'पहले मुरगी आई या अंडा?' यह प्रश्न हमें बचपन में अकसर पूछा जाता था. 7 दशकों बाद भी यह प्रश्न वहीं का वहीं है. आज भी इस का सही उत्तर किसी के पास नहीं है. यह बात मेरे दिमाग में तब आई जब एक पार्टी में बातचीत के दौरान किसी ने पूछा कि बताओ, कौन सा नशा बड़ा है, शराब का या व्हाट्सऐप का?
जब मैं ने बिना कुछ सोचे तपाक से कहा कि व्हाट्सऐप का तो एकदम से कई आवाज आईं,"इतने आत्मविश्वास के साथ कैसे कह सकते हो?"
"देखो, यह तो सीधी सी बात है. शराब का नशा बहुत ही कम लोग मुख्यतया पुरुष ही महसूस कर पाते हैं. देश के कुछ हिस्सों को छोड़ कर, जहां औरतें भी शराब पीती हैं, औरतों को शराब के नशे का पता ही नहीं. यही बात अधिकतर युवकों और बच्चों के बारे में भी कही जा सकती है. और फिर यह नशा तो कुछ देर बाद उतर भी जाता है लेकिन व्हाट्सऐप का नशा तो कुछ और ही किस्म का नशा है।  हरेक को हर समय चढ़ा ही रहता है.
"सड़क पर चलते हुए, बस में सफर करते हुए, औटो या टैक्सी चलाते हुए, पार्क में, मौल में कहीं भी, किसी को भी देख लो, फोन पर व्हाट्सऐप में ही लगा रहता है. 3-4 साल के बच्चों से ले कर बड़ेबूढ़े सभी इस में डूबे रहते हैं. अब यह नशा नहीं है तो क्या है?"
कहावत है, 'रात गई, बात गई' लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. अगली सुबह मेरी पत्नी मेरे पास आई और मोबाइल दिखा कर कहने लगी, "इस वीडियो को देखो."
करीब 2 मिनट के उस वीडियो ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया और मेरे मुंह से निकल पड़ा, "वाह, शराब और व्हाट्सऐप का अजीब संगम। क्या बढ़िया जुगलबंदी है."
व्हाट्सऐप का वह वीडियो मुझे मेरी जवानी के उन दिनों में ले गया जब मैं और मेरे कुछ दोस्त बियर की एक बोतल में ही नशा महसूस करने लगते थे. शराब के किसी एक ही पहलू पर लिखे अलगअलग शायरों के शेर जो हम उन दिनों एकदूसरे को सुनाते थे, एक बार फिर से मेरे दिमाग में घूम गए.
इस वीडियो में भी कुछ शेर 'शराब और मसजिद' को ले कर पढ़े गए थे. हालांकि शेर पढ़ने का अंदाज सुनने में ठीक नहीं था, पढ़ कर देखिए, पढ़ने में बढ़िया है.
वीडियो के शुरू में जब किसी ने कहा, "जाहिद शराब पीने दे मसजिद में बैठ कर या वह जगह बता जहां पर खुदा न हो," तो तुरंत ही इकबाल का यह शेर जवाब में हाजिर हो गया, "मसजिद खुदा का घर है कोई पीने की जगह नहीं, काफिर के दिल में जा वहां पर खुदा नहीं."
अब ज्यों ही बात मसजिद से निकल कर काफिर पर आ गई तो किसी ने अहमद फराज का यह शेर पेश कर दिया, "काफिर के दिल से आया हूं, वहां पर जगह नहीं, खुदा मौजूद है वहां भी, काफिर को पता नहीं."
अब शायरी तो शायरी है. शायद इसीलिए शायर ने खुदा को भी नहीं बख्शा और कहा, "खुदा मौजूद है पूरी दुनिया में, कहीं भी जगह नहीं, तू जन्नत में जा वहां पीना मना नहीं।"
वैसे, देखा जाए तो सच यही है कि जन्नत जाने को कोई भी मना नहीं करेगा लेकिन साकी की तो बात ही कुछ और है. उस का कहना था, "पीता हूं गम ए दुनिया भुलाने के लिए और कुछ नहीं, जन्नत में कहां गम है, वहां पीने में मजा नहीं."
यह वीडियो जब मैं ने अपने बचपन के दोस्तों के व्हाट्सऐप ग्रुप में डाली तो मानों मधुमखियों के छत्ते में हाथ डाल दिया हो. इस उम्र में शराब पीने, न पीने पर बहस छिड़ गई.
'शराब पीना अब सेहत के लिए अच्छा नहीं,' 'पियो मगर थोड़ी पियो,' 'बहुत पी चुके अब छोड़ दो,' 'खुदा के घर भी नशे मे ही जाओगे क्या,' 'शराब ही तो बुढ़ापे का सहारा है,' 'पैग के सहारे ही तो शाम कटती है...' जैसी टिपणियां आने लगीं.
जब एक दोस्त ने लिखा, 'अच्छा पी लो कुछ दिन और मगर एक दिन निश्चित कर लो जब छोड़ दोगे,' तो एक दोस्त ने मुबारक अजीमाबादी का यस शेर लिख भेजा, 'तू जो जाहिद मुझे कहता है कि तोबा कर ले, क्या कहूंगा जब कहेगा कोई कि पीना होगा.' यह पढ़ते ही एक और ने लिखा, 'इलाही क्यों करूं तोबा, कोई मैं रोज पीता हूं, उठा लेता हूं सावन में कभीकभी यारों के कहने पे.'
इस पर एक दोस्त ने, जो अकसर शांत रहता था और साल में एकाध बार ही कुछ लिखता था, लिखा, 'मैं तो दाग देहलवी का दीवाना हूं और उस के कहे शेर कै दिन हुए हैं हाथ में सागर लिए हुए, किस तरह से तोबा कर लें अभी से हम' पर यकीन करता हूं.'
लेकिन इस बहस का सब से बढ़िया जवाब राजेश का था जिस ने लिखा, 'मैं कई बार तोबा कर चुका हूं लेकिन मेरी तोबा भी कोई तोबा है, जब बहार आई, तोड़ डाली है.'
हमारे ग्रुप में बात तो शराब से शुरू हुई थी लेकिन दोस्तों पर नशा व्हाट्सऐप का हावी होने लगा. सुरेश जिसे सब कुंभकरण कह कर बुलाते थे, क्योंकि वह 1 साल में 2 बार ही कुछ लिखता था, अब बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगा.
एक दिन उस ने लिखा, 'किस को याद है 11वीं कक्षा में हम ने शेरोशायरी की थी, जिस में केवल बोसे (चुंबन) पर ही शेर पढ़े गए थे...' शायर तो अब याद नहीं लेकिन मैं ने यह शेर पढ़ा था, 'हम बोसा ले के उन से अजब चाल कर गए, यों बख्शवा लिया कि यह पहला कुसूर था.'
'अबे तू पहले पर ही लटका हुआ है शायर अमीर का कमाल देख. उस ने कहा है कि लिपटा जो बोसा ले के तो वह बोले कि देखिए, यह दूसरी खता है, वह पहला कुसूर था.' बस फिर क्या था, दोस्तों में होड़ लग गई एकदूसरों से बढ़िया कुछ कहने की.
एक ने लिखा, 'मुझे भी शायर का नाम तो याद नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि वह तुम्हारे 1-2 के चक्कर से बहुत आगे है. जानते हो वह क्या कहता है, 'पढ़ो बोसे किए कुबूल तो गिनती भी छोड़ दो, ऐसा न हो पड़े कहीं झगड़ा हिसाब में.'
एक और दोस्त ने टिपण्णी की कि यार, तुम्हारे शायर तो हिम्मत वाले हैं लेकिन मेरा ग़ालिब बहुत ही सुलझा हुआ अक्लमंद इंसान है. वह किसी भी काम को बहुत सोचसमझ कर करता है. इस विषय पर उस का कहना है, 'ले तो लूं सोते में उस के पांव का बोसा मगर, ऐसी बातों से वह काफिर बदगुमां हो जाएगा.'
एक अन्य दोस्त जिसे हम 'सोया शेर' कहते थे, अपने अंदाज में बोला, "माना गालिब गालिब है, उस का कोई सानी नहीं लेकिन किसी गुमनाम शायर का यह कलाम बेमिसाल है। 'क्या नजाकत है कि आरिज (गाल) उन के नीले पड़ गए, हम ने तो बोसा लिया था ख्वाब में तसवीर का."
जब सब तरफ से वाहवाह हो रही थी तब एक दोस्त को खयाल आया कि मैं तो अभी तक चुप हूं. उस ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा,"भाई, मैं तो जिगर मोरादाबादी का प्रशंसक हूं और मेरे विचार में तो इस विषय पर उस का यह शेर ही सब से बढ़िया है,'बड़े गुस्ताख हैं, झुक कर तेरा मुंह चूम लेते हैं, बहुत सा तूने जालिम इन गेसुओं (बाल) को सर चढ़ाया है."

 

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