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कोलकाता में ‘आमी’ की शूटिंग शुरू

अभिनेत्री विद्या बालन का कोलकता से बहुत ही करीबी संबंध रहा  है, विद्या ने अपने करियर की पहली फिल्म परिणीता  की शूटिंग कोलकाता में ही की थी, इतना ही नहीं उनकी अब तक की हिट फिल्मों का कनेक्शन कहीं न कहीं से कोलकाता से जुड़ा हुआ है.

‘कहानी’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की शूटिंग  कोलकाता में ही की गयी थी. हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ‘तीन’ की शूटिंग कोलकाता के चन्दन नगर में की गयी थी. और अब ‘कहानी 2’ की शूटिंग कालिंपोंग में की गयी, और उनकी आगामी फिल्म ‘बेगम जान’ के कुछ  भाग की शूटिंग वेस्ट बैंगोल के बोडर  पतजोर पर की गयी.

विद्या बालन अब मलयाली कवयित्री कमला दास की  बायोपिक फिल्म ‘आमी’ में नज़र आएंगी और इस मलयालम बायोपिक फिल्म के लिए विद्या अब एक बार फिर कोलकाता लौटेंगी, जहां पर इस बायोपिक फिल्म का ज्यादातर हिस्सा शूट किया जायेगा. कोलकाता हमेशा से ही विद्या के लिए लकी रहा है.

इस बारे में विद्या बालन का कहना है कि मुझे लगता है की मैं अपने पिछले जन्म में ज़रूर बंगाली ही रहूंगी. भले मैंने इस शहर में जन्म नहीं लिया है, पर मैं इस शहर को बखूबी जानती हूं.

फिल्म  ‘डर्टी  पिक्चर’  में  अपने  उत्कृष्ट अभिनय  के  लिए  राष्ट्रीय  पुरस्कार  जीतने  के  बाद  विद्या  बालन  एक  बार  फिर कॉन्ट्रोवर्शियल  लेखिका कमला  दास की बाइलिंगुअल  फिल्म  में बोल्ड  अवतार  में  नज़र  आएंगी.

कमला एक पुरस्कार विजेता विवादस्पद लेखिका थीं, जिनका 2009 में 75 साल की उम्र में निधन हो गया. 1999 में इस्लाम धर्म को अपनाने के फैसले के लिए उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

पपीते के कीड़ों व रोगों की रोकथाम

भारत दुनिया में सब से ज्यादा पपीता उगाने वाला देश है. देश में पपीते की खेती करीब 73.7 हेक्टेयर रकबे में होती है और उत्पादन 25.90 लाख टन है. पपीते के पेड़ों में कई प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं. एक बार पेड़ पर कीटों का आक्रमण होने पर बीमारियां होने लगती हैं. मौसम में नमी के ज्यादा व कम होने से कई बीमारियों का असर बढ़ जाता है. पपीते के पेड़ को ज्यादा नमी नुकसान पहुंचाती है व मिट्टी या मौसम में नमी बढ़ने से पेड़ रोगों का शिकार होने लगता है. 

आक का टिड्डा

ये कीड़े पीले रंग के होते हैं. इन के सिर व वक्ष पर नीलेहरे रंग की और पेट पर नीचे काले रंग की चौड़ाई में धारियां पाई जाती हैं. टिड्डे की 2 पीढि़यां होती हैं, जिन में एक कम समय की और दूसरी ज्यादा समय वाली पाई जाती  हैं. कम समय वाली पीढ़ी जून से अगस्त तक पाई जाती है. इस में अंडे 1 महीने बाद ही फूट जाते हैं और बच्चे 2 महीने में ही पूरी तरह बड़े हो जाते हैं. ज्यादा समय वाली पीढ़ी में मादा सितंबर महीने में अंडे देती है, जो निष्क्रिय अवस्था में मार्च तक पड़े रहते हैं. ये मार्च के आखिर तक या अप्रैल के शुरू में फूटते हैं. इन से जो बच्चे निकलते हैं, वे ढाई महीने में पूरी तरह बड़े हो जाते हैं और संगम शुरू कर देते हैं. इन का मैथुन लगभग 5 से 7 घंटे तक चलता है. मैथुन के 25 से 30 दिनों बाद मादा अंडे देती है. ये अंडे जमीन के नीचे 18 से 20 सेंटीमीटर की गहराई पर 145 से 170 तक के समूहों में देते हैं. ये समूह चक्र के रूप में होते हैं और आपस में चिपकने वाले स्राव से जुड़े रहते हैं.

इस कीट के बच्चे व बड़े दोनों ही पपीते की पत्तियों को अपने काटने व चुभाने वाले अंगों से काट कर नुकसान पहुंचाते हैं. ये एक पेड़ पर काफी संख्या में इकट्ठा रहते हैं और पत्तियों को कुतर कर खाते हैं. ये कीट कभीकभी छोटे पेड़ों की पत्तियों को पूरी तरह नुकसान पहुंचाते हैं. इन के प्रकोप की वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. कभीकभी वे मर भी जाते हैं.

रोकथाम

* चूंकि मादा खेतों की डोलों व बंजर जमीन में अंडे देती है, लिहाजा  इन को मिट्टी पलटने वाले हल से जोत कर खत्म कर देना चाहिए.

* निम्फ अंडों से निकलने के बाद डोलों पर उगी हुई घास खाते हैं. इसलिए डोलों पर 5 फीसदी या 10 बीएचसी की धूल का बुरकाव करना चाहिए.

* अगर पेड़ों पर इस टिड्डे का प्रकोप हो गया हो तो क्लोरडेन 0.05 या मैलाथियान 0.1 फीसदी का छिड़काव करना चाहिए.

फलवेधक मक्खियां

इस की दोनों जातियां सारे भारत में पाई जाती हैं. इन में से डैकस डाडवर्सस पपीते के फूलों पर बड़ी संख्या में पाई जाती हैं. हालांकि फलवेधक मक्खियों में इतने लंबे अंग नहीं होते, जो पपीते के फल के छिलके के नीचे अंडे दे सकें लेकिन डैकस कुकररबिटी की इल्लियां इस के पके हुए फलों में पाई गई हैं. यह पपीते का एक मामूली कीट है. कच्चे व अधपके फलों में इस का प्रकोप नहीं होता. केवल पके हुए फलों को ही इस से नुकसान पहुंचता है.

इस कीड़े के मैगट ही नुकसान पहुंचाते हैं. मादा पके हुए फलों के अंदर उन के छिलके के नीचे अंडे देती है. ये अंडे 2 से 3 दिनों में फूट जाते हैं. उन से निकले मैगट फलों के गूदे को खा कर उन्हें बेकार कर देते हैं.

रोकथाम

* सर्दियों में मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर के मिट्टी पलट देनी चाहिए. इस से मक्खी की कोकुन अवस्था खत्म हो जाती है.

* प्रौढ़ मक्खी को चारा प्रलोभन (कार्बोरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में  0.1 फीसदी प्रोटीन हाइड्रोजाइलेट या शीरे के घोल का छिड़काव) से आकर्षित कर के मारा जा सकता है.

* मिथाइल यूजिनोल 0.1 फीसदी, मैलाथियान 0.1 फीसदी, व एल्कोहल से बने ट्रैप को बागों में पेड़ पर लटकाएं, ताकि नर मक्खी ट्रैप में आकर्षित हो कर मर जाए.

चैंपा

चैंपा पत्तियों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. इस के निम्फ व वयस्क दोनों ही नुकसानदायक हैं. रस चूसने के साथसाथ ये कीड़े पपीते में विषाणु जनित रोगों को फैलाने में मदद करते हैं. इन रोगों के प्रकोप से पेड़ों की बढ़वार रुक जाती है और फूल व फल आने बंद हो जाते हैं. ये कीट हवा से भी बहुत दूर तक फैल जाते हैं.

रोकथाम

*  इस का प्रकोप होने पर चिपचिपे जाल का इस्तेमाल करें, जिस से कीट ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स , सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000- 1,00,000 अंडे या सूंडि़यां प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* जरूरत  होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डाइमेथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमीटान 25 ईसी 1 लीटर का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

सफेद मक्खी

यह मक्खी पपीते के अलावा बहुत सी दूसरी फसलों पर भी पाई जाती हैं. यह कपास को  सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है. कपास के अलावा सोयाबीन, उड़द, मूंग, कहवा, तंबाकू व आलू को भी यह कीट नुकसान पहुंचाता है. ये कीड़े सर्दियों में ज्यादा तादाद में दिखाई देते हैं. मादा पत्तियों की निचली सतह पर 100 से 150 अंडे देती है. इन से छोटेछोटे निम्फ निकलते हैं. ये निम्फ पत्तियों में अपने मुखांग चुभा कर रस चूसने लगते हैं और 3 बार निर्मोचन कर के कोकुन में बदल जाते हैं. कोकुन मौसम के अनुसार 9 दिनों से 2 महीने तक होती है. गरमियों में इस का जीवनचक्र करीब 2 महीने में पूरा हो जाता है.

इस कीड़े के निम्फ व वयस्क दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं. इस के निम्फ शल्क

कीट की तरह लगते हैं. ये पत्तियों से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और सिकुड़ जाती हैं. वयस्क कीड़े रस चूसने के अलावा पपीते के पेड़ में विषाणु रोग फैलाते हैं, जिस से पत्तियां मुड़ जाती हैं. पेड़ों की बढ़वार रुक जाती है. उन में फूल व फल बहुत कम आते हैं. छोटे पेड़ों में प्रकोप होने पर उन में फल बिलकुल नहीं आते हैं.

रोकथाम

* पीले चिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* क्राइसोपरला कार्निया के 50,000 से 1,00,000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* कीट लगे पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी या मछली रोसिन सोप 25 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कें

* इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

माइट

कीट लगे पेड़ों की पत्तियों पर पीलेपीले धब्बे दिखाई देते हैं. पत्तियां सिकुड़ जाती हैं. पत्तियों की निचली सतह पर जाला पाया जाता है और उस जाले के नीचे माइट के छोटेछोटे निम्फ व वयस्क हजारों की संख्या में रहते हैं. ये पपीते की पत्तियों से रस चूसते रहते हैं. निम्फ 0.2 मिलीमीटर लंबे होते हैं. इन के 3 जोड़ी टांगें पाई जाती हैं. वयस्क अंडाकार लालिमा लिए हुए हरे रंग के होते हैं. नर 0.3 से 0.4 मिलीमीटर लंबे होते हैं और मादा 0.4 से 0.5 मिलीमीटर लंबी होती है.

निम्फ व वयस्क दोनों ही पपीते को नुकसान पहुंचाते हैं. ये छोटे पेड़ों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन बड़े पेड़ों पर भी इन का प्रकोप होता है. निम्फ व वयस्क पत्तियों का रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. पेड़ बीमार से दिखाई पड़ते हैं. उन की बढ़वार रुक जाती है. छोटे पेड़ों पर प्रकोप होने पर वे मर जाते हैं. बड़े पेड़ों की बढ़वार रुक जाती है. इस वजह से फलों की संख्या कम हो जाती है और फल आकार में छोटे लगते हैं.

रोकथाम

* कीट लगी पत्तियों को तोड़ कर फौरन जला देना चाहिए.

* ज्यादा प्रकोप होने पर गंधक की धूल का बुरकाव करना चाहिए या नियंबनशील गंधक के 0.05 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

* क्लोरफेनामिडीन डाइकोफोल या राथेन के 0.05 घोल का छिड़काव करना चाहिए.

* आक्सीडिमेटान थायोमिटान पैराथियान फास्फेमिडान या डाइक्लोरोवोस 0.035 के घोल का छिड़काव भी फायदेमंद होता है.

सूत्रकृमि

वयस्क मादा नाशपाती की शक्ल की गोलाकार होती है. इस का अगला भाग पतला और अलग सा मालूम  होता है. 1 मादा लगभग 250 से 300 अंडे देती है. ये अंडे एक चिपचिपे पदार्थ से निकलते हैं. अंडों के अंदर ही सूंडि़यां पहली निर्मोचन की अवस्था पार करती हैं. इन से दूसरी अवस्था की सूंडि़यां बनती हैं, जो मिट्टी के कणों के बीच रेंगती रहती हैं और सही परपोषी जड़ों से चिपट जाती हैं. ये जड़ों की बाहरी त्वचा को पार कर के ऊतकों में पहुंच जाती हैं. इन का लक्ष्य फ्लोएम ऊतक होते हैं. नेमाटोड की शोषण क्रिया से पेड़ के नए ऊतकों में तेजी से विभाजन होता है. उन की कोशिकाओं का आकार बढ़ जाता है और इस प्रकार ग्रंथिंयों का जन्म होता है. इन्हीं ग्रंथियों के अंदर नेमाटोड एक फसल से दूसरी फसल तक जिंदा रह कर शुरुआती हमला करते हैं.

नेमाटोड के असर से जड़गांठ रोग उत्पन्न होता है. इस के लगने से पेड़ मरते नहीं,

बल्कि गांठ पर अनेक रोगजनक और मृतजीवी कवकों व जीवाणुओं के हमले से जड़़ नष्ट होनी शुरू हो जाती है, जिस से पेड़ की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां छोटी व पीली पड़ जाती हैं. फल बहुत कम लगते हैं और कभीकभी पेड़ सूख जाते हैं.

रोकथाम

* परपोषी फसलों को लगातार एक ही खेत में लेने से इस नेमाटोड की संख्या बढ़ती है. इसलिए सही फसलचक्र अपना कर इस का प्रकोप कम किया जा सकता है

* गरमियों में खेत की 2-3 बार गहरी जुताई कर के मिट्टी को अच्छी तरह सुखाने से ये नष्ट हो जाते हैं.

* नेमाटोड का अधिक प्रकोप होने पर नेमाटोडनाशी का प्रयोग करना चाहिए. इस के लिए फ्यूराडान 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल रोपने से 3 हफ्ते पहले जमीन में इस्तेमाल करना चाहिए.

* मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों को मिलाने से भी इस नेमाटोड की रोकथाम में काफी मदद मिलती है. लकड़ी का बुरादा, नीम या अरंडी की खली 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल लगाने से 3 हफ्ते पहले खेत में मिलाने पर मूल ग्रंथियों की संख्या में काफी कमी हो जाती है.

तना सड़न

रोगी तने के निचले भाग की छाल जलीय हो जाती है. अनुकूल मौसम में जलीय चकत्ते आकार में बढ़ कर तने के चारों ओर फैल जाते हैं. पेड़ के ऊपर की पत्तियां मुरझा जाती हैं और उन का रंग पीला पड़ जाता है. पत्तियां समय से पहले ही गिर जाती हैं. तने के आधार के ऊतकों का विघटन हो जाने के कारण पूरा पेड़ आधार से टूट कर गिर जाता है.

रोकथाम

* पपीते के बगीचों में जल निकासी का सही इंतजाम होना जरूरी है. जिन  पेड़ों पर रोग का असर ज्यादा हो, उन्हें तुरंत ही जड़ से उखाड़ कर जला देना चाहिए.

* आधार से 60 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक तनों पर बोर्डो पेस्ट लगा कर तने के चारों तरफ मिट्टी में 6:6:50 सांद्रता वाले बोर्डो मिश्रण को 5 लीटर प्रति पेड़ डालने से रोग को रोका जा सकता है. ऐसा 3 बार जून, जुलाई और अगस्त के महीनों में करना चाहिए.

फल गलन

रोग के लक्षण अधपके फलों पर छोटे गोल जलीय धब्बों के रूप में नजर आते हैं. समय के साथ ये धब्बे बढ़ने लगते हैं और आपस में मिल जाते हैं. ऊतकों के विघटन के कारण फल गलने लग जाते हैं.

रोकथाम

* 0.16 फीसदी ब्लाइटाक्स 50 के छिड़काव से रोग को काबू किया जा सकता है.

पत्ती सिकुड़ना

इस रोग से पत्तियां छोटी व झुर्रीदार हो जाती हैं. पत्तियों का बेडौल होना व उन की शिराओं का रंग पीला पड़ जाना रोग के सामान्य लक्षण हैं. रोगग्रस्त पत्तियां नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं, जिस से वे उलटे प्याले की तरह दिखाई पड़ती हैं. विषाणु का प्रसार रस चूसने वाले कीटों जैसे चैंपा, सफेद मक्खी व थ्रिप्स तेला कीट के कारण होता है. ये कीड़े अपने चूसने वाले मुखांगों से पत्तियों का रस चूसते हैं.

रोकथाम

* इस से बचाव का सही तरीका सफेद मक्खियों की रोकथाम है.

* ग्रसित पेड़ों पर नीम का तेल

5 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी या मछली

रोसिन सोप 25 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी

की दर से छिड़कें.

* कीटों की तादाद बढ़ते ही मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीमीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता

यह रोग एक तरह के कवक से होता है. मंजरियों और नई पत्तियों पर सफेद या धूसर चूर्णिल वृद्धि दिखाई पड़ती है. रोग का संक्रमण मंजरियों से शुरू हो कर नीचे की ओर फूलों, नई पत्तियों व शाखाओं तक फैल जाता है. इस से प्रभावित भागों की बढ़वार रुक जाती है. फूल और पत्तियां गिर जाती हैं. अगर संक्रमण के पहले फल लग गए हों तो वे बिना पके ही गिर जाते हैं. फलों की तादाद में भारी कमी आ जाती है.

रोकथाम

* रोकथाम के लिए 0.05 से 0.1 फीसदी कैराथेन/0.1 फीसदी बाविस्टिन/0.1 फीसदी बेनोमिल/0.1 फीसदी कैलेक्जीन का छिड़काव करना फायदेमंद होता है.

* घुलनशील गंधक (0.2 फीसदी) नामक कवकनाशक दवाओं का घोल बना कर पहला छिड़काव जनवरी, दूसरा फरवरी के शुरू और तीसरा फरवरी के आखिर में करना चाहिए.

एंथ्रेक्नोज

यह रोग कोलेटोट्राइकम कवक से होता है. पेड़ों की कोमल टहनियों, फलों और फूलों पर इस रोग को देखा जा सकता है. पत्तियों पर भूरे या काले, गोल या दूसरे आकार के धब्बे पाए जाते हैं. रोग से पत्तियों की बढ़वार रुक जाती है और वे सिकुड़ जाती हैं. कभीकभी रोगग्रस्त ऊतक सूख कर गिर जाते हैं, जिस से पत्तियों में छेद दिखाई पड़ते हैं. संक्रमण से रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. कच्चे फलों पर काले धब्बे पड़ जाते हैं. धब्बों के नीचे का गूदा सख्त हो कर फट जाता है और आखिर में फल गिर जाते हैं. यह रोग मंजरी अंगमारी व फल सड़न के रूप में भी प्रकट होता है.

रोकथाम

* रोगी टहनियों की छंटाई कर के उन्हें गिरी हुई पत्तियों के साथ जला देना चाहिए.

* पेड़ों पर कवकनाशी रसायनों जैसे कापर आक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी का छिड़काव कर देना चाहिए.

* रोगी पेड़ों पर 0.2 फीसदी ब्लाइटाक्स 50, फाइटलोन या बोर्डो मिश्रण (0.8 फीसदी) नामक दवाओं के घोल का फरवरी से मई के बीच 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए. बाविस्टीन (0.1 फीसदी) रोग को कम करने में कारगर साबित हुआ है.

जड़ सड़न

यह रोग नर्सरी में बीजांकुरों में होता है. यह भूमिगत जीवों पाइथियम फाइटोफथेरा फ्यूजेरियम व राइजोक्टोनिया वगैरह की वजह से होता है. इन का आक्रमण बीजों के अंकुरण के समय होता है. जैसे ही बीजांकुर बीज के बाहर आता है, इन के आक्रमण के कारण सड़ जाता है. यदि इन से  बच कर बीजांकुर जमीन के ऊपर आ जाता है, तो तने के जमीन के पास वाले भाग पर गीले भाग दिखाई पड़ते हैं, जिन में सड़न होने लगती है और बीजांकुर गिर जाते हैं. यह रोग काफी घातक होता है.

रोकथाम

* बीजों को एग्रोसान जीएन या केप्टान नामक दवा की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

* नर्सरी की मिट्टी को भी ऊपर बताई दवाओं के 0.2 फीसदी घोल से उपचारित करना चाहिए.

* अंकुरण के 5 से 7 दिनों बाद कापर आक्सीक्लोराइड या मैंकोजेब या मेटालेक्जिल की 2 ग्राम मात्रा का पानी में घोल बना कर जड़ों में डालें.

WTA रैंकिंग से हटाई गईं शारापोवा

रूस की महिला टेनिस स्टार मारिया शारापोवा को महिला टेनिस संघ (डब्ल्यूटीए) ने अपनी विश्व रैंकिंग से हटा दिया है. डब्ल्यूटीए की आधिकारिक वेबसाइट पर इसकी घोषणा की गई. डोपिंग की दोषी पाए जाने के बाद प्रतिबंधित चल रहीं शारापोवा पिछले सप्ताह जारी विश्व रैंकिंग में 93वें पायदान पर थीं.

रैंकिंग से हटाई गईं शारापोवा

शारापोवा पर शुरू में दो साल का प्रतिबंध लगाया गया था. लेकिन विश्व की सबसे बड़ी खेल अदालत 'खेल पंचाट न्यायालय' (सीएएस) ने चार अक्टूबर को उन पर लगा प्रतिबंध घटाकर 15 महीने का कर दिया. अब शारापोवा अगले साल 26 अप्रैल को प्रतिबंध पूरा कर कोर्ट पर वापसी कर सकेंगी.

लंदन ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीत चुकी हैं शारापोवा

प्रतिबंध के कारण लंदन ओलंपिक 2012 में रजत पदक विजेता रहीं शारापोवा इसी वर्ष अगस्त में हुए रियो ओलंपिक 2016 में हिस्सा नहीं ले सकीं. शारापोवा दिसंबर में फ्रेंच ओपन विजेता स्पेन की गारबाइन मुगुरुजा के खिलाफ मेड्रिड में एक प्रदर्शनी मैच खेलने वाली हैं.

शारापोवा को कई मेजर टूर्नामेंटों से दूर रहना होगा

इस दौरान शारापोवा को कई मेजर टूर्नामेंटों से दूर रहना पड़ेगा और जब वह वापसी करेंगी उसके बाद फ्रेंच ओपन पहला ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट पड़ेगा. अगले साल फ्रेंच ओपन 28 मई से 11 जून के बीच होना है. हालांकि शारापोवा के पास इतना समय नहीं होगा कि वह फ्रेंच ओपन में हिस्सा लेने के लिए जरूरी रेटिंग अंक हासिल कर सकें. ऐसे में हो सकता है कि उन्हें वाइल्ड कार्ड के जरिए फ्रेंच ओपन-2017 में प्रवेश दिया जाए.

सोलर पावर फैंसिंग से करें फसल सुरक्षा

फसल बोने से ले कर पैदावार लेने तक किसानों को तमाम परेशानियों से जूझना पड़ता है. चाहे बिजलीपानी की समस्या हो या फसल में कीटबीमारी लगने या फिर मौसम की मार, तो कभी सूखा या कभी बाढ़. जंगली जानवरों से भी फसल को बचाना पड़ता है. ऐसे कई इलाके हैं, जहां जंगली जानवर फसल को रौंद कर खराब कर देते हैं. ये जंगली जानवर झुंड में आते हैं और खड़ी फसल को बरबाद कर जाते हैं. कुछ खाते हैं, तो कुछ बिगाड़ जाते हैं. इन में नीलगाय, जंगली सूअर, बंदर, हाथी जैसे अनेक जंगली जानवर हैं, जिन से फसल बचाव के लिए किसानों को अनेक तरीके अपनाने पड़ते हैं. ऐसे तरीकों में खेत के चारों तरफ कंटीले तार लगाना, झाडि़यां लगाना, गड्ढे खोदना या दीवार बनाना खास हैं. इन तरीकों से कुछ राहत तो मिलती है, लेकिन ये पूरी तरह से कारगर नहीं हैं. ऐसे में खेतों के चारों तरफ सोलर पावर फैंसिंग लगाना अच्छा उपाय है. यह किफायती और सुरक्षित भी है, क्योंकि पावर फैंसिंग से जानवरों को केवल तेज झटका लगता है. इस में जानवरों के मरने का कोई खतरा नहीं है. सोलर फैंसिंग के लिए खेतों के चारों ओर खंभे लगाए जाते हैं, इन पर तारों की बाड़ लगाई जाती है, जो अनेक लाइनों में हो सकती है. जानवरों की ऊंचाई के हिसाब से भी बाड़ लगाई जाती है. जैसे नीलगाय व सूअर के लिए 5 तार लगाए जाते हैं. सोलर पावर फैंसिंग में सोलर प्लेट लगाई जाती है, जिस से बैटरी चार्ज होती है. बैटरी को पावर फेज कंट्रोलर से जोड़ा जाता है. फिर उस के द्वारा तारों में डीसी करेंट छोड़ा जाता है, जो कि बहुत ही कम समय के लिए आताजाता रहता है. तार के संपर्क में आने पर जानवरों को तेज झटका लगता है और वे डर कर वहां से भाग जाते हैं. जानवर इस करंट से मरते नहीं हैं.

एक बार बैटरी चार्ज होने पर 48 घंटे तक मशीन चालू रहती है. इसलिए कभीकभार मौसम खराब होने पर सूरज की रोशनी सौर पैनल पर नहीं पहुंच पाती है, तो भी कोई समस्या नहीं है. दिन में ज्यादातर किसान खेतों की खुद ही देखरेख कर सकते हैं और रात के समय सोलर पावर मशीन को चालू कर सकते हैं.

चूंकि मशीन 1 बार चार्ज होने पर 48 घंटे तक चलती है, तो उसे आप 4 रातों तक इस्तेमाल कर सकते हैं. बैटरी लगभग 2 साल तक चलती है, जो 12 वोल्ट की होती है. अगर किफायत से चलाई जाए, तो ज्यादा भी चल सकेगी. उस के बाद बैटरी बदलने का खर्च भी महज 700-800 रुपए ही आता है.

सोलर यूनिक सोल्यूशन

सोलर पावर फैंसिंग के बारे में अधिक जानकारी लेने के लिए सोलर यूनिकसोल्यूशन, वर्धा, महाराष्ट्र के आशीष कुमार से बात की. उन्होंने बताया कि वे 1 फुट से 6 फुट की ऊंचाई तक के जानवरों से फसल सुरक्षा के लिए फैंसिंग करते?हैं. जिस इलाके में जैसे जानवरों का खतरा होता है, उसी ऊंचाई के हिसाब से सोलर फैंसिंग की जाती है. बाड़ लगाते समय वे सिल्वर के मजबूत तारों का इस्तेमाल करते हैं, जो जल्दी से टूटते नहीं और 10-15 सालों तक आसानी से चलते हैं. वे 12 वोल्ट की टाटा कंपनी की बैटरी और 20 वाट से 100 वाट तक का सोलर पैनल इस्तेमाल करते हैं. इन्हें फैंसिंग के अनुसार लगाया जाता है. वे ज्यादातर ऐनरगाइजर ई 100 का इस्तेमाल करते हैं. फैंसिंग करने के लिए लकड़ी या सीमेंट के खंभे लगाए जाते हैं. खंभे 1 से 2 फुट की गहराई में खोद कर लगाए जाते हैं. इन खंभों के सहारे ही तारों को बाड़ के रूप में लगाया जाता है.

आशीष कुमार ने बताया कि उन की कंपनी द्वारा लगाई गई सोलर पावर फैंसिंग का खर्चा 1 एकड़ खेत का तकरीबन 1 लाख रुपए, 5 एकड़ खेत का 2 लाख रुपए और 10 एकड़ खेत का 3 लाख रुपए आता है. सोलर का 1 यूनिट 20 से 25 एकड़ तक का एरिया कवर कर सकता है. सोलर फैंसिंग लगाना बहुत ही आसान है और यह लंबे समय तक चलने वाला सिस्टम है. किसान खुद भी फैंसिंग तार लगा सकते हैं. इस बारे में कंपनी के लोग किसानों को जानकारी दे कर अच्छी तरह समझा देते हैं. सोलर पावर सिस्टम लगवाने या अधिक जानकारी के लिए आशीष कुमार के मोबाइल नंबर 08055159047 पर बात कर सकते है. 

 

 

 

 

खास बातें

* अगर कोई चोर या जानवर खेत में बारबार घुसने की कोशिश करेगा, तो उस में लगा अलार्म भी बजेगा. इसे सुन कर किसान तुरंत चौकन्ना हो जाएगा. * लगाई गई फैंसिंग के नीचे उगे पेड़पौधों को काटते रहें, नहीं तो उन के छूने से भी बारबार अलार्म बजेगा और बैटरी जल्दी डिस्चार्ज हो जाएगी.

मसाला व औषधीय फसल मेथी

दुनिया में मसाला उत्पादन व उसे दूसरे देशों में भेजने के हिसाब से भारत सब से आगे?है. इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारी खाने की चीजों को स्वादिष्ठ तो बनाते ही हैं, साथ ही हमें इस से विदेशी मुद्रा भी मिलती?है. मेथी मसाले की एक खास फसल है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी व खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. इस के बीज मसाले व दवा के रूप में काम आते?हैं.

भारत में इस की खेती राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पंजाब में की जाती?है. भारत में मेथी का सब से ज्यादा उत्पादन होता है. इस का इस्तेमाल औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि व जलवायु : मेथी को अच्छे जल निकास व सही जीवांश वाली सभी प्रकार की जमीन में उगाया जा सकता?है, लेकिन दोमट मिट्टी इस के लिए सब से अच्छी रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. यह पाले व लवणीयता को भी कुछ हद तक सहन कर सकती है. मेथी की शुरुआती बढ़त के लिए कम नमी वाली जलवायु व कम तापमान सही रहता?है, लेकिन पकने के समय गरम व सूखा मौसम ज्यादा फायदेमंद होता है. फूल व फल बनते समय अगर आकाश में बादल छाए रहते हों तो फसल पर कीड़े व बीमारियां लग सकती हैं.

मेथी की अच्छी किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफसलीय किस्म है, जिस का औसत बीज भारी होता?है. फलियां लंबी और ज्यादा दानों वाली होती?हैं. दाने सुडौल, चमकीले पीले होते?हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग कम लगता?है. पकने का समय 120 से 130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : यह किस्म पूरे राजस्थान के लिए सही है. इस के पौधे आधे सीधे व मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता?है. इस किस्म पर बीमारियों व कीटों का हमला कम होता?है. पकने का समय 140 से 150 दिन है. इस की औसत उपज 14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती?है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती?है. कुल 5 से 7 बार पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी?: भारी मिट्टी में खेत की 3 से 4  व हलकी मिट्टी में 2 से 3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

खाद व उर्वरक?: प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद खेत तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में डालें.

बोआई व बीज की मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते तक की जाती?है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने के समय तापमान ज्यादा हो जाता?है, जिस से फसल जल्दी पक जाती है और उपज में कमी आती?है व पछेती फसल में कीटों व बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता?है. इस के लिए 20 से 25 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. बीजों को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए. बीजों को राइजोबिया कल्चर से उपचारित के कर बोने से फसल अच्छी होती है. सिंचाई व निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाई कितनी बार करनी है यह मिट्टी व बारिश पर निर्भर करता?है.

वैसे रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए करीब 8 सिंचाई करने की जरूरत पड़ती है, लेकिन ऐसी अच्छी भूमि पर जिस में पानी की मात्रा ज्यादा हो 4 से  5 सिंचाई काफी हैं. फलियां व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद जरूरत के हिसाब से 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. बोआई के 30 दिनों बाद निराईगुड़ाई कर के पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल से गैर जरूरी पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सेंटीमीटर रखें. जरूरत हो तो 50 दिनों बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की बढ़त की शुरुआती अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में हवा लगती है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती?है.

मेथी में खरपतवार नियंत्रण

मेथी के उगने के 25 व 50 दिनों बाद 2 बार निराईगुड़ाई कर के पूरी तरह से खेत से खरपतवार हटाया जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई से पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. उस के बाद मेथी की बोआई करें. पेंडीमेथालीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर को 600 लीटर पानी में घोल कर के मेथी की बोआई के बाद मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खेत से खरपतवार को हटाया जा सकता है. ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला नहीं छोड़ें वरना इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमेथालीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना बहुत जरूरी है.

कीट व उन की रोकथाम

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता?है, लेकिन कभीकभार  एफिड (माहू), जैसिड (तेला), पत्ती भक्षक लटें, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइटस, फली छेदक व दीमक का आक्रमण पाया जाता है. सब से ज्यादा नुकसान ऐफिड से होता है. माहू का हमला मौसम में ज्यादा नमी व आसमान में बादल रहने पर होता है. यह कीट पौधों के मुलायम भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता?है. दाने कम व कम गुणवत्ता के बनते हैं. इन कीटों पर भी ऐफिड के लिए बताए गए उपचार के तरीके अपनाएं, जिन में जैविक तरीका ज्यादा से?ज्यादा इस्तेमाल करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम से बने रसायनों जैसे निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल 0.03 फीसदी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

रोग व उन की रोकथाम

छाछिया : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता?है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है, जो पूरे पौधे पर फैल जाता?है. इस से पौधे को नुकसान होता है. इलाज : गंधक चूर्ण की 20 से 25 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 10 से 15 दिनों बाद दोहराएं. रोगरोधी मेथी हिसार माधवी बोएं. तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी’ नाम के कवक से होता?है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं व नीचे की सतह पर फफूंद दिखाई देती है. जब यह रोग बढ़ जाता है तो पत्तियां झड़ जाती हैं.

इलाज : फसल में ज्यादा सिंचाई न करें. इस रोग की शुरुआत में फसल पर मेंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 15 दिनों बाद दोहराएं. रोगरोधी मेथी हिसार मुकता एचएम 346 बोएं. जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर के, फसलचक्र अपना कर और ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में दे कर कम किया जा सकता है. कटाई व उपज : जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पीले रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या हंसिया से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियों में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रेसर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को सुखाने के बाद बोरियों में भरें. खेती पर ध्यान देने से 15 से 20 क्विंटल बीजों की प्रति हेक्टेयर पैदावार हो सकती है.

सोशल मीडिया में फेक पोस्ट से मिलेगा छुटकारा

आजकल सोशल मीडिया पर फेक पोस्ट्स, ट्वीट्स और रिव्यूज की भरमार देखने को मिलती है. यूजर के लिए यह समझना खासा मुश्किल काम होता है कि कौन सी पोस्ट असली है और कौन फर्जी. लेकिन, अब यह मुश्किल आसान हो जाएगी.

अमेरिका की टेक्सस युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का दावा है कि उन्होंने ऐसा तरीका खोज लिया है, जिससे सोशल मीडिया पर फर्जी पोस्ट की पहचान आसान हो जाएगी. यूनिवर्सिटी में साइबर सिक्यॉरिटी के असोसिएट प्रफेसर किम-क्वांग रेमंड चू ने एक ऐसे स्टैटिस्टिकल मेथड का जिक्र किया जिसमें लेखन के कई नमूनों की ऐनालिसिस की जाती है. इस प्रक्रिया को 'ऐस्ट्रटर्फिंग' कहते हैं.

उन्होंने पाया कि कुछ लिखते वक्त इंसान के लिए अपनी राइटिंग स्टाइल बदलना या छिपाना बहुत चुनौतीभरा काम होता है. ट्वीट या फेसबुक पर डाली गई पोस्ट में शब्दों के चयन, अर्धविराम, पूर्णविराम और संदर्भ सामग्री के आधार पर यह पता लगाया जा सकता है कि इसके पीछे एक व्यक्ति काम कर रहा है या फिर एक ग्रुप.

शोधकर्ताओं ने विभिन्न न्यूज वेबसाइट्स पर कॉमेंट करने वाले कई अकाउंट्स की स्टडी की और पाया कि कई अलग-अलग अकाउंट्स से ऑनलाइन पोस्ट की जा रही सामग्री के पीछे दरअसल कुछ चुनिंदा लोगों का ही हाथ है.

शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरीके से विभिन्न अकाउंट से किए गए फर्जी ट्वीट्स और पोस्ट्स का आसानी से पता लगाया जा सकता है. रेमंड ने उम्मीद जताई कि इस नए तरीके से सोशल मीडिया पर तोड़-मरोड़कर कर पेश की जाने वाली जानकारी पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी.

कृषि मशीनों की पहुंच से दूर हैं छोटे किसान

बिहार में पिछले 7-8 सालों से खेती की मशीनों को हर किसान तक पहुंचाने और उस के प्रति किसानों को जागरूक करने की मुहिम जोरशोर से चल रही?है, लेकिन इस के बाद भी छोटे और मंझोले किसानों की पहुंच से मशीनें काफी दूर हैं. ज्यादातर छोटे और मंझोले किसानों को यह नहीं पता है कि खेती की मशीनों से उन की खेती को क्या फायदा होगा और वे मशीनें कैसे ली जा सकती हैं?

बिहार में पिछले कुछ सालों के दौरान काफी तेजी पकड़ने वाली कृषि यांत्रिकरण की रफ्तार अब धीमी पड़ गई है. किसानों का कहना है कि खेती की मशीनों को खरीदने के लिए बैंकों द्वारा कर्ज देने में आनाकानी करने की वजह से कृषि यांत्रिकरण की रफ्तार में कमी आई?है. अगर राज्य सरकार अनुदान का लाभ देने के लिए बैंकों से कर्ज लेने की बाध्यता खत्म नहीं करती तो यांत्रिकरण की रफ्तार तकरीबन ठप हो जाती. वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा कई तरह की मशीनों की खरीद के लिए अनुदान कम कर देने से भी कृषि यांत्रिकरण की रफ्तार काफी कम हुई है.

बिहार में कृषि यांत्रिकरण का औसत 0.5 और 0.8 किलोवाट प्रति हेक्टेयर के बीच अटका हुआ है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.5 किलोवाट प्रति हेक्टेयर है. पंजाब में कृषि यांत्रिकरण की रफ्तार 3.02 किलोवाट प्रति हेक्टेयर है. साल 2013-14 में बिहार में यह औसत 1.7 किलोवाट प्रति हेक्टेयर तक जा पहुंचा था, लेकिन उस के बाद इस में लगातार गिरावट आती गई. साल 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने कृषि यांत्रिकरण को बढ़ाने पर जोर दिया था. पिछले साल बैंकों ने खेती की मशीनों की खरीद के लिए 2 हजार करोड़ रुपए लोन देने का लक्ष्य रखा था, पर महज 150 करोड़ रुपए का ही कर्ज बांटा गया. इस का सीधा असर कृषि यांत्रिकरण की गति पर पड़ा है.

कृषि मंत्री राम विचार राय बताते?हैं कि बिहार में इस साल 138 कृषि मशीन बैंकों की शुरुआत की जाएगी. इस से छोटे और मंझोले किसानों को काफी फायदा होगा. गरीब किसान चाह कर भी खेती की मशीनों को इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं. उन के पास इतनी पूंजी नहीं होती है कि वे मशीनों को खरीद सकें. कृषि मशीनों का बैंक खुल जाने से किसानों को कम किराए पर मशीनें मिल सकेंगी.

कृषि यांत्रिकरण की रफ्तार में तेजी लाने के लिए कृषि महकमा पंचायतों में किसान समूहों या एनजीओ को कृषि मशीन बैंक चलाने की जिम्मेदारी देने की तैयारी कर रहा है. पहले चरण में 10 लाख की लागत वाले 2 और 25 लाख की लागत वाले 1 बैंक की शुरुआत की जाएगी. इस के अलावा 40 लाख की लागत वाले 24 मशीन बैंक पूरे राज्य में खोले जाएंगे. इन की सफलता के बाद हर पंचायत में मशीन बैंक खोले जाएंगे. हर बैंक को कुल लागत का 40 फीसदी अनुदान के रूप में दिया जाएगा. कृषि यांत्रिकरण के मामले में बिहार पहले ही राष्ट्रीय औसत को पार कर चुका है. देश में यह औसत 1.71 किलोवाट प्रति हेक्टेयर है, जबकि बिहार में यह आंकड़ा 1.9 किलोवाट प्रति हेक्टेयर है. मशीन बैंकों के चालू होने के बाद इस औसत में और भी इजाफा हो जाएगा.

कृषि यांत्रिकरण को बढ़ावा देने और किसानों को राहत देने के लिए सरकार ने नई स्कीम लागू की?है. इस स्कीम के तहत वैसे किसान भी अब कंबाइन हार्वेस्टर खरीद सकते?हैं, जिन के पास जमीन नहीं?है. अब तक इसे वही किसान खरीद सकते थे, जिन के पास कम से कम 5 एकड़ जमीन हो. कंबाइन हार्वेस्टर की कीमत 12 से 15 लाख रुपए है और इस की खरीद पर सरकार 4 लाख रुपए तक का अनुदान देती है. कृषि विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक खेती की मशीनों में सब से ज्यादा कंबाइन हार्वेस्टर की खरीद के लिए ही आवेदन आते हैं. ज्यादातर किसान इसे खरीदने के लिए जैसेतैसे रुपयों का जुगाड़ तो कर लेते थे, लेकिन अधिकतर किसानों के आवेदन इस वजह से रद्द हो जाते थे कि उन के पास 5 एकड़ जमीन नहीं होती थी. किसानों की इसी समस्या को देखते हुए कृषि विभाग ने हार्वेस्टर की खरीद में 5 एकड़ जमीन की बाध्यता को खत्म कर दिया है.

कृषि उत्पादन आयुक्त विजय प्रकाश ने बताया कि इस फैसले के बाद कई उद्यमी भी आसानी से कंबाइन हार्वेस्टर खरीद सकेंगे और किसानों को किराए पर दे सकेंगे. इस से जहां नया रोजगार पैदा होगा, वहीं गरीब किसानों को भी मदद मिल सकेगी.

गौरतलब है कि गांव के लोगों के गांव?छोड़ कर जाने और शहरों की रफ्तार बढ़ने से खेतों की जोत छोटी होती जा रही?है. इस से गांवों में मजदूरों की काफी कमी हो गई है, जिस से किसानों को परेशानी होती है. ऐसे में कंबाइन हार्वेस्टर किसानों के लिए बड़ा मददगार साबित हो सकता है. धान, गेहूं और मक्के की कटाई के लिए कंबाइन हार्वेस्टर का इस्तेमाल किया जाता है. इतना ही नहीं यह फसलों की कटाई के बाद छंटनी कर के उसे अनाज में बदल देता है. इस से किसानों की मजदूरी की चिंता दूर हो सकती है.

बैगन : पूरे साल फसल और मुनाफा

चमकीले और खूबसूरत नजर आने वाले बैगन की खेती समूचे देश में पूरे साल कभी भी की जा सकती है. रबी, खरीफ और गरमी तीनों मौसमों में इसे उपजाया जा सकता है. अधिकतर लोगों में यह भ्रम है कि बैगन सेहत के लिए नुकसान देने वाला है. इस से नाकभौं सिकोड़ने वालों ने इसे ‘बे गुण’ का नाम दे रखा है. सचाई यह है कि खांसी, हाई ब्लड प्रेशर, खून की कमी और दिल की बीमारी जैसे रोगों के लिए यह काफी फायदेमंद है. सफेद बैगन चीनी के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है. इस के साथ ही इस की खेती करने वाले को अच्छाखासा मुनाफा भी मिलता है.

बैगन की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, पर हलकी भारी और दोमट मिट्टी इस के लिए काफी मुफीद मानी जाती है. इस के लिए खेत तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है. उस के बाद की जुताई कल्टीवेटर से करना बेहतर होता है. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी बना दिया जाता है. उस के बाद निराई व गुड़ाई और सिंचाई  के लिए खेतों को क्यारियों में बांट दिया जाता है.

लंबा बैगनी, लंबा हरा, सफेद कलौंजी, गोल आदि बैगन की मुख्य प्रजातियां हैं. जिस इलाके में जिन प्रजातियों के बैगन की मांग होती है, उस के मुताबिक  इस की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 500 से 700 ग्राम बीजों की जरूरत पड़ती है. बैगन के बीजों को नर्सरी में लगा कर पहले पौध तैयार कर लिए जाते हैं. इस की खरीफ फसल के लिए मार्च में, रबी फसल के लिए जून में और गरमी की फसल के लिए नवंबर में बीजों को बोया जाता है.

नर्सरी में 4 से 5 हफ्ते में तैयार होने वाले पौधों को खेतों में रोपा जाता है. कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर होनी चाहिए. बैगन के खेत की समयसमय पर निराईगुड़ाई करना जरूरी है. खेत में नमी की कमी होने पर सिंचाई कर देनी चाहिए. बैगन के पौधे लंबे समय तक फल देते हैं, इसलिए खाद और उर्वरक की काफी जरूरत होती है.

बैगन की फसल को सब से ज्यादा नुकसान फल छेदक और तना छेदक कीटों से होता है. इन से बचाव के लिए किसान जरूरत से ज्यादा कैमिकल कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. इस से मित्र कीट मारे जाते हैं और नुकसान पहुंचाने वाले कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाने से वे मरते नहीं हैं. बैगन के पौधों को पौधा संरक्षण की सामेकित प्रबंधन तकनीक से बचाया जा सकता है. पौध गलन, पौधों में बौनापन, पत्तों में पीलापन, पत्तों का झड़ना, पत्तों का छोटा होना आदि बैगन के मुख्य रोग हैं. इन्हें जैविक तकनीक से दूर किया जा सकता है.

फल छेदक, तना छेदक और किसी भी तरह के कीटों से बचाव के लिए बैसीलस थुरिनजेनसिस (डीपीएल 8, डेलफिन) एनपीबी 4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिला कर नीम आधारित कीटनाशकों का इस्तेमाल कर के बैगन के पौधों और फसल को बचाया जा सकता है. वहीं बाभेरिया बासियाना फफूंद आधारित कीटनाशक है. इसे 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर इस्तेमाल करना होता है. लाल मकड़ी से बचाव के लिए सल्फर का इस्तेमाल बेहतर होता है.

नई तकनीक के जरीए उन्नत बैगन की खेती करने से प्रति हेक्टेयर 400 क्विंटल की उपज

होती है. थोक बाजार में इस की कीमत 1000 से 1200 रुपए प्रति क्विंटल है. इस हिसाब से

1 हेक्टेयर में बैगन की खेती करने पर कम से कम 4 लाख रुपए कमाए जा सकते हैं. प्रति हेक्टेयर बैगन की खेती की लागत डेढ़ लाख रुपए के करीब होती है. इस लिहाज से प्रति हेक्टेयर ढाई

लाख रुपए की आमदनी हो जाती है.                                                       – बीरेंद्र बरियार ज्योति ठ्ठ

हंसराज ने जैविक खेती में कमाया नाम

राजस्थान के सिरोही जिले के आबू क्षेत्र के गांव खड़ात के 66 साल के किसान हंसराज खेती में नवाचारों से 4 बीघे क्षेत्र में करीब 4 लाख रुपए की कमाई  कर रहे हैं. हंसराज पिछले 30 सालों से खेती कर रहे हैं. उन के पास कुल 8 बीघे जमीन है. आबू की तलहटी में पहाड़ों के बीच की जमीन सूख गई है. बारिश का पानी बह कर चला जाता था, इसलिए उन्होंने सब से पहले तालाब बनाया व कुआं खुदवाया. तालाब में बरसात का पानी इकट्ठा किया और कुएं में पानी कम था, तो यह पानी कुएं में डाला. लोगों ने कहा कि कुआं ढह जाएगा, पानी दूसरी जगह चला जाएगा. लेकिन उन्होंने सही सोच रखी व हिम्मत से काम लिया और 120 फुट गहरा पानी भरवाया. हंसराज ने पानी इकट्ठा करने के बाद अपनी खेती में उस पानी को इस्तेमाल किया व पड़ोसी 30 से 40 वनवासी को भी पानी मुहैया करवाया. उन के भी गेहूं राज 1482 की अच्छी खेती हुई. हंसराज की खेती को देख कर पड़ोसी भी ऐसा करने लगे. उन्हें भी अच्छी कमाई होने लगी.

हंसराज ने जैविक खेती पर ज्यादा ध्यान दिया, क्योंकि वे सब्जियों की खेती ज्यादा करते हैं. उन्होंने रसायनों से ज्यादा नुकसान देख कर जैविक खेती अपनाई. सब से पहले केंचुआ खाद का वर्मी बेड बनवाया और उस में उदयपुर से ला कर केंचुए डाले. वे घर पर गायभैंस रखते हैं, उन से गोबर मिल जाता है. उस का इस्तेमाल किया. वे 1 बीघे में जैविक खाद से फूलगोभी किस्म सलेक्शन 22 की बोआई करते हैं. देशी खाद देते हैं. कीटरोग लग जाते हैं, तो गौमूत्र व नीम से घर पर बनाई दवा का इस्तेमाल करते हैं. इस प्रकार जैविक खाद और जैविक दवा के इस्तेमाल से गोभी का भरपूर उत्पादन मिलता है. 1 बीघे में करीब डेढ़ लाख रुपए तक की फूलगोभी का उत्पादन होता है. जैविक गोभी को खड़ात गांव व आबूरोड के लोग खरीद कर ले जाते हैं. गोभी की कटाई के बाद वे गेहूं राज 1482 की बोआई करते हैं. यह किस्म खाने में स्वादिष्ठ होती है व जैविक खाद डालने पर यह बहुत अच्छी फसल देती है. करीब 16 से 17 बोरी प्रति बीघा गेहूं पैदा हो जाता है. पड़ोसी किसान भी उन से बीज ले कर गेहूं की यही किस्म बोते हैं.

वे गेहूं की कटाई के बाद गरमी में लौकी और चवलाफली की बोआई करते हैं. बूंदबूंद सिंचाई खेत में लगाई है, उस से पानी की बचत होती है व जैविक खेती से सब्जियों का ज्यादा उत्पादन होता है व वे स्वादिष्ठ होती हैं. वे चवलाफली का बीज पहले गुजरात से लाए थे, फिर धीरेधीरे उस में से छांट कर घर के बीज बना दिए. 15 मार्च के आसपास बोआई करते हैं. 1 महीने बाद फूल आते हैं. फिर फलियां आने लगती हैं. गोबर की खाद व बूंदबूंद सिंचाई से की गई खेती अच्छी होती है, जिस से 50,000 रुपए प्रति बीघा मिल जाता है. खेत भी दलहन से ताकतवर बना रहता है. इन फसलों के अलावा आबू की सौंफ की खेती भी हंसराज नवाचारों से करते हैं. 1 बीघे में 14 बोरी तक उत्पादन लेते हैं.

सौंफ का रंग हरा रखने के लिए उसे झोंपड़ी में तारों पर सुखाते हैं. इस से उस की गुणवत्ता भी बनी रहती है. इन फसलों के अलावा वे भिंडी की फसल गरमियों में जगह खाली होने पर लगाते हैं व बैगन भी सब्जियों के लिए लगाते हैं. वे सिंचाई बूंदबूंद तरीके से करते हैं. सब्जियों की जड़ों में गांठों की शिकायत होने पर या रोग से बचाने के लिए हजारा (मेरी गोल्ड) लगाते हैं, जिस से सूत्रकृमि से बचाव हो जाता है. इन फसलों के अलावा आम के पेड़ भी खेत में हैं. इन से स्वादिष्ठ आम मिलते हैं. पशुओं के लिए चारा घर पर ही लगा देते हैं. इस प्रकार जैविक खेती में खाद और दवाएं घर पर ही खेत में मिल जाती हैं. बाजार से कुछ भी खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है. जैविक खेती टिकाऊ खेती होती जा रही है, इस में लागत कम और मुनाफा ज्यादा होने लगा है. हंसराज माली के नवाचारों को देख कर सिरोही जिले के आबूरोड पंचायत समिति स्तर पर उन्हें आत्मा परियोजना कृषि विभाग द्वारा 10,000 रुपए दे कर सम्मानित किया गया है. हाल ही में जिला स्तरीय कृषि मेले में सिरोही में हंसराज को प्रशस्तिपत्र और इनाम दे कर सम्मानित किया गया है.

अधिक जानकारी के लिए हांसराज खासाजी माली, गांव खड़ात आबूरोड के मोबाइल नं. 9460764134 या लेखक के मोबाइल नं. 9414921262 पर संपर्क कर सकते हैं.

अरहर की खेती में होगी कमाई

सचाई यह?है कि कुछ सालों से किसानों ने अरहर की खेती करना कम कर दिया है. इस बात को जानते हुए सरकार ने अरहर के समर्थन मूल्य को बढ़ाने का फैसला किया है, जिस से अरहर की खेती से किसानों को अब पहले से ज्यादा फायदा होगा. अरहर को ज्वार, बाजरा, उड़द व कपास वगैरह फसलों के साथ बोया जाता है. इस की फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी वाले खेत सब से अच्छे होते हैं. इस के अलावा अरहर की खेती के लिए ढलान वाले खेत सब से सही होते हैं. ढलान वाले खेतों में पानी रुकता नहीं है. अरहर बोने के लिए खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2 से 3 बार कल्टीवेटर से खेत की जुताई करनी चाहिए. अरहर बोने का समय : अगेती अरहर (टा 21) बोने का समय अप्रैल से मई के बीच में होता?है. जहां सिंचाई के अच्छे साधन हैं, वहां पर जून में और देर से पकने वाली अरहर की बोआई 15 जुलाई तक जरूर कर देनी चाहिए. बीजों का उपचार?: 1 किलोग्राम बीजों को 2 ग्राम थीरम और 1 ग्राम कार्बेंडाजिम से उपचारित करना चाहिए. बीज बोने से पहले अरहर का उपचार राइजोबियम से करना चाहिए. 1 पैकेट राइजोबियम कल्चर 10 किलोग्राम बीज के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है. जिस खेत में अरहर पहली बार बोई जा रही?हो, वहां पर कल्चर का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए.

बीज की मात्रा : अरहर के 1 हेक्टेयर खेत के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. अगर पानी का प्रभाव खेत में?है तो बहार किस्म वाली अरहर सितंबर महीने तक 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोनी चाहिए. अरहर की किस्म और मौसम के हिसाब से बीजों की मात्रा और पौधे से पौधे के बीच की दूरी रखनी चाहिए. अरहर की बोआई करने के लिए देशी हल का इस्तेमाल सही रहता है. अरहर की एक लाइन से दूसरी लाइन की दूरी 20 से 90 सेंटीमीटर के बीच रखी जाती है. दूरी बीज के हिसाब से रखते हैं. आईसीपीएल 151 की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर, टा 17 की दूरी 120 सेंटीमीटर, टा 21 की दूरी 75 सेंटीमीटर, टा 7 और आजाद की दूरी 90 सेंटीमीटर लाइन से लाइन के बीच रखनी चाहिए. अरहर की सभी किस्मों के लिए पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 से 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद का प्रयोग : अरहर की अच्छी पैदावार के लिए 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 से 45 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम सल्फर का इस्तेमाल 1 हेक्टेयर खेत में करना चाहिए. अरहर के लिए सिंगल सुपर फास्फेट व डाई अमोनिया फास्फेट का इस्तेमाल फायदेमंद होता है. अरहर की फसल में सिंचाई का भी खास खयाल रखना चाहिए. टा-21, यूपीएएस 120, आईसीपीएल 151 को पलेवा कर के बोना चाहिए. दूसरे किस्म की अरहर को बोने के लिए बारिश में नमी होने पर बोना चाहिए. खेत में कम नमी हो तो फलियां बनते समय अक्तूबर के महीने में सिंचाई करनी पड़ती है. देर से पकने वाली किस्मों में अरहर को पाले से बचाने के लिए दिसंबर और जनवरी महीने में सिंचाई करना फायदेमंद होता है.

निराई व गुड़ाई : अरहर के खेत में पहली निराई बोआई के 1 महीने के अंदर होनी चाहिए. दूसरी निराई पहली निराई के 20 दिनों के बाद करनी चाहिए. घास और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए पेंडीमेथलीन 30 ईसी 3 लीटर और एलाक्लोर 50 ईसी 4 लीटर को 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद पाटा लगा कर अरहर जमने से पहले छिड़काव करें.

कीट व बीमारियां : अरहर  फसल में उकठा और बांझा किस्म के रोग होते हैं. इस के अलावा फली बेधक कीट व पत्ती लपेटक कीट, फलों की मक्खी भी अरहर के पौधों को नुकसान पहुंचाती हैं.

उकठा रोग में अरहर की पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं और पौधा सूख जाता है. जड़ें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती?हैं. छाल हटा कर देखने पर जड़ से तने तक की ऊंचाई में काले रंग की धारियां पाई जाती हैं. इस से बचाव के लिए इस रोग लगे खेत में 3 से 4 सालों तक अरहर की खेती नहीं करनी चाहिए. थीरम और कार्बेंडाजिम को 2:1 के अनुपात में मिला कर 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज को उपचारित कर के बोना चाहिए. अगर अरहर को ज्वार के साथ बोते हैं, तो यह रोग काफी कम हो जाता है. अरहर को बांझा रोग बहुत नुकसान पहुंचाता है. इस रोग में अरहर की पत्तियां छोटी हो जाती हैं. फूल नहीं आते?हैं. जिस से दाने नहीं बनते. यह रोग माइट द्वारा फैलता है. इस का कोई असरदार उपचार नहीं होता है. बहार, नरेंद्र और अमर किस्म की खेती कर के अरहर को इस रोग से बचाया जा सकता है.

इस के अलावा फलीबेधक कीट फलियों के अंदर घुस कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस से बचाव के लिए फूल आने पर मोनोक्रोटोपास 36 ईसी 800 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर या इंडोसल्फान 35 ईसी डेढ़ लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए. अगर जरूरत हो तो 15 दिनों के बाद दोबारा छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती को लपेट कर खाने वाला एक कीड़ा पीले रंग का होता है. इस से बचाव के लिए मोनोक्रोटोपास 36 ईसी 800 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर या इंडोसल्फान 35 ईसी सवा लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत के मुताबिक पानी में डाल कर छिड़काव करना चाहिए.

आरबीआई ब्याज दरों में दे सकता है राहत

एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अगले कुछ महीने में ब्याज दरों में आधा फीसदी की और कटौती कर सकता है. बोफा-एमएल की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि फरवरी और अप्रैल में केंद्रीय बैंक नीतिगत दरों में 0.25फीसदी की कटौती कर सकता है.

रिपोर्ट में क्या कहा गया है

बोफा-एमएल के इस रिसर्च नोट में बताया गया है कि आरबीआई आगामी 7 दिसंबर की मौद्रिक समीक्षा में दरों पर यथास्थिति कायम रखेगा. वैश्विक वित्तीय सेवा क्षेत्र की कंपनी ने कहा कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की बैठक के पिछले सप्ताह आए मिनट्स से केंद्रीय बैंक के आगामी महीनों में नरम रुख अपनाने का संकेत मिलता है. इस नोट में बताया गया है कि आरबीआई अप्रैल महीने में नीतिगत दरों में 0.25 फीसदी की कटौती कर सकता है. उससे पहले वह 7 फरवरी की मौद्रिक बैठक में भी ब्याज दरों में चौथाई फीसद की कटौती कर सकता है.

कटौती की वजह

साथ ही इस नोट में नीतिगत दरों में आधा फीसदी की कटौती के लिए पांच वजहें भी बताई गई हैं. इसके मुताबिक, मुद्रास्फीति नीचे आने की संभावना है. साल 2017 की शुरुआत में आधा प्रतिशत की कटौती से बैंकों को यह संकेत जाएगा कि उन्हें अपना कर्ज सस्ता करना है, इससे रुपए को समर्थन मिलेगा और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों का प्रवाह बढ़ेगा. दिवाला संहिता तथा जीएसटी कानून से एमपीसी को यह भरोसा होगा कि सरकार सुधारों को आगे बढ़ाने को प्रतिबद्ध है.

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