Download App

भाजपा की बेचैनी की वजह कहीं चक्रवर्ती मानसिकता तो नहीं?

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेसी दिग्गज कमलनाथ के भी भाजपा में जाने न जाने के ड्रामे से अब परदा लगभग गिर गया है. कहा जा रहा है कि कमलनाथ खुद भाजपा में नहीं जाएंगे बल्कि अपने बेटे नकुलनाथ और बहू प्रियनाथ को सनातन धर्म की दीक्षा दिलाने मोदी-शाह की शरण में भेज देंगे. हालांकि कमलनाथ अब इस से भी इनकार कर रहे हैं लेकिन आयारामगयाराम जैसे ऐसे नाटक अब देश की राजनीति में रोज की बात हो चले हैं जिन में दिलचस्प बात यह है कि अधिकतर कांग्रेसी और दूसरे विपक्षी नेता भाजपा में ज्यादा जा रहे हैं, भाजपा छोड़ कर कोई कांग्रेस या दूसरी पार्टी में नहीं जा रहा.

एक और ताजा मामला चंडीगढ़ का है जहां आम आदमी पार्टी के 3 पार्षद भाजपा में चले गए. गौरतलब है कि चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में खुलेआम जम कर धांधली हुई थी. भाजपा से मेयर बने मनोज सोनकर ने भी इस्तीफा दे दिया है. धांधली को ले कर आप और कांग्रेस दोनों सुप्रीम कोर्ट गए थे जिस की सुनवाई अभी चल रही है.
इस के पहले हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव अधिकारी अनिल मसीह को कड़ी फटकार लगाते उन पर मुकदमा चलाने की बात कही थी. हुआ इतना भर था कि अनिल मसीह ने आप और कांग्रेसी पार्षदों के बैलट पेपर पर स्याही चलाते उन्हें रद्द घोषित कर दिया था जिस से मनोज सोनकर मेयर बन गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने इसे लोकतंत्र की हत्या भी करार दिया था.

लोकतंत्र की बदहाली का आलम तो इन दिनों यह है कि इस के होने पर ही शक और न होने पर यकीन होने लगा है. जो नेता किसी एक पार्टी की नीतियोंरीतियोंसिद्धांतों सहित चुनावचिन्ह पर चुने जाते हैं वे सैकंडों में खीसें निपोरते पूरी बेशर्मी से किसी दूसरी पार्टी में चले जाते हैं. अब यह दूसरी पार्टी 95 फीसदी मामलों में भाजपा ही क्यों होती है, यह जरूर गौरतलब बात है. यहां बहुत सीधी सी बात यह भी है कि उसूल अपनी मूल पार्टी छोड़ने वाला ही नहीं त्यागता बल्कि उसे लेने वाली भाजपा भी त्यागती है तभी तो वह नंबर वन पार्टी है.

इस में शक नहीं कि इन दिनों भाजपा की तूती बोल रही है ठीक वैसे ही जैसे नेहरू और इंदिरा के दौर में कांग्रेस की बोला करती थी. बकौल भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा, जल्द ही सभी राज्यों में भगवा परचम लहराएगा. लोकसभा में भाजपा 370 और एनडीए गठबंधन 400 से भी ज्यादा सीटें जीतेगा, यह राग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम छोटेबड़े नेता सुबहशाम अलापते रहते हैं.

इस पार्टी में हर शख्स परेशान क्यों हैं

शक तो इस बात में भी नहीं कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा दूसरी पार्टियों से कहीं बेहतर स्थिति में है लेकिन सब से ज्यादा बेचैनी भी उसी के खेमे में है. कमलनाथ के जाने न जाने के 3 दिवसीय ड्रामे में यह सब दिखा भी. पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने कहा वे यानी कमलनाथ राम का नाम ले कर भाजपा में आ सकते हैं. एक और वरिष्ठ भाजपाई नेता कैलाश विजयवर्गीय, जो पहले कमलनाथ की एंट्री पर भौंहे सिकोड़ रहे थे, झुकते हुए नजर आए. मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी डी शर्मा ने कहा कि जो भी देश की तरक्की में योगदान देना चाहे, उस का स्वागत है.

इस मसले पर कांग्रेसियों से ज्यादा बेचैनी भाजपाइयों में देखी गई जो कमलनाथ को ले कर उतने ही रोमांचित और उत्सुक थे जितने 3 साल पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को ले कर थे. इस की वजह साफ है कि अब भाजपाइयों को समझ आ गया है कि खुद के दम पर जितना मिलना था, मिल चुका. अब दूसरी पार्टियों से जो मिलेगा, वह बोनस है.
यही हाल शीर्ष भाजपाई नेताओं का है जो आंख बंद कर विपक्षी नेताओं के लिए पलकपांवड़े बिछा कर बैठे हैं. यह, दरअसल, भाजपा का राजसूय यज्ञ है जिस के तहत मंशा नरेंद्र मोदी को चक्रवर्ती सम्राट बनाने की है. यह यज्ञ त्रेता युग में राजा दशरथ और द्वापर युग में युधिष्ठिर ने किया था. इन यज्ञों को ब्राह्मण ही संपन्न कराते थे. राजा तो उन का मोहरा होता था, जिस की पीठ पर तीरकमान रख ऋषिमुनि अपना दानदक्षिणा का कारोबार फैलाते थे.

इन दिनों इस भूमिका में यानी परदे के पीछे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत हैं, यह भी हरकोई जानतासमझता है. अधिसंख्य सवर्णों को इस पर एतराज नहीं है. उलटे, वे तो इस यज्ञ में ज्यादा से ज्यादा आहुतियां ही डाल रहे हैं. ये लोग मनुवादी व्यवस्था के पैरोकार हैं जिस के तहत सबकुछ ऊंची जाति वालों का होता है. चले तो इन्हें भी जाना चाहिए.

कमलनाथ जैसे सवर्ण मानसिकता के नेताओ ने जम कर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है. नेताओं की यह वह खेप है जो दलित, आदिवासी, पिछड़ों और मुसलमानों के वोटों पर चुन कर विधानसभाओं और संसद में पहुंचती थी, लेकिन काम खुद के और सवर्णों के करती थी. यही अब भाजपा कर रही है और कमलनाथ जैसे नेता उस की देहरी पर माथा टेक रहे हैं. यह और बात है कि कमलनाथ से भाजपा का सौदा पटा नहीं.

कांग्रेस में ऐसे बुढ़ाते नेताओं का ही दबदबा है जो मन से मनुवादी हैं लेकिन दिखाने को खुद को गांधीवादी कहते हैं. शशि थरूर, पी चिदंबरम, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी जैसे दिग्गज हैं तो कमलनाथ जैसे मौसरे भाई भी जिन का कोई ठिकाना नहीं कि कब कांग्रेस छोड़ दें. दरअसल, अब इन के संसद में पहुंचने की संभावना खत्म हो रही है और एकाध कोई पहुंच भी जाए तो भाजपा कब ईडी के जरिए उसे रुला दे, कहा नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश में कमलनाथ के ड्रामे के वक्त यह चर्चा घरघर में थी कि वे अपने कारोबार के चलते भगवा गैंग जौइन कर रहे हैं. पुत्रमोह तो धृतराष्ट्र की तरह कुख्यात है ही.

यही नेता कांग्रेस को कमजोर करते रहे हैं जिन पर भाजपा को मजबूत करने का आरोप भी लगता रहता है. भाजपा का राजसूय यज्ञ इन्हीं सवर्ण मानसिकता वाले नेताओं की वजह से परवान चढ़ रहा है जिन में लड़ने की ताकत नहीं रही, वे हथियार डालने लगे हैं. अशोक चव्हाण और मिलिंद देवड़ा राज्यसभा में हैं तो भाजपा की कृपा से हैं वरना तो उन की जमीनी हैसियत तो पार्षदी का चुनाव जीतने की भी नहीं बची. हकीकत तो यह है कि पहले भी कभी नहीं थी. ये लोग तो गांधी-नेहरू परिवार के रहमोकरम पर सत्ता का हिस्सा थे.

यही गलती भाजपा कर रही

जो गलती अतीत में कांग्रेस ने की थी जिस का आज वह खमियाजा भी भुगत रही है वही गलती अब भाजपा भी कर रही है जिसे भविष्य में कांग्रेस जैसे हश्र के लिए तैयार रहना चाहिए. 370 सीटों का ख्वाव वह अगर देख रही है तो दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के दम पर देख रही है जिन्हें धर्म के संक्रामक रोग में वह फंसा चुकी है. कोई सिंधिया, देवड़ा या चव्हाण यों ही राज्यसभा में नहीं पहुंच जाता. उन्हें चुनने वाले विधायकों के वोट, अल्पसंख्यकों को छोड़, सभी हिंदू वर्णों के होते हैं.

लेकिन जल्द से जल्द चक्रवर्ती बन जाने की मानसिकता में नरेंद्र मोदी भी इंदिरा गांधी की तरह गिरफ्त में आ चुके हैं. उन की अहंकारी भाषा इस की गवाही भी दे रही है. उन के इर्दगिर्द हां में हां मिलाने वालों का हुजूम है जो नेहरू और इंदिरा युग की याद दिलाता है.

राजनीति और राजनेताओं के उत्थानपतन का इतिहास या स्क्रिप्ट कुछ भी कह लें यही चाटुकार लिखते हैं जो जनता की नहीं बल्कि पूंजीपतियों के हितैषी होते हैं. फर्क इतना है कि कांग्रेस के सुनहरे दिनों में ये धर्मनिरपेक्षता के नारे लगाते थे और अब भाजपा के स्वर्णिमकाल में राम और कृष्ण की जयकार कर रहे हैं. जनता का भला न तब हुआ था न आज हो रहा. इसीलिए मुद्दे की बातें गायब हैं और काल्पनिक बातें हो रही हैं. अफसोसजनक बात यह कि पूरी दुनिया में रूढ़िवादियों का दबदबा बढ़ रहा है.

किशमिश-भाग 2: मंजरी और दिवाकर गंगटोक क्यों गए थे?

उस वक्त जैसे ही जाम लगा और अंधेरा होना शुरू हुआ तो उन की बेचैनी बढ़ने लगी. वे दोनों और ड्राइवर बस, अपना समय होने पर और दिवाकर के बहुत मना करने के बावजूद ड्राइवर ने साथ लाई शराब पी और खाना खा कर सो गया. गाड़ी के अंदर की लाइट भी लूज होने से बंद हो गई.

दोनों अंधेरे में परस्पर गूंथ कर बैठ गए. जो अंधेरा नवविवाहितों को आनंद देता है, वह कितना खौफनाक हो सकता है, यह वे ही जानते हैं. रात के सन्नाटे में हर आहट आतंक का नया अध्याय लिख देती. दिवाकर ने हिम्मत कर के गाड़ी से बाहर निकल कर देखा तो होने को वहां बहुत सी गाडि़यां थीं लेकिन इन के आसपास जितनी भी थीं उन में सारे लोग ऐसे ही दुबके हुए थे. वह तो यह अच्छा था कि बारिश बंद हो चुकी थी. और आसमान में इक्केदुक्के तारे अपने होने का सुबूत देने लगे थे. मंजरी सिर नीचा और आंखें बंद किए बैठी थी.

ड्राइवर बेसुध सो रहा था. उस के खर्राटों से मंजरी के बदन में झुरझुरी सी हो रही थी. इतने में खिड़की के शीशे पर ठकठक हुई तो मंजरी की तो चीख ही निकल गई. लेकिन दिवाकर की आवाज सुन कर जान में जान आई. दिवाकर ने बताया था कि वहां से कुछ दूरी पर सेना का कैंप है, उन में से किसी का जन्मदिन है, इसलिए वे कैंपफायर कर रहे हैं. और इसी बहाने लोगों की सहायता भी.

मंजरी थोड़े नानुकुर के बाद जाने को राजी हुई थी. जब दिवाकर ने वहां पहुंच कर सैनिकों को बताया कि उन के पिताजी भी सेना में थे और 1967 का नाथूला का युद्घ लड़ा था तो दिवाकर उन के लिए आदर के पात्र हो गए. फिर वह रात गातेबजाते कब निकल गई थी, पता ही नहीं चला. उस दिन दिवाकर ने मंजरी को पहली बार गाते हुए सुना था. मंजरी ने गाया था- ‘ये दिल और उन की निगाहों के साए…’ उस दिन से आज तक दोनों को वह घटना ऐसे याद है मानो कल ही घटी हो.

‘‘अरे, कहां खो गई,’’ दिवाकर ने कहा तो स्मृतियों को विराम लग गया.

इधर, ड्राइवर ने चायनाश्ते के लिए गाड़ी रोक दी. दोनों ने साथ लाया नाश्ता किया और बिना चीनी की चाय पी. दिवाकर अपने जमाने में बहुत तेज मीठी चाय के शौकीन रहे हैं, और इसी कारण मंजरी की पसंद भी धीरेधीरे वैसी ही होती चली गई. लेकिन दिवाकर को डायबिटीज ने अनुशासित कर दिया. नतीजतन, मंजरी भी वैसी ही चाय पीने लगी. दिवाकर उस से कहते भी हैं कि तुम अपनी पसंद का ही खायापिया करो. पर वह हर बार बात को हंस कर टाल देती है. मीठे के नाम पर अब दोनों केवल मीठी बातें ही करते हैं, बस.

नाथूला में वे सब से पहले वार मैमोरियल गए और शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित किए. चीनी सीमा दिखते ही दिवाकर को बाबूजी की याद आ गई. नाथूला पास भारत और चीन (तिब्बत) को जोड़ने वाले हिमालय की वादियों में एक बेहद खूबसूरत किंतु उतना ही खतरनाक रास्ता है. यह प्राचीनकाल से दोनों देशों को सिल्क रोड (रेशम मार्ग) के माध्यम से जोड़ता है और यह सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं ऐतिहासिक यात्राओं का गवाह रहा है. जो इन दोनों देशों के 1962 के युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था. जिसे 2006 में आंशिक रूप से खोला गया. बाबूजी ने 1967 का वह युद्ध लड़ा था जो इसी नाथूला पास पर लड़ा गया. बाबूजी ने इसी युद्ध में अपनी जांबाजी के चलते एक पैर खो कर अनिवार्यतया सेवानिवृत्ति ली थी जिसे भारत की चीन पर विजय के बाद लगभग बिसार दिया गया. जबकि 1962 का वह युद्ध सभी को याद है जिस में देश ने मुंह की खाई थी. इस की पीड़ा बाबूजी को ताउम्र रही.

दिवाकर ने जब बाबूजी को अपने हनीमून पर गंगटोक जाने का इरादा बताया था, तो बाबूजी की युद्घ की सारी स्मृतियां ताजी हो गई थीं. चीनी सैनिकों की क्रूरता और उन का युद्धकौशल सभी कुछ उन की आंखों के आगे घूम गया था. साथ ही, अपने पैर को खोने की पीड़ा भी आंखों के रास्ते बह उठी थी. बाबूजी नहीं चाहते थे कि उन के बच्चे उस देश की सीमा को दूर से भी देखें, जिस ने एक बार न सिर्फ अपने देश को हराया था, बल्कि उन का पैर, नौकरी एवं सुखचैन हमेशा के लिए छीन लिया था. इसीलिए उन्होंने दिवाकर से कहा था कि पहाड़ों पर ही जाना है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ हो आओ. लेकिन दिवाकर के गरम खून ने यह कहा कि ‘हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, धार्मिक यात्रा पर नहीं.’ तब बाबूजी ने हथियार डालते हुए मां को इस बात के लिए डांट भी लगाई थी कि उन के लाड़प्यार ने ही बच्चों को बिगाड़ा है.

इतने लंबे वैवाहिक जीवन में मंजरी ने दिवाकर को जितना जाना, उस के आधार पर ही उन्होंने दिवाकर को अकेला रहने दिया. जब काफी समय दिवाकर ने अतीत में विचरण कर लिया तब, दिवाकर जहां खड़े थे, उन के सामने वाली एक ऊंची चट्टान के पास खड़े हो कर, मंजरी ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘क्यों जी, कैसी लग रही हूं मैं यहां?’’ इस पर दिवाकर ने वर्तमान में लौटते हुए कहा, ‘‘अरे रे, उस पर क्यों चढ़ रही हो, तुम से न हो सकेगा अब यह सब.’’ ‘‘ओके बाबा, अब मैं भी कौनसी चढ़ी ही जा रही हूं इस पर. लेकिन इस के साथ फोटो तो खिंचवा सकती हूं न,’’ मंजरी ने फोटो के लिए पोज देते हुए कहा. दिवाकर ने भी कहां देर की, अपने कैमरे से फटाफट कई फोटो खींच लिए. दोनों को याद आया कि पिछली बार रोल वाले कैमरे से कैसे वे एकएक फोटो गिनगिन कर खींचते थे. और यह भी कि कैसे दोनों में प्रतियोगिता होती थी कि कौन ऐसी ही चट्टानों और कठिन चढ़ाइयों पर पहले पहुंचता है. मंजरी की शारीरिक क्षमता काफी अच्छी थी क्योंकि वह अपनी शिक्षा के दौरान ऐथलीट रही थी. मगर फिर भी दिवाकर कभी जानबूझ कर हार जाते तो मंजरी का चेहरा जीत की प्रसन्नता से और भी खिल जाता था. इस पर दिवाकर उस की सुंदरता पर कुरबान हो जाते. सो, हनीमून और भी गरमजोशी से भर उठता.

गर्भावस्था को बनाना है आसान, तो अपनाएं ये टिप्स

अगर आप की गर्भावस्था सामान्य है, तो इस दौरान कामकाज जारी रखने में कोई नुकसान नहीं है. लेकिन आप को इस दौरान ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. ऐसे कई तरीके हैं, जिन के जरीए आप काम करने के दौरान अपनी गर्भावस्था को आसान बना सकती हैं.

पहले के 3 महीने

गर्भावस्था के पहले 3 महीनों के दौरान शरीर में काफी बदलाव हो रहे होते हैं. इस दौरान होने वाले हारमोनल बदलावों का मतलब है कि आप को थकान महसूस होगी. मुमकिन है कि बिना किसी बात के आप रोने लगें. ऐसे में खुद को भी और अपने आसपास के लोगों को भी यह बताने से कि हारमोनल बदलाव के कारण आप के साथ ऐसा हो रहा है, आप को सही ट्रैक पर रहने में मदद मिलेगी.

पोषक स्नैक्स जैसे कटी सब्जियां, फल, योगर्ट, पनीर, दाल, स्प्राउट्स, सोया, दूध और अंडों का सेवन करें, क्योंकि ये गर्भवती कामकाजी महिलाओं के लिए बिलकुल उपयुक्त होते हैं. गर्भवती महिलाओं के लिए दिन में कम से कम 4 बार कैल्सियम युक्त भोजन करना बेहद आवश्यक है.

क्या हो आहार

गर्भवती महिला के लिए अपना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए डाक्टर द्वारा बताए गए फोलेट और ओमेगा 3 सप्लिमैंट्स लेने भी महत्त्वपूर्ण हैं. ये सभी तत्त्व गर्भ में पल रहे शिशु के उचित विकास के लिए भी आवश्यक होते हैं. दिन भर में लगभग हर 2 घंटे बाद पौपकौर्न, पीनट, पनीर, उबले हुए अंडे और फलों का सेवन करें, क्योंकि भूख या ब्लड में शुगर का स्तर कम होने से उबकाई आ सकती है.

अगर आप गंभीर मौर्निंग सिकनैस की शिकार हैं, तो उस के लिए दवाएं उपलब्ध हैं. प्राकृतिक घरेलू नुसखे भी अपना सकती हैं. इस के अतिरिक्त गर्भवती महिला को नियमित रूप से ठंडा पानी, नीबू पानी, ज्वार का पानी, इलैक्ट्रोल पी कर खुद को हाइड्रेट रखना चाहिए. उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे फलों, जूस या सप्लिमैंट्स से पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी मिल रहा हो.

सोने की आदत में लाएं बदलाव

स्वस्थ शरीर के लिए गर्भावस्था मुश्किल समय होता है और संभव है आप को पूरी गर्भावस्था के दौरान थकावट महसूस हो. विशेषतौर पर पहली और तीसरी तिमाही में. अगर मुमकिन हो तो दिन में थोड़ी देर करीब 2 घंटे सो लें. पहली तिमाही में मूत्राशय पर पड़ने वाले अधिक दबाव का मतलब है कि आप को बारबार बाथरूम जाना होगा. इसलिए इस समय की भरपाई के लिए अधिक देर तक सोएं. हर रात कम से कम 10-11 घंटे की नींद जरूर लें.

शिशु तक अच्छे रक्तप्रवाह के लिए रात में अच्छी नींद लेना महत्त्वपूर्ण है और इस से सूजन घटाने में भी मदद मिलेगी.

महत्त्वपूर्ण देखभाल

गर्भावस्था के दौरान अपनी देखभाल करना बेहद महत्त्वपूर्ण है, अपने स्वास्थ्य के लिए भी और गर्भ में पल रहे शिशु के लिए भी. अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात कर लें कि अगर आप को समय से पहले छुट्टी मिल जाए तो आप डाक्टर के पास जाने जैसे अतिरिक्त काम कर सकेंगी.

जैसेजैसे गर्भावस्था का समय बढ़ेगा आप के बढ़ते वजन के अनुसार शरीर के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र भी बदलेगा. इस वजह से पीठ में दर्द, पैरों में सूजन और मांसपेशियों में अकड़न हो सकती है. अगर आप दिन भर बैठी रहती हैं तो प्रत्येक 2 घंटे के अंतराल पर करीब 5 मिनट टहल लें. आप पैर रखने के लिए अपनी मेज के नीचे एक स्टूल भी रख सकती हैं. अगर आप को खड़ा होना है तो पीठ में दर्द से बचने के लिए स्टूल से एक बार में एक ही पैर उठाएं.

काम और गर्भवस्था में तालमेल

जब आप गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में प्रवेश करेंगी तो शिशु के बढ़ने से आप के मूत्राशय पर दबाव पड़ेगा और आप को बारबार बाथरूम जाना पड़ेगा. इस से आप को बारबार टहलने का मौका मिलेगा. अगर आप किसी भी वजह से सीट से उठें तो बाथरूम तक हो आएं.

गर्भवती महिला को अपने डाक्टरों की अपौइंटमैंट्स और कार्यालय की जिम्मेदारियों को नोट कर रखना चाहिए और इसे घर और औफिस दोनों जगह हमेशा साथ रखें. ज्यादा थकान से बचने के लिए अपने शैड्यूल तक ही सीमित रहें.

गर्भवती महिला को सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपने दिन का शैड्यूल इस तरह तय करे कि उस में आराम के लिए थोड़ा वक्त मिले. ऐसा करने पर उसे अधिक थकान नहीं होगी.

नशा और शराब से दूरी

औफिस से निकल कर सैर पर जाने से खून के थक्के जमने, वैरिकोस वेंस और पैरों में सूजन की आशंका घटेगी. भारीभरकम काम करने या वस्तुएं उठाने से भी बचना चाहिए. इस से पैरों में सूजन नहीं होगी. रात में सोते समय अपने पैर थोड़े ऊपर कर के सोएं.

धूम्रपान महिला और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है. इस के कारण गर्भपात, समयपूर्ण प्रसव, जन्म के दौरान कम वजन और नवजात की मृत्यु तक की आशंका रहती है. ऐसे में बेहतर यही होगा कि गर्भवती महिला शराब से दूर रहे. फीटल अलकोहल सिंड्रोम से शिशु में गंभीर और जन्मजात विकार हो सकते हैं. ऐसा शराब की बेहद कम मात्रा लेने से भी हो सकता है.

– डा. मोनिका वधावन, सीनियर कंसल्टैंट, डिपार्टमैंट औफ ओब्स्टट्रिशियन ऐंड गाइनेकोलौजी, फोर्टिस हौस्पिटल, नोएडा

रिश्तों में भूलकर भी न करें दिखावा, नहीं तो हो सकती हैं ये समस्याएं

बच्चे बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे माता पिता की परवा भले ही न करें लेकिन अंतिम समय पर दर्शन करने का दिखावा जरूर करते हैं.

अर्चि की सास बहुत बीमार थीं. दूर रहने की वजह से अर्चि उन से मिलने बारबार जा नहीं सकती थी. इस बार छुट्टियों में वह महीनाभर बीमार सास के पास बिता कर जैसे ही घर लौटी, सास की मृत्यु का समाचार मिला. उस के पति के बड़े भाई, भाभी, बहन कोई भी मृत्यु पूर्व उन से मिल नहीं पाए थे. अर्चि के मन में यही संतोष था कि कितना अच्छा हुआ कि वह महीनाभर मां के पास रह ली. ज्यादा नहीं तो थोड़ीबहुत ही अंतिम दिनों में उन की सेवा कर ली.

मृत्यु का समाचार मिलने पर वह बड़ी दुविधा में थी. सफर में 2-3 दिन लग जाना मामूली बात थी. तब तक मां का अंतिम दर्शन करना भी नहीं हो पाएगा. बड़े भाइयों ने मां की स्मृति में कोई भी कार्यक्रम न करने का निश्चय किया. ऐसी स्थिति में अर्चि को वहां जाना फुजूल ही लगा. सब बातें सोचविचार कर तय कर के अर्चि व उस के पति ने यही निश्चय किया कि अर्चि यहीं रहेगी. सिर्फ उस के पति चले जाएंगे. हालांकि अंतिम दर्शन तो उन्हें भी नहीं होंगे पर मां की मिट्टी ले आएंगे, यही सोच कर वे चले गए.

रिश्तेदारों परिचितों को पता चला कि अर्चि अपनी सास की मौत पर भी नहीं गई, उन के अंतिम दर्शन भी नहीं किए तो सब ने उसे बड़ा भलाबुरा कहा, आलोचना की, उसे निष्ठुर और पाषाणहृदया कहा.

अर्चि किसी को भी नहीं समझा पाई कि मृत्यु के बाद जबकि वह उन का आखिरी बार चेहरा भी न देख पाती, उस के वहां पहुंचने से पहले उन का अंतिम संस्कार हो जाना निश्चित था, वहां बेकार जा कर करती क्या? क्या यह अच्छा नहीं हुआ कि वह सास के जीतेजी ही महीनाभर वहां रह कर उन की सेवा कर आशीर्वाद ले आई. किसी ने भी उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. सब के दिमाग में यही रहा कि कैसी बहू है, सास के मरने पर भी ससुराल नहीं गई.

यह हमारे समाज की विडंबना है कि अंतिम दर्शन को बड़ी मान्यता दी जाती है. बेटेबहू जीतेजी भले बूढ़े सासससुर की खैरखबर न लें, कभी उन के हालचाल न पूछें, उन की हारीबीमारी का खयाल न करें, उन के जीनेमरने की चिंता न करें, बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे मातापिता की परवा न करें तो कोई बात नहीं लेकिन मरने पर उन के अंतिम दर्शन करने के कर्तव्य की औपचारिकता जरूर निभाएं, यह जरूरी है.

रोजी की सास गांव में अकेली रहती थी. बूढ़ी जान अकसर बीमार रहती थी. रोजी ने कभी उन्हें अपने पास बुला कर रखने की जहमत उठाना गवारा नहीं किया. गांव में जा कर, वहां रह कर सास की सेवा करने का तो प्रश्न ही नहीं था. अकेले बीमारी से लड़तीलड़ती बेटाबहू की उपेक्षा से टूटी बेचारी आखिर एक दिन मौत के गले लग गई. गांव के अन्य रिश्तेदार, परिचितों ने बेटाबहू को उन की मौत की खबर दी. जिस दिन उन की मौत की खबर आई, पड़ोसियों व अन्य लोगों को दिखाने के लिए रोजी छाती पीट कर, फूटफूट कर रोती हुई यही कहती रही, ‘‘हाय, अम्मा अचानक चल बसीं. मैं कैसी अभागी हूं कि उन के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई. आखिरी बार उन के चरण नहीं छू पाई. आखिरी पल में कुछ कहसुन नहीं पाई.’’

जिंदा सास की खैरखबर लेने कभी गांव के घर में पैर नहीं रखा. अकेली सास को अपने साथ रखने में सदा कतराती रही. जब वह मर गई तो अंतिम दर्शन न कर पाने के मलाल में टसुए बहाती रही. क्या यह सिर्फ दिखावा व ढकोसला नहीं है?

मजबूरी व महत्त्वाकांक्षाएं

कामधंधे की तलाश में ज्यादातर बेटे आजकल मांबाप से दूर ही रहते हैं. मांबाप के बुढ़ापे की लाठी बनने के बजाय उन का संबल छीन लेते हैं. इन में कुछ तो मजबूरीवश घर छोड़ते हैं, कुछ अतिमहत्त्वाकांक्षा के तहत. दोनों ही परिस्थितियों में बूढ़े मांबाप को ही अकेलेपन की घुटन सहनी होती है.

जो मांबाप अपने बच्चों को जिंदगी की रफ्तार के साथ उड़ान भरना सिखाते हैं वे पंखों में मजबूती आते ही फुर्र हो जाते हैं. पीछे घिसटघिसट कर जिंदगी गुजारते मातापिता अकेले ही बच्चों की व्यस्तता, बेरुखी और बेगानेपन से टूटे जिंदगी को अलविदा कह जाते हैं. तब यही बच्चे मांबाप के अंतिम दर्शन न कर पाने, अंतिम समय पर न मिल पाने पर अफसोस जाहिर करते देखे जा सकते हैं.

मांबाप और सासससुर

बूढ़े मांबाप के साथ रहना या उन्हें साथ रखना आज की युवा पीढ़ी को स्वीकार्य नहीं है. आधुनिकता व स्टेटस मैंटेन करने में बूढ़े मांबाप अनफिट होते हैं. उन्हें साथ रख कर गंवारू कहलाना कोई पसंद नहीं करता. बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जहां बेटाबहू मांबाप व सासससुर को उचित आदर, मान व सम्मान देते होंगे. अपने ही बच्चों का यह बरताव उन के जिंदगी जीने के उत्साह को खत्म कर देता है और वे असमय ही मौत का दामन थाम लेते हैं.

बुजुर्गों के दायित्व

कई बार गलती बुजुर्गों की भी होती है. वे युवाओं के सामान्य व्यवहार को भी अपने ही चश्मे से देखते हैं. उन की साधारण बातचीत को भी बतंगड़ बना कर अनेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं. बदलते जमाने व नई पीढ़ी के साथ वे सामंजस्य बिठाना ही नहीं चाहते. बेटेबहू की समस्याओं को समझना ही नहीं चाहते. उन्हें थोड़ा खुलापन व आजादी देना उन्हें मंजूर नहीं. मांबाप के इस तानाशाही रवैए से तंग आ कर बेटाबहू अलग रहना ही हितकर समझते हैं तो सर्वस्व उन की आलोचना की जाती है कि बुढ़ापे में मांबाप को अकेला छोड़ दिया.

युवाओं के कर्तव्य

परिवार को खुशहाल बनाने के लिए सामंजस्य तो दोनों को ही बिठाना पड़ेगा. स्वार्थ व भौतिकता की अंधी दौड़ में लिप्त आज के युवाओं को मातापिता के उपकार, उन के कर्तव्य, बच्चों के लिए किए गए उन की इच्छाओं व आकांक्षाओं के दमन को याद रखना चाहिए और बुढ़ापे में उन्हें अकेला छोड़ कर यह सोचने के बजाय कि उन की उम्र तो बीत गई अब उन्हें भजनपूजन करते हुए मौत का इंतजार करना चाहिए, एकदम अनुचित है.

युवाओं को चाहिए कि वे बजाय मांबाप की मौत के बाद उन के अंतिम दर्शन की इच्छा रखने के उनके जीतेजी उन की देखभाल करें. उन का सम्मान व आदर करें, बुढ़ापे में उन्हें सुरक्षा व संबल प्रदान करें. साथ में रहना संभव न हो तो उन की देखभाल के लिए उचित बंदोबस्त करें. समयसमय पर फोन के जरिए उन के हालचाल लेते रहें. बच्चों को भी दादादादी, नानानानी का सम्मान करना सिखाएं. उन्हें दुत्कारने के बजाय उन के अनुभवों से शिक्षा लें. जीतेजी उन की सेवा करें और सम्मान करें, यही ज्यादा उचित है व मन को शांति भी प्रदान करता है.

6 महीने पहले मेरे पैर में कील चुभ गई थी, क्या इतने समय बाद भी मुझे टिटनैस हो सकता है?

सवाल

मैं 25 साल की युवती हूं. लगभग 6 महीने पहले मेरे पैर में कील चुभ गई थी. लेकिन मैं टिटनैस का टीका नहीं लगवा पाई. पैर में कभीकभी सरसराहट सी दौड़ती है, तो डर जाती हूं कि कहीं मुझे टिटनैस तो नहीं होने वाला. क्या चोट लगने के इतने समय बाद भी मुझे टिटनैस हो सकता है? मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

चोट लगने के 6 महीने बाद अब टिटनैस होने का डर लगभग न के बराबर है. जिन मामलों में चोट लगने पर टिटनैस होना होता है, प्राय: यह 3 हफ्तों के अंदर प्रकट हो जाता है.

टिटनैस उन्हीं लोगों को होता है, जिन्होंने बचपन में या जीवन में पहले ठीक से टिटनैस टौक्सायड (टीटी) के टीका नहीं लिए होते. उन के जख्म में टिटनैस उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया पैठ कर जाते हैं.

बचाव के लिए यह जरूरी है कि टिटनैस टौक्सायड के 3 टीके आप ने पहले से लिए हों. दूसरा टीका पहले टीके के 6 हफ्तों बाद लगाया जाता है और तीसरा टीका पहले टीके के 6 महीने बाद. उस के बाद हर 10 साल बाद यह टीका लगवाते रहना चाहिए. घाव बहुत गंदा हो, तो पहला टीका लगे 5 साल बीत चुके हों तब भी यह टीका लगवा लेना चाहिए. इस से टिटनैस नहीं होता.

जिन लोगों ने कभी टिटनैस का टीका नहीं लिया होता, उन्हें डाक्टर से तुरंत मिल कर टिटनैस के 3 टीकों का कोर्स तो लेना ही चाहिए. टिटनैसरोधी इम्युनोग्लोबुलिन का टीका भी जरूर लगवा लेना चाहिए.

यह भी पढ़ें…

लाइलाज नहीं जैंडर डिस्फोरिया

17 वर्ष का मोहसिन मुंबई में अपनी मां और बहन के साथ अपने मामा के घर में रहता है. जब घर पर कोई नहीं होता तो वह बहन के कपड़े और अंडरगारमैंट्स चुपके से ले कर पहनता और घर में ठुमके लगाया करता था. वह मां की हाईहील सैंडल पहन कर भी घूमता था. उस की इस आदत को पड़ोसी देख कर उस की मां से शिकायत किया करते थे. मां को गुस्सा आ जाता था और वे उसे पीटती थीं, पर उस में सुधार नहीं आया.

ऐसा कई सालों तक चलता रहा. मां को पता था कि उन का बेटा ऐसा है. लेकिन करें तो क्या करें? परेशान हो कर वे मुंबई के सायन अस्पताल में असिस्टैंट प्रोफैसर व मनोरोग चिकित्सक, डा. गुरविंदर कालरा से मिलीं. वे डाक्टर से कहती रहीं कि यह बिगड़ चुका है, इसे सुधारने की आवश्यकता है.

दरअसल, मां को लगता था कि उन के बेटे का दिमागी संतुलन ठीक नहीं है जिस की वजह से वह लड़का होते हुए भी लड़कियों के कपड़े पहन कर नाचता है.

डा. कालरा का कहना था कि यह लड़का किसी भी रूप में बीमार नहीं है. उस के अंदर ‘जैंडर डिसऔर्डर’ है जिसे चाहें तो आप ठीक कर सकते हैं या फिर उसे वैसे ही रहने दे सकते हैं.

डा. कालरा आगे कहते हैं कि मोहसिन को ‘जैंडर डिस्फोरिया’ या ‘जैंडर डिसऔर्डर’ काफी समय से है. इस में व्यक्ति को खुद की शारीरिक बनावट और मानसिक बनावट में अंतर दिखाई पड़ता है. व्यक्ति लड़की या लड़का पूरी तरह से बनना नहीं चाहता, उसे अपनी शारीरिक संरचना पसंद है पर उस का मानसिक स्तर लड़की जैसा है. अधिकतर किन्नर इसी के शिकार होते हैं जो शारीरिक रूप से लड़के होते हैं पर वे मानसिक रूप से लड़कियों जैसा व्यवहार करते हैं.

एक अध्ययन में पाया गया कि अगर कोई व्यक्ति ‘जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर’ का शिकार हो तो वह किन्नर ही बने, यह सोचना ठीक नहीं.

सायन अस्पताल के मनोरोग प्रमुख डा. निलेश शाह कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपना सैक्स बदलने के लिए सर्जरी करवा सकता है. तकरीबन 50 किन्नरों से बात करने पर पता चला कि 84 प्रतिशत किन्नर ‘जैंडर आईडैंटिटी डिसऔर्डर के शिकार हैं. उन की इस मनोदशा को शुरुआती अवस्था में ही इलाज द्वारा सुधारा जा सकता है. असल में किन्नर ‘थर्ड जैंडर’ में आते हैं जबकि ‘जैंडर डिस्फोरिया’ में व्यक्ति सिंगल जैंडर का होता है.

यूएस के अटलांटा में पिछले वर्ष वर्ल्ड प्रोफैशनल एसोसिएशन फौर ट्रांसजैंडर हैल्थ द्वारा विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिस में डा. गुरविंदर कालरा ने इस विषय पर अपनी स्टडी प्रस्तुत की. इसे सभी ने सराहा और अधिक से अधिक लोगों ने इस विषय की जानकारी प्राप्त की. इस पर बातचीत भी हुई. इस तरह के अध्ययन पश्चिमी देशों में अधिक हुए हैं.

न करें मारपीट

डा. कालरा कहते हैं कि इस तरह की अव्यवस्था या गड़बड़ी बच्चे को ढाई या 3 साल की अवस्था से शुरू हो जाती है. जब बच्चा अपने लिंग की पहचान कर पाता है. ऐसे बच्चे समलैंगिक नहीं होते. ये अधिकतर लड़कियों के बीच में खेलते या फिर लड़कियां लड़कों के बीच में खेलना, उन की जैसी हरकतें करना वगैरा करते हैं. ऐसे में समाज उन की हंसी उड़ाया करता है. परेशान हो कर मातापिता उस से मारपीट करते हैं जो ठीक नहीं.

यह अव्यवस्था बच्चे को जन्म से ही होती है. लेकिन कई बार कुछ विडंबना या घटना भी इसे जन्म दे सकती है, जैसे कि पिता का घर से दूर रहना, पिता का मर जाना आदि. इस तरह के बच्चे बहुत कम डाक्टर तक पहुंच पाते हैं.

मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं कि बचपन से ही बच्चे की आदत को सुधारना जरूरी है. कई बार मातापिता लड़की को लड़कों के कपड़े पहना देते हैं क्योंकि घर में लड़का नहीं है. ऐसे में बच्चे के कुछ हावभाव लड़कों जैसे हो जाते हैं, जैसा कि उन के पास आई एक लड़की का हुआ जो अपने पिता की मौत के बाद अपनेआप को लड़का समझने लगी और बाद में अपना ‘सैक्स’ भी चैंज करवा डाला.

यह सर्जरी हमारे देश में काफी लंबी है और उम्रभर हार्माेन देना पड़ता है क्योंकि उन में स्वाभाविक तौर पर हार्मोन नहीं होता.

मजाक न उड़ाएं

जब लड़की या लड़का अपनेआप को विपरीत लिंग के समझने लगते हैं तो सब से पहले पड़ोसी, दोस्त वगैरा उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से बच्चे को तनाव, उदासीनता, घबराहट आदि होने लगती है इसलिए बड़े हो कर वे बच्चे ‘सैक्स चैंज’ की लंबी प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.  समय रहते अगर मातापिता मनोरोग चिकित्सक के पास जाएं तो बच्चे को इस समस्या से निकालने का प्रयास किया जा सकता है.

इस में यह भी देखना होता है कि कहीं यह अव्यवस्था उस में पागलपन की वजह से तो नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो यह बीमारी नहीं है. इस का इलाज किया जा सकता है. मातापिता समाज या परिवार से डरें नहीं बल्कि आगे आ कर बच्चे को इस समस्या से नजात दिलाने का प्रयास करें.

अनकहा प्यार : 40 साल की औरत की जिंदगी को दर्शाती कहानी

story in hindi

अपने चरित्र पर ही संदेह : स्पष्टवादी इंसान की ऊहापोह की कहानी

अकसर बचपन में भी सुनते थे और अब भी सुनते हैं कि गांधीजी ने कहा था कि कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए. समय के उस दौर में शायद एक गाल पर चांटा मारने वाले का भी कोई ऐसा चरित्र होता होगा जिसे दूसरा गाल भी सामने पा कर शर्म आ जाती होगी.

आज का युग ऐसा नहीं है कि कोई लगातार वार सहता रहे क्योंकि वार करने वालों की बेशर्मी बढ़ती जा रही है. उस युग में सहते जाना एक गुण था, आज के युग में सहे जाना बीमारी बनता जा रहा है. ज्यादा सहने वाला अवसाद में जाने लगा है क्योंकि उस का कलेजा अब लक्कड़, पत्थर हजम करने वाला नहीं रहा, जो सामने वाले की ज्यादती पर ज्यादती सहता चला जाए.

पलट कर जवाब नहीं देगा तो अपनेआप को मारना शुरू कर देगा. पागलपन की हद तक चला जाएगा और फिर शुरू होगा उस के इलाज का दौर जिस में उस से कहा जाएगा कि आप के मन में जो भी है उसे बाहर निकाल दीजिए. जिस से भी लड़ना चाहते हैं लड़ लीजिए. बीमार जितना लड़ता जाएगा उतना ही ठीक होता जाएगा.

अब सवाल यही है कि इतना सब अपने भीतर जमा ही क्यों किया गया जिसे डाक्टर या मनोवैज्ञानिक की मदद से बाहर निकलना पड़े? पागल होना पड़ा सो अलग, बदनाम हुए वह अलग.

हर इनसान का अपनाअपना चरित्र है. किसी को सदा किसी न किसी का मन दुखा कर ही सुख मिलता है. जब तक वह जेब से माचिस निकाल कर कहीं आग न लगा दे उस के पेट का पानी हजम नहीं होता. इस तरह के इनसान के सामने अगर अपना दूसरा गाल भी कर दिया जाएगा तो क्या उसे शर्म आ जाएगी?

गलत को गलत कहना जरूरी है क्योंकि गलत जब हमें मारने लगेगा तो अपना बचाव करना गलत नहीं. अब प्रश्न यह भी उठता है कि कैसे पता चले कि गलत कौन है? कहीं हम ही तो गलत नहीं हैं? कहीं हम ने ही तो अपने दायरे इतने तंग नहीं बना लिए कि उन में आने वाला हर इनसान हमें गलत लगता है?

हमारे एक सहयोगी बड़ा अच्छा लिखते हैं. अकसर पत्रिकाओं में उन की रचनाओं के बारे में लिखा जाता है कि उन का लिखा अलग ही होता है और प्रेरणादायक भी होता है. सत्य तो यही है कि लेखक के भीतर की दुनिया उस ने स्वयं रची है जिस में हर चरित्र उस का अपना रचा हुआ है. यथार्थ से प्रेरित हो कर वह उन्हें तोड़तामरोड़ता है और समस्या का उचित समाधान भी करता है.

जाहिर है, उन का अपना चरित्र भी उन की लेखनी में शतप्रतिशत होता है क्योंकि काला चरित्र कागज पर चांदनी नहीं बिखेर सकता और न ही कभी संस्कारहीन चरित्र लेखनी में वह असर पैदा कर सकता है जिस में संस्कारों का बोध हो. जो स्वयं ईमानदार नहीं उस की रचना भी भला ईमानदार कैसे हो सकती है.

मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं ‘मानव भारद्वाज’. खुशमिजाज हैं और स्पष्टवादी भी. गले की किसी समस्या से जू   झ रहे हैं. जूस, शीतल पेय और बाजार के डब्बाबंद हर सामान को खाने  से उन के गले में पीड़ा होने लगती है, जिस का खमियाजा उन्हें रातरात भर जाग कर भरना पड़ता है. कौफी पीने से भी उन्हें बेचैनी होती है. वे सिर्फ चाय पी सकते हैं. अकसर शादीब्याह में कभी हम साथसाथ जाएं तो मु   झे उन्हें देख कर दुख भी होता है. चुपचाप शगुन का लिफाफा थमा कर खिसकने की सोचते हैं.

‘‘कुछ तो ले लीजिए, मानव.’’

‘‘नहीं यार, यहां मेरे लायक कुछ नहीं है. तुम खाओपिओ, मैं यहां रुका तो किसी न किसी की आंख में खटकने लगूंगा.’’

‘‘आप के तो नखरे ही बड़े हैं, चाय आप नहीं पीते, कौफी आप के पेट में लगती है, जूस से गला खराब होता है, इस में अंडा है… उस में यह है, उस में वह है. आप खाते क्या हैं साहब? हर चीज में आप कोई न कोई कमी क्यों निकालते रहते हैं.’’

मुसकरा कर टालना पड़ता है उन्हें, ‘‘पानी पी रहा हूं न मैं. आप चिंता न करें… मु   झे जो चाहिए मैं ले लूंगा. आप बेफिक्र रहें. मेरा अपना घर है…मेरी जो इच्छा होगी मैं अपनेआप ले लूंगा.’’

‘‘अरे, मेरे सामने लीजिए न. जरा सा तो ले ही सकते हैं.’’

अब मेजबान को कोई कैसे सम   झाए कि एक घूंट भी उन्हें उतना ही नुकसान पहुंचाता है जितना गिलास भर कर.

‘‘मेरे घर पर कोई आता है तो मैं उस से पूछ लेता हूं कि वह क्या लेगा. जाहिर है, हर कोई अपने घर से खा कर ही आता है… हर पल हर कोई भूखा तो नहीं होता. आवभगत करना शिष्टाचार का एक हिस्सा है लेकिन कहां तक? वहां तक जहां तक अतिथि की जान पर न बन आए. वह न चाहे तो जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘तब तो आप अच्छे मेजबान नहीं हैं. अच्छा मेजबान तो वही है जो मना करने पर भी अतिथि की थाली भरता जाए.’’

इस विषय पर अकसर हम बात करते हैं और उन्हें मु   झ से मिलना अच्छा लगता है क्योंकि मैं कोशिश करता हूं कि उन्हें सम   झ पाऊं. वे कुछ खाना न चाहें तो मेरा परिवार उन्हें खाने को मजबूर नहीं करता. वैसे वे स्वयं ही चाय का कप मांग लेते हैं तो हमें ज्यादा खुशी होती है.

‘‘मानव चाचा के लिए अच्छी सी चाय बना कर लाती हूं,’’ मेरी बहू भागीभागी चाय बनाने चली जाती है और मानव जम कर उस की चाय की तारीफ करते हैं.

‘‘आज मैं ने सोच रखा था कि चाय अपनी बच्ची के हाथ से ही पिऊंगा. मीना घर पर नहीं है न, कल आएगी. उस के पिता बीमार हैं.’’

‘‘चाचाजी, तब तो आप रात का खाना यहीं खाइए. मैं ने आज नईनई चीजें ट्राई की हैं.’’

‘‘क्याक्या बनाया है मेरी बहू ने?’’

मानव का इतना कहना था कि बहू ने ढेरों नाम गिनवा दिए.

‘‘चलो, अच्छा है, यहीं खा लेंगे,’’ मानव की स्वीकृति पर वसुधा उत्साह से भर उठी.

हम बाहर लौन में चले आए. बातचीत चलती रही.

‘‘पड़ोस का घर बिक गया है. सुना है कोई बुजुर्ग दंपती आने वाले हैं. उन की बेटी इसी शहर में हैं. उसी की देखरेख में रहेंगे,’’ मानव ने नई जानकारी दी.

‘‘चलो, अच्छा है. सम   झदार बुजुर्ग लोगोें के साथ रह कर आप को नए अनुभव होंगे.’’

‘‘आप को क्या लगता है, बुजुर्ग लोग ज्यादा सम   झदार होते हैं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. लंबी उम्र का उन के पास अनुभव जो होता है.’’

‘‘अनुभव होता है यह सच है, लेकिन वे सम   झदारी से उस अनुभव का प्रयोग भी करते होंगे यह जरूरी नहीं. मैं ने 60-70 साल के ऐसेऐसे इनसान देखे हैं जो बहुत ज्यादा चापलूस और मीठे होते हैं और सामने वाले की भावनाओं का कैसे इस्तेमाल करना है…अच्छी तरह जानते हैं. वे ईमानदार भी होें जरूरी नहीं, उम्र भर का अनुभव उन्हें इतना ज्यादा सिखा देता है कि वे दुनिया को ही घुमाने लगते हैं. कौन जाने मेरे साथ उन की दोस्ती हो पाएगी कि नहीं.’’

मानव की चिंता जायज थी. अच्छा पड़ोसी वरदान है क्योंकि अपनों से पहले पड़ोसी काम आता है.

खाने की मेज पर सभी जुट गए. वसुधा की मेहनत सामने थी. सभी खाने लगे मगर मानव ने सिर्फ रायता और चावल ही लिए. मंचूरियन में सिरका था, चिली चीज में टोमैटो कैचअप था और अंडाकरी में तो अंडा था ही. सूप में भी अंडा था. आंखें भर आईं वसुधा की. मानव ये सब नहीं खा पाएंगे, उसे नहीं पता था. उसे रोता देख कर मानव ने खाने के लिए हाथ बढ़ा दिया.

‘‘नहीं, चाचाजी, आप बीमार हो जाएंगे. रहने दीजिए.’’

‘‘मैं घर पर भी नमकीन चावल ही बना कर खाता हूं. तुम दुखी मत हो बच्ची. फिर किसी दिन बना लेना.’’

वसुधा का सिर थपथपा कर मानव चले गए. वे मेरे सहकर्मी हैं. वरिष्ठ प्रबंधक हैं, इसलिए शहर की बड़ी पार्टियां उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं.

‘‘कोई फायदा नहीं साहब, जब तक आप के सारे कागज पूरे नहीं होंगे आप को लोन नहीं मिल सकता. मेरी चापलूसी करने से अच्छा है कि आप कागज पूरे कीजिए. मेरी सुविधा की बात मत कीजिए. मेरी सुविधा इस में है कि जो बैंक मु   झे रोटी देता है कम से कम मैं उस के साथ तो ईमानदार रहूं. मेरी जवाबदेही मेरे अपने जमीर को है.’’

इस तरह की आवाजें अकसर सब सुनते हैं. कैबिन का दरवाजा सदा खुला होता है और मानव क्या कहसुन रहे हैं सब को पता रहता है.

‘‘आज जमाना इतने स्पष्टवादियों का नहीं है, मानव…10 बातें बताने वाली होती हैं तो 10 छिपाने वाली भी.’’

‘‘मैं क्या छिपाऊं और क्यों छिपाऊं. सच सच है और    झूठ    झूठ. जो काम मु   झे नहीं करना उस के लिए आज भी ना है और कल भी ना. कैबिन बंद कर के मैं किसी से मीठीमीठी बातें नहीं करना चाहता. हमारा काम ही पैसे लेनादेना है. छिपा कर सब की नजरों में शक पैदा क्यों किया जाए. 58 का हो गया हूं. इतने साल कोई समस्या नहीं आई तो आगे भी आशा है सब ठीक ही होगा.’’

एक शाम कार्यालय में मानव की लिखी रचना पर चर्चा छिड़ी थी. किसी भ्रष्ट इनसान की कथा थी जिस में उस का अंत बहुत ही दर्दनाक था. मेरी बहू वसुधा मानव की बहुत बड़ी प्रशंसक है. रात खाने के बीच मैं ने पूछा तो सहज सा उत्तर था वसुधा का :

‘‘जो इनसान ईमानदार नहीं उस का अंत ऐसा ही तो होना चाहिए, पापा. ईमानदारी नहीं तो कुछ भी नहीं. सोचा जाए तो आज हम लोग ईमानदार रह भी कहां गए हैं. होंठों पर कुछ होता है और मन में कुछ. कभीकभी तो हमें खुद भी पता नहीं होता कि हम सच बोल रहे हैं या    झूठ. मानव चाचा ने जो भी लिखा है वह सच लिखा है.’’

वसुधा प्रभावित थी मानव से. दूसरी दोपहर कोई कैबिन में बात कर रहा था :

‘‘आप ने तो हूबहू मेरी कहानी लिखी है. उस में एक जगह तो सब वैसा ही है जैसा मैं हूं.’’

‘‘तो यह आप के मन का चोर होगा,’’ मानव बोले, ‘‘आप शायद इस तरह के होंगे तभी आप को लगा यह कहानी आप पर है. वरना मैं ने तो आप पर कुछ भी नहीं लिखा. भला आप के बारे में मैं जानता ही क्या हूं. अब अगर आप ही चीखचीख कर सब से कहेंगे कि वह आप की कहानी है तो वह आप का अपना दोष है. पुलिस को देख कर आम आदमी मुंह नहीं छिपाता और चोर बिना वजह छिपने का प्रयास करता है.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, आप ने मु   झ पर नहीं लिखा?’’

‘‘हमारे समाज में हजारों लोग इस तरह के हैं जो मेरे प्रेरणास्रोत हैं. हर लेखक अपने आसपास की घटनाओं से ही प्रभावित होता है. इसी दुनिया में हम जीते हैं और यही दुनिया हमें जीनामरना सब सिखाती है. लिखने के लिए किसी और दुनिया से प्रेरणा लेने थोड़े न जाएंगे हम. कृपया आप मन पर कोई बो   झ न रखें. मैं ने आप पर कुछ नहीं लिखा.’’

समय बीतता रहा. मानव के पड़ोस में जो वृद्ध दंपती आए उन से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई. बैंक की नौकरी बहुत व्यस्त होती है, इस में इधरउधर की गप मारने का समय कहां होता है. फिर भी कभीकभार उन से मानव की किसी न किसी विषय पर चर्चा छिड़ जाती. अपनी छपी रचनाएं मानव उन्हें थमा देते हैं जिन से उन का समय कटता रहता है.

80-85 साल के दंपती जिंदगी के सारे सुखदुख समेट बस कूच करने की फिराक में हैं. फिर भी जब तक सांस है यह चिंता लगी ही रहती है कि क्या नहीं है जो होना ही चाहिए. मानव उन से 30 साल पीछे चल रहे हैं. कुछ बातें सिर्फ समय ही सिखाता है. मानव को अच्छा लगता है उन के साथ बातें करना. कुछ ऐसी बातें जिन्हें सिर्फ समय ही सिखा सकता है…मानव उन से सीखते हैं और सीखने का प्रयास करते हैं.

2 साल और बीत गए. मानव और मैं दोनों ही बैंक की नौकरी से रिटायर हो गए. अब तो हमारे पास समय ही समय हो गया. बच्चों के ब्याह कर दिए, वे अपनीअपनी जगह पर खुश हैं. जीवन में घरेलू समस्याएं आती हैं जिन से दोचार होना पड़ता है. रिश्तेदारी में, समधियाने में, ससुराल वालों के साथ अकसर मानव के विचार मेल नहीं खाते फिर भी एक मर्यादा रख कर वे सब से निभाते रहते हैं. कभी ज्यादा परेशानी हो तो मु   झ से बात भी कर लेते हैं. बेटी की ससुराल से कुछ वैचारिक मतभेद होने लगे जिस वजह से मानव ने उन से भी दूरी बना ली.

‘‘मैं तो वैसे भी मर्यादा से बाहर जाना नहीं चाहता. आजकल लड़की के घर जाने का फैशन है. वहां रह कर खानेपीने का भी. मु   झे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं मीना को भी वहां जाने नहीं देता. ऐसा नहीं कि हमारे वहां बैठ कर खानेपीने से उन के घर में कोई कमी आ जाती है, लेकिन हमें यह अच्छा नहीं लगता कि वे हमें खाने पर बुलाएं और हम वहां डट कर बैठ कर खाएं.

‘‘हमारे बुजुर्गों ने कहा था कि बेटी के घर कम से कम जाओ. जाओ तो खाओ मत, 4 घंटे के बाद इनसान को भूख लग जाती है. भाव यह था कि 4 घंटे से ज्यादा मत टिको. बातचीत में ऐसा न हो कि कोई बात हमारे मुंह से निकल जाए… लाख कोई दावा करे पर लड़की वालों को कोई दोस्ती की नजर से नहीं देखता. लड़की वाला छींक भी दे तो अकसर कयामत आ जाती है.

‘‘मानसम्मान जितना दिया जाना चाहिए उतना अवश्य देता हूं मैं लेकिन मेरे अपने घर की मर्यादा में किसी का दखल मु   झे पसंद नहीं. मेरे घर में वही होगा जो मु   झे चाहिए. आप के घर में भी वही होगा जो आप चाहें. हम दुनिया को नहीं बदल सकते लेकिन अपने घर में अपने तौरतरीकों के साथ जीने का हमें पूरापूरा हक होना चाहिए.’’

एक दिन परेशान थे मानव, आंखों में बसी चिरपरिचित सी शक्ति कहीं खो गई थी.

‘‘आप को क्या लगता है, मैं लड़ाका हूं, सब से मेरा    झगड़ा लगा रहता है. मैं हर जगह सब में कमियां ही निकालता रहता हूं. वसुधा बेटा, जरा सम   झाना. 2 रातों से मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’

मानव के मन की पीड़ा को जान कर मैं व वसुधा अवाक् थे. ऐसा क्या हो गया. पता चला कि मानव ने उस वृद्ध दंपती से अपनी रचनाओं के बारे में एक ईमानदार राय मांगी थी. 2 दिन पहले उन के घर पर कुछ मेहमानों के साथ मानव और मीना भाभी भी थीं.

‘‘मानव, आप की रचनाएं तो कमाल की होती हैं. आप के पात्रों के चरित्र भी बड़े अच्छे होते हैं मगर आप स्वयं इस तरह के बिलकुल नहीं हैं. आप की आप के रिश्तेदारों से लड़ाई, आप की आप के समधियों से लड़ाई इसलिए होती है कि आप सब में नुक्स निकालते हैं. आप तारीफ करना सीखिए. देखिए न हम सदा सब की तारीफ ही करते रहते हैं.’’

85 साल के वृद्ध इनसान का व्यवहार चार लोगों के सामने मानव को नंगा सा कर गया था.

‘‘मेरी रचनाओं के पात्रों के चरित्र बहुत अच्छे होते हैं और मैं वैसा नहीं हूं… वसुधा, क्या सचमुच मैं एक ईमानदार लेखक नहीं…अगर मैं ने कभी उन्हें अपना बुजुर्ग सम   झ उन से कोई राय मांग ही ली तो उन्होंने चार लोगों के सामने इस तरह कह दिया. अकसर वहां मैं वह सब नहीं खाता जो वे मेहमान सम   झ कर परोस देते हैं… मु   झे तकलीफ होती है… तुम जानती हो न… हैरान हूं मैं कि वे मु   झे 3 साल में बस इतना ही सम   झे. क्या मेरे लिए अपने मन में इतना सब लिए बैठे थे. यह दोगला व्यवहार क्यों? कुछ सम   झाना ही चाहते थे तो अकेले में कह देते. अब उस 85-87 साल के इनसान के साथ मैं क्या माथा मारूं कि मैं ऐसा नहीं हूं या मैं वैसा हूं. क्या तर्कवितर्क करूं?

‘‘मैं चापलूस नहीं हूं तो कैसे सब की तारीफ करता रहूं. जो मु   झे तारीफ योग्य लगेगा उसी की करूंगा न. और फिर मेरी तारीफ से क्या बदलेगा? मेरी समस्याएं तो समाप्त नहीं हो जाएंगी न. मु   झे किसी की    झूठी तारीफ नहीं करनी क्योंकि मु   झे किसी से कोई स्वार्थ हल नहीं करना. क्या सचमुच मैं जो भी लिखता हूं वह सब    झूठ होता है क्योंकि मेरे अपने चरित्र में वह सब है ही नहीं जो मेरे संदेश में होता है.

‘‘मैं ने उस पल तो बात को ज्यादा कुरेदा नहीं क्योंकि 4-5 लोग और भी वहां बैठे थे. मैं ने वहां सब के साथ कौफी नहीं पी, जूस नहीं पिया. पकौड़ों के साथ चटनी नहीं खाई, क्योंकि मैं वह ले ही नहीं सकता. वे जानते हैं फिर भी कहते रहे मैं किसी का मान ही नहीं रखता…जरा सा खा लेने से खिलाने वाले का मन रह जाता है. अपनी कहानियों में तो मैं क्षमा कर देता हूं जबकि असल जिंदगी में मैं क्षमा नहीं करता. क्या ऐसा सच में है, वसुधा?’’

मानव की आंखें भर आई थीं.

‘‘मैं अपने उसूलों के साथ कोई सम   झौता नहीं करता…क्या यह बुरी बात है? मीना कहती है कि आप को अपने घर की बात उन से नहीं करनी चाहिए थी. क्या जरूरत थी उन से यह कहने की कि आप के रिश्तों में तनाव चल रहा है तभी तो उन्हें पता चला.

‘‘अरे, तनाव तो लगभग सभी घरों में होता है…कहीं कम कहीं ज्यादा…इस में नया क्या है. मेरा दोष इतना सा है कि मैं ने बुजुर्ग सम   झ कर उन से राय मांग ली थी कि मु   झे क्या करना चाहिए…उस का उत्तर उन्होंने इस तरह चार लोेगों के सामने मु   झे यह बता कर दिया कि मैं अपनी रचनाओं से मेल ही नहीं खाता.’’

मानव परेशान थे. वसुधा उन की बांह सहला रही थी.

‘‘चाचाजी, हर इनसान के पास किसी को नापने का फीता अलगअलग है. हो सकता है, जो समस्या आप के सामने है वह उन्होंने न    झेली हो, लेकिन यह सच है कि उन्होंने सम   झदारी से काम नहीं लिया. आप स्पष्टवादी हैं और आज का युग सीधी बात करने वालों का नहीं है और सीधी बात आज कोई सुनना भी नहीं चाहता.’’

‘‘उन्होंने भी तो सीधी बात नहीं की न.’’

‘‘सीधी बात 3 साल की जानपहचान के बाद की. अरे, सीधी बात तो इनसान पहली व दूसरी मुलाकात में ही कर लेता है. 3 साल में भी अगर वे यही सम   झे तो क्या समझे आप को?’’

दूसरी सुबह मैं ने मानव को फोन किया था और पूछा था कि रात आप क्या कहना चाहते थे. जरा खुल कर सम   झाइए.

तब मानव ने बस इतना ही कहा कि मु   झे सब की तारीफ करनी चाहिए. हर इनसान ठीक है. कोई भी गलत नहीं होता.

‘‘चाचाजी, आप परेशान मत होइए. मन की हम से कह लिया कीजिए क्योंकि नहीं कहने से भी आप बीमार हो सकते हैं. वैसे भी बाहर की दुनिया हम ने नहीं बनाई इसलिए सब के साथ हम एक जैसे नहीं रह सकते. आप के भीतर की दुनिया वह है जो आप लिखते हैं…सच में आप वही हैं जो आप लिखते हैं. आप ईमानदार हैं. आप का चरित्र वैसा है जैसा आप लिखते हैं.’’

‘‘सम   झ नहीं पा रहा हूं बेटी, क्या सच में…अपनेआप पर ही शक हो रहा है मु   झे. 2-3 साल की हमारी जानपहचान में उन्होंने यही निचोड़ निकाला कि मैं वह नहीं हूं जो रचनाओं में लिखता हूं…तो शायद मैं वैसा ही हूं.’’

‘‘वे कौन होते हैं यह निर्णय लेने वाले…आप गलत नहीं हैं. आप वही हैं जो आप अपनी रचनाओं में होते हैं. जो इनसान आप को सम   झ ही नहीं पाया उन से दूरी बनाने में ही भलाई है. शायद वही आप की दोस्ती के लायक नहीं हैं. 60 साल जिन सिद्धांतों के साथ आप जिए और जिन में आप ने अपनी खुशी से किसी का न बुरा किया न चाहा, वही सच है और उस पर कहीं कोई शक नहीं है मु   झे. अपना आत्म- विश्वास क्यों खो रहे हैं आप?’’

सहसा मानव का हाथ पकड़ कर वसुधा बोली, ‘‘चाचाजी, जो याद रखने लायक नहीं, उसे क्यों याद करना. उन्हें क्षमा कर दीजिए.’’

‘‘क्षमा तो उसी पल कर दिया था लेकिन भूल नहीं पा रहा हूं. अपना सम   झता रहा हूं उन्हें. 3 साल से हम मिल रहे हैं इस का मतलब इतना अभिनय कर लेते हैं वे दोनों.’’

‘‘3 साल आप की तारीफ करते रहे और आप सम   झ ही नहीं पाए कि उन के मन में क्या है…अभिनय भी अच्छा करते रहे. पहली बार ईमानदार सलाह दी और सम   झा दिया कि वे आप को पसंद ही नहीं करते. यही ईमानदारी आप नहीं सह पाए. आप के रास्ते सिर्फ 2 हैं ‘हां’ या ‘ना’…उन का रास्ता बीच का है जो आज का रास्ता है. जरूरत पड़ने पर दोनों तरफ मुड़ जाओ. चाचाजी, आप मु   झ से बात किया करें. मैं दिया करूंगी आप को ईमानदार सलाह.’’

वसुधा मेरी बहू है. जिस तरह से वह मानव को सम   झा रही थी मु   झे विश्वास नहीं हो रहा था. 30-32 साल की उम्र है उस की, मगर सम   झा ऐसे रही थी जैसे मानव से भी कहीं बड़ी हो.

सच कहा था एक दिन मानव ने. ज्यादा उम्र के लोग जरूरी नहीं सम   झदारी में ईमानदार भी हों. अपनी सम   झ से दूसरों को घुमाना भी सम   झदार ही कर सकते हैं. मानव आज परेशान हैं, इसलिए नहीं कि वे गलत सम   झ लिए गए हैं, उन्हें तो इस की आदत है, बल्कि इसलिए क्योंकि सिद्धांतों पर चलने वाला इनसान सब के गले के नीचे भी तो नहीं न उतरता. उन्हें अफसोस इस बात का था कि जिन्हें वे पूरी निष्ठा से अपना सम   झते रहे उन्होंने ही उन्हें इस तरह घुमा दिया. इतना कि आज उन्हें अपने चरित्र और व्यक्तित्व पर ही संदेह होने लगा.

प्रेम परिसीमा : करुणानिधि को दिल का दौरा किस वजह से पड़ा था ?

अस्पताल के एक कमरे में पलंग पर लेटेलेटे करुणानिधि ने करवट बदली और प्रेम से अपनी 50 वर्षीया पत्नी मधुमति को देखते हुए कहा, ‘‘जा रही हो?’’ मधुमति समझी थी कि करुणानिधि सो रहा है. आवाज सुन कर पास आई, उस के माथे पर हाथ रखा, बाल सहलाए और मंद मुसकान भर कर धीमे स्वर में बोली, ‘‘जाग गए, अब तबीयत कैसी है, बुखार तो नहीं लगता.’’

करुणानिधि ने किंचित मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हाथ रखने से तबीयत तो ठीक हो गई है, पर दिल की धड़कन बढ़ गई है.’’ घबरा कर मधुमति ने उस की छाती पर हाथ रखा. करुणानिधि ने उस के हाथ पर अपना हाथ रख कर दबा दिया. मधुमति समझ गई, और बोली, ‘‘फिर वही हरकत, अस्पताल में बिस्तर पर लेटेलेटे भी वही सूझता है. कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?’’

करुणानिधि ने बिना हाथ छोड़े कहा, ‘‘देख लेगा तो क्या कहेगा? यही न कि पति ने पत्नी का हाथ पकड़ रखा है या पत्नी ने पति का. इस में डरने या घबराने की क्या बात है? अब तो उम्र बीत गई. अब भी सब से, दुनिया से डर लगता है?’’ मधुमति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और बोली, ‘‘डाक्टर ने आप को आराम करने को कहा है, आवेश में आना मना है. दिल का दौरा पड़ चुका है, कुछ तो खयाल करिए.’’़

‘‘दिल का दौरा तो बहुत पहले ही पड़ चुका है. शादी से भी पहले. अब तो उस दौरे का अंतिम पड़ाव आने वाला है.’’ मधुमति ने उंगली रख कर उस का मुंह बंद किया और फिर सामान उठा कर घर चलने लगी. वह चलते हुए बोली, ‘‘दोपहर को आऊंगी. जरा घर की व्यवस्था देख आऊं.’’

करुणानिधि ने उस की पीठ देखते हुए फिकरा कसा, ‘‘हांहां, घर को तो कोई उठा ले जाएगा. बस, घर ही घर, तुम्हारा तो वही सबकुछ रहा है.’’ मधुमति बिना कोई उत्तर दिए कमरे से बाहर चली गई. डाक्टर ने कह दिया था कि करुणानिधि से बहस नहीं करनी है.

उस के जाते ही करुणानिधि थोड़ी देर छत की ओर देखता रहा. चारों तरफ शांति थी. धीरेधीरे उस की आंखें मुंदने लगीं. पिछला सारा जीवन उस की आंखों के सामने आ गया, प्रेमभरा, मदभरा जीवन… शादी से पहले ही मधुमति से उसे प्रेम हो गया था. शादी के बाद के शुरुआती वर्ष तो खूब मस्ती से बीते. बस, प्रेम ही प्रेम, सुख ही सुख, चैन ही चैन. वे दोनों अकेले रहते थे. मधुमति प्रेमकला से अनभिज्ञ सी थी. पर धीरेधीरे वह विकसित होने लगी. मौसम उन का अभिन्न मित्र और प्रेरक बन गया. वर्षा, शरद और बसंत जैसी ऋतुएं उन्हें आलोडित करने लगीं.

होली तो वे दोनों सब से खेलते, पर पहले एकदूसरे के अंगप्रत्यंग में रंग लगाना, पानी की बौछार डालना, जैसे कृष्ण और राधा होली खेल रहे हों. दीवाली में साथसाथ दीए लगाना और जलाना, मिठाई खाना और खिलाना. दीवाली के दिन विशेषकर एक बंधी हुई रीति थी. मधुमति, करुणानिधि के सामने अपनी मांग भरवाने खड़ी हो जाती थी. कितने प्रेम से हर वर्ष वह उस की मांग भरता था. याद कर करुणानिधि की आंखों से आंसू ढलक गए, प्रेम के आंसू. वे दिन थे जब प्रेम, प्रेम था, जब प्रेम चरमकोटि पर था. एक दिन की जुदाई भी असहनीय थी. कैसे फिर साथ हो, वियोग जल्दी से कैसे दूर हो, इस के मनसूबे बनाने में ही जुदाई का समय कटता था.

वे अविस्मरणीय दिन बीतते गए. अनंतकाल तक कैसे इस उच्चस्तर पर प्रेमालाप चल सकता था? फिर बच्चे हुए. मधुमति का ध्यान बच्चों को पालने में बंटा. बच्चों के साथ ही सामाजिक मेलजोल बढ़ने लगा. बच्चे बड़े होने लगे. मधुमति उन की पढ़ाई में व्यस्त, उन को स्कूल के लिए तैयार करने में, स्कूल के बाद खाना खिलाने, पढ़ाने में व्यस्त, घर सजाने का उसे बहुत शौक था. सो, घंटों सफाई, सजावट में बीत जाते. उद्यान लगाने का भी शौक चढ़ गया था. कभी किसी से मिलने चली गई. कभी कोई मिलने आ गया और कभी किसी पार्टी में जाना पड़ता. रिश्तेदारों से भी मिलनामिलाना जरूरी था. मधुमति के पास करुणानिधि के लिए बहुत कम समय रह गया. इन सब कामों में व्यस्त रहने से वह थक भी जाती. उन की प्रेमलीला शिखर से उतर कर एकदम ठोस जमीन पर आ कर थम सी गई. जीवन की वास्तविकता ने उस पर अंकुश लगा दिए.

यह बात नहीं थी कि करुणानिधि व्यस्त नहीं था, वह भी काम में लगा रहता. आमतौर पर रात को देर से भी आता. पर उस की प्रबल इच्छा यही रहती कि मधुमति से प्रेम की दो बातें हो जाएं. पर अकसर यही होता कि बिस्तर पर लेटते ही मधुमति निद्रा में मग्न और करुणानिधि करवटें बदलता रहता, झुंझलाता रहता. ऐसा नहीं था कि प्रेम का अंत हो गया था. महीने में 2-3 बार सुस्त वासना फिर तीव्रता से जागृत हो उठती. थोड़े समय के लिए दोनों अतीत जैसे सुहावने आनंद में पहुंच जाते, पर कभीकभी ही, थोड़ी देर के लिए ही.

करुणानिधि मधुमति की मजबूरी समझता था, पर पूरी तरह नहीं. पूरे जीवन में उसे यह अच्छी तरह समझ नहीं आया कि व्यस्त रहते हुए भी उस की तरह मधुमति प्रेमालाप के लिए कोई समय क्यों नहीं निकाल सकी. उसे तिरछी, मधुर दृष्टि से देखने में, कभी स्पर्शसुख देने में, कभीकभी आलिंगन करने में कितना समय लगता था? कभीकभी उसे ऐसा लगता जैसे उस में कोई कमी है. वह मधुमति को पूरी तरह जागृत करने में असफल रहा है. पर उसे कोई तसल्लीबख्श उत्तर कभी न मिला.

समय बीतता गया. बच्चे बड़े हो गए, उन की शादियां हो गईं. वे अपनेअपने घर चले गए, लड़के भी लड़कियां भी. घर में दोनों अकेले रह गए. तब करुणानिधि को लगा कि अब समय बदलेगा. अब मधुमति उस की ज्यादा परवा करेगी. उस के पास ज्यादा समय होगा. अब शादी के शुरू के वर्षों की पुनरावृत्ति होगी. पर उस की यह इच्छा, इच्छा ही बन कर रह गई. स्थिति और भी खराब हो गई, क्योंकि मधुमति दामादों, बहुओं व अन्य संबंधियों में और भी व्यस्त हो गई. बेचारा करुणानिधि अतृप्त प्रेम के कारण क्षुब्ध, दुखी रहने लगा. मधुमति उस के क्रोध, दुख को फौरन समझ जाती, कभीकभी उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी करती, पर करुणानिधि को लगता यह प्रेम वास्तविक नहीं है.

पिछले 20 वर्षों में कई बार करुणानिधि ने मधुमति से इस बारे में बात की. बातचीत कुछ ऐसे चलती… करुणानिधि कहता, ‘मधुमति, तुम्हारे प्रेम में अब कमी आ गई है.’

‘वह कैसे? मुझे तो नहीं लगता, प्रेम कम हो गया है. आप का प्रेम कम हो गया होगा. मेरा तो और भी बढ़ गया है.’ ‘यह तुम कैसे कह सकती हो? शादी के बाद के शुरुआती वर्ष याद नहीं हैं… कैसेकैसे, कहांकहां, कबकब, क्याक्या होता था.’

इस पर मधुमति कहती, ‘वैसा हमेशा कैसे चल सकता है? उम्र का तकाजा तो होगा ही. तुम्हारी दी हुई किताबों में ही लिखा है कि उम्र के साथसाथ रतिक्रीड़ा कम हो जाती है. फिर क्या रतिक्रीड़ा ही प्रेम है? उम्र के साथसाथ पतिपत्नी साथी, मित्र बनते जाते हैं. एकदूसरे को ज्यादा समझने लगते हैं. समय बीतने पर, पासपास चुप बैठे रहना भी, बात करना भी, प्रेम को समझनेसमझाने के लिए काफी होता है.’ ‘किताबों में यह भी तो लिखा है कि इस के अपवाद भी होते हैं और हो सकते हैं. मैं उस का अपवाद हूं. इस उम्र में भी मेरे लिए, सिर्फ पासपास गुमसुम बैठना काफी नहीं है. तुम अपवाद क्यों नहीं बन सकती हो?’

ऐसे में मधुमिता कुछ नाराज हो कर कहती, ‘तो आप समझते हैं, मैं आप से प्रेम नहीं करती? दिनभर तो आप के काम में लगी रहती हूं. आप को अकेला छोड़ कर, मांबाप, बेटों, लड़कियों के पास बहुत कम जाती हूं. किसी परपुरुष पर कभी नजर नहीं डाली. आप से प्रेम न होता तो यह सब कैसे होता?’

‘बस, यही तो तुम्हारी गलती है. तुम समझती हो, प्रेमी के जीवन के लिए यही सबकुछ काफी है. पारस्परिक आकर्षण कायम रखने के लिए इन सब की जरूरत है. इन के बिना प्रेम का पौधा शायद फलेफूले नहीं, शायद शुष्क हो जाए. पर इन का अपना स्थान है. ये वास्तविक प्रेम, शारीरिक सन्निकटता का स्थान नहीं ले सकते. मैं ने भी कभी परस्त्री का ध्यान नहीं किया. कभी भी किसी अन्य स्त्री को प्रेम या वासना की दृष्टि से नहीं देखा. मैं तो तुम्हारी नजर, तुम्हारे स्पर्श के लिए ही तरसता रहा हूं. और तुम, इस पर कभी गौर ही नहीं करती. किताबों में लिखा है या नहीं कि पति के लिए स्त्री को वेश्या का रूप भी धारण करना चाहिए.’ करुणानिधि की इस तरह की बात सुन मधुमति तुनक कर जवाब देती, ‘मैं, और वेश्या? इस अधेड़ उम्र में? आप का दिमाग प्रेम की बातें सोचतेसोचते सही नहीं रहा. उम्र के साथ संतुलन भी तो रखना ही चाहिए. आप मेरी नजर को तरसते रहते हैं, मैं तो आप की नजर का ही इंतजार करती रहती हूं. आप के मुंह के रंग से, भावभंगिमा से, इशारे से समझ जाती हूं कि आप के मन में क्या है.’

‘मधुमति, यही अंतर तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा. नजर ‘को’ मत देखो, नजर ‘में’ देखो. कितना समय हो गया है आंखें मिला कर एकदूसरे को देखे हुए? तुम्हारे पास तो उस के लिए भी समय नहीं है. आतेजाते, कभी देखो तो फौरन पहचान जाओगी कि मेरा मन तुम्हें चाहने को, तुम्हें पाने को कैसे उतावला रहता है, अधीर रहता है. पर तुम तो शायद समझ कर भी नजर फेर लेती हो. पता कैसे लगे? बताऊं कैसे?’ ‘जैसे पहले बताते थे. पहले रोक कर, कभी आप मेरी आंखों में नहीं देखते थे? कभी हाथ नहीं पकड़ते थे? अब वह सब क्यों नहीं करते?

‘वह भी तो कर के देख लिया, पर सब बेकार है. हाथ पकड़ता हूं तो झट से जवाब आता है, ‘मुझे काम करना है या कोई देख लेगा,’ झट हाथ खींच लेती हो या करवट बदल कर सो जाती हो. मैं भी आखिर स्वाभिमानी हूं. जब वर्षों पहले तय कर लिया कि किसी स्त्री के साथ, पत्नी के साथ भी जोरजबरदस्ती नहीं करूंगा, क्योंकि उस से प्रेम नहीं पनपता, उस से प्रेम की कब्र खुदती है, तो फिर सिवा चुप रहने के, प्रेम को दबा देने के, अपना मुंह फेर लेने के और क्या शेष रह जाता है? ‘तुम साल दर साल और भी बदलती जा रही हो. हमारे पलंग साथसाथ हैं…2 फुट की दूरी पर हम लेटते हैं. पर ऐसा लगता है जैसे मीलों दूर हों. मीलों दूर रहना फिर भी अच्छा है. उस से विरह की आग तो नहीं भड़केगी. उस के बाद पुनर्मिलन तो प्रेम को चरमसीमा तक पहुंचा देगा. पर पासपास लेटें और फिर भी बहुत दूर. इस से तो पीड़ा और भी बढ़ती है. कभीकभी, लेटेलेटे, यदि सोई न हो, तो मुझे आशा बंधती कि शायद आज कुछ परिवर्तन हो. पर तुम घर की, बच्चों की बात शुरू कर देती हो.’

ऐसी बातें कई बार हुईं. कुछ समय तक कुछ परिवर्तन होता. पुराने दिनों, पुरानी रातों की फिर पुनरावृत्ति होती. पर कुछ समय बाद करुणानिधि फिर उदास हो जाता. जब से मधुमति ने 50 वर्ष पार किए थे, तब से वह और भी अलगथलग रहने लगी थी. करुणानिधि ने बहुत समझाया, पर वह कहती, ‘आप तो कभी बूढ़े नहीं होंगे. पर मैं तो हो रही हूं. अब वानप्रस्थ, संन्यास का समय आ गया है. बच्चों की शादी हो चुकी है. अब तो कुछ और सोचो. मुझे तो अब शर्म आती है.’ ‘पतिपत्नी के बीच शर्म किस बात की?’ करुणानिधि झुंझला कर कहता, ‘मुझे पता है, तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ रही हैं. मेरे भी कुछ दांत निकल गए हैं. तुम मोटी भी हो रही हो. मैं भी बीमार रहता हूं. पर इस से क्या होता है? मेरे मन में तो तुम वही और वैसी ही मधुमति हो, जिस के साथ मेरा विवाह हुआ था. मुझे तो अब भी तुम वही नई दुलहन लगती हो. अब भी तुम्हारी नजर से, स्पर्श से, आवाज से मैं रोमांचित हो उठता हूं. फिर तुम्हें क्या कठिनाई है, किस बात की शर्म है?

‘हम दोनों के बारे में कौन सोच रहा है, क्या सोच रहा है, इस से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अधिक से अधिक बच्चे और उन के बच्चे, मित्र, संबंधी यही तो कहेंगे कि हम दोनों इस उम्र में भी एकदूसरे से प्रेम करते हैं, एकदूसरे का साथ चाहते हैं, शायद सहवास भी करते हैं…तो कहने दो. हमारा जीवन, अपना जीवन है. यह तो दोबारा नहीं आएगा. क्यों न प्रेम की चरमसीमा पर रहतेरहते ही जीवन समाप्त किया जाए.’

मधुमति यह सब समझती थी. आखिर वर्षों से पति की प्रेमिका थी, पर पता नहीं क्यों, उतना नहीं समझती थी, जितना करुणानिधि चाहता था. उस के मन के किसी कोने में कोई रुकावट थी, जिसे वह पूर्णतया दूर न कर सकी. शायद भारतीय नारी के संस्कारों की रुकावट थी. अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा, यह सब सोचता हुआ, करुणानिधि चौंका, मधुमति घर से वापस आ गई थी. वह खाने का सामान मेज पर रख रही थी. वैसा ही सुंदर चेहरा जैसा विवाह के समय था…मुख पर अभी भी तेज और चमक. बाल अभी भी काफी काले थे. कुछ सफेद बाल भी उस की सुंदरता को बढ़ा रहे थे.

बरतनों की आवाज सुन कर करुणानिधि ने मधुमति की ओर देखा तो उसे दिखाई दीं, वही बड़ीबड़ी, कालीकाली आंखें, वही सुंदर, मधुर मुसकान, वही गठा हुआ बदन कसी हुई साड़ी में लिपटा हुआ. करुणानिधि को उस के चेहरे, गले, गरदन पर झुर्रियां तो दिख ही नहीं रही थीं. उसे प्रेम से देखता करुणानिधि बुदबुदाया, ‘तेरे इश्क की इंतिहा चाहता हूं.’ छोटे से कमरे में गूंजता यह वाक्य मधुमति तक पहुंच गया. सब समझते हुए वह मुसकराई और पास आ कर उस के माथे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘फिर वही विचार, वही भावनाएं. दिल के दौरे के बाद कुछ दिन तो आराम कर लो.’’

करुणानिधि ने निराशा में एक लंबी, ठंडी सांस ली और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह कर लिया. लेकिन कुछ समय बाद ही मधुमति को भी करुणानिधि की तरह लंबी, ठंडी सांस भरनी पड़ी और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह करना पड़ा.

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद करुणानिधि घर आ गया. अच्छी तरह स्वास्थ्य लाभ करने में कुछ महीने लग गए. तब तक मधुमति उस से परे ही रही. उसे डर था कि समीप आने पर उसे दोबारा दिल का दौरा न पड़ जाए. उस ने इस डर के बारे में करुणानिधि को समझाने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ. जब भी इस के बारे में बातें होतीं, करुणानिधि कहता कि वह उसे केवल टालने की कोशिश कर रही है. कुछ महीने बाद करुणानिधि 61 वर्ष का हो गया और लगभग पूर्णतया स्वस्थ भी. इस कारण विवाह की सालगिरह की रात जब उस ने मधुमति की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने इनकार न किया, पर उस के बाद करुणानिधि स्तब्ध रह गया. पहली बार उसे अंगरेजी कहावत ‘माइंड इज विलिंग, बट द फ्लैश इज वीक’ (मन तो चाहता है, पर शरीर जवाब देता है.) का अर्थ ठीक से समझ में आया और वह दुखी हो गया.

मधुमति ने उसे समझाने की कोशिश की. उस रात तो कुछ समझ न आया, पर जब फिर कई बार वैसा ही हुआ तो उसे उस स्थिति को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि डाक्टरों ने उसे बता दिया था कि उच्च रक्तचाव और मधुमेह के कारण ही ऐसी स्थिति आ गई थी.

अब मधुमति दीवार की ओर मुंह मोड़ने लगी, पर मुसकरा कर. एक बार जब करुणानिधि ने इस निराशा पर खेद व्यक्त किया तो उस ने कहा, ‘‘खेद प्रकट करने जैसी कोई बात ही नहीं है. प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है. जब बच्चों की देखभाल के कारण या घर के कामकाज के कारण मेरा ध्यान आप की ओर से कुछ खिंचा, तो वह भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही था. आप को उसे स्वीकार करना चाहिए था. जैसे आज मैं स्वीकार कर रही हूं. आप के प्रति मेरे प्रेम में तब भी कोई अंतर नहीं आया था और न अब आएगा. प्रेम, वासना का दूसरा नाम नहीं है. प्रेम अलग श्रेणी में है, जो समय के साथ बढ़ता है, परिपक्व होता है. उस में ऐसी बातों से, किसी भी उम्र में कमी नहीं आ सकती. यही प्रेम की परिसीमा है.’’

करुणानिधि को एकदम तो नहीं, पर समय बीतने के साथ मधुमति की बातों की सत्यता समझ में आने लगी और फिर धीरेधीरे उन का जीवन फिर से मधुर प्रेम की निश्छल धारा में बहने लगा.

राज नहीं, पार्टी और मंदिर चलाने में व्यस्त है सरकार

प्रधानमंत्री और उन के सहयोगी मंदिरों के बाद बचा समय विपक्षी सरकारों की तोड़फोड़ में लगाते हैं. जैसेजैसे 2024 के लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं वैसेवैसे विपक्षी पार्टियों में सेंधमारी बढ़ती जा रही है. भाजपा की यह सेंधमारी 2 तरह की हो रही हैं. एक में दूसरे को कमजोर कर के छोड़ देना है. दूसरी, उस को अपनी पार्टी में मिला लेना है. बिहार में नीतीश कुमार को तोड़ कर एनडीए का हिस्सा बना लिया गया. उत्तर प्रदेश में मायावती को अकेले चलने के लिए छोड़ दिया गया है.

मध्य प्रदेश से जो खबरें आ रही हैं उन में यह साफ दिख रहा है कि मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कमलनाथ पर कमल का प्रभाव ज्यादा था. हाथ का दबाव कम था. यही वजह है कि कमलनाथ ने ‘इंडिया’ ब्लौक की वहां मीटिग नहीं होने दी.

समाजवादी पार्टी को एक भी सीट नहीं दी. सपा प्रमुख अखिलेश यादव को बेइज्जत किया. हालात ऐसे बना दिए कि गठबंधन की आपस में ठन गई. इस का नुकसान कांग्रेस को चुनावी हार के साथ ही साथ अब गठबंधन के फैसले करने में हो रहा है. जहां इंडिया गठबंधन और कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे, वहीं कमलनाथ हनुमान मंदिर बनाने और बाबा धीरेंद्र ब्रहमचारी की शरण में बैठे थे.

कांग्रेस को यह बात तब समझ आई जब उस का नुकसान हो चुका था. इस के बाद जब बिना कमलनाथ की सहमति के उन को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर जीतू पटवारी को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया, कमलनाथ नाराजगी दिखाने के लिए भाजपा में जाने की बात करने लगे ताकि कांग्रेस पर दबाव बना सके. कांग्रेस ने खुद को दबाव से मुक्त किया. उस के बाद कमलनाथ और उन के बेटे के भाजपा में जाने की खबरों पर रोक लग गई. मोदी सरकार को जो समय राजकाज चलाने में लगाना चाहिए वह समय वह पार्टी चलाने और मंदिर बनवाने में लगा रही है.

पीएमओ चला रहा देश

सामान्य तौर पर अगर प्रधानमंत्री के पास समय नहीं है तो मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्री सरकार के फैसलों की जानकारी देश को देते हैं. इस दौर में देश और पार्टी से जुड़े फैसले 4 लोगों की जानकारी में होते हैं. इन में पहला नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दूसरा नाम गृहमंत्री अमित शाह, तीसरा नाम भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा और चैथा नाम बी एल संतोष का है.

बी एल संतोष भाजपा संगठन के राष्ट्रीय महामंत्री हैं. वे आरएसएस और भाजपा के बीच समन्वयक का काम देखते हैं. आरएसएस की नजर से वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. उन का काम यह देखना है कि सरकार और पार्टी के फैसलों में संघ की नीतियों का कितना पालन हो रहा है.

टिकट बंटवारे में भी उन का अलग वीटो पावर होता है. ईडी, सीबीआई के जरिए दबाव बना कर दलों में तोड़फोड़ या दूसरे दल के नेताओं को भाजपा में लेने का अंतिम फैसला अमित शाह का होता है.

बिहार में जब सरकार बदल रही थी तो बताया जाता है कि सुबह 4 बजे तक जाग कर अमित शाह ने तैयारियों को देखा था. जब सबकुछ योजना के हिसाब से तय हो गया तब वे रिलैक्स हुए.

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया है. इस की वजह यह है कि सरकार और पार्टी के बीच रिश्तों को मधुर रखने में उन का बड़ा हाथ है. वहीं, नोटबंदी, जीएसटी व कोरोनाकाल में कुप्रबंधन जिस के चलते सैकड़ोंहजारों मजदूरों को दरदर भटकना पड़ा आदि के फैसले नौकरशाही ने लिए.

कोरोना के दौरान अचानक ट्रेन, बस और औफिस बंद कर दिए गए. पूरे देश में तालाबंदी हो गई. मरीजों को जबरदस्ती घरों से उठा कर अस्पतालों में भरती कर दिया गया. वहां कोई सुविधा नहीं थी. रोजरोज नएनए नियम बने. अस्पतालों में औक्सीजन की कमी रही. ये फैसले नौकरशाही ने लिए.

सरकार के स्तर पर पीएमओ ही इस की गाइडलाइन देता रहा. डाक्टरों से अधिक अधिकार पुलिस को दिए गए थे. मरीजों के घरों के सामने बल्लियां लगा कर उन के घर बंद कर दिए गए थे. इस की दहशत ने माहौल को खराब करने का काम किया था. ऐसे निष्ठुर फैसले मंत्री नहीं, नौकरशाह ही ले सकते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के कल्कि धाम मंदिर के उद्घाटन पर कहा कि, ‘ईश्वर ने मुझे राष्ट्ररूपी मंदिर के नवनिर्माण का काम सौंपा है.’ इसलिए यह साफ दिख रहा है कि उन का काम मंदिर निर्माण पर है. कई मंदिरों के निर्माण और उन की सुदंरता बढ़ाने वाले काम नरेंद्र मोदी ने किए हैं. हर बड़े मंदिर में कौरीडोर का निर्माण किया गया है. अगर उन की यात्राओं को देखें तो मंदिर उन के केंद्र में रहा है. इस से यह बात साफ हो जाती है कि नरेंद्र मोदी राजकाज चलाने से अधिक मंदिर निर्माण को समय दे रहे हैं. सरकार के फैसले नौकरशाह यानी पीएमओ ले रहा है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें