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‘चारधाम यात्रा’ मोक्ष के चक्कर में बेमौत मर रहे श्रद्धालु

शादाब शम्स एक बेहद वफादार भाजपाई नेता और विकट के मोदीभक्त हैं. उत्तराखंड भाजपा के प्रवक्ता रहे शादाब को 2 साल पहले उत्तराखंड वक्फ बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया है. 15 मई को वे रुड़की स्थित पिरान कलियर दरगाह साबिर पाक में खासतौर से गए थे जहां उन्होंने चादरपोशी के बाद लंगर भी खिलाया और अपने अल्लाहतआला से दुआ मांगी कि नरेंद्र मोदी ही तीसरी बार प्रधानमंत्री बनें क्योंकि न केवल देश को, बल्कि दुनिया को भी उन की जरूरत है जो हर लिहाज से बुरे दौर, जंग और अस्थिरता से गुजर रही है.

इस मौके पर नरेंद्र मोदी की तारीफों में कसीदे गढ़ती जम कर कव्वालियां भी हुईं. शादाब उन इनेगिने मुसलिम नेताओं में से एक हैं जो नरेंद्र मोदी को मुसलमानों का सच्चा हमदर्द मानते हैं. वे मानते हैं कि मोदी के राज में मुसलमान खतरे में नहीं हैं.

लेकिन उन्हीं के राज्य उत्तराखंड में हिंदू खतरे में हैं, यह बात उन्होंने ठीक 2 साल पहले खुल कर इन शब्दों में बयां की थी- देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी के आव्हान पर चारधाम यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है. जिन लोगों की यात्रामार्ग में मौत हो जाती है तो, उन के मुताबिक, उन्हें मोक्ष मिलेगा. लोगों की चारधाम के प्रति सच्ची आस्था है.

इस पर कांग्रेस क्यों खामोश रहती, लिहाजा, पलटवार में उस की प्रवक्ता प्रतिमा सिंह ने कहा, ‘चारधाम यात्रा में मोक्ष का मतलब मृत्यु नहीं है बल्कि श्रद्धालु धाम में पहुंच कर अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त कर सुखद जीवन की कामना करता है.’

2022 और 2023 में भी सैकड़ों श्रद्धालु चारधाम यात्रा के दौरान मारे गए थे. इस साल 14 मई को ही यह आंकड़ा दहाई अंक में पहुंच गया है. 10 मई को यह यात्रा शुरू हुई थी और 4 दिनों में ही 11 श्रद्धालु मोक्ष या मृत्यु कुछ भी कह लें को प्राप्त हो चुके थे. अगर हालत यही रही, जिस की उम्मीद ज्यादा है, तो मरने वालों की तादाद कितने सौ पार करेगी, गारंटी से इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहां मामला राजनीति का नहीं, बल्कि धर्म का है.

15 मई तक ही 27 लाख से भी ज्यादा श्रद्धालु चारधाम यात्रा का रजिस्ट्रेशन करा चुके थे. इस संख्या के इस साल 80 लाख तक पहुंचने की संभावना है. यह अपनेआप में एक रिकौर्ड होगा. 15 मई तक ही कोई 2 लाख 76 हजार श्रद्धालु धामों के दर्शन भी कर चुके थे. रोज हजारों नए भक्त पहाड़ों पर पहुंच रहे हैं, वहां गंद और प्रदूषण फैला रहे हैं. इन्हें संभाल पाना किसी सरकार तो दूर की बात है अब भगवान के बस की भी बात नहीं. 11 श्रद्धालु मर चुके थे तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने इन पहाड़ों और उन की दुर्गम यात्रा में बेहाल होंगे.

15 मई को उमड़ी भीड़ से यमुनोत्री धाम के रास्ते पर 4 किलोमीटर लंबा जाम लगा था जिस के चलते श्रद्धालु खानेपीने और मलमूत्र त्यागने तक को तरस गए थे. जैसे ही यमुनोत्री धाम के कपाट खुले, आदत के मुताबिक, लोग मंदिर की तरफ दौड़ पड़े मानो ट्रेन छूटी जा रही हो या हाट लुटी जा रही हो. जगहजगह जाम और बदइंतजामी के चलते प्रशासन ने औफलाइन रजिस्ट्रेशन पर रोक लगा दी जो हरिद्वार और ऋषिकेश में हो रहे थे. लेकिन इस से रास्ते में फंसे यात्रियों को कोई राहत नहीं मिली जिन्हें पैदल चलने भी जगह नहीं मिल रही थी. यह स्थिति अभी भी सुधरी नहीं है. अफरातफरी और भगदड़ न मचे, इस बाबत श्रद्धालुओं को जगहजगह रोक दिया गया. इस वक्त तक अकेले यमुनोत्री के रास्ते पर 6 भक्त मर चुके थे.

पिछले साल, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, चारधाम यात्रा में 200 श्रद्धालुओं की मौत हुई थी जिन में सब से ज्यादा 96 केदारनाथ में मरे थे. यमुनोत्री धाम में 34 , गंगोत्री धाम में 29 और बद्रीनाथ धाम में 33 श्रद्धालु मारे गए थे जबकि हेमकुंड साहिब में 7 और गोमुख ट्रैक पर एक मौत हुई थी. इस के पहले 2022 में 232 श्रद्धालुओं की मौत हुई थी जबकि 2021 में 300 लोग मरे थे. यानी, हर साल सैकड़ों लोग, बकौल शादाब शम्स, मोक्ष को प्राप्त होते हैं और सरकार खामोशी से इस मुक्ति को देखती रहती है.
मीडिया के जरिए वह दावा जरूर करती है कि सबकुछ चाक चौबंद है लेकिन हकीकत इस से कोसों दूर होती है. 14-15 मई को हजारों यात्रियों ने अपने व्हीकल्स में रात गुजारी. पार्किंग इंतजाम के क्या ही कहने. खानेपीने का कोई ठौरठिकाना नहीं था लेकिन इस का जिम्मेदार अकेले सरकार को नहीं ठहराया जा सकता. उस से ज्यादा तो वे भक्त दोषी हैं जो पाप, मुक्ति और मोक्ष की चाहत में मुंह उठा कर चारधाम यात्रा पर निकल पड़ते हैं, जो कईयों के लिए आखिरी यात्रा साबित होती है.

पहाड़ों पर मौसम का बदलना बहुत आम है. कभी भी तेज बारिश होने लगती है, लैंड स्लाइडिंग के नजारे भी आम हैं. बर्फबारी होने से पूरा ट्रैफिक जाम हो जाता है. 2013 में आफत बाढ़ की शक्ल में आई थी और चारों धामों में बैठा भगवान भी कुछ नहीं कर पाया था. तब मोक्ष फुटकर में नहीं, बल्कि थोक में मिला था. ऐसे हादसों से धर्म के अंधे कुछ सीखते होते तो आज जान जोखिम में डाल कर यह आत्मघाती यात्रा न करते.

गंगोत्री मार्ग पर 6 दिनों से फंसे कोई 7 हजार भक्त खून के आंसू रो दिए थे. जिन्हें पानी की बोतल 50 रुपए में खरीदना पड़ा था और एक बार शौच जाने के सौ रुपए अदा करने पड़े थे. टैक्सीवाले इन दिनों और इन हालात में मनमाना किराया वसूलते हैं, जिन पर किसी का कोई जोर नहीं चलता. लेकिन उन की कोई खास गलती नहीं जब लोग अपनी मरजी से लुटने आते हैं तो वे क्यों कोई रहम करेंगे, वे तो पैसे ले कर मदद ही करते हैं.

ये तमाम परेशानियां अभी शुरुआती दौर में हैं जिन्हें भांपते कुछ ही समझदार श्रद्धालु वापस लौट रहे हैं. मीडिया भी गा-गा कर यह बता रहा है कि चारधाम यात्रा के वक्त क्याक्या सावधानियां रखें, मसलन बीमार लोग दवाइयां साथ रखें, हार्ट, शुगर और बीपी के मरीज ये और वे एहतियात रखें वगैरहवगैरह ताकि परेशानी न हो. यह कोई नहीं कह रहा कि पाप, मुक्ति और मोक्ष तो काल्पनिक बातें हैं, धर्म के दुकानदारों के गढ़े हुए कहानीकिस्से हैं ये. मौत एक वास्तविकता ही सही लेकिन जान जोखिम में डालना खुदकुशी करने जैसा ही काम है, जिस से एक ही सूरत में बचा जा सकता है कि आप वहां न जाएं.

जड़ में मोक्ष और पापमुक्ति

खतरों से वाकिफ होने के बाद भी लोग क्यों मौत के मुंह में जाते हैं, यह सच खुलेतौर पर दरगाह पर चादर चढ़ा कर नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की मन्नत मांगने वाले धर्मभीरु शादाब शम्स बता चुके हैं. लेकिन हिंदू धर्मग्रंथ, धार्मिक मान्यताएं और गढ़े गए पौराणिक किस्सेकहानियों में मोक्ष और पापमुक्ति के लिए चारधाम यात्रा करने के लिए इफरात से उकसाया गया है.

यह आम मान्यता है कि चारधाम की यात्रा करने से मोक्ष मिलता है और पापों से मुक्ति भी मिलती है. शिवपुराण के मुताबिक, केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन के बाद जो भी व्यक्ति जल ग्रहण करता है उस का पृथ्वी पर दोबारा जन्म नहीं होता. लोग कहीं केदारनाथ के ही दर्शन-पूजन कर न खिसक लें, इसलिए यह गप भी जोड़ दी गई है कि केदारनाथ के बाद अगर बद्रीनाथ के दर्शन-पूजन नहीं किए तो फल नहीं मिलता. इसलिए जो लोग केदारनाथ जाते हैं वे आठवां वैकुण्ठ कहे जाने वाले बद्रीनाथ की यात्रा भी करते हैं. यानी वहां के पंडेपुजारियों को भी दानदक्षिणा देते हैं. रोजीरोटी के मुफ्त के इंतजाम की यह एक और बेहतर मिसाल है.

इन मंदिरों में मुख्य शिवलिंग है लेकिन वैष्णवों को लुभाने के भी किस्से हैं. मसलन, भगवान विष्णु बद्रीनाथ धाम में विश्राम करते हैं. इस की स्थापना उन्होंने सतयुग में ही कर दी थी. यहां वे नरनारायण रूप में हैं. सारे पापों के नष्ट हो जाने और मोक्ष की गारंटी का शिवपुराण के कोटि रूद्र संहिता में भी जिक्र है.

एक और किस्से के मुताबिक पांडवों ने इन्हीं पहाड़ों में शिव की आराधना की थी क्योंकि उन्हें अपने ही भाइयों यानी कौरवों को मारने का गिल्ट मन में था. यह कहानी पुराने जासूसी उपन्यासों सरीखी रोमांचक है कि शिव पांडवों को आता देख छिप गए लेकिन पांडवों ने उन्हें देख लिया और उन के पीछेपीछे चलने लगे. यह देख शिव ने भैंसे का रूप रख लिया. भीम ने उन्हें अपनी एक खास ट्रिक से पहचान लिया. आखिर में शिव पांडवों की भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हें पापमुक्ति का वरदान दे दिया. दूसरी कहानियों की तरह यह कहानी भी कम दिलचस्प नहीं जिस के तहत भैंसा बने शिव का मुंह नेपाल में निकला जिसे पशुपति नाथ मंदिर कहा जाता है.

और एक कहानी के मुताबिक, आदि शंकराचार्य यहीं कहीं धरती में समाए थे लेकिन समातेसमाते अपने भक्तों के लिए गरम पानी का एक कुंड बना गए थे.
अब भला ऐसे दर्जनों किस्सेकहानियों को सुन कर किस भक्त का जी पापमुक्ति के लिए नहीं मचलेगा कि पहले तो भाइयों की हत्या करने जैसा जघन्य अपराध करो और फिर केदारनाथ जा कर पापमुक्त हो जाओ. यहां यह तर्क कोई नहीं करता कि विष्णु के अवतार कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के दौरान ही अर्जुन को गीता का उपदेश देते कहा था कि दुश्मन अगर भाई हो तो उसे टपका देने से पाप नहीं लगेगा बल्कि यश मिलेगा.

मजेदार बात तो यह भी है कि हरेक तीर्थस्थल पर मोक्ष और पापमुक्ति का विधान है. काशी में तो जगहजगह लिखा है कि यहां जो मरता है उसे मोक्ष मिलता ही मिलता है. जब यह सहूलियत हर जगह है तो चारधाम ही क्यों, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि खुद श्रद्धालुओं के दिलोदिमाग में इन कहानियों को सुन शंका रहती है कि वाकई में असल मोक्ष कहां मिलेगा, इसलिए मोक्ष के मारे वे यहां से वहां भटकते व दानदक्षिणा देते रहते हैं.

ये भक्त इतने अंधविश्वासी होते हैं कि मुमकिन है कि मन में यह मन्नत ले कर जाते हों कि हे प्रभु, चारधाम की यात्रा में ही कहीं हमें उठा लेना जिस से जन्ममरण के चक्र से मुक्ति मिले. ऊपरवाला अभी तक 11 की सुन चुका है, पिछले सालों में कितनों की सुनी थी, यह ऊपर बताया ही जा चुका है.

हम भाईबहन के रिश्ते में दूरी आ गई है, क्या करूं?

सवाल

हम भाईबहन के रिश्ते में दूरी आ गई है. क्या करूं?

हम बहनभाई की उम्र में सिर्फ डेढ़ साल का फर्क है. भाई मु?ा से बड़ा है. मेरी उम्र 26 साल की है और 4 महीने पहले ही मेरी शादी हुई है. मेरी शादी के एक महीने बाद ही भाई की शादी हो गई. हम भाईबहन में बहुत प्यार था. सारी बातें एकदूसरे से शेयर करते थे. लेकिन पता नहीं क्यों शादी के बाद भाई के पहले जैसे प्यार के लिए मैं तरस गई हूं. उदास रहने लगी हूं. पति सम?ाते हैं कि शादी के बाद अकसर ऐसा हो जाता है, वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, मैं कुछ ज्यादा ही सोच रही हूं. लेकिन मु?ो कुछ अच्छा नहीं लग रहा. आप ही बताएं, ऐसा क्या करूं कि सब पहले जैसा हो जाए?

जवाब

भाईबहन का रिश्ता ऐसा खूबसूरत रिश्ता है जिस में प्यार, लगाव, दोस्ती, केयर सब होता है. बचपन से लड़ने?ागड़ने वाले भाईबहन बड़े होने पर एकदूसरे के सब से बड़े सपोर्टर बन जाते हैं. हालांकि, भाईबहन की शादी के बाद उन के रिश्ते में कुछ बदलाव आने लगता है. दोस्तों की तरह रहते भाईबहन के जीवन में उन के जीवनसाथी के आने के बाद आपसी दूरी बढ़ने लगती है.

आप के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा है. वजह जो हमें नजर आ रही है, पहली तो यह है कि आप की शादी भाई की शादी से पहले हो गई और भाईभाभी दोनों के साथ रहने का आप को मौका नहीं मिला. कहने का मतलब है कि भाभी के साथ आप की बौंडिंग बन ही नहीं पाई. आप की भी नईनई शादी हुई थी, इसलिए आप भी अपनी नई गृहस्थी, परिवार में बिजी हो गईं.

फिर जैसे आप अपनी गृहस्थी में बिजी हो गईं वैसे ही आप का भाई भी अपनी नई शादी, पत्नी, परिवार में बिजी हो गया और इस बात से तो आप भी इनकार नहीं करेंगी कि शादी के बाद पति के लिए पत्नी सब से अहम हो जाती है. आप की नईनई शादी हुई है, आप भी तो चाहती होंगी कि आप का पति आप को सब से ज्यादा अहमियत दे. हर चीज में पहले आप को रखे. यही स्थिति आप के भाई की भी होगी, इस बात को आप सम?ाने की कोशिश करें.

आप के पति सम?ादार हैं. वे सही कह रहे हैं कि शादी के बाद अकसर ऐसा हो जाता है लेकिन वक्त के साथसाथ सब नौर्मल हो जाता है.

आप कुछ ज्यादा ही सोच रही हैं. चीजों को अपने हिसाब से ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए. फोन पर भाभी से बात करती रहें. थोड़ी गप्पें मारें, कुछ उन की सुनें, कुछ अपनी कहें, भाभी की सहेली बनने की कोशिश करें. भाभी की हरसंभव मदद करने की कोशिश कीजिए. जिस से वे अपनी ससुराल (जो आप का मायका है) में आसानी से घुलमिल जाएं. इस से भाभी और आप के बीच प्यार बढ़ेगा. भाभी से प्यार बढ़ेगा तो भाई से दोगुना प्यार मिलेगा.

कभीकभी मायके जाएं तो भाईभाभी के लिए तोहफा जरूर ले जाएं. भाईभाभी के सामने कोई डिमांड न रखें, न ही उन के बीच आने की कोशिश करें. रिश्ते कांच की तरह होते हैं. संभाल कर रखने होने हैं. धूलमिट्टी नहीं पड़ने देंगे, तो चमकते रहेंगे.

क्यों घर से भाग कर पछताती नहीं लड़कियां

लड़कियों, खासतौर से नाबालिगों, का घर से भागना हमेशा से ही बड़ी परेशानी रही है. लड़कियां आखिर क्यों घर से भागने पर मजबूर हो जाती हैं, इस के पीछे जो वजहें जिम्मेदार मानी जाती रही हैं उन में खास हैं गरीबी, अशिक्षा, घरेलू कलह, घर में बुनियादी सहूलियतों का न होना, घर में प्यार की जगह नफरत और अनदेखी किया जाने और रातोंरात हेमा मालिनी व माधुरी दीक्षित बन जाने की उन की अपनी ख्वाहिश. लेकिन अब यह पूरा सच नहीं रहा, कुछ बदलाव इस में भी आ रहे हैं.

इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट यानी आईआईएम इंदौर की एक ताजी रिपोर्ट की मानें तो आजकल घर से भागने वाली अधिकतर लड़कियां बाहरी चकाचौंध की गिरफ्त में आ कर नहीं भाग रहीं और न ही उन के सिर पर अब फिल्म ऐक्ट्रैस बनने का भूत सवार रहता है. हां, यह जरूर है कि उन के घर से भागने की अहम वजहें घर में होने वाली रोकटोक,    झगड़े और दीगर परेशानियां हैं. ज्यादातर लड़कियां अब अपना कैरियर बनाने के लिए भाग जाती हैं क्योंकि घर पर रहते हुए उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता है.

इस रिपोर्ट, जिस में 5 साल के आंकड़े शामिल हैं, के मुताबिक गुमशुदगी वाले बच्चों में 13 से 17 साल की लड़कियां ज्यादा होती हैं. आईआईएम इंदौर ने पुलिस के सहयोग से उन इलाकों में जांचपड़ताल यानी रिसर्च की जहां से बच्चे ज्यादा गायब होते हैं. ये वे इलाके हैं जहां शहरी लोग भी रहते हैं और स्लम यानी कि    झुग्गियां भी हैं.

हैरानी वाली एक बात यह उजागर हुई कि गुम होने वाले बच्चों में 75 फीसदी लड़कियां होती हैं. रिसर्च के दौरान 75 ऐसे मामलों पर काम किया गया तो यह खुलासा भी हुआ कि कम उम्र की लड़कियां जिन लड़कों के साथ भागीं उन में अधिकतर की उम्र 18 से 23 साल है और वे लड़कियों के जानपहचान वाले पड़ोसी या रिश्तेदार हैं.

कैरियर की चाह

आईआईएम की टीम ने जब इन लड़केलड़कियों से बात की तो दिलचस्प बात यह भी सामने आई कि कोई 50 फीसदी लड़कियां वापस घर नहीं लौटना चाहतीं और घर से भागने के अपने फैसले को भी वे गलत नहीं मानतीं. जाहिर है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है और वे अपनी मौजूदा जिंदगी व हालात से खुश हैं.

स्लम इलाकों की तंग जिंदगी कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही जहां लड़कियों के हिस्से में डांटफटकार और शोषण ही आते हैं. जैसे ही इन लड़कियों को यह एहसास होता है कि भेदभाव करने वाले मांबाप उन्हें बो   झ सम   झते हैं तो वे बगावत करने पर उतारू हो आती हैं. एक बेहतर कल की उम्मीद उन्हें बाहर दिखती है तो ये उम्र में अपने से थोड़े बड़े लड़के का हाथ थाम घुटनभरी जिंदगी से नजात पाने को घर छोड़ जाती हैं.

इन लड़कियों को यह भी सम   झ आ जाता है कि उन के भाग जाने से कोई पहाड़ मांबाप पर नहीं टूट पड़ना है. हां, इस बात का अफसोस जरूर उन्हें होगा कि मुफ्त की नौकरानी हाथ से छूट गई जो नल से पानी भर कर लाती थी, खाना बनाती थी,    झाड़ूबुहारी करती थी, कपड़े भी धोती थी और इस से ज्यादा अहम यह कि गुस्सा उतारने के काम भी आती थी जिसे कभी भी डांटापीटा जा सकता था.

शायद बाहर कुछ अच्छा हो या मिल जाए, यह आस लिए वे गुलामीभरी जिंदगी को ठोकर मार भाग जाती हैं. यह भी वे सोच चुकी होती हैं कि भाग कर भी अगर यही नरक मिला तो उसे भी भुगत लेंगे. लेकिन एक उम्मीद तो है कि शायद तनहाई में देखे गए वे सपने पूरे हो जाएं कि मेरा भी अपना अलग एक वजूद है, सांस लेने को खुली हवा है और प्यार करने वाला जानू साथ है जो मेरे लिए मेरी ही तरह अपना घरद्वार छोड़ने को तैयार है.

जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही. कई बार उन का पाला एक और बड़े नर्क से भी पड़ता है जिस की दुश्वारियों को इन लड़कियों ने फिल्मों और वीडियोज में देखा होता है. फिर भी वे रिस्क उठाती हैं क्योंकि उन्हें फौरी तौर पर घुटनभरी जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. आईएमएम इंदौर की रिसर्च बताती है कि आधी लड़कियों के सपने पूरे हो जाते हैं. बची आधियों में जरूरी नहीं कि उन के हिस्से में बदतर जिंदगी ही आती होगी. हां, उन में से कुछ जरूर गलत हाथों में पड़ कर ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती हैं जिस में रोजरोज मरना पड़ता है. ये वे लड़कियां होती हैं जो ट्रैफिकिंग यानी तस्करी का शिकार हो जाती हैं.

इन की चिंता कितनों को है और इन की बाबत क्या कुछ किया जाता है, इस का कोई रिकौर्ड किसी के पास नहीं. अलबत्ता कई खबरें जरूर आएदिन मीडिया की सुर्खियां बनती हैं कि देहव्यापार के दलदल में फंसी इतनी या उतनी लड़कियों को छुड़ाया गया. इस के बाद क्या होता है, यह कोई नहीं जानता. घरवापसी के इन के रास्ते बंद हो चुके होते हैं, लिहाजा, ये यहां से वहां भटकती रहती हैं. चंद लड़कियों को कोई एनजीओ सहारा और रोजगार दे देता है पर तब तक इन लड़कियों के सपने और हालात से लड़ने की हिम्मत दोनों पूरी तरह टूट चुके होते हैं.

और जिन के सपने पूरे हो जाते हैं उन्हें मानो दोनों जहां मिल जाते हैं. जाहिर है, ये लड़कियां प्लान बना कर और सोचसम   झ कर घर छोड़ती हैं. उन के सपने भी बहुत छोटे होते हैं कि बस एक घरगृहस्थी हो, साथ रहते प्यार करने वाला और खयाल रखने वाला पार्टनर हो. पैसा तो ये छोटेबड़े काम कर कमा ही लेती हैं. कम पढ़ीलिखी ये लड़कियां अपने भले को ले कर चौकन्नी भी रहती हैं. दुनियादारी तो वे अपने घर और बस्ती में बहुत कम उम्र में सीख चुकी होती हैं.

यह ठीक है कि कुछ भी कर लिया जाए, बच्चों का घर से भागना पूरी तरह खत्म या बंद नहीं हो सकता लेकिन इसे कम किया जा सकता है. इस के लिए जरूरी है कि बच्चों के साथसाथ मांबाप की भी काउंसलिंग हो जिस के तहत उन्हें यह बताया जाए कि लड़कियां कोई बो   झ नहीं होतीं बल्कि मौका मिले तो कई मामलों में लड़कों को भी मात दे देती हैं. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि उन्हें पढ़ाया जाए, उन के साथ भेदभाव और मारपीट न की जाए, उन में कोई हुनर है तो उसे निखारा जाए और उन्हें भी लड़कों के बराबर सहूलियतें व आजादी दी जाए.

तीर्थस्थल बने मैरिज डैस्टिनेशन

धर्म के नाम पर मानसिक गुलामी के तौरतरीके एकदो ही नहीं हैं बल्कि बहुत सारे हैं. हर धर्म की चेष्टा रहती है कि उस के भक्तों का पलपल उस के नियंत्रण में रहे चाहे वे उस नियंत्रण में सुखी रहें या दुखी. धर्म दक्षिणा वसूलने का अधिकार तो रखता है, उसे नियंत्रण करने का अधिकार भी रखता है लेकिन मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का उस का कोई दायित्व नहीं होता.

चारधाम यात्राओं के कारण उत्तराखंड और्केयोलौजिकल डिजास्टर की ओर बढ़ रहा है और नए निर्माणों के कारण वहां की खोखली जमीन धंसने लगी है. धार्मिक स्थलों को अब केवल स्वर्ग पाने की सीढ़ी नहीं बनाया जा रहा बल्कि डैस्टिनेशन मैरिजों का केंद्र भी बनाया जा रहा है. मजेदार बात यह है कि ये विवाह रिजौर्टों में नहीं, मंदिरों में हों, ऐसा प्रचारित किया जा रहा है. उखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में ऐसा ही एक मंडप बनाया गया है.

धर्मप्रचार चूंकि मौखिक प्रचार से चलता है और लोग उस की असलियत छिपा कर उस का बड़ा गुणगान करते हैं, इसलिए यह सफल भी होगा. जो भक्त होते हैं वे सब कष्ट सह लेते हैं पर धर्मपालन करते समय होने वाली किसी परेशानी को वे होंठों तक नहीं लाते.

विवाह दो जनों का आपसी समझौता है. इस पर सदियों से धर्मों ने कब्ज़ा कर लिया है. धर्म ने नियम भी बना डाले और उन्हें लागू भी करवा डाला. धर्म के दखल से विवाह सुखी हुए हों, ज्यादा चले हों, कोई विधुर न हुआ हो, बच्चे हुए हों, जो बच्चे हुए वे सभी स्वस्थ हुए हों इस सब की गारंटी किसी धर्म ने नहीं ली. शादी पर रिश्तेदारों, दोस्तों का जमावड़ा तो हो जाता है पर बाद में कोई तकलीफ होती है तो सब कन्नी काट जाते हैं, वह धर्म का दुकानदार भी जिस के प्रांगड़ में या जिस की मौजूदगी में शादी हुई थी.
धर्म न तो बाल विवाह रोक पाया, न दहेज रोक पाया, न आत्महत्याओं के अभिशाप से औरतों को मुक्ति दिला पाया, न औरतों को सौतनों से बचा पाया. दरअसल धर्म की ऐसी कोई रुचि भी नहीं थी कि विवाह बाद सबकुछ ठीक रहे. शिवपार्वती और रामसीता के विवाहों तक में जब विवाद होते रहे तो कलियुग के पुजारीपंडे भला क्यों कोई गारंटी लेंगे पर विवाह के समय वे नए दंपती को लूटने में आगे रहते हैं.

विवाह जब से होटलों और रिजौर्टों में होने लगे हैं, शहरों के बीच बनी मंदिरों के साथ की धर्मशालाओं में विवाह का धंधा लगभग चौपट हो गया है. जो शानबान ये होटल या रिजौर्ट उपलब्ध कराते वह मंदिर या धर्मशाला में संभव नहीं. सो, लोग छिटकने लगे और एक विवाह में धर्म के दुकानदारों को बहुत छोटा सा अंश ही विवाह संपन्न करते समय मिलने लगा. सो, अब उत्तराखंड या अन्य धार्मिक स्थल, जो शहरों से कुछ दूर हैं और जिन के आसपास मंदिरों की बड़ी जमीन है, डैस्टिनेशन मैरिज के लिए हाथपैर मार रहे हैं. उन्हें व लोगों को लालच दिया जा रहा है कि भगवानों की नजरों के नीचे हुए विवाह ज्यादा सुखी होंगे.

ऐसे भक्त लाखों में हैं जो विवाह में मंदिरों को इस्तेमाल कर के अपने को धन्य समझेंगे. इस्कान, जो आधी विदेशी संस्था है और जिस का प्रबंधन पढ़ेलिखे कुछ देशी, कुछ विदेशी लोगों ने हथिया लिया, विवाह आयोजन बड़ी सफलता से करा लेता है. उन्हें प्रबंधन की कला आती है. उन्होंने तो मंदिर ही इस तरह बनाए हैं कि उन में 400-500 लोग ठहराए जा सकें. पूजाओं के दिनों में वहां काफी लोग ठहरते हैं और अब तो वहां शादियां कर के भी ठहरने लगे हैं.

अब बाकी मंदिर भी यही करेंगे और कुछ करने भी लगे हैं. जिन के पास खाली जगह है वे वहां आकर्षक टैंट लगाने लगे हैं. वहां चूंकि पैसा सीधे ज्यादा नहीं लिया जाता, इसलिए परिवार को लगता है कि काम सस्ते में हो रहा है. हालांकि, मंदिर के प्रबंधन वाले एक तो हर बराती से मूर्ति के सामने चढ़ावा के तौर पर कुछ पा ही जाते हैं और फिर हर बराती का नामपता मंदिर में जमा हो जाता है, सो महीनोंसालों तक वे मार्केटिंग करते रहते हैं. ईसाइयों में तो हर विवाह चर्च में ही होता है. वहां प्रीस्ट बाहर कम जाता है, लोग विवाह कराने चर्च में आते हैं.

बहरहाल, शादी के बहाने यह अच्छी कमाई है जिसे हिंदू मंदिर अब तक हासिल नहीं कर रहे थे. अब यह शुरू हो गया है. विवाह कराने वाला तो धर्म का एजेंट ही होगा, अब स्थान और खानेपीने की व्यवस्था भी उसी के पास होगी. वहीं, इस विवाह में दहेज नहीं होगा, बाद में पति का रौद्र रूप नहीं होगा, इस की कोई गारंटी नहीं. सुविधा केवल विवाह के दिन के लिए है. विवाह के बाद की सर्विसिंग चाहिए तो उस के लिए अलग से खर्च करना पड़ेगा.

यूएसए यूएसए : उस बुजुर्ग ने क्या कहा?

आजकल इन पेरैंट्स के पास एक ही काम है. गंगाधर उन पेरैंट्स की बात कर रहा है जिन के पुत्रपुत्री नौकरी के वास्ते सात समुंदर पार अमेरिका जा बैठे हैं. बेटे के साथ बहू, बेटी के साथ दामाद भी हैं. हमारी या आप की भी जितने ऐसे लोगों से फोन पर बात होती है या आमनेसामने की मुलाकात तो उस में से न्यूनतम आधे थोङी ही देर बाद वार्तालाप को अमेरिका पर मोड़ लाते हैं. वे कहेंगे कि यूएसए जा रहे हैं या वहां हैं.थे या वहां से आए हैं जस्ट.

कल बाजार में परिचित शर्माजी मिल गए अब सेवानिवृत अधिकारी हैं. हायहैलो हुई. यहांवहां की बातें हुईं. उन्होंने मुझ से कहा कि इस समय तो स्थानीय निकाय चुनाव के कारण व्यस्त होंगे. चूंकि वे गले तक यूएसए से भरे हुए थे इसलिए मेरे जवाब देने तक उन से रहा न गया.

बोले,”मुझे भी औब्जर्वर का काम दे रहे थे पर मैं ने मना कर दिया क्योंकि अगले सप्ताह यूएसए जाना था.”

मैं ने कहा,”क्यों जा रहे हैं?”

बोले,”बस बेटीदामाद हैं. उन के पास जा रहे हैं. यही तो एक काम हम लोगों के पास बचा है. कभी बेटीदामाद तो कभी बेटाबहू के पास.”

परसों की बात है. भोपाल साहित्य संस्थान की आगामी काव्य गोष्ठी में एक मूर्धन्य साहित्यकार बेधड़कजी को मुझे आमंत्रित करना था. इसलिए हम ने फोन किया पर लगा नहीं. हम ने व्हाट्सऐप पर मैसेज डाला. तुरंत ही जवाब आ गया क्योंकि बहुतायत लोगों की तरह वे भी व्हाट्सऐप पर नजरें गङाए हुए थे. मैसेज था कि अभी बच्चे के पास यूएसए में हैं. कोई जा रहा है यूएसए. कोई पहले से गया हुआ है. कोई बस पिछले सप्ताह ही वापस लौटा है, जैसे भूत, वर्तमान व भविष्य सब अमेरिका में ही बस सुरक्षित हैं।

हां, याद आया कि पिछले सप्ताह की ही तो बात है. साहित्यिक पत्रिका अभिलाषा के कार्यालय यों ही जाना हुआ. वहां के संपादक मेरे परिचित हैं. वे वहां उस दिन मिले नहीं. वहां एक खरेजी हैं. उन से पता चला कि अभी कल ही यूएसए से लौटे हैं. 24 घंटे की यात्रा के बाद थकेमंदे हैं. इसलिए 1-2 दिन बाद कार्यालय आएंगे. खरेजी ने आगे यह भी फरमाया कि अब उन को यूएसए जाना है, बेटीदामाद अगले सप्ताह की टिकट बुक कर रहे हैं.

जिन के बेटेबिटिया अमेरिका में हैं, उन मांबाप को उतार की आयु में घडी़घङी यूएसए जाने का काम ही शेष रह जाता है क्या? जब देखो तब वे यूएसए जा रहे हैं या वहां पहले से हैं या कि अभीअभी लौटे हैं.

बेटाबहू या बेटीदामाद टिकट पहले से बुक करवा कर भेज देते हैं. क्यों नहीं भेजेंगे, दोनों कामकाजी जो हैं. अब अमेरिका कोई भारत तो है नहीं कि वहां ₹5-10 हजार में घरेलू काम करने वाला मिल जाए. वहां तो झाङू लगाने वाला भी कार मैंटेन करता है. वैसे, आज के यहां के माहौल से अच्छा है कि आप परदेश में ही रहें. न जाने कब कौन आप का गला व्हाट्सऐप की किसी पोस्ट पर रेत दे.

एक और फायदा है कि उतने दिन आप यहां की टीवी चैनलों की अंतहीन निरर्थक बहसों से भी और नेताओं के ऊलजलूल बयानों से भी बचे रहेंगे. यह सब स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होगा.

वैसे, सौ बात की एक बात तो यह है कि मांबाप, सासससुर से अच्छा देखभाल करने वाला कोई दूसरा मिल भी नहीं सकता. नातीनातिन, पोतेपोतियों के सुख का आकर्षण अपनी जगह है ही. मांबाप, सासससुर की आजकल बल्लेबल्ले है जो यूएसए पहले कभी जा नहीं पाए. वे सब बेटे या दामाद के नौकरीशुदा होने पर यूएसए पर्यटन की ड्यूटी तो बजाते ही हैं, रिजल्टैंट थोङा घूमनाफिरना तो होना ही है. अब यार, इतनी ड्यूटी पूरी करोगे तो बेटेबहू, बेटीदामाद को घूमनेफिरने की व्यवस्था की ड्यूटी करना तो बनता ही है.

जब बूढ़ेबुढ़िया पोतेपोती की सब तरह की देखभाल करते हैं तो ऐसा प्रेम और ज्यादा पल्लवित और पुष्पित होता ही है. आश्चर्यजनक मगर सत्य है कि हिंदुस्तानी मांबाप का स्टैमिना बढ़ती उम्र के साथ मंहगाई की तरह चढ़ता ही जाता है. यदि ऐसा नहीं होता तो कैसे घुटनोंपीठ व कंधे के दर्द से सराबोर घिसट के चलने वाले, बीपी, मधुमेह से पीड़ित 20-24 घंटे की उडा़न हेतु खुशीखुशी तैयार हो जाते हैं. पहले अपने कसबाई शहर से प्रादेशिक राजधानी आओ. वहां से मुंबई दिल्ली आओ. फिर वहां से फ्लाइट अमेरिका के एक शहर की पकडो़. आखिरकार, बेटे या बेटी के श्हर की दूसरी कनैक्टिंग फ्लाइट.

अब तो ऐसे पेरैंट्स भी हो गए हैं जो ताल ठोंक कर कहते हैं कि यह उन की 7वीं या 11वीं यूएसए विजिट है या थी. गिनीज बुक इस बात का भी रिकौर्ड दर्ज करने रिकौर्ड पर ले सकती है.

गंगाधर को लगता है कि इस देश में बुजुर्ग पेरैंट्स की 2 श्रेणियां बन गई हैं. एक जिन के बच्चे यूएसए में नौकरी कर रहे हैं, दूसरे जिन के नहीं कर रहे हैं. जब बातबात पर बंटवारा है तो इन के भी दो फाड़ होने में कौन सी नई चीज है. देश तो और भी हैं जिन में बच्चे गए होते हैं लेकिन इन देशों के नाम से वह यूएसए वाला भाव कहां आता है. जब पेरैंट्स मूंछों पर ताव दे कर (यदि कोई हो तो) कहता है कि यूएसए जा रहा हूं या यूएसए में हूं या 2 माह के बाद जस्ट लौटा हूं.

नरसों की ही बात है, अलसुबह कालोनी के पार्क में कुछ वरिष्ठ रोज की तरह टाकमय वौक कर रहे थे.  चढ्ढा जी ने जब कहा कि उन का बेटा पिछले सप्ताह सिंगापुर चला गया है तो किसी ने कान तक नहीं दिया. लेकिन जैसे ही तिवारीजी ने कहा कि बेटा यूएसए आने दो, टिकटें अगले माह की भेज रहा है तो सब के कान खडे़ हो गए. अब जिन के बच्चे यूएसए में नही हैं वे हीन महसूस न करें तो और क्या करें, आप ही सुझाएं.

अपने एक कजिन से सालभर पहले हुई बात याद आ रही है. लौकडाउन था न. सब एकदूसरे से बात करने को उतावले रहते थे. सब को एकदूसरे के बारे में अंदेशा जो था कि बात कर लो पता नहीं फिर मिलें की नहीं. कजिन न यूएसए जा रहा था न वहां था. और न ही वहां से जस्ट लौटा था. फिर भी परेशान यूएसए के नाम से ही था. असल में उस की बेटी वहां लौकडाउन के कारण 2 साल से फंसी थी. उस से जब भी बात करो तो 10 मिनट की बात में 9 मिनट यूएसए का ही जिक्र आ जाता था.

‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की तरह यूएसए बच्चे वाले एक पेरैंट्स श्रेष्ठ पेरैंटस्. आखिर भले ही वहां स्कूलों, मौलों, सार्वजनिक स्थानों में आएदिन गोलीबारी हो कर दर्जनों निर्दोषों को मार दिया जाता हो. अश्वेत की हत्या पुलिस ज्यादती से हो जाती हो.एअरपोर्ट पर पूरे कपडे़ उतरवा कर जांच करवाता हो फिर भी वहां जा कर आदमी गौरवान्वित होता हो.

शाहरुख खान के जब कपडे़ उतरवा कर उन के हमनाम किसी आतंकवादी के कारण जांच के नाम पर काफी समय के लिए रोका गया था तो उन्होंने कहा था,”मुझे जब हीरोगिरी चढ़ती है तो मैं यूएसए की ओर भागता हूं पर वे हर बार मेरी हीरोगिरी निकाल देते हैं.”

यूएसए की बात छिपती नहीं. ऐसे पेरैंट्स यूएसए को स्वर्ग बताने की पोस्ट फेसबुक, इंस्टा पर बराबर डालते रहते हैं. अरे भैया, जिन के बच्चे नही हैं यूएसए में या जो जा नहीं पाए वहां उन के जले में नमक क्यों छिड़कते हो. ऐसे पेरैंट्स पर ऐसी पोस्ट देख कर क्या बीतती है, उन से कभी पूछो भी तो. ऐसे पेरैंट्स फिर कहते हैं कि सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तां हमारा.

रीता सा शजरे बहारां

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कनुप्रिया पार्किंग में गाड़ी में बैठी सोच रही थी कि कैसे दिन गुजारा जाए, उसी क्षण बालों को ठीक करने के स्टाइल से उसे पहचान लिया. ढेर सारी बातें यह पक्का करने के लिए कीं कि वह वही है न लेकिन…

 

 

 

वॉल्वो सी 40 रिचार्ज द सेफ ड्राइव ऑफ मदरहुड

 

वॉल्वो सी 40 रिचार्ज द सेफ ड्राइव ऑफ मदरहुड के अंतर्गत पेश है डा. कृपाली की रोजमर्रा की जिंदगी. डा. कृपाली वर्किंग वुमन हैं और डेली लाइफ में परिवार की सुरक्षा और खुशियों से कोई समझौता नहीं करतीं. फिर चाहे बात घर के लिए किसी छोटे डिसीजन की हो या फिर सुरक्षित कार चुनने की. इस दौरान मोटरिंग वर्ल्ड के तीर्थ ने उन्हें वॉल्वो सी 40 रिचार्ज के बारे में बताया जोकि उनकी कसौटी पर खरी उतरती है. वॉल्वो सी 40 रिचार्ज के आधुनिक सेफ्टी फीचर्स, ईको फ्रेंडली डिजाइन जिसमें इंटीरियर में इस्तेमाल किया गया रिसाइकल्ड मेटेरियल भी शामिल है, इत्यादि से डा. कृपाली बेहद प्रभावित हुईं. इस कार के साथ एक पूरा दिन बिताने के बाद डा. कृपाली ने कार के कम्फर्ट और वन पेडल ड्राइविंग का सुखद अनुभव किया और पाया कि यह कर उनके लिए सही विकल्प है. पूरे सफर में मदर्स डे के महत्व को इस तरह समझा गया कि मांओं के महत्व को सम्मान देने के साथ साथ प्रकृति मां को सुरक्षित रखना भी हम सबकी जिम्मेदारी है.

एक का फंदा : एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स यानी एक ब्रह्म, एक पार्टी, एक नेता…

लेखकः भारत भूषण श्रीवास्तव और शैलेन्द्र सिंह

‘एक देश एक चुनाव’ का ढिंढोरा जम कर पीटा जा रहा है जिसे लागू कराने के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे, इसलिए हो रहे आम चुनाव में भाजपा को 400 पार की जरूरत है. इस तरह की डैमोक्रेसी से व्यक्तिवाद और तानाशाही के खतरे बढ़ेंगे क्योंकि यह संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है.

भारत जब अपना संविधान बना रहा था उस समय चर्चा का सब से बड़ा विषय यह था कि देश का संविधान कैसा हो? लंबी बहस के बाद यह तय हुआ कि भारत का संविधान उदार हो. समय, काल और परिस्थितियों की जरूरत के हिसाब से उस में संशोधन हो सकें. यह हुआ भी. संविधान लागू होने के बाद 104 संशोधन उस में हो चुके हैं. संविधान के उदार होने का मतलब यह होता है कि देशहित के लिए विचारविमर्श होता रहना चाहिए.

संविधान के इस सिद्धांत के तराजू में ‘एक देश एक चुनाव’ को रख कर देखें तो यह संविधान की मूल भावना के एकदम खिलाफ दिखता है. ‘एक देश एक चुनाव’ असल में ‘एक नेता’ को सामने रख कर गढ़ा गया सिद्धांत है.

हमारे देश के विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जनता सब से पहले विधायक और सांसद चुनती है. इस के बाद सब से बड़े दल के सांसद या विधायक अपना नेता चुनते हैं. मुख्यमंत्री पद के लिए राज्यपाल और प्रधानमंत्री पद के लिए राष्ट्रपति महोदय पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं. इस के बाद मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रिमंडल के नाम तय होते हैं.

हाल के कुछ सालों में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चेहरा पहले से चुने जाने का चलन होने लगा है. असल में यह नेता थोपने की बात है. इस में पार्टी एक चेहरा चुन लेती है. इस के बाद सांसद या विधायक केवल औपचारिकता के लिए सदन में पार्टी मीटिंग के दौरान नाम का प्रस्ताव और समर्थन जैसा दिखावा करते हैं.

‘एक देश एक चुनाव’ भी इसी तरह की औपचारिकता भर रह जाएगी. इस में एक नेता ही अपना चेहरा सामने रखेगा. पूरे देश में उसी के नाम पर चुनाव होगा. भारत विविधता वाला देश है. एक देश एक चुनाव के जरिए इस की खासीयत को खत्म करने का प्रयास हो रहा है.

संविधान संशोधन का अधिकार

भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है. इस तरह के परिवर्तन भारत की संसद के द्वारा किए जाते हैं. इन्हें संसद के प्रत्येक सदन से पर्याप्त बहुमत के द्वारा अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को राज्यों द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए.

1950 में संविधान के लागू होने के बाद से इस में 104 संशोधन किए जा चुके हैं. विवादास्पद रूप से भारतीय सुप्रीम कोर्ट के एक महत्त्वपूर्ण फैसले के अनुसार संविधान में किए जाने वाले प्रत्येक संशोधन को अनुमति देना संभव नहीं है.

संशोधन इस तरह से हो कि जो संविधान की मूल सरंचना का सम्मान करे. संविधान की मूल संरचना में किसी तरह का बदलाव संभव नहीं है. संशोधन की शुरुआत संसद में संबंधित प्रस्ताव को पेश करने के साथ होती है जिसे बिल कहा जाता है. इस के बाद उसे संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अनुमोदित किया जाता है.

संशोधन के लिए प्रत्येक सदन में इसे उपस्थित सांसदों का दोतिहाई बहुमत प्राप्त होना चाहिए. इस के अलावा सभी सदस्यों का साधारण बहुमत प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए. एक बार जब सभी जरूरतें पूरी कर ली जाती हैं तब इस संशोधन पर देश के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त की जाती है.

मौजूदा केंद्रीय सरकार देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ ‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए जोर लगा रही है. इस के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया.

एक देश एक चुनाव

‘वन नेशन वन इलैक्शन’ यानी ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना पर विचार करने के लिए बनी समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद उस ने रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में आने वाले वक्त में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथसाथ नगरपालिकाओं और पंचायत चुनाव करवाने के मुद्दे से जुड़ी सिफारिशें दी गई हैं.

191 दिनों में तैयार 18,626 पन्नों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ सा?ा किए थे जिन में से 32 राजनीतिक दल ‘एक देश एक चुनाव’ के समर्थन में थे. केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़ कर बाकी 32 दलों ने न केवल साथसाथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए

यह विकल्प अपनाने की जोरदार वकालत की.

रिपोर्ट में ही कहा गया है कि ‘एक देश एक चुनाव’ का विरोध करने वालों ने दलील दी थी कि इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा. यह अलोकतांत्रिक, संघीय

ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलगथलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा. ‘एक देश एक चुनाव’ व्यवस्था देश को राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगी.

समिति के सुझाव

रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस छोड़ गए नेता गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन के सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डा. सुभाष कश्यप, सुप्रीम कोर्ट में भाजपा के मामलों की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ विजिलैंस कमिश्नर संजय कोठारी शामिल थे. इस के अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डा. नितेन चंद्रा भी समिति में थे. सभी लोग भाजपा समर्थक ही थे, यह नामों से स्पष्ट है.

समिति का कहना है कि सभी चुनाव एकसाथ न कराने से नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है. पहले हर 10 साल में 2 चुनाव होते थे, अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं. इसलिए सरकार को साथसाथ चुनाव के चक्र को बहाल करने के लिए कानूनी रूप से तंत्र बनाना चाहिए. चुनाव 2 चरणों में कराए जाएं. पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एकसाथ कराए जाएं, दूसरे चरण में एकसाथ नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों.

इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह कोऔर्डिनेट किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के 100 दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए. इस के लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए जाएं. इसे निर्वाचन आयोग की सलाह से तैयार किया जाए.

समिति की सिफारिश के अनुसार, त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं.

इस स्थिति में नए लोकसभा

(या विधानसभा) का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद सदन को भंग माना जाएगा. इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा. वहीं 5 साल के कार्यकाल के खत्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा.

आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के जरिए इस अनुच्छेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं. इस दिन को ‘निर्धारित तिथि’ कहा जाएगा. इस तिथि के बाद लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक खत्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी चुनाव एकसाथ कराए जा सकेंगे.

लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए जरूरी लौजिस्टिक्स, जैसे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी खरीद, मतदानकर्मियों और सुरक्षाबलों की तैनाती व अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करेगा. वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा किए जाने की बात है.

ये सब बातें वे हैं जिन का न देश की राजनीति से कोई मतलब है न समस्याओं से. ये पौवर गेन का हिस्सा हैं.

क्यों हो रहा विरोध

औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख और हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, ‘जल्दीजल्दी चुनाव होने से सरकारों को भी परेशानी होती है. वन नेशन वन इलैक्शन से कई तरह से संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं. सब से बुरा यह होगा कि सरकार को 5 साल तक लोगों की नाराजगी की कोई चिंता नहीं रहेगी. यह भारत के संघीय ढांचे के लिए मौत की घंटी के समान होगा. यह भारत को एक पार्टी सिस्टम में बदल कर रख देगा.’

कांग्रेस नेता और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे ने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा है, ‘एक देश, एक चुनाव कैसे हो सकता है जब मौजूदा भाजपा सरकार जनादेश को स्वीकार ही नहीं कर रही? क्या पूर्व राष्ट्रपति और समिति के अन्य सदस्यों ने इस साठगांठ से पाए गए बहुमत पर भी कोई सिफारिश की है?’

करना पड़ेगा संविधान संशोधन

‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. इस के लिए कानूनी पैनल बनाया गया है. जस्टिस (रिटायर्ड) रितुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाला यह पैनल संविधान में एक नया चैप्टर जोड़ सकता है. असल में इसे संविधान को समाप्त कर देने वाला चैप्टर कहा जा सकता है. इस के जरिए चुनाव आयोग 2029 तक देश में लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एकसाथ कराने की सिफारिश कर पाएगा. जो जानकारियां मिल रही हैं उन के अनुसार अगले

5 सालों में 3 चरणों में विधानसभाओं को एकसाथ लाने की योजना है. जिस से पहला एकसाथ चुनाव मईजून 2029 में हो सके. तब देश में 19वीं लोकसभा के लिए चुनाव होंगे.

2024 के लोकसभा चुनावों के साथ

5 विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं. महाराष्ट्र, हरियाणा और ?ारखंड के विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में होने हैं.

सिफारिशों के अनुसार ‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने के लिए कई राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल घटेगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हाल ही में चुनाव हुए हैं. इसलिए इन विधानसभाओं का कार्यकाल 6 महीने बढ़ा कर जून 2029 तक किया जाएगा. उस के बाद सभी राज्यों में एकसाथ विधानसभा-लोकसभा चुनाव होंगे. हरियाणा, महाराष्ट्र, ?ारखंड और दिल्ली की सरकार के कार्यकाल में

5-8 महीने कटौती करनी होगी और जून 2029 तक इन राज्यों में मौजूदा विधानसभाएं चलेंगी.

बिहार का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा. इस के बाद का साढ़े 3 साल ही रहेगा. असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी के मौजूदा कार्यकाल 3 साल 7 महीने घटेंगे. उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब व उत्तराखंड का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा, उस के बाद का कार्यकाल

सवा 2 साल रहेगा. गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा का मौजूदा कार्यकाल 13 से 17 माह घटेगा. यह सब जनता के अधिकारों का हनन है पर 400 सीटों के दंभ में इसे लागू कराने के लिए मोदी सरकार कुछ भी कर सकती है.

देश की सभी विधानसभाओं का कार्यकाल जून 2029 में समाप्त होगा. कोविंद कमेटी विधि पैनल से एक और प्रस्ताव मांगेगी, जिस में स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल करने की बात कही जाएगी. भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलगअलग समय पर होते हैं. ‘एक देश एक चुनाव’ का मतलब है कि पूरे देश में एकसाथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों. मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय

पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे.

लोगों को डर आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही हुए थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग हो गईं. उस के बाद 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई. इस वजह से एक देश एक चुनाव की परंपरा टूट गई.

खर्च की बात करें तो देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अगर एकसाथ कराए जाते हैं तो हर 5 साल में सिर्फ ईवीएम पर 10 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च होंगे. एक ईवीएम

15 साल ही प्रयोग होती है. यदि एकसाथ चुनाव कराए जाते हैं तो मशीनों के दो सैट बनवाने होंगे. एक सैट का इस्तेमाल 3 बार चुनाव कराने के लिए किया जा सकता है.

यह भी पता चला है कि लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ा कर 6 साल किया जा सकता है.

यह है मंशा

लोगों को गलत भी नहीं लग रहा है क्योंकि अकसर नेताओं की असल मंशा होती कुछ और है और वे उसे दिखाते कुछ और हैं. बात अगर नरेंद्र मोदी की हो तो यह शक और गहरा हो जाता है. इस का एक बेहतर उदाहरण उन का नोटबंदी का फैसला है जिस की घोषणा करते वक्त उन्होंने 8 नवंबर, 2016 को जनता को भरोसा दिलाया था कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, जाली करैंसी व कालाधन वगैरह सब बंद और खत्म हो जाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, पिछले 8 साल इस के गवाह हैं.

ताजी मिसाल बीती 4 मई को ही पुंछ में हुआ आतंकी हमला है जिस में एयरफोर्स का एक जवान मारा गया और 4 घायल हो गए.

उस के ठीक 4 दिनों पहले छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र बौर्डर पर अबू?ामाड़ के जंगलों में नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों की मुठभेड़ में 10 नक्सली मारे गए थे. खबर अच्छी थी लेकिन चिंताजनक इस लिहाज से है कि नक्सली गतिविधियां खत्म नहीं हुईं हैं बल्कि आतंकी घटनाओं की तरह एक अनियमित अंतराल से होती रहती हैं. मारे गए नक्सलियों के पास से हथियारों का जखीरा बरामद होने से तो साबित यही होता है कि नक्सलियों के पास नोटों की कमी नहीं.

ठीक इसी दिन बिहार के मोतिहारी से कोई 13 लाख रुपए के जाली नोट बरामद होने का सिलसिला जारी रहने की पुष्टि हुई थी.

ये कुछ ताजी घटनाएं नोटबंदी के फैसले को जबरन देश पर थोपने की हकीकत बयां करती हुई हैं जिस की असल मंशा उत्तर प्रदेश का 2017 में होने वाला विधानसभा चुनाव था जिस में खासतौर से सपा और बसपा कंगाल हो गए थे और पैसों की कमी के चलते चुनाव हार गए थे.

इस के बाद तो नरेंद्र मोदी की कुछ भी करगुजरने की हिम्मत बढ़ती गई. जब इस फैसले से लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूटने लगा था तो 5 दिनों बाद ही वे गोवा में यह कहते रो दिए थे कि मु?ो 30 दिसंबर तक का वक्त दो, इस के बाद अगर मेरी गलती निकल आए तो किसी भी चौराहे पर मु?ो जो चाहो सजा दे देना. उन के आंसू देख जनता जज्बाती हो गई थी और बात आईगई हो गई थी. लेकिन नोट बदलने के चक्कर में सैकड़ों लोग बेमौत मारे गए थे.

इस के बाद ‘एक देश एक टैक्स’ के नाम पर 1 जुलाई, 2017 से जीएसटी लागू कर दी गई. इस की एक वजह लोगों का उन्हें नोटबंदी के फैसले की बाबत माफ सा कर देना भी था. जीएसटी पर देश के व्यापारी आज तक ?ांकते नजर आते हैं. इस से भी, ऐलान के मुताबिक, घपलेघोटाले खत्म नहीं हुए जिस के ताजे उदाहरण हैं 27 अप्रैल को गोरखपुर में एक स्क्रैप व्यापारी सुनील सेठ के यहां पड़ा छापा जिस में लाखों की टैक्स चोरी पकड़ी गई.

इस के कुछ दिनों ही पहले जबलपुर रेलवे स्टेशन के पार्सल विभाग में भी तगड़ी टैक्स चोरी पकड़ी गई थी. टैक्स चोरी जीएसटी के बाद भी बदस्तूर जारी है और लाखों छोटे व्यापारी व कारोबारी इस से कंगाल व तबाह हो गए थे. आम लोग महंगाई से कराहने लगे हैं जो खानेपीने के आइटमों पर भी टैक्स भर रहे हैं. जीएसटी का विरोध भी फुस्स हो कर रह गया तो सरकार को सम?ा आ गया कि कुछ भी करते रहो, बहुत बड़ा विरोध नहीं होगा क्योंकि देश में अंधभक्तों की भरमार है जो मंदिर और हिंदूमुसलिम के चक्कर में उल?ो हां में हां मिलाते रहते हैं. इन लोगों को बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कोई सरोकार नहीं है.

अब ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ की चर्चा पर भी हो वही रहा है जैसा कि सरकार चाहती है कि लोग ?ांसे में आ कर 400 पार करा दें. नई व्यवस्था वजूद में आने के बाद 5 साल कुछ भी करते रहो उस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इस के पीछे छिपी मंशा कम ही लोग सम?ा पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बहुत सधे कदमों से मनमानी की तरफ बढ़ रहे हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं चाहते.

अहं ब्रह्मास्मि की तरफ

‘एक देश एक चुनाव’ के जो फायदे आज गिनाए जा रहे हैं वे नोटबंदी और जीएसटी सरीखे ही काल्पनिक व सपने दिखाने वाले हैं. चुनावी खर्च इस से कम होगा, इस की कोई गारंटी नहीं है. सरकार को अगर जनता के पैसे की इतनी ही चिंता है तो पहले उसे अपनी फुजूलखर्ची कम करनी चाहिए. खुद चुनाव आयोग भी बहुत दरियादिली, जिसे बेरहमी कहना ज्यादा सटीक होगा, से पैसा खर्च करता है जिस पर कोई सवाल नहीं उठाता मानो यह कोई धार्मिक अनुष्ठान हो जिस के खर्च के बारे में सवाल करने से ही पाप लग जाएगा.

चुनाव के खर्च पर हालफिलहाल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पिछले 35 सालों से चुनावी खर्च पर नजर रख रहे सैंटर फौर मीडिया स्टडीज के मुताबिक इस बार के चुनाव पर 2019 के चुनाव से दोगुना खर्च हो रहा है. देश में इस वक्त 96.6 करोड़ वोटर हैं. 2019 के चुनाव में प्रतिवोटर 31.52 रुपए खर्च आया था जो कि 60,000 करोड़ रुपए था. अब महज 5 साल में इस से दोगुना खर्च हो रहा है तो इस की एक वजह बढ़ते वोटर और पोलिंग बूथ भी हैं. इन्हें एक देश एक चुनाव में कम नहीं किया जा सकता. दूसरे, कुछ खर्च कम हो सकते हैं लेकिन वे इतने नहीं होंगे कि भारीभरकम बचत हो जाए और देश से गरीबी हट जाए.

अंदाजा यह भी है कि पार्टियों और प्रत्याशियों के खर्च भी इस में जोड़ दिए जाएं तो प्रतिवोटर खर्च हजारों में हो जाएगा. क्या चुनाव आयोग या दूसरा कोई इन पर अंकुश लगा सकता है? जवाब बेहद साफ है कि नहीं. इस बार तीसरे चरण का मतदान आतेआते ही तगड़ा कैश देशभर से बरामद हुआ था जिस से लगा था कि असल ?ां?ाट लगभग 2 महीने तक चलने और 7 चरणों में होने वाले चुनाव हैं जिस की तुक ही सम?ा से परे हैं.

चुनाव पहले भी होते थे और एकदो चरण में संपन्न हो जाते थे. लिहाजा, पैसा कम खर्च होता था. अब तो मतदाता जागरूकता के नाम पर ही मोटा पैसा खर्च किया जा रहा है जो दूसरे कई खर्चों की तरह गैरजरूरी है. तमाम कोशिशों और बेतहाशा खर्च के बाद भी मतदान 60-70 फीसदी पार नहीं कर पा रहा तो इस का उत्तर ‘एक देश एक चुनाव’ नहीं है.

सनातन के नाम पर वोट

एक कड़वा सच यह है कि अब लोगों को चुनाव का औचित्य ही सम?ा नहीं आ रहा कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल आखिर किस और किन मुद्दों पर वोट चाह रहे हैं. प्रचार इतना उबाऊ और एक हद तक फूहड़ है कि लोग वोट न डालना ही बेहतर सम?ा रहे हैं. कहने को तो एक विकल्प नोटा है लेकिन वह कोई प्रत्याशी नहीं है जिस का बटन दबाने से खास फर्क पड़ता हो. हाल तो यह है कि खुलेआम धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगे गए, सनातन की रक्षा के नाम पर वोट डालने की अपीलें की गईं, जिस से वोटर का मन उचटा.

इस कथित धर्मनिरपेक्ष देश में 5 मई को भाजपा ने एक विज्ञापन जारी किया था जिस में कहा गया था कि हम महाकाल की तर्ज पर धर्मस्थलों का विकास करेंगे, इसलिए भाजपा को वोट दो. आचार संहिता और संविधान के इस खुले उल्लंघन पर चुनाव आयोग का ध्यान भी नहीं गया, न ही विपक्ष ने कोई एतराज जताया तो चुनाव आयोग की मतदान बढ़ाने की कवायद एक शिगूफा और औपचारिकता ही लगती है.

हालांकि खर्च कम हो सकता है लेकिन वह ‘एक देश एक चुनाव’ के नाम पर ही कम हो सकता है, यह दलील सिरे से न सम?ा आने वाली है.

बारबार चुनावों से होता यह है कि सरकार पर जनता का दबाब बना रहता है कि एक भी गलत या मनमाना फैसला केंद्र और राज्यों से बेदखल कर सकता है ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा से कई राज्य छिन गए थे. इन में दिल्ली, पंजाब, बिहार, ?ारखंड, सहित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे गढ़ भी शामिल थे. 2017 के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भाजपा अगर काबिज हो पाई थी तो इस की सियासी वजहें थीं. नोटबंदी को भी तब इतना वक्त नहीं हुआ था कि लोगों को इस का खुद की जिंदगी पर पड़ता असर साफतौर पर महसूस होने लगता.

इस के बाद धर्म, मंदिर और जाति की राजनीति की हवा चली तो वह अब तक थमने का नाम नहीं ले रही है. चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दे जमीनी कम हवाहवाई ज्यादा हैं, मसलन राम मंदिर, हिंदूमुसलिम और पाकिस्तान वगैरह. ‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे मंशा यही है कि इन मुद्दों को एक बार में ही भुना लिया जाए और फिर एक नेता 5-6 साल बैठ कर इत्मीनान से राज करे क्योंकि तब तक जनताजनार्दन के हाथ कटे रहेंगे. किसी मुद्दे या फैसले पर ज्यादा विरोध होगा तो उस नेता के पास उस की अनदेखी करने और सख्ती से निबटने के कई रास्ते होंगे.

तो यह एक एक बड़ी साजिश है जिसे कानून का जामा पहना कर नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि 5 साल उन के अलावा कोई और न दिखे और उन्हें बारबार मेहनत न करनी पड़े. एक ही चेहरा और एक ही नेता नजर आए. अभी तो विपक्ष दिख भी जाता है और उस का दबाव भी सरकार के उलटेसुलटे फैसलों पर रहता है. आशंका इस बात की भी है कि सरकार मनमाने फैसले चुनाव के 2-3 साल बाद तक ले लेगी और चौथेपांचवें साल में मुफ्त के राशन जैसी कोई लोकलुभावनी योजना ले आएगी या जाति की कारपेट फिर बिछा लेगी व हिंदूमुसलिम को बड़े पैमाने पर भुनाएगी जिस से लोग नोटबंदी और जीएसटी की तरह भूल जाएं कि उन का और देश का अहित व नुकसान करते फैसलों का कितना, क्या और कैसा खमियाजा भुगतना पड़ा था.

खतरा एक का

गणित में भले ही एक की अपनी अलग अहमियत हो लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में एक बड़ा खतरा है जो मूलतया तानाशाही का संकेत देता है. इतिहास में जितने भी तानाशाह हुए हैं वे कोई रातोंरात तानाशाह नहीं बन गए थे. जरमनी का एडोल्फ हिटलर, इटली का बेनिटो मुसोलनी, सोवियत संघ का व्लादिमीर इलीइच लेनिन, जोसेफ स्टालिन या चीन का माओ त्से तुंग इन, युगांडा के ईदी अमीन से ले कर इराक के सद्दाम हुसैन तक के कोई दर्जनभर नाम दुनिया के तानाशाहों में शुमार किए जाते हैं.

ये सभी या कोई एक खास किस्म की सनक के लिए तानाशाह बने थे जिस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सनक क्या थी, वामपंथी या दक्षिणपंथी. अहम यह बात है कि उन की सनक, जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, ने जम कर खूनखराबा कराया, लाशों के ढेर लगा दिए, अनगिनत औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों को अनाथ बना दिया. इन्होंने लोगों की आजादी छीनी और दहशत फैलाई.

होता इतना भर है कि इन्होंने और इन की सरकारों ने संवैधानिक सीमाओं को तोड़ते सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में कैद कर लिए थे और लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया था. इतिहास बताता है कि आधुनिक यानी तथाकथित लोकतांत्रिक तानाशाहों में और प्राचीन तानाशाहों में बड़ा फर्क होता है. अब तानाशाही का मतलब सामूहिक नरसंहार नहीं बल्कि पूंजी को मुट्ठीभर हाथों को सौंप देना हो गया है और इस के लिए किसी विचार या दर्शन का नहीं बल्कि धर्म का सहारा लिया जाने लगा है, जिस से आम लोग गुलामों की तरह शासक के इशारे पर नाचने लगते हैं. यह भी राजशाही वाली तानाशाही की तरह ही घातक और नुकसानदेह है.

‘एक देश एक चुनाव’ की धारणा तानाशाही की तरफ तीसरा कदम है जिस के लिए 1950 के संविधान की दुहाई चुनावप्रचार के दौरान बारबार दी तो गई जबकि उसी संविधान को तारतार किए जाने की मंशा छिपी हुई है. और इसी से हरकोई चिंतित है.

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान होने का भ्रम होने लगता है. इस भ्रम को विश्वास में बदलने के लिए वह जनता की सहमति लेने को संविधान को अपनी मरजी के मुताबिक ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ता.

हिटलर विकट का धार्मिक था और तानाशाही के उत्तरार्ध में शुद्ध नस्ल के आदमी पर जोर देने लगा था. यह एक मूर्खतापूर्ण बात थी जिस का दोहराव मौजूदा शासकों में दूसरे तरीकों से देखने में आता है लेकिन वह धार्मिक सिद्धांतों, जो पूर्वाग्रह ज्यादा हैं, से इतर नहीं है.

सभी धर्म और उन के ग्रंथों का निचोड़ यही है कि ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान है, पूजनीय है और अपनी बात अपने प्रतिनिधियों के जरिए कहता है जिन की हैसियत भगवान से कम नहीं होती. हालांकि समयसमय पर नीत्शे जैसे दार्शनिक भी हुए हैं जिन्होंने ईश्वर की परिकल्पना को ही तर्कों से तारतार कर दिया लेकिन नीत्शे जैसे दार्शनिक चूंकि ‘मैं’ पर जोर नहीं देते इसलिए वक्त रहते अप्रांसगिक होते गए.

रूस में व्लादिमीर पुतिन भी लगभग भगवान होते जा रहे हैं और चीन में शी जिनपिंग भी साम्यवादी विचारधारा को ले कर अनियंत्रित होते जा रहे हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का भगवान होने का भ्रम अब एक खतरनाक जिद में तबदील हो चुका

है जिस के चलते वे अनापशनाप बातें करने लगे हैं. वे जैसे भी हों, जो बाइडेन को अपदस्थ कर सत्ता हथिया लेना चाहते हैं.

यह सारा ?ामेला एक और उस से उपजी सनक ‘मैं’ का है.

भारत में यह अद्वैत दर्शन की वजह से है. नरेंद्र मोदी की मंशा अब विकास या देश चलाना नहीं रह गई है, बल्कि वे अद्वैत को थोपने में जुट गए हैं. अहं ब्रह्मास्मि बृहदारण्यक उपनिषद का एक महावाक्य है जिस की लोकतंत्र में भूमिका की चर्चा सब से पहले एकात्म मानववाद के रूप में जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने की थी. यह दर्शन अंत में अनंत ब्रह्मांड की बात करने लगता है.

लोकतंत्र में धार्मिक दर्शनों या सिद्धांतों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि इस में सब की भागीदारी होती है जिसे खत्म कर देने के लिए संविधान को बदलने की बात से ही जिम्मेदार लोग चिंतित हैं.

पहली चिंता जानेमाने अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर ने इन शब्दों में जताई-

‘‘अगर नरेंद्र मोदी सरकार दोबारा सत्ता में वापस लौटती है तो आप और चुनाव की उम्मीद मत कीजिए. इस के बाद चुनाव होगा ही नहीं. देश का संविधान और नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. आप लालकिले से नफरत की बातें सुनेंगे जो काफी खतरनाक हैं. जो आज मणिपुर में हुआ वह कहीं और भी हो सकता है. किसानों और लद्दाख जैसा हाल पूरे देश का होने वाला है.’’ प्रभाकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण के पति हैं और भाजपा में रह चुके हैं. इस नाते भी उन की इस चेतावनी को नजरंदाज करना बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती.

निरंकुशता की तरफ

अब औक्सफोर्ड डिक्शनरी के एक शब्द औटोक्रेसी की बात करें तो इस का मतलब होता है कि किसी देश की वह शासन व्यवस्था जिस में एक ही व्यक्ति के हाथों में सारी शासन व्यवस्था होती है. सहूलियत के लिए इसे अधिनायकवाद का पर्याय भी माना जा सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर एक पर जोर देते रहे हैं, वन रैंक वन पैंशन, एक विधान एक टैक्स और अब एक देश एक चुनाव इसी सीरीज की अहम कड़ी है. इस में वे घोषिततौर पर लोकतांत्रिक तानाशाह लगते हैं. विपक्ष ने इसे कई बार मुद्दा बनाने की कोशिश की है लेकिन हर बार उस की आवाज को धार्मिक शोर तले बड़ी चालाकी से दबा दिया गया. दबे शब्दों में एक ही धर्म की बात की जाती है क्योंकि दूसरे बड़े धर्म को विदेशी कह दिया जाता है.

इसी से ताल्लुक रखती स्वीडन के गोथेनबर्ग में स्थित वी डेम इंस्टिट्यूट यानी वेरायटीज औफ डैमोक्रेसी की बीती 7 मार्च को जारी एक रिपोर्ट, जिस का शीर्षक है ‘डैमोक्रेसी विनिंग एंड लूजिंग एट द बैलेट’, में कहा गया है कि भारत 2023 में ऐसे टौप 10 देशों में शामिल रहा जहां अपनेआप में तानाशाही या निरकुंश शासन व्यवस्था है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 2018 में चुनावी तानाशाही में नीचे चला गया और आखिर तक इसी श्रेणी में बना रहा. इस में एक दिलचस्प बात यह भी कही गई है कि इस समूह के 10 में से 8 देश निरंकुशता की शुरुआत से पहले लोकतांत्रिक थे. उन 8 में से 6 देशों- भारत, हंगरी, मौरिशस, कोमोरोस, निकारागुआ और सर्बिया में लोकतंत्र खत्म हो गया. इस लंबी रिपोर्ट में देश की मौजूदा हालत को कुछ यों भी बयां किया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ बहुलता विरोधी, हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा ने उदाहरण के लिए आलोचकों को चुप कराने के लिए राजद्रोह, मानहानि और आतंकवाद विरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया. भाजपा सरकार ने 2019 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूपीए में संशोधन कर के धर्मनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता को कमजोर किया.

एक मंदिर एक देवता क्यों नहीं

भाजपा के 5 मई को प्रकाशित धार्मिक विज्ञापन ऐसे तमाम आरोपों की पुष्टि ही करता है कि यहां राजनीति धर्म की ही चलती है. बाकी छिटपुट बातें तो खाने में सलाद की तरह होती हैं. धर्मस्थलों के विकास के वादे वाला विज्ञापन सरासर जन प्रतिनिधित्व अधिनयम की धारा 123 (3) को धता बताता हुआ तो था ही, इस में सुप्रीम कोर्ट के 2 जनवरी, 2017 के उस फैसले का भी उल्लंघन भी था जिस में 7 जजों की बैंच ने कहा था कि प्रत्याशी या उन के समर्थकों द्वारा धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है. चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है, सो, धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है.

इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या के रामलला मंदिर में साष्टांग थे. हालांकि पूरे चुनाव प्रचार में वे राधेराधे और रामश्याम ही करते रहे थे जिस से उन का कोर वोटर भी ?ाल्ला गया था कि कभीकभार ही सही कुछ तो कायदे की बात करो.

भाजपा का पूरा चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द ही सिमटा रहा था जिसे गोदी मीडिया ने जितना हो सकता था उस से भी ज्यादा स्पेस दिया. हर सीट पर भाजपा उम्मीदवारों ने यही कहा कि चुनाव मोदीजी लड़ रहे हैं आप का वोट उन्हीं को जाएगा. खुद नरेंद्र मोदी ने भी कई बार कहा कि आप का वोट मोदी को मिलेगा.

जब वोट भी एक ही को देना है तो पूरी 542 सीटों पर मोदी खुद ही लड़ लेते तो कोई पहाड़ न टूट पड़ता. एक की रट लगाए वे लगेहाथ यह भी बता देते कि आखिर एक मंदिर एक देवता की बात या व्यवस्था कब की जाएगी जिस से बहुतों को पूजने की ?ां?ाट ही खत्म हो जाए.

लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाएगा क्योंकि ये बहुत से देवीदेवता ही हिंदू धर्म की दुकान के बड़े प्रोडक्ट हैं जिन से श्रेष्ठि वर्ग को रोजगार मिला हुआ है, इसीलिए इन दुकानों को सरकारी खर्चे पर और चमकाया जा रहा है जिस से आमदनी ज्यादा से ज्यादा हो और लोग जातियों में बंटे रहें. इस बाबत पटेल और अंबेडकर तक के मंदिर बना दिए गए हैं.

4 जून के नतीजे क्या होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन एक देश एक चुनाव की व्यवस्था अगर लागू हो पाई तो देश का क्या हाल होगा, इस का जरूर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

 

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