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जान न पहचान ये मेरे मेहमान

मेरा शहर एक जानामाना पर्यटन स्थल है. इस वजह से मेरे सारे रिश्तेदार, जिन्हें मैं नहीं जानता वे भी जाने कहांकहां के रिश्ते निकाल कर मेरे घर तशरीफ का टोकरा निहायत ही बेशर्मी से उठा लाते हैं. फिर बड़े मजे से सैरसपाटा करते हैं. और हम अपनी सारी, यानी गरमी, दीवाली व क्रिसमस की छुट्टियां इन रिश्तेदारों की सेवा में होम कर देते हैं. एक दिन मेरे बाप के नाना के बेटे के साले का खत आया कि वे इस बार छुट्टियां मनाने हमारे शहर आ रहे हैं और अगर हमारे रहते वे होटल में ठहरें तो हमें अच्छा नहीं लगेगा. लिहाजा, वे हमारे ही घर में ठहरेंगे.

मैं अपने बाल नोचते हुए सोच रहा था कि ये महाशय कौन हैं और मुझ से कब मिले. इस चक्कर में मैं ने अपने कई खूबसूरत बालों का नुकसान कर डाला. पर याद नहीं आया कि मैं उन से कभी मिला था. मेरी परेशानी भांपते हुए पत्नी ने सुझाव दिया, ‘‘इन की चाकरी से बचने के लिए घर को ताला लगा कर अपन ही कहीं चलते हैं. कभी कोई पूछेगा तो कह देंगे कि पत्र ही नहीं मिला.’’ ‘‘वाहवाह, क्या आइडिया है,’’ खुशी के अतिरेक में मैं ने श्रीमती को बांहों में भर कर एक चुम्मा ले लिया. फिर तुरतफुरत ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के एक बढि़या पहाड़ी स्टेशन के टिकट बुक करवा लिए.

हमारी दूसरे दिन सुबह 10 बजे की बस थी. हम ने जल्दीजल्दी तैयारी की. सब सामान पैक कर लिया कि सुबह नाश्ता कर के चल देंगे, यह सोच कर सारी रात चैन की नींद भी सोए. मैं सपने में पहाड़ों पर घूमने का मजा ले रहा था कि घंटी की कर्कश ध्वनि से नींद खुल गई. घड़ी देखी, सुबह के 6 बजे थे. ‘सुबहसुबह कौन आ मरा,’ सोचते हुए दरवाजा खोला तो बड़ीबड़ी मूंछों वाले श्रीमानजी, टुनटुन को मात करती श्रीमतीजी और चेहरे से बदमाश नजर आते 5 बच्चे मय सामान के सामने खड़े थे. मेरे दिमाग में खतरे की घंटी बजी कि जरूर चिट्ठी वाले बिन बुलाए मेहमान ही होंगे. फिर भी पूछा, ‘‘कौन हैं आप?’’

‘‘अरे, कमाल करते हैं,’’ मूंछ वाले ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा, ‘‘हम ने चिट्ठी लिखी तो थी…बताया तो था कि हम कौन हैं.’’ ‘‘लेकिन मैं तो आप को जानता ही नहीं, आप से कभी मिला ही नहीं. कैसे विश्वास कर लूं कि आप उन के साले ही हैं, कोई धोखेबाज नहीं.’’

‘‘ओए,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘हम को धोखेबाज कहता है. वह तो आप के बाप के नाना के बेटे यानी मेरी बहन के ससुर ने जोर दे कर कहा था कि उन्हीं के यहां ठहरना, इसलिए हम यहां आए हैं वरना इस शहर में होटलों की कमी नहीं है. रही बात मिलने की, पहले नहीं मिले तो अब मिल लो,’’ उस ने जबरदस्ती मेरा हाथ उठाया और जोरजोर से हिला कर बोला, ‘‘हैलो, मैं हूं गजेंद्र प्रताप. कैसे हैं आप? लो, हो गई जानपहचान,’’ कह कर उस ने मेरा हाथ छोड़ दिया. मैं अपने दुखते हाथ को सहला ही रहा था कि उस गज जैसे गजेंद्र प्रताप ने बच्चों को आदेश दिया, ‘‘चलो बच्चो, अंदर चलो, यहां खड़ेखड़े तो पैर दुखने लगे हैं.’’

इतना सुनते ही बच्चों ने वानर सेना की तरह मुझे लगभग दरवाजे से धक्का दे कर हटाते हुए अंदर प्रवेश किया और जूतों समेत सोफे व दीवान पर चढ़ कर शोर मचाने लगे. मेरी पत्नी और बच्चे हैरानी से यह नजारा देख रहे थे. सोफों और दीवान की दुर्दशा देख कर श्रीमती का मुंह गुस्से से तमतमा रहा था, पर मैं ने इशारे से उन्हें शांत रहने को कहा और गजेंद्र प्रताप व उन के परिवार से उस का परिचय करवाया.

परिचय के बाद वह टुनटुन की बहन इतनी जोर से सोफे पर बैठी कि मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई. सोचा, ‘आज जरूर इस सोफे का अंतिम संस्कार हो जाएगा.’ पर मेरी हालत की परवा किए बगैर वह बेफिक्री से मेरी पत्नी को और्डर दे रही थी, ‘‘भई, अब जरा कुछ बढि़या सी चायवाय हो जाए तो हम फ्रैश हो कर घूमने निकलें. और हां, जरा हमारा सामान भी हमारे कमरे में पहुंचा देना. हमारे लिए एक कमरा तो आप ने तैयार किया ही होगा?’’ हम ने बच्चों के साथ मिल कर उन का सामान बच्चों के कमरे में रखवाया.

उधर कुढ़ते हुए पत्नी ने रसोई में प्रवेश किया. पीछेपीछे हम भी पहुंचे. शयनकक्ष में अपने पैक पड़े सूटकेसों पर नजर पड़ते ही मुंह से आह निकल गई. मेहमानों को मन ही मन कोसते सूटकेसों को ऐसा का ऐसा वापस ऊपर चढ़ाया. ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के टिकट रद्द करवाए. आधा नुकसान तो यही हो गया. श्रीमती चाय ले कर पहुंची तो चाय देखते ही बच्चे इस तरह प्यालों पर झपटे कि 2 प्याले तो वहीं शहीद हो गए. अपने टी सैट की बरबादी पर हमारी श्रीमती अपने आंसू नहीं रोक पाई तो व्यंग्य सुनाई पड़ा, ‘‘अरे, 2 प्याले टूटने पर इतना हंगामा…हमारे घर में तो कोई चीज साबुत ही नहीं मिलती. इस तरह तो यहां बातबात पर हमारा अपमान होता रहेगा,’’ उठने का उपक्रम किए बिना उस ने आगे कहा, ‘‘चलो जी, चलो, इस से तो अच्छा है कि हम किसी होटल में ही रह लेंगे.’’

मुझ में आशा की किरण जागी, लेकिन फिर बुझ गई क्योंकि वह अब बाथरूम का पता पूछ रही थीं. साबुन, पानी और बाथरूम का सत्यानाश कर के जब वे नाश्ते की मेज पर आए तो पत्नी के साथ मेरा भी दिल धकधक कर रहा था. नाश्ते की मेज पर डबलरोटी और मक्खन देख कर श्रीमतीजी ने नौकभौं चढ़ाई, ‘‘अरे, सिर्फ सूखी डबलरोटी और मक्खन? मेरे बच्चे यह सब तो खाते ही नहीं हैं. पप्पू को तो नाश्ते में उबला अंडा चाहिए, सोनू को आलू की सब्जी और पूरी, मोनू को समोसा, चिंटू को कचौरी और टोनी को परांठा. और हम दोनों तो इन के नाश्ते में से ही अपना हिस्सा निकाल लेते हैं.’’ फिर जैसे मेहरबानी करते हुए बोले, ‘‘आज तो आप रहने दें, हम लोग बाहर ही कुछ खा लेंगे और आप लोग भी घूमने के लिए जल्दी से तैयार हो जाइए, आप भी हमारे साथ ही घूम लीजिएगा. अनजान जगह पर हमें भी आराम रहेगा.’’

हम ने सोचा कि ये लोग घुमाने ले जा रहे हैं तो चलने में कोई हरज नहीं. झटपट हम सब तैयार हो गए.

बाहर निकलते ही उन्होंने बड़ी शान से टैक्सी रोकी, सब को उस में लादा और चल पड़े. पहले दर्शनीय स्थल तक पहुंचने पर ही टैक्सी का मीटर 108 रुपए तक पहुंच चुका था. उन्होंने शान से पर्स खोला, 500-500 रुपए के नोट निकाले और मेरी तरफ मुखातिब हुए. ‘‘भई, मेरे पास छुट्टे नहीं हैं, जरा आप ही इस का भाड़ा दे देना.’’ भुनभुनाते हुए हम ने किराया चुकाया. टैक्सी से उतरते ही उन्हें चाय की तलब लगी, कहने लगे, ‘‘अब पहले चाय, नाश्ता किया जाए, फिर आराम से घूमेंगे.’’

बढि़या सा रैस्तरां देख कर सब ने उस में प्रवेश किया. हर बच्चे ने पसंद के अनुसार और्डर दिया. उन का लिहाज करते हुए हम ने कहा कि हम कुछ नहीं खाएंगे. उन्होंने भी बेफिक्री से कहा, ‘‘मत खाइए.’’ वे लोग समोसा, कचौरी, बर्गर, औमलेट ठूंसठूंस कर खाते रहे और हम खिसियाए से इधरउधर देखते रहे. बिल देने की बारी आई तो बेशर्मी से हमारी तरफ बढ़ा दिया, ‘‘जरा आप दे देना, मेरे पास 500-500 रुपए के नोट हैं.’’

200 रुपए का बिल देख कर मेरा मुंह खुला का खुला रह गया और सोचा कि अभी नाश्ते में यह हाल है तो दोपहर के खाने, शाम की चाय और रात के खाने में क्या होगा? फिर वही हुआ, दोपहर के खाने का बिल 700 रुपए, शाम की चाय का 150 रुपए आया. रात का भोजन करने के बाद मेरी बांछें खिल गईं. ‘‘यह तो पूरे 500 रुपए का बिल है और आप के पास भी 500 रुपए का नोट है. सो, यह बिल तो आप ही चुका दीजिए.’’

उन का जवाब था, ‘‘अरे, आप के होते हुए यदि हम बिल चुकाएंगे तो आप को बुरा नहीं लगेगा? और आप को बुरा लगे, भला ऐसा काम हम कैसे कर सकते हैं.’’ दूसरे दिन वे लोग जबरदस्ती खरीदारी करने हमें भी साथ ले गए. हम ने सोचा कि अपने लिए खरीदेंगे तो पैसा भी अपना ही लगाएंगे और लगेहाथ उन के साथ हम भी बच्चों के लिए कपड़े खरीद लेंगे. पर वह मेहमान ही क्या जो मेजबान के रहते अपनी गांठ ढीली करे.

सर्वप्रथम हमारे शहर की कुछ सजावटी वस्तुएं खरीदी गईं, जिन का बिल 840 रुपए हुआ. वे बिल चुकाते समय कहने लगे, ‘‘मेरे पास सिर्फ 500-500 रुपए के 2 ही नोट हैं. अभी आप दे दीजिए, मैं आप को घर चल कर दे दूंगा.’’

फिर कपड़ाबाजार गए, वहां भी मुझ से ही पैसे दिलवाए गए. मैं ने कहा भी कि मुझे भी बच्चों के लिए कपड़े खरीदने हैं, तो कहने लगे, ‘‘आप का तो शहर ही है, फिर कभी खरीद सकते हैं. फिर ये बच्चे भी तो आप के ही हैं, इस बार इन्हें ही सही. फिर घर चल कर तो मैं पैसे दे ही दूंगा.’’ 3 हजार रुपए वहां निकल गए. अब वे खरीदारी करते थक चुके थे. दोबारा 700 रुपए का चूना लगाया. इस तरह सारी रकम वापस आने की उम्मीद लगाए हम घर पहुंचे.

घर पहुंचते ही उन्होंने घोषणा की कि वे कल जा रहे हैं. खुशी के मारे हमारा हार्टफेल होतेहोते बचा कि अब वे मेरे पैसे चुकाएंगे, लेकिन उन्होंने पैसे देने की कोई खास बात नहीं की.

दूसरे दिन भी वे लोग सामान वगैरह बांध कर निश्ंिचतता से बैठे थे और चिंता यह कर रहे थे कि उन का कुछ सामान तो नहीं रह गया. तब हम ने भी बेशर्म हो कर कह दिया, ‘‘भाईसाहब, कम से कम अपनी खरीदारी के रुपए तो लौटा दीजिए.’’ उन्होंने निश्ंिचतता से कहा, ‘‘लेकिन मेरे पास अभी पैसे नहीं हैं.’’

आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया, ‘‘पर आप तो कह रहे थे कि घर पहुंच कर दे दूंगा.’’ ‘‘हां, तो क्या गलत कहा था. अपने घर पहुंच भिजवा दूंगा,’’ आराम से चाय पीते हुए उन्होंने जवाब दिया.

‘‘उफ…और वे आप के 500-500 रुपए के नोट?’’ मैं ने उन्हें याद दिलाया. ‘‘अब वही तो बचे हैं मेरे पास और जाने के लिए सफर के दौरान भी कुछ चाहिए कि नहीं?’’

हमारा इस तरह रुपए मांगना उन्हें बड़ा नागवार गुजरा. वे रुखाई से कहते हुए रुखसत हुए, ‘‘अजीब भिखमंगे लोग हैं. 4 हजार रुपल्ली के लिए इतनी जिरह कर रहे हैं. अरे, जाते ही लौटा देंगे, कोई खा तो नहीं जाएंगे. हमें क्या बिलकुल ही गयागुजरा समझा है. हम तो पहले ही होटल में ठहरना चाहते थे, पर हमारी बहन के ससुर के कहने पर हम यहां आ गए, अगर पहले से मालूम होता तो यहां हमारी जूती भी न आती…’’ वह दिन और आज का दिन, न उन की कोई खैरखबर आई, न हमारे रुपए. हम मन मसोस कर चुप बैठे श्रीमती के ताने सुनते रहते हैं, ‘‘अजीब रिश्तेदार हैं, चोर कहीं के. इतने पैसों में तो बच्चों के कपड़ों के साथ मेरी 2 बढि़या साडि़यां भी आ जातीं. ऊपर से एहसानफरामोश. घर की जो हालत बिगाड़ कर गए, सो अलग. किसी होटल के कमरे की ऐसी हालत करते तो इस के भी अलग से पैसे देने पड़ते. यहां लेना तो दूर, उलटे अपनी जेब खाली कर के बैठे हैं.’’

इन सब बातों से क्षुब्ध हो कर मैं ने भी संकल्प किया कि अब चाहे कोई भी आए, अपने घर पर किसी को नहीं रहने दूंगा. देखता हूं, मेरा यह संकल्प कब तक मेरा साथ देता है.

VIDEO : कार्टून लिटिल टेडी बियर नेल आर्ट

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ठंडक का एहसास : पद और सत्ता के नशे में चूर नेता क्यों बाद में परेशान थें?

पद और सत्ता के नशे में चूर व्यक्ति सब का शोषण करता जाता है पर कभी न कभी तो बुराई का अंत होता ही है. ऐसे व्यक्ति को जब अपने किए की सजा मिलती है तो जाने कितनों की छाती को ठंडक पहुंचती है… हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी.

जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य. ‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा. ‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’ ‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’ ‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’ ‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा सम?ादार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…

हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही सम?ा में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मु?ो अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’ चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सच?ाठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं.

सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है. दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी. ‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’ ‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’ फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने. ‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’ उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस मेें बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले? सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मु?ो उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में.

क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है. ‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’ ‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’ ‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’ ‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’ आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा.

क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती. रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं. ‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगोें की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’ उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’ ‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’ अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं. ‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’ ‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था. ‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…सम?ा में नहीं आता कि राजू को कैसे सम?ाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’ एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मु?ो शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सू?ाता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है. कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें सम?ा में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें. गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मु?ो. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए. मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…सम?ा ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए? आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है.

आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और सम?ादारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष? इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी ?ोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को सम?ाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मु?ो. एक शाम मु?ो जम्मू से फोन आया : ‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था. ‘‘नहीं तो, मु?ो तो नहीं पता.’’ ‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’

बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’ मैं ने ?ाट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी. एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने ?ाट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी.

के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या? अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या? ‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’ ‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’ ‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’ काटो तो खून नहीं रहा मु?ा में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया.

जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है. रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मु?ो. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया? थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई.

क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही. ‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’ फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मु?ो पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

पिता: नव्या को कब हुआ अपनी गलती का एहसास?

‘दीदी, पापा अब इस दुनिया में नहीं रहे.’ सुबह-सुबह नव्या के मोबाइल पर उस के छोटे भाई प्रतीक का फोन आया. नव्या की आंख से दो आंसू ढुलक कर उस के गालों को भिगो गए. आज नव्या बिलकुल अनाथ हो गई थी. मां को तो इस दुनिया से गए 4 साल हो गए. बस, एक पापा का ही सहारा था. अब वे भी चले गए.

पर दिल के एक कोने में थोड़ी राहत भी मिली. इसी बहाने उन को अपने अकेलेपन से मुक्ति मिली और नव्या को उन की चिंता से. मम्मी के जाने के बाद पापा बिलकुल अकेले हो गए थे. एक सख्त, मजबूत इंसान को कमजोर, असहाय, लाचार, इंसान में बदलते देखा था नव्या ने. कभीकभी तो उसे यकीन नहीं होता था जिन पापा की आंख में बचपन से आज तक आंसू की एक बूंद नहीं देखी, अब फोन पर बात करतेकरते जराजरा सी बात पर रो पड़ते हैं. नव्या कितना समझाती थी उन्हें, पर वे तो एक मासूम बच्चे से बन गए थे. सच में तो उन की ताकत मां थी, उन के जाते ही कितना कमजोर बन गए, नव्या ने महसूस किया था.

नव्या ने अपने 2 जोड़ी कपड़े बैग में डाले और पापा को अंतिम विदा देने चल दी. उस के पति टूर पर गए थे, वे वहीं से पहुंच जाएंगे. नव्या ने उन्हें फ़ोन कर बता दिया था. टैक्सी उन्होंने ही बुक करा दी थी. नव्या गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी अपनी गति से दौड़ रही और नव्या पापा की यादों में दौड़ रही. कितनी बार तो नव्या झल्ला भी जाती थी,

‘क्या पापा बिना बात के रोने लग जाते हो, थोड़ा तो हिम्मत से काम लो.’कितनी बार वह पापा को बहाना बना कर फोन रख देती, क्योंकि मालूम था वे अपना अकेलापन और दुखड़ा ही बताएंगे. नव्या थक जाती थी सुनसुन कर. कभीकभी तो फोन करने में भी घबराहट होती थी. हर थोड़े दिनों में पापा उसे अपने पास बुलाते तो वह कहती,

‘पापा, अब मेरी दोहरी जिम्मेदारी है, मैं जब मन हो तब उठ कर नहीं आ सकती.’ पर सच में तो अब तो वह फुरसत में भी वहां नहीं जाना चाहती थी क्योंकि जो मायका मां के होने पर उस के लिए सुकून व आराम की जगह होती थी, जहां सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिलती, अब मां के नहीं होने पर वह घर काटने को दौड़ता. फिर पापा तो जैसे उस के आने का इंतजार करते,

‘बेटा, मेरी कमीज का बटन टूट गया, मेरे चश्मे का शायद नंबर बढ़ गया, आंखें चैक करा दे, घर के परदे कितने गंदे हो रहे हैं, बदल दे,’ आदि सब से खीझ होने लगती उसे.उस को लगता, पापा से कहे, ‘भाई आता है तो भाभी और भैया से क्यों नहीं कहते.’ पर मन मार कर रह जाती कहीं उन को बुरा न लग जाए. वे तो जैसे नव्या के आने का ही इंतजार करते थे और उस के सामने बिलकुल बच्चे बन जाते थे. इन थोड़े से दिनों में नव्या से अपनी सारी फरमाइशें पूरी करवाना चाहते थे.

नव्या ने अपने मन के कोने में एक बात दबा रखी थी, जिस को खुद भी झूठलाती और भूल से भी दिल में नहीं लाना चाहती. पर आज जब पापा नहीं रहे तो वह बात भी जेहन में आ ही गई. कभीकभी तो उसे लगता था की काश, मां की जगह पापा… ऐसा नहीं कि वह अपने पापा से प्यार नहीं करती थी, बहुत ज्यादा, पर वह उन को इतना असहाय नहीं देख सकती. फिर मां से वह कितनी ही बातें कर सकती थी, पापा से नहीं कर सकती. याद हैँ उसे जब मां थी तो कितना गुस्सा करती थी-

‘तुम बाप व बेटी पता नहीं क्या खिचड़ी पकाते हो, मुझ से तो मेरी बेटी बात ही नहीं करती.’ सच किसी के खोने पर क्यों उस की कमी लगती हैँ, गर उस के होने पर यह एहसास रहे तो बाद में कुछ मलाल तो न रहे.सच में उम्र के इस दौर में औरत तो फिर भी घरगृहस्थी में समय बिता लेती है, रो कर अपना दुख दूर कर लेती है पर आदमी तो बिलकुल असहाय ही हो जाता है. वह घर का ऐसा फालतू सामान बन जता है जिस के होने या न होने से शायद किसी को फर्क ही न पड़े.

अपनी सोच में डूबी कब उस का घर आ गया, पता ही नहीं चला. घर में बहुत भीड़ जमा थी. नातेरिश्तेदार सब इकट्ठे थे. नव्या पापा को इतना शांत देख कितना दुखी थी. कहां तो उस के आते ही कितनी बातें ले कर बैठ जाते, जो इतने समय से इकट्ठी कर के रखते थे. मां के बाद नव्या से ही तो वे अपने दिल का हाल कहते थे.

पापा के दाहसंस्कार के बाद घर में भैया, भाभी, नव्या और उस के पति रह गए. नव्या के भाई ने पापा की एक डायरी और कुछ चीजें जिन में उन की पुरानी घड़ी जो नव्या ने उन के जन्मदिन पर उन्हें दी थी, (कब से बंद पड़ी है पर पापा ने कितना संभाल कर रखा हैँ), नव्या की बचपन की गुड़िया, ( कितनी जिद करी थी उस ने इस गुड़िया के लिए, मां ने डांटा भी कि कितनी महंगी है, पर पापा ने उस को ला कर दी थी) वह सब नव्या को दी. पापा की इच्छा थी कि यह उसे ही दे.

एक बार नव्या को लगा भी कि क्या बेकार की चीजें हैं, वह कहां तक संभालेगी, फिर भी उस ने पापा कि अमानत समझ अपने बैग में रख लिया. बारह दिन बिता वह अपने घर आ गई. कुछ दिनों बाद जब वह अपना बैग खाली कर रही थी तो पापा की डायरी हाथ लग गई. उत्सुकता में उसे खोला. मां के जाने के बाद रोज़ वे मां को एक खत लिखते थे-

‘प्यारी सुमन, तुम तो मुझे छोड़ गईं पर नव्या के रूप में खुद को मुझे सौंप गई. जब भी उसे देखता हूं तो लगता है तुम मेरे पास हो. तुम मेरा खयाल रखती थीं तो अब वह मेरा ख़याल रखती है. पर आजकल थोड़ा व्यस्त रहती है. फ़ोन पर भी उस से सही से बात नहीं हो पाती है. कितना कुछ होता है कहने को, पर उस की व्यस्तता के कारण उस को बता ही नहीं पाता.’

नव्या के दिल में हूक सी उठी. पापा वह कहा आप से सही से बात करती थी. उस को तो झल्लाहट होती थी आप से बात करते. उस ने आगे पढ़ना शुरू किया-‘कितना सोचता हूं उसे परेशान न करूं पर क्या करूं, उस से नहीं कहूंगा तो किस से कहूंगा. इस बार वह आएगी तो उस से गाजर का हलवा बनवाऊंगा. तुम्हारे जाने के बाद तो वह स्वादिष्ठ हलवा खाने को नहीं मिला. तुम्हारे हाथों का जादू है उस के हाथों में. आज उस से शिकायत भी करूंगा फोन पर. कितने दिन हो गए उसे घर आए. अब बहू को तो बातबात पर परेशान नहीं कर सकता न. वैसे तो वह भी मेरा बहुत ध्यान रखती है पर नव्या को तो हक से कह सकता हूं जैसे तुम से कहता था. तुम्हारी तरह वह भी झल्लाती है मुझ पर. फिर भी मुझे पता है मुझ से बहुत प्यार करती है.

‘और हां, तुम्हारे होते जिन बातों की तरफ मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया या यों कह लो कभी जरूरत ही नहीं पड़ी, आज तुम्हारे बगैर मैं तिलतिल घुटता हूं. तुम तो जानती हो अब मेरे पैसों का सारा हिसाबकिताब तुम्हारा बेटा देखता है क्योंकि बैंक दूर है और इस उम्र में मुझ से यह सब संभलता भी नहीं है. वह ही मेरे हाथ में कभी थोड़ेबहुत पैसे रख देता है क्योंकि बाकी मेरी जरूरत तो वह बिना कहे पूरी कर ही देता है. और अब अकेले मुझ बुड्ढे के खर्चे भी कहां हैं.

‘तुम थीं, तो जरूरत होने पर अपने बेटे से हक से पैसे मांग लेती थी पर मुझे झिझक होती है. पर कभीकभी दिल में हूक उठती है जब तुम्हारी बेटी और नवासे को तीजत्योहार पर कुछ नहीं भिजवा पाता हूं. उन के हाथ में थोड़े पैसे भी नहीं रख पाता हूं. जानता हूं नव्या की ससुराल में कोई कमी नहीं और हमारे जवाईजी भी बहुत ही अच्छे हैं पर एक बेटी को अपने मायके से आए सामान की जिंदगीभर आस रहती है चाहे उस की ससुराल कितनी भी संपन्न हो. इसीलिए सच कहूं तो शर्म के कारण तीजत्योहार पर मैं ने उसे फ़ोन करना ही बंद कर दिया. और वह सोचती है कि मां होती तो ध्यान रखती, पापा शायद इन बातों को नहीं समझते. पर मैं ने सोच लिया मेरा एक हिस्सा नव्या के तीजत्योहार के लिए सुरक्षित कर के जाऊंगा ताकि जब मैं भी इस दुनिया में न रहूं, फिर भी हमारी बेटी को उस के मायके का हक मिलता रहे.’

नव्या एकएक शब्द पढ़ फूटफूट कर रो रही. सच कितनी खुदगर्ज हो गई वह, केवल उस ने अपनी मजबूरी देखी, अपना दुख देखा. पापा कितने अकेले हो गए, कितना कुछ कहना चाहते थे. पर उस के पास उन से बात करने का भी समय नहीं था. छोटे बच्चे के रूप में उन को नव्या का सहारा चाहिए था, पर वह सहारा भी कहां बन पाई. नव्या उस डायरी को अपने सीने से लागए फूटफूट कर रो रही, काश, ऐसे पापा को सीने से लगाया होता जब उन को जरूरत थी.

लेखिका-रीशा गुप्ता

मेरी पत्नी ने हमें झूठे दहेज कानून में फंसा दिया, मुझे समझ नहीं आ रहा, क्या करें ?

सवाल

मैं विवाहित पुरुष हूं. मेरा विवाह हुए 4 वर्ष हो गए हैं. शादी के बाद से ही पत्नी का मेरे प्रति व्यवहार क्रूरतापूर्ण था. वह बात बात पर मुझे परेशान करती थी. हर समय कोई न कोई डिमांड करती और कहती, मांग पूरी करो वरना तुम्हें व तुम्हारे परिवार को दहेज विरोधी कानून में फंसवा दूंगी. बातबात पर पुलिस स्टेशन में झूठी शिकायत कर के परेशान करना उस की दिनचर्या बनने लगी. परेशान हो कर मैं ने तलाक का केस फाइल कर दिया तो उस ने सचमुच में हमें झूठे दहेज कानून में फंसा दिया. मुझे समझ नहीं आ रहा, क्या करें, इस मुसीबत से कैसे निकलूं? सलाह दें.

जवाब

दरअसल, 498ए दहेज प्रताड़ना कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था लेकिन आज यह कानून, कवच बनने के बजाय हथियार बन गया है जो कानूनी आातंक का रूप ले रहा है. आप की पत्नी की तरह अनेक पत्नियां इस कानून का दुरुपयोग पतिपत्नी के बीच के अहं, पारिवारिक विवाद, अलग रहने की इच्छा, संपत्ति में हक की चाहत आदि के लिए करती हैं. झूठे मुकदमे दर्ज करवाने के मामले अब बहुत सुनने में आ रहे हैं जो न केवल निराधार होते हैं बल्कि उन के पीछे गलत इरादे होते हैं. ऐसे मुकदमे दर्ज कराने का मकसद पैसा कमाना भी होता है. लेकिन अगर आप सही हैं तो डरे नहीं और पत्नी के खिलाफ सुबूत इकट्ठा करें. वैसे भी,

2 जुलाई, 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने दहेज से जुड़े श्वेता किरन के मामले में निर्णय सुनाते हुए कहा है कि 498ए कानून के अंतर्गत की गई शिकायत में कोई भी गिरफ्तारी तब तक नहीं हो सकती जब तक कोई 2 सुबूत या गवाह उपलब्ध न हों. ऐसा निर्णय इसलिए दिया गया ताकि असंतुष्ट व लालची पत्नियां इस कानून का दुरुपयोग न कर सकें और न ही पति को ब्लैकमेल कर सकें.

क्या जस्टिस खन्ना होंगे देश के अगले मुख्य न्यायाधीश

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लोकसभा चुनाव में अपनी आम आदमी पार्टी का प्रचार करने के लिए अंतरिम जमानत देने वाली बेंच के जज संजीव खन्ना की चर्चा बतौर सुप्रीम कोर्ट के अगले चीफ जस्टिस के रूप में होने लगी है. संजीव खन्ना वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं. सीजेआई चंद्रचूड़ का कार्यकाल नवंबर 2024 को पूरा हो रहा है, माना जा रहा है कि उनके बाद जस्टिस खन्ना 10 नवंबर 2024 से 13 मई 2025 तक सीजेआई के रूप में न्यायालय का दायित्व संभालेंगे.

बताते चलें कि वर्तमान में दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति के अधिकांश मामले जस्टिस संजीव खन्ना की ही अदालत में फैसले का इंतजार कर रहे हैं. बीते दो सालों से इस शराब नीति ने दिल्ली सरकार का चैन छीन रखा है. आप पार्टी के कई बड़े नेता शराब नीति मामले में जेल में बंद हैं. दिल्ली शराब घोटाले में दो केस चल रहे हैं. एक केस सीबीआई ने दर्ज किया था और दूसरा केस ईडी की तरफ से दर्ज किया गया था. दोनों जांच एजेंसियों ने दिल्ली शराब नीति मामले में कई कार्रवाइयां की हैं. पिछले वर्ष पार्टी और उसके वरिष्ठ नेताओं की कानूनी लड़ाइयों में असफलताओं का अंबार लगा रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर, विभिन्न अदालतों और विभिन्न न्यायाधीशों ने कई मौकों पर उन्हें राहत देने से इनकार कर दिया है. जानकार मानते हैं कि इसके पीछे केंद्रीय सत्ता का भारी दबाव काम कर रहा है. इंडिया गठबंधन को कमजोर करने और केजरीवाल सरकार को घेरने, तोड़ने और बदनाम करने में शराब घोटाला मामला इस लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के हाथ में सबसे बड़ा हथियार है. इस घोटाले की चर्चा भाजपा हर मंच से करती है और केजरीवाल और उनकी सरकार को महाभ्रष्ट का तमगा पहनाती है.

इस तथाकथित घोटाले के कई मामले शीर्ष अदालत में पहुंचे, जहां न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली पीठों ने रोस्टर के अनुसार उनकी सुनवाई की. कौन सा न्यायाधीश किस मामले की सुनवाई करेगा इसका रोस्टर भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा तय किया जाता है. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से संबंधित कानूनी कार्यवाही न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के समक्ष चल रही है, अतः यह कहना उचित ही होगा कि आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भविष्य की चाबी उनके पास है. दिल्ली की जनता और आम आदमी पार्टी को उन से इंसाफ मिलने की उम्मीद है.

जस्टिस संजीव खन्ना करीब पांच साल पहले जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में जज बने थे. वह जस्टिस हंसराज खन्ना के रिश्तेदार हैं, जिन्होंने आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से इस्तीफा दे दिया था. जस्टिस संजीव खन्ना का जन्म 14 मई 1960 को हुआ था और उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की. उनके पिता, न्यायमूर्ति देव राज खन्ना, 1985 में दिल्ली उच्च न्यायालय से न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए, जबकि उनकी माँ, सरोज खन्ना दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज में हिंदी व्याख्याता थीं. संजीव खन्ना ने वर्ष 1983 में दिल्ली की जिला अदालत में प्रैक्टिस शुरू की थी और फिर दिल्ली हाईकोर्ट और ट्रिब्यूनल्स में वकालत की. उन्होंने संवैधानिक कानून, डायरेक्ट टैक्स, मध्यस्थता और कमर्शियल मामलों, कंपनी लॉ, भूमि कानून, पर्यावरण और प्रदूषण कानून एवं चिकित्सकीय लापरवाही से जुड़े केस में वकालत की है. उन्होंने दिल्ली न्यायिक अकादमी, दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र और जिला अदालत मध्यस्थता केंद्रों जैसे संस्थानों में सक्रिय रूप से योगदान दिया. उन्होंने आपराधिक कानून मामलों में अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में दिल्ली सरकार में भी काम किया. न्यायमूर्ति खन्ना करीब सात साल तक दिल्ली के आयकर विभाग के वरिष्ठ स्थायी वकील भी रहे. 2004 में, उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय में नागरिक कानून मामलों के लिए दिल्ली के स्थायी वकील के रूप में नियुक्त किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बनने से पहले, जस्टिस खन्ना 2005 से 14 वर्षों तक दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे.

सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मौजूद जस्टिस खन्ना की डिटेल्स के मुताबिक, उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में एडीशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और कई आपराधिक मामलों में कोर्ट की तरफ से न्याय मित्र के रूप में बहस की थी. टैक्सेशन के मामलों में उन्हें काफी महारत हासिल है और उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के लिए सीनियर स्टैंडिंग काउंसिल के रूप में सात साल तक काम किया है.

जस्टिस खन्ना को जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में उनकी नियुक्ति पर काफी विवाद भी हुआ था क्योंकि उम्र और अनुभव में उनसे वरिष्ठ 33 जजों के लाइन में होने के बावजूद उन्हें सीधे सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया था. मगर यह नियुक्ति उनकी काबिलियत को देखते हुए की गयी थी.

अप्रैल 2024 में जस्टिस खन्ना ने वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीटी) और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में डाले गए वोटों के क्रॉस-वेरिफिकेशन से जुड़ी याचिका को खारिज कर दिया था. यह मामला भी काफी चर्चा में रहा. उन्होंने अपने फैसले में ईवीएम की पवित्रता और देश के चुनाव आयोग पर भरोसे को लेकर विस्तार से लिखा है. मार्च में जस्टिस खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े कानून पर रोक लगाने से जुड़ी याचिका को भी खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए रोक लगाना सही नहीं है. हालांकि अदालत ने जल्दबाजी में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सरकार की आलोचना भी की.

बीते दिनों लोकसभा चुनाव की दुदुम्भी बजने से ठीक पहले चुनावी बांड की वैधता मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने जो फैसला दिया वह भाजपा के गले की हड्डी साबित हुआ. एसबीआई पर इतने कोड़े फटकाये कि किस राजनीतिक पार्टी को कितना चन्दा मिला और कहाँ कहाँ से मिला, इसकी पूरी जानकारी बैंक कोर्ट के पटल पर रखने को मजबूर हुआ. सुप्रीम कोर्ट के सभी पांचों जजों ने एक राय से चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. यह ऐतिहासिक फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल थे. चुनावी प्रक्रिया में ‘सफाई’ को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पीछे तीन महीने की अथक मेहनत लगी. सुप्रीम कोर्ट के 232 पेज के फैसले में सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने 158 पेज लिखे और बाकी जस्टिस संजीव खन्ना ने लिखे थे.

चुनाव आयोग की राजा से दोस्ती, विपक्षी से बैर

चुनावी खर्च जिस तरह बेलगाम होते जा रहे हैं उस पर यह एक टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है, “बेहतर होगा कि चुनाव आयोग इन मामलों की खुद जांच करे. पता लगाए कि अवैध बरामदगी के पीछे कौन सा प्रत्याशी या दल है और फिर उस के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो. इस तरह की सख्ती के बिना चुनावों में धनबल का दखल नहीं रुकेगा.
“यह सही है कि चुनाव में धनबल का प्रयोग रोकने के लिए चुनाव आयोग की सतर्कता बढ़ी है लेकिन यह सिर्फ धरपकड़ तक सीमित है. ऐसे मामलों में सजा की दर बहुत कम है, क्योंकि चुनाव के बाद स्थानीय प्रशासन और पुलिस मामले को गंभीरता से नहीं लेते. अकसर असली सरगना छुटभैयों को फंसा कर बच जाते हैं.”

-बृजेश माथुर (सोशल मीडिया से)

दरअसल, लोकतंत्र का महाकुंभ कहलाने वाले लोकसभा चुनाव में आज जिस तरह करोड़ों रुपए प्रत्येक लोकसभा संसदीय क्षेत्र में खर्च हो रहे हैं उस से साफ हो जाता है कि आम आदमी या कोई सामान्य योग्य व्यक्ति संसद में पहुंचने के लिए 7 जन्म लेगा तो भी नहीं पहुंच पाएगा.

लोकसभा चुनाव 2024 में माना जा रहा है कि खर्च के मामले में पिछले सारे रिकौर्ड ध्वस्त हो जाएंगे और दुनिया का सब से बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले भारत राष्ट्र में चुनावखर्च अपनी पराकाष्ठा पर होंगे अर्थात भारत दुनिया की सब से खर्चीली चुनावी व्यवस्था होगी.

चुनाव पर गंभीरता से नजर रखने वाले जानकारों के अनुसार इस बार लोकसभा चुनाव 2024 में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.
दरअसल, चुनाव को विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो राजनीतिक दलों और संगठनों, उम्मीदवारों, सरकार और निर्वाचन आयोग सहित चुनावों से संबंधित प्रत्यक्ष या परोक्ष सभी खर्च शामिल हैं. चुनाव संबंधी खर्चों पर बीते 4 दशकों से नजर रख रहे गैरलाभकारी संगठन के अध्यक्ष एन भास्कर राव के दावे के अनुसार लोकसभा चुनाव में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है.

विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में राजनीति वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी का खुलासा हुआ है. चुनावी बौंड के खुलासे से साफ हो गया है कि पार्टियों के पास खुल कर खर्च करने के लिए धन है. राजनीतिक दलों ने उस धन को खर्च करने के रास्ते तैयार कर लिए हैं.

जैसा कि हम जानते हैं देश में कालेधन की बात की जाती है, भ्रष्टाचार की बात की जाती है. ये सबकुछ चुनाव के दरमियान देखा जा सकता है और चौकचौराहे पर इस पर चर्चा होने लगी है कि आखिर प्रमुख राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी करोड़ों रुपए जो खर्च कर रहे हैं वह आता कहां से है मगर इस दिशा में न तो सरकार ध्यान दे रही है और न ही चुनाव आयोग या फिर उच्चतम न्यायालय या सरकार की कोई जांच एजेंसी ही.

जहां तक बात है भारतीय जनता पार्टी की, इस चुनाव में सत्ता प्राप्त करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी वह सबकुछ कर रही है जो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. इस का आज की तारीख में आकलन नहीं लगाया जा सकता. हो सकता है आने वाले समय में इस का खुलासा हो पाए कि भाजपा ने लोकसभा 2024 चुनाव में कितना खर्च किया. माना जा रहा है चुनावप्रचार में हो रहे खर्च के मामले में यह पार्टी देश के विपक्षी पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ देगी.

एनजीओ के माध्यम से इस पर निगाह रखने वाले संगठन के पदाधिकारी के मुताबिक, उन्होंने प्रारंभिक व्यय अनुमान को 1.2 लाख करोड़ रुपए से संशोधित कर 1.35 लाख करोड़ रुपए कर दिया, जिस में चुनावी बौंड के खुलासे के बाद के आंकड़े और सभी चुनाव संबंधित खचों का हिसाब शामिल है.

एक अन्य संगठन ने हाल में भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी की ओर इशारा किया था. उन्होंने दावा किया कि 2004-05 से 2022-23 तक, देश के 6 प्रमुख राजनीतिक दलों को कुल 19,083 करोड़ रुपए का लगभग 60 फीसद योगदान अज्ञात स्रोतों से मिला, जिस में चुनावी बौंड से प्राप्त धन भी शामिल था.
इसी तरह विदेश में बैठे भारत के चुनाव पर निगाह रखने वाले सम्मानित संगठन के अनुसार, “भारत में 96.6 करोड़ मतदाताओं के साथ प्रति मतदाता खर्च लगभग 1,400 रुपए होने का अनुमान है.” उस ने कहा कि यह खर्च 2020 के अमेरिकी चुनाव के खर्च से ज्यादा है, जो 14.4 अरब डौलर या लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपए था.

एक विज्ञापन एजेंसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमित वाधवा के मुताबिक, लोकसभा 2024 के इस चुनाव में डिजिटल प्रचार बहुत ज्यादा हो रहा है. उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल कौर्पोरेट ब्रैंड की तरह काम कर रहे हैं और पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं.

इस तरह लोकसभा चुनाव, जो आज हमारे देश में लड़ा जा रहा है, में राजनीतिक पार्टियां सत्ता प्राप्त करने के लिए सीमा से अधिक खर्च कर रही हैं. यह सभी मान रहे हैं कि ऐसे में अगर हम नैतिकता की बात करें तो जब कोई पार्टी या प्रत्याशी करोड़ों रुपए खर्च कर के चुनाव जीतते हैं तो स्पष्ट है कि वे आम जनता के लिए उत्तरदाई नहीं हो सकते. वे पहले अपना लगाया पैसा वसूलने की कोशिश ही करते हैं या जिन लोगों ने उन्हें रुपएपैसे की मदद की है तो फिर चुने हुए प्रतिनिधि निश्चित रूप से उन्हीं के लिए काम करेंगे.

मंदाकिनी मामले से उजागर हुआ कि महामंडलेश्वर बनने के लिए मारामारी और घूसखोरी क्यों

पैसा कलियुग का ही नहीं, बल्कि हर युग का भगवान रहा है, जिस का एक रूप घूस है जो आमतौर पर बुरी मानी जाती है. घूस का चलन दरअसल धर्म से ही आया है. भगवान से देवीदेवताओं से कोई काम कराना हो तो घूस पंडेपुजारियों के जरिए दी जाती है, जो ऊपर नहीं जाती बल्कि नीचे लेने वाले की रोजीरोटी और ऐशोआराम की जिंदगी का जरिया होती है. लड़की की शादी से बच्चे पैदा होने तक घूस दी जाती है.

मानव जीवन का ऐसा कोई काम नहीं है जो धार्मिक रिश्वत से न होता हो. यह और बात है कि जिन के काम नहीं होते वे अपने भाग्य और कर्मों को कोसते हल्ला नहीं मचाते और जिन के इत्तफाक से हो जाते हैं वे चिल्लाचिल्ला कर दुनिया को बताते हैं कि देखो, मैं ने दान दिया और मैं सरकारी अफसर बन गया.

यह भी और बात है कि अकसर इस यजमान ने नीचे वालों को भी घूस दी हुई होती है. लेकिन वह इन दिखने वालों के बजाय श्रेय न दिखने वाले ऊपरवाले को देता है. यानी घूस नीचेऊपर दोनों जगह चलती है. फर्क सिर्फ इतना है कि ऊपरवाले को दी गई घूस दक्षिणा कहलाती है और जो इसे ऊपर तक पहुंचाने का जिम्मा लेता है उसे दलाल नहीं बल्कि पुजारी या पंडा कहा जाता है. घूस का यह कारोबार खरबों का है जिस से लाखोंकरोड़ों के पेट पल रहे हैं.

धार्मिक घूस पंडे और मंदिर की हैसियत के मुताबिक दी जाती है. छोटे मंदिर में 11 से ले कर 101 रुपए में काम चल जाता है तो ब्रैंडेड मंदिरों में लाखोंकरोड़ों की घूस दी जाती है. यहां भक्त यानी ग्राहक की हैसियत अहम हो जाती है, वरना तो भगवान अगर होता तो दोनों ही जगह एक ही रहता, फर्क भव्यता, शो बाजी और झांकी का रहता है.

महामंडलेश्वर बनने को भी घूस

घूस का यह दिलचस्प मामला धार्मिकनगरी महाकाल से उजागर हुआ है जिस में एक छोटी हैसियत वाले पंडे ने अपग्रेड होने के लिए एक महामंडलेश्वर को घूस दी लेकिन काम नहीं बना तो पोलपट्टी खुल गई. घूस लेने वाली महिला का नाम है मंदाकिनी पुरी देवी, जिन का सांसारिक नाम ममता जोशी है. भरेपूरे बदन वाली अधेड़ मंदाकिनी के चेहरे से ही तेज टपकता दिखता है जो त्याग, तपस्या का है या कौस्मेटिक आइटम का, यह तय कर पाना मुश्किल है.

कुछ दिनों पहले तक वे निरंजनी अखाड़े की महामंडलेश्वर हुआ करती थीं. इस नाते उन का रुतबा ही कुछ जुदा था. जहां से मंदाकिनी गुजरती थीं, भक्त उन के चरणों में बिछ जाते थे. छोटेमोटे पंडेपुजारी उन की नजदीकियां पा कर खुद को ठीक वैसे ही धन्य समझते थे जैसे कोई पटवारी या तहसीलदार कलैक्टर का सान्निध्य पा कर रोमांचित हो जाता है.

बीती 6 मई को न केवल उज्जैन बल्कि देशभर के धार्मिक गलियारों में उस वक्त सनसनी मच गई जब उज्जैन के चिमनगंज थाने में महामाया आश्रम के एक संत सुरेश्वरा नन्द ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि निरंजनी अखाड़े की महामंडलेश्वर मंदाकिनी पुरी और उन के 2 सहयोगियों ने मुझ से 15 अप्रैल को 7.50 लाख रुपए श्रीपंचायती निरंजनी अखाड़े का महामंडलेश्व बनवाने के नाम पर ले लिए लेकिन बनवाया नहीं और न ही मांगने पर दिए गए पैसे वापस लौटाए.

शिकायतकर्ताओं की लाइन

इस शिकायत पर पुलिस ने मंदाकिनी के खिलाफ धारा 420 के तहत मामला दर्ज कर लिया. लेकिन गिरफ्तार कर पाती, इस के पहले ही इस देवी माता ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की. चूंकि अभी ऊपर से बुलावा नहीं आया था या शायद जहर ही घटिया क्वालिटी का था, इसलिए उज्जैन के सरकारी अस्पताल में मामूली दवादारू से ही वे बच गईं.

बच तो गईं लेकिन हल्ला मचते ही उन के खिलाफ शिकायत करने वालों की लाइन लग गई. इन में से एक है नर्मदाशंकर जो जयपुर के अखाड़े से ताल्लुक रखता है. बकौल नर्मदाशंकर, मंदाकिनी देवी ने उस से 10 – 20 लाख रुपए अखाड़े में प्रमोशन यानी आचार्य महामंडलेश्वर बनवाने की बाबत मांगे थे जिस में से मैं ने 8 लाख 90 हजार रुपए 7-8 महीने में उन के बैंकखातों में ट्रांसफर भी किए थे. इस के पहले वे पटाभिषेक और भंडारे के नाम पर मुझ से 2.5 लाख रुपए ले चुकी थीं. यह एफआईआर उज्जैन के ही महाकाल थाने में दर्ज हुई.

इस के बाद तो शिकायत करने वालों की लाइन लग गई मानो कोई चिटफंड कंपनी लोगों का पैसा ले कर भाग गई हो और एक के शिकायत करने के बाद सैकड़ों लोग थाने के बाहर फरियाद ले कर पहुंच जाते हैं कि साहब, हम ने भी इतने लाख या हजार रुपए इन्वैस्ट किए थे.

नौकरी दिलाने वाले गिरोह के मामलों में भी यही होता है कि ठगाए गए लोग एक के बाद एक थाने के बाहर रोती सूरत लिए खड़े नजर आते हैं कि हमें भी नौकरी दिलाने के नाम पर इतना या उतना चूना लगाया गया था. यही लुटेरी दुलहनों के मामलों में होता है कि दोचार दूल्हे शिकायत ले कर पहुंच जाते हैं कि हम तो सुहागरात भी ढंग से नहीं मना पाए थे कि चंद घंटों की बीवी लाखों के गहने और नकदी ले कर चम्पत हो गई.

लूटे गए शिकायतकर्ता

मंदाकिनी के मामले में तीसरे शिकायतकर्ता मोन तीर्थ के महामंडलेश्वर सुमनानन्द थे जिन्हें राज्यपाल बनवाने का औफर मंदाकिनी ने यह कहते दिया था कि मैं अमित शाह से बात करूंगी. यहां से खुलती है इन धर्माचार्यों की महत्त्वाकांक्षाओं की पोल. उन की विलासी जिंदगी की हकीकत जो धर्म का वीभत्स सच है.
इस महामंडलेश्वर को शेर की खाल पर बैठने का न केवल मंदाकिनी ने मशवरा दिया था बल्कि हरिद्वार से 5 लाख रुपए में इसे अरेंज करने का वादा भी किया था. यह डील परवान चढ़ी या नहीं, इस बाबत सुमनानंद कुछ नहीं बोले. एक और महामंडलेश्वर अन्नपूर्णा उर्फ़ वर्षा नागर की मानें तो मंदाकिनी ने उस से 35 लाख रुपए मांगे थे और वादा यह किया था कि वे उसे गौ संवर्धन बोर्ड का अध्यक्ष बनवा देंगी.

ओहदों का लालच

क्या ये लोग मंदाकिनी से कम दोषी नहीं जो रिश्वत दे कर बड़े धार्मिक और राजनीतिक ओहदे हासिल करने के ख्वाहिशमंद थे. क्या यही भगवान की भक्ति या सेवा है, यह तो अब आम भक्तों के सोचने की बात है कि इन साधुसंतोंसंयासियों के पास इतना पैसा आता कहां से है जो ये अपनी ही बिरादरी की एक संयासिन को लाखों की घूस दे रहे थे.

भक्तों को मोहमाया से दूर रहने और पैसे को हाथ का मेल बताने वाले ये मठाधीश लालच और मुफ्त की कमाई की कितनी गहरी दलदल में धंसे हैं, यह वे खुद अपने मुंह से स्वीकार रहे हैं. इस के बाद भी इन्हें पूजा जाता है, इन के पैरों में भक्त लोट लगाते हैं तो वे भी कम गुनाहगार नहीं कहे जा सकते. जो समाज खुद लालची, भाग्यवादी और अंधविश्वासी होगा, उस के धर्मगुरु भी वैसे ही होंगे और यह आज का नहीं बल्कि सदियों का सनातनी सच है.

इस कड़वे सच की अगली कड़ी हैं एक कथावाचक भगवान बापू. उस ने भी महामंडलेश्वर बनने के लिए मंदाकिनी से 15 लाख रुपए में सौदा किया था और एक लाख रुपए एडवांस दे भी दिए थे. मुमकिन है भगवान के कुछ और भक्त भी प्रगट हों जो भगवान की ही इस भक्तिन के हाथों ठगाए गए हों लेकिन हल्ला मचने के बाद मंदाकिनी से ताल्लुक रखती कई बातें सुर्खियों में हैं, मसलन यह कि वे महाकाल थाने के बाहर धरना दे कर बैठ जाती थीं. एक बार उस ने महाकाल मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश न मिलने पर भी जम कर हंगामा मचाया था और एक बार उस के साथ छेड़छाड़ भी हुई थी.

विकट की महत्त्वाकांक्षी यह देवी दरअसल रामदेव की तर्ज पर आयुर्वेद का धंधा कर उन्हीं की तरह अरब खरबपति बन जाना चाहती थी. इस बाबत उस ने जयपुर की एक हर्बल कंपनी से आयुर्वेद के प्रोडक्ट खरीद कर अपना फोटो और लेबल मां आरोग्य मंदाकिनी नाम से लगा कर बेचना शरू कर दियाथा. ये प्रोडक्ट नहीं बिके तो उस ने इस कंपनी के भी 2 लाख रुपए हड़प लिए. अब इस कंपनी के मालिक संदीप शर्मा ने अखाड़ा परिषद को आवेदन दिया है कि वह बकाया पेमैंट करे.

महामंडलेश्वर यानी दौलत और शोहरत की गारंटी

यह सारे फर्जीवाड़े में संभावना इस बात की ज्यादा दिख रही है कि यह संतों की आपसी गुटबाजी का नतीजा हो. सच जो भी हो लेकिन मंदाकिनी पुरी को महामंडलेश्वर बनाने वाले अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविन्द्र पुरी का रोल इस में अहम रहा जिन की अगुआई में मंदाकिनी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई.

7 मई को ही अखाड़ा परिषद ने मंदाकिनी को निष्कासित कर दिया था ठीक वैसे ही जैसे घूसखोर मुलाजिम को सस्पैंड कर दिया जाता है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मंदाकिनी अस्पताल में इलाज करवा रही थी और किसी को पहचान नहीं पा रही थी जिस से पुलिस उस के बयान नहीं ले पाई.

सारे बखेड़े से उजागर यह भी होता है कि महामंडलेश्वर बन जाने से संत समुदाय कुछ भी कर गुजरने और घूस देने को भी तैयार रहता है. जाहिर है, इस से कुछ नहीं बल्कि कई फायदे होते हैं जैसे पूछपरख बढ़ जाती है, रुतबा और रसूख बढ़ जाते हैं और इन से भी ज्यादा अहम बात यह कि दानदक्षिणा ज्यादा मिलने लगती है.

पद की अहमियत

महामंडलेश्वर का पद आदि शंकराचार्य ने सृजित किया था जिस का मकसद सनातन धर्म के प्रचारप्रसार के अलावा विभिन्न परंपराओं और मतों के संयासियों को एकजुट रखना भी था जो अकसर छोटेबड़े के नाम पर झगड़ा किया करते थे. इस के लिए विभिन्न अखाड़े भी वजूद में आए थे. पुराने दौर में साधुसंतों की मंडलियां हुआ करती थीं और जो मंडली का संचालन करता था. उसे मंडलीश्वर कहा जाता था. यह शब्द या उपाधि वक्त के साथ महामंडलेश्वर हो गया.

पहले यह पद उसी को दिया जाता था जिसे धर्मग्रंथों, खासतौर से वेदों और गीता, का ज्ञान होता था. जब दुकानें बढ़ने लगीं तो अखाड़ा कमेटियां भी बनने लगीं जो महामंडलेश्वर का चुनाव करती थीं. नागा, शैव और वैष्णव के साथसाथ दूसरे संप्रदायों के कितने अखाड़े और कितने महामंडलेश्वर हैं, इस का ठीकठाक आंकड़ा उपलब्ध नहीं लेकिन घोषिततौर पर 13 अखाड़े हैं जिन में 1,000 से भी ज्यादा महामंडलेश्वर हैं. लेकिन अब हर कोई महामंडलेश्वर बन सकता है. राधे मां भी महामंडलेश्वर थीं. हालांकि अखाड़ों का अपना एक स्ट्रक्चर यानी पदक्रम होता है जिस में अलगअलग पदनाम सीनियरटी और जूनियरटी से होते हैं.

आचार्य महामंडलेश्वर का पद महामंडलेश्वर से भी बड़ा होता है जिसे हासिल करने को नर्मदाशंकर ने मंदाकिनी को घूस दी थी. जाहिर है, सरकारी दफ्तरों की तरह अखाड़ों में भी आउट औफ टर्न प्रमोशन के दांवपेंच यथा रिश्वत और सिफारिश वगैरह चलते हैं. कुंभ के मेले में शाही स्नान के वक्त महामंडलेश्वर को प्राथमिकता दी जाती है जिसे ले कर हर कुंभ विवाद हुआ करते हैं कि पहले यह अखाड़ा डुबकी लगाएगा, फिर वह और फिर वह लगाएगा. बहुत आसान तरीके से समझें तो किसी पुलिस इंस्पैक्टर के एसपी बन जाने से इस की तुलना की जा सकती है जिसे बंगला, कार, दफ्तर में आलीशान चैंबर, अर्दली, ड्राइवर और दूसरी दर्जनों सहूलियतें मिली होती हैं. पगार और अधिकार तो ज्यादा होते ही हैं. मंदाकिनी के मामले ने तो धर्म की दुनिया की एक सचाई उजागर की है कि भक्तों के पैसों से चलने और पलने वाले महामंडलेश्वरों की वास्तविकता क्या है.

कश्मीर से भाजपा ने अपने कैंडिडेट नहीं उतारे, जानें क्या है वजह

कश्मीर का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के लिए अस्मिता का कहा जा सकता है. कश्मीर को ले कर भाजपा ने राजनीति करने और जनभावनाओं को नएनए मोड़ देने का काम सदैव किया. मगर सवाल यह है कि लोकसभा 2024 के चुनाव में ‘कश्मीर’ में उस ने अपने प्रत्याशी क्यों नहीं उतारे हैं? यह सवाल देश के बहुत से लोगों को मालूम ही नहीं है. आइए, आज देश के सब से सरगर्म विषय कश्मीर पर कुछ नई जानकारियां आप को देते हैं.

अमेठी से राहुल गांधी चुनाव नहीं लड़ रहे तो नरेंद्र मोदी कह रहे हैं, ‘राहुल गांधी डर गए, डरो मत, भागो मत.’

मगर कश्मीर से भारतीय जनता पार्टी स्वयं पलायन कर गई और वहां की तीनों महत्त्वपूर्ण लोकसभा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा. इस पर कुछ भी कहने से बचा जा रहा है. सवाल है क्या भारतीय जनता पार्टी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कश्मीर में चुनाव नहीं लड़े तो आखिर किस बात का डर था?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया, ‘लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अब तक की सब से कम सीटों पर सिमट जाएगी. देश की सब से पुरानी पार्टी आम चुनाव में ‘अर्धशतक’ का आंकड़ा पार करने के लिए संघर्ष कर रही है.’

नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से चुनाव लड़ने के फैसले पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर तंज कसा और कहा, ‘अरे, डरो मत, भागो मत.’ फिर कहा, ‘वैसे वायनाड में ‘हार के डर’ से राहुल ने यह कदम उठाया है.’

बर्द्धमान-दुर्गापुर और कृष्णानगर लोकसभा क्षेत्रों में रैलियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी का नाम लिए बगैर कहा, ‘उन्होंने पहले ही बता दिया था कि ‘शहजादे’ वायनाड में हारने वाले हैं. वायनाड में जैसे मतदान समाप्त होगा, हार के डर से वे तीसरी सीट खोजने लग जाएंगे. राहुल अमेठी से भी इतना डर गए कि वहां दोबारा जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए.’

उन्होंने कहा, ‘ये लोग घूमघूम कर सब से कहते हैं ‘डरो मत.’ मैं भी इन्हें कहता हूं, ‘अरे, डरो मत. भागो मत.’

प्रधानमंत्री ने इस के साथ पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर भी निशाना साधा और कहा, ‘उन्होंने 3 महीने पहले ही दावा किया था कि कांग्रेस की सब से बड़ी नेता इस बार चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं करेंगी. वे भाग कर राजस्थान गईं और राज्यसभा में आईं.’

मजे की बात यह है कि यह जो भाषण नरेंद्र मोदी दे रहे हैं उस में राहुल गांधी का नाम नहीं ले रहे हैं तो क्या वे राहुल गांधी का नाम लेने से भी डरते हैं? इस का जवाब भी उन्हें देना चाहिए.

भाजपा और कश्मीर

देश जानता है कि कश्मीर पर नरेंद्र मोदी की सरकार की दृष्टि सतत रही है और वे धरती के स्वर्ग पर भारतीय जनता पार्टी का झंडा लहराना चाहते हैं, विधानसभा में भी और लोकसभा में भी. मगर मजे की बात यह है कि 2024 की लोकसभा चुनाव में कश्मीर की तीनों सीटों से भाजपा पलायन कर गई और अपना प्रत्याशी खड़ा नहीं करने का फैसला किया.

नरेंद्र मोदी बीजेपी को दुनिया की सब से बड़ी पार्टी बताने से गुरेज नहीं करते. मगर कश्मीर में चुनाव लड़ने से अपने कदम पीछे हटा लिए तो उस का सीधा सा मतलब है कि वे जानते थे कि यहां भाजपा बुरी तरह हारने वाली है.

सारी दुनिया को पता है भाजपा ने 2019 में जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाई थी. साथ ही, आतंकवाद में कमी, आर्थिक निवेश बढ़ाने और पर्यटन के विकास का दावा किया था. मगर जब लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजी, सब आश्चर्य में रह गए क्योंकि भाजपा ने यहां से आंखें मूंद लीं. मनु भाजपा शुतुरमुर्ग बन गई.

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से नहीं बल्कि कश्मीर के प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र रैना से कहलवाया गया कि भाजपा श्रीनगर, बारामूला और अनंतनाग-राजौरी की सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारेगी. सनद रहे कि जम्मूकश्मीर 2019 से पहले जब पूर्ण राज्य था तो यहां लोकसभा की कुल 6 सीटें थी. अब लद्दाख अलग संघ शासित क्षेत्र है और जम्मूकश्मीर अलग संघ शासित क्षेत्र. जम्मू और ऊधमपुर की सीटें हैं तो लद्दाख की सीट अलग है.

दरअसल, सचाई यह है कि भाजपा ने चुनाव पूर्व सर्वे कराया था, उस में घाटी की तीनों सीटों पर पार्टी की स्थिति कमोबेश कमजोर होने की सामने आई. निश्चित रूप से इसीलिए नरेंद्र मोदी ने हारने से अच्छा इन सीटों पर चुनाव न लड़ना उचित समझा होगा. आने वाले सितंबर 2024 में कश्मीर घाटी में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में भाजपा के सामने यह ऐसी चुनावी बिसात बन गई है जिसे न उगलते बन रहा है, न निगलते.

शादीशुदा जीवन में अंडरस्टैंडिंग नहीं तो मन बाहर वाले के साथ ही हलका होगा

सारंगी के पति मयंक पेशे से डाक्टर हैं. प्रैक्टिस अच्छी चल रही है. अपना नर्सिंगहोम है. पैसे की कमी नहीं है. शादी को 16 साल हो गए हैं. एक बेटा है जो देहरादून के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा है. सारंगी घर का और मयंक का काफी ख़याल रखती है. वह मयंक के दोस्तों और रिश्तेदारों की भी खूब आवभगत करती है. मयंक अपने मरीजों के किस्से उस को सुनाता है. दोस्तों की बातें बताता है. पौलिटिक्स और क्रिकेट की बात करता है. वह बड़े ध्यान से सुनती है. होंठों पर मुसकान सजाए उस की हां में हां मिलाती है, मगर खुद उस के पास मयंक से कहनेबोलने को कुछ नहीं होता.

मयंक अपने दोस्तों से सारंगी की खूब तारीफ करता है. कहता है, ‘मेरी पत्नी बहुत समझदार है. एंड शी इज अ गुड लिस्नर औल्सो.’ इस तारीफ को सुन कर सारंगी मन ही मन सोचती है, ‘तुम से क्या बात करूं, तुम मुझे जानते ही कितना हो?’

दरअसल, शादी के इतने साल साथ रहने के बाद भी मयंक सारंगी की पसंदनापसंद को समझ नहीं पाया. वह अपने काम में ही मशगूल रहता है. शाम को आता है तो उस के पास अपनी बातें होती हैं, वह कभी सारंगी से नहीं पूछता कि तुम क्या सोचती हो? सारा दिन घर में अकेले रहती हो तो क्या करती हो? टीवी पर कौन से शो देखती हो? पढ़ने का मन करता है तो क्या पढ़ती हो?

शुरूशुरू में उस ने सारंगी के दोस्तों के बारे में जानना चाहा. कुछ दूर और पास के रिश्तेदारों के बारे में जाना. बस, सारंगी को ही नहीं जान पाया. अब सारंगी चाहती भी नहीं कि वह उस के बारे में कुछ भी जाने क्योंकि अब उस ने अपनी बातें शेयर करने के लिए कालेजटाइम का एक दोस्त ढूंढ लिया है, अरुण नायर.

अरुण आजकल दिल्ली में थिएटर कर रहा है. कालेजटाइम से उस को ऐक्टिंग का शौक था. लिखता भी है. सारंगी को भी लिखने और गाने का शौक है. उस ने कई गीत लिखे, गुनगुनाए मगर मयंक को नहीं मालूम. सारंगी ने कभी बताया ही नहीं. बताया इसलिए नहीं क्योंकि मयंक को काव्य की समझ नहीं है. मगर अरुण ने उस के सारे गीत सुने हैं. उन की तारीफ की है. उस की तारीफ से सारंगी का रोमरोम प्रफुल्लित हो उठता है.

मयंक के जाने के बाद वह घंटों अरुण से फोन पर बातें करती है. हर तरह की बातें करती है. दोतीन बार मंडी हाउस अरुण की रिहर्सल भी देखने गई. उस के साथ मार्केट घूमी. उस की पसंद से शौपिंग की. सारंगी को उस का साथ पा कर बहुत अच्छा लगा.

अरुण को भी सारंगी का साथ अच्छा लगता है. वजह यह है कि उस की पत्नी नीलम को ऐक्टिंग में न कोई रुचि है और न समझ. बनिया परिवार की लड़की है. पैसे को दांत से पकड़ती है और उस की सारी सोच बस पैसे के इर्दगिर्द ही घूमती है. उस ने अरुण के कई नाटक देखे और घर आ कर उस के काम की तारीफ या समीक्षा करने के बजाय इस बात पर लड़ती कि नाटक में वह लड़की तुम से इतना क्यों लिपट रही थी? अब तो अरुण ने उस को शो में ले जाना ही बंद कर दिया है.

अरुण और सारंगी दोनों क्रिएटिव और आर्टिस्टिक नेचर के लोग हैं. गूढ़, गंभीर, चीजों को गहराई से समझने वाले अति संवेदनशील. इसलिए दोनों एकदूसरे के साथ काफी कंफर्टेबल हैं और काफी खुले हुए हैं. उन के बीच कोई दुरावछिपाव नहीं है. दोनों को एकदूसरे के साथ की भूख है. मगर यह भूख मानसिक है, शारीरिक नहीं.

मयंक और सारंगी जैसे या अरुण और नीलम जैसे कपल बहुत सारे हैं. दुनिया के सामने वे बेस्ट कपल हो सकते हैं. मगर हकीकत में एक छत के नीचे 2 अनजान व्यक्तियों की तरह होते हैं.

एंजौय करते प्रौढ़ जोड़े

पश्चिमी देशों में युवा जोड़े ही नहीं, बल्कि प्रौढ़ जोड़े भी जिंदगी को एकदूसरे के साथ एंजौय करते हैं. एकसाथ सैरसपाटे के लिए जाते हैं. हंसीमजाक और खूब बातें करते हैं. पार्टी, शराब को इकट्ठे एंजौय करते हैं. एकदूसरे की बांहों में समाए देररात तक डांसफ्लोर पर रहते हैं. एकदूसरे की पसंदनापसंद की परवा करते हैं और एकसाथ काफी कंफर्टेबल होते हैं.

पश्चिमी जोड़े अगर अपना घर तलाश रहे होते हैं तो उस में दोनों की पसंदनापसंद शामिल होती है. जबकि इस के उलट, भारतीय युगल सालदोसाल में ही अपने पार्टनर से इतने उकता जाते हैं कि फिर उन के बीच बात करने का कोई टौपिक ही नहीं होता. वजह यह है कि यहां शादी की नहीं जाती बल्कि थोपी जाती है. 2 अनजान लोग एक तय तारीख के बाद एक कमरे में रहेंगे, सैक्स करेंगे और बच्चे पैदा करेंगे, यह उन के मातापिता और रिश्तेदार तय करते हैं. जिन 2 प्राणियों को कमरे में बंद किया जा रहा है उन की सोच, आदतें, विचारधारा एकदूसरे से भिन्न होती हैं.

प्रेम की पहली सीढ़ी दोस्ती

प्रेम की पहली सीढ़ी दोस्ती होती है. दोस्ती हम उन लोगों से करते हैं जिन के विचार और आदतें हमारे जैसी ही होती हैं. मगर भारत में शादी इस आधार पर नहीं होती. इसीलिए ज्यादातर जोड़ों को असल प्रेम की अनुभूति जीवनभर नहीं होती. दोनों समाज के दबाव में अपना रिश्ता निभाते हैं.

अकसर उन में से एक अपनी सोच को दबा लेता है और रिश्ता न टूटे, इसलिए मौन हो जाता है. यह काम ज्यादातर पत्नियां करती हैं क्योंकि वे ही दूसरे के घर पर रहने आई हैं. जहां से आई हैं, अब वहां उन के लिए पहले जैसा स्थान बचा नहीं, लिहाजा, वे ही एडजस्ट करती हैं, खामोश रह कर. ऐसे कपल के बीच कोई दिल को छूने वाली बात नहीं होती, कोई रोमांच नहीं होता, कोई रोमांस नहीं होता. वे शारीरिक संबंधों को भी मशीनी तरीके से अंजाम देते हैं.

रश्मि कहती है जब वह अपने पति के साथ हमबिस्तर होती है तो उस के खयालों में उस का प्रेमी होता है. वह कल्पना करती है कि वह उस के साथ समुद्र की लहरों पर खेल रही है. वह उस को हौले से स्पर्श कर रहा है. उस के कानों में अपनी बातों का रस घोल रहा है. वह जब तक मानसिक रूप से अपने प्रेमी को अपनी कल्पना में न लाए पति के साथ सैक्स के लिए तैयार ही नहीं हो पाती है.

एक ट्रेडिंग कंपनी के मालिक श्रीकांत गुप्ता उन की कंपनी में काम करने वाली रजनीबाला के साथ सारा समय बिताते हैं. रजनी उन से उम्र में काफी छोटी है मगर बातचीत और जानकारी में दोनों का लैवल बराबर है. यहां तक कि घर आने के बाद भी श्रीकांत गुप्ता पूरे वक़्त रजनी के साथ फोन पर बात करते रहते हैं. पत्नी के लिए उन के पास कुछ ही वाक्य हैं, जैसे खाना लगा दो. कल के लिए मेरे कपड़े निकाल दो या मैं सोने जा रहा हूं, लाइट औफ कर दो.

भारत में ज्यादातर पत्नियां पति का सम्मान करती हैं, उन को अपना मालिक समझती हैं, उस की हर बात का पालन करती हैं, तीजत्योहार, व्रत आदि को उसी तरह संपन्न करती हैं जैसे पति की मां करती आई हैं. वे पति के घर में रहती हैं, पति उन का खर्च उठाता है. वे पति के बच्चे पैदा करती हैं. पति के घर में नौकरों से ज़्यादा काम करती हैं, मगर प्रेम नहीं करतीं.

किसी दूसरे के घर का नौकर बनने से प्रेम नहीं होता. प्रेम तब होता है जब दोनों आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से और भावनात्मक रूप से एकजैसे हों. प्रेम तब होता है जब दोनों एकदूसरे के दोस्त हों. एकदूसरे के गुणोंअवगुणों को जानते हों और स्वीकार करते हों. भारत में शादी के सालदोसाल बाद या बच्चे हो जाने के बाद पतिपत्नी के बीच कोई आकर्षण नहीं बचता. यहां तक कि वे साथ बैठ कर कोई टीवी शो भी एंजौय नहीं करते. पहले औरतें घुटघुट कर जीती थीं मगर मोबाइल फ़ोन मिल जाने से कुछ राहत मिली है और अनेक औरतें दिल की बातें दोस्तों से, पुराने प्रेमी से या किसी सहेली से कर के हलकी हो जाती हैं.

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