असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों में असम को छोड़ कर दिल्ली पर शान से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी औंधे मुंह गिरी है. मजेदार बात यह है कि हिंदू सोच के अनुसार यहां भी हार के बावजूद जीत मनाने का फैशन वैसे अपनाया गया, जैसे महाभारत में सबकुछ खोने के बाद पांडवों ने अपनी जीत समझी और रामायण में राम जीते. पर न लंका मिली, न सीता. पर जीत पर आज भी दीवाली मनाई जाती है. मोदी और शाह छोटे राज्य असम की जीत को ओलिंपिक में हाकी की जीत के बराबर मान रहे हैं, जबकि कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, डीएमके, एडीएमके, तृणमूल कांग्रेस ने ज्यादा सीटें जीती हैं. इसे कहते हैं बिना जमीन के छा जाना.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने मई, 2014 के बाद न जनता के लिए कुछ ज्यादा किया है, न उस एजेंडे के लिए जो भगवाई हथेली पर लिए घूमते हैं. गरीब तो गरीब रहे ही हैं, अमीर भी खुश नहीं हैं. पर यह कमाल है कि भाजपा भक्तों का सैलाब वैसा ही है, जैसे गंदी गंगा में बाढ़ के बाद भी उस पर लोगों की श्रद्धा बनी रहती है.
देश का गरीब और किसान मजदूर आज ज्यादा परेशान है. कोई भी पार्टी उसे गहरे गड्ढे से निकालने के लिए कुछ कर नहीं रही, बस किनारे खड़े हो कर चिल्ला रही है कि हम तुम्हारे लिए परेशान हैं. ममता बनर्जी का राज्य गरीबी के दलदल में है और गरीबों की बचत चिटफंड कंपनियां खा रही हैं. तमिलनाडु में मुफ्त की चीजें बांटी जा रही हैं. केरल में किसी को अरब देशों से लौट कर आए बेकार बैठों की चिंता नहीं है. असम में यह हौआ खड़ा किया जा रहा है कि मुसलमान, चाहे बंगाल से आए हों या बंगलादेश से, असम को हड़प लेंगे, जबकि वे थकेहारे गरीब बीमार हैं. पुडुचेरी कुछ अच्छा है, क्योंकि वहां पूर्व फ्रांसीसी शासक सलीके से रहने का पाठ पढ़ा गए थे.
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