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महज फूहड़ गानों के सवाल तक सिमटी, फिल्म अमर सिंह चमकीला (डेढ़ स्टार)

बौलीवुड में इम्तियाज अली बढ़िया निर्देशक है जो अपनी फिल्मों में प्रेम की भावनाओं को सहज हो कर दिखाता रहा है. उस की ‘लैला मंजनू’, ‘लव आज और कल’, ‘जब वी मेट’, ‘रौकस्टार’, ‘तमाशा’, ‘जब हैरी मेट सेजल’ चर्चित फिल्मों में से हैं. अब उस ने एक सच्ची त्रासदी पर बनी म्यूजिकल बायोपिक बनाई है. यह बायोपिक फिल्म पंजाब के बेहद लोकप्रिय लेकिन बदनाम ‘अमर सिंह चमकीला’ की जिंदगी पर बनाई गई है.
पंजाबी फ्लेवर लिए इस हिंदी फिल्म की कहानी 80 के दशक की है. अधिकांश दर्शकों ने शायद अमर सिंह चमकीला का नाम भी न सुना हो. पंजाब के एक सिख परिवार में 1960 में जन्मा अमर सिंह चमकीला गानेबजाने के प्रति अपनी दीवानगी के चलते ऐसा चमका कि विदेशों में भी उस के चर्चे होने लगे. वह अश्लील गाने ठेठ पंजाबी में गाया करता था.

हाथ में सारंगी लिए जब वह गाता था तो लोग चटखारे लेले कर उस के गाने सुनते थे. धीरेधीरे वह बहुत पौपुलर हो गया. उस ने धार्मिक गाने भी गाए परंतु सुनने वालों की मांग पर वह पुराने रास्ते पर लौट आया. उसे धमकियां मिलने लगीं. आखिर 1988 में उसे और उस की बीवी अमरजीत को गोली मार दी गई. उस वक्त अमर सिंह की उम्र 28 साल ही थी. जिस तरह फटाफट वह चमका उसी तरह फटाफट बुझ भी गया.
अब सवाल यह उठता है कि गंदे और अश्लील गीत गाने वाले सिंगर पर बायोपिक बनाने की जरूरत क्यों पड़ गई? इस के बारे में निर्देशक का कहना है कि अमर सिंह की नजरों में सारा समाज ही गंदा है. लोग उस के गानों को सुनते ही क्यों हैं. फिल्म इस बहस को भी शुरू करती है. दरअसल यह फिल्म हमारे समाज के दोगलेपन को दिखाती है.

फिल्म की कहानी और पटकथा तरकीब से लिखी गई है. निर्देशक इम्तियाज अली उस दौर के पंजाब, पंजाब के गायकों और श्रोताओं के भीतर तक झांकता है. अमर सिंह चमकीला के किरदार को दिलजीत दोसांझ ने निभाया है और उस की पत्नी के किरदार को परिणीति चोपड़ा ने निभाया है. दिलजीत दोसांझ ने बाल कटवा कर अपना लुक चेंज किया है. फिल्म में उस ने सिगरेट और बीड़ी भी पी है. सिख समुदाय इस पर आपत्ति कर सकता है. बहरहाल उस ने दर्शकों का दिल जीत लिया है.
बताया जा रहा है कि निर्देशक ने इस फिल्म के लिए काफी रिसर्च की, मगर देख कर खास लगता नहीं, या संभव है कि जानबूझ कर कुछ चीजें दबा दी गईं. जैसे फिल्म में चमकीला अपने प्रोफिट में हिस्सेदारी की बात करता है तो उसे दुतकार कर उस की जात याद दिलाई जाती है. तब चमकीला कहता है, ‘चमार हूं भूखा नहीं मारूंगा.’ यह इकलौता डायलौग काफीकुछ कह तो जाता है पर उस की जाति के चलते उसे बचपन से ले कर जवानी तक क्याक्या समस्याएं झेलनी पड़ीं, फिल्म में यह दिखाने से डायरैक्टर बचता दिखाई देता है.

दूसरे, अगर इस फिल्म की तह में जाएं तो गानों में फूहड़पन या अश्लीलता को केंद्र में रखा गया है और ऐसे दिखाया गया है कि अमर सिंह के फूहड़ गानों के चलते मारा गया. पर फूहड़ और अश्लील गाने तो सदियों से बनते रहे हैं. जिस समय चमकीला ऐसे गाने गा रहा था उस समय चमकीला जैसे कई और सिंगर पंजाब में थे. ऐसे में अमर सिंह ही क्यों टारगेट बना? दरअसल, फिल्म में अमर सिंह की ‘जाति पहचान’ को सरसरी चलता कर इस सवाल को फूहड़ गानों तक ही सीमित कर दिया गया.
अब आते हैं इस के ओवरऔल व्यू पर. फिल्म के अंत में भावुक अंदाज में अरिजीत सिंह का गाया गाना ‘विदा करो…’ अमर सिंह चमकीला को लगभग शहीद जैसा दर्जा दे देता है. निर्देशक का अपना नजरिया है पर अमर सिंह को शहीद जैसा ट्रीटमैंट देना, अतिश्योक्ति जैसा लगता है. इम्तियाज अली अपनी फिल्मों में फीमेल कैरेक्टर को अच्छा पोट्रे करता है, पर यहां वह चूकता दिखाई देता है. वह सिर्फ अमर सिंह की दूसरी पत्नी अमरजीत का पक्ष तो दिखाता है पर पहली पत्नी गुरमेल कौर को सीधा नकार सा देता है. यहां तक कि चमकीला जब दूसरी शादी कर अपने घर आता है तो अपनी पहली बीवी से यह बात मसखरे अंदाज में बताता है जैसे कोई बड़ी बात हुई ही न हो. यहां तक कि दूसरी बीवी को भी धोखे में रखता है कि उस की पहले से ही शादी हो चुकी है और उस से 2 बच्चे हैं.

हालांकि, फिल्म का निर्देशन अच्छा है. निर्देशन में जातिगत भेदभाव, सामाजिक बदमाशियों और पूर्वाग्रह में डूबी त्रासदी को दिखाया गया है. फिल्म म्यूजिकल है परंतु अमर सिंह चमकीला द्वारा गाए गए गानों के बोल आम हिंदी दर्शकों को समझ नहीं आते, क्योंकि ये गाने ठेठ पंजाबी में गाए गए हैं. फिल्म में निर्देशक ने सवाल उठाया है कि क्या हमें किसी पर बैन लगाने का अधिकार है? अगर नहीं, तो फिर क्यों वह कलाकार जीवनभर नफरत और अपमान सहता रहे?
निर्देशक की फिल्म का मुख्य किरदार अमर सिंह चमकीला झुकना नहीं जानता, वह किसी के अधीन रहने के बजाय धमकियों का मुकाबला करता है. फिल्म 80 के दशक के बैन कल्चर, कट्टरपंथियों की राजनीति पर भी टिप्पणी करती है.
मध्यांतर के बाद की फिल्म में कहींकहीं दोहराव दिखता है. ए आर रहमान का बैकग्राउंड म्यूजिक और दिलजीत दोसांझ का देहाती अंदाज में गाना अच्छा लगता है. दिलजीत दोसांझ के साथ परिणीति जमी है. कैमरा वर्क बढ़िया है. कहीं भी महिमामंडन नहीं करती, न ही उस के अश्लील गानों को उचित ठहराती है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

अप्रैल का तीसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

हर निर्माता, निर्देशक व कलाकार चाहता है कि उन की फिल्म बौक्स औफिस पर पैसों की बारिश करवा दे. इस के लिए सभी को किसी न किसी त्योहार का इंतजार रहता है. इस बार ईद यानी कि अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह का इंतजार बौलीवुड के हर शख्स को बेसब्री से था. हर किसी को लग रहा था कि ईद के अवसर पर प्रदर्शित होने वाली बड़े बजट की फिल्मों ‘मैदान’ और ‘बड़े मियां छोटे मियां’ बौक्स औफिस पर सफलता के सारे रिकौर्ड तोड़ डालेंगी और फिर हर सप्ताह प्रदर्शित होने वाली फिल्में बंपर कमाई करते हुए नजर आएंगी.

फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ के निर्माता वासु भगनानी और जैकी भगनानी तो अपने पीआरओ के कथन को सौ प्रतिशत सच मानते हुए फिल्म के रिलीज से 2 दिन पहले सोशल मीडिया पर वीडियो पोस्ट कर दावा किया था कि उन की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ को पहले सप्ताह 1100 करोड़ रूपए कमाने से रोकने की हिम्मत किसी में नहीं है.

वास्तव में वासु भगनानी अपने पीआरओ की सलाह पर चुनिंदा तकरीबन 40 फिल्म पत्रकारों को ‘बड़े मियां छोटे मियां’ की कवरेज के लिए जौडर्न ले कर गए थे, जिस से पत्रकार फिल्म को 4 से अधिक स्टार देंगे. इन पत्रकारों ने नमक का कर्ज उतारते हुए फिल्म को 4 से साढ़े 4 स्टार दे दिए, मगर जनता मूर्ख तो नहीं है.
हालात इतने बदतर हुए कि पहले दिन ‘बड़े मियां छोटे मियां’ के कई शो रद्द हो गए. साढ़े 300 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म 2 सप्ताह बाद भी 100 करोड़ नहीं कमा सकी. ईद के ही दिन प्रदर्शित अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ की भी बड़ी दुर्गति हुई. इस का असर तीसरे सप्ताह भी नजर आया.

तीसरे सप्ताह यानी कि 19 अप्रैल को एकता कपूर निर्मित और दिबाकर बनर्जी निर्मित सैक्स से भरपूर फिल्म ‘लव सैक्स और धोखा 2’ तथा विद्या बालन और प्रतीक गांधी के अभिनय से सजी निर्देशक शिरशा गुहा ठकुरता की फिल्म ‘दो और दो प्यार’ प्रदर्शित हुई.
19 अप्रैल को पहले दिन सभी मल्टीप्लैक्स ने टिकट दर 99 रूपए रखी थी. कुछ जगह एक टिकट खरीदने पर एक टिकट मुफ्त में देने की स्कीम थी. इस के बावजूद पहले दिन दोनों फिल्मों के आधे से ज्यादा शो कैंसिल हो गए. आगरा के राजीव सिनोर तो 30 रूपए में फिल्म दिखा रहा है पर उसे भी दर्शक नहीं मिल रहे हैं.
दूसरे सप्ताह जबरदस्त नुकसान झेल चुके मशहूर वितरक मनोज देसाई ने अपने 7 स्क्रीन वाले मल्टीप्लैक्स गेईटी ग्लैक्सी में से ग्लैक्सी को 19 अप्रैल से बंद कर दिया पर बाद में उन पर फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोगों का दबाव पड़ा, तो मनोज देसाई ने पत्रकारों को फोन कर के कहा कि उन्होने ‘ग्लैक्सी’ को कुछ दिनों के लिए ही बंद किया है. पर कब खुलेगा, इस की जानकारी नहीं दे पाए. उधर पीवीआर आइनौक्स सोमवार से गुरूवार तक महज 349 रूपए में 4 फिल्में दिखा रहा है.

टिकट के दाम घटाए जाने के बावजूद अप्रैल के तीसरे सप्ताह में प्रदर्शित एकता कपूर निर्मित और दिबाकर बनर्जी निर्देशित सैक्स से भरपूर फिल्म ‘लव सैक्स और धोखा 2’ की बहुत बुरी दुर्गति हुई. 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर महज 60 लाख रूपए ही कमा सकी.
एकता कपूर को इस फिल्म के इस कदर असफल होने की उम्मीद नहीं थी. पर ऐसा हुआ तो उन्होंने विक्कीपीडिया से अपनी फिल्म का पेज भी हटा दिया.
मजेदार बात यह है कि फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी यह मानने को तैयार नहीं है कि उन की फिल्म कमजोर है. वह तो बौलीवुड के दिग्गज फिल्मकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि दिग्गज फिल्मकारों ने दबाव बना कर फिल्म ‘लव सैक्स और धोखा 2’ को ज्यादा स्क्रीन नहीं मिलने दी. अब दिबाकर बनर्जी से यह नहीं बता पा रहे हैं कि उन की फिल्म की निर्माता एकता कपूर कब से छोटी निर्माता हो गईं.

वास्तव में ‘लव सैक्स और धोखा 2’ में न मनोरंजन है, न रोमांच है और कहानियां, वही व्हाट्सऐप पर नजर आने वाली कहानियां ही हैं. इस फिल्म में 3 कहानियां हैं, मगर थिएटर से बाहर निकलने पर दर्शक को एक भी कहानी याद नहीं रहती. तो ऐसी फिल्म को दर्शक मिलने से रहा.
19 अप्रैल को ही विद्या बालन और प्रतीक गांधी के अभिनय से सजी निर्देशक शीर्षा गुहा ठकुरता की फिल्म ‘दो और दो प्यार’ प्रदर्शित हुई. 40 करोड़ की लागत वाली फिल्म ‘दो और दो प्यार’ की कहानी के साथ दर्शक रिलेट नहीं कर पा रहा है.

मनोरंजन का उत्तम साथी कराओके कैसे इतना प्रचलित हो गया, जानें

मुंबई जैसे व्यस्त शहर में रहने वाले राजेश को संगीत बहुत पसंद है. वह अच्छा गाता भी है. लेकिन उन्हें इस पर कुछ करने का समय नहीं मिला, क्योंकि उन्हें अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को संभालने की जिम्मेदारी थी. आज उन्हें जब भी समय मिलता है, अपने पसंदीदा गीत को उठा कर धुन के साथ अकेले घर में ही गा लेता है और सोशल मीडिया पर शेयर करता है. उस के फैन फौलोवर्स लाखों में हैं और उसे बहुत अच्छा लगता है, जब उस के गाने को सुन कर लोग उस की तारीफ करते हैं. उस का अकेलापन भी दूर होता है और उसे गाना गाने की इच्छा भी पूरी हो जाती है. इसे ही कराओके कहते हैं, जिस का क्रेज आजकल यूथ से ले कर वयस्क सभी को है.
असल में कराओके आत्म मनोरंजन का एक रूप है, जो मूल रूप से जापान का है, जिस में संगीत की रिकौर्डिंग होती है, लेकिन लोकप्रिय गीतों के शब्द नहीं, बल्कि धुन होती है, ताकि लोग शब्दों को स्वयं गा सकें और अपने पसंदीदा गायक कलाकारों के संगीत का आनंद उठा सकें.

कराओके का इतिहास

दुनिया की पहली कराओके मशीन का आविष्कार करने वाले उद्यमी शिगेइची नेगीशी है. 100 वर्ष की आयु में उन का निधन हो गया है. नेगीशी, जिन का 1967 का ‘स्पार्को बौक्स’ प्रोटोटाइप था, जिस में कई उपकरणों के धुन शामिल होते थे, उस के साथ वे गाना गाने का आनंद उठाते रहे. वहीँ से जापान के कराओके क्रेज की शुरुआत हुई है.
कराओके आजकल प्रसिद्ध है, लेकिन इस की शुरुआत 1971 के आसपास कोबे, जापान में हुई थी. रेस्तरां और बार में लोग मशीनें किराए पर लेते थे और उस के साथसाथ रात भर माइक्रोफोन में गाते थे.

क्या है तकनीक

कराओके मशीनों में ऐसी तकनीक होती है जो इलैक्ट्रौनिक रूप से संगीत की पिच को बदल देती है, ताकि शौकिया गायक एक ऐसी कुंजी चुन सकें, जो गाने की मूल गति को बनाए रखते हुए उन की गायन सीमा के लिए उपयुक्त हो.

कराओके पूरी तरह से मौजमस्ती करने का संगीत होता है और कोई भी गायक औडियो गुणवत्ता के साथ अच्छा समय बिता सकते हैं. इस में माइक की गुणवत्ता की जांच कर लेनी पड़ती है, ताकि गाना सुंदर लगे और व्यक्ति को गाने में भी संतुष्टि मिले.

कराओके के शौकीन व्यक्ति को अच्छी माइक्रोफोन का उपयोग करना जरूरी होता है. यदि व्यक्ति कराओके लाउन्ज के मालिक हैं और नए माइक खोज रहे हैं, जो जन्मदिन, पार्टियों, शादियों आदि में अच्छा लगे, तो उन्हें निम्न सुझाव पर ध्यान देना जरूरी होता है, जो इस प्रकार हैं,

• पीजीए48
• पीजीए58
• प्रसिद्ध SM58

ये तीनों मौडल गतिशील माइक्रोफोन हैं, जो कराओके जैसे लाइव प्रदर्शन के लिए आदर्श होते हैं, क्योंकि इस से व्यक्ति की आवाज स्पष्ट रूप से गाने के साथ मिक्स हो जाता है.
इस बारे में मुंबई की गायिका और म्यूजिक कम्पोजर सोमा बैनर्जी कहती हैं कि कराओके का प्रचलन सालों पहले से था. कई बड़ीबड़ी संगीत की कंपनियों ने कराओके के ट्रैक, कैसेट और सी डी निकाले थे. ये सिस्टम 20 से 25 सालों से चला आ रहा है, लेकिन पहले लोग इसे अधिक प्रयोग में नहीं ला पाते थे, क्योंकि इसे प्ले करना आसान नहीं था, लेकिन सब की रुचि लता मंगेशकर और आशा भोसले के ट्रैक के साथ गाना गाने की रहती थी. उस दौरान जिन लोगों ने भी गाने गाए, उतना सजीव नहीं लगता था.

आई क्रांति

इस दिशा में क्रांति स्टार मेकर एप के आने के बाद आई, जिस से लोगों का रुझान सिंगिंग की ओर बढ़ा और ये एक हाउस होल्ड नेम हो गया, जिस के द्वारा किसी भी गाने की ट्रैक व्यक्ति की मुट्ठी में आ गया. इस ऐप में बड़ी संख्या में ट्रैक मौजूद होता है, जिस के प्रयोग से आसानी से कोई भी व्यक्ति गाना गा सकता है.
इस की खूबी भी यह होती है कि अगर व्यक्ति सही तरीके से गा भी नहीं सकता, फिर भी उस की आवाज सुनने में अच्छी लगती है. इस से पहले माइक में अलगअलग ट्रैक होता था, जिस के प्रयोग से लोग गाते थे. अभी स्टार मेकर एक अच्छा टूल बन चुका है.
इस के अलावा इस में यह सुविधा भी होती है कि किसी भी गायक को ओरिजिनल ट्रैक उस गीत का मिल जाता है, जिस में सिर्फ शब्दों का प्रयोग कर उसे गाया जा सकता है. ऐसे में किसी गेटटूगेदर में जहां म्यूजिशियन को पैसे दे कर बुलाना महंगा पड़ता है, वहां ट्रैक बजा कर प्रोग्राम कर लिया जाता है, जो अच्छा और मजेदार होता है. देखा जाए तो ये परिवार और कम्यूनिटी को जोड़ने का एक अच्छा औप्शन है.

छोटे इवैंट्स करना हुआ आसान

प्रसिद्ध सिंगर और कम्पोजर कैलाश खेर भी दिल्ली के एक इवैंट में केवल एक औपरेटर को साथ ले कर गए, जो उन के द्वारा गाए गए गानों के ही ट्रैक को मिक्स कर बजा सकें, जिस का सहारा ले कर कैलाश खेर ने प्रोग्राम कर लिया. बिना म्यूजिशियन के केवल ट्रैक पर ही उन्होंने गाने गाए, जिस से कम दाम में प्रोग्राम हो गया. इस में म्यूजिशियन को ले जाने का खर्चा भी नहीं करना पड़ा.
इस प्रकार बिना किसी म्यूजिशियन के भी प्रोफैशनल इवैंट किया जा सकता है. सिंगर शेखर सेन भी इसी तरह के संगीत के धुन को रिकौर्ड कर उस के साथ गाते हैं. उन्होंने भी कभीकभी इस तरह से शो किए हैं, जिस में केवल लैपटौप के जरिए धुन को बजा कर शो कर लिया जा सकता है. ऐसे शो कम पैसे में होता है और सिंगर के गाने को सुनने का लुत्फ उठाया जा सकता है. इस के अलावा कराओके किसी भी पार्टी, मैरिज एनिवर्सरी या उत्सव पर साथ मिल कर परिवार को खुशी देता है, जहां संगीत का माहौल सब के जीवन को खुशनुमा बना देता है.

अकेलेपन का साथी

आज पूरा विश्व अकेलेपन की समस्या से जूझ रहा है. ऐसे में कराओके अकेलेपन का साथी बन चुका है, जो अच्छी बात है, जिन्हें किसी के आगे गाने में शर्म आती हो, वे अकेले में गाने को गा कर रिकौर्डिंग कर सकते हैं, जिस में कोई पास नहीं होता और व्यक्ति खुल कर अपनी आवाज में गा सकता है और उस का करेक्शन भी खुद कर सकता है.
गाने के बाद उसे सोशल मीडिया पर अपलोड कर सकते हैं और किसी अनजान से प्रसंशा पा सकते हैं. ये एक तरीके का नशा हो जाता है. कोविड के समय अकेलेपन से निकलने के लिए बहुतों ने कराओके का सहारा लिया है. इसे कम्यूनिटी सिंगिंग भी कहा जा सकता है.

बढ़ता है कौन्फिडेंस

गायक सोमा कहती हैं, “पहले जो गा सकते थे उन्होंने इस का सहारा लिया और गाना गाए, लेकिन आज बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जिन के पास सुर नहीं है, पर वे गाते हैं क्योंकि उन का कौन्फिडेंस लेवल बहुत अधिक है. इस से कराओके का स्तर कम हो रहा है. मेरा एक कराओके क्लब भी है, जहां लोग आ कर अच्छा गाना गाते हैं. ये उन लोगों के लिए है, जिन्हे गाने का शौक था, लेकिन कुछ कारणों से वे गा नहीं सकें.
“मैँ उन्हें गाने का मौका देती हूं. यहां से कई बार उन्हें आगे गाने का मंच भी मिल जाता है, लेकिन वे बहुत आगे नहीं बढ़ पाते, क्योंकि वे प्रशिक्षित सिंगर नहीं होते. मेरा उन से कहना है कि कराओके का सहारा ले कर गाना अवश्य गाएं पर खुद को थोड़ा प्रशिक्षित भी करें. इस से आगे बढ़ने में मदद मिलती है.”

 

सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ कर डर की राजनीति से किसे फायदा किसे नुकसान

इस बार का चुनाव प्रचार कुछकुछ नहीं बल्कि पूरी तरह से फूहड़, बेतुका, घटिया और एक हद तक मजाकिया भी होता जा रहा है जिसे सुन और देख कर जितेंद्र – श्रीदेवी अभिनीत 1983 की हिट फिल्म हिम्म्तवाला की याद हो आती है. इस फिल्म का एक प्रमुख किरदार रामनगर गांव का जमींदार शेर सिंह बंदूकवाला है जो गांव वालों को बिना फाटक की रेलवे लाइन से डराडरा कर अपना उल्लू सीधा किया करता है.

यह रोल अमजद खान ने इतनी खूबसूरती से निभाया था कि दर्शक तो दर्शक समीक्षक भी उन की जगह किसी और के होने की कल्पना भी नहीं कर पाए थे. शेर सिंह बड़े मनोवैज्ञानिक तरीके से गांव वालों को डराता है कि देखो अंधेरी रात है…तुम्हारी खटिया गांव से बाहर की तरफ चल पड़ी है. तुम उस से उठाना चाहते हो पर उठ नहीं पाते. सामने से धड़धड़ाती ट्रेन चली आ रही है और तुम्हे खटिया से बांध कर बिना फाटक की रेलवे लाइन के बीचोंबीच रख दिया गया है. तुम भागना चाहते हो लेकिन बंधे रहने के कारण भाग नहीं सकते. तुम बचना चाहते हो लेकिन बच नहीं सकते और देखो वो आ गई.

इस काल्पनिक, बिना फाटक की रेलवे लाइन की खौफनाक बेमौत मौत से बचने के लिए जैसा जमींदार कहता था वैसा करता जाता था.
इधर के भाषणों में चुनावी कहानी में बहुसंख्यक हिंदुओं के दिलोदिमाग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह डर बैठा देने में एक हद तक कामयाब होते नजर आ रहे हैं कि कांग्रेस तुम्हारी प्रापर्टी ले कर मुसलमानों और घुसपैठियों में बांट देगी. यहां तक कि औरतों के मंगलसूत्र भी नहीं छोड़ेगी. वो देखो कांग्रेस आ रही है… आ रही है… और तुम्हारा पैसा जमीन जायदाद मुसलमानों में बांट रही है… और तुम कुछ नहीं कर पा रहे हो वो देखो कांग्रेस आ गई… आ गई…

इतना सुनने भर से देश के कुछ लोग डरे हुए हैं ठीक वैसे ही जैसे हिम्मतवाला फिल्म के गांव रामनगर के लोग शेर सिंह को अनाज फल जमीन वगैरह देने तैयार हो जाते थे.
देश में इन दिनों भाषाशैली और माहौल तो यही है. इस डर को सोशल मीडिया पर भाजपा भक्त बिलकुल शेर सिंह के मुताबिक फैला रहे हैं. इन भक्तों की तुलना कादर खान से की जा सकती है जो हिम्मतवाला में अमजद खान के मुनीम के रोल में थे और फिल्म दरअसल में टिकी उन्हीं के कंधों पर थी.

डर की राजनीति

इस खौफ को सोशल मीडिया के मुनीम कैसेकैसे फैला रहे हैं उस की एक बानगी से ही सारा माजरा समझ आ जाता है. एक वायरल पोस्ट में कांग्रेसी बंटवारे को विस्तार से समझाया जा रहा है. कहा गया है कि ‘मान लीजिए एक मुसलमान है अब्दुल. उस के 9 बच्चे हैं और उस के पास 10 लाख रुपए हैं. अब मान लीजिए एक हिंदू मोहन के पास भी 10 लाख रुपए हैं लेकिन उस का एक ही बच्चा है. अब कांग्रेसी हिसाब से 20 लाख रुपए इन दोनों के 10 बच्चों में बंटेगा तो हरेक के हिस्से में 2 लाख रुपए आएंगे. लेकिन इस तरह मोहन के 8 लाख रुपए अब्दुल के बच्चों के हो जाएंगे.’ अब्दुलों के 8 बच्चे होते हैं यह आंकड़ा कहां से लिया गया, यह नहीं बताया गया है. सभी बुजुर्ग भाजपा नेताओं के बच्चे गिन लें तो बात साफ हो जाएगी कि 5 के 25 में किस तरह सफेद झूठ है.

अति भक्ति और अति आस्था के चक्कर में मुनीम लोग यह भूल गए कि देश में हिंदुओं की तरह उन के ही बच्चों की तादाद भी ज्यादा है. यह और बात है कि वे बच्चे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के हैं. इस नई ‘मान लीजिए’ वाली ज्योमेट्री के लिहाज से तो पैसा उन के पास जाना चाहिए. ऐसे में क्या उन्हें हिंदू मानने से इंकार कर दिया जाएगा.
क्या यहां मुनीमजी मैसेज यह दे रहे हैं कि मोहन को अगर अपने 10 लाख रुपए बचाना है तो उसे भी 9 बच्चे पैदा करना चाहिए. इतनी सिम्पल सी बात समझाने के लिए मोदी को क्या कुछ नहीं करना और कहना पड़ रहा, वर्ना तो यही बात साधु संत और खुद कई भाजपा नेता आएदिन कहते रहते हैं कि हिंदुओ धड़ाधड़ बच्चे पैदा करो. लेकिन मोहन समझदार है वह एक ही बच्चा पैदा करता जिस से उसे सलीके से पाल और पढ़ा सके. हां पैसों की बात आती तो वह 10 लाख कमाता ही नहीं 2 लाख ही कमाता फिर कोई कांग्रेस उस का कुछ नहीं बिगाड़ और उखाड़ पाती. अब्दुल भी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार एक या दो ही बच्चे पैदा कर रहा है.

बड़ी बात पते की कि देश के हिंदुओं का पैसा है कहां जिस के लुटने और मुसलमानों में बंटने का डर दिखा कर तीसरी बार सत्ता हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है. अब एक बार फिर मानना पड़ेगा कि सोहन की सालाना आमदनी 20 लाख रुपए है जिस में से वह 6 लाख रुपए सरकार को इनकम टैक्स के देता है. बचे 14 लाख में से और कितना टैक्स वह सरकार को प्रौपर्टी टैक्स, जीएसटी, एक्साइज ड्यूटी में देता है इस का बारीकी से हिसाब लगाने बैठें तो पता चलेगा कि वह कम से कम 5 लाख रुपए और इनडायरैक्ट टैक्सों जैसे जीएसटी वगैरह के जरिए सरकार को देता है जिस से सरकार के पैसे से पलते लोग हवाई जहाजों में उड़ कर कांग्रेस से आम जनता को डरा सकें. बाकी 9 लाख में से सोहन कपड़े किराना कास्मेटिक और स्वास्थ के अलावा बच्चों की शिक्षा जो सुरसा के मुंह की तरह है पर खर्च करता है.

मंदिरों में चढ़ता टैक्स

अगर उस ने होम या व्हीकल लोन लिया है तो उस की किश्तें भी इसी में से चुकाता है. इस के बाद भी जो 50 – 60 हजार रुपए बच जाते हैं उन्हें वह श्रद्धा पूर्वक तिरुपति काशी मथुरा उज्जैन गया हरिद्वार जैसे धर्म स्थलों को चढ़ा आता है.
तमाम सोहन और मोहन पीढ़ियों से यह धर्म टैक्स भर रहे हैं. वे पिंड दान करते हैं, भू दान करते हैं, स्वर्ण दान और गौ दान सहित तमाम वे दान मसलन अन्न दान, वस्त्र दान वगैरह करते हैं जिस के निर्देश धर्म ग्रंथ और ब्राह्मण देते हैं.

मोहन ईमानदारी से टैक्स दे तो सरकार खुश रहती है और ईमानदारी से ही दान करता रहे तो पंडेपुजारी खुश रहते हैं. लेकिन इन दोनों का ही जी और पेट नहीं भरता तो वे उसे और टैक्स और दान के लिए उकसाते रहते हैं. इन दोनों को डर यह रहता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मोहन ने हम से बेईमानी कर कुछ पैसा बचा छिपा लिया हो.
अब यही डर कांग्रेस पर रोपित कर, प्रदर्शित हो रहा है. इधर मोहन बेचारे की हालत नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या जैसी हो गई है. कांग्रेस क्यों उस से छीन कर अब्दुल और उस के बच्चों को देगी. डरना तो अब अब्दुल को चाहिए कि कहीं सरकार उस के 10 लाख छीन कर तो मोहन को देने की जुगत यह इशारा करते नहीं भिड़ा रही कि तेरा क्या है, तेरे बच्चे तो पंचर जोड़ कर पेट भर लेंगे. सब्जी भाजी बेच कर गुजर कर लेंगे लेकिन हमारा मोहन प्यारे का बच्चा क्या करेगा, उसे तो यह सब मेहनत वाले काम काज आते नहीं. 10 न सही उसे 5 लाख ही देदे और चैन से देश में रह वह तेरा भी है.

इधर मोहन कभी यह नहीं सोच पाएगा कि ज्यादा बच्चों वाला ज्यादा सुखी है या वह जो अपनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा ज्यादा मूर्तियों वाले मंदिरों में कुछ इस कदर चढ़ा रहा है कि मंदिर वालों से पैसा संभाले नहीं संभल रहा है.
जिस दिन मोदी राजस्थान से मुसलमानों को पैसे दिए जाने का डर दिखा रहे थे ठीक उसी दिन यह खबर आ रही थी कि तिरुपति बालाजी के मंदिर के पास कुल 18 हजार 8 सौ 17 करोड़ रुपए का बैंक बैलेंस है और मंदिर ट्रस्ट ने इसी साल 1,161 करोड़ की नई एफडी बैंकों में कराई है.

चंदे का धंधा

यह ट्रस्ट पिछले 12 साल से 500 करोड़ की एफडी हर साल करा रहा है. इसी मंदिर से जुड़े एक दूसरे ट्रस्ट की भी 5 हजार 529 करोड़ की एफडी है. मोहन को इस बात से भी कोई सरोकार नहीं कि तिरुपति मंदिर को इन सावधि जमा से ही ब्याज में 1600 करोड़ रुपए की कमाई होती है जिस का 80 फीसदी हिस्सा पंडेपुजारियों को चला जाता है.
मोहन को तो बस टैक्स भरना आता है जिस से लोक सुधरा और साफ सुथरा रहे और दान करना बचपन से ही सिखा दिया गया है जिस से परलोक सुधरा रहे. उक्त नगदी में तिरुपति का सोना भी शामिल कर लिया जाए तो बात सोने पे सुहागा वाली से भी ज्यादा सुहानी हो जाती है. तिरुपति बालाजी मंदिर के पास 900 संपत्तियां भी हैं.
अकेले तिरुपति ही नहीं बल्कि हर ब्रांडेड मंदिर में दान की दौलत बरस रही है. ताजेताजे बने अयोध्या के राम मंदिर में कोई 1200 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं और इस से तिगुने खर्च होने की चर्चा है. इस मंदिर के ट्रस्ट के पास भी 5 हजार करोड़ से ज्यादा का चढ़ावा जमा हो चुका है और यह तो अभी इस की ओपनिंग ही है. यानी भक्त यानी मोहन आते रहेंगे और साल का बचा खुचा 50 – 60 हजार रुपए चढ़ाते रहेंगे.

उज्जैन के महाकाल मंदिर में पिछले साल के 10 महीनों में 130 करोड़ का चढ़ावा आया था. 2024 की शुरुआत के 41 दिनों में कोई सवा करोड़ भक्तों ने इस मंदिर में दर्शन किये थे. अब हरेक ने औसतन ज्यादा नहीं सौ रुपए भी चढ़ाए तो कुल पैसा कितना हुआ आप गुणा भाग कर निकाल सकते हैं. और महाकाल का ही नहीं बल्कि हर मंदिर का निकाल सकते हैं.
तो हिंदुओं का पैसा यहां सुरक्षित है जहां कांग्रेस के पुरखे भी नहीं गए थे. तो यह पीढ़ी क्या जाएगी और चली भी गई तो तिजोरी तक नहीं पहुंच पाएगी जहां पौराणिक किस्सेकहानियों के मुताबिक भयंकर जहरीले नाग फन फैलाए आठों पहर पहरा दे रहे हैं. मोहन तो यह भी नहीं पूछता कि जब हम भक्त ही इतना सारा दे देते हैं तो सरकार क्यों इन मंदिरों के विकास और कारिडोरों पर जनता से वसूला टैक्स का पैसा फूंक रही है और फिर एहसान रखते हम से ही वोट मांगती है कि देखो हम ने आस्था का प्रतीक मंदिर बनवाया. हम राम को लाए हैं अब तुम हमे लाओ.

सचाई से सामना

इस के बाद भी मोदी तीसरी बार सरकार में आने को ले कर डरे हुए हैं तो उन का डर लाजिमी है क्योंकि मोहन उतना मूर्ख है नहीं जितना कि वे उसे समझते हुए बिना फाटक की रेलवे लाइन का डर दिखा रहे हैं. इस से बचने के लिए मोहन से अब्दुल से कुछ सीखना चाहिए जो अपने 10 लाख में से 10 हजार भी मजहब मसजिद पर खर्च नहीं करता. लेकिन मोहन एक लाख तक कर रहा है तो बेवकूफ़ भी वही कहलाएगा और कहलाएगा क्या बल्कि है ही. अब और वेबकूफ बनना है या नहीं यह फैसला करने के लिए उस के पास मौका है. लेकिन इस के लिए उसे पैसों, डर और वोट के इस खेल की खतरनाक सचाई को समझना होगा और अब्दुल से नफरत करना बंद करनी होगी जो सचाई तक पहुंचने की पहली सीढ़ी और शर्त है.

Loksabha Election 2024: ओडिशा और पश्चिम बंगाल,जहां मुकाबला दलों से नहीं, दिग्गजों से होता है

ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कई मानों में ज्यादा फर्क नहीं है और कई मानों में कई बड़े फर्क भी हैं. सियासी लिहाज से उन में से एक यह है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आबादी 26 फीसदी है तो ओडिशा में इस का 10वां हिस्सा महज 2.6 फीसदी ही मुसलमान हैं. इसलिए वहां हिंदुत्व की राजनीति का हल्ला नहीं सुनाई देता और न ही कोई राम, अयोध्या, काशी, मथुरा सहित विवाद-फसाद की बातें करता. दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों में कुछ समानताएं भी विकट की हैं. नवीन पटनायक और ममता बनर्जी दोनों ही अविवाहित हैं और अपने काम से काम रखना ज्यादा पसंद करते हैं. उन की अपनी अलग स्टाइल है जो उन्हें लोकप्रिय बनाती है.

हाल तो यह है कि जैसे पश्चिम बंगाल ममता दीदी के नाम से जाना जाता है वैसे ही ओडिशा कला और साहित्य प्रेमी नवीन बाबू के नाम से जाना जाता है. जाहिर है, दोनों को ही अपनेअपने राज्य की जनता बेशुमार चाहती है. इस चाहत को बनाए रखना ही इन दोनों ने अपनी जिंदगी का मकसद भी बना रखा है. नवीन पटनायक की दिलचस्पी राजनीति में नहीं थी लेकिन अपने पिता बीजू पटनायक की मौत के बाद वे राजनीति में आए तो फिर राजनीति के ही हो कर रह गए. बीजू पटनायक पायलट भी थे और व्यापारी भी. और इस से भी पहले फ्रीडम फाइटर थे. उन का इंडोनेशिया से गहरा नाता रहा. साल 1969 तक बीजू पटनायक कांग्रेस में रहे. फिर उन्होंने अपनी पार्टी उत्कल कांग्रेस बना ली थी जिस का विलय जनता पार्टी के गठन के दौरान जनता दल में हो गया था. ओडिशा में कांग्रेस की तरफ से यह दौर जानकी वल्लभ पटनायक और नंदिनी सत्पथी जैसे कद्दावर नेताओं का था जिसे बीजू ने दरकाया था.

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नवीन पटनायक दून स्कूल में संजय गांधी के सहपाठी थे. राजीव गांधी उन से 3 साल सीनियर थे. दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज से ग्रेजुएट होने के बाद नवीन अपनी मरजी से जिंदगी, जो लेखक की ही कही जाएगी, जीने लगे थे. पैसों की कमी तो उन्हें थी नहीं. जब उन्होंने पिता के नाम से बीजू जनता दल बनाया था तब ओडिशा में पहला चुनाव 2000 में भाजपा के साथ लड़ा था और वे मुख्यमंत्री बने.
2009 में भाजपा ने उन का साथ छोड़ दिया लेकिन तब तक वे ओडिशा में पिता के नाम और अपने काम के चलते खासे लोकप्रिय हो चुके थे. 2009 के चुनाव में भाजपा को ओडिशा में खास कुछ नहीं मिला था लेकिन अब भाजपा वहां अपने दम पर खड़ा होने की कोशिश कर रही है. चुनाव के पहले तक यह माना जा रहा था कि 15 वर्षों बाद अब ये दोनों दल फिर एकसाथ होंगे पर हुए नहीं, जिस की वजहों के कोई माने नहीं सिवा इस के कि भाजपा को खुद को ओडिशा में ओवर एस्टीमेट करते ज्यादा सीटें मांग रही थी.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ओडिशा की 21 लोकसभा सीटों में से 12 बीजद को, 8 भाजपा को और महज एक सीट कांग्रेस को मिली थी. बीजद का वोट शेयर 42.8 फीसदी, भाजपा का 38.4 और कांग्रेस का 12.2 फीसदी था. तब बीजद ने 88 विधानसभा क्षेत्रों पर बढ़त ली थी, भाजपा ने 47 और कांग्रेस ने 7 विधानसभा सीटों पर बढ़त ली थी. सब से दिलचस्प मुकाबला पुरी सीट पर था जहां से भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा को बीजद के दिग्गज पिनाकी मिश्रा ने महज 11,714 वोटों के अंतर से हराया था. इन 2 दिग्गजों की तगड़ी टक्कर में कांग्रेस के सत्यप्रकाश नायक को केवल 44,734 वोट मिले थे. एक और कांटे का मुकाबला कोरापुट सुरक्षित सीट पर देखने मिला था जहां कांग्रेस के सप्तगिरी शंकर उलाका ने बीजद की कौशल्या हिकाका को महज 3,613 वोटों से शिकस्त दी थी. बीजद छोड़ कर भाजपा में आए जयराम पागी तीसरे नंबर पर भी रहते हुए 2 लाख 8 हजार वोट ले जा पाने में कामयाब रहे थे.

लोकसभा के साथ ही हुए विधानसभा चुनाव नतीजों में वोटर ने अपना फैसला यह कहते सुना दिया था कि यहां नवीन पटनायक के सिवा और कोई नहीं. विधानसभा की 147 सीटों में से बीजद को 112 सीटें 44.71 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. भाजपा को 23 सीटें 32.49 फीसदी वोटों के साथ और कांग्रेस को 9 सीटें 16.12 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.
पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले उसे 7 सीटों का नुकसान हुआ था जबकि भाजपा को 13 सीटों का फायदा मिला था. नुकसान हालांकि बीजद को भी 5 सीटों का हुआ था लेकिन इस से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था. हां, 2024 के लिए सबक जरूर मिला था कि अब अगर भाजपा ओडिशा में और पैर पसारेगी तो खतरा बन भी सकती है. हालांकि उसे इस बात की तसल्ली भी थी कि एक ही वक्त में हुई वोटिंग में भाजपा को लोकसभा के मुकाबले विधानसभा में 6 फीसदी के लगभग वोट कम मिले. मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने दोनों सीटें जीतते अपनी अपराजेय छवि कायम रखी थी.

2014 के लोकसभा चुनाव ने संदेश दे दिया था कि अब ओडिशा में कांग्रेस की जगह भाजपा लेती जा रही है जिसे सीट तो हालांकि एक ही, सुंदरगढ़, 18 हजार वोटों के मामूली अंतर से मिली थी लेकिन उस का वोट शेयर 21.50 फीसदी जा पहुंचा था. कांग्रेस, भाजपा से 5 फीसदी ज्यादा वोट ले गई थी लेकिन पहली बार लोकसभा में खाता नहीं खोल पाई थी.
2014 में मोदी लहर नहीं थी. यह बीजद ने 21 में से 20 सीटें जीतते साबित कर दिया था. तब उस का वोट शेयर 44.10 फीसदी था. असल में नवीन पटनायक की मजबूती की एक बड़ी वजह उन की ही संपन्न कायस्थ जाति के 5 फीसदी लोगों का समर्थन है. ओबीसी का बड़ा वर्ग भी बीजद को वोट करता रहा है.

पुराने पड़ने लगे नवीन

मौजूदा चुनाव में पहले की तरह सबकुछ नवीन पटनायक और बीजद के हक में नहीं है लेकिन बहुतकुछ अभी भी उन के काबू में है. हलकी सी एंटीइनकम्बेंसी ओडिशा में नजर आने लगी है. 24 साल से राज कर रही बीजद से लोग नाखुश हो चले हैं लेकिन उन के पास कोई ठोस विकल्प नहीं है, न ही नवीन बाबू का और न ही बीजद का. सो, मुमकिन है कि इस चुनाव में भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक को पहले के मुकाबले ज्यादा समर्थन और सीटें मिलें. दूसरे, 78 के हो रहे नवीन पटनायक अब थकने भी लगे हैं जो स्वाभाविक बात है. अपना कोई राजनीतिक उत्तराधिकारी उन्होंने घोषित नहीं किया है जिस से ओडिशा की जनता चिंतित है कि भविष्य में क्या होगा.

लोकसभा चुनाव नतीजों में पिछले नतीजे के मुकाबले कोई बड़ा उलटफेर होगा, ऐसा लग नहीं रहा लेकिन विधानसभा में फर्क दिख सकता है. पूरे देश में जब छोटेबड़े नेताओं में भाजपा में जाने की होड़ मची हो तब ओडिशा में भाजपा और कांग्रेस छोड़ बीजद जौइन करने वाले नेताओं की तादाद बढ़ी है. हालांकि बीजद छोड़ भाजपा में भी कई नेता गए हैं लेकिन इन में भी उन की तादाद ज्यादा है जिन्हें नवीन भाव और टिकट नहीं दे रहे थे. प्रसंगवश यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि सीधेसादे समझे जाने वाले नवीन पटनायक ने अपने सियासी 27 सालों में कई ऐसे नेताओं का कैरियर बड़ी चालाकी से खत्म किया है जो उन के लिए खतरा बन सकते थे या बन रहे थे.

अभी भी उन की बड़ी बेफिक्री यह है कि भाजपा और कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसे सीएम प्रोजैक्ट कर वोट हासिल किए जा सकें. बीजद में इस बात को ले कर असंतोष दिखने लगा है कि खासतौर से भाजपा से आए नेताओं को ज्यादा टिकट दिए जा रहे हैं. इसी से नाराज हो कर आस लगाए बैठे कई बीजद नेता भाजपा में चले गए जिन्हें भाजपा हाथोंहाथ ले भी रही है.
ऐसा पहले कभी बीजद में हुआ नहीं था, इसलिए उस की इमेज पर फर्क तो पड़ रहा है लेकिन नतीजों पर कितना पड़ा, यह 4 जून को पता चलेगा. इस में कोई शक नहीं कि ओडिशा के लोग नवीन पटनायक को उतना ही और उसी तरह चाहते हैं जितना कि पश्चिम बंगाल के लोग ममता बनर्जी को चाहते हैं लेकिन वहां उठापटक और विवाद, फसाद ज्यादा हैं.

पश्चिम बंगाल – चुनौतियां कम नहीं

पश्चिम बंगाल में सिवा हिंदूमुसलिम के कुछ नहीं है तो सीधेतौर पर इस का जिम्मेदार भगवा गैंग है जिस ने इस राज्य का माहौल बिगाड़ कर रख दिया है. भाजपा ने इस राज्य में पांव इसी मुद्दे पर पसारे हैं जिस के चलते कोई 15 फीसदी बंगाली ब्राह्मणों, मारवाड़ियों, बनियों और बंगाली कायस्थों को भी यह गुमान हो चला है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी और मुसलमान तो उन से नीचे हैं जिन के पूर्वज जब हमारी देहरी के सामने से भी निकलते थे तो अपनी जूतियां भी पांवों से उतार कर सिर पर रख लिया करते थे. बंगला साहित्य, सिनेमा और इतिहास जातिवाद और सामंतवाद से भरा पड़ा है.
इन लोगों यानी सवर्णों और पूंजीपतियों के खिलाफ आवाजें तो आजादी के पहले से ही सुनाई देने लगी थीं लेकिन लोकतंत्र की स्थापना के बाद यह जिम्मेदारी समाज और राजनीति में कम्युनिस्टों ने और जंगलों में नक्सलियों ने उठा ली. इन का वाजिब असर भी हुआ और सामंतवाद का अंत हुआ. चूंकि कोई भी अंत सौ फीसदी नहीं होता, इसलिए यहां तक बात दिक्कत की नहीं थी. क्योंकि ज्योतिबसु के दौर तक पश्चिम बंगाल में डगमगाते ही सही सामाजिक और आर्थिक संतुलन स्थापित होने लगा था जिसे बाद में बुद्धदेव भट्टाचार्य की महत्त्वाकांक्षाओं और पूंजीपतियों से सत्ता की बढ़ती नजदीकियों ने गिराया तो बिलकुल फिल्मी स्टाइल में नई रोशनी की शक्ल में ममता बनर्जी का उदय हुआ, जो वक्त रहते समझ गई थीं कि बहकते माओवादियों और पैर पसारते भगवावादियों से निबटने में कांग्रेस नाकाम हो रही है या इन खतरों की तरफ से जानबूझ कर आंखें बंद किए हुए हैं.

ममता की तृणमूल कांग्रेस एक युवती की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की देन या उपज नहीं, बल्कि बंगाल की जनता की जरूरत और मांग थी जिस में कट्टरवाद को कोई जगह नहीं थी. यही वह वक्त था जब आरएसएस ने पश्चिम बंगाल में हिंदुत्व की पगडंडी बना दी थी जिसे पक्के रास्ते में तबदील करने में तो भाजपा सफल रही लेकिन उस का हाईवे नहीं बना पा रही. जिस की बड़ी वजह ममता बनर्जी हैं जिन्होंने इंडिया गठबंधन से सहमत होते हुए भी उस का हिस्सा बनना गवारा नहीं किया क्योंकि वे जानतीसमझती हैं कि भाजपा के निशाने पर कहने को भले ही मुसलमान हों लेकिन उस की नजर दरअसल दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों पर है. वह मनुवाद थोपना चाहती है और किसी भी कीमत पर हिंदूमुसलमानों के बीच की खाई इतनी गहरी कर देना चाहती है जो किसी के पाटे से न पटे.
इस खाई को आंकड़े के आईने में देखें तो लगता है कि यह चुनाव निर्णायक होगा. बंगाल को ममता या भगवा में से किसी एक को ही चुनना पड़ेगा. उस ने क्या चुना, यह तो 4 जून को ही पता चलेगा लेकिन 2019 में भाजपा को बड़ा स्पेस वोटर ने दिया था. उसे 42 में से 18 सीटें 40.7 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. यह भाजपा के उत्साहित होने की वजह है जिसे वह इस चुनाव में भी कायम रखना चाहेगी. तब टीएमसी को 22 सीटें 43.3 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस गिरतेपड़ते 2 सीटें 9.7 फीसदी वोटों के साथ ले जा पाई थी. वामपंथियों का इस चुनाव में सूपड़ा साफ हो गया था. इस के बाद हुए 2021 विधानसभा चुनाव में ‘अबकी बार 200 पार’ के नारे के साथ सत्ता का सपना देख रही भाजपा दुर्गति का शिकार हुई थी जिसे 294 में से 77 सीटें 38.15 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. टीएमसी 48.02 फीसदी वोटों के साथ 215 सीटें ले गई थी. कांग्रेस और वामदलों के साथ जनता अधिकतम बेरहमी से पेश आई थी जिन का खाता भी नहीं खुला था. अब क्या होगा, इस में सभी की दिलचस्पी है. भाजपा पहले चरण की वोटिंग के बाद बौखलाहट में है. नरेंद्र मोदी ने राजस्थान उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से खुल कर हिंदूमुसलिम शुरू कर दिया है. और पश्चिम बंगाल में वे क्या आग उगलेंगे, यह भी जल्द सामने आ जाना है.

Loksabha Election 2024: लोकसभा में चुनाव लड़ रहीं विद्यारानी वीरप्पन और माधवी लता चर्चाओं में क्यों

एक पुलिस अधिकारी का सिर काट कर उस से फुटबौल खेलने जैसे कई जघन्य और नृशंस अपराधों को अंजाम देने वाले अपने दौर के कुख्यात चंदन तस्कर कूज मुनिस्वामी वीरप्पा गौडन उर्फ़ वीरप्पन की बेटी विद्यारानी वीरप्पन भले ही अपने पिता की जिंदगी पर गर्व करती रहे लेकिन यह एहसास उसे है कि अलग और सकारात्मक पहचान बनाने के लिए कुछ ऐसा करना पड़ेगा जिसे लोग ऐप्रिशिएट करें. यह उतना आसान है नहीं जितना कि वह समझ रही है. इस के बाद भी उस की कोशिशें तो जारी हैं. तमिलनाडु की कृष्णगिरी लोकसभा सीट से (नाम तमिलर काची) टीएमके से चुनाव लड़ रही 32 वर्षीय विद्या की राह बहुत कठिन है क्योंकि यह सीट कांग्रेस का गढ़ रही है. डीएमके और एडीएमके के उम्मीदवार भी इस सीट से जीत कर 2,277 किलोमीटर दूर दिल्ली पहुंचते रहे हैं लेकिन इस बार तमिलनाडु की हवा फिर से डीएमके-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में है.

वीरप्पन एक मिथक बन चुका है जिस के किस्सेकहानी बहुत आम हैं. हालिया प्रदर्शित ब्लौक बस्टर्ड फिल्म ‘पुष्पा’ उस की बायोपिक करार दी जाती है. हालांकि साल 2016 में बनी कन्नड़ फिल्म ‘किलिंग वीरप्पन’ उस की जिंदगी पर बनी वास्तविक फिल्म थी जिसे रामगोपाल वर्मा ने निर्देशित किया था. औपरेशन कोकून पर आधारित इस फिल्म को दक्षिण भारत में अच्छा रिस्पौंस मिला था. मिशन कोकून वीरप्पन को पकड़ने और मार डालने की कानूनी घटनाओं का दस्तावेज कहा जाता है. हालांकि ‘किलिंग वीरप्पन’ की इस बाबत आलोचना भी हुई थी कि यह एक दुर्दांत और खौफ के पर्याय रहे डाकू का महिमामंडन है. तो फिर ‘पुष्पा’ में क्या था, इस पर आलोचकों और समीक्षकों के मुंह पर ताला लग गया था. वीरप्पन से ताल्लुक रखती एक दिलचस्प बात यह भी है कि 2013 में प्रदर्शित एक कन्नड़ फिल्म ‘अट्टहासा’ में उस के किरदार को गलत तरीके से दिखाने पर पत्नी मुत्तुलक्ष्मी ने निर्माता एएमआर रमेश पर मुकदमा ठोक दिया था और जीती भी थीं. उन्हें तब 25 लाख रुपए बतौर मुआवजे के मिले थे.

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डाकू वीरप्पन की बेटी विद्यारानी

साल 2004 में वीरप्पन को जब एक मुठभेड़ में मार गिराया गया था तब विद्या की उम्र महज 14 साल थी. उसे तो लंबे वक्त तक यह भी नहीं मालूम था कि वीरप्पन उस के पिता हैं. जंगलों में रहने वाले अपने पिता से वह एक ही बार मिली थी जब उस की उम्र कोई 8 साल थी. उस रात वीरप्पन ने विद्या से ढेर सी बातें की थीं. इस मुलाकात ने विद्या के सोचने के ढंग को एक नई दिशा दी और उस ने समाज सेवा का संकल्प ले लिया. उस ने बेंगलुरु से एलएलबी किया और फिर बच्चों का स्कूल चलाने लगी.

लोग वीरप्पन और उसे भूलने लगे थे कि साल 2020 में वह उस वक्त फिर सुर्ख़ियों में आई जब उस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रभावित हो कर भाजपा जौइन कर ली थी. भाजपा ने भी उसे हाथोंहाथ लिया जिस का मकसद तमिलनाडु में पार्टी को मजबूत करना था और इस के लिए वीरप्पन जैसी हस्ती की बेटी तो एक खूबसूरत बहाना थी. अब तक विद्या अपने गांव में समाजसेवा के छोटेमोटे काम भी करने लगी थी. राजनीति में आ कर ही इमेज चमकाने का टोटका उस की मां मुत्तूलक्ष्मी ने भी साल 2006 में विधानसभा चुनाव लड़ते आजमाया था लेकिन मतदाताओं ने उसे खारिज कर दिया था तब उन्होंने पेन्नाग्राम विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. मुत्तुलक्ष्मी कई अपराधों में वीरप्पन के साथ सह अभियुक्त थीं और कुछ मामलों में उन्हें सजा भी हुई थी. सुधरने की कोशिश मुत्तुलक्ष्मी ने भी की थी, इसलिए उस ने 2018 मन काक्कुम वीरथमिजहर पेरामाइप्पु नाम का संगठन भी बनाया था जिस का हिंदी में मतलब होता है- मृदा की रक्षा के लिए बहादुर तमिलों का संघ.

विद्या की भाजपा जौइनिंग को भाजपा ने आदत के मुताबिक बड़ा इवैंट बनाने की कोशिश की थी जिस में उस के दिग्गज नेता पान राधाकृष्णन खासतौर से मौजूद थे. इस मौके पर विद्या ने अपने मन की बात कह ही दी थी कि मेरे पिता का रास्ता जरूर गलत था लेकिन उन का मकसद गलत नहीं था. वे हमेशा गरीबों के बारे में सोचते थे. वीरप्पन की रौबिन हुड वाली यह छवि जब विधानसभा चुनाव में नहीं चली थी तो लोकसभा में रेंग भी पाएगी, इस में शक है. भाजपा से जल्द ही विद्या का मोहभंग हो गया और वह एनटीके में चली गई. लेकिन इस पार्टी का भी कोई खास जनाधार तमिलनाडु में है नहीं.

कृष्णगिरी सीट से उम्मीदवार

कृष्णगिरी सीट से ही पिछले चुनाव में उस के उम्मीदवार एन मधुसुदन को महज 28 हजार वोट मिले थे. तब कांग्रेस के डा ए चेल्लाकुमार ने एआईडीएमके के पी मुनिस्वामी को ढाई लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था. इस बार एआईडीएमके ने वी जयप्रकाश को टिकट दिया है जबकि कांग्रेस ने के गोपीनाथ को मैदान में उतारा है. भाजपा के सी नरसिम्हन भी चुनावी मैदान में हैं लेकिन किस को कितने वोट मिले, यह 4 जून को नतीजों के दिन पता चलेगा.
बिलाशक विद्या खासी पढ़ीलिखी और सुंदर है, आकर्षक भी है और ग्रामीण बच्चों को भी पढ़ा रही है. समाजसेवा के काम भी वह करती है और अपने लोकसभा क्षेत्र में लोकप्रिय भी है लेकिन वीरप्पन की बेटी होने का कलंक क्या किसी भी समाज में धुल पाना गंगा जी में डुबकी लगाने जैसा काम नहीं है. इस के बाद भी इस आत्मविश्वासी और झुझारू युवती का जज्बा नेक है जिसे कृष्णगिरी के वोटर ने कितना स्वीकार किया, इस के लिए 4 जून का इंतजार तो वह भी कर रही है.

तेलंगाना की हैदराबाद सीट से माधवी लता

2019 में चौथे नंबर पर रह कर अपनी जमानत जब्त करा लेने वाली माधवी लता मौजूदा लोकसभा चुनाव हैदराबाद सीट से भाजपा से ही लड़ रही हैं. सामने हैं आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी, जो 2004 से इस सीट से जीत रहे हैं. इस के पहले उन के अब्बा हुजुर सुलतान सलाउद्दीन ओवैसी 1984 से लगातार चुने जीतते रहे थे. साल 2019 के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी को 5,17,100 वोट मिले थे जबकि भाजपा के भगवंत राव 2,35,285 वोटों पर सिमट कर रह गए थे. टीआरएस के पुस्ते श्रीकंठ को 63,239 और कांग्रेस के फिरोज खान को 49,944 वोट मिले थे.इस के पहले 2014 के चुनाव में में भी भगवंत राव को ही भाजपा ने टिकट दिया था तब भी वे 2 लाख से ज्यादा वोटों से हारे थे. 2009 में ओवैसी के निकटतम प्रतिद्वंदी टीडीपी के जाहिद अली खान थे जो एक लाख 20 हजार के लगभग वोटों से हारे थे. तब भाजपा के सतीश अग्रवाल 75 हजार वोट ले जा कर चौथे नंबर पर रहे थे. सार यह कि यह सीट ओवैसी का गढ़ है जिसे तोड़ने के लिए भाजपा ने इस बार माधवी लता को उम्मीदवार बनाया है.
माधवी लता एक तरह से उमा भारती और प्रज्ञा सिंह ठाकुर की फोटोकौपी ही हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि वे समाजशास्त्र से एमए हैं और घोषिततौर पर साध्वी नहीं हैं. वे गेरुए कपड़े नहीं पहनतीं, नहीं तो मन तो उन का भी सौ फीसदी से भी ज्यादा भगवा ही है.

एक न्यूज चैनल ने पिछले दिनों उन का लगभग प्रायोजित इंटरव्यू दिखाया तो सनसनी सी मच गई. हिंदुत्व की इस नई अवतार फायरब्रैंड नेत्री के बारे में जो बातें छन कर बाहर आईं उन से लोगों को पता चला कि वे दरअसल कुछ और होने से पहले एक पेशेवर फिल्म ऐक्ट्रैस और मौडल हैं. 36 वर्षीया माधवी एक अच्छी डांसर भी हैं. वे इस के अलावा भी बहुतकुछ हैं, मसलन लोपामुद्रा चैरिटेबल ट्रस्ट और लतामा फौउंडेशन की मुखिया हैं. उन के व्यक्तित्व का निचोड़ एक समाजसेवी के तौर पर भी सामने आता है जो शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र में सक्रिय है. लेकिन सब से बड़ी खूबी उन की उग्र झन्नाटेदार भाषणशैली है.

फायर ब्रांड नेत्री माधवी लता

एक मध्यवर्गीय तेलुगू परिवार में जन्मी माधवी को लोगों ने उन्हें अपनी पहली ही प्रदर्शित फिल्म ‘नचावुले’ से ही हाथोंहाथ लिया था. इस के बाद 2015 तक उन्होंने आधा दर्जन और फिल्मों में काम किया और 2018 में भाजपा में शामिल हो गईं. 2019 में उन्होंने पहला चुनाव लड़ा लेकिन हश्र अच्छा नहीं हुआ, जिस के बरकरार रहने की आशंका बनी हुई है क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी की हैदराबाद में धाक और रसूख दोनों किसी सबूत के मुहताज नहीं.

इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी चंद्रायन गुट्टा विधानसभा सीट से लगातार 6 बार से विधायक चुने जाते रहे हैं. अकबरुद्दीन ओवैसी हिंदू देवीदेवताओं को अपमानित करने और हिंदुओं व हिंदुत्व के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के लिए कुख्यात हैं और यही उन की कामयाबी की बड़ी वजह भी है जबकि असदुद्दीन ओवैसी थोड़ा सब्र और अक्ल से काम लेते हैं.
सीधेसीधे कहा जाए तो हैदराबाद में मुकाबला 2 महा कट्टरपंथियों के बीच है जिस में ओवैसी इसलिए भी भारी पड़ रहे हैं कि यहां का हिंदू खासतौर से दलित वोटर भी उन्हें वोट करता है. यह सोचना बेमानी है कि हैदराबाद में मुसलिम वोटर हिंदू वोटरों से ज्यादा हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हैदराबाद में 64 फीसदी के लगभग हिंदू और 31 फीसदी के लगभग मुसलिम हैं लेकिन गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब दोनों धर्मों की आबादी फिफ्टीफिफ्टी है.

हैदराबाद में दलितों की आबादी को ले कर कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन अंदाजा है कि वे कुल आबादी का 20 फीसदी हो सकते हैं. तेलंगाना के दलित-मुसलमान राज्य में भले ही किसी भी पार्टी को वोट करें लेकिन हैदराबाद में वे ओवैसी खानदान के नाम पर किस तरह एकजुट हो जाते हैं, यह पिछले तमाम नतीजों से साफ होता है.
विधानसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने दलितों को भाजपा की तरफ खींचने के लिए दलितों को उपसमूहों में बांटने का लालच दिया था लेकिन दलितों ने इसे फूट डालने वाला कदम समझते भाजपा के कमल निशान की तरफ देखा तक नहीं था.

हालांकि जीत मुश्किल

इस लिहाज से माधवी लता के खाते में महज 12 फीसदी के लगभग सवर्ण वोट ही जाते दिख रहे हैं. कुछ वे इधरउधर से कबाड़ जुगाड़ सकती हैं लेकिन उन की संख्या ओवैसी को शिकस्त देने लायक होगी, ऐसा लग नहीं रहा. वैसे भी, इस सीट पर तो क्या, पूरे राज्य में हिंदुत्व का कार्ड कारगर साबित नहीं हुआ. इस के बाद भी माधवी इसी हिंदुत्व और धर्म के सहारे लड़ाई लड़ रही हैं.

रामनवमी के दिन उन का एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में वे काल्पनिक तौर पर मसजिद पर तीर चलाती नजर आ रही हैं. इस की शिकायत चुनाव आयोग को हुई थी कि यह मुसलिमों की भावनाओं को आहत करने जैसा कृत्य है. पुलिस में भी इस की शिकायत आईपीसी की धारा 295 ए के तहत हुई थी.

जैसेजैसे भाजपा और नरेंद्र मोदी बौखलाते जा रहे हैं वैसेवैसे हैदराबाद में भी वोटों का ध्रवीकरण और पुख्ता होता जा रहा है. माधवी का ताजा बयान यह है कि ओवैसी जैसे नेताओं का मुंह बंद कर देना चाहिए. यह बयान भी हैदराबाद के सवर्णों तक ही सिमट कर रह गया क्योंकि वहां न तो इस बात का कोई असर हो रहा कि जायदाद का बंटवारा कांग्रेस इस तरह और उस तरह कर देगी और न राम मंदिर व अयोध्या की बात कोई कर रहा. नरेंद्र मोदी ने जरूर माधवी लता की तारीफ करते उन्हें असाधारण बताया था पर यह भी हिंदीभाषी राज्यों तक ही चर्चित हो कर रह गया था.
उधर ओवैसी इस खतरे से अनजान नहीं हैं, इसलिए फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं. कांग्रेस ने उन की राह मुश्किल बनाने की गरज से मोहम्मद वलीउल्लाह को उम्मीदवार बनाया है जिस का मकसद मुसलिम वोटों का विभाजन है. लेकिन पिछले चुनाव में भी वह अपनी इस मंशा में कामयाब नहीं हो पाई थी. वोटिंग के दिन 13 मई तक हैदराबाद की फिजा और बिगड़ेगी, इस आशंका से कोई इनकार नहीं कर रहा क्योंकि भाजपा और नरेंद्र मोदी अब बिना किसी लिहाज के हिंदूमुसलिम कर रहे हैं. मोतियों के लिए मशहूर इस शहर का अमन अब आम लोगों के ही हाथ में है कि वे इन नेताओं के बहकावे में न आएं जो वोट के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं और गिर भी रहे हैं.

 

 

Loksabha Election 2024: कांग्रेस की माला जपने वाले कांग्रेसमुक्त कैसे होंगे?

‘अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो वह लोगों की संपत्ति घुसपैठियों और उन लोगों को बांट देगी, जिन के ज्यादा बच्चे हैं, महिलाओं से मंगलसूत्र भी छीन लेगी.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 अप्रैल को राजस्थान की चुनावी रैली में यह कहा. ‘कांग्रेस विरासत पर भी टैक्स लगाएगी.’ – 24 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महासमुंद की चुनावी रैली में यह बात कही.

‘कांग्रेस और उस के सहयोगी दल दलितों व पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण को कम कर उन का हक मुसलामानों को देना चाहते हैं.’ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ ने 24 अप्रैल को लखनऊ में एक प्रैसकौन्फ्रैंस में कहा. ‘कांग्रेस को देश की कीमत पर येनकेनप्रकारेण सत्ता चाहिए.’ – योगी आदित्यनाथ

  • ‘कांग्रेस और वामदल चुनावों में पीएफआई का समर्थन ले रहे हैं.’ – 24 अप्रैल को केरल की चुनावी रैली में गृहमंत्री अमित शाह बोले.
  • ‘पिछले दरवाजे से धर्म आधारित आरक्षण लागू करने के प्रयास का संकेत है कांग्रेस का घोषणा पत्र’ – 24 अप्रैल को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह विशाखापट्टनम में एक चुनावी रैली में बोले.
  • ‘कांग्रेस घुसपैठियों को देना चाहती है आप की संपत्ति.’ – 24 अप्रैल को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का बयान.
  • ‘कांग्रेस राज में हनुमान चालीसा सुनना भी गुनाह.’ – 23 अप्रैल को राजस्थान के टोंक जिले में चुनावी रैली में बोले मोदी.
  • ‘भ्रष्टाचार छिपाने के लिए हिंसा को बढ़ावा देती है कांग्रेस.’ – 23 अप्रैल को ही छत्तीसगढ़ के धमतरी में बोले मोदी.
  • ‘कांग्रेस देश को तोड़ने की चाल चल रही है.’ – 23 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के सकती जिले में हुई चुनावी रैली में बोले मोदी.
  • ‘देश में शरिया कानून लाना चाहती है कांग्रेस.’ – 23 अप्रैल को अमरोहा की चुनावी रैली में योगी आदित्यनाथ ने कहा.
  • ‘माओवादी सोच थोप कर जनता की कमाई पर पंजा मारना चाहती है कांग्रेस.’ – 22 अप्रैल को अलीगढ़ में बोले मोदी.
  • ‘कांग्रेस ने अनुसूचित जाति से छल किया.’ – अनुराग ठाकुर देहरा में बोले.

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बीते एक हफ्ते के अखबार उठा कर देखें तो प्रधानमंत्री मोदी सहित लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के तमाम स्टार प्रचारकों- योगी आदित्यनाथ, अमित शाह, राजनाथ सिंह, अनुराग ठाकुर ही नहीं अनेक भाजपाई सांसद और विधायक भी कांग्रेस के नाम की माला जपते नजर आ रहे हैं. कांग्रेस यह कर देगी, कांग्रेस वह कर देगी. कांग्रेस के अलावा भाजपा नेताओं को कुछ और सूझ ही नहीं रहा है.

कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वालों की आंखों को दिनरात सिर्फ कांग्रेस ही कांग्रेस दिखाई दे रही है. और कोई मुद्दा ही उन की जबान पर नहीं है. गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यापार जैसे मुद्दे तो भाजपा से वैसे ही दूर थे, चुनावी रैलियों में अपनी 10 साल की उपलब्धियां ही गिना देते तो समझ में आता मगर यहां तो भाजपा पर कांग्रेस का भय इतना तारी हो गया है कि मुंह खोलते ही जबान से, बस, कांग्रेसकांग्रेस ही निकल रहा है. क्या सोशल मीडिया और क्या चुनावी मंच, भाजपा के नेता अपनी उपलब्धियां भूल कर कांग्रेस के प्रचार में ही लगे हैं. मोदी की गारंटियां नेपथ्य में जाती नजर आ रही हैं.

तो क्या भाजपा, कांग्रेस के ऐतिहासिक घोषणापत्र से डर गई है? कांग्रेस का घोषणापत्र तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष पी चिदंबरम कहते हैं, “भाजपा, कांग्रेस के घोषणापत्र से परेशान है. कांग्रेस के घोषणापत्र का लोगों की सोच पर असर पड़ा है खासकर मध्यवर्ग और गरीबों पर इस का प्रभाव पड़ा है. कांग्रेस का घोषणापत्र दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्ग, युवाओं और महिलाओं के बीच नई उम्मीद जगा रहा है. संपत्ति के बंटवारे और विरासत टैक्स पर बनाए गए ताजा विवाद से पता चलता है कि भाजपा डर में है.

“घोषणापत्र में कथित संपत्ति के बंटवारे और विरासत टैक्स की कोई बात ही नहीं है. मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि कांग्रेस की सरकार ने 1985 में ही एस्टेट ड्यूटी के प्रावधान को खत्म कर दिया था. वहीं संपत्ति पर टैक्स के प्रावधान को साल 2015 में भाजपा सरकार ने खत्म कर दिया था. कांग्रेस का घोषणापत्र 3 जादुई शब्दों- काम, संपत्ति और जनकल्याण पर आधारित है. और इस से ही भाजपा में हार का डर पैदा हो गया है. अब मोदी की गारंटी की कोई बात ही नहीं कर रहा है. कांग्रेस के घोषणापत्र की चर्चा हो रही है, लोग इस के बारे में बात कर रहे हैं. दुर्भाग्य से भाजपा की मोदी की गारंटी का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है. भाजपा गलत बयानबाजी, झूठ और गालियां देने पर उतर आई है. उस को अपने चारों तरफ, बस, कांग्रेस ही नजर आ रही है.”

लोकसभा चुनाव 2024 के लिए जारी किए गए कांग्रेस के घोषणा पत्र पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार हमलावर हैं. वे अपनी हर चुनावी सभा में अपने मैनिफैस्टो की बात करने की जगह कांग्रेस के मैनिफैस्टो पर निशाना साध रहे हैं. तो क्या तमाम होहल्ले के बाद भी अपनी जीत को ले कर भाजपा आश्वस्त नहीं है? अयोध्या में राम मंदिर के इर्दगिर्द बुना गया असीम उन्माद और भव्य प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम के बावजूद क्या भाजपा का विश्वास अपने वोटरों से डगमगा रहा है?

राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा को ले कर मीडिया की मुख्यधारा का रुख भले ही ठंडा हो, मगर राहुल गांधी की बातें लोगों के दिलों को छू कर निकली हैं. उन के वीडियो व्हाट्सऐप ग्रुप्स में शेयर किए गए और इस पर लोग एकदूसरे से बातें करते भी नजर आए. सोशल मीडिया पर और लोगों से मुलकात के दौरान राहुल लोगों को अपने माइक्रोफोन से अपने अनुभव शेयर करने का अवसर देते दिखे. ये बातें लोगों को भा गईं क्योंकि ये उन की व उन के आसपास की बातें हैं. कांग्रेस की न्याय यात्रा और न्याय पत्र ने जमीनी मुद्दे उभारे हैं, जो अब भाजपा के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनते दिख रहे हैं.

भाजपा के कुछ जमीनी नेता मानते हैं कि इस बार मोदी के लिए मैदान जीतना उतना आसान नहीं जितना यह 2019 या 2014 में था. उस पर कांग्रेस के न्याय पत्र ने मामला और गंभीर बना दिया है. ऐसे में अगर मोदी और उन के करीबी नेता अगर चुनावी रैलियों में बस कांग्रेस की बात कर रहे हैं तो यह उन की मानसिक परेशानी और तनाव को ही प्रदर्शित कर रहा है.

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आस्ट्रेलियाई पत्रकार अवनी डायस का वीजा कैंसल, क्या छुपाना चाहती सरकार

यह तथ्य और सत्य लगातार अपना स्थान बनाता चला जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के 10 वर्षों में जो था वह तो था ही, आज उन की कार्यवाहक सरकार के दौरान भी लोकतंत्र के सब से महत्त्वपूर्ण आयाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी पहरों की खबरें सुर्खियों में बनी हुई हैं.

शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे देश ने पहली बार भारत के संसदीय चुनाव‌ या कहें ‘लोक महोत्सव’ में पर्यवेक्षक भेजने में रुचि नहीं दिखाई, जो अपनेआप में एक काला अध्याय बन चुका है और आने वाले समय में दुनियाभर में यह एक मुद्दा बन सकता है जिस का जवाब नहीं दिया जा सकता.

होना तो यह चाहिए था कि 18वें लोकसभा के चुनाव के दरमियान भारत सरकार दुनियाभर से आग्रह करती कि आइए और हमारे चुनाव का आप अवलोकन करिए कि कहीं कोई कमी तो नहीं है, देखिए भारत में किस तरह निष्पक्ष चुनाव हो रहे हैं. कहते हैं न ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ शायद यही कारण है कि आज भारत सरकार नहीं चाहती कि कोई दूसरा देश अपना पर्यवेक्षक भारत में भेजे या फिर दुनियाभर से पत्रकार आ कर यहां हो रहे चुनाव का अवलोकन करें और अपनी रिपोर्टिंग दुनिया को बताएं.

यही कारण है कि आस्ट्रेलियाई महिला पत्रकार अवनी डायस ने जब अपनी हकीकत बताई तो वह दूर तक चली गई. और चुनाव आयोग के साथसाथ भारत सरकार की कुरसी हिलने लगी. आस्ट्रेलियाई पत्रकार ने दावा किया कि भारत सरकार द्वारा उन के कार्य वीजा को आगे बढ़ाने से इनकार करने के बाद उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने बताया कि भारत सरकार ने यह कहते हुए कार्य वीजा बढ़ाने से इनकार किया था कि उन की रिपोर्ट ‘सीमाओं का उल्लंघन’ है.

अगर हम निष्पक्ष समीक्षा करें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत सरकार कितनी कमजोर है और इस के पीछे की वजह है कि आस्ट्रेलिया की यह पत्रकार सचाई को दुनिया को न बता दे, इसलिए उसे आननफानन चलता कर दिया गया. भारत सरकार का कहना है कि आस्ट्रेलियाई पत्रकार अवनी डायस का यह तर्क गलत और भ्रामक है कि उन्हें चुनाव कवर करने की अनुमति नहीं दी गई और उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया गया.

दूसरी तरफ आस्ट्रेलियाई ब्रौडकास्टिंग कौर्पोरेशन की दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख अवनी डायस ने बताया कि सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या पर की गई रिपोर्टिंग पर भारत सरकार द्वारा आपत्ति जताने के बाद उन्हें लोकसभा चुनाव के दिन यानी 19 अप्रैल को भारत छोड़ना पड़ा था. डायस ने कहा, “मुझे अचानक भारत छोड़ना पड़ा. भारत सरकार ने मुझ से यह कहते हुए कार्य वीजा को बढ़ाने ने इनकार कर दिया कि मेरे द्वारा की गई रिपोर्टिंग सीमा लांघ गई थी.”

इस से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अगर चाहती तो आस्ट्रेलिया की इस महिला पत्रकार को कम से कम चुनाव की अवधि तक सम्मान से रिपोर्टिंग का अवसर दे सकती थी, मगर ऐसा लगता है कि आज की सत्ता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे बैठाने में अपना हित समझती है. और सरकार के इस कार्य-व्यवहार से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सचमुच भारत में लोकतंत्र पर पहरा बढ़ता जा रहा है.

मैं एक लड़के से प्यार करती हूं, लेकिन मुझे लगता है कि वह मुझ से नहीं, बल्कि मेरे शरीर से प्यार करता है, क्या करूं?

सवाल
मैं एक लड़के से प्यार करती हूं, लेकिन मुझे उस की हरकतों से महसूस हुआ कि वह मुझ से नहीं, बल्कि मेरे शरीर से प्यार करता है. ऐसा वह कई बार बातोंबातों में कह भी चुका है कि मुझे तुम से ज्यादा तुम्हारा शरीर प्यारा लगता है. यही नहीं उस के मोबाइल पर जब भी कोई मैसेज आता है तो वह मुझ से छिपा लेता है, जिस से मुझे शक होता है कि कहीं वह मुझे धोखा तो नहीं दे रहा. क्या मुझे उस से शादी करनी चाहिए, सलाह दें?

जवाब
किसी को कब किस से प्यार से हो जाए, कहा नहीं जा सकता. लेकिन जो इंसान आप से ज्यादा आप के शरीर को अहमियत दे, उसे पाने की इच्छा रखे तो समझ जाएं कि वह आप से प्यार ही नहीं करता, बस, अपना उल्लू सीधा करने के लिए आप की जीहुजूरी कर रहा है, जो आप भी समझ रही हैं.

अगर उस की नीयत साफ होती तो उस का आप से मैसेज छिपाने का सवाल ही नहीं उठता. समझदारी इसी में है कि ऐसे इंसान से शादी करना तो दूर की बात है, आप उस से दोस्ती भी न रखें वरना वह किसी दिन आप को कहीं का नहीं छोड़ेगा.

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शादी एक ऐसा समय है जब लड़का-लड़की एक साथ एक बंधन में बंधकर पूरा जीवन साथ में बिताने का वादा करते हैं. शादी को पुरूष आमतौर पर शारीरिक तौर पर अधिक देखते हैं. शादी का मतलब अधिकतर पुरूषों के लिए सेक्स संबध बनाना ही होता है लेकिन वे ये बात भूल जाते हैं कि शारीरिक संबंध से अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक संबंध होता है.

यदि महिला और पुरूष आत्मिक रूप से एक-दूसरे से संतुष्ट‍ है तो फिर शारीरिक संबंधों में भी कोई दिक्कत नहीं होती. शादी से पहले यानी सगाई के बाद लड़के और लड़की को एकसाथ खूब समय बिताने को मिलता है लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि वे शादी से पहले फिजीकल रिलेशन बना ले या फिर प्री मैरिटल सेक्सू करें. शादी से पहले संयम बरतना जरूरी है. आइए जानें शादी और संयम के बारे में कुछ और दिलचस्प बातों को.

सगाई और शादी के बीच में संयम के बारे में कुछ और दिलचस्प बातें 

– सगाई के बाद लड़के और लड़की को आपस में एक-दूसरे से मिलना चाहिए और एक-दूसरे को जानना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही उन्हें संयम बरतना भी जरूरी है.

– यदि शादी से पहले फिजीकल रिलेशन बनाने के लिए लड़का-लड़की में से कोई भी पहल करता है तो दूसरे को मना करना चाहिए नहीं तो इससे इंप्रेशन अच्छा नहीं पड़ता.

– दोनों को समझना चाहिए कि प्री मैरिटल सेक्स से पहले उन्हें आपस में एक-दूसरे को जानने-सूझने का मौका मिला है जिससे वे पहले एक-दूसरे की पसंद-नापसंद इत्यादि के बारे में जान पाएं.

– ये जरूरी है कि मिलने वाले समय को लड़के व लड़की को समझदारी से बिताना चाहिए न कि फिजूल की चीजों में खर्च करना चाहिए.

– शादी से पहले संयम बरतने से न सिर्फ दोनों के रिश्तों में मजबूती आती है बल्कि दोनों का एक-दूसरे पर विश्वास भी बना रहता है. इसके साथ ही संबंधों में अंतरंगता का महत्व भी बरकरार रहता है.

– प्रीमैरिटल सेक्स में हालांकि कोई बुराई नहीं लेकिन दोनों के रिश्ते पर शादी के बाद मनमुटाव का ये कारण बन सकता है.

– रिश्तों में खुलापन जरूरी है. चाहे तो शादी से पहले आप चीजों को डिस्कस कर सकते हैं. एक-दूसरे के साथ समय व्यतीत कर सकते हैं. एक-दूसरे के साथ घूम-फिर सकते हैं लेकिन इसके लिए जरूरी नहीं कि फिजीकल रिलेशन ही बनाया जाए.

– शादी से पहले फिजीकल रिलेशन से रिश्तों में अवसाद पैदा होने की संभावना बनी रहती है क्योंकि इसके बाद हर समय मन में एक डर और बैचेनी रहने लगती है. इसीलिए इन सबसे बचना जरूरी है.

– सेक्ससुअल रिलेशंस आपके रिश्ते में करीबी ला भी सकते हैं और दूरी बढ़ा भी सकते हैं इसीलिए कोई भी कदम उठाने से पहले सोच-समझ कर विचार करना आवश्यक है.

शादी से पहले संयम बरतने में कोई नुकसान नहीं है बल्कि रिश्तों की मजबूती के लिए यह अच्छा है.

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