‘तेते पांव पसारिए, जैती लंबी सौर’ इस का मतलब है ‘अपने पैरों को उतना ही फैलाना चाहिए जितनी लंबी चादर हो.’ हमारे समाज में इस कहावत का खास मतलब था. हमारा समाज अपनी आर्थिक व्यवस्था को इस के अनुसार ही चलाता था. बाजारवाद के नए दौर में यह कहावत अब भी है पर हाशिए पर चली गई है. सोशल स्टेटस के चक्कर में जनता बाजारवाद के  झांसे में फंस चुकी है. बाजार लोगों की जरूरत का सामान तैयार कर के बेचने का काम करता है और बाजारवाद पहले महंगा सामान बनाता है उस के बाद जनता के बीच उस की जरूरत को पैदा करता है.

मंदिर में दर्शन की व्यवस्था में पैसे वालों को अलग महत्त्व दिया जाता है. बड़े मंदिरों में जहां आम आदमी को दर्शन करने में 10 से 15 घंटे तक का इंतजार करना पड़ता है वहां पैसे दे कर वीवीआईपी दर्शन करने वालों को 1 घंटे में ही दर्शन करने को मिल जाता है. पैसे वालों की देखादेखी अब मध्यवर्ग के लोग भी वीआईपी दर्शन के लिए अलग से पैसा देने लगे हैं. इस से मंदिरों की कमाई बढ़ रही है. वीआईपी दर्शन भी ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है.

बाजारवाद के प्रभाव में लोग अपनी जरूरत से इतर ‘स्टेटस सिंबल’ के लिहाज से खरीदारी करते हैं. आर्थिक व्यवस्था को ले कर पूरी थ्योरी बदल गई है. आज के दौर में पैर सिकोड़ने की जगह पर नई चादर लेने की थ्योरी चल रही है. भले ही इस के लिए लोन या कर्ज क्यों न लेना पड़े. जिस समाज में कर्ज लेने को बुरा माना जाता था आज वहां कर्ज ले कर दिखावा करने को लोग स्टेटस सिंबल मान रहे हैं. सोशल स्टेटस के लिए लोग कर्ज लेने से नहीं घबरा रहे, भले ही इस के कुछ भी परिणाम हों. मध्यवर्ग को पैसे वाले ऊंचे लोगों की वजह से खर्च करना पड़ता है.

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