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दो जासूस और अनोखा रहस्य (भाग-4)

अभी तक आप ने पढ़ा…

अनवर मामू के घर छुट्टियां बिताने आए साहिल और फैजल वहां हुए अजयजी के कत्ल की गुत्थी सौल्व करने में जुट गए थे. एक कोड हल होने पर दूसरा कोड उन्हें मुंह चिढ़ाता. पहले कोड को फैजल ने सीज साइफर के सिद्धांत से हल किया उस ने एक शब्द का उदाहरण दे कर बताया व कोड का अर्थ सुझाया, चाकुओं के पीछे देखें. अब वे चाकू ढूंढ़ने लगे, उन्होंने अभयजी की हर संदिग्ध जगह खंगाली पर चाकू न मिले. फिर अंत में वे अजय की पत्नी के आग्रह पर उन के घर चाय पीने गए तो वहां उन्हें अचानक दरवाजे के ऊपर वाली दीवार पर बीचोबीच 2 कटारें क्रौस का चिह्न बनाती लगी हुई दिखीं. उन्हें उतार कर देखा और उन पर लिपटी टेप हटाई तो एक चाबी मिली, जो एक कागज में लिपटी थी. उन्होंने उलटपलट कर देखा कागज पर एक और कोड लिखा था. वे अचंभे में पड़ गए. एक और पहेली उन्हें मुंह चिढ़ा रही थी.

अब आगे…

साहिल ने यास्मिन को चाबी दिखा कर पूछा, ‘‘क्या आप जानती हैं कि यह चाबी कहां की है?’’ यास्मिन ने हाथ में ले कर ध्यान से चाबी को देखा और ना में सिर हिला दिया.

‘‘घर और दुकान दोनों जगह की तो अभी हम ने तलाशी ली ही है. वहां कहीं भी ऐसी कोई अलमारी या ताला नहीं था, जिस के लिए ऐसी चाबी की जरूरत हो,’’ इंस्पैक्टर रमेश बोले, ‘‘एक बात तो साफ है कि यह चाबी किसी साधारण ताले की नहीं है और इस कागज पर जो लिखा है, यह जरूर इस ताले को खोलने का रास्ता है. मेरे खयाल से यहां जरूर कोई गुप्त तिजोरी होनी चाहिए, जिस का लौक इस कोड से खुलेगा.’’

‘‘क्या आप को इस बारे में कोई जानकारी है?’’ साहिल ने यास्मिन से पूछा.

‘‘नहीं, अजय ने कभी इस तरह की किसी तिजोरी का जिक्र मुझ से नहीं किया.’’

‘‘अच्छा, अजय की बैकग्राउंड के बारे में कुछ बताइए. आप की तो उन से शादी हुए कम से कम 25-30 साल हो गए होंगे. उन के बारे में जान कर केस सौल्व करने में हमें जरूर कुछ मदद मिलेगी,’’ इंस्पैक्टर रमेश बोले.

‘‘दरअसल, बात यह है कि हमारी शादी को अभी 6 साल हुए थे, जिस जनरल स्टोर में मैं नौकरी करती थी, वहीं हमारी मुलाकात हुई थी. मैं अनाथाश्रम में पलीबढ़ी हूं और मेरा कोई परिवार नहीं है. अजय ने भी मुझे यही बताया था कि वे भी अनाथाश्रम में ही पले हैं और उन के आगेपीछे कोई नहीं है. इसीलिए इतनी उम्र तक हम लोगों की शादी नहीं हो पाई थी दोनों की एक जैसी बैकग्राउंड की वजह से ही शायद हम एकदूसरे की तकलीफ को समझ पाए और पहली मुलाकात के कुछ दिन बाद ही हम ने शादी कर ली. कुछ साल हम मेरठ में रहे और फिर एक शांत जिंदगी बिताने की चाह में यहां रामगढ़ आ कर बस गए.

‘‘अनाथाश्रम की जिंदगी ने हमें जो अकेलापन दिया था, हम उस से बाहर कभी निकल ही नहीं पाए और इसीलिए कभी किसी से घुलेमिले भी नहीं. बचपन से छोटेमोटे काम कर के अपनी जिंदगी बसर करते हुए जो थोड़ेबहुत रुपए हम ने जमा किए थे, उन्हीं से यह घर और दुकान खरीद कर हम खुशीखुशी जिंदगी बिता रहे थे कि अचानक ये सब हो गया…’’ कहते हुए यास्मिन की आंखों में आंसू छलक आए, लेकिन अपने भावों पर काबू पा कर अगले ही पल वह दृढ़ता से बोली, ‘‘फिलहाल मेरी सब से पहली इच्छा है कि मेरे पति का हत्यारा जल्द पकड़ा जाए और इस के लिए मुझ से आप की जो भी मदद हो सकेगी, मैं करूंगी.’’

‘‘फैजल, तुम्हीं ने अजय का लिखा पहला कोड हल किया था न? तो देखो और सोचो. इस कोड का क्या हल हो सकता है,’’ इंस्पैक्टर रमेश ने फैजल को वह कागज देते हुए कहा. 

‘‘जी, मैं भी समझने की कोशिश तो कर रहा हूं पर कुछ सूझ नहीं रहा है,’’ माथे पर उंगली रगड़ते हुए फैजल बोला, ‘‘वैसे भी काफी देर हो गई है. घर पर सब लोग चिंता कर रहे होंगे. अभी तो हम चलते हैं. जैसे ही कुछ समझ आएगा तो आप को फोन करेंगे,’’ कहते हुए फैजल ने उन से बिदा ली. फिर साहिल, फैजल और अनवर घर के लिए चल दिए.

वे लोग अभी मुश्किल से 2-3 किलोमीटर ही चले होंगे कि अचानक साहिल ने फैजल को कुहनी मारी और धीमी आवाज में बोला, ‘‘फैजल, मुझे लग रहा है कि कोई हमारा पीछा कर रहा है.’’

‘‘बिलकुल मुझे भी काफी देर से ऐसा लग रहा है. यह हरे रंग की आल्टो लगातार हमारे पीछे चल रही है.’’

‘‘अरे, नहींनहीं…आल्टो नहीं, वह काली बाइक, देखो,’’ उस ने सामने लगे शीशे की ओर इशारा किया, ‘‘वह बाइक हमारे पीछे लगी हुई है.’’

‘‘नहींनहीं…वह तो हरी आल्टो है, जो हमारे पीछे लगी है.’’

‘‘अच्छा रुको…ड्राइवर भैया, आप एक काम करो, गाड़ी सीधे घर ले जाने के बजाय थोड़ी देर ऐसे ही सड़कों पर इधरउधर घुमाते रहो. अभी सब पता चल जाएगा,’’ साहिल ने कहा तो ड्राइवर गाड़ी इधरउधर घुमाने लगा.

15 मिनट में ही उन्हें समझ आ गया कि वास्तव में कोई एक नहीं, बल्कि आल्टो और बाइक दोनों ही उन का पीछा कर रही थीं.

‘‘आखिर ये लोग हमारा पीछा कर क्यों रहे हैं?’’

‘‘जाहिर है अपना भेद खुल जाने के डर से कातिल के पेट में मरोड़ उठ रहे हैं. कल इन का भी कुछ इंतजाम करना पड़ेगा.’’

घर पहुंच कर खाना वगैरा खा कर दोनों फिर से पहेली को हल करने में जुट गए.

‘‘चलो, हम स्टैप बाए स्टैप चलने की कोशिश करते हैं,’’ साहिल ने सुझाया, ‘‘हमारे पास है एक चाबी. चाबी का मतलब है कि कहीं कोई ताला है जो इस से खुलना है. अब क्योंकि यह थोड़ा सीक्रेट टाइप का ताला है, तो इसे खोलने के लिए कोई कोड होना चाहिए, जो यहां कागज पर लिखा है. घर और दुकान तो हम सब देख ही चुके हैं. अब इस ताले के होने के लिए 2 ही जगह बचती हैं या तो कहीं किसी दीवार के अंदर कोई गुप्त तिजोरी है या फिर कोई बैंक लौकर या गुप्त लौकर है. पेपर पर लिखा यह कोड उस जगह की लोकेशन बताएगा और अगर लौकर है तो उस का नंबर बताएगा. तू ने चैक किया फैजल कि यह कहीं कोई और साइफर तो नहीं है?’’

‘‘मैं ने काफी सोचा, लेकिन जितनी तरह के कोड मुझे आते हैं, उन में से कोई भी इस पर अप्लाई नहीं होता, अगर हम इसे बैंक लौकर मान कर चलते हैं तो बैंक लौकर के लिए हमें बैंक का नाम और लौकर नंबर चाहिए और ये दोनों तो अजय की पत्नी यास्मिन को पता ही होंगे.’’

‘‘नहीं फैजल, अगर उन्हें पता होता, तो अजय इन्हें यों कोड में लिख कर न जाता. इस का सीधा सा मतलब है कि ये लौकर उन की जानकारी में नहीं हैं और इस कोड का कुछ हिस्सा नंबर है और कुछ बैंक का नाम. अब देख इसे, क्या तू सौल्व कर सकता है?’’

कागजपैंसिल ले कर फैजल काफी देर तक इस पर माथापच्ची करता रहा पर नतीजा वही सिफर. थकहार कर दोनों सो गए.

सुबह नाश्ते की टेबल पर बैठे फैजल का दिमाग अब भी उसी पहेली के इर्दगिर्द घूम रहा था. तभी अचानक वह जोर से चिल्लाया, ‘‘वह मारा पापड़ वाले को.’’

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ? कुछ सूझा तुझे क्या?’’ बगल में बैठे साहिल ने पूछा.

‘‘हां, बिलकुल सूझा और कुछ नहीं, पूरा सूझा,’’ उस ने सामने पड़ा पहेली वाला पेपर उठाया और उस के नीचे 2 अलगअलग नंबर लिख दिए. यह देख, ये जो लैटर्स यहां लिखे हैं, वे सारे के सारे हर नंबर की स्पैलिंग का पहला अक्षर हैं. जैसे जीरो के लिए र्ं, 1 के लिए हृ, 2 और 3 दोनों ञ्ज से शुरू होते हैं, तो उन के लिए ञ्ज2 और ञ्जद्ध का प्रयोग किया हुआ है. इस तरह से ये 2 नंबर बन रहे हैं, 8431729 और 109 लेकिन इस टिक मार्क (क्क) का मतलब पल्ले नहीं पड़ रहा.

‘‘अरे, छोड़ उसे, इतना तो हो गया. अब फटाफट पुलिस को साथ ले कर सब बैंकों में जा कर चैक करते हैं ज्यादा बैंक तो यहां होंगे नहीं.’’

‘‘बेटा, हमारे गांव में ज्यादा नहीं तो भी कम से कम 15-16 बैंक तो हैं ही,’’ अपने कमरे से बाहर आते अनवर मामू बोले, ‘‘तो हो गई तुम्हारी दूसरी पहेली भी सौल्व…देखूं तो जरा,’’ उन्होंने कागज उठाया और उसे देखने लगे.

‘‘तो तुम्हारे हिसाब से ये 2 नंबर किसी बैंक लौकर की तरफ इशारा कर रहे हैं और इन में से यह पहला अकाउंट नंबर और दूसरा लौकर नंबर होना चाहिए.’’

‘‘हां मामू, लेकिन इतने सारे बैंक्स में से हम उसे ढूंढ़ेंगे कैसे?’’

‘‘ढूंढ़ना क्यों है तुम्हें? सीधे यस बैंक जाओ न, क्योंकि जो निशान बना है, यह यस बैंक का ही तो लोगो है. मेरे क्लिनिक के एकदम सामने ही है यह बैंक और उस का साइनबोर्ड सारा दिन मेरी आंखों के सामने ही रहता है.’’

‘‘वाह मामू, आप भी कमाल की बुद्धि रखते हैं,’’ शरारत से एक आंख दबाते हुए फैजल मुसकराया.

एक घंटे बाद इंस्पैक्टर रमेश को साथ ले कर वे लोग यस बैंक पहुंच गए. पूछताछ से पता चला कि वह अकाउंट 8 दिन पहले ही किसी संजीव नामक व्यक्ति ने खोला है. पुलिस केस होने की वजह से लौकर खोलने में उन्हें कोई अड़चन नहीं आई. जब लौकर खुला तो उस में से सिर्फ एक मोबाइल फोन निकला. फोन को कस्टडी में ले कर वे पुलिस स्टेशन आ गए.

‘‘इस का सारा डाटा चैक करना पड़ेगा,’’ कुरसी पर बैठता साहिल बोला, ‘‘तभी कुछ काम की बात पता चल सकती है.’’

कुछ देर उस मोबाइल को चार्ज करने के बाद उस ने औन कर के चैक किया, लेकिन उस में कहीं ऐसा कुछ नहीं था, जो अजय की मौत या किसी और रहस्य पर कोई और रोशनी डाल सके.’’

तभी फैजल को कुछ याद आया, ‘‘और हां अंकल, एक बात तो हम आप को बताना भूल ही गए. कल जब हम वापस जा रहे थे, तो कोई हमारा पीछा कर रहा था.’’

‘‘अच्छा, यह तो चिंता की बात है,’’ इंस्पैक्टर रमेश के माथे पर शिकन उबर आई, ‘‘मैं 2 कौंस्टेबल तुम दोनों की सुरक्षा के लिए तैनात कर देता हूं, जो हर समय तुम्हारे साथ रहेंगे.’’

काफी देर फोन से माथापच्ची करने के बाद साहिल बोला, ‘‘इस फोन में तो कुछ भी नहीं है अंकल, आप एक काम कीजिए, इस का सिम कार्ड चैक करवाइए कि वह किस के नाम पर है. शायद उस से कुछ पता चले,’’ फिर उस ने फोन का बैक कवर खोला और सिम निकालने के लिए जैसे ही बैटरी को हटाया, चौंक पड़ा. बैटरी के नीचे कागज की एक छोटी सी स्लिप रखी हुई थी.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ वह बड़बड़ाया. फिर परची को खोल कर देखा. उस पर कुछ लिखा था, जिसे उस ने पढ़ कर सब को सुनाया, ‘‘सामने है मंजिल, महादेव की गली, सावन की रिमझिम में खिलती हर कली, धरम पुत्री से होगा जब सामना, पासवर्ड के बिना बनेगा काम न.’’

‘‘यह तो बहुत ही क्लियर मैसेज है. हमारी मंजिल हमें मिलने ही वाली है समझो,’’ फैजल उत्साह से बोला.

‘‘यहां कोई महादेव नाम की गली नहीं है,’’ अनवर कुछ सोचते हुए बोले.

इंस्पैक्टर रमेश ने भी ना में सिर हिलाया और बोले, ‘‘हो सकता है कि कहीं किसी दूर के या छोटेमोटे महल्ले में कोई अनजान सी गली हो. मैं सिपाहियों से पूछता हूं,’’ कहते हुए उन्होंने रामदीन को पुकारा,’’ रामदीन, जरा बाहर बाकी सब सिपाहियों से पूछ कर आओ, उन में से शायद कोई इस गली को जानता हो.’’

रामदीन, जो बड़ी उत्सुकता से सारी बातें सुन रहा था, बोला, ‘‘साहब, महादेव गली तो पता नहीं, लेकिन लालगंज से थोड़ी दूरी पर काफी अंदर जाने के बाद एक मार्केट है. वहां एक छोटी सी इमारत है, जिस का नाम मंजिल है और उस के बिलकुल सामने जो सड़क जा रही है, उस का नाम है शंकर गली. हो सकता है इस कविता में इसी जगह का जिक्र किया गया हो.’’

‘‘वाह रामदीन भैया, क्या ब्रिलियंट दिमाग है तुम्हारा,’’ उत्साह से उछलता फैजल रामदीन का हाथ पकड़ कर एक ही सांस में बोल गया. बाकी सब भी जल्दी से उठ खड़े हुए, ‘‘चलो, वहीं चलते हैं. वहीं पर ही आगे का भी कुछ न कुछ सुराग मिलेगा.’’

काले चश्मे वाली दो आंखें उन्हें जाते हुए देख रही थीं. 

(क्रमश:)

कमियों के बावजूद सब को भाएगी ‘सुल्तान’

‘‘जिंदगी में कभी भी हार नहीं माननी चाहिए’’ इस संदेश के इर्द गिर्द बुनी गयी फिल्म ‘‘सुल्तान’’ की कहानी भारतीय कुश्ती से शुरू होकर ‘‘मिक्स मार्शल आर्ट’’ तक की गाथा है. यह एक अलग बात है कि फिल्मकार ने इस फिल्म में ‘मिक्स मार्शल आर्ट’ को ‘‘प्रो टेक डाउन’’ नाम दिया है. मगर पूरी फिल्म आम मुंबईया कमर्शियल फिल्म से ज्यादा कुछ नहीं है. सलमान खान के प्रशंसक उन्हे जिस अंदाज में देखना पसंद करते हैं, उसी अंदाज में सलमान खान नजर आते हैं.

यूं तो सलमान खान की तरफ से उनके प्रशंसकों को फिल्म ‘‘सुल्तान’’, ईदी यानी ईद का का उपहार है. मगर फिल्म में नएपन का अभाव है. कई सीन कुछ समय पहले प्रदर्शित फिल्म ‘ब्रदर्स’ सहित दूसरी फिल्मों का दोहराव मात्र ही है. ‘ब्रदर्स’ की ही तरह इस फिल्म में एक व्यापारी विदेशों की तरह भारत में भी ‘मिक्स मार्शल आर्ट’ को लोकप्रिय बनाने के लिए चिंता से ग्रस्त नजर आता है. यानी कि खेल भी एक व्यापार ही है.

‘‘सुल्तान’’ की कहानी दिल्ली के एक बिजनेस मैन आकाश से शुरू होती है, जो कि परेशान है कि भारत में वह ‘प्रो टेक डाउन’ खेल को लोकप्रिय नहीं बना पा रहा है. उसे नुकसान पर नुकसान हो रहा है. ऐसे में आकाश के पिता (परीक्षित साहनी) उसे सुल्तान की मदद लेने के लिए कहते हैं. आकाश, सुल्तान के पास जाता है, तो सुल्तान कह देता है कि उसने तो कुश्ती लड़ना बंद कर दिया है. आकाश की मुलाकात सुल्तान के दोस्त गोंविंद से होती है. गोविंद उसे सुल्तान की कहानी सुनाता है कि उसने कुश्ती लड़ना क्यों बंद किया. तब कहानी कुछ साल पहले जाती है.

कहानी हरियाणा के रेवाड़ी जिले के एक गांव में बिना किसी मकसद के कटी पतंग पकड़ने के लिए दौड़ रहे तीस वर्षीय युवक सुल्तान अली (सलमान खान) की है. पतंग पकड़ने के लिए दौड़ते हुए ही एक दिन सुल्तान अली की टक्कर दिल्ली से पढ़ाई करके वापस लौटी आरफा (अनुष्का शर्मा) से हो जाती है, जो कि मशहूर पहलवान गुरू बरकत अली की बेटी है और राज्यस्तर की कुश्ती विजेता है. पहली मुलाकात में ही आरफा को सुल्तान दिल दे बैठता है. एक दिन सुल्तान उसका पीछा करते हुए पहलवानों के अखाड़े में पहुंच जाता है, जहां वह एक पहलवान को परास्त करती है.

आरफा, सुल्तान के प्यार के प्रस्ताव को ठुकरा देती है, क्योंकि उसका ध्यान ओलंपिक में गोल्डमैडल हासिल कर अपने पहलवान पिता द्वारा देखे गए सपने को पूरा करने पर है. आरफा सुल्तान से कहती है कि लड़की होना किसी लड़के से कम नहीं है. आरफा का साथ पाने के लिए सुल्तान भी बरकत का शागिर्द बनकर पहलवानी/कुश्ती सीखने लगता है. आरफा व सुल्तान स्कूटर बैठकर साथ में घूमते हैं. मगर जब सुल्तान का दोस्त गोविंद, आरफा को भाभी कहकर बुलाता है, तो आरफा भड़क जाती है. वह ऐलान करती है कि वह एक सफल कुश्तीबाज/चैपिंयन रेसलर से ही शादी करेगी. इतना ही नहीं आरफा, सुल्तान से कहती है कि उसकी अपनी औकात क्या है, उसके बाद सलमान कुश्ती सीखने में पूरा दम लगा देता है.

राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर और फिर ओलंपिक में गोल्ड मैडल भी हासिल कर लेता है. तब आरफा व सुल्तान का निकाह हो जाता है. कुछ समय बाद आरफा मां बनने वाली होती है. वह चाहती है कि सुल्तान उसके पास रहे. पर सुल्तान पर तो मैडल हासिल करने का भूत सवार है. वह विश्व चैंपियन बनने के लिए जाता है. इधर आरफा बेटे अमन को जन्म देती है, जो कि ‘ओ ’ निगेटिव खून न मिलने की वजह से मर जाता है. इसके लिए आरफा, सुल्तान को दोष देती है, क्योंकि सुल्तान का ब्लड ग्रुप ‘ओ’ निगेटिव ही है. फिर आरफा, सुल्तान से अलग अपने पिता के साथ रहने चली जाती है. सुल्तान भी कुश्ती से दूरी बना लेता है.

सुल्तान का अतीत जानने के बाद आकाश, सुल्तान से नए सिरे से बात करता है और सुल्तान ‘‘प्रो टेक डाउन’’ का हिस्सा बनकर खेलने को तैयार हो जाता है. इस बार उसे फत्ते सिंह (रणदीप हुड्डा) ट्रेनिंग देता है. प्रो टेक डाउन के रेसलर मैच होते हैं. अंततः जीत सुल्तान की होती है और आरफा भी सुल्तान के पास वापस आ जाती है.

तमाम कमियों के बावजूद फिल्म अंत तक दर्शकों को बांधकर रखती है. फिल्म को बहुत ही बड़े ग्रेंजर के साथ फिल्माया गया है. पर फिल्म कुछ ज्यादा ही लंबी हो गयी है. फिल्म की अवधि दो घंटे पचास मिनट है. इसे कम किया जा सकता था. फिल्म में एक दो गाने कम किए जा सकते थे. इंटरवल से पहले फिल्म धीमी गति से आगे बढ़ती है, जहां पर कसाव की जरुरत है. फिल्म में ‘ब्लड बैंक’ का मुद्दा जबरन ठूंसा हुआ लगता है. ओलंपिक में सुल्तान कुश्ती खेलकर गोल्ड मैडल जीतता है. विश्व चैंपियन भी बनता है. पर फिल्म में देश कहीं नहीं उभरता. कुश्ती के कुछ दांव पेंच तो निर्देशक ने अच्छे रचे हैं, पर धीरे धीरे यह फिल्म उनके हाथ से फिसल जाती है. इंटरवल के बाद ‘प्रो टेक डाउन’ के मैच का मसला पूरी तरह से बनावटीपन का अहसास देता है. कुश्ती जहां मिट्टी से जुड़ाव का अहसास दिलाता है, वहीं ‘मिक्स मार्शल आर्ट’ तो खून का खेल बनकर उभरता है.

बेटे अमन की मौत और आरफा का सुल्तान से अलगाव वाले दृश्यों में इमोशन की कमी नजर आती है. यह सब बहुत सतही स्तर पर निकल जाता है. भावनात्मक पहलुओं का स्थान नाटकीयता व दोहराव ने ले लिया है. शादी से पहले शेरनी की तरह दहाड़ने वाली मार्डन औरतों के मान सम्मान आदि की बात करने वाली आरफा शादी के बाद जिस तरह से भारतीय परंपरावादी हो जाती है, वह गले नहीं उतरता. यानी कि निर्देशक कहानी को पूरी तरह से आम भारतीय फिल्मों के हीरो की तरह पेश करने लग जाता है. पूरी फिल्म देखकर अहसास होता है कि निर्देशक कई जगह विचलित हुआ है. वह भी उसी द्वंद का शिकार नजर आता है, जिस द्वंद में पूरा भारतीय समाज जी रहा है.

सलमान खान और अनुष्का शर्मा दोनो ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है. ‘जग घुमैया’ के अलावा कोई भी गीत आकर्षित नहीं करता. 170 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘सुल्तान’’ का निर्माण आदित्य चोपड़ा ने ‘‘यशराज फिल्मस’’ के बैनर तले किया है. फिल्म के लेखक व निर्देशक अली अब्बास जफर हैं.

किडनी दान जीवनदान

दिल्ली के जानेमाने अस्पताल अपोलो में किडनी की खरीदफरोख्त पर जो हल्ला मच रहा है वह बेबुनियाद और निरर्थक है. ठीक है देश में संबंधियों के अलावा किसी के अंग लेने पर कानूनी रोक है और सजा भी है पर मानव स्वभाव है कि वह जीवित रहने के लिए सबकुछ करता है. जब तकनीक यहां तक पहुंच गई है कि यदि किसी के दोनों गुर्दे खराब हो गए हों तो किसी का एक गुर्दा ले कर काम चलाया जा सकता है और देने वाले को बहुत नुकसान न होगा तो उस तकनीक का इस्तेमाल होगा ही. कानून कहता है कि गुर्दे सिर्फ संबंधियों से लिए जाएं ताकि कहीं गुर्दों का व्यापार न शुरू हो जाए और लोगों को अंधेरे में रख कर उन का गुर्दा न निकाल लिया जाए. लेकिन यह होगा चाहे कानून कितना सख्त हो और सजा कितनी ही कड़ी, क्योंकि अगर संबंधियों से गुर्दा नहीं मिल रहा तो किसी को भी संबंधी बना कर खड़ा किया जाएगा ही.

अपोलो के मामले में पश्चिम बंगाल के कुछ गरीबों के गुर्दे निकाले गए थे और उन के झूठे दस्तावेज बनाए गए थे. जिन गरीबों ने अपने गुर्दे दिए थे उन्हें 5 लाख रुपए मिले. इतनी रकम तो उन्होंने देखी भी नहीं थी. हां, ऐसे कामों में बिचौलियों की जरूरत तो होती ही है. आश्चर्य यह है कि पुलिस इस मामले में उन गरीबों को पकड़ रही है जिन्होंने गुर्दे बेचे. उन्होंने जो बेचा वह उन का अपना था. उन्होंने कानून का चाहे लिखित उल्लंघन किया हो पर उन्होंने किसी का कुछ छीना नहीं. उन्होंने तो जीवनदान दिया. उन्हें अपराधियों की तरह सफेद टोपे पहना कर हथकडि़यों में लाने की और जेल में बंद करने की क्या जरूरत है? अमानवता तो यह है कि किसी की जान बचाने के लिए प्रयास करो और गुनाहगार माने जओ. इस का मतलब तो यह है कि यदि बाढ़ में कोई बह रहा हो और दूसरा अपनी जान की बाजी लगा कर उसे बचा ले तो आप दूसरे को आत्महत्या का प्रयास करने वाला कहेंगे.

ठीक है, यदि अंगदान को खुली छूट दी जाएगी तो जिंदा आदमियों को मार डालना शुरू कर दिया जाएगा. ऐसा दुनियाभर में हो रहा है. भारत में भी हो रहा है. पर पकड़े जाने पर उसे गिरफ्तार किया जाए जिस का एक अंग कम हो गया, यह बिलकुल गलत है. डाक्टरों को पकड़ो, बिचौलियों को पकड़ो पर मरीज को न परेशान करो, न उस व्यक्ति को जो पैसों के बदले अपना अंग दे कर अब खुद बीमार हो गया. यह कोरी क्रूरता है. सरकारी कू्ररता, कानूनी कू्ररता, मीडिया की कू्ररता.

फेरबदल का कोई फार्मूला नहीं होता

अपने मंत्रिमंडल में पहला फेरबदल करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह बताने में कामयाब रहे हैं कि सुस्त और नाकारा मंत्री बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे, साथ ही कांग्रेसी शैली की तुष्टीकरण की नीति राजनीति जारी रहेगी. कट्टरवाद और तुष्टिकरण का यह अद्भुद संतुलन भगवा मंच से प्रदर्शित करना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन मोदी पीएम अपनी इसी  खूबी के चलते ही बन पाये थे.

हालिया फेरबदल में उन्होंने अपनी मुंह लगी मानी जाने वाली स्मृति ईरानी से मानव संसाधन विकास मंत्रालय छीन कर प्रकाश जावडेकर को महज इसलिए नहीं दिया कि स्मृति कई विवादों से घिरी थीं, बल्कि इसलिए दिया कि वे तकनीकी तौर पर हिन्दुत्व के माने नहीं समझ रहीं थीं. प्रकाश जावडेकर आरएसएस की जुवान और मंशा दोनों समझते हैं, इसलिए उन्हे प्रमोशन दिया गया, नहीं तो मोदी की नजर में अपने सारे मंत्री परफ़ार्मेंस के पैमाने पर फिसड्डी ही साबित हुये हैं. लेकिन काम भी उन्हे इन जैसों से ही चलाना है, इसलिए वे किसी तयशुदा फार्मूले की गिरफ्त में नहीं आए.

75 की उम्र का फार्मूला केवल मध्यप्रदेश तक समेट कर रख दिया गया. उम्र के दायरे में आ रहीं नजमा हेपतुल्ला को इसलिए नहीं हटाया गया कि इससे मुस्लिम समुदाय में अनदेखी का संदेशा जाता और उन्हीं के बराबर के कलराज मिश्र को इसलिए नहीं छेड़ा गया कि इससे ब्राह्मणों और कट्टर हिंदुओं में गलत संदेशा जाता. इसी तरह उत्तर प्रदेश के चुनावों के मद्देनजर ही अपना दल (हालांकि हाल फिलहाल अनुप्रिया के लिए पराया) की अनुप्रिया पटेल को मंत्री बनाकर दलित, पिछड़ों को भरोसा दिलाने की कोशिश की गई है कि सरकार उनकी अगुवाई को लेकर संजीदा है.

गौरतलब है कि अनुप्रिया की कुर्मी वोटों पर ख़ासी पकड़ है और वे कोई 25 विधानसभा सीटो पर प्रभाव रखती हैं. दलितों को और लुभाने के लिए महाराष्ट्र के रामदास अठावले को मौका दिया गया है, जो उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी की तरफ से दलित स्टार प्रचारक होंगे. राबर्ट वाड्रा के जमीन सौदों को उजागर करने बाले अर्जुन राम मेघवाल को एक तरह से पुरुस्कृत ही किया गया है, लेकिन हैसियत मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री की दी. रमाशंकर कठोरिया को उनके बड़बोलेपन की सजा देने में मोदी ने संघ का भी लिहाज नहीं किया है, बशर्ते संघ की सहमति इसमे न रही हो, लेकिन जाने क्यों शायद उत्तर प्रदेश के चुनावों के मद्देनजर साध्वी निरंजन ज्योति और गिरिराज सिंह को बख्श दिया गया है जो बोलने के मामले मे कठोरिया के भी उस्ताद हैं, यानि फेरबदल में मोदी की कमजोरी और संघ का दबाब भी एक बड़ा फेक्टर रहा है.

इससे इतर अरविंद केजरीवाल से दिल्ली मे हर लेबल पर  मैदानी लड़ाई लड़ने वाले विजय गोयल को भी प्रोत्साहन स्वरूप इनाम से नवाजा गया है. ब्राह्मण बनियों के दबदबे बाले सूबे उत्तराखंड से अजय टमटा को मंत्री बनाकर वहां कांग्रेस और बसपा को उलझाए रखने में मोदी कामयाब रहे हैं. पंजाब में भाजपा पूरी तरह अकाली दल की मोहताज है और उसका वोट बैंक बाहरी खासतौर से बिहारियों का है, इसलिए इस राज्य पर खास तब्बजूह नहीं दी गई. चर्चा थी कि नाराज चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू को मंत्रिमंडल में लिया जा सकता है, पर उन्हे भाजपा कोर ग्रुप मे लेकर पहले ही उन्हे साधा जा चुका था.

मध्य प्रदेश से संघ कोटे के अनिल माधव दवे को लिया गया है, जिससे साफ लगता है कि संघ का दबाब भाजपा सरकार पर कितना गहरा है. आदिवासी समुदाय से इसी सूबे के फग्गन सिंह कुलस्ते को लेकर इस समुदाय पर भाजपा अपनी पकड़ और मजबूत करने में सफल रही है और एम जे अकबर जैसे मौक़ापरस्तों से भी उसे परहेज नहीं.

तो मोदी की मंशा बेहद साफ दिख रही है कि वे आरएसएस की पकड़ से बाहर निकलने की कोशिश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. इसलिए ताजा फेरबदल पर आम लोगों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली. लोग अब कांग्रेस के शासनकाल कि तरह सोचने लगे हैं कि ‘कोई नृप होए हमे का हानि’ और यह मानसिकता भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए शुभ नहीं है.

मोदी मंत्रिमंडल: किफायत गई, शाहखर्ची आई

‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस‘ का नारा देते समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोचा भी नहीं था कभी उनकी सरकार भी मंत्रियों की संख्या के आधार पर डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार के बराबर पहुंच जायेगी. ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस‘ का मतलब यह होता है कि सरकार कम खर्च में ज्यादा काम करेगी. अपनी बात को सही साबित करने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केवल 45 मंत्रियों के साथ शपथ ग्रहण की थी. 2 साल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस‘ वाले किफायती सिद्वांत को दरकिनार करते हुये 78 मंत्रियों को सरकार में शामिल करके शाहखर्ची का काम शुरू कर दिया गया है.

वैसे सबसे अधिक मंत्रियो का रिकार्ड वाजपेयी सरकार के नाम है. 1999 की वाजपेयी सरकार में मंत्रियों की संख्या 56 से शुरू होकर 88 तक पहुंच गई थी. उसके बाद सबसे अधिक मंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार में थे. उस समय 78 मंत्री बनाये गये थे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार में भी 78 मंत्री हो गये हैं. जिससे साफ हो गया है कि सरकार अब किफायत को भूल कर शाहखर्ची की तरफ बढ़ चुकी है. वैसे कानूनी हक की बात की जाये तो संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार केन्द्र सरकार में 82 मंत्री हो सकते है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘गवर्नेंस‘ पर ‘पॉलिटिकल बैलेंस’ साधने की मजबूरी समझ नहीं आ रही है.

वाजपेयी सरकार और डाक्टर मनमोहन सरकार की मजबूरियां थी जिसके कारण उनको अपने मंत्रिमंडल का आकार बढाना पडा था. यह दोनो ही सरकारें सहयोगी दलो के सहारे पर टिकी थी. सहयोगी दलों का लगातार दबाव पड़ता था. सहयोगी दलों का दबाव कई बार सरकार बचाने और गिराने की हद तक चला जाता था. डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार पर यह दबाव कुछ अधिक ही था, जिसके कारण उनको सहयोगी दलों को प्रमुख विभाग भी देने पड़े थे. भ्रष्टाचार के मामलों में देखे तो सबसे अधिक आरोप सहयोगी दलों के मंत्रियों पर था. इसी तरह के दबाव में वाजपेयी सरकार भी थी. दबाव का ही कारण था कि पहली बार वाजपेयी सरकार केवल 13 दिन ही चल पाई थी. 1 वोट से वह ससंद में अपना बहुमत साबित नहीं कर पाई थी.

2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बनी सरकार में देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी को पूरा बहुमत दिया था. भाजपा को सरकार बनाने के लिये सहयोगी दलों के जरूरत नहीं थी. इसके बाद भी भाजपा ने अकाली दल, लोकजनशक्ति पार्टी और शिवसेना जैसे सहयोगी दलों के नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया था. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 45 मंत्रियों के साथ अपना काम शुरू किया तो लगा कि बहुमत की सरकार कम खर्च में काम कर देश के सामने एक मिसाल कायम करेगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में सरकार की चमक लगातार फीकी पड़ती जा रही है. इस चमक का असर था कि भाजपा दिल्ली, बिहार जैसे प्रमुख प्रदेशों में चुनाव हार गई.

2017 में उत्तर प्रदेश और गुजरात में विधानसभा के चुनाव हैं. भाजपा किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश और गुजरात जीतना चाहती है. ऐसे में केन्द्र सरकार में उत्तर प्रदेश से 13 मंत्री बनाये गये हैं. सबसे अलग दिखने वाली बात यह है कि जिन मंत्रियों की संख्या बढ़ाई गई, उनमें ज्यादातर भाजपा के लोग है. सहयोगी दलों के सांसदो को मंत्रिमंडल विस्तार में कम मौके ही मिल सके है. इस बात को लेकर शिवसेना अपना मत साफ कर चुकी है. मंत्रिमंडल के सहारे केन्द्र सरकार ने अपनी खोई चमक को वापस पाने और नये जातीय समीकरण को साधने का प्रयास कर रही है. मंत्रिमंडल के विस्तार से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस‘ सिद्वांत को चोट पहुंची है. उनकी छवि प्रभावित हुई है.

VIDEO: जब 12 साल के बच्चे ने सुनाई अपनी मां को लड़कियों के पीरियड्स की कहानी

'बच्चे मन के सच्चे…' ये गाना तो आपने सुना ही होगा. कहते हैं बच्चे बहुत मासूम होते हैं और अपने आस-पास की चीज़ों और बातों को सुनकर बहुत कुछ सीखते हैं. बच्चे जो देखते हैं भले ही वो गलत हो या सही बहुत जल्दी उसे अपना लेते हैं. इसलिए पेरेंट्स को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वो क्या सीख रहे हैं.

आइये आज हम आपको एक ऐसा वीडियो दिखाते हैं, जिसमें एक 12 साल का बच्चा जब स्कूल से लौटता है, तो वो अपनी मां को स्कूल की क्या कहानी सुनाता है. बच्चे की कहानी सुनकर उसकी मां सोचने पर मज़बूर हो गई और फिर प्रिंसिपल को एक लेटर लिखा. आप भी सुनिए उस 12 साल के बच्चे की कहानी.

वेस्टइंडीज रवाना हुई टीम इंडिया

विराट कोहली के नेतृत्व वाली भारतीय टेस्ट टीम मंगलवार को वेस्टइंडीज के चार टेस्ट मैचों के दौरे के लिए रवाना हो गई. मुंबई के छत्रपति शिवाजी अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम से टीम ने उड़ान भरी. कोहली और भारतीय टीम के साथ नव-नियुक्त कोच अनिल कुंबले भी शामिल थे.

भारत के वेस्टइंडीज दौरे की शुरुआत दो दिवसीय अभ्यास मैच से होगी. भारतीय टीम वेस्टइंडीज क्रिकेट बोर्ड प्रेजिडेंट इलेवन के साथ वॉर्नर पार्क में 9-10 जुलाई को यह मुकाबला खेलेंगे. इसके बाद सेंट कीट्स के इसी मैदान पर टीम 14-16 जुलाई के बीच तीन दिवसीय अभ्यास मैच खेलेगी.

दौरे का पहला टेस्ट मैच ऐंटिगुआ के विवियन रिचर्ड्स ग्राउंड पर 21 जुलाई से 25 जुलाई के बीच खेला जाएगा.

बाकी तीन टेस्ट मैचों का कार्यक्रम इस प्रकार है- पहला टेस्ट मैच सबीना पार्क किंग्सटन, जमैका (30 जुलाई -3 अगस्त), डैरेन समी नैशनल क्रिकेट स्टेडियम ग्रॉस आइसलेट, सेंट लूसिया (9-13 अगस्त) और क्वींस पार्क ओवल, पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिदाद (18-22 अगस्त).

भारतीय टीम ने पिछली बार वर्ष 2011 में वेस्टइंडीज का दौरा किया था. भारत ने सीरीज 1-0 से अपने नाम की थी. टीम ने किंग्सटन में टेस्ट मैच जीता था और ब्रिजटाउन और रोसेऊ में मुकाबले ड्रॉ करवाने में कामयाबी हासिल की थी.

विराट कोहली ने अपने टेस्ट करियर की शुरुआत वेस्टइंडीज में की थी. पांच साल बाद कोहली टीम के कप्तान और स्टार बल्लेबाज के रूप में एक बार फिर कैरीबियाई धरती पर हैं.

टेस्ट टीम

विराट कोहली (कप्तान), अंजिक्य रहाणे (उप कप्तान), मुरली विजय, शिखर धवन, के एल राहुल, चेतेश्वर पुजारा, रोहित शर्मा, रिद्धिमान साहा, आर. अश्विन, रविंद्र जाडेजा, इशांत शर्मा, मोहम्मद शमी, भुवनेश्वर कुमार, शार्दुल ठाकुर, स्टुअर्ट बिनी

पोंगापंथ के चपेट में आसमानी बिजली

बिहार के गया जिला के चाकंद गांव में बिजली गिरने से 8 लोगों की मौत हो गई और 7 लोग बुरी तरह जख्मी हो गए. बीते 5 जुलाई की शाम को तेज बारिश से बचने के लिए कई लोग एक बड़े पेड़ के नीचे खड़े थे. उसी समय बिजली गिरने से मौके पर ही 5 लोगों की मौत हो गई और 3 लोगों की मौत अस्पताल ले जाने के दौरान हो गई. पिंकी कुमारी, देवनंदन यादव, अमरजीत, कांग्रेस, गणेश शर्मा, किरण देवी, राकेश और पूनम कुमारी बिजली गिरने से मारे गए. पिछले महीने मानसून की शुरूआत के साथ राज्य की अलग-अलग इलाकों में बिजली गिरने की वजह से 52 लोगों को जान गंवानी पड़ी.

बारिश के मौसम में वज्रपात होना, बिजली गिरना या ठनका गिरना आम बात है. लोग इसे दैविक प्रकोप मानते है. गांवों में यह माना जाता है कि भगवान के गुस्सा होने से बिजली गिरती है. लोगों में यह धरणा भी है कि मानसून की पहली बारिश के पानी में भींगने से चर्म रोग, खुजली आदि ठीक हो जाती है. अगर साइंस की मानें तो बिलजी गिरने की घटना को रोका तो नहीं जा सकता है, पर कुछ सावधनियां बरत कर उससे बचा जा सकता है या उससे होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

आसमान से बिजली गिरने को लेकर कई तरह के अंधविश्वास भी फैलाए गए हैं. गांवों में आज भी लोग मानते हैं कि ईश्वर के गुस्से की वजह से बिजली गिरती है. कोई यह भी मानता है कि अगर किसी आदमी पर बिजली गिरती है तो उसे पिछले जन्म के पापों से मुक्ति मिल जाती है. बारिश के मौसम में लोग अपने घरों के आंगन या खेत में काफी गोबर जमा करके रखते हैं, क्योंकि गांवों में यह पोंगापंथ फैला हुआ है कि गोबर पर बिजली गिरने से गोबर सोना हो जाता है. इतना ही नहीं लोगों ने यह अफवाह भी फैला रखी है कि मकान पर बिजली गिरने से छत के ऊपर रखा लोहे का सरिया अष्टधातु में बदल जाता है.

साइंस कहता है कि आसमान में अपोजिट एनर्जी के बादल हवा में घूमते रहते हैं. इन बादलों के आपस में टकराने से की वजह से जो बिजली पैदा होती है, वही धरती पर गिरती है. आकाश में किसी तरह का कंडक्टर नहीं होने की वजह से आसमान में पैदा हुई बिजली कंडटर की खोज में जमीन की ओर भागती है. आकाश से गिरने वाली बिजली जब किसी लोहे के पोल के आसपास से गुजरती है तो वह कंडक्टर का काम कर जाता है. इससे किसी को नुकसान पहुंचाए बगैर बिजली की तरंगे जमीन में समा जाती है. आसमान से बिजली गिरते समय अगर कोई इंसान या जानवर उसके संपर्क में आता है तो बिजली के तेज झटके उसकी मौत हो जाती है. बिजली कड़कने पर 10 लाख वाट प्रति घंटे की गति से बिजली पैदा होती है और इसका टेंपरेचर सूर्य की उफपरी सतह से भी ज्यादा आंका गया है.

डाक्टर दिवाकर तेजस्वी बताते हैं कि आसमान से गिरने वाली बिजली का असर जब इंसानी शरीर पर पड़ता है तो कई टिश्यू जल कर काम करना बंद कर देते हैं. पूरा जिस्म जल जाता है. बिजली के करीब रहने वालों की मौत तय है और उसे कुछ दूरी पर रहने वाले जख्मी हो जाते हैं. बिजली के असर से नर्वस सिस्टम डैमेज हो जाता है और हार्ट अटैक होने की भी पूरी संभवना रहती है. इससे जख्मी होने वालों को भी पूरी तरह से ठीक होने में लंबा समय लग जाता है.

ऐसे बचें आसमानी बिजली से

– घर की छत पर तड़ित चालक लगाएं, जो बिजली के गिरने पर अर्थिंग का काम करता है और घर और उसमें रहने वालों को कोई नुकसान नहीं होने देता है.

– तेज आंधी और बारिश होने पर कंप्युटर, टेलीविजन, मौडम बंद कर दें और फ्रिज, वाशिंग मशीन, ओवेन आदि बिजली से चलने वाले सभी चीजों की प्लग भी निकाल दें.

– तेज बारिश के दौरान मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं करें.

– नंगे पांव जमीन पर नहीं रहें.

– पेड़ या खुले मैदान में नहीं रहें.

– तेज बारिश से बचने के लिए किसी पेड़ के नीचे नहीं खड़े हों.

रॉयल एनफील्ड को वापस मंगानी पड़ी बाइक

रॉयल एनफील्ड इतना मशहूर ब्रांड है कि इसने बाइकिंग को बाइकर्स के लिए धर्म बना दिया. इसके दुनियाभर में प्रशंसक हैं. इस ब्रांड को विशेषतौर पर लोग लंबी ट्रिप्स के लिए इस्तेमाल करते हैं. फिर चाहे वह 300 किलोमीटर लंबी वीकएंड ट्रिप हो या फिर हिमालय पर जाने के लिए लाइफटाइम ट्रिप.

गुजरते वक्त के साथ बाजार बदला. बाजार बदला तो डिमांड बदली और डिमांड बदली तो आ गईं मॉडर्न लुक वाली मोटरसाइकिलें. इनमें लिक्विड कूलिंग, बेहतरीन इंजन, हल्की वजन और अधिक विश्वसनीयता जैसी खूबियां थीं. लोगों ने इन्हें खरीदना शुरू कर दिया.

बाजार के इस ट्रेंड को देखते हुए रॉयल एनफील्ड ने एक ऐसी एडवेंचर टुअर राइडर बाइक के साथ आने की सोची जिसमें ताकत रॉयल एनफील्ड की हो और खूबियां मॉडर्न बाइक की. आखिरकार, कंपनी ने अपनी नई मोटरसाइकिल हिमालयन उतारी. इस बाइक के आने के साथ ही बाइक कैटेगरीज़ में खुद ही एक नया सेगमेंट बन गया. इस लिहाज से हिमालयन को कोई कॉम्पटीटर नही है.

रॉयल एनफील्ड ने दावा किया कि हिमालयन को हिमालय में बखूबी टेस्ट किया जा चुका है और यह सभी पैमानों पर खरी उतरी है. लोगों ने कंपनी ने दावों पर यकीन किया और महज कुछ ही दिनों में इस बाइक की बुकिंग सातवें आसमान पर थी. लेकिन अब इस मोटरसाइकिल के ग्राहकों ने इससे जुड़ी शिकायतें की हैं. उनका कहना है कि इस बाइक में कुछ खामियां हैं.

हिमालयन संबंधी जो सबसे पहली शिकायत है, वह है कि इसका क्लच काफी हार्ड और और गियरबॉक्स का रेस्पॉन्स भी अच्छा नहीं है. 90 के दशक से रॉयल एनफील्ड की सवारी करने वाला इसे अहमियत नहीं देगा क्योंकि हिमालयन में तुलनात्मक रूप से बेहतर क्लच और गियरबॉक्स दिए जाने का प्रॉमिस किया गया था. इसमें पुराने 3 प्लेट क्चल के मुकाबले बेहतर सिस्टम दिया गया था जो कि ट्रैफिक में क्लच गर्म हो जाने के बावजूद आसानी से गियर शिफ्ट करने में मददगार ​था.

दरअसल, बात इतनी सी नहीं है. ग्राहक एक ऐसी मोटरसाइकिल देखते हैं जो हर पहलू पर बेहतर परफॉर्म करे. क्या रॉयल एनफील्ड हिमालयन की असफलता के पीछे यह एकमात्र कारण था? या फिर कंपनी ने इस मोटरसाइकिल को बनाने में कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी दिखाई?

इसका सीधा सा जवाब है कि रॉयल एनफील्ड ने फैन फॉलोइंग के बजाय इस बार बाजार का तवज्जो दी. कंपनी ने किसी अन्य मोटरसाइकिल ब्रांड की तरह सेल्स नंबर बढ़ाने पर फोकस रखा. ये अब बीते जमाने की बात सी लगती है जबकि लोग सूर्यास्त होने पर अपनी एनफील्ड मोटरसाइकिल पर बाइकिंग का मजा लेते थे. यह इस ब्रांड का ही चार्म था कि धीरे-धीरे अच्छी खासी संख्या में लोग इसके साथ जुड़ते गए!

लेकिन अब वक्त बदल चुका है. ग्राहक अब अपने पैसे की वैल्यू चाहता है और इसलिए वह मोटरसाइकिल खरीदते वक्त छोटे से छोट डिटेल के बारे में भी जानना चाहता है. रॉयल एनफील्ड ने हिमालयन में यही गलती की. उसने इस मोटरसाइकिल की क्वॉलिटी और इसके छोटे से छोटे डिटेल को अच्छे से नहीं टेस्ट किया. रॉयल एनफील्ड के इतिहास में यह पहला मौका है जबकि उसे अपनी मोटरसाइकलों को वापस मंगाना पड़ा है. हालांकि, कंपनी अपनी क​मी पर पर्दा डालने की भी कोशिश कर रही है.

सवाल सिर्फ इतना सा है कि कस्टमर्स को इस बाइक की डिलीवरी करने से पहले रॉयल एनफील्ड ने हिमालयन को अच्छे से टेस्ट क्यों नहीं किया? खैर, सच्चाई चाहे जो भी हो लेकिन इतना तो तय है कि ग्राहक रॉयल एनफील्ड से क्वॉन्टिटी के मुकाबले क्वॉलिटी की अपेक्षा रखते हैं. कंपनी को याद रखना चाहिए कि बेहतरीन बाइक क्वॉलिटी का सीधा मतलब होता है बेहतरीन सेल्स, जो कि आखिर में फैन फॉलोइंग बढ़ाने में भी मददगार है.

समान मातृत्वकालीन अवकाश की मांग ने पकड़ा जोर

इन दिनों छह महीने की मातृत्व कालीन छुट्टी की बड़ी चर्चा है. लेकिन कुछ ऐसी मांएं भी हैं जिनका खुद अपना बच्चा नहीं है, लेकिन किसी नवजात बच्चे को गोद लिया है. ऐसी मांएं भी मातृत्वकालीन छुट्टी की मांग लंबे समय से कर रही हैं. हाल ही में सरकार और निजी कंपनियों में मातृत्वकालीन अवकाश की अवधि को 12 हफ्ते से बढ़ा कर 26 हफ्ते कर दिया गया है. 28 हफ्ते किए जाने पर भी विचार हो रहा है. इससे पहले कामकाजी सरोगेट मांओं को भी मातृत्वकालीन अवकाश दिए जाने का प्रावधान किया गया. लेकिन कुछ राज्यों को छोड़ कर गोद लेनेवाली मांओं को मातृत्वकालीन अवकाश दिए जाने का चलन नहीं है. इसीलिए समान मातृत्व कालीन अवकाश की मांग जोर पकड़ रही है.

मातृत्व लाभ कानून 1961 में संशोधन के बाद सरकार ने इस मामले में एक निर्देशिका भी जारी की है कि जिसमें दत्तक अवकाश दिए जाने की बात कही गयी है. संशोधन के बाद सरोगेट मां यानि किराये पर कोख देनेवाली मांओं के लिए भी मातृत्वकालीन अवकाश का प्रावधान किया गया था. इसी साल जनवरी में केंद्र सरकार की ओर से किसी बच्चे को गोद लेनेवाली महिलाओं को भी मातृत्व कालीन अवकाश दिए जाने पर विचार की बात कही गयी थी. गौरतलब है कि गोद लेनेवाली मांओं के लिए मातृत्वकालीन अवकाश का प्रावधान कुछ राज्यों को छोड़ कर व्यापक तौर पर पूरे देश में लागू नहीं है. जहां लागू है वहां यह सिर्फ सरकारी महिला कर्मचारियों को ही यह सुविधा मिलती है. अगर निजी कंपनियों की बात करें तो यहां गोद लेनेवाली महिलाओं के लिए ऐसा कोई प्रावधान है ही नहीं.

इला भसीन (बदला हुआ नाम) एक स्कूल में टीचर हैं. कोलकाता के दक्षिणी उपनगर संतोषपुर में रहती हैं. पिछले साल सितंबर में उन्होंने एक नवजात बच्चे को गोद लिया. दरअसल, उनके मोहल्ले में कूड़ेदान के पास चिथड़े में लिपटा यह बच्चा उनकी आया को मिला. रोज की तरह एक दिन सुबह जब काम कर निकली, तो उसने मुहल्ले के कूड़ेदान से बच्चे के रोने की आवाज सुनायी दी. बच्चे को घेरे हुए कौवे कांव-कांव कर रहे थे. बच्चे की उठा कर वह इला के यहां ले आयी. इला ने बच्चे को स्थानीय अस्पताल में भरती कराया. फिर पुलिस को सूचित किया.

पुलिस ने छानबीन शुरू की, लेकिन बच्चे को कूड़ेदान के पास छोड़ जानेवाले का पता नहीं चला. अब पुलिस बच्चे को किसी होम के हवाले करने का विचार कर रही थी. इस बीच इला ने उस बच्चे को गोद ले लेना तय कर लिया. तमाम औपचारिकताएं पूरी करने के बाद बच्चे को वह घर ले आयी. अब इस नवजात बच्चे की देखभाल जरूरी थी, सो इला ने अपने स्कूल में छुट्टी की अर्जी दे दी. 135 दिन की छुट्टी मंजूर भी हो गयी. छुट्टियां खत्म हो जाने के बाद इला ने जब स्कूल ज्वाइन किया तो पता चला कि वे छुट्टियां उनकी अर्जित और मेडिकल छुट्टी से दी गयी थी. साथ में यह भी कि गोद लिये गए बच्चे की देखभाल के लिए अलग से छुट्टी लेने व दिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है. जबकि इसी साल राज्य में सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त स्कूलों में मातृत्वकालीन 135 दिनों की छुट्टियों के बढ़ा कर 180 दिन का कर दिया गया. लेकिन गोद लेने के मामले में अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है.

बताया जाता है कि भारत में हर साल लगभग साढ़े छह हजार बच्चे पूरे देश में गोद लिये जाते हैं. जबकि अनाथ बच्चों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ से अधिक बतायी जाती है. गोद लेने का चलन सबसे ज्यादा बंगाल और महाराष्ट्र में है. लेकिन बंगाल में ज्यादातर लड़कियों को ही गोद लिया जाता है, जबकि महाराष्ट्र में लड़कों को गोद लेने का चलन अधिक है.

बच्चों को गोद लेने का चलन इन दिनों बढ़ गया है. महानगर-उपनगरों में जहां आए दिन बच्चे को कूड़ेदान, रेलवे लाइन या किसी सूनसान जगह पर छोड़ लावारिश की तरह छोड़ जाने की घटना सामने आ रही है तो वहीं इन बच्चों को गोद लेने की भी घटना सामने आ रही है.

पिछले दस सालों में दत्तक कानून में कई सुधार आए हैं. लेकिन जहां तक दत्तक अवकाश का सवाल है, तो इस मामले में व्यापक स्तर पर कुछ भी नहीं किया गया है. दरअसल, इस बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठायी गयी है. व्यापक स्तर पर यह सुविधा प्राप्त के लिए अभी लड़ाई बाकी है. यहां उल्लेखनीय है कि इसके लिए कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था ‘आत्मजा’ लंबे समय से काम काम कर रही है.

इस सिलसिले में भारत सरकार की निर्देशिका का श्रेय दस साल की ‘आत्मजा’ को ही जाता है. संस्था की सदस्य नीलांजना गुप्ता, जिन्होंने खुद भी एक बच्चा दत्तक लिया है, ने सिलसिलेवार कई मुद्दों को उठाया. उनका कहना है कि दत्तक कानून में अभी बहुत सारे सुधार की जरूरत है. पर विडंबना यह है कि काम बहुत धीमी गति से हो रहा है. नीलांजना गुप्ता जादवपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्राध्यापिका भी है, इसीलिए जब उन्होंने एक बच्ची को गोद लिया तो उन्होंने खुद भी अवकाश की जरूरत को शिद्दत से महसूस की.

उनका कहना है कि गोद लेने के मामले में आम लोगों में भले ही जागरूकता आयी है, लेकिन सरकार अभी भी सो रही है. अगर अवकाश की बात की जाए तो इसके लिए हर राज्य में कानून बनना चाहिए, क्योंकि जन्म देनेवाली मां की तुलना में गोद लेनेवाली मां को अवकाश की ज्यादा जरूरत है. जन्म देनेवाली मां का अपने बच्चे के साथ गर्भ के नौ महीने के दौरान एक आत्मीय संबंध बन जाता है. लेकिन गोद लेनेवाली मां और बच्चे के बीच ऐसा संबंध बनने में देर भी लग सकता है. साथ ही परिवार को भी बच्चे के साथ और बच्चे को परिवार के साथ एडजस्ट करने में भी समय लगता है.

वे कहती हैं कि अभी केंद्र और कुछ राज्यों में दत्तक अवकाश का प्रावधान है, लेकिन ज्यादातर राज्यों में ऐसा कोई नियम नहीं है. खुद बंगाल में भी नहीं है. पिछली सरकार के साथ कई बैठकें हुई. लेकिन बात नहीं बनी. हालांकि ममता बनर्जी की सरकार से आत्मजा को बहुत उम्मीद है, लेकिन विडंबना यह है कि सरकार ने अभी सभी क्षेत्र में ठीक से काम करना शुरू नहीं किया है.

नीलांजना यह भी कहती हैं कि मां को अपने बच्चे को पालने के शुरूआती दिनों के लिए दी जानेवाली छुट्टियों के लिए कोई भेदभाव नहीं किया होना चाहिए. जबकि भेदभाव हैं. सबसे पहले तो जहां कहीं भी इस तरह की छुट्टियां दी जा रही है वह सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को ही. निजी कंपनियों में ऐसी छुट्टी का कोई नियम नहीं है. जबकि वहां भी इसकी जरूरत है. इसीलिए मातृत्व अवकाश की तरह दत्तक अवकाश को भी हर कंपनी में लागू होना चाहिए. दूसरा, दत्तक अवकाश के लिए एक बंदिश यह भी है कि यह अवकाश केवल एक साल तक के बच्चे के लिए दिया जाता है. जबकि दत्तक लेनेवाले किसी भी बच्चे और परिवार को आपस में घुलने-मिलने में थोड़ा वक्त तो लगता है. लेकिन यह अवकाश केवल एक साल तक के बच्चे के लिए दिए जाने की बंदिश अनुचित है.

अवकाश के प्रति जागरूकता में अभी के कारण भी अड़चन आ रही है. समाज में गोद लेने का चलन तो बढ़ा है, लेकिन गोद लेनेवालों को इस सिलसिले में सरकार द्वारा दी जानेवाली सुविधा के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. ऐसा नहीं होने की वजह से ही इला को परेशानी का सामना करना पड़ा. अब अगर भविष्य में कभी बच्चे के लिए उसे छुट्टी की जरूरत पड़े तो उस छुट्टी के बदले उसे अपना वेतन कटवाना पड़ेगा., क्योंकि अब तक उसकी छुट्टियां खत्म हो गयी है. जानकारी के अभाव में अक्सर हम अपने अधिकारों का लाभ नहीं उठा पाते हैं.

आइए, इस संबंध में कोलकाता हाईकोर्ट की वरिष्ठ एडवोकेट अरुणा मुखर्जी बताती हैं कि 2009 में केंद्र सरकार ने एक निर्देश जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि अधिकतम एक साल के बच्चे को गोद लेने पर मां को 180 दिनों का एडप्टिव लीव दिया जाएगा. यहां तक कि पिता को भी 15 दिनों की छुट्टी मिलेगी. अरुणा मुखर्जी कहती हैं कि यूजीसी के नियम के तहत कॉलेज और युनिवर्सिटी के प्राध्यापिकाएं भी केंद्र सरकार के उपरोक्त निर्देश के तहत एडप्टिव लीव की हकदार हैं.

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में सरकारी कर्मचारियों को बच्चा गोद लेने पर दत्तक गृह अवकाश के नाम पर 67 दिनों का अवकाश दिये जाने का नियम पहले से ही था. लेकिन कुछ साल पहले इस नियमावली में संशोधन करते हुए अधिकतम दो बच्चे के लिए दत्तक गृह अवकाश की मंजूरी दी गयी है. वहीं राजस्थान ने भी केंद्र के निर्देश का पालन करते हुए गोद लेनेवाली सरकारी महिला कर्मचारी को मातृत्व अवकाश के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गयी है. इस प्रस्ताव को मंजूरी देने का आधार यह है कि एक साल से कम उम्र के बच्चे की देखभाल गोद लेनेवाली महिला को उसी तरह करनी पड़ती है, जिस तरह बच्चे को जन्म देनेवाली मां को करनी पड़ती है. कर्नाटक और असम में भी दत्तक अवकाश का नियम है. बेहतर हो कि इस मामले में संबंधित राज्य के नियमों की जानकारी ले ली जाए.

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