पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न हिस्सों में सशक्त जातियां आरक्षण के लिए आंदोलन कर रही हैं. हरियाणा में आरक्षण को ले कर जाट दोबारा आंदोलन कर रहे हैं. जाट, कापू, पटेल, गुर्जर और मराठा जातियां हरियाणा से आंध्र प्रदेश तक फैली हुई हैं. उन में एक बात समान है कि वे अपनेअपने क्षेत्रों की प्रभुत्वसंपन्न, सशक्त और अमीर जातियां हैं. इस के बावजूद  आरक्षण के लिए कोहराम मचाए हुए हैं. देश की ऐसी जातियों को 5वें दशक में  जानेमाने समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने प्रभुजातियां या प्रभुत्वशाली जातियां कहा था. जाट तो उन की प्रभुत्वशाली जाति की कसौटी पर सौ फीसदी खरे उतरते हैं.

श्रीनिवास ने यह नाम उन को दिया था जिन का अपने इलाकों में अच्छीखासी तादाद के कारण अहम स्थान होता है या फिर उन के पास इतनी बड़ी तादाद में जमीन होती है कि जिस के जरिए वे सत्ता के केंद्र बन जाते हैं. हरियाणा के जाटों की तादाद एकचौथाई से ज्यादा है मगर उन के पास हरियाणा की तीनचौथाई जमीन है. इस कारण जाट शब्द जमींदार का पर्याय बन गया है. लेकिन हाल ही में हुए उन के आरक्षण आंदोलनों में इन जातियों में जैसा आक्रोश नजर आया, उस से यह स्पष्ट हो गया कि उन के लिए सबकुछ ठीकठाक नहीं है. तब से लोगों के मन में सवाल है कि प्रभुत्वशाली जातियां होने के बावजूद आरक्षण को ले कर वे इतनी बेकरार क्यों हैं?

आरक्षण की मांग

कई महीनों से नरेंद्र मोदी की जेलों में बंद 22 साल का हार्दिक पटेल गुजरात के 20 प्रतिशत आबादी वाले संपन्न और सशक्त पटेल समुदाय के बीच आरक्षण की मांग का चेहरा बन गया है. लाखों लोग आ रहे थे उस की सभाओं में उसे सुनने के लिए. कुछ राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि वह नरेंद्र मोदी के राज्य में मोदी के लिए चुनौती बनता जा रहा है. कुछ महीनों पहले की ही तो बात है, दुबई के एक क्रिकेट स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक झलक पाने को 40 हजार भारतीय बेताब नजर आए थे. और ठीक 12 घंटे पहले गुजरात के एक शहर में हार्दिक पटेल नाम का युवा 5 लाख लोगों की भीड़ इकट्ठा कर मोदी के लिए एक नई चुनौती खड़ी कर रहा था.

गुजरात के सूरत शहर की सूरत 6 घंटों के लिए बदल सी गई थी. सूरत के कपोद्रा इलाके में हुई रैली में पटेल समुदाय के

5 लाख से ज्यादा लोग मौजूद थे. भीड़ में ‘जागो पाटीदार, जय सरदार’ का नारा गूंज रहा था. हार्दिक पटेल को इस के पहले तक गुजरात में लोग ठीक से नहीं जानते थे. गुजरात के भाजपा नेता भारत भाई पटेल का बेटा होने के बावजूद हार्दिक पटेल के सामने अपना कद बनाने की चुनौती थी. इस के लिए हार्दिक पटेल ने अपने पिता की पार्टी की सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. 6 जुलाई, 2015 को गुजरात के मेहसाणा से शुरू हुआ ‘पाटीदार अनामत आंदोलन समिति’ पहला प्रदर्शन. कुछ हजार लोग ही जुटे थे इस रैली में और 2 महीनों में ही लाखों लोग रैलियों में जुटने लगे हैं. पाटीदार पटेल जाति का ही दूसरा नाम है.

घबरा कर नरेंद्र मोदी सरकार ने उस पर देशद्रोह के आरोप लगा कर उसे बंद कर दिया है. पर वे उसे कमजोर कर पाएंगे, इस में संदेह है. इस तरह के मामलों में जेल तो प्रतिष्ठा दे देती है, खासतौर पर जब बंदी लोकप्रिय हो चुका हो.

 इन दिनों गुजरात की सब से संपन्न व राजनीतिक और सामाजिक ताकत वाली पटेल जाति पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण को पाने के लिए राज्यभर

में आंदोलन चला रही है. आरक्षण का प्रावधान सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए है और कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि पटेलों को किसी भी तरीके से पिछड़ा माना जा सकता है. लेकिन आरक्षण अब सामाजिक न्याय का औजार नहीं रहा, वह ताकतवर जातियों के लिए सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने का खेल हो गया है. गुजरात में पटेलों का आरक्षण आंदोलन सत्ता में अपने को और मजबूत करने का खेल है. इस आंदोलन ने गुजरात की राजनीति में भूचाल ला दिया है. पटेल समाज मांग कर रहा है कि उसे भी अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी की श्रेणी में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया जाए.

गुजरात के पटेल कोई सामान्य जाति नहीं, समृद्ध और सत्तासंपन्न जाति के माने जाते हैं. लाखों गुजराती पश्चिमी देशों में बसे हुए हैं जहां वे अपना व्यापारधंधा करते हैं. गुजरात में रहने वाले पटेल भी कुछ कम नहीं हैं. हर क्षेत्र में उन का खासा दबदबा है. नरेंद्र मोदी के गुजरात मंत्रिमंडल में आधे से ज्यादा मंत्री पटेल समुदाय के थे. आज भी मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष आर सी फलदु दोनों ही पटेल हैं. 

सियासी भीड़

गुजरात में पटेल समुदाय पिछले कई सालों से भाजपा का समर्थक माना जाता है. 1985 में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने एक नया प्रयोग किया था, जिसे ‘खाम’ के रूप में जाना जाता है. खाम यानी क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुसलिम. तब ओबीसी आरक्षण को ले कर पटेलों और अन्य पिछड़े वर्ग के बीच काफी हिंसा हुई थी. पटेल तभी से कांग्रेस से नाराज माने जाते हैं. शायद यही कारण है कि आज गुजरात में भाजपा पर पूरी तरह से पटेलों का प्रभुत्व माना जाता है.

बहुत से राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस आंदोलन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को चुनौती दी जा रही है. इसी कारण भाजपा इस आंदोलन से सकते में है और आंदोलन को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश में जुटी है. जिस तरह से यह आंदोलन तेजी से पूरे राज्य में फैल रहा है, उस से भाजपा चिंतित है. गुजरात में अक्तूबर में महानगर पालिका और नगर पालिका के चुनावों में परिणाम दिख गए जिन में भाजपा को इस का खमियाजा भुगतना पड़ा. यही कारण है कि यह पूरा मामला राजनीतिक तौर पर संवेदनशील बनता जा रहा है.

आंदोलन के धीमी आंच पर सुलगने के बावजूद सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं कह रही, क्योंकि इस मुद्दे पर कोई भी टिप्पणी करना फायदे से ज्यादा नुकसान कर सकता है. गुजरात में करीब 20 फीसदी आबादी पटेल समाज की है. यह समुदाय 2 दशकों से भाजपा के साथ रहा है. इस आंदोलन के संयोजक हार्दिक पटेल आंदोलन की सार्थकता के पक्ष में दलील देते हुए कहते हैं कि यों तो उन के समुदाय को आर्थिक दृष्टि से मजबूत माना जाता है लेकिन इस में करीब 40 फीसदी लोगों की हालत इस से अलग है और इसलिए सरकार को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देना चाहिए.

यह आंदोलन शुरू होने की कथा भी काफी दिलचस्प है. कुछ महीनों पहले राज्य सरकार ने पुलिस के 1,000 पद निकाले  लेकिन जब भरतियां हुईं तो पटेल या पाटीदार समुदाय के केवल 100 से कुछ ही ज्यादा पद थे जो उन की जनसंख्या की तुलना में भी कम थे. यह बात जब फैली तो पाटीदार समाज को बहुत खटकी.

अकसर सरकारी भरतियों में पाटीदार समाज के खासी संख्या में लोग होते थे. लेकिन राज्य की आरक्षण व्यवस्था के कारण पटेलों का प्रतिशत कम हुआ.

20 प्रतिशत आबादी वाले समुदाय को 20 प्रतिशत से कम पद मिले. तब से पटेलों में यह बात पैठ कर गई है कि केवल आरक्षण के जरिए ही सत्ता पर अपना वर्चस्व और पकड़ को मजबूत रखा जा सकता है. बिना आरक्षण के तो सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में उन की संख्या कम होती जाएगी. इसलिए वे अपने को पिछड़े वर्ग में शामिल करने और आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

आरक्षण आंदोलन से जुड़े एक नेता ने कहा कि उन के बच्चों को अच्छे नंबर पाने के बावजूद अच्छे कालेजों में प्रवेश नहीं मिल पा रहा. यदि पटेलों को ओबीसी में शामिल किया गया तो ही भावी पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित हो पाएगा.

पिछड़ा कौन

पटेल समुदाय की यह भी दलील है  कि गुजरात राज्य में आबादी का बड़ा हिस्सा होने के बावजूद पाटीदार समाज को सरकारी भरती में मौजूदा आरक्षण प्रणाली के चलते योग्य प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. इसलिए इस समाज को भी शैक्षणिक व अन्य पिछड़े वर्गों की आरक्षण व्यवस्था में शामिल कर के उचित न्याय दिया जाना चाहिए.

पटेल समाज अधिकांशतया गांवों में रहता है और खेती पर आधारित है. सीमित आय के संसाधन एवं अनियमित मौसम के चलते इस किसान समुदाय की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय है. इस का अनुमान प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के आकंड़ों से लगाया जा सकता है. लेकिन पटेल समाज इस बात का खयाल नहीं कर रहा कि क्या कोई आयोग पटेलों की राजनीतिक रूप से ताकतवर, बड़ी जाति वाली, व्यापारिक तौर पर संपन्न, विदेशों में 200 साल से व्यापार करने वाली जाति को पिछड़ा मान सकता भी है या नहीं.

आरक्षण ने आज समाज की धारा को ही बदल दिया है. एक वक्त था जब अंगरेजों ने जनगणना कराई थी और निम्न जाति के लोगों में अपने को ऊंची जाति का लिखाने की होड़ लग गई थी. हर कोई सामाजिक श्रेणी क्रम में ऊंची सीढ़ी हासिल करना चाहता था. लेकिन आरक्षण के प्रावधान ने इस धारा को उलट दिया है. अब सशक्त जातियों में पिछड़ों में शामिल होने की होड़ लग गई है. आज देश का नजारा यह है कि देश के कई हिस्सों में सशक्त जाति पिछड़ी जातियों वाला आरक्षण पाने की होड़ में लगी हैं. सशक्त जातियां सामाजिक रूप से पंगु जातियों के लिए बनी आरक्षण  की बैसाखी को पाना चाहती हैं.

 केवल गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी  ऐसा ही हुआ है. कुछ समय पहले तक लोगों में अपने को ऊंची जाति का बताने की होड़ थी. आरक्षण ने इस प्रवृत्ति को बदल दिया.

अब फौरवर्ड जातियों में अपने को पिछड़ा साबित करने की होड़ है. इस का उदाहरण है-महाराष्ट्र की मराठा जाति. कभी मराठा जाति के लोग अपने को क्षत्रिय कहते थे. आज वे अपने को पिछड़ा साबित करने में लगे हैं. मराठा महाराष्ट्र की एक जाति है जिस में युद्ध करने वाले भी हैं और खेती करने वाले भी.

महाराष्ट्र में मराठा जाति पंजाब और हरियाणा के जाटों की तरह राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त हैं. इस जाति के लोग शिवाजी को अपना महानायक मानते हैं क्योंकि उन्होंने इसे सत्तासंपन्न बनाया. आज यह जाति राज्य की राजनीति पर हावी है. ज्यादातर मुख्यमंत्री और मंत्री इसी जाति के रहे हैं.

राजनीति में इस समुदाय को अपनी संख्या से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. 35 प्रतिशत आबादी वाली इस जाति को राज्य विधानसभा में 43 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हासिल है. पंचायतों, पंचायत समिति और जिला परिषदों पर भी उस का कब्जा है.

हिंसक चेहरा

कुछ माह पहले आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले में कापू समुदाय के लिए आरक्षण की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों ने जम कर हिंसा की थी. हिंसक आंदोलन में कई ट्रेनों को आग लगा दी थी. गौरतलब है कि कापू समुदाय आंध्र प्रदेश में प्रमुख रूप से सीमावर्ती जिलों में रहते हैं जिन में उत्तरी तेलंगाना और रायलसीमा इलाके प्रमुख हैं. इस समुदाय को अगड़ी जातियों में शुमार किया जाता है लेकिन यह समुदाय पिछड़े वर्ग में शामिल हो कर आरक्षण की मांग कर रहा है. दरअसल पिछले साल आंध्र प्रदेश सरकार ने इस समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल करने की घोषणा की थी लेकिन वादा पूरा होते न देख कापू समुदाय ने भी जाट आरक्षण आंदोलन की तर्ज पर चक्का जाम, आगजनी की घटनाओं को अंजाम दिया.

आर्थिक रूप से वह खासा सशक्त है. इस समुदाय के पास जमीनजायदाद है. चीनी कारखाने, कोऔपरेटिव, कोऔपरेटिव बैंक, शिक्षा संस्थाएं जो महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन पर इस जाति का ही नियंत्रण है. इन सब के बल पर मराठाओं ने सत्ता पर भी अपनी पकड़ मजबूत  कर रखी  है. मगर तब भी उन्हें आरक्षण चाहिए.

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग नई नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन चल रहा था. गोपीनाथ मुंडे और छगन भुजबल जैसे ओबीसी जातियों के नेता शुरुआत में आरक्षण का विरोध कर रहे थे. उन का मानना था कि मराठा जाति राज्य की राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त जाति है, उसे आरक्षण देना आरक्षण का मजाक है. तब उन्हें आशंका थी कि पिछड़ों के आरक्षण में से मराठा जाति को आरक्षण दिया जाएगा. लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया है कि मराठा आरक्षण से पिछड़ों के आरक्षण पर कोई आंच नहीं आएगी, उन्होंने विरोध छोड़ दिया है. और मराठा आरक्षण का समर्थन करने लगे. वैसे मराठा जाति की विशाल आबादी को देखते हुए कोई भी राजनीतिक दल  मराठा आरक्षण का विरोध नहीं करता.

राज्य सरकार ने आखिरकार उन्हें आरक्षण दे भी दिया जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया. अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में भी आरक्षण का वही हश्र हो सकता है क्योंकि मराठा आरक्षण मिलने के बाद राज्य में आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगा.

दरअसल, सशक्त और संपन्न जातियों को आरक्षण देना आरक्षण के सिद्धांत का मजाक उड़ाना है. पर अब सरकारी नौकरियों में घुसने का रास्ता ही यह बचा है. कई बार तो ऐसी जातियों को खुश करने के लिए सरकारें आरक्षण दे भी देती हैं. महाराष्ट्र में ऐसा ही हुआ. सरकार को पता था कि मराठा समुदाय को आरक्षण देने

पर आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा हो जाएगा और कोर्ट उसे खारिज कर देगा. हुआ भी यही. महाराष्ट्र सरकार ने आरक्षण दिया जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया.

पटेलों ने इस से सबक ले कर अपने को ओबीसी सूची में शामिल करने की बात की है. इस से दूसरी ओबीसी जातियों और पटेलों में तनाव पैदा होगा. आखिर पटेलों से कमतर ओबीसी जातियां नहीं चाहेंगी कि उन के आरक्षण में पटेल समुदाय की भी हिस्सेदारी हो जाए. इस तरह पटेल आरक्षण की मांग ने गुजरात भाजपा के लिए नया सिरदर्द पैदा कर दिया है जिस से छुटकारा पाना आसान नहीं है.

सामाजिक इकाइयां जिस तरह विघटन की ओर जा रही हैं, उस में भाजपा सरीखी पार्टियों की भूमिका अहम रही है. पिछले 30-40 सालों में जिस तरह सियासी दल अलगाव की नीति अपना कर देश, समाज, परिवार को जाति, धर्म व आर्थिक मोरचे पर तितरबितर कर वोटबैंक की रणनीति अपना रहे हैं उस से लोगों में वैमनस्य व दूरियां बढ़ी हैं. यह विघटन पहले हिंदूमुसलिम, अगड़ीपिछड़ी जातियों, ओबीसीदलित और शहर, गांव व कसबों के बीच होता था. सांप्रदायिक दंगे और दलित व सवर्णों के बीच की लड़ाइयां बढ़तेबढ़ते आरक्षण आंदोलनों तक पहुंच चुकी हैं. लेकिन इन सब प्रक्रियाओं में विघटन का एक खतरनाक रूप सामने आया है वह है परिवारों में विघटन. सैकड़ों सालों से एक ही छत के नीचे रहने वाले परिवार अब बिखर रहे हैं. साथ रहना तो दूर, एक चूल्हे से बना खाना तक नहीं खाते. दफ्तरों व बाहर सफर के दौरान टिफिन शेयर करना भी प्रचलन से बाहर हो गया है. परस्पर भरोसे की भावना पूरी तरह से दम तोड़ चुकी है. आपसी मतभेद उभर गए हैं और संपत्ति के लिए सासबहू, बापबेटा एकदूसरे का खून करने से परहेज नहीं करते.

यह पारिवारिक टूटन कहीं न कहीं राजनीतिक दलों की अलगावभरी राजनीति का प्रतिबिंब है जो घरघर में जहर बन कर विघटन की नई कब्र खोद रही है. यह देश, समाज व परिवार के आर्थिक, सामाजिक व राजनीति धरातल के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है.

हल्ला आरक्षण पर और काम टांयटांय फिससरकारी नौकरियों में आरक्षण को ले कर हल्ला अब उतना ही आम हो चला है जितना इस बात पर होता रहता है कि आम लोगों के काम नहीं हो रहे, चारों तरफ भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व भाईभतीजावाद है और सरकारी अफसर एक नंबर के निकम्मे व घूसखोर हैं.

हर किसी को आएदिन सरकारी मुलाजिमों से काम पड़ता है, हजार में से एक ही मिलेगा जो यह कहे कि उस का काम कुछ लिएदिए बगैर आसानी से हो गया था वरना बाकी 999 सरकारी दफ्तरों में जा कर बेबस और खीझे ही नजर आते हैं. सरकारी सिस्टम में ईमानदारी, लगन और मेहनत से काम होने या करने की बातें किताबी भर हैं.

इस हालत पर कोई चूं नहीं करता, न ही विरोध, प्रदर्शन करता लेकिन बीती 30 अप्रैल को मध्य प्रदेश के जबलपुर हाईकोर्ट ने एक फैसले में जब यह कहा कि प्रमोशन में आरक्षण नाजायज है तो देशभर में हल्ला मच उठा. सामान्य वर्ग वालों ने इस फैसले का स्वागत किया और आरक्षित वर्ग वालों ने एतराज जताया. आरक्षण वाले मुलाजिमों की तरफ से मध्य प्रदेश सरकार भागीभागी सुप्रीम कोर्ट गई और इस फैसले पर 12 दिनों में ही स्टे और्डर ले आई यानी अगली सुनवाई तक हाईकोर्ट का फैसला रद्द रहेगा.

इसी दौरान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपने एक आदेश में यह फरमान जारी कर डाला कि अब उच्च शिक्षा विभाग में पिछड़े वर्ग के प्राध्यापकों को दी जा रही आरक्षण व्यवस्था खत्म की जाती है पर हैरतअंगेज तरीके से कुछ दिनों बाद ही आयोग ने इस आदेश को वापस भी ले लिया और आरक्षण व्यवस्था यथावत रखने के निर्देश विश्वविद्यालयों को दिए. जाहिर है सरकार पिछड़े वर्ग के प्राध्यापकों से किसी तरह का बैर नहीं लेना चाहती.

जबलपुर हाईकोर्ट का फैसला इस लिहाज से भी अहम है कि अधिकांश लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि आखिर नौकरी में प्रमोशन के इंतजाम हैं या नहीं. इस बाबत 2 दर्जन लोगों ने हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर कर रखी थीं कि प्रमोशन में आरक्षण नाजायज है. हाईकोर्ट ने इन याचिकाकर्ताओं से इत्तफाक रखते साफ किया कि नौकरी देने में तो आरक्षण के इंतजाम हैं पर पदोन्नति में आरक्षण को जायज नहीं माना जा सकता क्योंकि इस में सामान्य वर्ग वाले को एससी, एसटी और ओबीसी से वरिष्ठता के मामले में नीचे रखा जाता है.

इस फैसले से आम लोगों की यह गलतफहमी भी दूर हो गई कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने के बाबत संविधान में इंतजाम हैं. दरअसल, सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने का फैसला राज्य सरकार ने साल 2002 में लिया था. जिस के तहत यह इंतजाम किया गया था कि पदोन्नति में एससी वर्ग के लिए 16 फीसदी और एसटी वर्ग के लिए 20 फीसदी आरक्षण रहेगा. इस के लिए बाकायदा रोस्टर बनाया गया था. आरक्षण पर खार खाए बैठे सवर्ण मुलाजिम कोर्ट गए तो इस नए इंतजाम में अदालत ने कई खामियां पाईं हालांकि राज्य सरकार को एक हद तक आरक्षण के बारे में फैसला ले कर नियम बनाने का हक है. 2002 के बाद धड़ल्ले से प्रमोशन में एससी, एसटी वर्ग के मुलाजिमों को फायदा मिला, पर हाईकोर्ट ने साफ यह भी कहा कि जो मुलाजिम इस नियम के तहत प्रमोशन का फायदा ले चुके हैं

उन्हें वापस अपने ओहदे पर जाना होगा यानी फायदा छोड़ना होगा. इस तरह कोई 38 हजार कर्मचारी इस प्रमोशन के दायरे में आ रहे थे जबकि 42 हजार और कर्मचारियों को नुकसान होना तय दिख रहा था.फैसले पर सामान्यवर्ग के लोगों ने खूब जश्न मनाया और पटाखेफुलझडि़यां छोड़े. लेकिन राज्य सरकार तुरंत सुप्रीम कोर्ट गई तो वहां उसे राहत मिली पर वह फौरी तौर पर ही मिली कही जाएगी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने हालफिलहाल यह कहा है कि जोजहां जिस हालत में है वह वहीं रहेगा यानी अब न प्रमोशन होगा, न ही किसी का डिमोशन होगा. अगली सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर के तीसरे हफ्ते का वक्त तय किया है. अब राज्य सरकार क्या दलील देती है, यह देखना दिलचस्प होगा.

काम पर चुप्पी क्यों

कोर्ट के इन दोनों फैसलों को कानून के जानकार बारीकी से पढ़ रहे हैं और मुलाजिम होहल्ला मचा रहे हैं पर किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा कि अगर प्रमोशन में आरक्षण मिले या न मिले, काम करने के पैमाने पर नफानुकसान क्या है और किस का है.इन फैसलों का सरकारी मुलाजिमों के काम से कोई लेनादेना नहीं है, जो आम लोगों की असल परेशानी है. किसी भी दफ्तर में चले जाइए, जिस से आप को काम है वह सीट से नदारद मिलेगा. यदि मिल भी गया तो इतनी चालाकी से आप को टरकाएगा कि आप हैरान रह जाएंगे. अभी यह नहीं है, वह नहीं है, यह गलत है, वह कौलम पूरा नहीं भरा, यह काम नियम के खिलाफ है, कल आइए, फलां के पास जाइए जैसे ढेरों रेडीमेड जवाब आप को दे दिए जाएंगे.काम न करने की इस आदत का आरक्षण से कोई लेनादेना नहीं है. कर्मचारी चाहे आरक्षित वर्ग का हो या अनारक्षित वर्ग का, उस ने तो काम न करने की या घूस लिए बगैर काम न करने की कसम खा रखी है.

सरकारी कर्मचारियों की तरफ से बेफिक्रीभरी धौंस इसलिए दी जाती है कि सरकारी नौकर का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. उसे पूरी तरह नौकरी से निकाल पाना तो उस सरकार के बूते की भी बात नहीं जो उसे काम करने के लिए नौकरी देती है. जब लोग ज्यादा परेशान हो जाते हैं तो लोकायुक्त पुलिस से घूस मांगे जाने की शिकायत कर देते हैं. जो मुलाजिम घूस लेते पकड़े जाते हैं उन्हें सस्पैंड कर दिया जाता है. मुकदमा चलता है तो कई बार समझौता हो जाता है या आरोप ही साबित नहीं हो पाता. जिन में आरोप साबित हो जाता है उन में घूसखोर को सजा हो जाती है लेकिन ऐसे मुलाजिमों की कुल तादाद आधा फीसदी भी नहीं है.

निजी फायदा

सरकारी नौकरी की तरफ लोगों का खिंचाव अनापशनाप सहूलियतों की वजह से भी है जिन में छुट्टियों की भरमार, हर साल बढ़ते वेतन, महंगाई भत्ते सहित दूसरे भत्ते बढ़ाने के लिए ये लोग अकसर प्रदर्शन भी करते हैं.आरक्षण पर सियासत होती है, इस में शक नहीं. लेकिन पैसों की मारामारी पर कोई सियासत नहीं होती. वजह, इस गंगा में सभी बराबरी से डुबकी लगा कर पुण्य कमाते यानी फायदा उठाते हैं.एक बार जो सरकारी नौकरी में घुस गया, उस की जिंदगी बन जाती है. यही बेफिक्री उसे अलाली, लापरवाही और भ्रष्टाचार के लिए शह देने वाली होती है. यही वजह है कि सरकारी चपरासी तक बनने के लिए हाईस्कूल, हायरसैकंडरी तो दूर की बात है पीएचडी कर चुके उम्मीदवार तक लाइन में लगे नजर आते हैं. यह हालत आरक्षित और अनारक्षित वर्ग दोनों में बराबरी से है.

आरक्षित कैटेगरी के लोग अब तेजी से पढ़ रहे हैं और प्राइवेट नौकरियों में न के बराबर हैं क्योंकि उन का मकसद ही सरकारी नौकरी हासिल करना होता है. लेकिन इस तबके में भी बढ़ती होड़ के चलते मारामारी मचने लगी है इस तबके के भी हजारों पढ़ेलिखे नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं.ऐसे में पदोन्नति में आरक्षण पर रोनागाना और होहल्ला सभी का मिलाजुला ड्रामा है कि जिस में काम की क्वालिटी को सुधारने की बात कहीं नहीं हो रही, बात ज्यादा से ज्यादा पैसा और लूट में अपना हिस्सा तय करने की हो रही है.                                   
– भारत भूषण श्रीवास्तव

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