न्यूजक्लिक के 74 वर्षीय प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ 6 महीने जेल में रहने के बाद आखिरकार जमानत पर रिहा हो गए. सुप्रीम कोर्ट ने उन की गिरफ्तारी को अमान्य करार दिया और कहा कि जब 4 अक्टूबर, 2023 को रिमांड आदेश पारित किया गया था, तो उस से पहले प्रबीर पुरकायस्थ या उन के वकील को रिमांड की कौपी क्यों नहीं दी गई? इस का मतलब यह है कि गिरफ्तारी का आधार उन्हें लिखित रूप में नहीं दिया गया. इस लिहाज से उन की गिरफ्तारी वैध नहीं है और इस वजह से प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को कोर्ट निरस्त कर उन्हें जमानत पर रिहा करने का आदेश देता है.
न्यूजक्लिक एक स्वतंत्र मीडिया संगठन है जो अपने मिशन का वर्णन ‘प्रगतिशील आंदोलनों पर विशेष ध्यान देने के साथ, भारत और उस से परे समाचारों को कवर करने के लिए समर्पित’ के रूप में करता है. प्रबीर पुरकायस्थ इस के संस्थापक होने के साथसाथ प्रधान संपादक भी हैं. इस संस्था से अनेक वरिष्ठ पत्रकार जुड़े हुए हैं. अभिसार शर्मा, औनिंद्यो चक्रवर्ती, भाषा सिंह, उर्मिलेश, सुमेधा पाल, अरित्री दास, इतिहासकार सोहेल हाशमी और व्यंग्यकार संजय राजौरा जैसे न्यूजक्लिक से जुड़े अनेक पत्रकार उन लोगों में शामिल थे, जिन के ऊपर 3 अक्टूबर 2023 को पुलिस ने छापा मारा, उन के घरों की तलाशी ली और उन के कंप्यूटर, लैपटौप, फोन आदि जब्त कर लिए. आरोप था कि न्यूजक्लिक प्लेटफौर्म से ‘राष्ट्रविरोधी प्रचार’ के लिए चीनी फंडिंग हो रही है.
ये छापेमारी 17 अगस्त 2023 को न्यूयौर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के आधार पर की गई थी. रिपोर्ट में न्यूजक्लिक वेबसाइट पर आरोप लगाए गए थे कि उस ने चीनी प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए एक अमेरिकी करोड़पति से फंडिंग प्राप्त की है. उस समय दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने न्यूजक्लिक के खिलाफ केस दर्ज किया था. इस के बाद ईडी ने भी इस मामले में केस दर्ज किया था.
उक्त कार्रवाई गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और भारतीय दंड की धारा 153 ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 120 बी (आपराधिक साजिश के लिए सजा) के प्रावधानों के तहत दर्ज की गई पहली सूचना रिपोर्ट पर आधारित थी. हालांकि न्यूजक्लिक ने इन सभी आरोपों का खंडन किया था. न्यूजक्लिक से जुड़े पत्रकारों के खिलाफ यूएपीए की धाराएं इसीलिए लगाई गई थीं ताकि गिरफ्तारी के बाद वो जमानत पर आसानी से छूट न सकें.
पुलिस ने न्यूज वेबसाइट के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और एचआर हेड अमित चक्रवर्ती को गिरफ्तार किया. इस के बाद पुलिस ने करीब 30 स्थानों की तलाशी ली और 46 लोगों से पूछताछ की. दक्षिण दिल्ली में संस्था के कार्यालय को सील कर दिया और तमाम डिजिटल उपकरणों, मोबाइल फोन व अन्य दस्तावेजों आदि को जब्त कर लिया. मजे की बात यह है कि दिल्ली पुलिस ने इस केस में सोशल एक्टिविस्ट गौतम नवलखा और अमेरिकी कारोबारी नेविल रौय सिंघम को भी नामित किया था. जबकि गौतम नवलखा एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में 4 साल से हाउस अरेस्ट थे और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जमानत पर छूटे हैं.
प्रबीर पुरकायस्थ गिरफ्तारी के बाद से ही दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे और जमानत के लिए प्रयासरत थे. हाई कोर्ट से उन को पहले ही जमानत मिल जानी चाहिए थी मगर नहीं मिली और इस कवायत में सुप्रीम कोर्ट तक मामले को आतेआते 6 महीने का वक्त गुजर गया.
सुप्रीम कोर्ट में प्रबीर पुरकायस्थ की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि 3 अक्टूबर 2023 को प्रबीर पुरकायस्थ को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने उन के वकील को सूचित किए बिना दूसरे दिन सुबह 6 बजे ही जल्दबाजी में मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर रिमांड पर ले लिया और जेल भेज दिया. शीर्ष अदालत यह सुन कर आश्चर्यचकित रह गई कि प्रबीर पुरकायस्थ के वकील को उन की रिमांड अर्जी मिलने से पहले ही रिमांड आदेश पारित कर दिया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि गिरफ्तारी की प्रक्रिया जैसे कि गिरफ्तारी का आधार बताना, आरोपी को अपना वकील देने का मौका देने तक का इस मामले में पालन नहीं किया गया. कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि जब श्री पुरकायस्थ ने इस पर आपत्ति जताई, तो जांच अधिकारी ने उन के वकील को टेलीफोन के माध्यम से सूचित किया और रिमांड आवेदन उन्हें व्हाट्सऐप पर भेज दिया, जो कतई ठीक नहीं था, क्योंकि यह जानकारी लिखित में दी जाती है.
पुलिस की जल्दबाजी पर हैरानी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और रिमांड की प्रक्रिया को गैरकानूनी करार देते हुए उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली दो सदस्यों वाली बेंच ने यह भी कहा कि पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और उस के बाद उन्हें हिरासत में रखा जाना कानून की नजर में पूरी तरह अवैध था. पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के समय यह नहीं बताया गया कि इस का आधार क्या था. इस की वजह से गिरफ्तारी निरस्त की जाती है.
अब जबकि प्रबीर पुरकायस्थ और गौतम नवलखा को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल चुकी है, पत्रकार संगठनों ने दोनों की जमानत का स्वागत करते हुए राजनीति कारणों से की गई इन गिरफ्तारियों की कड़े शब्दों में निंदा की है. वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने एक्स पर लिखा – ‘माननीय न्यायमूर्ति गण, आपने भारत के पत्रकारों को थोड़ा और निर्भय बनाने का काम किया है. न्यूजक्लिक के प्रबीर पुरकायस्थ और भीमा कोरेगांव कांड में अभियुक्त गौतम नवलखा तथा उन के कई साथियों को जमानत दे कर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रैस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों की रक्षा की है.
‘इन दोनों अलगअलग मामलों में जिस तरह सत्ता और कानूनों का घोर दुरुपयोग कर के आलोचक आवाजजों का दमन किया गया वह भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा था. इसी तरह के काम सरकार पर तानाशाही सोच और इरादों के आरोपों को सुदृढ़ बनाते हैं. सरकार की आलोचना, वैचारिक विरोध आतंकवाद नहीं हैं. उन के आधार पर मनगढ़ंत आरोप लगा कर आतंकवाद निरोधक कानून यूएपीए लगाना बुनियादी संवैधानिक स्वतंत्रताओं पर हमला करना है. आशा है सरकारें और जांच एजेंसियां इन फैसलों से सही सबक लेंगी.’
डिजिटल युग में एक स्वस्थ और मजबूत समाचार पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण को सुनिश्चित करने में मदद करने के इरादे से डिजिटल मीडिया संगठनों द्वारा गठित डिजिपब (DIGIPUB) न्यूज इंडिया फाउंडेशन ने भी कहा, “हम न्यूजक्लिक के खिलाफ पुलिस और एजेंसी की कार्रवाई की लगातार निंदा करते रहे हैं, जहां पत्रकारों से पूछताछ की गई, उन के उपकरणों को जब्त कर लिया गया और उन के घरों पर छापे मारे गए.
“इसी तरह पिछले साल प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी हुई. लोकतंत्र में कोई सरकार स्वतंत्र प्रैस के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों को इस्तेमाल नहीं कर सकती, खासकर उचित प्रक्रिया के अभाव में. पत्रकारों के खिलाफ कानून को हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए, इस से उन का जीवन, स्वतंत्रता और आजीविका जोखिम में पड़ जाती है. हम खुश और आभारी हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार हस्तक्षेप किया है. हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह उन मीडिया घरानों के खिलाफ जानबूझ कर और उन्हें दबाने के लिए की जा रही कोशिशों में सावधानी और संयम बरते, जिन से वह (सरकार) सहमत नहीं हैं. हमें उम्मीद है कि प्रबीर के मामले में कानून के अनुसार निष्पक्ष सुनवाई होगी.”
उल्लेखनीय है कि 3 अक्टूबर 2023 को प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के समय प्रैस क्लब औफ इंडिया ने न्यूजक्लिक के खिलाफ पुलिस कार्रवाई की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि इस से प्रैस की स्वतंत्रता को बड़ा खतरा है. उसी दिन, एडिटर्स गिल्ड औफ इंडिया (ईजीआई) की कार्यकारी समिति ने वरिष्ठ पत्रकारों के आवासों पर की गई छापेमारी के संबंध में चिंता व्यक्त की थी, जिस में उन के इलैक्ट्रौनिक उपकरणों की जब्ती और दिल्ली पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए हिरासत में लिए जाने पर सवाल उठाया था. एडिटर्स गिल्ड ने उचित प्रक्रिया का पालन करने और कड़े कानूनों के तहत धमकी के माहौल से बचने, एक कामकाजी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति की रक्षा करने की आवश्यकता पर जोर दिया था.
नैशनल अलायंस औफ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन औफ जर्नलिस्ट्स और केरल यूनियन औफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (दिल्ली यूनिट) ने भी सामूहिक रूप से 3 अक्टूबर 2023 को पुलिस छापे और पत्रकारों की गिरफ्तारी की निंदा की थी. उन्होंने मीडिया कर्मियों को निशाना बनाने और इन कार्रवाइयों में अभूतपूर्व जल्दबाजी दिखाने की निंदा करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि मोदी सरकार का उद्देश्य प्रैस की स्वतंत्रता को दबाना है, विशेष रूप से श्रम और कृषि मुद्दों पर न्यूजक्लिक की कवरेज के बाद से सरकार बौखलाई हुई है. उन्होंने प्रैस की स्वतंत्रता पर इस कथित हमले को तत्काल रोकने का आह्वान किया था और मीडिया बिरादरी से सरकार की धमकियों के खिलाफ एकजुट होने का भी आह्वान किया था. जाहिर है न्यूजक्लिक पर पुलिस और ईडी की कार्रवाई सरकार के आदेश पर ख़बरों का मुंह बंद करने के उद्देश्य से हुई थी.
पिछले कुछ वर्षों में ‘दैनिक भास्कर’, ‘न्यूजलौंड्री’, ‘न्यूजक्लिक’, ‘द कश्मीर वाला’ और ‘द वायर’ जैसे मीडिया संगठनों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी के बाद यह बात लगातार उठ रही है कि भारत में लोकतंत्र का दमन हो रहा है. केंद्र की भाजपा सरकार की बलपूर्वक कार्रवाइयां केवल उन मीडिया संगठनों और पत्रकारों के खिलाफ जारी हैं जो सत्ता के सामने सच बोलते हैं. विडंबना यह है कि जब देश में नफरत और विभाजन को भड़काने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात आती है तो भाजपा सरकार पंगु हो जाती है.
वैश्विक मीडिया निगरानी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बौर्डर्स (आरएसएफ) की मई 2023 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक विश्व प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 180 देशों में से 161वें स्थान पर खिसक चुकी है. साल 2002 में भारत इस लिस्ट में 150वें पायदान पर था. आरएसएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में सभी मुख्यधारा मीडिया अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी अमीर व्यापारियों के स्वामित्व में हैं और सरकार के समर्थन में काम करते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी के पास समर्थकों की एक ऐसी फौज है जो सरकार की आलोचना करने वाली सभी औनलाइन रिपोर्टिंग पर नजर रखते हैं और स्रोतों के खिलाफ भयानक उत्पीड़न अभियान चलाते हैं. अत्याधिक दबाव के इन दो रूपों के बीच फंस कर कई पत्रकार, व्यवहार में, खुद को सेंसर करने के लिए मजबूर हैं. पत्रकार सौफ्ट टारगेट (जिन पर निशाना लगाना आसान हो) हैं, खासतौर पर वे जो छोटे न्यूज पोर्टल्स से आते हैं. उन के पास वह सुरक्षा नहीं है जो बड़े संगठनों में मौजूद लोगों के पास है. आज पत्रकारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ले कर अनेक गंभीर सवाल भारत में खड़े हैं, जिन का जवाब सरकार को देना ही होगा.
जब से भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने बैंकों के नौन परफौर्मिंग एसेट यानी डूबा हुआ पैसा अपने टैक्स देने वाली जनता के 30 लाख करोड़ रुपयों से पूरा कर दिया. इस से बैंकों के खाते में मुनाफे बढ़ गए हैं. बैंकों ने कर्ई सालों तक ऐसे लोगों को भरभर कर कर्ज दिया था जिन के सरकार से अच्छे संबंध थे. इन लोगों ने सरकार को खूब समर्थन भी दिया था. इस दरियादिली से आम आदमी को कोई लाभ नहीं हुआ पर बैंकों की बैलेंस शीट सुधर गईं और वे मुनाफे दिखाने लगे हैं.
इस का अर्थ यह नहीं है कि देश में बैंकिंग व्यवस्था सुधर गई है. बैंक चूसने वाले साहूकार थे और आज भी वैसे ही हैं. वे कर्ज, क्रैडिट कार्ड, होम लोन, एजुकेशन लोन, ट्रैवल लोन लेने को लोगों को उकसाते हैं और फिर वसूली के लिए घरदुकान नीलाम करते हैं. बैंकों के नियम हर रोज बदलते है. बैंक आज तमाम सुविधाओं का लालच दे कर लोगों से फिक्स्ड डिपौजिट या अन्य खाता खुलवाने को लुभाते हैं और लोग खाता खुलवा भी लेते हैं. लेकिन उन्हें हक़ रहता है कि अगले किसी भी क्षण वे रिजर्व बैंक के आदेश का हवाला दे कर उन सुविधाओं को कम कर सकते हैं या बंद कर सकते हैं जिन से प्रभावित हो कर ग्राहकों ने खाते खुलवाए.
बैंकों के मुनाफे बढ़ रहे है क्योंकि बैंकिंग व्यवस्था आज हर नागरिक का हर खाता, वह चाहे किसी भी बैंक में हो, खंगाल सकती है. सिबिल प्रणाली से किसी को भी बैंकिंग व्यवस्था से बाहर कर के उसे कंगाल बनाया जा सकता है. केवाईसी का बहाना बना कर किसी का भी पैसा जब्त किया जा सकता है. जब बैंकों के पास सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की शह पर हर तरह के हथियार होंगे तो सरकार की कैशलैस नीतियों और औनलाइन पेमैंट की व्यवस्था का लाभ उन्हें मिलेगा ही और फिर मुनाफा तो होगा ही.
बैंक कस्टमरफ्रैंडली होते हैं, यह सिर्फ कहने की बात है. बैंकों को ढंग से चलाने के नाम पर रिजर्व बैंक असल में बैंकों के ग्राहकों को शिकंजों में कसता है जिस से बैंकों का मुनाफा बढ़ रहा है पर आम ग्राहक पिस रहा है. सभी बैंकों ने मिल कर हर सुविधा की मोटी फीस लगानी शुरू कर दी है जो कभी भी बढ़ाई जा सकती है. केंद्र सरकार और उस के इशारे पर चलने वाला रिजर्व बैंक जनता को चूसने के नएनए तरीके अपना रहे हैं और यह पैसा सरकार के बहुत ही घनिष्ठ उन बड़े उद्योगपतियों के पास जा रहा है जो अरबोंखरबों के कर्ज में डूबे हैं लेकिन दुनिया के अमीरों में गिने जाते हैं.
यह बैंकिंग व्यवस्था की देन है कि भारत के 2 शहरों- दिल्ली व मुंबई- में दुनिया के अमेरिकी डौलर वाले बिलियनायर्स भरे पड़े हैं जो यूरोपीय व अमेरिकी बिलियनायर्स को चिढ़ा रहे हैं कि देखो, इस गरीब देश में बैंकों से मिलीभगत कर के कितना पैसा जमा किया जा सकता है.
बैंक व्यवसायों का साथ दें, उन के साथ मुनाफा कमाएं, इस पर किसी को एतराज नहीं. पर केंद्र सरकार की शह पर ‘वे’ सूदखोर महाजन बन गए हैं, यह देश की दुखद हालत है. देश के 2 लाख किसानों की आत्महत्याएं बैंकों के कर्ज के कारण होने वाली वसूली के जोखिम के कारण ही हुई हैं, यह न भूलें.
आपने कई फिल्में जुड़वा बच्चों पर आधारित देखे होंगे जो अधिकतर कौमेडी फिल्में होती हैं. इन फिल्मों में बहुत ही अजीबोगरीब चीजें दिखाई जाती हैं जिसे आम जिंदगी में विश्वास कर पाना मुश्किल होता है, मसलन एक को मार पड़ती है तो दूसरे को चोट लगती है. एक बीमार होता है तो दूसरा भी बीमार हो जाता है.
सलमान खान की फिल्म जुड़वा ऐसी ही फिल्म है जिसे बौक्स औफिस पर काफी सफलता मिली, क्योंकि दर्शकों ने इस फिल्म को खूब एंजोय किया. इस के अलावा एक का किसी लड़की से प्यार होना तो उसी शक्ल सूरत का दूसरे का वहां पहुंच जाना, फिर न जाने कितने ही मजेदार चीजें उन की जिंदगी में घट जाना होता है.
गुलजार की 1982 की बनी फिल्म ‘अंगूर’ भी बौक्स औफिस पर हिट फिल्म रही. दर्शकों ने इसे खूब पसंद किया. इन फिल्मों की संख्या कई है मसलन अनहोनी (1952), हम दोनों (1961), राम और श्याम (1967), कलियां (1968), आराधना (1969), शर्मीली (1971), सीता और गीता (1972), डोन (1978), चालबाज (1989), संगीत (1992), जुड़वा 2 (2017) आदि. सालों से ऐसी फिल्में किसी न किसी रूप में बनाई जाती रही हैं और मनोरंजन की दृष्टि से इन फिल्मों को दर्शक अधिक पसंद भी करते हैं पर रियल लाइफ में जुड़वा बच्चों के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि उन का जन्म और परवरिश दोनों ही बहुत अलग और कठिन होता है, आइए जानते हैं.
असल में जिन महिलाओं के जुड़वा बच्चे होते हैं उन पर जीन का प्रभाव रहता है. नीदरलैंड के व्रिजे यूनिवर्सिटी के बायोलौजिकल साइकोलौजिस्ट डोरेट बूमस्मा के मुताबिक यदि आप के वंश में किसी के जुड़वा बच्चे हुए हैं तो आप के भी हो सकते हैं. ये एक तरह की अनुवांशिक प्रक्रिया होती है.
अमेरिकन जर्नल औफ ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के तहत महिला और पुरुष के जीन एक साथ मिल कर कुछ विशेष क्रिया के होने से भी जुड़वा बच्चों का जन्म होता है, इस से शुक्राणु सक्रिय हो जाते हैं.
जुड़वा बच्चे भी दो प्रकार के होते हैं. पहला जिसे डायजाइगोटिक कहते हैं, इस में पैदा हुए बच्चे दो लड़के व दो लड़कियां व एक लड़का और एक लड़की हो सकते हैं, इन की आदतें तो काफी कुछ एक जैसी होती हैं, लेकिन इन की शख्ल में थोड़ा अंतर रहता है.
वहीं जुड़वा बच्चों का दूसरा प्रकार है मोनोजाइगोटिक. इस प्रक्रिया के तहत जन्म लेने वाले बच्चे हूबहू एक जैसे दिखते हैं, इन के नेचर से ले कर इन के लुक तक सब कुछ एक समान रहता है. इसलिए इन के बीच पहचान करना बहुत मुश्किल हो जाता है.
डायजाइगोटिक जुड़वा बच्चों का निर्माण तब होता है जब स्त्री पुरुष के शुक्राणु से दो अलग अंडकोशिका में शुक्राणुओं को निषेचित करती है. वहीं कई बार हार्मोनल इंबैलेंस की वजह से भी स्त्री के गर्भ में दो अंडे बनते हैं.
इन अंडों के बनने की प्रक्रिया स्त्री और पुरुष के एक बार संबंध बनाते ही सक्रिय हो जाते हैं. डायजाइगोटिक प्रक्रिया के तहत जन्म लेने वाले बच्चों का जन्म कुछ सैकेंड व मिनट के अंतराल पर होता है, क्योंकि दोनों बच्चे दो अलगअलग अंडों में होते हैं. इसलिए पहले एक बच्चे का जन्म होता है, इस के बाद दूसरे बच्चे का.
मोनोजाइगोटिक बच्चों के जन्म के तहत एक शुक्राणु दो हिस्सों में बंट जाता है. इस कारण इन की शक्ल, कदकाठी और व्यवहार एक जैसा ही होता है, ऐसे बच्चों का जन्म अनुवांशिक असर की वजह से होता है, अगर परिवार में किसी के ऐसे जुड़वा बच्चे हैं, तो आप के भी ऐसे होने की संभावना रहती है.
अमेरिकन कालेज औफ अब्स्टेट्रिक्स एंड गाइनोकोलौजी में छपी एक स्टडी के मुताबिक जिन महिलाओं का बीएमआई 30 या उस से ज्यादा होता है. उन के भी जुड़वा बच्चे होने की संभावना रहती है. इस के अलावा उम्र बढ़ने पर भी महिलाओं के जुड़वा बच्चे होने की आशंका रहती है.
इस के अलावा गर्भधारण रोकने के लिए महिलाएं गर्भ निरोधक गोलियां खाती हैं, लेकिन इन दवाइयों के सेवन से भी जुड़वा बच्चों का जन्म हो सकता है. दरअसल कुछ समय बाद इन दवाइयों को लेना बंद करने से कई बार हार्मोनल इंम्बैलेंस हो जाता है, जिस के चलते 2 बच्चे पैदा होते हैं.
दुनिया भर में हर साल लगभग 1.6 मिलियन जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं, हर 42 बच्चों में से एक जुड़वां पैदा होता है. विलंबित प्रसव, आईवीएफ, आईसीएसआई कृत्रिम गर्भाधान आदि जैसी चिकित्सा तकनीकों के कारण 1980 के दशक के बाद से जुड़वां बच्चों के जन्म की दर में एक तिहाई की वृद्धि देखी गई है.
ह्यूमन रिप्रोडक्शन जर्नल में एक वैश्विक अवलोकन के अनुसार 30 वर्षों में सभी क्षेत्रों में जुड़वा बच्चों की दर में बड़ी वृद्धि आज शिखर पर है. एशिया में 32 प्रतिशत की वृद्धि से ले कर उत्तरी अमेरिका में 71 प्रतिशत वृद्धि हुई है.
इन बच्चों के पालनपोषण में भी कई समस्याएं मां और परिवार को आती है. मसलन रश्मि 6 साल के जुड़वा दो बेटियों की मां है, दोनों के चेहरे एक जैसे हैं, इसे रश्मि ही पहचान पाती है कि कौन काव्या और कौन नव्या है. वह जौब भी करती है और साथ में इन दोनों बेटियों की देखभाल भी करती है. उन्हें पूरा दिन इन बच्चों के पीछे गुजारना पड़ता है हालांकि इस में उन की मां और पति दोनों ही सहयोग देते हैं लेकिन दोनों बच्चों को पालते हुए घरपरिवार को संभालना उन के लिए आसान नहीं होता, उन्हे हर रात अगले दिन की प्लानिंग करनी पड़ती है, ताकि सुबह से सभी काम ठीक से हो जाए.
सुमन भी दो जुड़वा बेटों रुद्रान्स और रेयान्स की मां है. इन दोनों के चेहरे काफी अलग हैं, दोनों के स्वभाव में भी काफी अंतर है, एक बहुत अधिक जिद्दी तो दूसरा शांत है. इस के अलावा जुड़वा बच्चों के शारीरिक बनावट में भी अंतर आता है, एक थोड़ा कमजोर तो दूसरा मजबूत. इस वजह से दोनों के मानसिक स्तर भी अलग हो सकता है, रश्मि की बेटी नव्या पढ़ाई में कमजोर है तो दूसरी थोड़ी काव्या तेज है.
फिल्मों में जो दिखाया जाता है कि एक को चोट लगने पर दूसरे को उस की पीड़ा होती है, ऐसा रियल में कभी नहीं होता, क्योंकि 35 साल की लबीना और रुबीना दोनों जुड़वा है और दोनों अलगअलग शहरों में रहते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक को कुछ हुआ हो, तो दूसरे को भी उस का एहसास होता हो. दोनों बहने आम बहनों की तरह ही है, बचपन में जब दोनों छोटी थी, तब एकदूसरे के साथ रहने पर एक की बीमारी दूसरे को हो जाया करती थी, जो किसी भी छोटे भाईबहन के साथ हो सकता है.
वैसे तो जुड़वा बच्चे होने पर मातापिता की खुशी दुगुनी हो जाती है, लेकिन दोनों बच्चों का पालनपोषण में दोगुनी चुनौती और समस्याएं भी आती है, जिस का ख्याल पेरैंट्स को रखना पड़ता है, क्योंकि जुड़वा बच्चों के सीखने की क्षमता और आदतें अलगअलग हो सकती हैं, जिसे ले कर मातापिता परेशान रहते हैं. कुछ सुझाव निम्न हैं,
• जुड़वा बच्चों के पालनपोषण का महत्वपूर्ण हिस्सा अच्छी तरह से समय की प्लानिंग करना होता है, ताकि बच्चों की आदतें और शेड्यूल अलग होने पर भी आप उन्हें नियंत्रित कर सकें. इस में महत्वपूर्ण होता है, बच्चों के खाने और सोने का सही शेड्यूल करना, इस से बच्चे की ग्रोथ सही होता है और बच्चे स्वस्थ रहते हैं.
• अपने पेरैंट्स, दोस्तों और पड़ोसियों से बच्चों के पालनपोषण में सहायता के लिए पूछना बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि वे कई बार अधिक अनुभवी होते हैं और जानते हैं कि अलगअलग समय पर बच्चों से कैसे व्यवहार करना है, ऐसा करने पर बच्चों के लालनपालन का सही तरीका आप को पता चलता है.
• माताओं के लिए, दोनों बच्चों को एक ही समय पर स्तनपान की आदत विकसित करना महत्वपूर्ण होता है, इस से आप को जुड़वा बच्चों को एक साथ ब्रेस्ट फीडिंग में मदद मिलेगी और आप की समस्या भी कम हो जाएगी. स्तनपान के बाद एक साथ दो बच्चों को डकार दिलवाना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए आसपास में रह रहे बड़े बुजुर्ग या पति की सहायता लें.
• जुड़वा बच्चों वाले मातापिता से जुड़ कर उन की मदद लें, क्योंकि कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिन में केवल जुड़वा बच्चों के मातापिता ही आप की मदद कर सकते हैं. जिन मातापिता को जुड़वा बच्चों को संभालने का अनुभव है, वे आप को बता सकते हैं कि उन्हें अधिक कुशलता से कैसे संभाला जाए, उन के अनुभव को सुनें.
• मातापिता के लिए सब से कठिन चीजों में से एक है अपने बच्चों को रोते हुए देखना. जुड़वा बच्चों के साथ यह और भी मुश्किल हो सकता है क्योंकि अगर दोनों जुड़वा बच्चे एक साथ रोते हैं, तो उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो सकता है. विशेषज्ञ के अनुसार, जुड़वा बच्चों को कुछ देर रोने देना चाहिए और देखना चाहिए कि उन्हें वास्तव में क्या चाहिए. पहले साल में तो यह और भी मुश्किल हो सकता है, जब वे कुछ बोल नहीं पाते. चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होती है, इस अवस्था में बच्चों का रोना सामान्य होता है.
• जुड़वा बच्चों का आपस में एक बंधन होता है. इसलिए ऐसे बच्चों के पालनपोषण में यह एक महत्वपूर्ण सबक, थोड़ी सख्त होने की होती है.
• बच्चों की सही परवरिश करने के लिए, मातापिता को यह समझने की जरूरत होती है कि उन की अपनी विशिष्ट पहचान है, जिस का उन्हें सम्मान करना और बनाए रखना आवश्यक है. कई मातापिता अपने बच्चों को एक जैसे कपड़े पहनाते हैं, उन्हें एक जैसे खिलौने देते हैं और एक जैसी गतिविधियां कराते हैं. इस से किसी एक जुड़वा बच्चे के विकास में बाधा आ सकती है, जो समस्याग्रस्त हो सकता है. इसलिए उन की मांगों और आदतों को समझें और उस के अनुसार पर्याप्त दिशा निर्देश दें.
• जुड़वा बच्चों के बीच तुलना करना कोई स्वस्थ आदत नहीं है. इस से उन के स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. जिन जुड़वा बच्चों की विकास प्रक्रिया के हर चरण पर तुलना की जाती है, उन में एकदूसरे के बारे में नकारात्मक विचार विकसित होते हैं जो उन के बंधन और स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल सकते हैं. कई जुड़वा बच्चे इस समस्या से पीड़ित होते हैं और लगातार तुलना के कारण उन में दूसरे जुड़वा से नफरत की भावना विकसित हो जाती है. इसलिए बच्चों की समझ को सुनें और उस के अनुसार उन्हें प्रोत्साहित करें.
• प्रत्येक जुड़वां बच्चे के साथ व्यक्तिगत रूप से कुछ समय बिताने से मातापिता को अपने बच्चों की अलग पहचान विकसित करने में मदद मिल सकती है. इस से उन्हें बच्चों को बेहतर ढंग से समझने में भी मदद मिलेगी. वैज्ञानिक शोध के अनुसार, कुछ गुणवत्तापूर्ण समय की योजना बनाना, बैठ कर किताबें पढ़ना, बाजार जाना, गेम खेलना बहुत सकारात्मक प्रभाव डालता है. इस से दोनों बच्चों को भी ध्यान और उपस्थिति का एहसास होता है. उन के जीवन के अनुभव भी उन के व्यक्तिगत अर्थों में विकसित होते हैं, जो बड़े होने पर उन्हें विशिष्ट पहचान बनाने में मदद करते हैं.
मधु और अंजू की दोस्ती सात साल से ऐसी थी कि दोनों हर सुख दुःख में एक साथ होते, मन की हर बात एक दूसरे से शेयर करते, दोनों रहते भी एक ही सोसाइटी में थे, दो साल पहले मधु के पति की अचानक मृत्यु हो गयी तो अंजू मधु का और भी ध्यान रखने लगी, उसकी हर जरुरत के समय हाजिर रहती,मधु और अंजू दोनों अच्छी दोस्त जरूर थीं पर दोनों के सोचने का ढंग एक दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाता था, जहाँ मधु हर बात में धर्म और राजनीति में गहरी रूचि रख कर बात करती, वहीँ अंजू विवेक से काम लेने वाली, तर्कसंगत बातों को सोचने वाली इंसान थी. मधु की कई बातें अंजू को पसंद न आती, पर एक अच्छी दोस्त होने के नाते वह मधु की काफी बातों को इग्नोर कर देती. जबसे मधु के पति की डेथ हुई थी, मधु अपनी हेल्थ के प्रति काफी लापरवाह होती जा रही थी, एक दिन अंजू ने डांटा,” तुम्हे शुगर है, डॉयबिटीज है,न तो टाइम से सो रही हो, न टाइम से खा रही हो, न कहीं सैर के लिए जाती हो,करती क्या हो पूरा दिन?”
”नींद नहीं आती, फोन पर वीडिओज़ देखती रहती हूँ, ”मधु ने गंभीरता पूर्वक कहा.
अंजू को उससे सहानुभूति हुई, फिर कहा,” टाइम से सोने की कोशिश किया करो, धीरे धीरे नींद आने लगेगी.‘’
एक बात और थी कि अंजू और मधु अलग अलग राजनैतिक पार्टी को सपोर्ट करते, अंजू समझ चुकी थी कि मधु अपने सामने कोई भी तर्क, विचार नहीं सुनना चाहती इसलिए वह कभी अब पॉलिटिक्स की बात मधु से न करती, अंजू ने पूछ लिया,” पर कौनसे वीडिओज़ देखती हो?”
”पॉलिटिक्स से सम्बंधित, यू ट्यूब पर.‘’
”अरे, यार, तुम उन वीडिओज़ में अपनी रातें खराब कर रही हो? पता भी नहीं होता है कि क्या झूठ है,क्या सच! कितने सच छुपा दिए जाते हैं, कितने झूठ सामने रख दिए जाते है.”
अब तक अंजू और मधु बिगबॉस का हर सीजन देखती आयी थीं, दोनों सलमान खान की फैन थीं, दोनों इस प्रोग्राम को डिसकस करतीं,खूब हंसती, आनंद लेतीं, अंजू ने पूछ लिया,”एक बात बताओ, बिगबॉस देख रही हो न?”
मधु ने चिढ कर कहा,”नहीं, सलमान खान की न कोई मूवी देखूंगी,न कोई शो !’
”क्यों, भाई, क्या हुआ?”
”बस, नहीं देखूंगी.‘’
मधु के उखड़े स्वर के बाद अंजू ने फिर कुछ नहीं कहा. थोड़े दिन बाद फिर अंजू ने मधु को फोन कर उसके हालचाल लिए, और कहा, हेल्थ का ध्यान रख रही हो न?”
”सारी रात तो जागती हूँ, पर दिन में थोड़ा बहुत सो लेती हूँ.‘’
”रात में फिर क्या करती हो?”
”बताया था न, पॉलिटिक्स में इतना कुछ चल रहा है, सब जानकारी लेने के लिए यू ट्यूब पर वीडिओज़ देखती रहती हूँ, सुबह के पांच बज जाते हैं,पता ही नहीं चलता,” इसके बाद मधु ने बहुत कठोर सी आवाज में कहा,” और तुम मुझे समझाने की कोशिश भी न करना कि मुझे क्या देखना चाहिए, क्या नहीं, तुम्हारे विचार मेरी पार्टी से अलग रहते हैं, मैं समझ गयी हूँ, मैं जिस पार्टी को सपोर्ट करती हूँ, मुझे उस पर विश्वास है.”
मधु के स्वर में एक अकड़ थी, कटुता थी, अंजू को अपना अपमान महसूस हुआ, वह दिल से मधु को प्यार करती थी, उसकी चिंता करती थी, वह हैरान भी थी कि यह कब होता गया, उनकी दोस्ती में राजनीति ने कब अपनी कड़वी घुसपैठ कर ली ! पता ही नहीं चला ! इससे पहले भी कई बार मधु ने पॉलिटिक्स को लेकर, दूसरों के धर्मों को लेकर ऐसी बातें की थीं कि अंजू को अच्छा नहीं लगा था,उसने इग्नोर कर दिया था,विचार नहीं मिलते थे,यह तो पता था,पर ऐसी बात तो कभी नहीं हुई थी कि दिल दुखा हो ! इसके बाद पंद्रह दिन पहली बार बीते कि दोनों ने एक दूसरे से कोई संपर्क नहीं किया, फिर यह अंतराल बढ़ता गया, फिर कभी तीज त्यौहार पर एक दूसरे को विश करने की औपचारिकता ही रह गयी, धीरे धीरे दोनों के बीच में एक दूरी आती गयी, जिस दोस्ती पर दोनों इतराते थे, वह कहाँ गयी, पता ही नहीं चला !
तीस वर्षीया सबा खान का अनुभव बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है, वे बताती हैं, ”जब मैं दूसरी क्लास में थी, स्कूल में मेरी एक सहेली बनी, रचना खन्ना, आज इतने सालों बाद भी मैं यह अनुभव नहीं भूलती, रचना के साथ मैं स्कूल में खूब खेलती, अचानक उसने मुझसे बोलना छोड़ दिया, बाकी लड़कियों को भी कहा, कि कोई मुझसे न खेले, न बात करे, बहुत दिनों तक मैं चुपचाप बैठी रहती, मैंने रचना से पूछा कि वह मुझसे क्यों नहीं खेल रही है, उसने कहा,” मेरी मम्मी ने मना किया है.‘’
मैंने पूछा ,”क्यों?”
”क्योकि तुम मुस्लिम हो !”
मैं ऐसी हो गयी थी कि न मेरा पढ़ाई में मन लगता, न स्कूल जाने का मन करता, मेरा काम अधूरा ही रह जाता, टीचर ने मेरे पेरेंट्स को बुलाया और मेरी शिकायत की, सबके सामने मुझसे पूछा गया कि मैं इतनी डल क्यों हो गयी हूँ,” मैंने कहा,”मुझसे न कोई खेलता है, न बात करता है. और उन्हें रचना की बात बताई. रचना को भी बुलाया गया और उसे बहुत समझाया गया कि ऐसी बातें नहीं करते, वह तो अच्छा हुआ कि उसी साल हमारा उस शहर से ट्रांसफर हो गया, अब तो पुरानी बात हो गयी पर मैं यह बात कभी भूलती नहीं.‘’
सबा का बाल मन कितना आहत हुआ होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, उस बच्ची रचना की भी कोई गलती नहीं है, गलती है हमारे समाज की जो तीस साल पहले भी रिश्तों में, दोस्ती में धर्म को महत्त्व देता था, आज भी देता है, आज भी वही हो रहा है जो सालों से होता आ रहा है, मतलब समाज में इस बात में कोई बदलाव नहीं आया कि इंसान इंसानियत को अपना धर्म माने, दोस्ती में ये चीजें न आएं.
किटी पार्टी चल रही थी, एक आरती को छोड़ कर सब की सब महिलाएं राम मंदिर निर्माण पर चर्चा करने लगीं, सुधा ने कहा,” मैं तो मंदिर के लिए खूब चंदा दूँगी, चलो, एक ग्रुप बना कर चंदा लेने का काम करते हैं.‘’
आरती ने कहा,” मैं मंदिर के नाम पर एक पैसा नहीं दूँगी,हाँ, किसी स्कूल या हॉस्पिटल के नाम पर मैं अच्छी खासी रकम देने को तैयार हूँ.‘’
फिर क्या था, सब की सब उसके पीछे पड़ गयीं, सुधा सबमें उम्रदराज थीं, गुस्से से बोलीं,” तुम जैसी महिलाओं ने ही धर्म का सत्यानाश कर दिया है.‘’
आरती भी कब तक उम्र का लिहाज करती ! उसने भी कहा,” आप लोगों ने धर्म की कितनी सेवा कर ली ! इतनी नफ़रतें रखते हो एक दूसरे के लिए, समाज का बेड़ागर्क हुआ जा रहा है, कितने बुद्दिजीवी सताये जा रहे हैं, कोई अपने मन की बात नहीं कर सकता, किसी को तर्कसंगत बात नहीं सुननी, धर्म ने दिया क्या है?” फिर तो जो हुआ, कल्पना से परे था, बात कहाँ से कहाँ पहुँच गयी, सुधा और आरती के चेहरे गुस्से से लाल होते रहे, काफी अपमानजनक बातें सुनने के बाद आरती पानी की एक घूँट भी पिए बिना वहां से उठ कर घर आ गयी, दस सालों से इस किटी पार्टी की सबसे इंटेलीजेंट, खुशमिजाज मेंबर ग्रुप छोड़कर चली गयी पर सब जरा सी भी गलती माने बिना अपनी बात को सही कहती रहीं.
एक बड़ी कंपनी में कार्यरत सुजय बताते हैं कि ‘आजकल ऑफिस में सबके साथ बैठ कर लंच करना मुश्किल होता जा रहा है, अजीब सी बहस चलती रहती है, कहाँ काम से ब्रेक लेकर आराम से खाना खाने का मन करता है, पर राजनीति पर चलने वाली बहस से सारा मजा खराब हो जाता है, आजकल साथ बैठ कर हंसना बोलना तो जैसे बंद ही होता जा रहा है. किसी के भी विरोध में बोल दो, सामने वाला लड़ने पर उतारू हो जाता है.’
साठ साल के अनिल इस विषय पर अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं,” मैं बड़ा खुश था, जब हम साथ पढ़े हुए दोस्तों ने एक दूसरे को ढूंढ कर व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाया, सब एक दूसरे से दोबारा जुड़कर बहुत ज्यादा खुश थे, सारा दिन ग्रुप पर खूब मन लगता, सब जैसे पुराने दिनों में पहुँच गये थे, पर फिर धर्म से जुड़े,राजनीति से जुड़े फ़ॉर्वर्डेड मेसेजस भेजे जाने लगे, किसी ने आपत्ति की कि यह दोस्तों का ग्रुप है, यहाँ धर्म और राजनीति बीच में नहीं आनी चाहिए क्यूंकि हर मेंबर के अपने विचार होंगें, पर लोग नहीं माने और फिर आपस में एक दूसरे को तल्खी से जवाब देने लगे, कई बार इतने लम्बे लम्बे मैसेज में एक दूसरे को कड़वा रिप्लाई करते कि पढ़ते पढ़ते ही लगता कि यह क्या हो रहा है,हम दोस्त हैं या दुश्मन? फिर ग्रुप पर कहा गया कि इन विषयों पर जिसने बहस की, उसे ग्रुप से हटा दिया जायेगा, इसका भी असर नहीं हुआ, शान्ति पसंद लोग धीरे धीरे ग्रुप से दूर होते चले गए, इन मुद्दों पर बहस करने वालों को हटा दिया गया तो ग्रुप की रौनक लौटी.‘’
मसूद और आलोक एक ही ऑफिस में हैं, दोनों बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए हैं,वे कभी किसी भी धर्म की बात ही नहीं करते, राजनीति पर उनके विचारों में काफी मतभेद हैं, दोनों इस विषय पर खूब बातेंकरते हैं, अपने अपने पॉइंट्स रखते हैं, दोनों एक दूसरे के विचार बहुत ध्यान से सुनते हैं, सभ्य शब्दों में अपनी सहमति,असहमति दिखा काट टॉपिक चेंज कर देते हैं,पांच सालों में उनकी दोस्ती समय के साथ पक्की ही होती गयी है.
धर्म और राजनीति हमेशा से इंसान व समाज पर अपना गहरा प्रभाव डालते रहे हैं. इतिहास में भी धार्मिक केंद्रों को राजनीतिक सत्ता केंद्र के रूप में भी देखा जाता रहा है, दोनों का आपसी सम्बन्ध चर्चा का विषय बनता रहा है , कभी कभी इनकी मिथ्या प्रस्तुति के कारण विवाद भी पैदा होते रहे हैं पर आपसी रिश्तों में धर्म और राजनीति का आ जाना दुखद है न? हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई,जैन, बौद्ध आदि के बारे में कहा जाता है कि ये धर्म नहीं, सम्प्रदाय हैं, धर्म तो हर मनुष्य का एक ही है, वह है मानव धर्म.आपस के रिश्तों को निभाने के लिए सभी को इस बात का ध्यान रखना होगा कि आपसी प्यार में धर्म और राजनीति को लेकर कोई कड़वाहट न आये, दोस्ती,प्यार में इन चीजों की जगह नहीं, दुनिया में वैसे ही नफ़रतें बढ़ती जा रही हैं, हर आम इंसान का अपनी ओर से समाज में इतना सा योगदान जरूर हो कि वह आपसी रिश्तों का मान रखे, एक दूसरे के विचार से सहमत न हों तो बहस से बचें, अपने विचार दूसरे पर थोपने से बचें.
सुबह जैसे ही वह सो कर उठी, उसे लगा कि आज वह जरूर रोएगी. रोने के बहुत से कारण हो सकते हैं या निकाले जा सकते हैं. ब्रश मुंह में डाल कर वह घर से बाहर निकली तो देखा पति कुछ सूखी पत्तियां तोड़ कर क्यारियों में डाल रहे थे.
‘‘मुझे लगता है आज मेरा ब्लडप्रैशर बढ़ने लगा है.’’
पत्तियां तोड़ कर क्यारी में डालते हुए पति ने एक उड़ती सी निगाह अपनी पत्नी पर डाली. उसे लगा कि उस निगाह में कोई खास प्यार, दिलचस्पी या घबराहट नहीं है.
‘‘ठीक है दफ्तर जा कर कार भेज दूंगा, अपने डाक्टर के पास चली जाना.’’
‘‘नहीं, कार भेजने की जरूरत नहीं है. अभी ब्लडप्रैशर कोई खास नहीं बढ़ा है. अभी तक मेरे कानों से कोई सूंसूं की आवाज नहीं आ रही है, जैसे अकसर ब्लडप्रैशर बढ़ने से पहले आती है.’’
‘‘पर डाक्टर ने तुम से कहा है कि तबीयत जरा भी खराब हो तो तुम उसे दिखा दिया करो या फोन कर के उसे घर पर बुलवा लो, चाहे आधी रात ही
क्यों न हो. पिछली बार सिर्फ अपनी लापरवाहियों के कारण ही तुम मरतेमरते बची हो. लापरवाह लोगों के प्रति मुझे कोईर् हमदर्दी नहीं है.’’
‘‘अच्छा होता मैं मर जाती. आप बाकी जिंदगी मेरे बिना आराम से तो काट लेते.’’ यह कहने के साथ उसे रोना आना चाहिए था पर नहीं आया.
‘‘डाक्टर के पास अकेली जाऊं?’’
‘‘तुम कहो तो मैं दफ्तर से आ जाऊंगा. पर तुम अपने डाक्टर के पास तो अकेली भी जा सकती हो. कितनी बार जा भी चुकी हो. आज क्या खास बात है?’’
‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ उस ने चिढ़ कर कहा.
‘‘सो कर उठने के बाद दिमाग शांत होना चाहिए पर, मधु, तुम्हें सवेरेसवेरे क्या हो जाता है.’’
‘‘आप का दिमाग ज्यादा शांत होना चाहिए क्योंकि आप तो रोज सवेरे सैर पर जाते हो.’’
‘‘तुम्हें ये सब कैसे मालूम क्योंकि तुम तो तब तक सोई रहती हो?’’
‘‘अब आप को मेरे सोने पर भी एतराज होने लगा है. सवेरे 4 बजे आप को उठने को कौन कहता है?’’
‘‘यह मेरी आदत है. तुम्हें तो परेशान नहीं कर रहा. तुम अपना कमरा बंद किए 8 बजे तक सोती रहती हो. क्या मैं ने तुम्हें कभी जगाया? 7 बजे या साढ़े 7 बजे तक तुम्हारी नौकरानी सोती रहती है.’’
‘‘जगा भी कैसे सकते हैं? सो कर उठने के बाद से इस घर में बैल की तरह काम में जुटी रहती हूं.’’
खाना बनाने वाली नौकरानी 2 दिनों की छुट्टी ले कर गई थी पर आज भी नहीं आई. दूसरी नौकरानी आ कर बाकी काम निबटा गई.
नाश्ते के समय उस ने पति से पूछा, ‘‘अंडा कैसा लेंगे?’’
‘‘आमलेट.’’
‘‘अच्छी बात है,’’ उस ने चिढ़ कर कहा.’’
पति ने जल्दीजल्दी आमलेट और 2 परांठे खा लिए. डबलरोटी वे नहीं खा सकते, शायद गले में अटक जाती है.
उस ने पहला कौर उठाया ही था कि पति की आवाज आई, ‘‘जरा 10,000 रुपए दे दो, इंश्योरैंस की किस्त जमा करानी है.’’ चुपचाप कौर नीचे रख कर वह उठ कर खड़ी हो गई. अलमारी से 10,000 रुपए निकाल कर उन के सामने रख दिए. अभी 2 कौर ही खा पाई थी कि फिर पति की आवाज आई, ‘‘जरा बैंक के कागजात वाली फाइल भी निकाल दो, कुछ जरूरी काम करने हैं.’’ परांठे में लिपटा आमलेट उस ने प्लेट में गुस्से में रखा और उठ कर खड़ी हो गई. फिर दोबारा अलमारी खोली और फाइल उन के हाथ में पकड़ा दी और नौकरानी को आवाज दे कर अपनी प्लेट ले जाने के लिए कहा.
‘‘तुम नहीं खाओगी?’’
‘‘खा चुकी हूं. अब भूख नहीं है. आप खाने पर बैठने से पहले भी तो सब हिसाब कर सकते थे. कोई जरूरी नहीं है कि नाश्ता करते समय मुझे दस दफा उठाया जाए.’’
‘‘आज तुम्हारी तबीयत वाकई ठीक नहीं है, तुम्हें डाक्टर के पास जरूर जाना चाहिए.’’
11 बजे तक खाना बनाने वाली नौकरानी का इंतजार करने के बाद वह खाना बनाने के लिए उठ गई. देर तक आग के पास खड़े होने पर उसे छींकें आनी शुरू हो गईं जो बहुत सी एलर्जी की गोलियां खाने पर बंद हो गईं.
उस ने अपने इकलौते बेटे को याद किया. इटली से साल में एक बार, एक महीने के लिए घर आता है. अब तो उसे वहां रहते सालों हो गए हैं. क्या जरूरत थी उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बाहर भेजने की? अब उसे वहां नौकरी करते भी कई साल हो गए हैं. एक महीना मां के पास रह कर वह हमेशा यही वादा कर जाता है, ‘अब की बार आऊंगा तो शादी जरूरी कर लूंगा, पक्का वादा रहा मां.’
झूठा कहीं का. हां, हफ्ते में एक बार फोन पर बात जरूर कर लेता है. उस की जिंदगी में बहुत खालीपन आ गया है. बेटे को याद कर के उसे हमेशा रोना आ जाता है पर आज नहीं आया.
लखनऊ से कितने दिन हो गए, कोई फोन नहीं आया. उस ने भी नहीं किया. पता नहीं अम्माजी की तबीयत कैसी है. वह अपने मांबाप को बहुत प्यार करती है. वह कितनी मजबूर है कि अपनी मां की सेवा नहीं कर पाती. बस, साल में एक बार जा कर देख आती है, ज्यादा दिन रह भी नहीं सकती है. क्या यही बच्चों का फर्ज है?
उस ने तो शायद अपनी जिंदगी में किसी के प्रति कोई फर्ज नहीं निभाया. अपनी निगाहों में वह खुद ही गिरती जा रही थी. सहसा उम्र की बहुत सी सीढि़यां उतर कर अतीत में खो गई और बचपन में जा पहुंची. मुंह बना कर वह घर की आखिरी सीढ़ी पर आ कर बैठ गई थी, बगल में अपनी 2 सब से अच्छी फ्राकें दबाए हुए. बराबर में ही अब्दुल्ला सब्जी वाले की दुकान थी.
‘कहो, बिटिया, आज क्या हुआ जो फिर पोटलियां बांध कर सीढ़ी पर आ बैठी हो?’
‘हम से बात मत करो, अब्दुल्ला, अब हम ऊपर कभी नहीं जाएंगे.’
अब्दुल्ला हंसने लगा, ‘अभी बाबूजी आएंगे और गोद में उठा कर ले जाएंगे. तुम्हें बहुत सिर चढ़ा रखा है, तभी जरा सी डांट पड़ने पर घर से भाग पड़ती हो.’
‘नहीं, अब हम ऊपर कभी नहीं जाएंगे.’
‘नहीं जाओगी तो तुम्हारे कुछ खाने का इंतजाम करें?’
‘नहीं, हम कुछ नहीं खाएंगे,’ और वह कैथ के ढेर की ओर ललचाई आंखों से देखने लगी.
‘कैथ नहीं मिलेगा, बिटिया, खा कर खांसोगी और फिर बाबूजी परेशान होंगे.’
‘हम ने तुम से मांगा? मत दो, हम स्कूल में रोज खाते हैं.’
‘कितनी दफा कहा है कि कैथ मत खाया करो, बाबूजी को मालूम पड़ गया तो बहुत डांट पड़ेगी.’
‘तुम इतनी खराब चीज क्यों बेचते हो?’ अब्दुल्ला चुपचाप पास खड़े ग्राहक के लिए आलू तौलने लगा. सामने से उस के पिताजी आ रहे थे. लाड़ली बेटी को सीढ़ी पर बैठा देखा और गोद में उठा लिया.
‘अम्माजी ने डांटा हमारी बेटी को?’
बहुत डांटा, और उस ने पिता की गरदन में अपनी नन्हीनन्ही बांहें डाल दी.
बचपन के अतीत से निकल कर उम्र की कई सीढि़यां वह तेजी से चढ़ गई. जवान हो गई थी. याद आया वह दिन जब अचानक ही मजबूत हाथों का एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर आ पड़ा था. वह चौंक कर उठ बैठी थी. उस के हाथ अपने गाल को सहलाने लगे थे. बापबेटी दोनों जलती हुई आंखों से एकदूसरे को घूर रहे थे.
पिता ने नजरें झुका लीं और थके से पास में पड़ी कुरसी पर बैठ गए. उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी को जिंदगी में पहला और आखिरी थप्पड़ मारा था. सामने खड़े हो कर अंगारे उगलती आंखों से
उस ने पिता से सिर्फ इतना ही पूछा, ‘क्यों मारा आप ने मुझे?’
‘तुम शादी में आए मेहमानों से लड़ रही थी. मौसी ने तुम्हारी शिकायत की है,’ बहुत थके हुए स्वर में पिता ने जवाब दिया.
‘झूठी शिकायत की है, उन के बच्चों ने मेरा इसराज तोड़ दिया है. आप को मालूम है वह इसराज मुझे कितना प्यारा है. उस से मेरी भावनाएं जुड़ी हुई हैं.’
‘कुछ भी हो, वे लोग हमारे मेहमान हैं.’
‘लेकिन आप ने क्यों मारा?’ वह उन के सामने जमीन पर बैठ गई और पिता के घुटनों पर अपना सिर रख दिया. अपमान, वेदना और क्रोध से उस का सारा शरीर कांप रहा था. पिता उस के सिर पर हाथ फेर रहे थे. यादों से निकल कर वह अपने आज में लौट आई.
कमाल है इतनी बातें याद कर ली पर आंखों में एक कतरा आंसू भी न आया. दोपहर को पति घर आए और पूछा, ‘‘क्या खाना बना है?’’
‘‘दाल और रोटी.’’
‘‘दाल भी अरहर की होगी?’’
‘‘हां’’
वे एकदम से बौखला उठे, ‘‘मैं क्या सिर्फ अरहर की दाल और रोटी के लिए ही नौकरी करता हूं?’’
‘‘शायद,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा, ‘‘जो बनाऊंगी, खाना पड़ेगा. वरना होटल में अपना इंतजाम कर लीजिए. इतना तो कमाते ही हैं कि किसी भी बढि़या होटल में खाना खा सकते हैं. मुझे जो बनाना है वही बनाऊंगी, आप को मालूम है कि नौकरानी आज भी नहीं आई.’’
‘‘मैं पूछता हूं, तुम सारा दिन क्या करती हो?’’
‘‘सोती हूं,’’ उस ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मैं कोईर् आप की बंधुआ मजदूर नहीं हूं.’’
पति हंसने लगे, ‘‘आजकल की खबरें सुन कर कम से कम तुम्हें एक नया शब्द तो मालूम पड़ा.’’
खाने की मेज पर सारी चीजें पति की पसंद की ही थीं – उड़द की दाल, गोश्त के कबाब, साथ में हरे धनिए की चटनी, दही की लस्सी और सलाद. दाल में देसी घी का छौंक लगा था.
शर्मिंदा से हो कर पति ने पूछा, ‘‘इतनी चीजें बना लीं, तुम इन में से एक चीज भी नहीं खाती हो. अब तुम किस के साथ खाओगी?’’
‘‘मेरा क्या है, रात की मटरआलू की सब्जी रखी है और वैसे भी अब समय ने मुझे सबकुछ खाना सिखला दिया है. वरना शादी से पहले तो कभी खाना खाया ही नहीं था, सिर्फ कंधारी अनार, चमन के अंगूर और संतरों का रस ही पिया था.’’
‘‘संतरे कहां के थे?’’
‘‘जंगल के,’’ उस ने जोर से कहा.
उन दिनों को याद कर के रोना आना चाहिए था पर नहीं आया. अब उसे यकीन हो गया था कि वह आज नहीं रोएगी. जब इतनी बातें सोचने और सुनने पर भी रोना नहीं आया तो अब क्या आएगा.
हाथ धो कर वह रसोई से बाहर निकल ही रही थी कि उस ने देखा, सामने से उस के पति चले आ रहे हैं. उन के हाथ में कमीज है और दूसरे हाथ में एक टूटा हुआ बटन. सहसा ही उस के दिल के भीतर बहुत तेजी से कोई बात घूमने लगी. आंखें भर आईं और वह रोने लगी.
सवाल
मेरी उम्र 30 साल की है, मेरी पत्नी को प्रैग्नैंट हुए 2 महीने हुए हैं. मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मु?ो बच्चे बहुत पसंद हैं. मेरी पत्नी मु?ो इतनी बड़ी खुशी देने वाली है, इसलिए मेरा मन करता है उसे बहुत खुश रखूं, उसे स्पैशल फील करवाऊं. लेकिन सम?ा नहीं पा रहा कि ऐसा क्या करूं?
जवाब
हम यही चाहेंगे कि आप की यह खुशी यों ही बरकरार रहे. आप अपनी प्रैग्नैंट पत्नी के साथ डीपर लैवल पर कनैक्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है क्योंकि प्रैग्नैंसी और चाइल्डबर्थ पति व पत्नी दोनों के लिए ही बहुत स्पैशल जर्नी होती है.
चलिए, हम बताते हैं कि आप प्रैग्नैंसी के 9 महीनों के दौरान अपनी पत्नी को स्पैशल कैसे फील करवाएं. आप अपनी पत्नी को पैंपर करने के लिए उस के पैरों की मसाज कर सकते हैं. दरअसल प्रैग्नैंसी में कई महिलाओं के पैर सूजने लगते हैं और पैरों में दर्द भी
हो सकता है. मसाज के लिए आप एसैंशियल औयल या नरिशिंग लोशन का इस्तेमाल कर सकते हैं और बैकग्राउंड में सौफ्ट म्यूजिक बजा सकते हैं. आप के द्वारा मिलने वाली यह अटैंशन उसे काफी पसंद आएगी.
आप दोनों शादी के बाद हनीमून पर गए थे और अब पेरैंटिंग फेज में एंटर हो कर बेबीमून के फेज में हैं. आप अपनी पत्नी को पूरी तरह यकीन दिलाएं कि हमारी जिंदगी पूरी तरह बदलने वाली है लेकिन वह हमेशा आप के लिए उतनी ही अहमियत रखेगी.
पत्नी को सराहें कि वह कितना खूबसूरत तोहफा देने वाली है. आप उसे खुश करने के लिए उस की पसंद का तोहफा दे सकते हैं. इस तरह की रिटेल थेरैपी आप की पत्नी के मूड को उस वक्त अच्छा कर सकती है जब उसे ब्लौटिड या मौर्निंग सिकनैस महसूस हो रही हो.
अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem
सुमि अपने कमरे में पलंग पर यों ही खाली सी बैठी थी. अब तक तो उसे तैयार हो जाना चाहिए था. उमेश आता ही होगा उसे लेने के लिए. आज उन की एक नई दुकान का मुहूर्त होना था और ऐसे अवसरों पर सुमि की उपस्थिति का महत्त्व तो होता ही है.
उस के पास ही पड़े डब्बे के अधखुले ढक्कन में से नई साड़ी झांक रही थी. यही उसे आज पहननी थी. सुमि ने ढक्कन उठा कर एक ओर रख दिया और साड़ी अपने हाथों में ले ली. पीले रेशम की चौड़े बौर्डर की यह साड़ी वास्तव में बहुत खूबसूरत थी. कपड़ों के विषय में उमेश की पसंद हमेशा ऊंची रही है.
सुमि को याद आया, जब उमेश उस के लिए पहली बार रेशम की साड़ी खरीद कर लाया था तो कैसे देर तक वह उस पर हाथ फिराफिरा कर साड़ी की रेशमी स्निग्धता को अपने भीतर उतारती रही थी. आज तो ऐसी अनगिनत साडि़यों से उस की अलमारियां भरी पड़ी थीं, किंतु एक समय वह भी था जब उस के लिए नई साड़ी खरीदने का मौका किसी तीजत्योहार पर ही आता था. तब जैसेतैसे कर के जमा की गई अपनी छोटी सी पूंजी जेब में ले कर वह और उमेश बड़ीबड़ी दुकानों के बाहर सजी, शीशे के भीतर से झांकती साडि़यों को कैसी ललचाई नजरों से देखा करते थे. अपनी वह अकिंचन पूंजी तब उन्हें ऐसी दुकानों के भीतर पांव रखने की अनुमति नहीं देती थी. घूमफिर कर किसी एक छोटी सी दुकान से मोलभाव कर के तब उन्हें वही साड़ी खरीदनी होती थी जो उन के बजट में समा जाए.
घर आने पर जब बाजार की चकाचौंध नजरों से ओझल हो जाती तो सुमि को अपनी वही साड़ी कीमती लगने लगती और वह उमेश से कहती, ‘नाहक इतने पैसे बरबाद किए. वही ले लेते, जो इस के पहले देखी थी. 50 रुपए की बचत हो जाती.’
किंतु उमेश के मन में वह चकाचौंध इतनी शीघ्र समाप्त नहीं होती थी, ‘सुमि, जल्द ही एक समय ऐसा आएगा जब मैं तुम्हें ढेर सारी साडि़यों से लाद दूंगा. ऐेसेऐसे गहने बना कर दूंगा कि सब देखते रह जाएंगे.’ उमेश के ऐसे उद्गारों पर सुमि फूली न समाती थी. कितना प्यार करता था वह उस से. उसी प्यार की सुगंध से महकी- महकी वह उस के कंधे पर सिर टिका देती और कहती, ‘तुम्हारी ये दोनों भुजाएं ही हजारों आभूषणों से बढ़ कर हैं.’
उमेश तब उसे अपनी बांहों में भर लेता और कहता, ‘तुम बहुत भोली हो, सुमि. इसीलिए तो मैं तुम से इतना प्यार करता हूं. मैं एक बड़ा आदमी बनना चाहता हूं और बन कर दिखाऊंगा.’
उसे बांहों में लिएलिए वह भविष्य के रंगीन सपनों में खो जाया करता था. तब बहुत आशावादी था उमेश. शादी के तीसरे वर्ष सुमि ने एक बच्चे को जन्म दिया. दीवाली के दिन ही उन दोनों ने मिल कर उस का नाम रखा दीपक. उस दिन दोनों कितने प्रसन्न थे. अमावस की वह काली रात उन्हें ऐसी लग रही थी मानो सौसौ सूरज उग आए हों उन के जीवन में. उस के बाद तो उमेश का छोटा सा व्यवसाय दिन पर दिन बढ़ता ही गया मानो दीपक अपनी नन्ही हथेलियों में सुखसमृद्धि रूपी प्रकाश को ले आया था. अब तो यह हाल हो गया कि उमेश के छूने से मिट्टी भी सोना बन जाती.
उमेश ने अपने वचन के मुताबिक सुमि को गहनों व कपड़ों से लाद दिया था. अपना छोटा सा घर छोड़ कर अब वे बडे़ घर में आ गए थे. इतने बड़े घर की देखभाल अकेली सुमि कर नहीं सकती थी इसलिए नौकरचाकर उस ने रख लिए. धीरेधीरे उस का रसोईघर भी एक कुशल रसोइए के हाथों में चला गया क्योंकि घर पर अब आएदिन पार्टियों के आयोजन होते रहते थे.
दीपक का कमरा खिलौनों से इस कदर भरा हुआ था कि वह कमरा कम, खिलौनों की दुकान अधिक लगता था. दीपक एक न एक खिलौना उठाए घर भर में चहकता फिरता था.
दौलत की यह बाढ़ बहुत कुछ ले कर आई मगर बहुत कुछ नष्ट भी कर गई. उमेश जब इस बाढ़ के पानी को लांघ कर उस तक पहुंचा तो वह उस का पहले वाला उमेश नहीं रह गया था. अब वह था उमेश चंद माथुर. शहर के प्रमुख व्यवसायियों में से एक. दिन पर दिन उस के गोदामों की संख्या बढ़ती जा रही थी. इस के लिए अनेक कर्मचारी व प्रबंधक थे. फिर भी अब तक ऊपरी देखभाल उमेश स्वयं ही करता था. सुबह 8 बजे जो वह घर से निकलता तो रात 10 बजे के पहले कभीकभार ही लौट पाता था.
आरंभ में तो अकसर उमेश सुमि से फोन पर कह दिया करता था कि दोपहर के खाने पर वह उस की प्रतीक्षा न करे, किंतु अब तो फोन आना भी बंद हो गया था क्योंकि अब यह रोजमर्रा की बात हो गई थी. अब तो रात का खाना भी सुमि अकसर अकेली ही खाती थी क्योंकि व्यवसाय के सिलसिले में उमेश की शामें किसी न किसी व्यापारी के साथ ही गुजरती थीं. फिर उसे ले कर वह किसी अच्छे रेस्तरां में खाना खा कर ही आता.
जब तक सुमि दीपक के साथ व्यस्त थी तब तक उसे समय उतना भारी मालूम नहीं पड़ता था. अपने खाली समय का एकएक क्षण वह दीपक की किलकारियों से भर लेती. लेकिन जल्दी ही दीपक के लिए एक आया का प्रबंध कर दिया गया. फिर 4 साल का होतेहोते उमेश ने दीपक को नैनीताल के एक नामी स्कूल के होस्टल में भेज दिया.
इस प्रकार सुमि का अकेलापन दिन पर दिन बढ़ता गया. उमेश चाहता था कि वह भी शेष संपन्न स्त्रियों की भांति किटी पार्टियों में जाया करे और अपने घर में भी ऐसी पार्टियों का आयोजन किया करे. इस से उस का समय आसानी से व्यतीत होता और धनाढ्य परिवारों की स्त्रियों में उस का उठनाबैठना भी होता. किंतु सुमि को यह सब बिलकुल पसंद न था. अपनी दौलत के नशे में डूब कर ताश के पत्ते फेंटती और किटी पार्टियों में अपने कपड़े और गहनों की नुमाइश करती स्त्रियों की बनावटी बातों से वह जल्दी ही ऊब जाती थी. वे सामने होने पर जिस से हंस कर बातें करतीं, पीठ पीछे उसी की बुराई करने लग जाती थीं. स्वयं को दूसरों से बड़ा कर के दिखाना ही उन का उद्देश्य होता था.
सुमि के लिए तो बस, वही दिन उत्साह से भरे होते थे जब उसे दीपक से मिलने होस्टल जाना होता था या दीपक अपनी छुट्टियां व्यतीत करने के लिए घर आने वाला होता था. तब वह दिनदिन भर बाजार घूम कर उस की पसंद की चीजें इकट्ठा करती थी. लेकिन दीपक के वापस जाते ही फिर वही खालीपन उसे घेर लेता था.
उमेश का साथ तो अब उसे किसी पार्टी व आयोजन में साथ जाने भर तक ही मिलता था. वहां जा कर भी वह अपने मित्रों में व्यस्त हो जाता था. देर रात में वे दोनों थके हुए लौटते और सो जाते. सुमि उन दिनों की याद में खो जाती, जब वे घंटों बैठे इधरउधर की बातें किया करते थे. अचानक दरवाजा खुला, तो सुमि की विचारशृंखला भंग हो गई.
‘‘तुम अभी तक ऐसे ही बैठी हो, दुकान से 2 बार फोन आ चुका है. सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’
‘‘अ…हां…अभी तैयार होती हूं,’’ अतीत की स्मृतियों को जबरन पीछे धकेल कर वह जैसे ही खड़ी हुई उसे जोर का चक्कर आने लगा. वह दोनों हाथों से सिर थाम कर पलंग पर निढाल गिर पड़ी.
यह देख कर उमेश ने घबराहट में नौकरों को आवाज दे डाली और स्वयं डाक्टर को टैलीफोन करने लगा. 15-20 मिनट में ही डाक्टर आ पहुंचे. इस बीच वह बौखलाया सा सुमि का सिर दबा रहा था तो कभी उस के ठंडे हाथों को अपने हाथों की गरमी पहुंचाने का प्रयत्न कर रहा था.
डाक्टर ने आ कर भलीभांति जांच की, एक इंजैक्शन लगाया और एक कागज पर कुछ दवाओं के नाम लिख दिए. उस ने उमेश को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘अधिक चिंता की वजह से इन के दिमाग पर बोझ है. डरने की कोई बात नहीं है. हां, कमजोरी काफी है पर जल्दी ही ठीक हो जाएंगी. लेकिन इन्हें अधिक प्रसन्न रखने का प्रयत्न कीजिए.’’
डाक्टर के जाते ही उमेश ने स्वयं न आ सकने की सूचना अपने प्रबंधक रामदयाल को दे दी और कहा कि कार्यक्रम की तारीख आगे बढ़ा दी जाए. फोन पर ही उस ने उस दिन के अपने शेष कार्यक्रम भी रद्द कर दिए और 1-2 दिन घर पर ही सुमि के साथ रहने का निश्चय किया.
सुमि को अभी तक होश नहीं आया था. उमेश पलंग के पास आरामकुरसी घसीट कर बैठ गया. कुरसी की पीठ से उस ने अपना सिर टिका दिया और आंखें मूंद लीं. एक अरसे के बाद ऐसी फुरसत से बैठना उसे नसीब हुआ था. उस ने अनुभव किया कि इन पिछले कुछ वर्षों में मानो वह तेज गति वाले वाहन पर सवार था, जिस की रफ्तार वह और अधिक बढ़ाता जा रहा था. एकाएक ही वाहन के आगे कोई छाया सी आई. तब उसे एक झटके से ब्रेक लगाना पड़ा. वाहन रुक तो गया लेकिन उस के रुकते ही वह छाया आहत हो चुकी थी, उतर कर देखा तो वह छाया कोई नहीं उस की सुमि ही थी.
‘‘नहीं,’’ ऐसे भयानक विचारों से घबरा कर उस ने अपने सिर को जोर का झटका दिया और आंखें खोल दीं. ‘‘क्या हुआ?’’ सुमि अपनी क्षीण आवाज में पूछ रही थी. अपने ही ध्यान में उसे पता न चल सका कि सुमि को होश आ गया है. उस ने लपक कर पहले उस के माथे पर हाथ रखा. फिर हलके हाथों से उस की दोनों बांहें सहला कर पूछने लगा, ‘‘कैसी हो, सुमि?’’
‘‘तुम क्या सोच रहे थे? गए नहीं? मैं अब ठीक हूं,’’ थकीथकी सी सुमि बोल रही थी.
उस की बात का उत्तर न दे कर उमेश ने रधिया को आवाज लगाई कि सुमि के लिए एक गिलास गरम दूध ले आए. ‘‘मैं ठीक हूं. तुम व्यर्थ में परेशान हो रहे हो. काम पर नहीं जाओगे आज?’’ सुमि ने पुन: उसे टोका.
‘‘आज कहीं नहीं जाऊंगा, सुमि. मैं बहुत तेज भाग रहा था, तुम ने मुझे चेता दिया. बस, तुम जल्दी ठीक हो जाओ, काम तो होते ही रहेंगे. तुम कैसी हो गई हो, मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया, आखिर तुम्हें किस बात का दुख है, सुमि?’’
‘‘मेरी अमावस मुझे लौटा दो, उमेश. वही शांत और स्निग्ध अमावस, जिस दिन मैं ने दीपक को जन्म दिया था. तुम्हारी दौलत की चकाचौंध से मुझे घबराहट होने लगी है. हम ने संपन्नता का सपना देखा तो साथसाथ था लेकिन उसे भोग रहे हैं अलगअलग. तुम मुझ से दूर चले गए हो, दीपक दूर हो गया है. मुझे मेरे दीपक की रोशनी लौटा दो. दीवाली आने में कुछ ही दिन रह गए हैं, तुम जा कर उसे ले आओ. कम से कम दीवाली पर तो उसे हमारे साथ होना चाहिए.’’
इतना कहने में ही सुमि थक सी गई और चुप हो कर उमेश के चेहरे पर नजर गड़ाए देखती रही. उमेश के भीतर भी भावनाओं का ज्वार उमड़ आया था.
‘‘मैं कल ही जाऊंगा और दीपक को अपने साथ ले कर आऊंगा, अब वह यहीं रहेगा हमारे साथ. आखिर इस शहर में अच्छे स्कूलों की कोई कमी तो है नहीं, अब वह यहीं पढ़ेगा.’’
‘‘सच, उमेश, सच कह रहे हो.’’
‘‘मैं न जाने किस अंधेरे में गुम हो गया था. मैं धन का अंबार तो लगाता गया पर यह न देख सका कि हमारे संबंध उस के नीचे दबते चले जा रहे हैं,’’ उमेश धीरेधीरे कह रहा था मानो अपनेआप से बात कर रहा हो.
डाक्टर की दवा से सुमि शीघ्र ही अच्छी हो गई, कुछ कमजोरी रह गई थी, लेकिन मन में उत्साह पुन: उमड़ने लगा था. वह पूरे मनोयोग से दीवाली की तैयारियों में जुट गई. तीसरे दिन दीपक को साथ ले कर उमेश लौट आया.
दीवाली के दिन हर साल की तरह उमेश चंद माथुर की कोठी आनेजाने वाले लोगों का ध्यान अपनी सजावट से आकर्षित कर रही थी. रंगबिरंगे बल्बों की लडि़यां पेड़पौधों तक को जगमगा रही थीं, लेकिन सुमि ने तो बाहर निकल कर वह सब देखा भी नहीं. वह तो माटी के दीयों में तेल भरने में व्यस्त थी और मन ही मन सोच रही थी कि माटी की पवित्रता की स्पर्धा भला बिजली के बल्ब कैसे कर सकेंगे.
दीपक मां के आसपास ही मंडरा रहा था. तभी उमेश भी भीतर आ गया, ‘‘लाओ, बाकी काम मैं खुद कर दूं, तुम जा कर तैयार हो जाओ.’’
सुमि काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई और हंस कर उमेश की तरफ देखा. उमेश ने दीपक को अपने पास बुलाया और फिर दोनों मिल कर शेष दीयों में तेल भरने लगे. तब सुमि की आंखों में प्रसन्नता की नदी तैरने लग गई थी.
स्वाति मालीवाल एक पढ़ीलिखी, जागरूक महिला हैं, समाज के हित में काम करने की इच्छा ले कर मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘परिर्वतन’ के साथ इस मकसद से जुड़ीं कि वे समाज में परिर्वतन लाने में भागीदारी कर सकेंगी. मनीष सिसोदिया तब भी अरविंद केजरीवाल के साथ काम करते थे. वहां से स्वाति अरविंद के संपर्क में आईं. स्वाति के पिता एयरफोर्स में थे और मां प्रिसिंपल थीं. स्वाति ने अपने एक इंटरव्यू में यह आरोप भी लगाया था कि बचपन में उन के पिता ने भी उन के शोषण का प्रयास किया था.
यही दर्द था जिस से लड़ने के लिए स्वाति हर उस लड़की के साथ खड़ी हो जाती थीं जो भी खुद को विक्टिम या पीड़ित समझती थी. दिल्ली के जंतरमंतर पर जब पहलवान बेटियों ने सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ धरना शुरू किया तो स्वाति वहां पहुंचीं. पुलिस के विरोध के बाद भी पहलवान लड़कियों का साथ दिया. जुझारू स्वाति ने अरविंद केजरीवाल के सहायक के रूप में भी काम किया. इस के बाद अरविंद केजरीवाल ने उन को दिल्ली महिला आयोग का अध्यक्ष बनाया. इस के 2 वर्षों बाद 2024 में आम आदमी पार्टी ने स्वाति मालीवाल को राज्यसभा का सदस्य बना दिया.
13 मई की सुबह स्वाति मालीवाल अरविंद केजरीवाल से मिलने उन के मुख्यमंत्री आवास गईं. वहां कुछ देर रहीं. इस के बाद उन्होंने फोन से दिल्ली पुलिस की पीसीआर टीम को मैसेज दिया कि मुख्यमंत्री आवास पर उन के सचिव के द्वारा उन की पिटाई की गई है. पीसीआर टीम वहां पहुंचती है. इस बीच स्वाति मालीवाल वहां से निकल कर सिविल लाइंस पुलिस स्टेशन जाती हैं. वहां वे रिपोर्ट लिखवाएं, इस के पहले फोन आते हैं, जिस के बाद स्वाति मालीवाल बिना रिपोर्ट लिखवाए चली जाती हैं. वापस आ कर रिपोर्ट लिखाने को कहती हैं.
घटना के 33 घंटे के बाद आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह मीडिया के सामने आ कर इस घटना की जानकारी देते कहते हैं कि ‘मुख्यमंत्री के संज्ञान में घटना है. वे जल्द ही फैसला करेंगे.’ स्वाति खुद को पीड़ित मान रही हैं.
हमारे देश में महिलाओं के सामने यह नई बात नहीं है. पौराणिक काल से ले कर आज तक औरतों को इतना सक्षम नहीं बनाया जा सका है कि वे खुद को पीड़ित समझ कर चुप न रहें. संविधान और कानून ने बहुत अधिकार दिए, इस के बाद भी महिलाएं खुद को विक्टिम समझ कर व्यवहार करती हैं.
अग्निपरीक्षा से ले कर धरती में प्रवेश करने तक हर जगह खुद को पीड़ित समझने की कहानी पौराणिक ग्रंथों में दर्ज है. खुद को विक्टिम मान कर अहल्या हजारों साल अपने उद्वार की प्रतीक्षा करती रही. हमारे घरों में घरेलू हिंसा के मामले रोज होते हैं. पति के साथ मारपीट से ले कर दहेज हत्या तक के मामले हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी से पता चलता है कि दहेज निषेध अधिनियम 1961 के तहत 2022 में 13,479 मामले दर्ज किए गए. इसी दौरान 2022 में 6,450 दहेज हत्याएं दर्ज की गईं.
महिलाएं हिंसा सह कर चुप रह जाती हैं. वे कईकई बार पिटती रहती हैं. फिर उन की ऐसी मानसिकता बन जाती है. पति को भगवान मान लेती हैं. उन को लगता है कि वे दासी हैं. पिटना उन का धर्म है. कानून और संविधान द्वारा हक देने के बाद भी असल माने में महिलाओं को अपना अधिकार जताने की ताकत नहीं दी गई है. वे अपने कमाए पैसे पति से नहीं मांग सकतीं तो पिता की जायदाद में भाई से अपना हिस्सा नहीं मांग पातीं.
पतिपत्नी में तलाक होने के बाद उन को गुजारा भत्ता वही मिलता है जो पति और कोर्ट मध्यस्थता के जरिए देती है. पत्नी जो अपना हक मांगती है वह नहीं मिलता. वह विक्टिम बन कर उसे रख लेती है, चुपचाप अपना गुजारा करती है. इस में समाज भी उन का साथ नहीं देता.
समाज में रोज बलात्कार के सैकड़ों मामले होते हैं. भारत में एक दिन में औसतन 87 रेप की घटनाएं होती हैं. राजधानी दिल्ली में एक दिन में 5.6 रेप के मामले सामने आते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, पिछले सालों के मुकाबले रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. राजस्थान में 6,342, मध्यप्रदेश 2,947, उत्तरप्रदेश 2,845 और दिल्ली में 1,252 घटनाएं सब से ज्यादा हुई हैं.
बलात्कार के मसले में गुनाह पुरुष करता है, इस के बाद भी महिला खुद को गुनाहगार समझती है. उस के साथ घरपरिवार और समाज भी उसे ही गुनाहगार मानता है. बलात्कार का शिकार महिलाएं अपने पूरे जीवनकाल में खुद को जिम्मेदार मानते हुए आगे के जीवन में सहज नहीं हो पाती हैं. महिला किसी वर्ग की हो, उस की अपने को हुनाहगार समझने की मानसिकता वही रहती है. समाज में उस को इस मानसिकता से बाहर निकलने में कोई मदद भी नहीं करता है.