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नशा व्हाट्सऐप का

‘पहले मुरगी आई या अंडा?’ यह प्रश्न हमें बचपन में अकसर पूछा जाता था. 7 दशकों बाद भी यह प्रश्न वहीं का वहीं है. आज भी इस का सही उत्तर किसी के पास नहीं है. यह बात मेरे दिमाग में तब आई जब एक पार्टी में बातचीत के दौरान किसी ने पूछा कि बताओ, कौन सा नशा बड़ा है, शराब का या व्हाट्सऐप का?
जब मैं ने बिना कुछ सोचे तपाक से कहा कि व्हाट्सऐप का तो एकदम से कई आवाज आईं,”इतने आत्मविश्वास के साथ कैसे कह सकते हो?”
“देखो, यह तो सीधी सी बात है. शराब का नशा बहुत ही कम लोग मुख्यतया पुरुष ही महसूस कर पाते हैं. देश के कुछ हिस्सों को छोड़ कर, जहां औरतें भी शराब पीती हैं, औरतों को शराब के नशे का पता ही नहीं. यही बात अधिकतर युवकों और बच्चों के बारे में भी कही जा सकती है. और फिर यह नशा तो कुछ देर बाद उतर भी जाता है लेकिन व्हाट्सऐप का नशा तो कुछ और ही किस्म का नशा है।  हरेक को हर समय चढ़ा ही रहता है.
“सड़क पर चलते हुए, बस में सफर करते हुए, औटो या टैक्सी चलाते हुए, पार्क में, मौल में कहीं भी, किसी को भी देख लो, फोन पर व्हाट्सऐप में ही लगा रहता है. 3-4 साल के बच्चों से ले कर बड़ेबूढ़े सभी इस में डूबे रहते हैं. अब यह नशा नहीं है तो क्या है?”
कहावत है, ‘रात गई, बात गई’ लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. अगली सुबह मेरी पत्नी मेरे पास आई और मोबाइल दिखा कर कहने लगी, “इस वीडियो को देखो.”
करीब 2 मिनट के उस वीडियो ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया और मेरे मुंह से निकल पड़ा, “वाह, शराब और व्हाट्सऐप का अजीब संगम। क्या बढ़िया जुगलबंदी है.”
व्हाट्सऐप का वह वीडियो मुझे मेरी जवानी के उन दिनों में ले गया जब मैं और मेरे कुछ दोस्त बियर की एक बोतल में ही नशा महसूस करने लगते थे. शराब के किसी एक ही पहलू पर लिखे अलगअलग शायरों के शेर जो हम उन दिनों एकदूसरे को सुनाते थे, एक बार फिर से मेरे दिमाग में घूम गए.
इस वीडियो में भी कुछ शेर ‘शराब और मसजिद’ को ले कर पढ़े गए थे. हालांकि शेर पढ़ने का अंदाज सुनने में ठीक नहीं था, पढ़ कर देखिए, पढ़ने में बढ़िया है.
वीडियो के शुरू में जब किसी ने कहा, “जाहिद शराब पीने दे मसजिद में बैठ कर या वह जगह बता जहां पर खुदा न हो,” तो तुरंत ही इकबाल का यह शेर जवाब में हाजिर हो गया, “मसजिद खुदा का घर है कोई पीने की जगह नहीं, काफिर के दिल में जा वहां पर खुदा नहीं.”
अब ज्यों ही बात मसजिद से निकल कर काफिर पर आ गई तो किसी ने अहमद फराज का यह शेर पेश कर दिया, “काफिर के दिल से आया हूं, वहां पर जगह नहीं, खुदा मौजूद है वहां भी, काफिर को पता नहीं.”
अब शायरी तो शायरी है. शायद इसीलिए शायर ने खुदा को भी नहीं बख्शा और कहा, “खुदा मौजूद है पूरी दुनिया में, कहीं भी जगह नहीं, तू जन्नत में जा वहां पीना मना नहीं।”
वैसे, देखा जाए तो सच यही है कि जन्नत जाने को कोई भी मना नहीं करेगा लेकिन साकी की तो बात ही कुछ और है. उस का कहना था, “पीता हूं गम ए दुनिया भुलाने के लिए और कुछ नहीं, जन्नत में कहां गम है, वहां पीने में मजा नहीं.”
यह वीडियो जब मैं ने अपने बचपन के दोस्तों के व्हाट्सऐप ग्रुप में डाली तो मानों मधुमखियों के छत्ते में हाथ डाल दिया हो. इस उम्र में शराब पीने, न पीने पर बहस छिड़ गई.
‘शराब पीना अब सेहत के लिए अच्छा नहीं,’ ‘पियो मगर थोड़ी पियो,’ ‘बहुत पी चुके अब छोड़ दो,’ ‘खुदा के घर भी नशे मे ही जाओगे क्या,’ ‘शराब ही तो बुढ़ापे का सहारा है,’ ‘पैग के सहारे ही तो शाम कटती है…’ जैसी टिपणियां आने लगीं.
जब एक दोस्त ने लिखा, ‘अच्छा पी लो कुछ दिन और मगर एक दिन निश्चित कर लो जब छोड़ दोगे,’ तो एक दोस्त ने मुबारक अजीमाबादी का यस शेर लिख भेजा, ‘तू जो जाहिद मुझे कहता है कि तोबा कर ले, क्या कहूंगा जब कहेगा कोई कि पीना होगा.’ यह पढ़ते ही एक और ने लिखा, ‘इलाही क्यों करूं तोबा, कोई मैं रोज पीता हूं, उठा लेता हूं सावन में कभीकभी यारों के कहने पे.’
इस पर एक दोस्त ने, जो अकसर शांत रहता था और साल में एकाध बार ही कुछ लिखता था, लिखा, ‘मैं तो दाग देहलवी का दीवाना हूं और उस के कहे शेर कै दिन हुए हैं हाथ में सागर लिए हुए, किस तरह से तोबा कर लें अभी से हम’ पर यकीन करता हूं.’
लेकिन इस बहस का सब से बढ़िया जवाब राजेश का था जिस ने लिखा, ‘मैं कई बार तोबा कर चुका हूं लेकिन मेरी तोबा भी कोई तोबा है, जब बहार आई, तोड़ डाली है.’
हमारे ग्रुप में बात तो शराब से शुरू हुई थी लेकिन दोस्तों पर नशा व्हाट्सऐप का हावी होने लगा. सुरेश जिसे सब कुंभकरण कह कर बुलाते थे, क्योंकि वह 1 साल में 2 बार ही कुछ लिखता था, अब बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगा.
एक दिन उस ने लिखा, ‘किस को याद है 11वीं कक्षा में हम ने शेरोशायरी की थी, जिस में केवल बोसे (चुंबन) पर ही शेर पढ़े गए थे…’ शायर तो अब याद नहीं लेकिन मैं ने यह शेर पढ़ा था, ‘हम बोसा ले के उन से अजब चाल कर गए, यों बख्शवा लिया कि यह पहला कुसूर था.’
‘अबे तू पहले पर ही लटका हुआ है शायर अमीर का कमाल देख. उस ने कहा है कि लिपटा जो बोसा ले के तो वह बोले कि देखिए, यह दूसरी खता है, वह पहला कुसूर था.’ बस फिर क्या था, दोस्तों में होड़ लग गई एकदूसरों से बढ़िया कुछ कहने की.
एक ने लिखा, ‘मुझे भी शायर का नाम तो याद नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि वह तुम्हारे 1-2 के चक्कर से बहुत आगे है. जानते हो वह क्या कहता है, ‘पढ़ो बोसे किए कुबूल तो गिनती भी छोड़ दो, ऐसा न हो पड़े कहीं झगड़ा हिसाब में.’
एक और दोस्त ने टिपण्णी की कि यार, तुम्हारे शायर तो हिम्मत वाले हैं लेकिन मेरा ग़ालिब बहुत ही सुलझा हुआ अक्लमंद इंसान है. वह किसी भी काम को बहुत सोचसमझ कर करता है. इस विषय पर उस का कहना है, ‘ले तो लूं सोते में उस के पांव का बोसा मगर, ऐसी बातों से वह काफिर बदगुमां हो जाएगा.’
एक अन्य दोस्त जिसे हम ‘सोया शेर’ कहते थे, अपने अंदाज में बोला, “माना गालिब गालिब है, उस का कोई सानी नहीं लेकिन किसी गुमनाम शायर का यह कलाम बेमिसाल है। ‘क्या नजाकत है कि आरिज (गाल) उन के नीले पड़ गए, हम ने तो बोसा लिया था ख्वाब में तसवीर का.”
जब सब तरफ से वाहवाह हो रही थी तब एक दोस्त को खयाल आया कि मैं तो अभी तक चुप हूं. उस ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा,”भाई, मैं तो जिगर मोरादाबादी का प्रशंसक हूं और मेरे विचार में तो इस विषय पर उस का यह शेर ही सब से बढ़िया है,’बड़े गुस्ताख हैं, झुक कर तेरा मुंह चूम लेते हैं, बहुत सा तूने जालिम इन गेसुओं (बाल) को सर चढ़ाया है.”

 

लव यू दादी मां : क्यों आपनी सासुमां का मजाक बनाती थी नीरा

22 साल की छोटी सी उम्र में इला फैशन इंडस्ट्री का एक जानामाना नाम बन चुका है. इतना ही नहीं अब इला ने शाहपुरजाट इलाके में अपना नया शोरूम बना लिया है. साथ ही अपना ब्रैंड भी लौंच कर लिया है. अब वह बड़ेबड़े फैशन डिजाइनर को टक्कर देने लगी है. इला ने अपने नए ब्रैंड का नाम भी अनोखा सा ही रखा है,‘जे फौर जानकी.’ जब कोई उस से पूछता है कि उस ने अपने ब्रैंड का यह नाम क्यों चूज किया है तो इला फक्र से बताती है कि जानकी मेरी प्यारी दादी मां का नाम है. आज यदि मैं अपनी लाइफ में इस मुकाम तक पंहुची हूं तो सिर्फ दादी मां की वजह से. मेरी दादी मां ही मेरी लाइफ की मैंटर, मोटीवेटर व नेवीगेटर आदि सब हैं.
इला की दादी मां इला के औफिस में हर रोज इला के साथ औफिस में आती हैं. कुछ देर आरामकुरसी पर बैठती हैं और जब थक जाती हैं तो इला ड्राइवर के साथ घर वापस भेज देती है. इला के मन में यह अटल विश्वास है कि दादी मां का चेहरा देख कर दिन की शुरुआत करने से निश्चय ही उस का पूरा दिन बहुत अच्छा गुजरता है.
जब इला उन की तरफ देख कर लोगों को इंगलिश में उन की तारीफ में कसीदे पढ़ती है तो उन शब्दों का पूरा पूरा मतलब तो नहीं समझ पाती, पर इला के हावभाव से यह जरूर पता लग जाता है कि उन की पोती उन की तारीफ में ही कुछ कह रही है. दादी मां इला की इस अदा पर मन ही मन खुश हो कर उस को ढेर सारे आशीर्वाद दे डालती हैं. दादी मां के चेहरे पर मंदमंद मुसकराहट खिल जाती है. इस मुसकराहट के पीछे न जाने कितनी दर्द थी लकीरें अंकित हैं यह तो सिर्फ वे ही जानती हैं, फिर तुरंत ही अपने मन को यह कह घर समझा लेती हैं कि अंत भला तो सब भला.
इला उन के इकलौते बेटे राघव व बहू नीरा की इकलौती बेटी थी. इला के जन्म के बाद 1 साल तक नीरा ने अवकाश ले कर इला की परवरिश की  फिर औफिस जौइन करने के लिए यह सवाल सामने आया कि इतनी छोटी बच्ची को न तो घर में अकेले आया के साथ छोड़ा जा सकता है और न किसी डे केयर में. नीरा ने जब यह समस्या अपनी मां के साथ शेयर की तो इला की नानी उस को अपने घर ले गईं. उन का मानना था कि इतनी छोटी बच्ची को अभी से किसी आया के भरोसे छोड़ना बिलकुल भी ठीक नहीं है. यों भी नीरा को अपनी बच्ची से अधिक अपने कैरियर की अधिक चिंता थी. नीरा की मां ने लाख समझाया कि इला को अभी तुम्हारी व तुम्हारे प्यार की बहुत जरूरत है और जब तक इला 5 साल की नहीं हो जाती तब तक अपने जौब को भूल जाओ. लाइफ में समय व परिस्थिति के अनुसार कई समझौते करने ही पड़ते हैं. इन 5 सालों में तो मैं अपने कैरियर में इतना पीछे रह जाऊंगी कि फिर मुझे कोई जौब भी देगा या नही. मैं अपना कैरियर दांव पर नहीं लगा सकती, नीरा ने अपना दोटूक फैसला अपनी मां को सुना दिया.
काफी सोचविचार के बाद इला की नानी उसे अपने साथ अपने घर ले गई. इला अपनी नानानानी की आंखों का तारा था. साथ ही इला की बालसुलभ चपलता से उन का मन भी बहल जाता था. नीरा भी बीचबीच में अवकाश ले कर इला से मिलने जाती रहती थी. जब भी जाती अपनी बेटी के लिए ढेरों उपहार, टौफी, चौकलेट आदि ले जाती. शायद यही उस का अपनी बेटी को प्यार दिखाने का तरीका था.
इधर कुछ दिनों से इला की नानी की तबियत खराब रहने लगी तो उन्होंने नीरा से कहा कि अब तुम इला को अपने साथ रखो ओर उस की देखरेख के लिए किसी अच्छी आया का इंतजाम कर लो. नानानानी के लाङप्यार ने इला को जिद्दी व बिगङैल बना दिया था. राघव व नीरा तो सारा दिन औफिस में व्यस्त रहते. इला अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि उसे घर में अकेले छोङा जा सके. अभी वह सिर्फ 6 साल की थी.
नीरा ने अपनी समस्या औफिस की कुलीग के साथ शेयर की. किसी ने आया रखने की सलाह दी तो किसी ने घर पर दादीनानी को बुला कर उन के पास छोङने की सलाह दी। अधिकांश कुलिग का कहना था कि कितनी भी अच्छी आया रख लो फिर भी बच्चे के पास किसी अपने का होना जरूरी है. इस से बच्चा सिक्योर फील करता है.
नीरा ने औफिस से 1 सप्ताह का अवकाश लिया, शहर की अच्छी से अच्छी सिक्योरिटी ऐजैंसियों के बारे में पता किया जो अच्छीअच्छी आया का प्रबंध कर सकती थी. 1-2 कंपनियों ने तो शहर के नामीगिरामी लोगों के नाम भी बताए कि हमारे यहां से भेजी गई आया के व्यवहार से उस के घर वाले संतुष्ट थे. नीरा ने पूरे घर में कैमरे भी फिट करवा दिए जिस से वह औफिस मे बैठेबैठे आया के क्रियाकलापों पर नजर रख सके कि आया उस की बच्ची के साथ कैसा व्यवहार कर रही है.
नीरा इतना करने के बाद काफी संतुष्टी का अनुभव कर रही थी कि वह तसल्ली से अपनी जौब पर फोकस कर सकेगी. राघव के टूर से लौटने पर उस ने अपने इंतजाम के बारे में बताया. नीरा की सब बात सुनने के बाद राघव ने खुश हो कर कहा,”नीरा, हमारी बेटी इला के बारे मे जो सोचा है बहुत अच्छा सोचा है. लेकिन मेरा मानना अभी भी यही है कि जबकि हम दोनों अपनेअपने जौब में बिजी हैं, ऐसे में आया के अलावा घर में किसी अपने का होना बहुत जरूरी है.
आप का क्या मतलब है कि किसी अपने का होना जरूरी है. अब कोई अपना क्या बाजार से खरीद कर लाया जाएगा? आप को तो मालूम है कि मेरी मां ने 6 साल तक इला को पालापोसा है. अब मेरे परिवार में तो कोई है नहीं जो हमारे घर आ कर रहे इला के साथ. “क्यों, इला की दादी तो है अभी। वे स्वस्थ भी हैं, अनुभवी भी. उन को जा कर ले आता हूं, वही रहेंगी इला के साथ. फिर जब इला कुछ और बङी हो जाएगी तो उसे किसी अच्छे  होस्टल में डाल देंगे, जहां उस की पढ़ाईलिखाई व देखरेख दोनों भलीभाति हो जाएगी,” राघव के मुंह से इला की दादी को अपने घर में लाने की बात सुन कर नीरा का मूड उखड़ गया.
“आप को तो बस हरदम अपनी मां को ही इस घर में लाने के मौके की तलाश रहती है. आप को तो मालूम है कि मुझे अपने घर में किसी की दखलंदाजी जरा भी पसंद नहीं है फिर वह देहातिन मेरी बच्ची को क्या अच्छी आदतें व संस्कार सिखाएगी.”
“क्यों, हम भाईबहनों को भी तो उन्होंने ही पाला है और अच्छे संस्कार भी दिए हैं,” इस मुद्दे को ले कर राघव व नीरा में काफी बहस हुई. आखिर नीरा को अपनी मौन सहमति देनी ही पड़ी. भावावेश मे आ कर नीरा ने सासूमां के लिए जो देहातन शब्द का प्रयोग किया था उस पर उसे खुद ही खेद हुआ और इस के लिए राघव से उस ने तुरंत सौरी कह कर माफी मांग ली.
दूसरे दिन इतवार था। राघव कार ले कर गया और दोपहर तक मां को ले कर आ गया. बहू नीरा ने उन्हें देख कर जिस अंदाज मे पैर छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया वह उन्हें बहुत खला। आखिर वह बच्ची तो नहीं थी. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि वह रखती ही थी. उन की पोती भी उन्हें अजनबी नजरों से देखती रही. फिर राघव ने इला को बताया कि तुम्हारी दादी मां हैं. इन को अपना कमरा नहीं दिखाओगी?
यों तो नीरा ने इला को व्यस्त रखने के लिए उस को कई तरह की ऐक्टिविटीज की क्लासेस जौइन करा दी थी. इन क्लासेस में वह क्या सीख कर आ रही है या नहीं, यह जानने और पूछने का नीरा को समय कहां था. उस की कौरपोरेट जगत की नौकरी, उस का सारा समय खा जाती थी. नीरा चाहते हुए भी इला से अधिक इंटरैक्शन नहीं कर पाती थी.
नीरा अपने जौब में व्यस्त रहती. सुबह 8 बजे घर से निकल कर शाम 8 बजे तक ही घर पहुंच पाती. जब तक इला सो चुकी होती. यही कारण था कि इला धीरेधीरे अपनी मां से दूर व दादी मां के नजदीक होती जा रही थी. हां, शुरूशुरू में तो इला को अपने कमरे मे दादी मां का रहना अजीब लगा फिर उन के प्यार व स्नेहभरे व्यवहार से अब उन के साथ घुलनेमिलने लगी थी.
एक दिन ड्राइंग क्लास से लौटी तो बहुत खुश थी. जानकीजी ने उस की खुशी का कारण पूछा तो उस ने अपनी ड्राइंग की कौपी उन को दिखाई और बताया कि मैम ने हैप्पी फैमिली ड्रा करने को बोला था. मैं ने जो बनाया उस को देख कर बहुत खुश हुई. मुझे शाबाशी दी. उस ने अपनी ड्राइंग कौपी में मम्मीपापा के साथ दादी मां को भी चित्रित किया था. जानकीजी यह जान कर बहुत खुश हुई.
समय अपनी गति से बीत रहा था. घर में आया के साथसाथ इला की दादी मां है, यह सोच कर नीरा काफी निश्चिंत हो गई थी. इला धीरेधीरे बड़ी हो कर 12 साल की उम्र तक पहुंच रही थी. एक दिन स्कूल से लौटी तो स्कूलबैग पलंग पर पटक कर अपने बैड पर औंधे मुंह गिर कर रोने लगी. जानकीजी ने उस के स्कर्ट पर खून के दाग देखे तो घबरा गई. उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कहा,”मुझे बताओ, क्या तुम को कहीं  चोट लगी है, स्कूल में खेलते समय.
इला ने कहा,”नहीं, पर मेरे पेट मे जोर का दर्द हो रहा है. मां को 2-3 बार फोन मिलाया पर बात नहीं हो पाई. दादी मां, क्या आप के पास मेरे पेट दर्द को दूर करने की कोई दवा है?” “हां, है न, मेरी दवा से तुम्हारा दर्द एकदम छूमंतर हो जाएगा,” जानकीजी समझ गईं कि इला को पीरियड्स शुरू हो गए हैं और इसी कारण उस की स्कर्ट पर खून के दाग लगे हैं और पेट दर्द हो रहा है.
उन्होंने आया को बोल कर गरम पानी की बोतल लाने को कहा. इला को अपने पास लिटाया, उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और पेट की सिंकाई की. थोङी देर में ही इला को नींद आ गई. जब वह सो कर उठी तो बोली,”लव यू दादी मां, आप ने तो सच में ही मेरा पेट दर्द गायब कर दिया.”
इला को अपने पास बैठा कर धीरेधीरे उसे पीरियड्स की जानकारी दी और बताया,”बेटा, एक उम्र आने पर ऐसा सभी के साथ होता है. अब हर  महीने तुम को इस से गुजरना होगा। 3-4 दिन के बाद तुम नौरमल महसूस करोगी. डरने जैसी कोई बात नहीं है मेरी बच्ची. हां, इस दौरान तुम को अधिक उछलकूद से बचना होगा और अपने खाने में हैल्दी फूड्स को शामिल करने होंगे ताकि इस दौरान जो रक्त तुम्हारे शरीर से बाहर निकलेगा उस से कमजोरी महसूस न हो.” इला ने दादी मां की सारी बातें बहुत ध्यान से सुनी और कहा कि आगे से इन बातों का ध्यान रखेगी.
समय धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. दादीमां को सिलाई व कढ़ाई करते देख उस का रूझान भी इस ओर बढ़ रहा था. इस बार ऐग्जाम में क्राफ्ट की फाइल में उसे फुल मार्क्स मिले थे क्योंकि दादी मां से सीखे कसीदों ने उस को काफी हुनरबाज बना दिया था. आज इला खुश थी क्योंकि उस की टीचर ने उस की क्राफ्ट फाइल दिखा कर उस की बहुत तारीफ की थी. घर आते ही इला दादी मां के गले मे बाहें डाल कर लिपट गई और बोली,”लव यू दादी मां.” जानकीजी ने इला को अब तक गुड टच व बैड टच के बारे में भी चुकी थीं. यों तो इला कार से ही स्कूल आनाजाना करती थी. सुबह ड्राइवर स्कूल छोङ आता। शाम को वापस घर ले आता.
एक दिन इला स्कूल से आ कर अपने कमरे में कपङे बदल रही थी. उस के क्लास का लडका नोट्स लेने के बहाने घुस आया क्योंकि दरवाजा असावधानीवश खुला रह गया था। जानकीजी रसोई में इला के लिए खाना लगा रही थीं. वह लड़का पहले तो इला से छेड़छाड़ करने लगा फिर उस से जबरदस्ती करने की कोशिश की। इला जोर से चिल्लाई. आवाज सुन कर दादी मां तुरंत दौडी आई और उस लड़के का कालर पकड कर 2-3 थप्पड़ मारे फिर घर के बाहर खींच कर ले गई और जोरजोर से आवाज लगा कर पूरे मोहल्ले को जमा लिया. सभी लोगों ने पूरी बात जान कर उस लडके की जम कर धुलाई की. तब तक किसी ने पुलिस को बुला लिया था। उस लडके को पुलिस के हवाले कर दिया गया.
कमरे में आने पर देखा कि इला कोने में डरीसहमी खडी थी. वह जानकीजी को देख कर उन से लिपट कर रोने लगी ओर रोतीरोती बोली,” लव यू दादी मां”. यू आर ग्रेट. यदि आज आप न होतीं तो न जाने क्या हो जाता. आया आंटी तो इन सब से बेखबर घोड़े बेच कर सो रही है.”
शाम को नीरा के औफिस से वापस आने पर इला ने पूरी घटना अपनी मां  को बताई कि किस तरह दादी मां की वजह से आज आप की बेटी किसी अनहोनी का शिकार होेने से बच गई. नीरा को महसूस हुआ कि घर में किसी अपने का होना बहुत जरूरी है. साथ ही उस ने जा कर अपनी सासू मां को धन्यवाद दिया और अपने अब तक के व्यवहार के लिए माफी मांगी.
इला ने 12वीं तक जातेजाते जानकीजी से कपड़ों की कटिंग, कढ़ाई व डिजाइनिंग आदि सब सीख लिया था इसलिए उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने का मन बना लिया था. उस की मां ने भी उस की चौइस पर अपनी हां की मुहर लगा दी क्योंकि इला के साथसाथ नीरा भी सासूमां के हुनर को सलाम करने लगी थी और इला वह तो उठतेबैठते हर समय बस एक ही बात बोलती रहती थी, “लव यू दादी मां”.

सोशल स्टेटस की मारी जनता

‘तेते पांव पसारिए, जैती लंबी सौर’ इस का मतलब है ‘अपने पैरों को उतना ही फैलाना चाहिए जितनी लंबी चादर हो.’ हमारे समाज में इस कहावत का खास मतलब था. हमारा समाज अपनी आर्थिक व्यवस्था को इस के अनुसार ही चलाता था. बाजारवाद के नए दौर में यह कहावत अब भी है पर हाशिए पर चली गई है. सोशल स्टेटस के चक्कर में जनता बाजारवाद के  झांसे में फंस चुकी है. बाजार लोगों की जरूरत का सामान तैयार कर के बेचने का काम करता है और बाजारवाद पहले महंगा सामान बनाता है उस के बाद जनता के बीच उस की जरूरत को पैदा करता है.

मंदिर में दर्शन की व्यवस्था में पैसे वालों को अलग महत्त्व दिया जाता है. बड़े मंदिरों में जहां आम आदमी को दर्शन करने में 10 से 15 घंटे तक का इंतजार करना पड़ता है वहां पैसे दे कर वीवीआईपी दर्शन करने वालों को 1 घंटे में ही दर्शन करने को मिल जाता है. पैसे वालों की देखादेखी अब मध्यवर्ग के लोग भी वीआईपी दर्शन के लिए अलग से पैसा देने लगे हैं. इस से मंदिरों की कमाई बढ़ रही है. वीआईपी दर्शन भी ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है.

बाजारवाद के प्रभाव में लोग अपनी जरूरत से इतर ‘स्टेटस सिंबल’ के लिहाज से खरीदारी करते हैं. आर्थिक व्यवस्था को ले कर पूरी थ्योरी बदल गई है. आज के दौर में पैर सिकोड़ने की जगह पर नई चादर लेने की थ्योरी चल रही है. भले ही इस के लिए लोन या कर्ज क्यों न लेना पड़े. जिस समाज में कर्ज लेने को बुरा माना जाता था आज वहां कर्ज ले कर दिखावा करने को लोग स्टेटस सिंबल मान रहे हैं. सोशल स्टेटस के लिए लोग कर्ज लेने से नहीं घबरा रहे, भले ही इस के कुछ भी परिणाम हों. मध्यवर्ग को पैसे वाले ऊंचे लोगों की वजह से खर्च करना पड़ता है.

दीपक अपने बेटीबेटे और पत्नी के साथ गांव छोड़ कर शहर में रहने आया था. उस की सोच यह थी कि यहां रह कर खुद नौकरी करेगा और बच्चों को पढ़ालिखा कर बड़ा करेगा, जिस से बच्चे बड़े हो कर अच्छी नौकरी कर सकेंगे. उस के बाद उन की जिंदगी अच्छी कटेगी. शहर में आ कर यहां के रहनसहन को देख कर पत्नी और बच्चे अपने आसपास के लोगों से मुकाबला करने लगे थे. दीपक ने जब अपने लिए बाइक ली थी तो उस के गांव में सब बहुत खुश थे. दीपक पहला आदमी था जिस ने बाइक ली थी. अब शहर में सब के पास कार थी. दीपक के बच्चे और पत्नी चाहते थे कि वह कार ले. दीपक कहता था कि उस की छोटी सी नौकरी में कार लेने का पैसा नहीं है. यह बात उस के घर के लोगों को अच्छी नहीं लगती थी. इस वजह से घर का माहौल तनावभरा सा हो गया था.

एक दिन दीपक के घर आते ही उस की पत्नी ने चाय का कप टेबल पर रखते बताया, ‘‘जानते हो पड़ोस वाले वर्माजी आर्टिगा गाड़ी ले आए हैं.’’ पत्नी ने बात यही खत्म नहीं की, आगे बोली, ‘‘पूरे 17 लाख की गाड़ी खरीदी और वह भी कैश में.’’

दीपक हांहूं करता रहा. आखिर पत्नी का धैर्य जवाब दे गया. वह बोली, ‘‘हम लोग भी अपनी एक गाड़ी ले लेते हैं, तुम मोटरसाइकिल से दफ्तर जाते हो क्या अच्छा लगता है? सभी लोग गाड़ी से आएं और तुम बाइक चलाते हुए वहां पहुंचो, कितना खराब लगता है. तुम्हें न लगे पर मु झे तो लगता है.’’

दीपक बोला, ‘‘देखो, घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाईलिखाई के बाद इतना नहीं बचता कि गाड़ी लें. फिर आगे भी बहुत खर्चे हैं. उस के लिए कुछ न कुछ बचत करना जरूरी होता है. कभी अचानक कोई जरूरत पड़ जाए तो किस के सामने हाथ फैलाते रहेंगे.’’ दीपक ने धीरे से पत्नी की बात का जवाब दिया.

‘‘बाकी लोग भी तो कमाते हैं, सभी अपने शौक पूरे करते हैं. तुम से कम वेतन पाने वाले लोग भी स्कोर्पियो से चलते हैं, तुम जाने कहां पैसे फेंक कर आते हो.’’

‘‘अरे भाई, सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ में ही दे देता हूं, अब तुम जानो कहां खर्च होता है. मैं तो अपने लिए केवल मोटरसाइकिल में पैट्रोल भरवाने के पैसे ही रखता हूं और हां, गाड़ी लेने की सोचने से पहले तो महंगा होता पैट्रोल लेने की सोचना होगा,’’ दीपक ने कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती, तुम गांव की जमीन बेच दो. यही तो समय है जब घूमघाम लें. हम भी जिंदगी जी लें. कुछ शौक पूरे कर लें. हमें तो अब अड़ोसीपड़ोसी लोगों के साथ बैठने में शर्म आती है. सभी अपने शौक के बारे में बताते हैं. होटल जाते हैं. बच्चे घूमने जाते हैं. नए खिलौने, नए मोबाइल लेते हैं. कितने बड़ेबड़े एलईडी टीवी दीवारों पर लगे हैं. घर में एसी है. हमारे यहां कुछ भी नहीं है.

‘‘मरने के बाद क्या जमीन ले कर जाओगे? बेकार ही पड़ी है. दूसरे लोग खापी रहे हैं और हम लोग यहां गरीबों की तरह से जी रहे हैं. तुम मेरी बात मान लो, गांव की जमीन बेच लो. वैसे भी, अब वहां कौन रहने जा रहा है.’’

पत्नी ने एक तरह से अपना फैसला सुना दिया. दीपक के सामने दूसरा रास्ता नहीं था. उस ने भरे मन से सहमति में सिर हिला दिया. कुछ ही देर में सारे महल्ले में यह खबर फैल गई कि दीपा अब जल्द ही गाड़ी लेने वाली है. दीपा अब अपने पड़ोसी से बड़े मौडल वाली कार खरीदने के लिए तैयारी कर रही थी. उस के लिए उसे अपनी पैतृक जमीन बेचने से भी कोई गुरेज नहीं था.

महंगे मौडल की गाड़ी है

शान की सवारी

गाड़ी लेना ही सोशल स्टेटस नहीं है. गाड़ी के मौडल के हिसाब से सोशल स्टेटस देखा जाने लगा है. अगर आप के पास 3 से 4 लाख वाली कोई कार है तो यह सोशल स्टेटस का हिस्सा नहीं है. सोशल स्टेटस के लिए हर किसी को अपने पड़ोसी, नातेरिश्तेदार और दोस्तों से बड़ी गाड़ी चाहिए भले ही जहां आप रह रहे हों वहां बड़ी गाड़ी रखने की जगह न हो या आप के शहर के ट्रैफिक में उस के चलने की जगह न हो. लेकिन आप को महंगी एसयूवी गाड़ी ही चाहिए. आज चार पहिया बाजार को देखें तो एसयूवी सब से ज्यादा बिकने वाली गाडि़यों में शामिल है.

बाजारवाद ने बैंक के लोन सिस्टम को इस तरह का बना दिया कि आप के लिए ये गाडि़यां खरीदना सरल हो गया है. भले ही कुछ दिनों बाद आप इन को अफोर्ड न कर सको. पहले जहां 4 से 5 लाख की कार को ही स्टेटस सिंबल सम झा जाता था, आज यह रेंज 20 लाख को पार कर गई है. इस से कम कीमत वाली कार पर चलना शान नहीं सम झा जाता.

जिस तरह से एक जमाने में राजा और रजवाड़े अपनी शानशौकत के लिए बग्घी पर चलते थे, आज के दौर में महंगी एसयूवी गाडि़यां उसी तरह की हो गई हैं. जरूरत से अधिक ये दिखावे के लिए प्रयोग होने लगी हैं. गाडि़यां बनाने वाली कंपनियां भी इस बात को सम झ गई हैं. अब एक ही गाड़ी के कईकई मौडल एकसाथ लौंच किए जाने लगे हैं. इन को बेस मौडल और अपर मौडल के नाम से जाना जाता है. खरीदार बेस मौडल को लेने के लिए शोरूम में जाता है और वहां सेल्समैन उस को अपर मौडल की ऐसी खूबियां बताता है कि ग्राहक जेब से अधिक की गाड़ी ले कर आता है. कार हो या बाइक, सभी की कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ है.

पहले साधारण स्कूटर 12 से 15 हजार में मिल जाता था. ‘हमारा बजाज’ के नारे के साथ बजाज स्कूटर सब से अधिक पसंद किया जाता था. इस के इंजन की पावर कम थी. 90 के दशक में ‘एक्टिवा’ लौंच हुई. उस की कीमत साधारण स्कूटर से तीनगुना अधिक थी. 100 सीसी पावर वाले इंजन के साथ 50 हजार रुपए से शुरुआत हुई. आज यह स्कूटर एक लाख के करीब कीमत तक पहुंच चुका है. सस्ते स्कूटर बाजार से बाहर हो गए हैं, उन का बनना तक अब बंद हो चुका है. यही हालत मोटर बाइक की है. 100 इंजन वाली हीरो होंडा ने बाइक के बाजार को बदल दिया. इस के चलते राजदूत, यजदी जैसी गाडि़यां बाजार से बाहर हो गईं.

मोटर बाइक के शौकीन लोगों ने महंगी मोटर बाइक के बाजार को बढ़ावा दिया. 25 से 30 हजार में मिलने वाली बुलैट अब 2 लाख की कीमत में मिलने लगी है. इस रेंज में और भी कई मोटर बाइक्स बाजार में बिक रही हैं. मध्यवर्ग के जो लोग कार अफोर्ड नहीं कर पा रहे, वे दिखावे के लिए महंगी मोटर बाइक लेने लगे हैं.

लखनऊ के महानगर और अलीगंज इलाके में पुरानी कारों की खरीदफरोख्त का बाजार है. यहां पहले कुछ पुरानी गाडि़यां खड़ी दिखती थीं. कोरोना की तालाबंदी से बिजनैस और नौकरियों को जो नुकसान हुआ उस से चारपहिया गाडि़यां चलाने की हालत लोगों में नहीं रह गई. अब ये गाडि़यां पुराने कार बाजार की शोभा बन गई हैं. इन को खरीदने वाले लोग भी नहीं मिल रहे. 5-6 साल पहले नए मौडल की कोई पुरानी कार जैसे ही यहां बिकने आती थी, उस के ग्राहक पहले से ही लाइन में होते थे.

सोशल स्टेटस के कारण बढ़ गए प्राइवेट स्कूल

यह कहानी दीपक और उस की पत्नी दीपा की ही नहीं है. उन के जैसे तमाम लोगों की है. सोशल स्टेटस के मारे तमाम लोग ऐसा करते हैं. केवल कार और घर ही नहीं, बच्चों की पढ़ाई भी सोशल स्टेटस का हिस्सा बन गई है. अशोक प्राइवेट जौब करते हैं. उन के मित्र दिनेश सरकारी विभाग में कमाई वाली पोस्ट पर नौकरी कर रहे हैं. दोनों की दोस्ती भी है और पड़ोसी भी हैं. दिनेश ने अपने बच्चे का एडमिशन अच्छे प्राइवेट स्कूल में कराया. महंगी फीस है. गाड़ी घर से बच्चे को लेने और छोड़ने आतीजाती है. अशोक ने अपने बच्चे का एडमिशन सरकारी स्कूल में कराया. जहां फीस न के बराबर है और वह खुद बच्चे को छोड़ने व लेने जाता है.

अब यह बात दिनेश और अशोक के बीच सोशल स्टेटस का मुद्दा बन गई. अशोक और दिनेश के बीच धीरेधीरे एकदूसरे से मिलना कम होने लगा. जब भी किसी दोस्त के यहां आनाजाना होता, अशोक उस से कटने लगा था. कारण यह था कि दिनेश मिलते ही पूछता ‘बच्चे कहां पढ़ रहे हैं?’ जैसे ही अशोक बताता कि सरकारी स्कूल में, दिनेश उस का मजाक उड़ाते कहता, ‘‘तुम अपने बच्चे का भविष्य बेकार कर रहे हो. किसी अच्छे स्कूल में डालो.’’ अशोक को यह बुरा लगता. धीरेधीरे दोनों की दोस्ती टूट गई. अशोक अब दिनेश से मिलना ही नहीं चाहता था. सरकारी स्कूल और प्राइवेट स्कूल के बीच फीस का फासला बहुत होता है. यह अशोक की क्षमता के बाहर था.

सोशल स्टेटस के कारण ही शिक्षा का बाजारीकरण हो गया. आज गांवगांव तक प्राइवेट स्कूल पहुंच गए हैं. मुफ्त पढ़ाई, किताबें और स्कूली ड्रैस के बाद भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों की संख्या बेहद कम हो गई है. शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ता जा रहा है. दूसरी तरफ जनता सोशल स्टेटस के चक्कर में प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ा रही है और महंगी शिक्षा का रोना भी रो रही है. 10वीं और 12वीं कक्षाओं की पढ़ाई कराने वाले 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में उपलब्ध सीटों से कम बच्चे पढ़ने आ रहे हैं. यही नहीं, धीरेधीरे राज्य शिक्षा बोर्ड के स्कूल बंद होते जा रहे हैं. अब सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड से संबद्ध स्कूल बढ़ने लगे हैं.

समाज के बड़े तबके के लोगों के बच्चों के सरकारी स्कूलों में न पढ़ने से वहां अब केवल कमजोर वर्ग के बच्चे ही पढ़ाई कर रहे हैं. इस वजह से वहां पढ़ाई का स्तर गिरता जा रहा है. उत्तर प्रदेश में अदालत ने यह आदेश दिया कि सरकारी सेवा और जनप्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा जाए, तभी सरकारी स्कूलों का स्तर ठीक हो सकेगा. यह आदेश ठंडे बस्ते में पड़ा है.

आईआईएम और आईएचएम की फीस तब बढ़ी जब देश में बाजारवाद उफान पर पहुंच गया और माना जाने लगा कि यह पढ़ाई नहीं, एक तरह का इन्वैस्टमैंट है. बच्चों पर पैसे लगाइए और उस का कैरियर अच्छा हो जाएगा. जब यहां से शिक्षा पास करने वाला बच्चा प्लेसमैंट में ही लाखों के पैकेज हासिल कर लेगा तो लाखों रुपए का इन्वैस्टमैंट कर सकते हैं तो फिर गरीब अभिभावक भी कर्ज ले कर मोटी फीस चुकाने लगे. फिर स्टूडैंट लोन का भी चलन बढ़ने लगा. सम झ लीजिए कि जिस रोज स्टूडैंट लोन का कौन्सैप्ट आया था, उसी रोज से शिक्षा के बाजारीकरण की शुरुआत हो चुकी थी.

इस के बाद तेजी से प्राइवेट इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेज खुलने लगे. बच्चे में डाक्टरी या इंजीनियरिंग पढ़ने की क्षमता है या नहीं, कोई बात नहीं. पास में पैसे हैं या नहीं, लेकिन फिर भी आप का बच्चा इंजीनियर या डाक्टर बन सकता है. अब तो डाक्टरी पढ़ने में एक करोड़ से अधिक का खर्चा आ रहा है. रूस और चीन के मैडिकल कालेज में यहां के लोग पढ़ने जाने लगे हैं. रूस और यूक्रेन युद्ध के दौरान यह बात सामने आई. प्राइवेट कालेजों के फीस स्ट्रक्चर को दिखा कर सरकार कहती है कि हम ही क्यों सस्ते में पढ़ाएं. लिहाजा, सरकारी हो या प्राइवेट, उच्चशिक्षा हर जगह इन्वैस्टमैंट बन गई है.

शिक्षा के महंगे होने के कारण वही अपने बच्चों को इंजीनियर या डाक्टर बनाएंगे जिन के पास पैसा है. समस्या यह है कि 10-15 हजार की नौकरी कर के लोग 50 लाख का स्टूडैंट लोन ले कर

10 वर्षों तक कर्ज उतारते रहेंगे. जो बच्चे आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से पढ़ाई पूरी कर निकल रहे हैं उन को भी पहले जैसा सैलरी पैकेज नहीं मिल रहा है. इस के बाद भी वे ऊंची शान के लिए ईएमआई पर महंगी कार और मकान ले रहे हैं. लखनऊ में एक अच्छे फ्लैट की कीमत एक करोड़ के आसपास है. 15 सौ स्क्वायर फुट जमीन की कीमत 75 लाख रुपए के आसपास है. मध्यवर्ग के वेतन पाने वाले लोगों के लिए यह सपना सा है. अपने सपने को पूरा करने के लिए वह गलत काम करने की सोचता है या फिर गांव के खेत और जमीन बेचता है.

प्राइवेट अस्पतालों में

पैदा होते महंगे बच्चे

बच्चों की शिक्षा ही नहीं, बच्चों का पैदा होना भी सोशल स्टेटस का हिस्सा बन गया है. सरकारी अस्पतालों में डिलीवरी में अधिकतर मुफ्त और अधिक से अधिक 10 से 15 हजार का खर्च आता है. लेकिन जब प्राइवेट अस्पताल में जब डिलीवरी होती है तो खर्च 1 लाख तक का आ जाता है. यह भी एक तरह का स्टेटस सिंबल बन गया है. अगर आप ने अपनी बहू या पत्नी की डिलीवरी किसी सरकारी अस्पताल में करवाई तो हमेशा यह शिकायत रहेगी कि उस को प्राइवेट नर्सिंग होम या अस्पताल क्यों नहीं भेजा. प्राइवेट अस्पताल जब डिलीवरी के खर्च बताते हैं तो उस में कमरे में एसी, अटैच बाथरूम, टीवी जैसी सुविधाओं के पैसे भी शामिल होते हैं. वे बच्चे और मां के मसाज के लिए फिजियोथेरैपिस्ट या दूसरे जानकार लोगों को बुलाने का भी काम करते हैं.

यह खर्च केवल डिलीवरी के समय का है. वैसे देखा जाए तो बच्चे के डिलीवरी तक पहुंचने का खर्च भी कम नहीं होता है. जिस दिन मातापिता को यह पता चलता है कि बच्चा पेट में आ गया, वे डाक्टर के पास जाते हैं. इस के बाद से ही डाक्टर की फीस, टैस्ट, दवा के नाम पर हजारों रुपए खर्च होने लगते हैं. डाक्टर की फीस कम से कम 1 हजार रुपए हो गई है. पूरे 9 माह के खर्च जोड़े जाएं तो 2 से 3 लाख का खर्च होता है. ऐसे में आज के दौर में बच्चे महंगे हो गए हैं. इन में भी जरूरत से अधिक दिखावे का चलन है. डाक्टर को अपने अस्पताल ऐसे बनाने पड़ते हैं जिन को बाहर से ही देख कर मरीज पर प्रभाव पड़े और वह महंगी फीस देने से पीछे न हटे.

जिन लोगों के नौर्मल गर्भ नहीं ठहरता उन के खर्च और भी अधिक होते हैं. आईवीएफ के जरिए बच्चों को पैदा करने में 10 से 15 लाख तक का खर्च आ जाता है. आज भी हमारे समाज में बां झपन एक श्राप जैसा है. जिस औरत के बच्चे नहीं होते उस को बां झ कहा जाता है. उस को श्रापित माना जाता है. उस के साथ भेदभाव किया जाता है. कई जगहों पर सुबह उस को देखने को लोग बुरा मानते हैं. इस कारण हर औरत यह चाहती है कि उस के बच्चा जरूर हो. बां झपन के तमाम कारण होते हैं. आज के समय में देर से हो रही शादियां, कैरियर का तनाव, खानपान और प्रदूषण के चलते आदमी और औरत दोनों में कोई परेशानी होने से भी बां झपन होने लगी है. ऐसे में आईवीएफ के जरिए बच्चे पैदा करने का काम हो रहा है. अगर लोग चाहें तो बच्चे को गोद भी ले सकते हैं, लेकिन सोशल स्टेटस और सामाजिक दबाव के कारण वे बच्चा गोद लेने की जगह पर आईवीएफ के जरिए बच्चा पैदा करने का प्रयास करते हैं, जिस में खर्चे अधिक हैं.

नौर्मल शौपिंग बनाम मौल्स की शौपिंग

लखनऊ के मशहूर अमीनाबाद बाजार में माताबदल पंसारी की दुकान है. एक समय में पूरे उत्तर प्रदेश में यह मशहूर थी. किराने का हर सामान यहां मिल जाता था. न रेट को ले कर कोई दिक्कत होती थी न ही वजन और क्वालिटी को ले कर. ग्राहक और दुकान के बीच सुखदुख का रिश्ता भी था. जो अपने बेटेबेटी की शादी का सामान लेता था तो वह शादी का कार्ड भी देता था. सामान की लिस्ट दुकान पर दे दी जाती थी, कुछ देर बाद सारा सामान पैक हो कर तैयार मिलता था. पैसे कुछ कम हुए तो भी कोई दिक्कत नहीं होती थी. यही हालत बरतन बेचने वाले कन्हैयालाल प्रयागदास और ज्वैलरी बेचने वाले लाला जुगल किशोर और खुनखुनजी की होती थी.

समय बदला, ग्राहक और दुकानदार के बीच का रिश्ता बदला. छूट का लालच दे कर मौल्स ने अपना कारोबार फैलाया. मौल्स में ग्राहक और दुकानदार के बीच कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं रह गया है. मध्यवर्ग को पता है कि मौल्स में उस का बजट बिगड़ा जा रहा है. वह 500 रुपए का सामान लेने जाता है और 2 हजार का ले कर आता है. लेकिन पैसे वाले ऊंचे लोग खरीदारी करने मौल्स में जा रहे हैं. इस कारण वह भी वहां खरीदारी करना अपनी शान सम झता है. मौल्स में बिल चुकाते समय अगर एक रुपया भी आप के पास कम हो जाए तो हजारों की खरीदारी के बाद भी आप को छूट नहीं मिलेगी. साधारण दुकानों पर आप हक और अधिकार से बिना इस तरह का पैसा चुकाए सामान ला सकते हैं.

रैस्तरां और होटल

दिखावे की जगहें

हमारे रोजमर्रा के जीवन में दिखावा खानेपीने की चीजों पर भी भारी पड़ गया है. मध्यवर्ग इस दिखावे में सब से आगे है. इसी वजह से वह परेशान रहता है. पहले जब खानेपीने की बात होती थी तो यह देखा जाता था कि स्वाद कहां सब से अच्छा है. अब यह देखा जाता है कि इंटीरियर कहां सब से अच्छा है. किस रैस्तरां का प्रचारप्रसार सब से अधिक है. यहां भी ब्रैंड से ब्रैंड का टकराव होने लगा है. लखनऊ में शर्मा चाय की दुकान है. बहुत मशहूर है. चाय, बंद मक्खन और समोसा यहां मिलता है. यहां 15 रुपए की चाय मिलती है. लोकल लैवल पर देखें तो शर्मा की चाय ब्रैंड है. कीमत भी कम है. लेकिन पैसे वाले ऊंचे लोग ‘स्टारबग’, ‘सबवे’ और ‘बरिस्ता’ जैसी जगहों पर जा कर जिस सुख की अनुभूति पाते हैं वह शर्मा चाय में नहीं मिलती.

मध्यवर्ग के लिए ‘स्टारबग’ और ‘सीसीडी’ की कौफी उस की जेब पर भारी पड़ती है. वहां की 250 रुपए की कौफी में ऐसा कौन सा स्वाद है जो

50 रुपए वाली नौर्मल कौफी में नहीं होता. लेकिन दिखावे और सोशल स्टेटस के लिए ‘स्टारबग’ का जो रुतबा है वह नौर्मल कौफी का नहीं होता. सोशल स्टेटस की सब से बड़ी वजह सोशल मीडिया का बढ़ना है. पहले किसी चीज को दिखाने के लिए लोगों तक जाना पड़ता था.

अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप के स्टेटस पर फोटो के पोस्ट होते ही लोग देख लेते हैं. अपने गुणगान करने के लिए फेसबुक और इंस्टाग्राम पर रील डालने का प्रचलन बढ़ गया है. अब आप साधारण खानेपीने की दुकानों पर जा कर वहां के फोटो पोस्ट करेंगे तो उस का प्रभाव नहीं पड़ेगा. वहीं जब आप ‘स्टारबग’, ‘सबवे’ और ‘बरिस्ता’ या महंगे होटल के फोटो पोस्ट करेंगे तो आप के जानने वालों को लगेगा कि आप कितने अमीर हैं. पिछले 5-6 सालों में मध्यवर्ग के बीच यह दिखावा बड़ी तेजी से बढ़ा है. वह खुद को पैसे वाले ऊंचे लोगों से कमतर नहीं देखना चाहता. यही वजह है जिस के कारण यह वर्ग असंतुष्ट और तनाव में रहता है.

पर्यटन : घूमना कम,

दिखावा ज्यादा

पैसे वाले ऊंचे लोग घूमने के लिए विदेशों में जाते हैं. मध्यवर्ग महंगे देशों में नहीं जा पाता तो वह आसपास की सस्ती जगहों, जैसे बैंकौक, पटाया, नेपाल जैसे देशों में अपनी यात्रा करता है. जो विदेश को अफोर्ड नहीं कर पाता वह देश के अंदर के गोवा, मनाली, कूल्लू, नैनीताल जैसे पर्यटन क्षेत्रों में घूम लेता है. पर्यटन में उस का उद्देश्य दिखावा अधिक होता है. उस का प्रयास रहता है कि अधिक से अधिक जगहों पर उस की फोटो हो जाए, जिस से वह यह दिखा सके कि पर्यटन वह भी करता है. इस के अलावा अब वह फाइवस्टार होटल से नीचे में नहीं रुकता. पहले लोग धर्मशाला या छोटे होटल में रुकते थे. उन का मानना था कि वे वहां होटल देखने नहीं बल्कि पर्यटन के लिए आए हैं. ऐसे में होटल कम से कम खर्च वाला हो.

अब यह धारणा बदल गई है. पर्यटन करने गए लोग कार किराए पर ले लेते हैं. अधिक से अधिक जगहों पर केवल फोटोशूट करते हैं और महंगे होटलों में रुक कर अपनी फोटो पोस्ट करते हैं. पर्यटन के सीजन में किसी भी शहर में जाएं तो महंगे होटल पहले से भरे मिलते हैं. कुछ वर्षों पहले तक सस्ते होटल पहले भरे मिलते थे, महंगे खाली रहते थे. महंगे होटलों में रुकना दिखावा बन गया है. मध्यवर्ग का आदमी अपने घर में भले ही कैसे रहता हो पर जब वह घूमने जाता है तो महंगे होटल में जाता है. अगर हवाईजहाज से यात्रा हो रही हो तो हवाईजहाज में बैठते ही सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट हो जाती है. वहीं अगर बस या ट्रेन से यात्रा हो तो उस का जिक्र नहीं किया जाता.

ब्यूटीपार्लर नहीं सैलून

एक दौर था जब नौर्मल ब्यूटीपार्लर में महिलाएं जाती थीं. अब अमीर महिलाओं की देखादेखी मध्यवर्ग की महिलाएं भी ब्यूटीपार्लर की जगह सैलून में जाने लगी हैं. सैलून भी ऐसेवैसे नहीं, ब्रैंडेड होने चाहिए. ब्यूटी प्रोडक्टस बनाने वाली कंपनी ने इसी चलन को देखते हुए 20 साल पहले लैक्मे ब्यूटी सैलून का विस्तार छोटेछोटे शहरों में करना शुरू किया. नौर्मल ब्यूटीपार्लर से दोगुनीतीनगुनी महंगी सर्विस होने के बाद भी महिलाएं लैक्मे सैलून में जाने लगीं. आज के दौर में लैक्मे ने नौर्मल ब्यूटीपार्लर को बाजार से बाहर कर दिया है. अब ब्रैंडेड सैलून हर शहर में दिखने लगे हैं.

एक वक्त था जब इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि महिला और पुरुष एक ही पार्लर और एक ही जिम में जा सकते हैं. पैसे वाले ऊंचे लोगों की होड़ में मध्यवर्ग की महिला और पुरुष भी यूनिसैक्स सैलून में जाने लगे हैं. जिम वालों ने पहले महिला और पुरुष की अलगअलग शिफ्ट शैड्यूल की थी. लेकिन जब उन्होंने देखा कि महिलाएं पुरुषों के साथ जिम करने में कोई दिक्कत नहीं अनुभव कर रहीं तो अब सब के लिए एकसाथ जिम करने का रास्ता खोल दिया. अब मध्यवर्ग की महिलाएं भी अमीर महिलाओं की तरह से मसाज कराती हैं. यह बात और है कि पैसे वाले अमीर लोगों से मुकाबला करने में उन की आर्थिक कमर टूट जाती है.

घर से अधिक इंटीरियर जरूरी

घर बनाने में भी मध्यवर्ग को पैसे वाले ऊंचे लोगों की वजह से खर्च करना पड़ता है जो उन के बजट में नहीं होता. गांव से निकल कर शहर रहने आए लोग यहां कालोनी में जब मकान बनाते हैं तो वे यह सोचते हैं कि बगल वाले से उन का घर अच्छा बने. इस के लिए घर के साथ ही साथ घर के बाहर लौन, बालकनी, छत और घर के अंदर का इंटीरियर सब अलग होना चाहिए. आज घर बनाने से अधिक बजट इस पर खर्च किया जाने लगा है. बाथरूम, टाइल्स, फौल्स सीलिंग, पानी के नल, लाइट के लिए सोलर सिस्टम, एसी प्लांट तक का प्रयोग मध्यवर्ग के लोग करने लगे हैं. घर बनाने में महंगी किस्म की ब्रैंडेड टाइल्स और पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा है. इन की लगातार देखभाल करने के लिए बाहर से लोगों को बुलवाया जाता है.

बाथरूम और किचन में सब से अधिक दिखावा किया जाने लगा है. नौर्मल किचन की जगह पर मौड्यूलर किचन बनने लगा है, जिस की वजह से घर की कीमत बढ़ने लगी है. लखनऊ में ऐसे किचन और बाथरूम के साथ साधारण इलाके में 1,200 वर्ग फुट के एक मंजिला मकान की कीमत 90 लाख रुपए से शुरू होती है. मध्यवर्ग के सामने सब से अधिक दिक्कत होती है क्योंकि वह पैसे वाले लोगों से अपने रहनसहन की तुलना करता है. इस के लिए वह जितना संभव होता है, अपना प्रयास करता है. अब वह चादर बड़ी करने की फिराक में रहता है, जो कई बार उस के लिए भारी पड़ता है. दिखावा केवल यहीं तक सीमित नहीं है.

घर में अब साधारण किस्म के टीवी नहीं दिखते. बड़ेबड़े एलईडी टीवी घरों में होते हैं. जिन की कीमत 40 से 50 हजार के बीच होती है. एक घर में पहले एक टीवी होता था. वहां बैठ कर पूरा परिवार एकसाथ देखता था. आज लोगों के कमरेकमरे में टीवी होता है. जहां वे अकेले अपने मनपंसद के कार्यक्रम देखते हैं. मध्यवर्गीय परिवारों में यह दिखावा तेजी से बढ़ रहा है. फर्नीचर में भी ब्रैंडेड फर्नीचर का प्रयोग किया जाने लगा है. जो साधारण फर्नीचर से काफी महंगा होता है. पैसे वालों से मुकाबले में मध्यवर्ग ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. यही उस की सब से बड़ी परेशानी बन गई है. इसी में वह हमेशा परेशान रहता है.

शादीविवाह में बढ़ गया दिखावा

शादीविवाह, बर्थडे पार्टी भी इस के दायरे में आ गई हैं. बड़े लोगों की देखादेखी अब शादियां होटल और रिसौर्ट में होने लगी हैं. पहले घर, फिर धर्मशाला, मैरिज हौल, लौन और अब होटल व रिसौर्ट में शादियों का चलन होने लगा है. बड़े लोग दूसरे शहरों में जा कर डैस्टिनेशन मैरिज करने लगे हैं. यह चलन अब मध्यवर्ग भी अपनाने लगा है. इस से शादी आयोजन के खर्च बढ़ गए हैं. लखनऊ के अगर किसी रिसौर्ट में 30 दिन रुक कर शादीविवाह करना है तो 18 से 20 लाख रुपए तक का खर्च 250 से 300 लोगों का हो जाता है. शादी की सजावट और जयमाला की थीम के चलते बहुत सारे खर्च बढ़ जाते हैं.

शादी में दिखावे का असर है कि अब उस के इवैंट बढ़ गए हैं. पहले जहां केवल शादी में ही ज्यादा खर्च होता था, अब इंगेजमैंट, गोदभराई, तिलक, वरीक्षा (रोका) शादी और रिसैप्शन जैसे कई फंक्शन होने लगे हैं. हर फंक्शन खास हो गया है क्योंकि सब की फोटो और वीडियोग्राफी होती है. शादी की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी का खर्च एक लाख से 3 लाख के बीच होने लगा है. कुछ लोग शादी में सैलिब्रिटी गैस्ट बुलाने लगे हैं. इन का खर्च अलग होता है. जैसे फिल्मों और टीवी सीरियल में शादी होती दिखाई जाती है वैसे ही अब मध्यवर्ग के लोग शादी करने लगे हैं.

बढ़ते खर्चे, घटती कमाई

कैसे हो मुकाबला

मध्यवर्ग के पास अमीर लोगों जैसी कमाई है नहीं. ऐसे में वह कैसे अमीरों का मुकाबला करे, यह सोचने वाली बात है. अगर दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की बात करें तो वहां 2 बैडरूम फ्लैट का किराया 40 से 50 हजार रुपए महीने होता

है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से निकले बच्चों का वेतन 70 से 80 हजार रुपए महीने का नहीं होता. अगर ऐसे फ्लैट वे खरीदना चाहें तो 2 करोड़ से ऊपर पैसा खर्च करना पड़ता है. ऐसे में 40 से 50 हजार रुपए तो केवल रहने में निकल गए. इस के बाद कम से कम 12 से 15 लाख कीमत वाली कार चाहिए होती है. लखनऊ जैसे शहरों में औसतन वेतन 50 से 60 हजार का होता है. यहां

2 बैडरूम फ्लैट का किराया 20 से

25 हजार का होता है. कुल मिला कर जहां वेतन ज्यादा है वहां खर्चे भी अधिक हैं. यही कारण है कि युवावर्ग के पास अच्छा वेतन पाने के बाद भी बचत के लिए कोई खास पैसा नहीं होता है.

अगर एक परिवार में पति, पत्नी और एक बच्चा है तो घर के खर्च नौकरानी का वेतन और दूसरे खर्च मिला कर 25 से

30 हजार रुपए प्रतिमाह खर्च हो जाता है. बच्चे के स्कूल का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह पड़ जाता है. बड़े शहरों में इंटरनैशनल स्कूल में प्राइमरी में बच्चे की फीस डेढ़ से 2 लाख सालाना तक आ जाती है. यह खर्च भी इस कारण है क्योंकि मध्यवर्ग भी अमीर लोगों की देखादेखी काम करना चाहता है. छोटे शहरों में तमाम इंटरनैशनल ब्रैंड के स्कूलों की चेन मौजूद है.

पैसे वाले अमीर बन रहे

रोल मौडल

समाज में ऐसे लोगों की चर्चा अधिक होती है जो कम समय में पैसे वाले बन जाते हैं. ऐसे ही लोगों में एक नाम अशनीर ग्रोवर का है. ‘फिनटेक स्टार्टअप भारत पे’ के

वे कोफाउंडर

रहे हैं. अशनीर 90 मिलियन डौलर की संपत्ति के मालिक हैं. भारतीय रुपए में उन की संपत्ति 700 करोड़ की बताई जाती है. अशनीर ‘शार्क टैंक इडिया’ के एक एपिसोड के लिए 10 लाख रुपए लेते हैं. अशनीर को महंगी गाडि़यों का शौक है. ढाई करोड़ की मर्सिडीज, 2 करोड़ की पोर्श कैमेन जैसी कारों के साथ तमाम महंगी गाडि़यां हैं. अशनीर दिल्ली में रहते हैं. पंचशील पार्क के पास उन का आलीशान घर है जिस की कीमत 30 करोड़ बताई जाती है. यहां वे मातापिता, पत्नी और 2 बच्चों के  साथ रहते हैं. इस के अलावा अशनीर की लाइफस्टाइल और रहनसहन भी चर्चा में रहता है.

पहले बड़े लोगों की सादगी की चर्चा होती थी. टाटा और बिड़ला की जब बात होती थी तो उन की सादगी का उदाहरण दिया जाता था. वे अपनी कमाई समाजसेवा में लगाते थे. टाटा ने कैंसर से लड़ाई में जो योगदान दिया वह एक उदाहरण है. कभी इस बात की चर्चा नहीं हुई कि टाटा के पास कितने चार्टर्ड विमान हैं. आज के दौर में गौतम अडानी की चर्चा ही इस बात पर होती है कि उन के पास महंगे किस्म के चार्टर्ड विमानों का पूरा जखीरा है.

बिजनैस मैगजीन फोर्ब्स ने 2021 के भारत के 100 अमीर लोगों की सूची जारी की. इन की कुल संपत्ति 775 अरब डौलर बताई गई. इस सूची में 92.07 अरब डौलर के साथ मुकेश अंबानी पहले नंबर पर हैं. अडानी ग्रुप के मुखिया गौतम अडानी 74.08 अरब डौलर के साथ दूसरे नंबर पर हैं. कोरोना के जिस दौर में मध्यवर्ग जीनेमरने के लिए संघर्ष कर रहा था, वहां इन अमीर लोगों की संपत्ति में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई. देश के 100 अमीर लोगों का धन 50 फीसदी से अधिक बढ़ गया. 257 अरब डौलर की बढ़त के साथ यह अब 775 अरब डौलर हो गया है.

ऐसे अमीरों की समाज में कमी नहीं है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि पैसे वालों को देख कर होड़ लगाने की रेस से मध्यवर्ग को बचना चाहिए. उस के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी कमाई से न केवल अपने खर्च उठाए बल्कि भविष्य के लिए बचत भी करे. मध्यवर्ग का सामाजिक ढांचा भी पहले जैसा मजबूत नहीं रहा जहां घरपरिवार, मित्र, रिश्तेदार जरूरत पड़ने पर मदद कर देते थे. आज मध्यवर्ग के लोग खुद अपनी हालत से परेशान हैं. वे दूसरे की मदद कैसे करें?

युवावर्ग यह न सोचें कि अभी बचत करने की क्या जरूरत है, बल्कि उसे अभी से ही बचत करनी शुरू कर देनी चाहिए. नौकरी के शुरुआती दौर में जिम्मेदारियां कम होती हैं. ऐसे में वे मनचाही बचत कर सकते हैं. सोशल स्टेटस छलावे में न फंसें. उतने ही पैर फैलाएं जितनी लंबी चादर हो.

मेरे चाचा एक छोटे बच्चे के साथ गलत हरकत कर रहे थे, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 19 साल की है. मैं मम्मीपापा के साथ एक रिश्तेदार की शादी में गया था. रात हम वहीं रुके थे क्योंकि शादी सुबह की थी. मु?ो नींद नहीं आ रही थी तो मैं कमरे से बाहर निकल कर बालकनी की तरफ जाने लगा. मु?ो स्टोररूम से आती कुछ आवाज सुनाई दी. मैं दबेपांव उस तरफ गया तो अपने दूर के चाचा को एक छोटे बच्चे के साथ गलत हरकत करते देखा. मैं चुपचाप वापस आ गया. मु?ो आज तक इस बात का अफसोस होता है कि मैं ने यह बात क्यों छिपाई. उस बच्चे के साथ गलत क्यों होने दिया. आप ही बताएं मु?ो क्या करना चाहिए था?

जवाब

चुप रह कर आप ने बहुत बड़ी गलती की. आप को तो तुरंत उस बच्चे को बचाने के लिए आगे आना चाहिए था. अपने चाचा की करतूत को सब के सामने लाना चाहिए था. ऐसे दोषी व्यक्ति को पकड़ कर समाज के, सब के सामने लाना जरूरी है. उन्हें पुलिस के हवाले करना चाहिए ताकि उन्हें उन की गलत हरकत का उचित दंड मिल सके. ऐसे लोग छोटे बच्चों का बचपन बरबाद करते हैं. आप घरवालों की इज्जत की खातिर चुप बैठ गए, बहुत गलत किया.

हर मातापिता को अपने बच्चे की पूरी निगरानी रखनी चाहिए. कुछ मानसिक विकृति वाले लोग रिश्तों का लिहाज न करते हुए छोटे बच्चों को अकेला पा कर उन्हें बहलाफुसला कर उन के साथ गलत हरकत करते हैं, उन का यौनशोषण करते हैं. यह बात हर मातापिता को अच्छे से सम?ा लेनी चाहिए कि बाहर ही नहीं, घर में भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं.

आप चाहें तो अभी भी अपने मातापिता को अपने चाचा की हरकत के बारे में बता सकते हैं. कुछ नहीं तो आप का मन का बो?ा कुछ तो हलका होगा, बाकी आप के मातापिता की क्या राय है इस बारे में जानें और फिर उस पर अमल करें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

गंभीर समस्या है पैंक्रियाटाइटिस

पैंक्रियाटाइटिस एक बीमारी है जिसमें व्यक्ति के पैंक्रियास में सूजन हो जाती है. इस बीमारी में पेट में असहनीय दर्द होता है, जिसे बरदाश्त करना बेहद मुशकिल हो जाता है. पैंक्रियास पेट के पीछे और छोटी आंत के पास एक लंबी ग्लैंड होती है. पैंक्रियास के मुख्य 2 काम होते हैं, ये शक्तिशाली पाचक एंजाइम्स को छोटी आंत में भोजन को पचाने में मदद करती है, दूसरा रक्त वाहिकाओं में इंसुलिन और ग्लूकागन को जारी करता है. ये हार्मोन्स भोजन के इस्तेमाल मेंशरीर को ऊर्जा के लिए मदद करते हैं.

आमतौर पर यह बीमारी मध्यम आयु वर्ग और बुजुर्ग लोगों में अधिक होती है, लेकिन अब यह किसी भी आयु के लोगों को प्रभावित कर रही है. ऐसा ही एक मामला हाल ही में दिल्ली के एक निजी अस्पलात में सामने आया, जहां दुर्लभ ट्रीटमेंट के बाद सफल इलाज संपन्न हुआ.

बच्चा महज 7 साल का था.जिस का इलाज लैप्रोस्कोपिक सर्जरी के माध्यम से किया गया. यह सर्जरी बच्चे में क्रौनिक पैंक्रिएटाइटिस को ठीक करने के लिए हुई. बच्चे का वजन काफी कम था और दूसरे अस्पतालों ने उस की सर्जरी करने से मना कर दिया था, क्योंकि वह महज 17 किलो का था. यह सर्जरीहमारे देश में अपनी तरह की पहली थी और दुनियाभर में पांचवी. इस मायने से यह एक बड़ी उपलब्धि भी रही.

सीके बिरला हौस्पिटल में एडवांस सर्जिकल साइंसेज एंड औंकोलौजी सर्जरीज डिपार्टमेंट के डा. अमित जावेद ने जांच के बाद इस बच्चे का इलाज न्यूनतम चीरफाड़ वाली विधि से किया, जिस से उसे कम दर्द हुआ और वह जल्दी ठीक भी हो गया.

डा. अमित जावेद ने कहा,“यह मामला बहुत उलझा हुआ था, क्योंकि हम न केवल एक बहुत छोटे से मरीज का इलाज कर रहे थे, बल्कि वह अपनी उम्र के हिसाब से काफी कम वजन वाला भी था. पूरी जांच के बाद बच्चे की न्यूनतम चीरफाड़ वाली लैप्रोस्कोपिक सर्जरी की गई, जिस में उसे कम दर्द हुआ और वह जल्दी ठीक हो गया. पैंक्रियाज में कई स्टोंस और बाइल डक्ट ओब्स्ट्रकशन से पीड़ित होने के बावजूद वह बच्चा अब एक सामान्य और स्वस्थ जीवन जी रहा है. इस के अलावा, उस पर सर्जरी के कोई निशान भी नहीं रहेंगे.”

जिस बच्चे का इलाज हुआ उस के पैंक्रियाज में कई स्टोंस होने के कारण पेट में तेज दर्द की शिकायत थी. बच्चों में क्रौनिक पैंक्रियाटाइटिस का सर्जरी से इलाज करना चुनौतीपूर्ण होता है और खासकर इस के लिए लैप्रोस्कोपिक सर्जरी तो दुनियाभर में बहुत कम हुई है. वह भारत में क्रौनिक पैंक्रियाटाइटिस और बाइल डक्ट ओब्स्ट्रकशन के संभवतः सब से छोटे मरीजों में से एक था.

सीके बिड़ला अस्पताल के विपुल जैन कहते हैं, “इस सर्जरी की सफलता हमारे लिए एक माइलस्टोन है. यह न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में भी एक दुर्लभ मामले के माध्यम से हमारी चिकित्सकीय उत्कृष्ठता की पुनर्पुष्टि है.”

दरअसल, इतने छोटे बच्चों में पैंक्रियाटाइटिस होना अपनेआप में दुर्लभ है वो भीक्रोनिक पैंक्रियाटाइटिस, जिस में दीर्घकालीन सूजन हो जाती है. ये अकसर एक्यूट पैंक्रियाटाइटिस होने के बाद होता है. बच्चों में यह होना इसलिए दुर्लभ होता है क्योंकि इस बीमारी के होने का एक कारण लंबे समय तक अल्कोहल और स्मोकिंगके बहुत ज्यादा सेवन करना है. भारी अल्कोहल के सेवन से पैंक्रियास को नुकसान होता है. लेकिन बच्चों में भी इस तरह की बीमारी का दिखना गंभीर संकेत दे रहा है.

फसाद की असल जड़ राजनीति नहीं धर्म है

“धर्म के साथ राजनीति बहुत खतरनाक हो जाती है. मैं उस धर्म को स्वीकार नहीं करना चाहता जो मुझे यह सिखाता हो कि इंसानियत हमदर्दी और भाईचारा सबकुछ अपने ही धर्म वालों के लिए है उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं सभी गैर हैं उन्हें जिंदा रहने का कोई हक नहीं, तो मैं उस धर्म से अलग हो कर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करूंगा.”

                                                            मुंशी प्रेमचंद 

2024 अघोषित रूप से विश्व चुनाव वर्ष हो गया है. इस साल लगभग आधी दुनिया में आम चुनाव हैं, कुछ में हो चुके हैं तो कुछ में होने वाले हैं या चल रहे हैं. दुनियाभर से चुनावों से जुड़ी जो दिलचस्प खबरें आ रही हैं उन में से एक अमेरिका की भी है. मुद्दा या समस्या है दफ्तरों में राजनीतिक बहसें जिसे ले कर नियोक्ता कंपनियां दो खेमों में ठीक वैसे ही बंट गई हैं जैसे दुनियाभर के लोग दो खेमों में बंट चुके हैं. पहला खेमा दक्षिणपंथियों का है और दूसरा गैर दक्षिणपंथियों का है जिस का जोर इस बात पर है कि राजनीति में धर्म नहीं होना चाहिए. 

अमेरिकी कंपनियां इस दिक्कत से जूझ रहीं हैं कि दफ्तरों में राजनैतिक बहसों के चलते कर्मचारियों में फूट पड़ रही है, जिस से कामकाज पर बुरा असर पड़ रहा है. दिलचस्प और चर्चित वाकिया अमेरिका की ही एक मार्केटिंग फर्म ग्रोथस्क्राइब का है जिस में दो कर्मचारी राष्ट्रपति जो बाइडेन को ले कर बहस में पड़ गए. जल्द ही दोनों में तूतूमैंमैं और हाथापाई होने लगी गालियों का भी आदानप्रदान हुआ. जैसेतैसे दोनों को अलग किया गया लेकिन कंपनी ने दफ्तर में राजनीतिक चर्चा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. 

अमेरिका की नौर्थ वैस्टर्न यूनिवर्सिटी के प्रबंधकीय अर्थशास्त्र यानी मैनेजेरियल इकोनौमिक्स के ऐसोसिएट प्रोफैसर एडोआर्डो की मानें तो राजनीति अब सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गई है. दुनियाभर के बिजनैस लीडर्स के सामने चुनौती यह है कि इसे कैसे संभाला या मैनेज किया जाए. कुछ नियोक्ता राजनीतिक चर्चा को स्वस्थ बहस का हिस्सा मानते इस के हक में हैं तो कुछ इस पर लगाम कसना चाहते हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि रोक लगाने पर कर्मचारी नौकरी तक छोड़ देते हैं. 

अमेरिका की ही एक सौफ्टवेयर कंपनी बेसकैम्प ने इस तरह की रोक लगाई थी तो एकतिहाई कर्मचारियों ने नौकरी छोड़ दी थी. इसी तरह क्रिप्टोकरैंसी कंपनी कौइनबेस के भी 60 कर्मचारी नौकरी छोड़ चुके हैं क्योंकि कंपनी ने मुलाजिमों को सियासी बहसों से दूर रहने की हिदायत दी थी. 

अब लोकतंत्र में कोई किसी का मुंह तो पकड़ नहीं सकता और किसी भी तरह की चर्चा हर किसी का अधिकार है लेकिन यह काम कार्पोरेट और कंपनी के लिए सरदर्द बनने लगे तो मैनेजमैंट के सामने दुविधा आ खड़ी होती है. चुनाव के दिनों में घरों, चौराहों, चौपालों, कालेजों, हौस्टलों, कोचिंगों और मौर्निंग वाक तक पर राजनातिक चर्चा ही हो रही होती है फिर औफिस भला इस से कैसे अछूते रह सकते हैं. हर कहीं ज्ञान पंगत के रायते की तरह बह रहा है, जिस से बच पाना मुमकिन इसलिए भी नहीं कि खुद लोग इस में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. कुछ तो इतने क्रेजी हो जाते हैं कि उन की बात से असहमत होना ही आफत मोल लेने जैसी बात हो जाती है. 

बात या चर्चा सिर्फ राजनीति की हो तो बात हर्ज की नहीं बल्कि हकीकत में इस की जड़ में धर्म है जिसे लोग स्वीकारने में हिचकते हैं कि वे दरअसल में राजनीति से शुरू हो कर धर्म पर आ गए हैं और कुछ देर में ही मूढ़ों और मूर्खों जैसी बातें करने लगे हैं. बातचीत या बहस में तर्क खत्म हो जाते हैं और आस्था सर चढ़ कर बोलने लगती है. यहीं से फसाद शुरू होते हैं जो श्रष्टि के उद्भव से शाश्वत हैं. 

भारत में क्या हो रहा है यह सवाल ही अपनेआप में एक जवाब है कि सिर्फ धर्म की, जातपात की गोत्र की, मंदिरों की और हिंदूमुसलिम वाली राजनीति हो रही है. शीर्ष नेताओं से ले कर आम लोग तक एक दायरे में कैद हो कर रह गए हैं जिस का नाम धर्म है. इस धर्म की राजनीति से घालमेल पर कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने जो कहा उसे सब से पहले और ऊपर इसीलिए बताया गया है कि यही धर्म लोगों को बांटता है, नफरत पैदा करता है. अब यही काम धर्म के एजेंटों के साथसाथ राजनेता भी कर रहे हैं जिन में नरेंद्र मोदी टौप पर हैं तो इस का पारिवारिक  सार्वजनिक और सामाजिक जीवन पर असर पड़ना एक निहायत ही स्वभाविक बात है. 

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प जब प्रवासियों के खिलाफ जहर उगलते हैं तो वहां के दक्षिणपंथियों को लगता है कि हमारे सब से बड़े दुश्मन ये घुसपैठिए हैं जो हमारे हक और पैसे पर डाका डाल रहे हैं. फिर ये लोग भूल जाते हैं कि यही लोग मेहनती हैं जो अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और इन सब बातों से भी हट कर वे भी इनसान हैं, उन्हें भी जीने और सम्मान से रहने का अधिकार है. ठीक यही बात रंग और नस्लवाद पर भी लागू होती है जिन के साथ जानवरों सरीखा बर्ताव अमेरिका में खुलेआम होता है. वहां अश्वेतों के प्रति लगातार हेट क्राइम बढ़ रहे हैं. एफबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में यह दर 12 फीसदी थी. इस साल हेट क्राइम के जो 945 मामले बढ़े थे उन में अधिकतर रंग जाति या वंश के आधार पर भेदभाव के थे. 

अमेरिका की कुल आबादी 35 करोड़ में कोई 5 करोड़ अश्वेत हैं जिन में भारतीय भी शामिल हैं. दुनिया के सब से पुराने और मजबूत लोकतंत्र का दम भरने वाले अमेरिका में बीती 26 अप्रैल को ओहायो के कैंटन पुलिस डिपार्टमैंट ने एक अश्वेत की गर्दन को पैरों से कुछ इस तरह जकड़ा कि उस की दम घुटने से मौत हो गई. मृतक का नाम फ्रैंक टायसन है. उस की उम्र 53 साल थी. यह बिलकुल जार्ज फ्लायड की 25 मई 2020 को हुई मौत का रीप्ले है लेकिन इस पर कोई खास हल्ला नहीं मचा.  

क्रूरता की हद यह थी कि फ्रेंक बारबार पुलिस वालों से यह कहता रहा कि वह सांस नहीं ले पा रहा है. उस के मरने के बाद भी पुलिस वाले आपस में हंसीमजाक करते रहे. फ्रेंक कोई हत्यारा या स्मगलर नहीं था बल्कि उस का गुनाह इतना भर था कि उस की गाड़ी एक खम्बे से टकरा गई थी. 

यह अमेरिका का ट्रम्प इफैक्ट है जो लगातार प्रवासियों और अश्वेतों को जानवर कहते रहते हैं. उन के कहे का फर्क आम अमेरिकी पर भी पड़ता है. भारत में नरेंद्र मोदी मुसलमानों के खिलाफ कोई कम जहर नहीं उगल रहे और यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि कांग्रेस अगर सत्ता में आई तो राम मंदिर में ताला लगा देगी, आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी.

इन बातों का असर जनता पर पड़ता है. हिंदुओं को मुसलमानों से नफरत होने लगती है. रही सही कसर बिकाऊ मीडिया और सोशल मीडिया के अग्निवीर उन की बात को विस्तार देते पूरी कर देते हैं कि मुसलमानों ने तो सदियों से हमें लूटा है, हमारे मंदिर तोड़े हैं, औरतों की इज्जत लूटी है और तलवार की नोंक पर धर्मांतरण किया है, जिस के चलते हिंदू और हिंदू धर्म दोनों खतरे में हैं अब इन काफिरों का इलाज तो मोदीजी ही करेंगे इसलिए और सिर्फ इसीलिए उन्हें तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बनाने वोट देना है. 

भगवान टाइप के हो चले नरेंद्र मोदी की इन दिनों बौखलाहट की वजहें कुछ भी हों लेकिन इन कड़वे प्रवचनों से उन्हें और भाजपा को जो हासिल होता है वह यह है कि फिर कोई तुक की बात या सवाल नहीं करता. मसलन 20 फीसदी जन धन खातों में कभी कोई लेनदेन ही नहीं हुआ जिन की संख्या 10.34 करोड़ है. सरकार गागा कर बताती यह है कि 30 करोड़ से भी ज्यादा बैंक खाते खुले अगर खुले भी तो किस काम के जब 20 फीसदी जन्मजात निष्क्रिय हैं और इस से ज्यादा में एकाधदो बार ही लेनदेन हुआ है.

यही हाल उज्ज्वला योजना का है कि गरीबों के घरों में खाली गैस सिलेंडर औरतों को रोज मुंह चिढ़ाते हैं कि तुम्हारे पास तो गैस भरवाने लायक भी पैसा नहीं सो चूल्हे में लकड़ियों पर रोटी सेकती रहो और भाषण सुनती रहो कि हमारी माताओं और बहनों को धुएं से मुक्ति मिल गई धन्यवाद मोदीजी. कमोबेश सब के लिए शौचालयों की हालत भी कहीं भी देखी जा सकती है. 

भाजपा और नरेंद्र मोदी यह कहते थकते नहीं कि पीएम आवास योजना के तहत 4 करोड़ से ज्यादा परिवारों को पक्के घर दिए गए हैं. जबकि हकीकत में इन की सही संख्या 3 करोड़ भी नहीं है. एक न्यूज वेबसाईट न्यूज लौंड्री के दावे पर यकीन करें तो सरकार ने अब तक केवल 25.15 फीसदी आवास की ही कमी पूरी की है जबकि कागज पर यह संख्या 67.45 फीसदी है. इस योजना में और भी कई लोंचे हैं जो सरकार और प्रधानमंत्री के दावों की हकीकत उजागर करते हैं.

कौशल विकास योजना और एमएसपी की तो फिर बात करना ही बेकार है. सार ये कि धार्मिक शोरशराबे तले जब महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दे दब कर दम तोड़ देते हैं तो सरकारी योजनाओं की हकीकत पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता. बहस इस बात पर हो रही है कि आरक्षण छिन जाएगा, मंदिर पर ताला लग जाएगा, आप की यानी हिंदुओं की  जमीनजायदाद मुसलमानों की हो जाएगी और सुहागनों के गले का मंगलसूत्र उतार लिया जाएगा. 

गांव के पीपल पर भूत है जैसी इन बातों का कोई आधार नहीं है ये सिर्फ डराने के तरीके हैं वह भी अपने ही वोटरों के लिए ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं क्योंकि पूजापाठी होने के चलते वह बचपन से ही ऐसे डरों में जीने का आदी हो गया है और उन से बचने के लिए दानदक्षिणा देने में हिचकता नहीं है फिर मोदीजी तो नगद नहीं बल्कि वोट की दक्षिणा की याचना कर रहे हैं.  

ये डर फैलाने वाली बातें ही मुख्य समाचार इसलिए होती हैं कि विपक्ष कमजोर है और मीडिया घोषित तौर पर बिक चुका है. इसलिए इस सरकारी भोंपू से मुद्दे की बातों की उम्मीद करना बेकार है. सैम पित्रोदा के एक विवादित बयान पर तो एक गलाफाडू टीवी एंकर रुबिका लियाकत भारतीयता की दुहाई देने स्क्रीन पर खासतौर से पल्लू वाली साड़ी पहन कर और बिंदी लगा कर प्रगट हो जाती है. लेकिन बसपा प्रमुख मायावती के आकाश आनंद के उस बयान पर कोई गौर नहीं करता जिस में वह कह रहा है कि सब से महंगे स्कूलों में शुमार नोएडा के पाथवेज स्कूल में सीनियर्स उसे चमार कह कर बेइज्जत करते थे. यह वर्ण व्यवस्था और हिंदू धर्म के घिनोने रिवाज से ताल्लुक रखता और उस की बखिया उधेड़ता सच है जिस से रोजरोज दलित रूबरू होता है इसलिए इस से बच लिया जाता है. 

बहस हो, कहीं भो हो, तुक की हो, तथ्यों पर हो तो बात कुछ और होती लेकिन बहस होती है राहुल गांधी के धर्म पर, भारतीय मूल के एक खब्त विदेशी की बेसरपैर के बयानों पर तो इस के होने न होने के कोई माने नहीं. दिलचस्प बात यह है कि ये बहसें हिंदूहिंदू के ही बीच हो रही हैं, दहशत में जी रहा मुसलमान तो मुद्दत से खामोश है. अब जो हिंदू धार्मिक राजनीति को प्रेमचंदजी की तरह पूर्वाग्रही, दबंगई और भेदभाव मानता है उसे वाकई विधर्मी धर्मद्रोही, देशद्रोही, नास्तिक, आतंकवादी, खालिस्तानी और अर्बन नक्सली जैसे खिताबों से नवाज कर हाशिए पर पटकने की कोशिश होने लगी है. इस लिहाज से तो देश में असल हिंदुओं की तादाद 8 – 10 करोड़ से भी कम है जो मोदी भक्त हैं अब वही हिंदू हैं. बधाई इस बात पर दी और ली भी जा सकती है कि देश में एक नया मोदी धर्म लौंच हो रहा है. 

मेरी मां की उम्र 70 वर्ष है,वे फेसबुक जौइन करना चाहती हैं, क्या ऐसा करना सही होगा?

सवाल

मेरी मां की उम्र 70 वर्ष है. पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. अकेलेपन से पीडि़त मां सोशल नैटवर्किंग साइट्स जौइन करना चाहती हैं ताकि उन का खाली समय व्यतीत हो सके. साथ ही, वे सोशल साइट्स के जरिए लोगों की मदद भी करना चाहती हैं. क्या ऐसा करना सही होगा, कृपया मागदर्शन करें.

जवाब

अपना अकेलापन दूर करने के लिए सोशल साइट्स जौइन करने का आप की मां का खयाल अच्छा है. ऐसा करने से न केवल उन का खालीपन व अकेलापन दूर होगा बल्कि अपने आसपास घटने वाली घटनाओं से भी वे अवगत रहेंगी. सोशल साइट्स में उन्हें अपने जैसे भी कुछ लोग मिलेंगे जो उन की जैसी स्थिति से गुजर रहे होंगे. वे एकदूसरे से अपनी भावनाएं बांट कर अपनेअपने अकेलेपन को दूर कर सकते हैं. उन्हें इस बातचीत में कुछ अच्छे व सच्चे दोस्त भी मिल सकते हैं.

सोशल साइट्स पर आप की माताजी चाहें तो अपना एक वैब पेज या ब्लौग भी बना सकती हैं जहां वे अपने जीवन के अनुभव कहानियों या कविताओं के रूप में पेश कर सकती हैं. ऐसा करने से उन्हें अपनी बात कहने का मंच मिलेगा. वे चाहें तो अपने वैब पेज पर, अगर वे कुकिंग में ऐक्सपर्ट हैं, अपने कुकिंग टिप्स या रैसिपीज भी साझा कर सकती हैं. ये सभी क्रियाकलाप उन का उत्साहवर्धन करेंगे और उन्हें जीवन जीने का एक नया आयाम मिल सकता है. लेकिन इस दौरान उन्हें सोशल साइट्स के सुरक्षा के नियमों से भी अवगत करा दें, जैसे किसी अनजान से अपनी पर्सनल जानकारी शेयर न करना, किसी से भी नजदीकी बढ़ाने से पूर्व उस के बारे में पूरी तरह जांचपरख कर लेना आदि. अगर तकनीकी क्षेत्र में बहुत ज्यादा होशियार नहीं हैं तो औनलाइन माध्यम के बजाय औफलाइन क्षेत्र में भी खुद को व्यस्त रख सकती है. किसी सामाजिक सरोकार से जुड़े एनजीओ, विधवा आश्रम या अनाथालय जैसे संस्थानों से जुड़ कर वे अपना खाली समय सार्थक कार्य में लगा सकती हैं. किसी वृद्धाश्रम या स्कूल में भी अपनी क्षमता के मुताबिक सहयोग कर सकती हैं. इस के अलावा घर में कोई सहायता समूह का भी संचालन कर के आसपास के लोगों की मदद कर सकती हैं.

माधवी : उसकी छोटी सी दुनिया में क्यों आग लग गई थी

दिन भर स्कूल की झांयझांय से थक कर माधवी उसी भवन की ऊपरी मंजिल पर बने अपने कमरे में पहुंची. काम वाली को चाय बनाने को कह कर सोफे पर पसर गई. चाय पी कर वह थकान मिटाना चाहती थी. चूंकि इस समय उस का मन किसी से बात करने का बिलकुल नहीं था इसीलिए ऊपर आते समय मेन गेट में वह ताला लगा आई थी.

अभी मुश्किल से 2-3 मिनट ही हुए होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी को सुन कर उसे यह तो लग गया कि ट्रंककाल है फिर भी रिसीवर उठाने का मन न हुआ. उस ने सोचा कि काम वाली से कह कर फोन पर मना करवा दे कि घर पर कोई नही, तभी घंटी बंद हो गई. एक बार रुक कर फिर बजी. वह खीज कर उठी और टेलीफोन का चोंगा उठा कर कान से लगाया. फोन जबलपुर से उस की ननद का था. माधवी ने जैसे ही ‘हैलो’ कहा उस की ननद बोली, ‘‘भाभी, तुम जल्दी आ जाओ. मां बहुत याद कर रही हैं.’’

‘‘मांजी को क्या हुआ?’’ माधवी ने हड़बड़ा कर पूछा.

‘‘लगता है अंतिम समय है,’’ ननद जल्दी में बोली, ‘‘तुम्हें देखना चाहती हैं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर माधवी ने फोन रख दिया.

घड़ी में देखा, 4 बज रहे थे. जबलपुर के लिए ट्रेन रात को 10 बजे थी. माधवी ने टे्रवल एजेंट को फोन कर 2 बर्थ बुक करने को कहा.

वह पहले माधवी के साथ ही रहा करती थीं. माधवी के पति राघव 3 भाइयों में दूसरे नंबर के थे. बड़े बेटे की नौकरी तबादले वाली थी. तीसरा बेटा बंटी अभी बहुत छोटा था. राघव की भोपाल में बी.एच.ई.एल. में स्थायी नौकरी थी. मां अपने छोटे बेटे को ले कर राघव के साथ भोपाल में ही सैटल हो गई थीं लेकिन यह साथ ज्यादा दिन न चला. 3 साल बाद ही एक सड़क दुर्घटना ने राघव का जीवन छीन लिया.

माधवी को बी.एच.ई.एल. से कुछ पैसा जरूर मिला पर अनुकंपा नियुक्ति नहीं मिली. सास ने परिस्थिति को भांपा और बंटी को ले कर बड़े बेटे के पास चली गईं. माधवी ने पति के मिले पैसे से एक मकान खरीदा. कुछ लोन ले कर दूसरी मंजिल बनवाई. खुद ऊपर रहने लगीं और नीचे एक स्कूल शुरू कर दिया. पति की मौत के बाद माधवी की सारी दुनिया अपनी बेटी और स्कूल में सिमट गई.

पहले तो सास से माधवी की थोड़ीबहुत बात हो जाया करती थी पर धीरेधीरे काम की व्यस्तता से यह अंतर बढ़ने लगा. माधवी की ससुराल मानो छूट गई थी. जेठ और देवर ने फोन पर हालचाल पूछने के अलावा और कोई सुध नहीं ली. मकान, जमीनजायदाद या दूसरी पारिवारिक संपत्तियों में हिस्सेदारी तो दूर, किसी ने यह तक नहीं पूछा कि कैसे गुजारा कर रही है या स्कूल कैसा चल रहा है.

इस उपेक्षा के बाद भी माधवी को कहीं न कहीं अपनों से एक स्नेहिल स्पर्श की उम्मीद होती. सहानुभूति और विश्वास से भरे दो शब्दों की चाहत होती. अपने काम और उपलब्धियों पर शाबाशी की अपेक्षा तो हर व्यक्ति करता है किंतु माधवी की ज्ंिदगी में यह सबकुछ नहीं था. उसे खुद रोना था और खुद चुप हो जाना था.

माधवी ने अपनी छोटी सी दुनिया बहुत मेहनत से बनाई थी. एक दिन भी इस से बाहर रहना उस के लिए मुश्किल था. उस ने कई बार बाहर जा कर घूमने का मन बनाया पर न जा सकी. आज जाना जरूरी था क्योंकि सास की हालत च्ंिताजनक थी और उन्होंने उसे मिलने के लिए बुलाया भी था.

टे्रन ने सुबह 6 बजे जबलपुर उतारा. वह बेटी को ले कर प्लेटफार्म पर बने लेडीज वेटिंग रूम में गई. वहीं तैयार हुई. बेटी को भी तैयार किया और जेठजी के घर फोन मिलाया. फोन जेठानी ने उठाया. बातचीत में ही जेठानी ने अस्पताल का नामपता बताते हुए कहा, ‘‘हम सब भी घर से रवाना हो रहे हैं.’’

माधवी को जेठानी के मन की बात समझते देर न लगी. इसीलिए वह स्टेशन के बाहर से आटो पकड़ कर सीधे अस्पताल पहुंची. उस समय डाक्टर राउंड पर थे अत: कुछ देर उसे बाहर ही रुकना पड़ा. डाक्टर के जाने के बाद माधवी भीतर पहुंची.

सास को ड्रिप लगी थी. आक्सीजन की नली से श्वांस चल रही थी. गले के कैंसर ने भोजनपानी की नली को रोक कर रख दिया था. उन की जबान भी उलट गई थी. वह केवल देख सकती थीं और इशारे से ही बातें कर रही थीं. पिछले 4 दिन से यही हालत थी. लगता था अब गईं, तब गईं.

माधवी ने पास जा कर उन का हाथ छुआ. पसीने और चिपचिपाहट से उसे अजीब सा लगा. उस की नजर बालों पर गई तो लगा महीनों से कंघी ही नहीं हुई है. होती भी कैसे. वह पिछले 6 माह से बिस्तर पर जो थीं.

माधवी ने आवाज दी. उन्होंने आंखें खोलीं तो देख कर लगा कि पहचानने की कोशिश कर रही हैं.

‘‘मैं हूं, मांजी माधवी, आप की पोती को ले कर आई हूं.’’

सुन कर उन्हें संतोष हुआ फिर हाथ उठाया और इशारे से कुछ कहा तो माधवी को लगा कि शायद पानी मांग रही हैं.

माधवी ने पूछा, ‘‘पानी चाहिए?’’

उन्होंने  हां में सिर हिलाया. माधवी ने पानी का गिलास उठाया ही था कि वहां मौजूद परिजनों ने उसे रोक दिया. कहा, ‘‘डाक्टर ने ऊपर से कुछ भी देने के लिए मना किया है.’’

माधवी का हाथ रुक गया. उस ने विवशता से सास की ओर देखा.

सास ने माधवी की बेबसी समझ ली थी और समझतीं भी क्यों नहीं, पिछले 4 दिन से यही तो वह समझ रही थीं. हर आगंतुक से वह पानी मांगतीं. आगंतुक पानी देने की कोशिश भी करता किंतु वहां मौजूद डाक्टर और नर्स रोक देते थे और मांजी को निराश हो कर अपनी आंखें मूंद लेनी पड़तीं. सास की इस बेबसी पर माधवी का मन भर आया.

तभी ननद ने कहा, ‘‘छोटी भाभी, आप घर जा कर कुछ आराम कर लें, रात भर का सफर कर के आई हैं, थकी होंगी.’’

पहले माधवी ने भी यही सोचा था किंतु सास की हालत देख कर उस का मन जाने का न हुआ. वह बोली, ‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

माधवी वहीं रुक गई. वह स्टूल खींच कर मांजी के पैरों के पास बैठ गई. मन हुआ कि उन के पैर दबाए. माधवी ने जैसे ही कंबल हटाए दुर्गंध उस की नाक को छू गई. उस ने थोड़ा और कंबल सरका कर देखा तो बिस्तर में काफी गंदगी थी. मांजी के प्रति यह उस का दूसरा अनुभव था. इस से पहले माधवी हाथ में चिपचिपाहट और बालों में बेतरतीब लटें देख चुकी थी.

माधवी को अब समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि सास का बचना मुश्किल है. तमाम रिश्तेदार भी इस हकीकत को जान गए थे. इसीलिए सारे लोग खबर लगते ही पहुंच चुके थे.

गले के कैंसर में आपरेशन जोखिम से भरा होता है, उस में भी यदि श्वांसनली को जकड़ लेने वाला ट्यूमर हो तो जोखिम सौ फीसदी तक हो जाता है.

माधवी का मन मांजी के प्रति करुणा से भर गया. उसे ग्लानि इस बात की थी कि यदि मांजी को मरना है तो क्यों उन की इच्छाओं को मार कर और उन्हें गंदगी में पटक कर मौत की प्रतीक्षा की जा रही है. क्या हम उन्हें एक स्वस्थ और अच्छा माहौल नहीं दे सकते? वह जानती थी कि एक उम्र के बाद बड़ेबूढ़ों की बीमारी में केवल बेटेबेटी या बहुएं ही कुछ कर सकती हैं. उन के अलावा कोई और कुछ नहीं कर सकता. नौकरों के काम तो केवल औपचारिक होते हैं.

यहां स्वजनों के पास समय नहीं था. यदि था भी तो इच्छाशक्ति का अभाव और अहंकार आड़े आता था. लोग आते, हालचाल पूछते, डाक्टरों और नर्सों से बात करते, बैठ कर अपनी दिनचर्या की व्यस्तता गिनाते और चले जाते.

माधवी का मन हुआ कि फौरन डिटौल के पानी से मांजी को नहला दे. पर कमरे में जेठ, ननदोई और दूसरे पुरुषों की मौजूदगी देख कर वह चुप रह गई.

दोपहर को देखभाल करने वाले तमाम पुरुष चले गए. जेठानी भी मेहमानों के खाने का इंतजाम करने के लिए घर जा चुकी थीं. कमरे में माधवी, ननद और देवर बंटी के अलावा कोई न बचा.

माधवी ने मन ही मन कुछ निर्णय किया और वार्ड बौय को आवाज दे कर गुनगुना पानी, डिटौल और स्पंज लाने को कहा. वह खुद नर्स के पास जा कर एक कैंची मांग लाई और सब से पहले माधवी ने कैंची से मांजी के सारे बाल काट कर छोटेछोटे कर दिए. साबुन के स्पंज से सिर साफ किया और कपूर का तेल लगाया. फिर शरीर पर स्पंज किया. सूखे, साफ तौलिया से बदन पोंछा और हलके हाथ से हाथपांव में तेल की मालिश कर दी. साफ और धुले कपड़े पहना दिए. बिस्तर की चादर और रबड़ बदली. पाउडर छिड़का. कमरे का फर्श धुलवाया. अब मांजी में ताजगी झलक उठी थी. माधवी शाम तक वहीं रही.

यद्यपि मांजी के बाल काटना किसी को पसंद नहीं आया पर माधवी ने जिस लगन के साथ साफसफाई की थी यह बात सारे रिश्तेदारों को पसंद आई. वे माधवी की सराहना किए बिना न रह सके. हां, बाल काटने पर जेठ के तीखे शब्द जरूर सुनने पड़े. माधवी ने उन की बातों का कोई जवाब नहीं दिया और ननद के साथ घर आ गई.

अगले दिन सुबह 9 बजे माधवी अस्पताल पहुंची और थोड़ी देर बाद ही फिर सफाई में जुट गई. दोपहर को मांजी ने पानी मांगा. माधवी ने डाक्टर की हिदायत का हवाला दे कर कहा, ‘‘आप ठीक हो जाइए, फिर खूब पानी पी लीजिएगा.’’ पर इस बार मांजी नहीं मानीं. उन्होंने इशारे से ही हाथ जोड़े और ऐसा संकेत किया मानो पांव पड़ रही हैं.

माधवी से रहा न गया. उस के आंसू बह निकले. उस ने बिना किसी की परवा किए कप भर कर पानी मांजी को दे दिया. ननद और जेठानी दोनों को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि सारा पानी गले से नीचे उतर गया, जबकि कैंसर से गला पूरी तरह अवरुद्ध था. पानी भीतर जाते ही मांजी को मानो नई जान आई. उन में कुछ चेतना सी दिखी और चेहरे पर हंसी भी. जेठानी और ननद दोनों ने कुछकुछ बातें भी कीं.

‘‘अब आप जल्दी ही अच्छी होने वाली हो. देखिए, गला खुल गया.’’

तभी मांजी ने इशारा कर के फिर कुछ मांगा. माधवी ने पानी और दूसरी चीजों के नाम बताए तो उन्होंने सभी वस्तुओं को इनकार कर किया. माधवी ने पूछा, ‘‘दूध,’’ उन्होंने हां में सिर हिलाया. माधवी ने तुरंत दूध मंगाया.

इस बार जेठानी ने सख्ती से मना किया और कहा, ‘‘पानी तो ठीक है, पर दूध बिना डाक्टर से पूछे न दो.’’ पर माधवी को जाने कौन सा जनून सवार था कि उस ने बिना किसी की परवा किए मांजी को उसी कप में दूध भी दे दिया. दूध भी गले से नीचे चला गया. मांजी के चेहरे पर एक अजीब संतोष उभरा. उन्होेंने इशारे से बेटेबेटियों को बुलाया. बाकी तो वहां थे, जेठ और बंटी नहीं थे. उन्हें भी टेलीफोन कर के घर से बुला लिया गया.

मांजी ने पहले जेठ का हाथ ननद के सिर पर रखवाया फिर माधवी को बुलाया और फिर बंटी को. उन्होंने माधवी का हाथ पकड़ा और बंटी का हाथ माधवी के हाथ में दे कर उस की ओर कातर निगाहों से देखने लगीं. मानो कह रही हों, ‘‘अब मेरे बेटे का तुम ही ध्यान रखना.’’

माधवी का मन भर आया. आंखों में नमी छलक आई…उस ने कहा, ‘‘आप च्ंिता न करें, बंटी मेरे बेटे की तरह है.’’ फिर उस ने निगाह बंटी की ओर फेरी, तो उसे अपनी ओर देखता पाया. भीतर से माधवी का मातृत्व उमड़ पड़ा. तभी मांजी के हाथ से माधवी का हाथ छूट गया. माधवी चौंकी. उस ने मांजी की गरदन को एक ओर ढुलकते हुए देखा. कमरे में सभी चीख पड़े, ‘‘मांजी.’’

जेठ माधवी की ओर देख कर दहाड़े, ‘‘तू ने मार डाला मां को.

आखिर क्यों पिलाया पानी और क्यों दिया दूध?’’

माधवी को कुछ न सूझा. वह सहमी सी बुत की तरह खड़ी रही. रहरह कर उसे मांजी के संकेत याद आते रहे. उस ने सोचा कि उस ने कोई गलत काम नहीं किया. यदि मांजी की मौत करीब थी तो उन्हें क्यों भूखाप्यासा मरने दिया जाए. लोग तो घर से बाहर किसी को भूखाप्यासा नहीं जाने देते, तब ज्ंिदगी के इस महाप्रयाण पर वह कैसे मांजी को भूखाप्यासा जाने देती?

वहां मौजूद महिलाएं रोने लगीं. जेठजी का बड़बड़ाना जारी था. माधवी से सुना न गया. वह बाहर की ओर चल दी. अभी वह दरवाजे के करीब ही आई थी कि उस के दोनों हाथों को किसी ने छुआ. उस ने देखा कि उस के दाएं हाथ की उंगली देवर बंटी ने और बाएं हाथ की उंगली बेटी नीलम ने पकड़ रखी थी.

लेखक: रंजना चितले

जिंदगी: शहर की दौड़ती हुई जिंदगी से क्यों हैरान था मंगरू ?

मंगरू पहली बार पटना आया था. महेंद्र ने उसे गांव में समझाया था, ‘देख मंगरू, दिनभर ठेला ले कर घूमते हुए 500 रुपए कमाते हो तुम. और यहां तो खाली घूमनेफिरने के 500 रुपए मिल रहे हैं. चायनाश्ते और खाने का भी बढि़या इंतजाम है. मतलब, जेब से कुछ खर्च नहीं, फोकट में घूमना हो जाएगा. बस, पार्टी का झंडा भर साथ में ले कर चलना है. मंत्रीजी के प्रताप से मुफ्त में रेलगाड़ी में जाना है.’

मंगरू कुछ कहता, उस से पहले महेंद्र ने उस के कान में मंत्र फूंका था, ‘लगे हाथ किशना से भी मिल लेना. सुना है, गांधी मैदान में कोई होटल खोले बैठा है.’

बात तो ठीक थी. कितने दिन से मंगरू का मन कर रहा था कि बेटे किशना से मिल आए. मगर मौका ही हाथ नहीं लग रहा था, इसलिए वह नेताजी की रैली में शामिल होने के लिए तैयार हो गया था.

गाड़ी से उतरते वक्त मंगरू ने जेब में से परची निकाल कर देखी. हां, यही तो पता दिया था किशना का. मगर टे्रन कमबख्त इतनी लेट थी कि दोपहर के बजाय रात 7 बजे पटना स्टेशन पहुंची थी. अब इस समय उसे कहां खोजेगा वह कि उस की जेब में रखा मोबाइल फोन घनघनाने लगा.

मंगरू ने लपक कर मोबाइल फोन निकाला और तकरीबन चिल्लाने वाले अंदाज में बोला, ‘‘हां बबुआ, स्टेशन पहुंच गया हूं. अब कहां जाना है?’’

‘स्टेशन से बाहर निकल कर आटोस्टैंड पर आ जाइए,’ किशना बोल रहा था, ‘वहीं से गांधी मैदान के लिए आटोरिकशा पकड़ लेना. 5 मिनट में पहुंचा देगा.’

अपना झोला, लाठी और पोटली संभाल कर मंगरू बाहर निकला. बाहर रेलवे स्टेशन दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था. हजारोंलाखों की भीड़ इधरउधर आजा रही थी. उस ने झोले को खोल कर देखा. पार्टी का झंडा सहीसलामत था. एक जोड़ी कपड़ा, गमछा और चनेचबेने भी ठीकठाक थे. किशना की मां ने कुछ पकवान बना कर उस के लिए बांध कर रख दिए थे.

आटोरिकशा में बैठा मंगरू आंख फाड़े भागतीदौड़ती, खरीदारी करती, खातीपीती भीड़ को देखता रहा कि ड्राइवर ने उसे टोका, ‘‘आ गया गांधी मैदान. उतरिए न बाबा.’’

आटोस्टैंड की दूसरी तरफ गांधी मैदान के विशाल परिसर को उस ने नजर भर निहारा, ‘बाप रे,’ इतना बड़ा मैदान. बेटे किशना का होटल किधर होगा.’

एक बार फिर मोबाइल घनघनाया, ‘हां, आप गेट के पास ही खड़े रहिए…’ किशना बोल रहा था, ‘मैं आप को लेने वहीं आ रहा हूं.’

मंगरू मैदान के किनारे लोहे के विशाल फाटक के पास खड़ा ही था कि उसे किशना आता दिखा. उसे देख वह लपक कर उस के पास पहुंचा. पैर छूने के बाद किशना ने उसी मैदान में रखी हुई एक बैंच पर बिठा दिया.

‘‘कहां है तुम्हारा होटल?’’ अधीर सा होते हुए मंगरू बोला, ‘‘बहुत मन कर रहा है तुम्हारा होटल देखने का.’’

‘‘वह भी देख लीजिएगा,’’ किशना कुछ बुझे स्वर में बोला, ‘‘चलिए, पहले कुछ चायनाश्ता तो करवा दूं आप को.

‘‘और हां, वह रहा आप की पार्टी का पंडाल. सुना है, तकरीबन 20 लाख रुपए खर्च हुए हैं पंडाल बनाने में. भोजनपानी और रहने का अच्छा इंतजाम है.’’

एक जगह पूरीसब्जी का नाश्ता करा और चाय पिला कर किशना बोला, ‘‘अब चलिए आप को पंडाल दिखा दूं.’’

‘‘अरे, रात में तो वहीं रहना है…’’ मंगरू जोश में था, ‘‘आखिर उसी के लिए तो आया हूं. बाकी तुम्हारा गांधी मैदान बहुत बड़ा है.’’

‘‘शहर भी तो बहुत बड़ा है बाऊजी,’’ किशना बिना लागलपेट के बोला, ‘‘इस शहर में ढेरों मैदान हैं. मगर उन में रात के 10 बजे के बाद कोई नहीं रह सकता. पुलिस पहरा देती है. भगा देती है लोगों को.’’

‘‘देखो, तुम्हारी माई ने तुम्हारे खाने के लिए कुछ भेजा?है…’’ मंगरू झोले में से पोटली निकालते हुए बोला, ‘‘वह तो थोड़े चावलदाल भी दे रही थी कि लड़का कुछ दिन घर का अनाज पा लेगा. लेकिन मैं ने ही मना कर दिया कि इसे ढो कर कौन ले जाए.’’

‘‘अच्छा किया आप ने जो नहीं लाए…’’ किशना की आवाज में लड़खड़ाहट सी थी, ‘‘यह शहर है. यहां सबकुछ मिलता है. बस, खरीदने की औकात होनी चाहिए.’’

‘‘सब ठीक चल रहा है न?’’

‘‘सब ठीक चल रहा है. कमाई भी ठीकठाक हो जाती है.’’

‘‘तभी तो हर महीने 2-3 हजार रुपए भेज देते हो.’’

‘‘भेजना ही है. अपना घर मजबूत रहेगा, तो हम बाहर भी मजबूत रहेंगे. जो काम मिला, वही कर रहा हूं. बाकी नौकरी कहां मिलती है.’’

‘‘अरे, यह क्या,’’ मंगरू चौंका. एक ठेले के पास 2-4 लड़के कुछकुछ काम कर रहे थे और वहां ग्राहकों की भीड़ लगी थी. एक कड़ाही में पूरी या भटूरे तल रहा था. दूसरा उन्हें प्लेटों में छोले, अचार और नमकमिर्चप्याज के साथ ग्राहकों को दे रहा था. तीसरा जूठे बरतनों को धोने में लगा था, जबकि चौथा रुपएपैसे का लेनदेन कर रहा था. इधर एक तरफ से अनेक ठेलों की लाइनें लगी हुई थीं, जिन पर इडलीडोसा, लिट्टीचोखा, चाटपकौड़े, मोमो, मैगी, अंडेआमलेट और जाने क्या कुछ बिक रहा था.

‘‘यही है हमारा होटल बाऊजी…’’ फीकी हंसी हंसते हुए किशना बोल रहा था, ‘‘ठेके के साइड में पढि़ए. लिखा

है ‘किशन छोलाभटूरा स्टौल’. इसी होटलरूपी ठेले से हम 5 जनों का पेट पल रहा है.

‘‘इतना बड़ा गांधी मैदान है. थक जाने पर यहीं कहीं आराम कर लेते हैं. और रात के वक्त चारों तरफ सूना पड़ जाने पर यह सड़क, यह जगह बहुत बड़ी दिखने लगती है. सो, कहीं भी किसी दुकान के सामने चादर बिछा कर सो जाते हैं.’’

‘‘यह भी कोई जिंदगी हुई?’’ मंगरू ने पूछा.

‘‘हां बाऊजी, यह भी जिंदगी ही है. बड़े शहरों में लाखों लोग ऐसी ही जिंदगी जीते हैं.’’

‘‘और वह तुम्हारी पढ़ाई, जिस के पीछे तुम ने पटना में रह कर 7 साल लगाए, हजारों रुपए खर्च हुए.’’

‘‘आज की पढ़ाई सिर्फ सपने दिखाती है, नौकरी या कामधंधा नहीं देती. मैं ने आप की जिंदगी को नजदीक से देखाजाना है. बस उसे अपनी जिंदगी में उतार लिया और जिंदगी आगे चल पड़ी. यही नहीं, मेरे साथ मेरे 4 साथियों की जिंदगी भी पटरी पर आ गई, नहीं तो यहां लाखों बेरोजगार घूम रहे हैं.’’

मंगरू एकटक कभी किशना को तो कभी गांधी मैदान को देखता रहा.

‘‘यह एक कार्टन है बाऊजी, जिस में आप लोगों के लिए नए कपड़े हैं. छोटे भाईबहनों के लिए खिलौने हैं. इसे साथ ले जाना.’’

थोड़ी देर के बाद किशना मंगरू को गांधी मैदान के पास लगे पार्टी के पंडाल में पहुंचा आया. वहां एक तरफ पुआल के ऊपर दरियां बिछी थीं, जिन पर हजारों लोग लेटे या बैठे हुए थे. पर मंगरू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह वहीं अनमना सा लेट गया, चुपचाप.

अल्जाइमर: जरूरी है दिमागी कसरत

70वर्षीय परिमल बनर्जी को रिटायर हुए 5 साल हो गए. कोलाकाता के भवानीपुर इलाके में उन का अपना तीनमंजिला मकान है. कोई सालभर हुआ पत्नी को गुजरे लेकिन एक बेटे, बहू और एक साल के पोते के साथ रिटायर्ड लाइफ के वे मजे ले रहे हैं. सुबह से ले कर शाम तक एक रूटीन जीवन जीते हैं. घर पर उन का ज्यादातर समय अखबार पढ़ना, टीवी देखना, व्हाट्सऐप पढ़ने व फौरवर्ड करने में और शाम का कुछ समय पोते के साथ बीतता है. बुढ़ापे में ऐसा निश्ंिचत जीवन थोड़े से लोगों को नसीब होता है. इस उम्र में ज्यादातर लोग अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं.

इस उम्र तक आमतौर से बुजुर्ग परिवार में अलगथलग पड़ जाते हैं. उन का महत्व कम हो जाता है. तब बढ़ती उम्र की तमाम बीमारियों के साथ परिवार या समाज में असुरक्षा का एहसास होने लगता है. इसी के साथ बुढ़ापे में बड़ी तादाद में अलजाइमर की दिक्कत आती है. इस उम्र के लोगों में कोविड के साथसाथ संक्रमण, निमोनिया, इंफ्लूएंजा, टिटेनस, कैंसर और दिल की बीमारी के बाद अलमाइमर एक चिंता का विषय है.

सहूलियतभरी आधुनिक जीवनशैली, उन्नत इलाज और दवा की सुविधा के कारण हमारा औसत जीवन पहले की तुलना में काफी हो गया है. जेरियाट्रिक सोसाइटी औफ इंडिया के अनुसार तो हमारी कुल आबादी का 8 प्रतिशत 60 साल के ऊपर है. जो 2031 तक 13 से 15 प्रतिशत हो सकता है. यानी इन की आबादी 10 करोड़ से भी अधिक है और अगले 10 वर्षों में इन की तादाद में दुगनी वृद्धि का भी अनुमान है.

दूसरी तरफ सामाजिक स्थिति में परिवार के माने बदलने लगे हैं. संयुक्त परिवार की जगह ले ली है न्यूक्लियर फैमिली ने. फलस्वरूप परिवार में बुजुर्गों की उपेक्षा के साथ उन का महत्त्व दिनोंदिन कम होने लगा है. कुल मिला कर इस उम्र के लोग घर, परिवार, समाज में एकाकी हो जाते हैं. नई पीढ़ी के पास इन के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मध्य उम्र की पीढ़ी घरपरिवार की जिम्मेदारी निभाने और जीवनशैली को और अधिक सहूलियतभरी बनाने के चक्कर में कमर कस कर कमाने के जुगाड़ में लगी रहती है. इन सब के बीच बुजुर्ग पीढ़ी अकेली पड़ जाती है.

हमारे यहां डाक्टर भी यह मानते हैं कि हमारे देश में चिकित्सा के क्षेत्र में ऐसे बुजुर्गों का इलाज और उन की समुचित देखभाल के लिए प्रशिक्षित लोगों की भारी कमी है. आज पूरे विश्व में पीडियाट्रिक यानी शिशु रोग विभाग को जितना महत्त्व दिया जा रहा है उतना ही महत्त्व जेरियाट्रिक यानी जरा चिकित्सा विभाग मैडिसिन को दिए जाने की मांग उठ रही है, पर दिक्कत यह कि हमारे यहां तो जब न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधा की ही कमी है तो वृद्धों के लिए अलग से विभाग की सोच कितनी कारगर होगी, इस का अंदाजा लगाया जा सकता है.

भारत का वृद्ध समाज आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक चारों तरह की समस्याओं से जर्जरित है लेकिन सब से बड़ी समस्या शारीरिक है. इस उम्र के वयस्क ज्यादातर इन्फैक्शन संक्रमण के शिकार हो जाते हैं. यह संक्रमण कम उम्र के लोगों को होने वाले संक्रमण से अलग होता है. कई बार संक्रमण के कारण उन्हें बुखार नहीं होता है. इस से बीमारी की पहचान में समस्या आती है. बहुत बार देर हो जाती है. नतीजतन ज्यादातर वयस्कों की मौत संक्रमणजनित कारणों से होती है, पर हमारे यहां इस उम्र में बुजुर्गों में अलजाइमर की समस्या लगभग अनदेखी कर दी जाती है.

दिल्ली और चेन्नई जैसे कुछ शहरों में जेरियाट्रिक विभाग बनाने के लिए डाक्टरों को विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है. योजना आयोग हरेक राज्य में जेरियाट्रिक विभाग शुरू करने के बारे में विचार कर रहा है. जहां तक अलजाइमर का सवाल है तो इसे बुढ़ापा जनित महज भूलने की बीमारी मान कर इलाज पर ज्यादा जोर दिया ही नहीं जाता. कुल मिला कर बुढ़ापे का स्वाभाविक लक्षण मान लिया जाता है.

कुछ हिंदी फिल्म में अलजाइमर की समस्या को हलके से उठाया गया है. फिल्म ‘ब्लैक’ में अमिताभ बच्चन एक गूंगीबहरी लड़की को पढ़ाने की चुनौती लेते हैं और अंत में खुद अलजाइमर के मरीज बन जाते हैं. वे घर का रास्ता भूल जाते हैं. अजय देवगन और काजोल की भी एक फिल्म थी- ‘यू, मी और हम’, जिस में अजय की पत्नी काजोल अलजाइमर की मरीज हैं. ऐसा अकसर होता है.

अलजाइमर क्या है

एक उम्र के बाद इंसान के दिमाग की कोशिकाओं में सिकुड़न शुरू हो जाती है. हमारे दिमाग में एक सौ अरब से भी अधिक कोशिकाएं या न्यूरौन होते हैं. इन न्यूरौन के नैटवर्क के कारण ही हम देखने, सुनने, बोलने, याद करने या याद रखने, सूंघने, चलने जैसे काम कर पाते हैं. इन न्यूरौन में सिकुड़न के कारण दिमागी तालमेल बिठाने में दिक्कत पेश आती है. धीरेधीरे यह गंभीर रूप ले लेता है और पूरे दिमाग की कोशिकाएं मरने लगती हैं.

डिमैंशिया क्या है

डिमैंशिया एक लक्षण है और अलजाइमर एक बीमारी है. जैसे हमें बुखार होता है तो बदन तपता है. यह बीमारी का लक्षण है. लेकिन बुखार से बीमारी के कारण का पता नहीं चलता. इसी तरह डिमैंशिया से पता चलता है कि दिमाग में याद्दाश्त को ले कर कहीं कोई गड़बड़ी पैदा हो रही है. इस का कारण पता नहीं चलता. इस तरह हम कह सकते हैं कि डिमैंशिया बीमारी का लक्षण है और अलजाइमर एक बीमारी.

40 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते भूल जाने के लक्षण दिखने लगते हैं. क्या इसे डिमैंशिया या अलजाइमर कहा जा सकता है?

भूलना डिमैंशिया या अलजाइमर का ही लक्षण हो, जरूरी नहीं. भूलने या याद न कर पाने के और भी कई कारण हो सकते हैं. भूलने के पीछे ज्यादातर जो कारण होता है वह है ब्रेन में छोटेछोटे मल्टीपल स्ट्रोक. हालांकि इस तरह के छोटे स्ट्रोक से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता है. इसलिए स्ट्रोक का पता नहीं चल पाता है.

ऐसे स्ट्रोक हाईप्रैशर, डायबिटीज, कोलैस्ट्रौल, किडनी से संबंधित बीमारी हो तो इस तरह के स्ट्रोक ब्रेन में होते हैं. इन बीमारियों को नियंत्रित रखना जरूरी है. इसी के साथ अलकोहल के सेवन पर भी नियंत्रण जरूरी है.

स्ट्रैस का परिणाम : यह एक गलत धारणा है. स्ट्रैस से अलजाइमर या डिमैंशिया का कुछ लेनादेना नहीं है. बल्कि, स्ट्रैस से स्यूडोडिमैंशिया जरूर होता है.

स्यूडोडिमैंशिया क्या है?

स्यूडोडिमैंशिया का संबंध एंग्जाइटी, डिप्रैशन से है. ऐसा हो सकता है कि किसी स्ट्रैसफुल घटना के बाद कोई इंसान अचानक सबकुछ भूल जाए. अनिद्रा का शिकार भी हो सकता है. थोड़े गुस्से से बेकाबू हो सकता है. उस के स्वभाव में उतावलापन हो सकता है. स्ट्रैस के कारण हम कुछ बातों को याद नहीं कर पाते हैं. भूल जाना और याद नहीं आना दो अलगअलग चीजें हैं.

स्ट्रैस के कारण सचमुच में हम भूल नहीं जाते, बल्कि कुछ बातों को हम याद नहीं कर पाते हैं और जब हम याद नहीं कर पाते तो हमारा तनाव और अधिक बढ़ता जाता है. इसी तनाव के कारण बौखलाहट पैदा होती है. इसी कारण हम कुछ बातों या चीजों का नाम याद ही नहीं कर पाते हैं. इस कारण आमतौर पर मान लिया जाता है यह भूलना भूलने की बीमारी यानी डिमैंशिया या अलजाइमर का लक्षण है. लेकिन देखा गया है कि स्ट्रैस कम होने पर या दिमाग शांत होने पर वह सब हमें याद आ जाता है, पर अलजाइमर में ऐसा नहीं होता. इस में दिमागी न्यूरौन हमेशा के लिए मर जाते हैं.

40 की उम्र में अलजाइमर : आजकल तो 30-40 की उम्र में अलजाइमर देखने को मिल जाता है. लेकिन अलजाइमर में भूलने का पैटर्न बहुत महत्त्वपूर्ण है. अलजाइमर होना या न होना इसी पैटर्न पर निर्भर करता है. डिमैंशिया को नियंत्रण में न रखा गया तो यह अलजाइमर में तबदील हो जाता है.

पैटर्न का पता कैसे लगाएं : भूलने के पैटर्न पर ध्यान दिया जाता है. इस के अलावा मैंटल स्टेटस यानी स्थिति की भी जांच की जाती है. एक पैरामीटर होता है, जिस के जरिए नतीजे पर पहुंचा जा सकता है. अगर यह पैरामीटर 6-7 तक पहुंच जाता है तो अलजाइमर मान लिया जाता है. इस में एकाग्रता एक बड़ा कारक है. लिखने, पढ़ने, सुनने के मामले में एकाग्रता देखीपरखी जाती है. दिन, तारीख, जगह के बारे में सुन कर सम झने की कितनी काबीलियत है, मामूली हिसाब लगाने की क्षमता से भी इस का पता चल जाता है.

उदाहरण लीजिए, संभावित मरीज की जांच के लिए पहले उसे 100 में 7 घटाने को कहा जाए. इस के बाद देखें. जितनी संख्या निकल कर आई, उस में से एक के बाद एक 5 बार 7 को घटाने में वह सक्षम है या नहीं. किसी चीज को देख कर उस का नाम लेने में उसे कितना वक्त लगता है. इस के अलावा आमतौर पर एक इंसान एक मिनट में कम से कम 150 शब्द बोल लेता है. डिमैंशिया होने पर यह 50 से नीचे चला जाता है. इन सब पैरामीटर्स के जरिए देखा जाता है. इस के अलावा और भी कई तरह की जांच होती है. न्यूरोलौजिकल जांचें के साथ एमआरआई और सीटी स्कैन जांच भी की जाती है.

अलजाइमर का कोई इलाज है :शुरुआत में पकड़ में आ जाने पर इसे नियंत्रण में रखना जरूर संभव है. परिवार में बुजुर्गों की सक्रियता बनी रहे, यह जरूरी है. अखबार या पत्रिका पढ़ने की आदत बनी रहे तो भी इस तरह की बीमारी का खतरा कम हो जाता है. क्रौस वर्ड पजल से भी दिमाग सक्रिय होता है. इस के अलावा डीप ब्रीथिंग काउंसलिंग भी दिमाग को शांत रखने में कारगर होती है. कुल मिला कर दिमागी कसरत बड़े काम की चीज है. लेकिन इस के साथ फिजिकल ऐक्सरसाइज भी जरूरी है ताकि शरीर भी सक्रिय रहे.

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