबर से.’’ मालूम नहीं मौसी की मौत की खबर देने वाले इंसान से कहीं कुछ गलती हुई थी, या दुकान में भीड़ ज्यादा होने की वजह से मामाजी को कुछ गलतफहमी हो गई थी समझने में. पर यह घटना हम कभी नहीं भूले.

सीमा चौहान, गुवाहाटी (असम)  

आलिया का गुरु कौन?

मुंबई महानगर में पलीबढ़ी कौन्वैंट एजुकेटेड आलिया भट्ट के लिए शुद्ध हिंदी बोलना कठिन होता है. ऐसे में जब आलिया भट्ट ने फिल्म निर्देशक अभिषेक चौबे की फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ में पंजाब के खेतों में काम करने वाली बिहारी मूल की लड़की कुमारी पिंकी का किरदार निभाने का औफर स्वीकार किया, तो उन के सामने सब से बड़ी समस्या थी कुमारी पिंकी के किरदार के साथ न्याय करने के लिए बिहार की भाषा में न सिर्फ बात करना, बल्कि पूरी तरह से बिहारवासियों के लहजे में बात करना. तब आलिया भट्ट ने बिहार राज्य की भोजपुरी भाषा को सीखने के लिए एक गुरु की तलाश शुरू की और उन की यह तलाश जा कर थमी फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ में गणित पढ़ाने वाले शिक्षक पंकज त्रिपाठी पर. पंकज ने 2 महीने आलिया को बिहार की भाषा की ट्रेनिंग दी और तब जा कर आलिया का किरदार उभर कर आया.

लुढ़कता सैंसर और उड़ता पंजाब

फिल्म उड़ता पंजाब को ले कर बीते महीने से सैंट्रल बोर्ड औफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सैंसर बोर्ड) ने काफी हल्ला मचा रखा था. करीब 90 कट्स के साथ फिल्म को क्लियर करने की जिद पर अड़े सैंसर बोर्ड के खिलाफ फिल्म के निर्माताओं ने भी मोरचा खोला और अदालत का दरवाजा खटखटाया. अदालत के दखल के बाद मामला कुछ इस तरह सुलझा कि अब पंजाब तो उड़ता नजर आ रहा है, जबकि सैंसर बोर्ड लुढ़कता नजर आ रहा है. यह पहली बार नहीं हुआ है जब कोर्ट से सैंसर को फटकार मिली हो. बौंबे हाईकोर्ट का, जिस फिल्म पर सैंसर बोर्ड इतनी कैंची चलाने को बेताब था, सिर्फ एक कट के साथ फिल्म रिलीज करने का फैसला बताता है कि सैंसर बोर्ड की जिद कितनी बेमानी थी.

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