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समझौता ज़िन्दगी और मौत का : दूल्हा बना रामबिलास मंडप में क्यों हिचकिचा रहा था

बात सन 1920 की है. कार्तिक का महीना था. गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे छोटे से गांव गिराहू में, सभी किसान  दोपहर बाद खेतों से थके-हारे लौटे थे. बुवाई का समय निकला जा रहा था, सभी व्यस्त थे. पर सब लोग पंचों की पुकार पर पंचायत के दफ्तर में इकट्ठे हो गए थे. बस पंचों के आने का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था.

एक ओर  गाँव की औरतें होने वाली दुल्हन निम्मो को जबरन  पंचायत के दफ्तर में ले आयी थी और दूसरी तरफ कुछ आदमी होने वाले दूल्हे रामबिलास का हाथ  पकड़कर बाहर पेड़ के नीचे खड़े थे.  वह भी इस शादी के नाम पर हिचकिचा रहा था.

सारे गाँव वाले इस शादी के पक्ष में थे पर वर और वधू, दोनों ही इस शादी के लिए तैयार न थे. आखिरकार मामला पंचायत में पहुंचा दिया गया था. पंचायत का फैसला तो  सबको मानना ही पड़ेगा. बस पंचों के आने का इंतज़ार था पर पंच अभी तकआये नहीं थे.

अंदर के कमरे में बैठी निम्मो शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी.

“मुझे ये शादी नहीं करनी है,” कहते हुए निम्मो ने एक बार फिर हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास किया तो पड़ोस की बुज़ुर्ग काकी बोली, “चुपकर, मरी. शादी नहीं करेगी तो भरी जवानी में कहाँ जायेगी?”

सभी उपस्थित औरतों ने काकी की बात से सहमति में सिर हिलाया.

“हाँ तो और क्या? मरद के सहारे के बगैर भी भला औरत को कोई पूछे है क्या?” दूसरी पड़ोसन बोली.

“काहे का सहारा देगा मुझे? अपनी सुध तो है नहीं उसे. अरे बच्चा है वो तो?” निम्मो ने खीजकर  पलटवार किया.

काकी ने एकबार फिर  ज्ञान बघारा, “कैसा बच्चा? अरे मरद तो है ना घर में ? मिटटी का ही हो, मरद तो मरद ही होता है. और क्या चाहिए औरत को?”

बाहर कुछ सरगर्मी हुई.  शायद पंच आ गए थे.  पंचायत बैठी तो फैसला सुनाने में दो मिनट भी न लगे. रामबिलास, अपने भाई हरबिलास की विधवा निम्मो को चूड़ी पहनायेगा और आज से वो मियां-बीवी कहलायेंगे. निम्मो ने आवाज़ उठाने की कोशिश की तो सबने उसे चुप करा दिया.

उधर सरपंच ने ऊंची आवाज़ में कहा, “अरे ओ रामबिलास! कहाँ  मर गया रे. चल, जल्दी कर. ये लाल चूड़ियाँ डाल दे अपनी भाभी  के हाथ में. चल आज से ये तेरी जोरू हुई. ख़याल रखना इसका और इसके लड़के का. वो भी आज से तेरा लड़का ही हुआ. ”

“चलो अच्छा ही  है. बिना शादी किये ही लड़का मिल गया,” किसी ने पीछे से चुटकी ली.

पंचायत के दो टूक फैसले से सहमा सा रामबिलास जब चूड़ियाँ लेकर निम्मो के पास पहुंचा तो निम्मो ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. पर गाँव की औरतें कहाँ मानने वाली थी? साथ बैठी औरतों ने उसके हाथ ज़बरन पकडे और रामबिलास से उनमें लाल कांच की चूड़ियाँ डलवा दीं. कहीं से कोई एक चुटकी सिन्दूर भी ले आई और रामबिलास से निम्मो की मांग में डलवा दिया. निम्मो की नम आँखों को किसी ने नहीं देखा या शायद देखा तो अनदेखा कर दिया.  पास बैठी औरतों में से एक ढोलक उठा लाई और सबने शादी के गीत गाने शुरू कर दिये.

और इस तरह रामबिलास की शादी अपने बड़े भाई हरबिलास की विधवा निम्मो से हो गयी.

इसी तरह बन्ने-बन्नी गाते-गाते रात हो गयी और गांव की औरतें निम्मो को उसकी कोठरी में धकेल कर बाहर निकल गयीं. पड़ोस की काकी ने बाहर से आवाज़ दी, “अरी निम्मो, तेरा बेटा हरिया आज हमारे घर में रहेगा. फ़िक्र न करना.”

निम्मो का दिमाग तो बिलकुल सुन्न हो गया था. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कुछ देर सोचती रही, फिर थककर बिस्तर पर बैठी ही थी कि कोई रामबिलास को भी कमरे में धकेल गया और बाहर से कुंडी लगा दी. सहमासकुचाया सा रामबिलास कोठरी में आकर दो मिनट तो खड़ा रहा.  फिर जैसे ही लालटेन की बत्ती बुझाने बढ़ा, निम्मो ने खिन्न मन से कहा, “देवर जीये बत्ती-वत्ती बाद में बुझाना. यह दरी ले लोऔर उधर ज़मीन पर सो जाओ.”

रामबिलास ने चुपके से दरी उठाई और कोठरी के एक कोने में बिछाली. वह सुबह से परेशान था और थका हुआ था.  थोड़ी ही देर में उसके खुर्राटों की आवाज़ कोठरी में गूंजने लगी. पर निम्मो की आँखों में नींद कहाँ थी? यह वही कोठरी थी जहाँ उसके पति की मृत्यु  हुई थी.  वही चारपाई थी और वही लालटेन थी.

उसके पति को मरे अभी एक साल भी नहीं गुज़रा था और देवर से चूड़ी पहनवाकर जबरन उसकी शादी करवा दी गयी थी. ये पंच भी  कैसे पत्थर दिल हैं . इनके दिल में कोई भावनाएं नहीं हैं क्या? क्या कोई अपनों को इतनी जल्दी भुला देता है? क्या पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ जिस्मानी रिश्ता है? निम्मो  का  दिमाग पूर्णतः अशांत था. उसके दिमाग में पिछले सालभर की घटनाये फिल्म की तरह घूम रही थी.

****

करीब एक साल पहले की ही तो बात थी.  पूस का महीना था. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी.  हवा के थपेड़े तो इतने तेज़ कि मानो झोंपड़ी पर पड़े छप्पर को ही उड़ाकर ले जायेंगे. टूटी हुई खिड़की पर ठंडी हवा को रोकने के लिए लगाया हुआ गत्ता  हिल-हिल कर मानो हवा को अंदर आने का बुलावा दे रहा था. कोठरी के अंदर दीवार के कोने पर लटकी हुई लालटेन की लौ लगातार भभक रही थी.  संभवतःउसमे तेल शीघ्र ही समाप्त होने वाला था.

कोने में एक टूटी सी चारपाई पर हरबिलास लेटा हुआ था. उसका बदन तीव्र ज्वर से तप रहा था. पुरानी मैली सी रज़ाई में उंकडूं होकर किसी तरह वहअपनी ठण्ड मिटाने का असफल प्रयास कर रहा था. पर उसका शरीर की कंपकंपाहट थी कि ख़त्म होने को नहीं आ रही थी. पास ही एक पीढ़े पर वह बैठी थी. तीन  वर्ष का हरिया उस की गोद में सो रहा था. चिंता के मारे उसका सुन्दर चेहरा स्याह पड़ गया था. पति के माथे पर ठन्डे पानी की पट्टी रख-रखकर उसके हाथ भी ठण्ड से सफ़ेद हो गए थे.  पर बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.पति के होठ कुछ बुदबुदाये तो उसने आगे झुककर सुनने की कोशिश की.

“राम बिलास कहाँ है?” वो पूछ रहा था.

“उसे भी तेज़ बुखार है. वो दूसरी कोठरी में लेटा है.” उसने धीरे से जवाब दिया था.

“निम्मो, कितने लोग और चल बसे?” हरबिलास की आवाज़ कमज़ोरी और डर के मारे और भी मंद  हो गयी  थी.

“आप फिकर नहीं करोजी, कोई  नहीं गया है. सब ठीक हो रहे हैं,” उसने अपने स्वर को संभालकर झूठ बोला था.
“मुझे नहीं लगता मैं ठीक हो पाऊँगा.  यह महामारी तो कितने प्राण ले चुकी है.  लगता है इसका कोई इलाज भी नहीं हैं,”  उसने फिर कहा था.

“नहीं नहीं.  रामू काका कह रहे थे कल सरकारी अस्पताल का डाक्टर गॉंव में आएगा,” उसने पति को उम्मीद दिलाने की कोशिश की थी.

“अरे डाक्टर ही क्या कर लेगा.  इस प्लेग का तो कहते हैं कोई इलाज ही नहीं हैं. मैंने सुना था बड़े-बड़े अँगरेज़ भी मर गए हैं इससे. फिर हम गरीबों का क्या?”

पास रखी अंगीठी की आंच तेजी से कम होती जा रही थी और लाल अंगारों पर राख की मोटी परतें जमने लगी थी. क्या यह मात्र संयोग था या फिर आने वाले काल का संकेत? तभी पास के मकान से ह्रदय-विदारक विलाप की चीखें सुनाई पड़ी.

“लगता है बाबूलाल भी गया. मुझे लगता है अब मेरी बारी है,” हरबिलास की आवाज़ कांप रही थी.

“शुभ- शुभ बोलो. तुम कहीं नहीं जाओगे मुझे और हरिया को छोड़के,” उसने प्यार भरी झिड़की दी थी.

“ना निम्मो. लगता है मेरा टाइम आ गया है. हरिया और रमिया का ख्याल …” कहते-कहते उसकी सांसें उखडने लगी थी.

घर्र …घर्र …घर्र ………… और फिर उसका सिर एक और लुढ़क गया था.

उसको कुछ समझ नहीं आया था.  वह पथराई आँखों से  कुछ क्षण उसे देखती रही.  फिर जोर से आवाज़ दी, “रमिया, जल्दी आ.  देख तो तेरे भाई को क्या हो गया,” कहते हुए उसने हरिया को गोद से धक्का दिया और अपने पति की छाती को झकझोरने लगी थी.

“क्या हुआ भैया को?” कहते हुए जब रामबिलास कोठरी में घुसा तो उसका चेहरा भी तेज़ बुखार से तप रहा था और आँखें गुडहल के फूल की तरह लाल थी. एक मिनट तो उसने भाई की नब्ज़ देखने की कोशिश की पर वो यह सदमा न सह पाया और बेहोश  होकर ज़मीन पर गिर पड़ा था .

यह घटना सन  1919 की थी. सारे देश में प्लेग की महामारी फैली हुई थी. गिराहू गाँव भी इससे अछूता न था. मौत का तांडव हर रोज़ आठ दस लोगों की बलि ले रहा था. बस एक यही घर बचा हुआ था जिसमे भी आज यमराज के पाँव पड़ गए थे. घर का इकलौता कमाऊ आदमी आज मौत के घाट उतर गया  था.

राम बिलास को होश आ गया था और अब  वह ज़मीन पर बैठा हुआ, रीती आँखों से फर्श की ओर घूर रहा था. आठ साल की उम्र में माँ-बाप दोनों भगवान को प्यारे हो गए थे. तब से आज तक बड़े भैया ने ही उसे बच्चे की तरह संभाला था.  पिछले तेरह साल कैसे निकल गये, उसे पता ही नहीं चला था.  बड़े  भैया ने उसे हर तकलीफ से दूर रखा था. उनके बगैर पता नहीं वह ज़िन्दगी कैसे जियेगा?

वह थोड़ी देर तो गुमसुम बैठी देखती रही, फिर दहाड़ें मारकर रोने लगी थी. उसे पता भी न चला की रामबिलास  कोठरी से कब बाहर निकल गया. कुछ देर बाद जब भोले-भाले हरिया ने उसका हाथ खींचना शुरू किया तो उसे होश आया. आसपास देखा तो रामबिलास कहीं न दिखा.  उसने मन पक्का किया और देवर को देखने बाहर निकली. उसका कहीं नामो-निशान  भी नहीं था. कहाँ चला गया? अभी-अभी तो यहीं था.

घनी काली रात थी और बर्फीली हवाएं अभी भी चल रही थी.  कहाँ जाए, किसको बुलाए? पास के घर में तो अभी कुछ मिनट पहले  ही बाबूलाल की मौत हो चुकी थी. वहां से रोने की आवाज़ें अभी भी आ रही थीं.  हरिया को कमर पर उठाये वह दरवाज़े पर खड़ी ही थी की अचानक चन्दन  काका दिख गये जो शायद बाबूलाल के घर जा रहे थे.

“काका,” उसने सिर पर पल्लू लिया और सिसकना शुरू कर दिया.

“क्या हुआ हरबिलास की बहू?” चन्दन काका की आवाज़ में चिंता थी.

“हरिया के बापू … …भी चले गये.” किसी तरह उसके मुंह से निकला था. उसकी सिसकियाँ  किसी तरह  भी रुक नहीं  रही थी.

“हे राम.हे राम.  रमिया कहाँ है?”

“पतानहींकाका.  अभीतोयहींथा.”

राम बिलास कहीं न दिखा तो चन्दन काका पड़ोस से कुछ और लोगों को ले आये थे और उसके पति के शव को चारपाई से उतारकर ज़मीन पर रख दिया था. गाँव के कुछ बड़े आकर वहां बैठ गए थे. वह लोग मरने वालों की गिनती कर रहे थे. इस रफ़्तार से तो पूरा गाँव ही ख़तम हो जायेगा. निम्मो उनकी बातें नहीं सुन रही थी. वह तो बस सूनी आँखों से ज़मीन को देख रही थी. यह व्यक्ति जो अभी तक उसका पति था, एक क्षण में लाश कहलाने लगा था. सुबह होते न होते उसे जला भी दिया जायेगा. यह कैसी रीत है? यह कैसी दुनिया है? निम्मो और उसका तीन साल का बच्चा हरिया, उनका क्या होगा? पर रमिया?  रमिया कहाँ है? वह तो अपने बड़े  भैया  के बिना रह भी नहीं सकता. उसे इतना बुखार भी है, पर वह है कहाँ? सोच सोचकर उसका दिमाग सुन्न  होने लगा था.

सुबह हुई और उसके पति का अंतिम संस्कार हो गया. साथ ही उसी रात प्लेग की चपेट में आये चार और लोगों का भी. औरतें श्मशान घाट नहीं जातीं है यह कहकर चन्दन काका बस अपने साथ तीन वर्ष के हरिया को लेगए थे.  उसने आपत्ति की तो चन्दन काका ने कहा था, “बाप के मुंह में अग्नि कौन देगा? यही तो देगा न!”

“लगता है किसी मरने वाले की  क्रिया या तेरहवीं भी नहीं हो पाएगी.  पंडित जी खुद भी प्लेग की चपेट में आ गए हैं.  शायद भगवान को यही मंज़ूर है.” श्मशान घाट से लौटने पर उन्होंने कहा था.

रामबिलास का कुछ पता ही नहीं चल रहा था. हफ्ते भर तक गाँव वाले उसे ढून्ढ-ढून्ढकर हार गये थे.  कहाँ चला गया? कोई शेर चीता उसे खा गया या कोई भूत-प्रेत उसे  उठाकर ले गया था ?

पंद्रह दिन कैसे कटे, यह तो अकेली निम्मो ही जानतीथी. कितनी अकेली हो गयी थी वह. दो हफ्ते बाद का वह दिन क्या वह भूल पायेगी? शाम का झुटपुटा हो चला था और घर में अँधेरा होता जा रहा था. कितने दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला था. वह हरिया को गोद में सुलाने की कोशिश कर रही थी. अचानक पड़ोस का लड़का गूल्हा रामबिलास को हाथ से पकडे घर में घुसा, “लो भाभी, रमिया भैया आ गए.”

रामबिलास खड़ा-खड़ा सर झुकाए फर्श को घूर रहा था.

उसे देख वह अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाई थी और इतने दिन की सारी भड़ास उसपर निकाल दी थी, “अरे कहाँ मर गया था रे  तू ? मैं अकेली यहाँ परेशान हो रही हूँ. तुझे किसी की कोई फ़िकर-विकर है कि नहीं? सारी ज़िन्दगी निकम्मा ही रहेगा?”

कहते-कहते उस के आंसू बह निकले थे.शायद इतने दिनों का रुका  बांध टूट गया था.

गूल्हा पहले तो अकबकाकर कुछ क्षण उसे देखता रहा था, फिर बोला था, “अरे भाभी, इस बिचारे को ना डांट. ये तो पागल हो गया है. और तो और, इसकी तो ज़बान भी गयी. पहले ही  गऊ था, पर अब तो ….”

सुनकर वह सकते में आ गयी थी. अपना रोना-धोना छोड़कर बोली, “हाय राम! और इसका बुखार?  उतरा कि नहीं?”

भाग के उसने उसके मत्थे पर हाथ रखा और बोली, “चल बुखार तो ठीक हो गया. खाना-वाना खाया कि नहीं?  तेरा स्वेटर कहाँ गया रे? जा बिस्तर में लेट जा. मैं तेरे लिए चाय लाती हूँ.”

पिछले चार साल से उसने छोटे देवर को अपने बच्चे की तरह संभाला था. वही ममता आज फिर उमड़ आयी थी.

चाय बना के लौटी तो देखा हरिया चाचा की गोद में बैठा हुआ था.  रामबिलास  के आंसू बह रहे थे और हरिया उन्हें  पोंछ रहा था.

अगले छह महीनों में प्लेग की महामारी कुछ थम गयी थी औरज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने सी लगी थी. पर रामबिलास को न अपनी सुध थी और न ही वो बोल पा रहा था. बस जब हरिया उसके पास होता उसके चेहरे पर हल्की सी खुशी दिखती थी. जैसे जैसे परिस्थितियां सामान्य होने लगीं, निम्मो उसे लेकर इलाज कराने चली.  बेचारी कहाँ-कहाँ नहीं गयी थी और किस-किस वैद्य, हकीम और ओझाओं के चक्कर नहीं काटे थे. तब कहीं जाकर रामबिलास की जुबान वापिस आयी थी. पर एक उदासी सी उसके चेहरे पर हमेशा के लिए बस गयी थी जो जाने का नाम ही नहीं लेती थी. भाई की कमी उसे हर वक़्त खलती थी. हर वक़्त हँसने-हँसाने वाला रमिया अब गंभीर रामबिलास बन गया था. उसको पति के रूप में स्वीकारना तो किसी भी हालत में संभव नहीं होगा.  पर पंचायत के इकतरफा फैसले के बाद और चारा भी क्या है?

*****

यूं ही सोचते-सोचते कब निम्मो की आँख लग गयी और कब सुबह हो गयी निम्मो को पता ही नहीं चला. आँख खुली तो दिन चढ़ आया था. खिड़की से सूरज की किरणे अंदर झाँक रहीं थी. दरवाज़ा खुला हुआ था और रामबिलास कमरे में नहीं था.

निम्मो धीरे से उठकर बाहर आयी तो देखा पड़ोसन हरिया को वापस छोड़ गयी थी. आँगन में रामबिलास दातुन कर रहा था.  साथ ही एक छोटी सी दातुन उसने हरिया को भी बनाकर दे दी थी.  दोनों मिलकर हंस रहे थे. दातुन हो गयी थी. अब रामबिलास हरिया को कुल्ला करना सिखा  रहा था. निम्मो खड़ी-खड़ी दोनों को देखती रही.  दोनों एकदूसरे के साथ कितने खुश लग रहे थे. दातुन कर के राम बिलास खड़ा हुआ तो हरिया मचल उठा, “काका गोदी .. काका गोदी …”

उसकी आवाज़  सुनकर निम्मो का ध्यान टूटा तो देखा हरिया अपने चाचा की पीठ पर  चढ़ने की कोशिश कर रहा था. रामबिलास ने दातुन ख़तम की और हरिया को गोद में उठा लिया.

” उठ गयी भाभी? अच्छा रोटी दे दे. खेत पर जा रहा हूँ. बुवाई का समय निकलता जा रहा  है, अभी खेती भी शुरू करनी है ना और हाँ, हरिया की रोटी भी बना देना. इसे भी साथ ले जा रहा हूँ.”

“हाँ, बस पांच मिनट में देती हूँ,” और  निम्मो जल्दी से आटा गून्दने लगी.

नाश्ता कर के रामबिलास हरिया को अपने कंधे पर बिठाकर खेत की ओर चल  पड़ा और निम्मो दरवाज़े पर खड़ी काफी देर तक दोनों को जाते हुए देखती रही. लगता था रामबिलास को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होने लगा था. कितनी आसानी से उसने घर का ज़िम्मा संभाल लिया था. अपने मृतक भाई की सारी ज़िम्मेदारियाँ, उसकीखेती, उसका बच्चा, उसकी बीबी,  सभीकुछ  मानो आज उसकी ज़िम्मेदारी बन गया था.

शायद ज़िंदगी को यही मंज़ूर था.

समय किसी के लिए नहीं रुकता और जीवन से समझौता करने में ही शायद सबकी भलाई है. उसे महसूस हुआ कि ज़िंदगी और मौत के बीच ज़िंदगी ही ज़्यादा बलवान है. दोनों के बीच आज शायद एक समझौता हो गया था .

 

भटकन : मिताली किस वजह से उदास थी

मिताली से मुलाकात का दिन था. साउथ एक्स के एक रैस्टोरैंट में कौशलजी प्रतीक्षा कर रहे थे तभी मिताली को आते देख उन के चेहरे पर मुसकराहट फैल गई. पर मिताली आज चुपचुप व उदास थी.

‘‘क्या बात है? उदास लग रही हो?’’

‘‘क्या बताऊं, आज का दिन मेरे लिए ठीक नहीं है अभी आते वक्त मैट्रो में किसी ने मेरे बैग से मनीपर्स निकाल लिया. उस में रखे रुपए मां को भिजवाने थे,’’ उस की आंखें छलछला उठीं, ‘‘सौरी, मैं तो आप को खुशी देने आई थी पर अपना ही रोना ले कर बैठ गई,’’ इतना कह कर उस ने टिश्यूपेपर आंखों पर रख लिया.

‘‘तुम भी अजीब लड़की हो. इस में सौरी जैसी क्या बात है. यह बताओ कि कितने रुपए चाहिए मां को भेजने के लिए? कल तुम्हें मिल जाएंगे.’’

‘‘पर आप क्यों…’’ और आवाज रुंध गई थी मिताली की.

‘‘मुझ से यह रोनी सूरत नहीं देखी जाती, समझीं. अब ज्यादा मत सोचो और बताओ.’’

‘‘तो सर, अभी 10 हजार रुपए चाहिए. मां का इलाज भी चल रहा है और…पर मैं ये रुपए अगले महीने ही आप को दे पाऊंगी.’’

‘‘हांहां, यह बाद में सोच लेना. अभी तो अपना मूड ठीक करो और गरमगरम कौफी पियो.’’

‘‘थैंक्स फौर दिस हैल्प, सर,’’ उस ने कौशलजी का हाथ पकड़ धीरे से चूम लिया. कुछ पल वे प्रस्तर मूर्ति बने रह गए, पर मन में कुछ अच्छा लगा था.

2 वर्ष पहले पत्नी रमा की मृत्यु के बाद से कौशलजी उदास व अकेले पड़ गए थे. घर की ओर बढ़ते कदम बोझिल हो जाते. अकेला घर काटता सा प्रतीत होता. यों तो पुस्तकें, टीवी उन के साथी बनने के लिए हाजिर थे पर बातचीत, कुछ हंसी, मस्ती की खुराक के बिना उन का मन उदासी से घिरा रहता.

अब की होली भी अकेली व फीकी ही गई थी. बेटा टूर पर था, बेटी दूसरे शहर में थी. तभी लखनऊ की होली की याद कर के उन के होंठ स्वत: ही मुसकरा उठे. फिर कुछ पल बाद, बुदबुदा उठे, ‘रमा, तुम्हारे साथ ही सारे रंग भी चले गए हैं. लोग कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ विरक्ति आनी चाहिए लेकिन खुशी के साथ जीने की इच्छा तो हर उम्र में होती है.’

स्वभाव से बातूनी व हंसमुख कौशलजी की उदासी, बेटे के पास दिल्ली की फ्लैट संस्कृति में जस की तस रही. वे यहां अपना अकेलापन दूर करने की इच्छा से आए थे पर बेटा राहुल अपनी जौब में इतना व्यस्त था कि साथ में ब्रेकफास्ट या डिनर भी न हो पाता. आसपास भी हमउम्र नहीं. यंग जैनरेशन अपने जौब आदि में व्यस्त. ऐसे में अखबार, टीवी के बाद, नजदीकी बाजार या पार्क का चक्कर लगा आते.

एक दिन कौशलजी, अपना पीएफ तथा रुकी पैंशन के लाखों में रुपए मिलने की खबर से इतने उत्साहित थे कि तत्काल अपने बच्चों को यह बात बताना चाहते थे. उन्होंने राहुल को फोन लगाया. उस के फोन न उठाने पर दोबारा फोन करते रहे. तब राहुल ने खीज कर कहा कि वह अभी बात नहीं कर सकता. बारबार फोन मत करना. फ्री होने पर वह कौल कर लेगा.

उन्होंने सोचा, ‘हां, राहुल ठीक ही तो कह रहा है. वह उन की तरह फ्री थोड़े ही है. चलो स्वाति बिटिया को बता देता हूं यह बात.’

‘हैलो पापा, मैं एक पार्टी के साथ हूं. बाद में बात करती हूं. बायबाय.’

सभी व्यस्त हैं. एक मैं ही भटक रहा हूं. 2 हफ्ते बीत गए पर बच्चों से बात नहीं हो पाई. उन्होंने भी निश्चय कर लिया था कि बच्चों को डिस्टर्ब नहीं करेंगे.

एक दिन फिर मन भटका तो अपनी अटैची से फोटो एलबम निकाल कर देखने लगे. पत्नी, परिवार, सालीसलहज की फोटो देखतेदेखते अतीत की सुखद यादों में खो गए.

शादी के बाद रमा के साथ जब पहली बार ससुराल गए थे तब शाम को संगीत की महफिल जमी थी. रीना का गाना समाप्त होते ही उन्होंने एक गुलाब का फूल उस की ओर उछाल दिया था. वह फूल उस की कुरती के गले में जा गिरा. तब रीना ने शिकायती नजरों से उन्हें देख अपनी नजरें शरमा कर झु़का ली थीं. इस पर उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा था, ‘भई इकलौती साली साहिबा पर फूल फेंकने का हक तो बनता है.’

इसी बीच, यादों से बाहर आए तो पत्नी रमा की फोटो पर हाथ रखते हुए बुदबुदाए, ‘तुम थीं तो सारी दुनिया जैसे साथ थी. अब एकदम अकेला हो गया हूं. तुम कहा करती थीं कि बच्चों की जिम्मेदारी पूरी होने के साथसाथ तुम्हारा रिटायरमैंट भी हो जाएगा.

तब हम निश्ंिचत हो कर खूब घूमेंगेफिरेंगे, अपने लिए जीएंगे पर तुम तो बीच में ही चली गईं, रमा,’ और उन के गालों पर आंसू लुढ़क आए.

मन को शांत करने के लिए उन्होंने चाय बनाई और उसे पीते हुए, पास रखे अखबार के एक विज्ञापन पर उन की दृष्टि पड़ गई, ‘फ्रैंडशिप क्लब अकेलेपन को दूर करने, निराशा से उबरने का सहज साधन. फ्रैंडशिप क्लब जौइन करें, मोबाइल नंबर 9910033333 एक बार फोन मिलाइए.’

कुछ देर की ऊहापोह के बाद कौशलजी ने वह नंबर मिला लिया. ‘हैलो, नमस्कार. कहिए, मैं आप की क्या हैल्प कर सकती हूं?’ एक मधुर आवाज सुनाई दी.

‘वो…मैं ने अभी फ्रैंडशिप क्लब का विज्ञापन देखा तो…’

‘हां, हां कहिए, आप की क्या समस्या है?’

‘मैं अकेलेपन से परेशान हूं. बताइए क्या तरीका है?’ कौशलजी ने जल्दी से अपनी बात खत्म की.

‘हां, हां, सर, हमारा क्लब खुशी बांटता है. आप का नाम जान सकती हूं?’

‘मैं एक रिटायर्ड व्यक्ति हूं और मेरा नाम कौशल है. थोड़ी बातचीत व नेक दोस्ती द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण समय व्यतीत करना चाहता हूं, बस.’

‘मैं, मिताली हूं. आप की दोस्त बनने को तैयार हूं. पूरी कोशिश होगी कि आप को खुशी दे सकूं और विश्वास दिलाती हूं कि मेरा साथ अच्छा लगेगा. इस के लिए क्लब की कुछ शर्तें होती हैं. मैं अपनी बौस से बात कराती हूं.’

कुछ ही सैकंड्स में दूसरी आवाज आई जो कि क्लब की प्रैसिडैंट नीलिमा की थी, ‘डील के अनुसार, मिताली से आप की मुलाकात किसी रैस्टोरैंट या ओपनप्लेस में ही संभव होगी, हर बार समय डेढ़ से 2 घंटे तक होगा. हर मीटिंग के 2 हजार रुपए कैश देने होंगे. मैंबरशिप की फीस 10 हजार रुपए होगी जो कि 3 माह तक वैलिड होगी और…’

‘फीस तो बहुत ज्यादा है मैडम,’ बीच में ही कौशलजी बोल पड़े.

‘अरे, सर, आप कल अपने घर के पास वाले रैस्टोरैंट में मिलिए. वहां हम तय कर लेंगे. आप रिटायर्ड व्यक्ति हैं, ठीक है, छूट मिल जाएगी. पर क्लब को एक बार अपनी सेवा का अवसर तो दीजिए. कल 12 बजे मुलाकात होगी. मैं और मिताली साथ होंगे. आप का दिन अच्छा हो सर. बायबाय.’ फोन बंद हो गया.

मिताली से हुई दोस्ती से कौशलजी संतुष्ट हो उठे थे. मिताली की बातों का तरीका, उस का हंसना, बतियाना, कौशलजी की बातों में दिलचस्पी लेना कौशलजी को खुशी के साथसाथ सुकून दे रहा था. 2 हफ्ते में 1 बार की मुलाकात अब हर हफ्ते की मुलाकात बन गई थी.

2 माह बीत गए थे पर कौशलजी को अपने बेटेबेटी से बातें शेयर करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई, बेटाबेटी भी अपनी नौकरी व जिंदगी में इतने व्यस्त थे कि इस परिवर्तन की ओर उन का ध्यान ही नहीं गया.

एक दिन रैस्टोरैंट में बातें करते हुए कौशलजी किसी बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़े पर तुरंत ही झेंप कर वे चुप हो गए. तभी बाएं ओर की तीसरी टेबल से एक व्यक्ति सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘हैलो, कौशल, पहचाना मुझे?’’

कुछ पल देख, ‘‘ओह दिनेश, तुम यहां कैसे? तुम तो इलाहाबाद में थे न. और इतने वर्षों बाद भी तुम ने मुझे पहचान लिया पर शायद मैं दूर से देखता तो तुम्हें पहचान न पाता,’’ कौशलजी दोस्त से मिल कर खुश होते हुए बोले.

‘‘हां, हां, भई मेरी खेती जो साफ हो गई है और खोपड़ी सफाचट मैदान. तुम तो यार वैसे ही लगते हो आज भी. और यह तुम्हारी बिटिया है?’’

‘‘न, न, यह मेरी यंग दोस्त है, एक अच्छी दोस्त.’’

मिताली के जाने के बाद कौशल अपने जीवन की बातें पत्नी की मृत्यु, रिटायरमैंट के बाद का अकेलापन, संवादहीनता की व्यथा जैसी कई बातें बताते रहे. दिनेश के द्वारा युवती दोस्त के बारे में पूछे जाने पर अखबार के विज्ञापन से ले कर रजिस्टे्रशन व

मीटिंग की सारी बातें बताईं.

‘‘यह ठीक नहीं है, यार. ऐसी दोस्ती सिर्फ पैसे पर टिकी होती है. तुम्हारे साथ हंसनाबोलना तो ड्यूटी मात्र है, तुम्हारे प्रति कोई सद्भावना या संवेदना नहीं…’’

‘‘पर यह बहुत अच्छी लड़की है,’’ बात पूरी होने से पूर्व ही कौशल बोल पड़े.

‘‘चलो माना कि अच्छी है वह, पर कौन मानेगा कि उस के साथ तुम्हारा दोस्ती भर का रिश्ता है. और जब तुम्हारे बच्चों को पता लगेगा तब क्या होगा, यह सोचा है तुम ने?’’ दिनेश ने कौशलजी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘तुम ये सब इसीलिए कह रहे हो कि तुम अकेले नहीं हो. एकाकीपन की पीड़ा क्या होती है, तुम सोच नहीं सकते,’’ अपनी उंगलियों को मरोड़ते हुए कौशल जैसे मन की व्यथा निकाल रहे थे.

‘‘ठीक है तुम्हारी बात, पर अकेलेपन को दूर करने के और भी रास्ते हैं. इस तरह की दोस्ती सिर्फ एक मकड़जाल है जिस में फंस कर व्यक्ति छटपटाता है. पिछले दिनों अखबार में एक ऐसा ही समाचार छपा था. 65 वर्ष का व्यक्ति इस जाल में ऐसा फंसा कि चिडि़यां चुग गईं खेत वाली बात हो गई. छीछालेदर हुई, सो अलग.

‘‘कहो तो तुम्हारे लिए, अपने जैसा ही हलका जौब देखूं. यह रुपएपैसे के लिए नहीं बल्कि अपना समय अच्छी तरह व्यतीत करने का तरीका है. या तो फिर कोई समाजिक संस्था जौइन कर लो.’’

‘‘नहीं, अब मुझे कोई भी बंधनयुक्त कार्य नहीं करना,’’ कौशलजी ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘शायद तुम भूल रहे हो कि बद अच्छा, बदनाम बुरा होता है. और यह बात तुम्हीं कहा करते थे,’’ दिनेश ने फिर कौशल को समझाने की कोशिश की.

‘‘छोड़ो यह बात, मैं कोई बच्चा नहीं हूं. कोई और बात करो,’’ अपना हाथ छुड़ाते हुए कौशल ने कहा.

इस वक्त इस बात का छोर यहीं छूट गया.

‘‘पापा, वह कौन थी जिस के साथ नटराज में आप बातें कर रहे थे. मैं अपने साथी के साथ वहां गया था, इसीलिए आप से बात नहीं कर पाया.’’

राहुल के इस प्रश्न पर कौशल सकपका गए. तभी राहुल का मोबाइल बज उठा और वह बाहर चला गया.

‘क्या मैं राहुल से कह पाऊंगा कि वह लड़की मेरी दोस्त है. तो क्या दिनेश का कहना सही है?’ पर सिर उठाते इस विचार को उन्होंने झटक डाला.

एक दिन को कौशलजी व मिताली, मौल के कौफी शौप में आधा घंटा बिता कर, मौल घूमने लगे. पर्स शौप में ब्रैंडेड लाल रंग का पर्स देख कर मिताली रुक नहीं पाई. अपने कंधे पर उसे लटका कर आईने में देख चहक उठी.

तभी कौशलजी के पूछने पर कि वह पर्स उसे पसंद है तो खरीद ले.

‘‘काफी महंगा है,’’ कह कर टाल दिया पर साथ ही चेहरा उदास भी हो गया, ‘‘इतना महंगा पर्स तो देख ही सकती हूं, खरीद नहीं सकती मैं.’’

‘‘चलो मेरी तरफ से गिफ्ट है तुम्हारे लिए. मैं पेमैंट कर दूंगा. तुम ले लो.’’

मिताली के चेहरे पर खिल आई खुशी को देख कौशल सोचने लगे, ‘इस को खुशी देने में मुझे भी कितनी खुशी मिल रही है.’

जब तक मिताली से एक बार फोन पर बात नहीं हो जाती, कौशल बेचैनी अनुभव करने लगे हैं. इसीलिए वे बात करने की सोच ही रहे थे कि टूर से लौटे राहुल ने फाइनैंशियल एडवाइजर के आने की बात कह, पापा से अपनी ‘मनी’ अपनी इच्छा से इन्वैस्ट करने की बात कही.

‘‘पिछले 2 माह से एक ऐडवांस प्रोजैक्ट के कारण वक्त नहीं मिल पाया. आज मनी एडवाइजर के सामने मैं भी आप के साथ रहूंगा, पापा, आप जैसा चाहेंगे वैसा हो जाएगा.’’

‘‘अभी रहने दो, फिर देखा जाएगा,’’ कौशलजी ने बात को टाला.

‘‘क्यों, आप कुछ और सोच रहे हैं क्या?’’

‘‘हां, फिलहाल तुम उसे मना कर दो.’’

नाश्ते के बाद कौशलजी टीवी में आ रही एक पुरानी फिल्म देखने में मग्न थे. डोरबैल की आवाज पर मन मसोस कर उठे, ‘‘कोई सैल्स बौय ही होगा,’’ पर दरवाजे पर दिनेश को देख, खुशी से चहक उठे, ‘‘अरे वाह, आज इस वक्त यहां कैसे? तुम तो अपनी जौब पर जाते हो फिर…पर अच्छा हुआ तुम आए. बैठो मैं गरमागरम चाय लाता हूं, फिर दोनों गपें लगाएंगे.’’

‘‘नहीं, आज हम कनाटप्लेस चल रहे हैं. वहीं खाएंगेपीएंगे, घूमेंगे. कुछ अलग सा दिन बिताएंगे.’’

दोढाई घंटे की विंडो शौपिंग के बाद एक रैस्टोरैंट में बैठे दोनों मित्र प्रसन्न थे. लंच का और्डर दे कर दिनेश लघुशंका के लिए वाशरूम की ओर बढ़ गए. वापसी पर उन की निगाह जानीपहचानी शक्ल पर पड़ी. वह मिताली थी जो कि एक युवा से सट कर या कहें कि लिपट कर ही बैठी थी. खूब खिलखिला रही थी.

उन के मन की उथलपुथल चेहरे पर उतर आई.

‘‘क्या हुआ, अभी तो तुम बड़े खुश थे. अब उदास क्यों हो गए?’’

‘‘कुछ नहीं. ऐसी कोई बात नहीं है,’’ इधरउधर की एकदो बातों के बाद, ‘‘अरे हां, तुम्हारी उस यंग दोस्त के क्या हाल हैं?’’ डोसे के टुकड़े को सांभर में डुबोते हुए दिनेश ने पूछा.

‘‘तुम गलत सोचते हो उस के लिए. वह तो परिस्थिति की मारी लड़की है. अकेली अपनी मां की जिम्मेदारी उठा रही है. यहां वह पीजी में रहती है. आजकल वह अपनी बीमार मां को देखने गांव गई है. अब वह अपनी मां को साथ रखने के लिए यहीं एक छोटा सा घर चाहती है. मन की बात बताऊं, मैं तो उस की इस में सहायता करना चाहता हूं. जरूरतमंद लड़की है, उस की हैल्प से मुझे संतुष्टि मिलती है,’’ वे बोले जा रहे थे.

‘‘कौशल, तुम कह रहे थे कि मिताली, मां को देखने गांव गई है. फोन कर के उस की मां का हाल तो पूछो.’’

‘‘हां, पूछ लूंगा.’’

‘‘अभी बात करो और धीमी आवाज में स्पीकार औन कर लेना. देखता हूं, मैं भी कुछ सहयोग कर दूंगा. ऐसी लड़की की सहायता करनी ही चाहिए,’’ दिनेश ने आवाज सुनने के लिए फोन पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहा.

‘‘चलो ठीक है. हैलो मिताली, अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’

‘‘थोड़ी बेहतर हैं सर. मैं मां के पास ही बैठी हूं. पड़ोसी भी बैठे हैं यहां. मैं बाद में आप से बात करती हूं. ओके बाय,’’ और फोन बंद कर दिया.

तभी दिनेश ने कौशल का हाथ पकड़ा और बिना कुछ कहे उस तरफ ले गए जहां से मिताली का आधा चेहरा, पीठ, हंसना आदि स्पष्ट दिख रहे थे.

कौशलजी बुत बने खड़े रह गए.

‘‘ओह, यह तो मिताली है और वह युवक हमारे ब्लौक के आखिरी छोर पर रहने वाला रितेश है. उस की सुंदर पत्नी व 2 बच्चे हैं. औफिस के वक्त यह यहां पर? इतने मुखौटे…इतनी चालें…मिताली का भोला चेहरा…आंसुओं से डबडबाती आंखें…मां की बीमारी की बात, अपनी नौकरी की कहानी जो कि रिसैशन के कारण छूट गई और उसे यह फ्रैंड्स क्लब मजबूरी में जौइन करना पड़ा. और भी न जाने क्याक्या…ओह, मैं तो मूर्ख ही बनता रहा और न जाने कब तक बनता रहता. अगले माह उस के फ्लैट के लिए 1 लाख रुपए देने वाला था.’’

कौशलजी का चेहरा दुख, छलावे और पछतावे से रोंआसा हो उठा. आवाज भर्रा उठी, ‘‘खैर…बस, अब यह एकाकीपन और नहीं भटकाएगा, और न यह मेरे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा पाएगा.’’

स्वयं को दृढ़तापूर्वक संयत करते हुए कौशलजी ने दूसरी ओर कदम बढ़ा दिए.

‘‘यह हुई न दिलदार वाली बात. मैं आज बहुत खुश हूं. मेरा दोस्त वापस आ गया है,’’ कह कर दिनेश ने अपना हाथ कौशल के कंधे पर रख दिया.

पछतावा: रजनीश रात में क्या चीखता था?

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा. दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है  इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है ’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू ’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या ’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया. रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया. दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू ’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न ’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया. दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा. शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया. यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था. बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा ’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं  अपने लाड़ले को इधर भेज.’’ रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं  पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है  चल, ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’ ‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था. इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती. दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता. मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’ मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता.

समय बीतता गया. अब रजनीश 21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगर निगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था. घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था. मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’ रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’ रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘ यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’ दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से  आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया.

पर्यावरण के लिए भी अच्छी है ज्वाइंट फैमिली, जानें कैसे?

संयुक्त परिवार कोई दकियानूसी सामाजिक परंपरा नहीं. इस में परिवार के सदस्यों की भावनात्मक सुरक्षा, सहयोग, सहभागिता और घर की सुरक्षा बनी रहती है. खेद की बात है कि संयुक्त परिवार की परंपरा अब टूटन और बिखराव के कगार पर है. आज के युग में इसे आउटडेटेड माना जाता है. लोगों को अधिक स्वतंत्रता, अधिक उत्साह और अधिक उत्तेजना चाहिए जो उन्हें संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटे परिवार में दिखाई देती है.

बिजनैस एग्जीक्यूटिव विजय सिन्हा और सिविल इंजीनियर अजय सिन्हा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के गुलमोहर पार्क क्षेत्र में अलगअलग बंगलों में रहते हैं. केवल 2 से 3 सदस्यों के ये छोटे परिवार अलग रहने में अधिक स्वतंत्र और उत्साहित नजर आते हैं. इन्हीं की तरह दिल्ली जैसे महानगरों में ही नहीं, अनेक राज्यों में कई परिवारों के सदस्य ऐसे हैं जिन्होंने एक छत के नीचे बड़े परिवारों में न रहते हुए अपने लिए अलग घर बनाए हैं. हालांकि केवल उत्साह और स्वतंत्रता की चाह ने न केवल लोगों को एकदूसरे से दूर किया है और आत्मकेंद्रित बनाया है बल्कि पर्यावरण को भारी मात्रा में क्षति भी पहुंचाई है.

एक संयुक्त परिवार बिखर कर 3-4 घरों में रहने लगा है. छोटे परिवारों की बढ़ती संख्या के चलते ऊंचीऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं. जंगलों को काट कर शहर बसाने के लिए कंकरीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं जिस से प्रकृति में असंतुलन हो रहा है और पर्यावरण प्रभावित हो रहा है. कैसे, आइए नजर डालें.

पानी की खपत

संयुक्त परिवार के घर की सफाई में जो पानी खर्च होता था वह उस परिवार के विभाजित हुए 3 अलगअलग घरों में अब तीनगुना खर्च हो रहा है, जिस से पानी की कमी की समस्या उत्पन्न होती है. दिल्ली सरकार के सौजन्य से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति पानी की खपत गैलन में 1996 में 43.76 थी, 1997 में 80.24 हुई. 1998 में 94.11, 1999 में 94.09, 2000 में 91.15, 2002 में 93.04, 2010 में 49 और 2013 में 90 गैलेन की वृद्धि हुई. भविष्य में इस के क्या भयंकर परिणाम होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है.

अधिक बिजली की खपत

छोटे परिवारों की अधिकता के कारण बिजली के उपकरण भी बड़ी संख्या में प्रयोग किए जाते हैं. जहां 2 कूलर, 1 फ्रिज, 1 मिक्सी, टीवी, वाशिंगमशीन और 3-4 पंखे जैसे बिजली के उपकरणों की दोगुनी खरीदारी के साथसाथ बिजली की खपत भी जोर पकड़ने लगी है. बिजली पानी से पैदा की जाती है. जलस्रोतों के सूखने के कारण बिजली की पैदावार में कमी आई है क्योंकि बिजली की पूर्ति कम और मांग अधिक है.

कूड़े की समस्या

आगामी वर्षों में स्वस्थ वातावरण की इच्छा भी केवल कल्पनामात्र रह जाएगी क्योंकि एकल परिवार के लिए बनते अधिकाधिक इमारतों से निकलते कूड़े की समस्या अपना विकराल रूप धारण करने लगी है. कूड़े को एकत्र करने के लिए लैंड फीलिंग साइट की कमी की समस्या सरकार के सामने अभी से है तो भविष्य में क्या स्थिति होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है.

अतिरिक्त ईंधन

संयुक्त परिवार में 8-10 व्यक्तियों का खाना जितने समय और ईंधन के प्रयोग से पकता है उतने ही समय और ईंधन से 3-4 सदस्यों वाले छोटे परिवार के लिए बनता है. जितने अधिक घर उतने अधिक चूल्हे. फलस्वरूप ईंधन की खपत बढ़ती है.

वायु और ध्वनि प्रदूषण

अलगअलग घरों में वाहनों की अधिकता के कारण ध्वनि और वायु प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है. संयुक्त परिवार में जहां एक स्कूटर व कार से काम चल सकता है वहां छोटे परिवारों में भी 1 कार या स्कूटर की जरूरत होती है. यानी एक वाहन की जगह 3 वाहनों का प्रयोग होता है. इस के अतिरिक्त दीवाली और दशहरा जैसे पर्वों में एक बड़े घर में हर्षोल्लास के साथ त्योहार मनाया जाता है. पटाखे, दीए आदि जलाए जाते हैं लेकिन अब न तो एकल परिवार की व्यवस्था में एकजुट हो कर खुशियां मनाने की बात रहती है और न ही एक बड़े घर को सजाने की बात रहती है. फलत: एकल परिवार के चलते घर को सजाने के लिए न केवल दीए, कैंडल की खपत बढ़ती है बल्कि पटाखों को जलाने की संख्या भी अधिक होती है. परिणामस्वरूप ध्वनि और वायु प्रदूषण पर्यावरण में जहर घोलते हैं.

भारत के पर्यावरण विशेषज्ञों का ही नहीं बल्कि विदेशों के पर्यावरण वैज्ञानिकों का भी मानना है कि एकल परिवार भविष्य में प्रकृति को और भी भारी नुकसान पहुंचाने वाले हैं. भारत में खासतौर से इस की विकृत स्थिति होगी. पर्यावरणविद जियनज्यू लियू के एक विस्तृत अध्ययन के अनुसार, भारत में जैव विविधता की भयंकर स्थिति है. वह इसलिए कि जैव विविधता के कारण भारत में अनेक प्रजातियां मानवीय प्रक्रियाओं के कारण संकट में पड़ी हैं. ऐसे में हमें ही इस समस्या से निबटने के लिए तैयार होना होगा. अब तक एकल परिवार का लुत्फ उठा रहे व्यक्ति इस बात को समझ लें कि एकता की शक्ति न केवल संयुक्त परिवार के तौर पर मानवीय संबंधों को मजबूत आधार देती है बल्कि पर्यावरण के लिए भी जीवनदायी है. लिहाजा, टूटते संयुक्त परिवारों का संरक्षण कर हम न सिर्फ पर्यावरण को असंतुलित होने से बचा सकते हैं बल्कि मधुर संबंधों व रिश्तों को एक छत के नीचे फिर से जी सकते हैं.

विपक्ष मजबूत होगा तभी लोकतंत्र जीवित रहेगा

एक इंग्लिश कहावत है– ‘विनिंग इज नौट औलवेज अ विक्ट्री एंड लूजिंग इज नौट औलवेज अ डिफीट’ अर्थात जीत हमेशा विजय नहीं होती और हारना हमेशा पराजय नहीं. 2024 लोकसभा चुनाव परिणाम इस कहावत का यथार्थ रूप है, जहां भाजपा गठबंधन की सरकार के सामने जनता ने एक मजबूत विपक्ष खड़ा कर दिया है. लोकतंत्र में जनता सिर्फ सरकार नहीं चुनती, वह विपक्ष भी चुनती है. इस बार उस ने जैसा मजबूत विपक्ष चुना है उतना मजबूत विपक्ष आजाद भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं रहा है. इस मजबूत विपक्ष के चलते तानाशाही का सपना देखने वाले अब दशकों तक संविधान से छेड़छाड़ की जुर्रत और अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे.

सत्ता के सिंहासन पर आसीन व्यक्ति अपने मन की बात कितनी ही कर ले लेकिन जब मतदाता अपने मन की बात सुनाता है तो ‘राजा’ की सारी बातें धरी की धरी रह जाती हैं. इस बार के आम चुनाव में मतदाताओं ने न तो एनडीए की ‘400 पार’ की हुंकार सुनी और न ही इंडिया गठबंधन के बहुमत की पुकार पर कान धरा. उस ने तो भाजपा को बहुमत के आंकड़े से दूर रख कर सहयोगी दलों पर उस को ऐसा निर्भर किया कि सरकार तो बन गई मगर पहले की तरह उस में मनमानी करने का अवगुण नहीं रहा क्योंकि सामने इंडिया गठबंधन जैसा ताकतवर विपक्ष भी खड़ा कर दिया. लोकतंत्र के लिए विपक्ष की मजबूती जरूरी भी है क्योंकि जब एक पक्ष पहलवान हो जाए और दूसरा पक्ष कुपोषित रह जाए तो सामंजस्य नहीं बैठता और मजबूत पक्ष लगातार विपक्ष की आवाज दबाने व अपनी मनमानी पर उतारू रहता है.

देश में इस से पहले कई बार कमजोर सरकारें रही हैं, लेकिन इतना मजबूत विपक्ष कभी नहीं रहा. पहले कई बार विपक्ष में ज्यादा सांसद होते थे लेकिन वे चूंकि एकदूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ कर आते थे, लिहाजा वह साझा विपक्ष नहीं बन पाता था. पहली बार ऐसा हुआ है कि संसद में सत्तारूढ़ गठबंधन 293 सांसदों के साथ एकतरफ है तो दूसरी ओर 204 सांसदों का मजबूत विपक्ष एक मत से खड़ा है. अगर इस में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को भी जोड़ लें तो संख्या 233 हो जाती है. इस से पहले आखिरी बार 1989 में कांग्रेस ने 197 सीटें जीती थीं और लोकसभा में एक मजबूत विपक्ष की मौजूदगी दिखाई दी थी, लेकिन इस बार उस से भी मजबूत विपक्ष जनता ने सत्ताधारी पार्टी के सामने खड़ा कर दिया है. कुछ इस अंदाज में कि अब चलाओ अपनी मरजी, हम देखेंगे कैसे चलाते हो.

गौरतलब है कि पिछले 10 वर्षों में विपक्ष को पूरी तरह से दरकिनार कर के भारतीय जनता पार्टी ने संसद की कार्यवाही चलाई, क्योंकि वह बहुमत में थी. विपक्ष की गैरहाजिरी में अनेक विधेयक पास कराए गए. विपक्ष के सांसदों के निलंबन का इतिहास देश ने पिछले 10 वर्षों में बनते हुए देखा. आश्चर्जनकरूप से विपक्ष के डेढ़ सौ सांसद एक बार में निलंबित कर दिए गए. वे संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने रातदिन धरने पर बैठे रहे और सरकार ने उन की तरफ फूटी आंख भी न देखा. संसद के अंदर मनमानी की जो परंपरा स्थापित की जा रही थी उसे रोकने में जनता इस बार सफल हुई है. यह जनता की जीत है जो लोकतंत्र की सब से सुखद जीत के रूप में दर्ज होगी.

लोकतंत्र को केवल विपक्ष की उपस्थिति में ही मापा जा सकता है. म्यांमार में लोकतंत्र की महान योद्धा आंग सान सू की कहती हैं कि विपक्ष को बुरा कहना लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को न समझ पाना है और विपक्ष को दबाना तो लोकतंत्र की जड़ों को खोदने जैसा है.

लोकतंत्र को मजबूत रखना है तो विपक्ष का कद्दावर होना जरूरी है. इस में कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के 10 वर्षों का कार्यकाल कई उपलब्धियों और धारा 370 हटाने जैसे साहसिक फैसलों से भरा पड़ा है. उन के कार्यकाल में दुनिया के दूरदराज हिस्से तक भारत की हुंकार सुनाई दी है लेकिन उन का कार्यकाल नोटबंदी जैसे कई बेवकूफी भरे फैसलों से भी भरा रहा है. यह कार्यकाल जनता का पैसा अपने उद्योगपति दोस्तों के तिजोरियों में भरने और किसानों, मजदूरों व विरोधियों के दमन की दास्तां भी बयान करता है. मतदाताओं को कहीं न कहीं यह महसूस हो रहा था कि देश में विपक्ष निरंतर कमजोर होता जा रहा है और सत्ता इस का फायदा उठा रही है. सत्ताधारी दल से जुड़े नेताओं ने आरक्षण ख़त्म करने, संविधान बदलने और ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सपने को साकार करने की कोशिश की तो मतदाताओं के कान खड़े हो गए. लोकतंत्र में किसी पार्टी के समूल नाश के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता है? फिर कांग्रेस जैसी पार्टी को समाप्त करने की बात करना जो आजादी के समय से एक वट वृक्ष की तरह खड़ी है, जिस के पत्ते कुछ समय के लिए मुरझा भले जाएं मगर जिस की जड़ें बहुत गहरी हैं. अपना एकछत्र राज कायम करने के लिए भाजपा ने सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, अन्य दलों, जैसे आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसियों को जिस तरह हथियार बना रखा था, उस पर जनता की बहुत गहरी नज़र थी.

इस लोकसभा में चूंकि भाजपा बहुमत से दूर होने के कारण गठबंधन के अन्य दलों के सहयोग से सत्ता पर आसीन हुई है इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां अपने गठबंधन की तरफ से भी कम नहीं हैं. सब से बड़ा सवाल तो यह पैदा हो गया है कि ‘मोदी की गारंटी’ का हुंकार भरने वाले व्यक्ति के लिए क्या अब दूसरे दलों की राय के आगे झुक कर चलना आसान होगा?

हालांकि चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान ने पूरे 5 साल भाजपा के साथ बने रहने का वादा किया है लेकिन नायडू और नीतीश राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं. वे मुफ्त में समर्थन नहीं देंगे. अब उन का वक्त आया है तो वसूली भी जरूर करेंगे. इन तेजतर्रार और मौकापरस्त नेताओं की मांगों को मोदी दरकिनार भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि पल में पाला बदलने वाले कब सरकार गिरा दें, कह नहीं सकते. और भारतीय मतदाता तोड़फोड़ की इस प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता. भविष्य के चुनावों में वह भाजपा को पूरी तरह खारिज भी कर सकता है. भूलना नहीं चाहिए कि महाराष्ट्र में भाजपा की पराजय का बड़ा कारण यह तोड़फोड़ ही रही है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में इस साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. अगर साझा विपक्ष इन राज्यों में भी लोकसभा चुनाव के नतीजे को दोहराता है तो देशभर के लोगों के बीच विपक्ष की स्थायी एकजुटता का मैसेज जाएगा, जिस से आगे की राजनीति की दिशा तय होगी.

इस बार संसद में ऐसे अनेक विपक्षी नेता हैं जो वाक कौशल में प्रवीण हैं. पहले विपक्ष के नाम पर सिर्फ राहुल गांधी ही नजर आते थे, जो पूरी ताकत से सदन में जनता की बात रखने की कोशिश करते थे, मगर सत्ता के अहंकार में डूबे नेताओं की चीखचिल्लाहटों और छींटाकशी के बीच उन की बात पर स्पीकर भी ज्यादा ध्यान नहीं देता था या देना नहीं चाहता था. नतीजा, विपक्ष को बारबार वौकआउट करना पड़ता था. मगर अब सदन के अंदर विपक्षी नेताओं की बात न सिर्फ ध्यान से सुनने के लिए सत्तादल और स्पीकर बाध्य होंगे, बल्कि यह भी हो सकता है कि वौकआउट करने की बारी अब सत्ता दल के नेताओं की हो.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से टक्कर लेने का माद्दा सिर्फ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव में था. उन्होंने वहां कई बार योगी की बातों पर कटाक्ष किया, विरोध किया और उन को सुना गया. अब अखिलेश यादव देश की संसद में पहुंच गए हैं, वह भी अकेले नहीं बल्कि अपने 37 नेताओं की मजबूत सेना के साथ, जिस में उन की पत्नी और भाई भी शामिल हैं. अब सदन में पत्नी डिम्पल का साथ होगा तो जनता की बात और जोरशोर से उठाएंगे वे.

तृणमूल कांग्रेस के भी 29 नेता इस बार संसद में मौजूद होंगे, जिस में अनेक मजबूत नेता हैं. उन में महुआ मोइत्रा, अभिषेक बनर्जी, आजाद कीर्ति झा, शर्मिला सरकार, अरूप चक्रवर्ती, शत्रुघ्न सिन्हा के सवालों का सामना एनडीए को करना होगा. इन में से कई ऐसे नेता हैं जिन को परेशान करने में भाजपा ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

कांग्रेस से राहुल गांधी अब अपने 99 नेताओं के साथ पूरे दमखम से सदन में ताल ठोकेंगे. उज्जवल रमण सिंह और इमरान मसूद जैसे कांग्रेसी नेताओं का साथ उन्हें ताकत देगा. आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद इस बार विपक्ष की एक दमदार आवाज होंगे वहीं औल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के तर्कों की काट ढूंढना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा.

विपक्षी पार्टियों और विपक्षी राजनीति दोनों के लिए लोकतंत्र को मजबूत करने का यह बड़ा मौका है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि किस बात के लिए मतदाताओं ने विपक्ष को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. विपक्ष का पूरा प्रचार इस बात पर केंद्रित था कि संविधान की रक्षा करनी है, लोकतंत्र की रक्षा करनी है और आरक्षण बचाना है. आरक्षण को तो खैर अभी कोई खतरा नहीं दिख रहा है लेकिन संविधान और लोकतंत्र के सामने जो प्रत्यक्ष चुनौती है और जिसे पिछले 10 वर्षों में संसद की कार्यवाही के दौरान सब ने देखा है उस से निबटने की जिम्मेदारी मतदाताओं ने विपक्ष को दी है.

पिछले 10 वर्षों में देश ने देखा कि कैसे तमाम संसदीय परंपराओं को ताक पर रख दिया गया और भाजपा ने सिर्फ अपनी मनमरजी चलाई. 17वीं लोकसभा का तो पूरा कार्यकाल बीत गया मगर उपाध्यक्ष की ही नियुक्ति नहीं हुई. संसद की स्थाई समितियों की बैठकें भी न्यूनतम हो गईं. भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की ओर से सरकार के कामकाज को ले कर लोक लेखा समिति को जो रिपोर्ट भेजी जाती थी उसे भी न्यूनतम कर दिया गया था, जो रिपोर्ट आती भी थी उस पर या तो चर्चा नहीं होती थी और चर्चा होती थी तो उस में बहुमत के दम पर विपक्ष की आवाज को दबा दिया जाता था.

पहले आमतौर पर सरकार की ओर से लाए गए विधेयक संसदीय समिति में चर्चा के लिए भेजे जाते थे लेकिन बीते 10 वर्षों में गिनेचुने विधेयक ही संसदीय समितियों में भेजे गए. जहां सत्ता पक्ष ने अपने विशाल बहुमत के दम पर विपक्ष की असहमतियों को वहीं दबा दिया और अगर किसी तरह से विपक्ष की असहमति सदन में पहुंच गई तो वहां बहुमत के दम पर उसे खारिज कर दिया गया. अब विपक्ष का दायित्व होगा कि वह सत्ता पर दबाव बना कर पुरानी संसदीय परंपरा को बहाल करे. इस काम में उसे उन पार्टियों की भी मदद मिल सकती है जो सरकार के साथ हैं. तेलुगूदेशम पार्टी और जनता दल यू जैसी पार्टियों को मुद्दों के आधार पर सरकार की मनमानी का विरोध करने में दिक्कत भी नहीं होगी, बशर्ते विपक्ष उन के साथ अच्छा तालमेल बना ले.

पिछले 10 साल इस बात के गवाह रहे हैं कि भाजपा अपने बहुमत के दम पर विपक्ष को खत्म करने या कमजोर करने का काम करती रही है. अब तो लोग इस बात की गिनती भी भूल गए हैं कि भाजपा ने पिछले 10 वर्षों में कितने राज्यों में चुनी हुई सरकारों को गिरा दिया. मतदाता अपनी पसंद की सरकार चुनता और भाजपा ‘औपरेशन लोटस’ चला कर चुनी हुई सरकार को गिरा देती. मगर अब विपक्ष को सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र पर इस तरह का हमला न हो.

इसी तरह मोदी सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों की मदद से जिस तरह से विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया, उस की भी मिसाल नहीं मिलती. पहले भी सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करती थीं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि चुनौती दे कर विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर देने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया हो.

पिछले 10 वर्षों में जब लोकतंत्र पर इस तरह के हमले हो रहे थे तब विपक्ष इतना कमजोर था कि न तो संसद के अंदर उस की आवाज सुनी जाती थी और न सड़क पर वह आंदोलन कर पाता था. इस बार उस के पास संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह भरपूर ताकत है.

भाजपा के 10 वर्षों के शासनकाल में कानून बनाने, कई बिलों को पास करने में कोई लंबीचौड़ी चर्चा नहीं हुई. विपक्ष को सदन से बाहर कर कई कानून बने और कई विधेयक पास हुए. कई बार एकतरफा फैसले लिए गए. लेकिन अब उस से हट कर संसद में एक स्वस्थ वादविवाद और चर्चा होगी. बीते 10 वर्षों में तमाम जांच एजेंसियां अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता खो चुकी हैं. यहां तक कि वे सत्ता पक्ष के सदस्य के रूप में कम करने लगी हैं.

मोदी सरकार ने अपनी पसंद के अधिकारियों को सालोंसाल तक सेवा विस्तार दे कर एक ही पद पर बैठाए रखा, जिस की वजह से उन की प्रतिबद्धता संविधान और संस्था से ज्यादा सरकार के साथ हो गई है. इस गड़बड़ी को दुरुस्त करना भी विपक्ष की जिम्मेदारी होगी. उसे बहुत बारीकी से सरकार के कामकाज पर नजर रखनी होगी, संसद में रोकना होगा और कमियों को जनता के सामने लाना होगा. किसी भी लोकतंत्र के बेहतर तरीके से काम करने के लिए जरूरी है कि उस में असहमति और नाराजगी की गुंजाइश हो और सत्तारूढ़ पार्टी पर निगाह हो. 2024 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सब से बड़ा चुनाव रहा, जिस में करीब 64 करोड़ लोगों ने वोट डाला और एक अच्छा जनादेश दिया, जो सभी पार्टियों के लिए एक सबक है.

महज गपोड़िए और पालतू बन कर रह गए इंडियन पोडकास्टर्स

यूट्यूब पर पोडकास्ट चलाने वाले इन्फ्लुएंसर्स की संख्या खूब बढ़ रही है. हालत यह है कि इंस्टाग्राम ओपन करते ही इन्हीं की काटी हुई शौर्ट रील्स जबरदस्ती हर दूसरी फीड में आ जाती है. इन रील्स में काम का होताजाता कुछ नहीं, बस कैमरे के सामने एक हैडफोन पहने पोडकास्टर कुरसी पर बैठे दिखता है. थोड़ाबहुत पैसा जोड़ लिया हो तो रौड कंपनी का ब्लैक माइक्रोफोन सामने लगा रहता है और ट्रैंडिंग बैकग्राउंड म्यूजिक से बातों को ऐसे सैंसेशनलाइज किया जाता है जैसे इस से जरूरी कुछ और नहीं.

इंडिया में अधिकतर पोडकास्टर्स यूट्यूब पर अपनी गपों की दुकान चला रहे हैं. ध्यान से यदि इन के पोडकास्ट सुनें तो समझ आ जाएगा कि ये डिजिटल एरा में ठीक उसी तरह के गपोड़िए हैं जैसे हर रिश्तेदारी में मिर्चमसाला लगा कर यहां से वहां करने वाली कोई न कोई चाचीताई होती है, या ये ठीक उसी तरह के गपोड़िए हैं जैसे चौपालों या ड्राइंगरूम में ज्ञान दे रहे शर्मा और वर्मा अंकलों की अधकचरी राजनीतिक व सामाजिक समझ.

माजरा यह है कि पोडकास्ट इन्फ्लुएंसर बनने में लगताजाता कुछ नहीं है. एक छोटे से कमरे में स्टूडियो सैटअप लगाना होता है. दीवारों पर वौयस कैंसिलेशन वाले गद्दे, अगर यह नहीं भी है तो बिस्तर के गद्दे ही जमीन पर बिछा कर काम चल जाता है. पीछे काला परदा, एक एचडी कैमरा (ईएमआई पर खरीदा फोन ही सही), कोई भी ऐसा लैपटौप जिस में एडिटिंग सौफ्टवेयर चल सके, काफी है. अगर हलका बजट ज्यादा है तो ट्राईपोड, कौलर माइक और लाइटिंग किट भी जोड़ लिया जाता है. कुल मिला कर 15-20 हजार रुपए लगा कर किसी भी ऐरेगैरे को ज्ञानगपोड़ी बनने का लाइसैंस यूट्यूब दे ही देता है.

यही कारण है कि यूट्यूब पर कचरा परोसने वाले ऐसे ढेरों पोडकास्टर्स उग आए हैं जो न सिर्फ लोगों का घंटों समय बरबाद कर रहे हैं बल्कि ऐसी अधकचरी जानकारियां सोशल मीडिया पर ठेल रहे हैं जिन से झूठ और आलतूफालतू बातें ही यहांवहां फैल रही हैं. उदाहरण के लिए ‘रियल टौक क्लिप्स’ नाम के एक यूट्यूब चैनल को लेते हैं.

इस चैनल को 3 लड़के चलाते हैं. इन के पोडकास्ट का पैटर्न इंटरव्यू बेस्ड है. ये ऐसे लोगों को एक्सपर्ट बता कर इंटरव्यू लेते हैं जो अजीबोगरीब मिथकीय बातें करते हैं. इंटरव्यू सिर्फ नाम का होता है. चुनाव के समय जिस तरह न्यूज़ चैनल्स पीएम मोदी की जीहुजूरी वाले इंटरव्यू ले रहे थे, इस में भी बस इसी तरह के इंटरव्यूज होते हैं. किसी भी नत्थूखैरा, जिसे जाननेसमझने से जानकारी कम, बेड़ा गर्क ज्यादा होगा, को गेस्ट के तौर पर बैठा लिया जाता है और उस से कोई काउंटर सवाल नहीं किया जाता.

इन तीनों लड़कों का यह चैनल जानकारी देने के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का अड्डा बना हुआ है. एक उदहारण से समझिए, 11 जून को ये ऐसा ही एक 45 मिनट के करीब का वीडियो अपलोड करते हैं, जिस में हर्ष गोयल नाम के एक रुद्राक्ष एक्सपर्ट को बुलाते हैं. अब कोई बताए कि रुद्राक्ष पहनने में कब से एक्सपर्टीज आने लगी है? होस्ट अपनी बात स्टार्ट करता है कि यह पोडकास्ट रुद्राक्ष पहनने के नियमों पर है.

इस वीडियो में ‘एक्सपर्ट’ हर्ष गोयल बताता है कि जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है उसे खुद भगवान शिव नमन करते हैं. यह वह शिवपुराण के 25वें अध्याय के आधार पर बताता है. इस के अलावा वह कहता है कि ‘सही समय पर रुद्राक्ष धारण कर लिया जाए तो कैंसर जैसी बीमारियों से बचा जा सकता है.’ अब ऐसी बातें सुन कर कोई भी समझदार व्यक्ति अपना माथा धुन ले.

अब अगर इन गपोड़ी इन्फ्लुएंसर की जगह कोई जिज्ञासु पोडकास्टर होता तो काउंटर में सवाल जरूर पूछता कि रुद्राक्ष में यदि इतनी ही ताकत है तो सरकार से देशभर के सारे सरकारी और प्राइवेट अस्पताल बंद करवा कर घरघर रुद्राक्ष बंटवाने की मुहिम क्यों नहीं शुरू कर देते? जब 200 रुपए के रुद्राक्ष की माला से ही सब कष्ट दूर हो रहे हैं, तो हजारों रुपए पर खर्चने की जरूरत ही क्या है? मगर नहीं, ऐसे भ्रम फैलाना तो इन पोडकास्टर्स का धंधा है.

इस चैनल में यह ऐसी अकेली कचरा वीडियो नहीं है. 2 हफ्ते पहले यह यूट्यूब चैनल ‘लड़की की वजह से अपने ही दोस्त पे किया काला जादू’ नाम से एक वीडियो अपलोड करता है. इस में गेस्ट के रूप में अक्षय वशिष्ट नाम के व्यक्ति को बुलाया जाता है. एक तो समझ नहीं आता ये पोडकास्ट वाले कहां से एक से बढ़ कर एक नमूने ढूंढ लाते हैं.

अक्षय इस वीडियो में बिना प्रूफ के बस सुनीसुनाई बातों से भूतप्रेत वाला किस्सा सुनाता है, जिस में एक किस्सा, रोहित नाम के यूपी के लड़के का होता है जिसे उसी का दोस्त उस की गर्लफ्रैंड का वशीकरण कर लेता है. अक्षय इस वीडियो में लम्बीलम्बी गपें हांक रहा होता है और होस्ट ‘ओये…क्या बात है…सच में…ओयेहोए…अच्छा जी’ कहते रहते हैं. इस चैनल पर ऐसी ढेरों वीडियोज हैं जिन पर कायदे से रिपोर्ट की जाए तो चैनल पर अंधविश्वास फैलाने के चक्कर में छापा पड़ जाए.

‘रियल टौक क्लिप्स’ के अलावा ‘दोस्तकास्ट’ नाम का एक यूट्यूब चैनल है. इसे चलाने वाले का नाम विनम्र कसाना है. इस के पोडकास्ट देखें तो इस में मिक्स कंटैंट देखने को मिलता है. इस में यूनियन मिनिस्टर हरदीप पुरी से ले कर पत्रकारिता का फुका कारतूस प्रदीप भंडारी भी दिखने को मिलता है, जिस ने पत्रकार जमात का नाम ही खराब किया है. इस चैनल के अधिकतर एपिसोड मौजूदा सरकार को एकतरफा सपोर्ट करने वाले होते हैं. आजकल बगुलेभक्तों के बीच फेमस हो रहा अक्षत गुप्ता का इंटरव्यू भी इस में दिखता है जिस की रोजीरोटी ही धर्मप्रचार से चलती है.

अगर पौलिटिकल वीडियो से हट कर भी देखा जाए तो रजत दलाल जैसे इंटरनैट माफिया को यह अपने शो में गेस्ट के तौर पर बुलाता है, जिस की वीडियो में क्या है, क्यों है कुछ पता नहीं चलता. सवाल पूछे जाते हैं कि मैक्सटर्न और एल्विश की लड़ाई में उस की एंट्री कैसे होती है. जिस पर रजत कहता है, “एक मैं ने स्टोरी डाली थी जो पिटने के काम करेगा वो पिटेगा. उस पर 74 हजार शेयर थे. यह स्टोरी इतनी घूमी कि लगा रजत दलाल इन के झगड़े में एंट्री कर रहा है. पर मैं ने दोनों से बात की और बात ख़त्म की.”

अब कोई भी समझदार बताए कि इन तीनों के झगड़े से आम दर्शकों का क्या लेनादेना और वैसे भी, ये कौन सा नैशनल, एजुकेशनल या लोकल इशू है जिसे दर्शकों का जानना बहुत जरूरी है. एल्विश जो युवाओं को नशे करना सिखा रहा है, मैक्सटर्न जो सस्ती पौपुलैरिटी से पैदा हुआ है और रजत दलाल जो लफंगई करता है आदि जैसों को युवा जानें ही क्यों? क्यों इन्हें ही युवाओं के बीच थोपा जा रहा है?

हैरानी यह कि लफंगई करने वालों को यह चैनल खुला स्पेस दे रहा है, साथ में, उन्हें यूथ आइकन की तरह प्रेजेंट कर रहा है. इस शो में आए गेस्ट गालीगलौज करते हैं. हिंदी बोलने वाले गाली देते समय जितने भौंडे सुनाई देते हैं, इंग्लिश बोलने वाले उस से ज्यादा अश्लील दिखाई देते हैं.

अब एक नजर ‘श्याम शर्मा शो’ चैनल पर डालें तो यह भी सिर्फ अपने पोडकास्ट पर गपें हांकता है. कोई ठोस प्रमाण और वजहें इस के पोडकास्ट में दिखाई नहीं देतीं. इस के ढाई लाख से अधिक सब्सक्राइबर्स हैं. इस के चैनल पर भी घूमफिर कर एक ही तरह के गेस्ट यहां से वहां दिखाई देते हैं. गेस्ट भी सिर्फ कचरा परोस रहे हैं और इन्फ्लुएंसर, बस, सिर ही हिला रहे हैं.

इस चैनल की भी अधिकतर जानकारियों का सोर्स और एजेंडा भाजपा के दफ्तर से बन कर आए लगते हैं. चैनल का काम एक तरह का नैरेटिव सैट करने का दिखाई देता है, जैसे ‘हाउ टू रीक्लैम काशी’, ‘डार्क रिऐलिटी औफ मुग़ल’, ‘हाउ जयशंकर ट्रांसफौर्म्ड इंडियन फौरेन पौलिसी’, ‘फौरेन यूनिवर्सिटी स्प्रेडिंग एंटी हिंदू एजेंडा’ वगैरहवगैरह.

ये तो महज कुछ उदाहरण हैं. राज शमामी, बीर बाइसैप्स, सुशांत सिन्हा जैसे बड़ेबड़े पोडकास्टर्स हैं जो अपने शो में ऐसेऐसे लोगों को बुलाते हैं जिन्हें एक्सपर्ट कह कर इंट्रोड्यूस किया जाता है. इन इन्फ्लुएंसर्स के पास सैलिब्रिटीज तक जाते हैं. वहां जा कर उन की क्या क्वालिफिकेशन, एक्सपर्टीज और एक्सपीरियंस हैं, इन पर गोलमोल बातें होती हैं. दर्शक को एक्सपर्ट के नाम पर धेला कुछ नहीं मिलता. हां, कोई यहांवहां से टुकड़े जोड़ कर, किसी समुदाय, ग्रुप को टारगेट कर दे, कुछ भी एक घंटे तक बकबक कर दे वही एक्सपर्ट बन जाता है. एक्सपर्ट ऐसे दिखाई देते हैं जैसे पनवाड़ी की दुकान पर कोई रहस्यमयी बात बता रहे हों. समस्या यह कि ये पोडकस्टर्स अपने दिए कंटैंट तक को सीरियसली नहीं लेते. इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन के दर्शक को ये कितना बुरा इफैक्ट पहुंचा रहे हैं.

भारत में इस समय कई पोडकास्ट चैनल्स हैं. ये चैनल्स बनाए ही इसलिए गए हैं ताकि कंट्रोवर्शियल चीजों पर कुछनकुछ उलटीसीधी बात बाहर आ जाए. लोगों के बीच हल्ला गरम रहे, आउटपुट के नाम पर इन वीडियोज में से कुछ भी नहीं निकलता. व्यूअर्स अपना समय और पैसा बरबाद ही करते हैं. अगर इस का कोई प्रूफ चाहिए तो सोचिए आम समस्याओं पर ये क्या दिखा रहे हैं? क्या भूतप्रेत जैसी अंधविश्वास की कहानियां सीख देंगी? क्या सरकार के पक्ष में पोडकास्ट बनाना लोगों की समस्याओं को सुलझाएगा? गालीगलौज और किसी भी ऐरेगैरे को अपने चैनल पर बैठा कर बेकाम की बातें किस तरह की इन्फौर्मेशन दे रही हैं?

‘‘हमारे बारह’ मूवी प्रोपेगेंडा!   कितनी हकीकत, कितना फरेब

भारत में जनसंख्या विस्फोट है तो क्या इसका एकमात्र कारण मुसलमानों द्वारा अधिक बच्चे पैदा करना है. या फिर मुसलमान जानबूझकर अपनी संख्या बढ़ते जा रहे हैं. यह बातें सही हैं या गलत, यह अलग बहस का विषय है. लेकिन, फिल्म ‘हमारे बारह’ कुछ इसी तरह के प्रोपेगेंडा को लेकर बनाई गई है.  समाज में एक बड़ा वर्ग इसी तरह की चर्चा कर रहा है.

प्रोपेगेंडा मूवी के दौर में हिंदू-मुसलमान करने वाली कहानी खास करके सामने लाई जा रही हैं. रातोंरात चर्चा में आने का यह सबसे आसान रास्ता भी बन गया है. लेकिन, समाज के बीच इस तरह से विभाजन की लकीर खींचने वाला, दूसरे के प्रति दुर्भावना पैदा करने वाला प्रोपेगेंडा अच्छा तो कतई नहीं। फिल्म ‘हमारे बारह’ के संदर्भ में इसे देखा जाए तो एक तरह से मुसलमानों पर बड़ी तोहमत लगाई गई है. हकीकत क्या है और इसमें फरेब कितना है, इस पर नजर जरूरी है.

‘हमारे बारह’ मूवी ने भारत में मुसलमानों की बढ़ती आबादी पर सवाल उठाए हैं. इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से एक मुसलमान परिवार दर्जनभर बच्चे पैदा कर रहा है. इनके घरों की औरतें धड़ाधड़ एक के बाद एक बच्चा पैदा करने में लगी है. इसकी सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय का कहना था कि हमें इसके ट्रेलर में अभी भी आपत्तिजनक डायलॉग्स जारी है, सीबीएफसी जैसी वैधानिक संस्था अपना काम करने में विफल रही है. उच्चतम न्यायालय ने ऐसा उन आरोपों का संज्ञान लेते हुए किया जिसमें यह कहा गया है कि इसमें मुस्लिम महिलाओं का अपमान किया गया है.

हम दो… से हमारे बारह तक का बदलाव
टीजर रिलीज के समय यह मूवी अपने नाम की वजह से काफी चर्चा में आ गई. मूवी के पहले टाइटल ‘हम दो हमारे बारह’ ने ही इसकी आधी पब्लिसिटी कर दी. इस नाम से उपजे विवाद की वजह से इस मूवी का टीज़र सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. बाद में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के हस्तक्षेप के बाद इसका नाम ‘हमारे बारह’ कर दिया गया. एक विशेष वर्ग की ओर से इस मूवी को इस्लामोफोबिक करार दिया गया. इतना ही नहीं इस मूवी को कश्मीर फाइल्स, द केरला स्टोरी जैसी प्रोपेगेंडा फिल्मों से जोड़कर देखा गया. लोकसभा चुनाव के दिनों के आसपास टीज़र रिलीज होने की वजह से समाज के एक धड़े ने इस मूवी के कंसेप्ट को सही ठहराया, वहीं समुदाय विशेष के लोगों ने इस पर ऐतराज जताया.

एक-एक फोटो पर प्रोपेगेंडा का मुहर!  मूवी के पोस्टर पर लिखी लाइन ही फिल्म की सारी स्टोरी को बयां कर देती है.  इस पोस्टर पर एक कैची लाइन लिखी हुई है ‘चीन को पीछे छोड़ दिया’. पोस्टर में लीड एक्टर अन्नू कपूर की फोटो है, मंजूर अली खान संजारी के रूप में अन्नू कपूर पूरी अकड़ के साथ तन के खड़े हैं. उनके बैकग्राउंड में ढेर सारी उदास मुस्लिम प्रेगनेंट महिलाएं हैं, जिनके होंठ सिले हुए हैं. दरअसल पोस्टर के जरिए यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि मुस्लिम पुरुषों के लिए उनके घर की महिलाएं जनसंख्या बढ़ाने की फैक्ट्री हैं। एक अन्य पोस्टर में दिखाया गया कि अन्नू कपूर के साथ अलग-अलग उम्र के 11 बच्चे और एक प्रैगनेंट महिला मौजूद हैं. इसका संदेश साफ है कि संजारी साहब 12वें बच्चे के अब्बू बनने वाले हैं. लेकिन, क्या असलियत में वाकई देश की बढ़ती जनसंख्या के लिए पूरी तरह से मुसलमान जिम्मेदार हैं.

मुस्लिम और हिंदू घरों में बच्चों के चिल्लपों का अंतर चकित कर देगा
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 से 2021 के बीच मुस्लिम महिलाओं का प्रजनन दर 2. 36 रहा, वहीं इसी समयांतराल में हिंदू महिलाओं का प्रजनन दर 1. 94 पाया गया. रिपोर्ट के अनुसार अगर 100 मुसलमान महिलाएं अपने पूरे जीवनकाल में 236 बच्चे पैदा करती हैं, तो इनकी तुलना में उतनी ही संख्या में हिंदू महिलाएं 194 बच्चों को जन्म देती हैं, जो कम है इसलिए किसी के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि मुसलमानों का एकमात्र उद्देश्य भारत में अपनी जनसंख्या बढ़ाकर देश की डेमोग्राफी को अपने पक्ष में करना है, तो उनके लिए यह आंकड़ा आंख खोलने वाला है.  साल 1998 से 99 के बीच मुस्लिम महिलाओं की फर्टिलिटी रेट 3. 6 थी.  यानी साल 1999 से 2021 पहुंचते-पहुंचते इन्होंने बर्थ रेट पर काफी कंट्रोल किया है और इसी कारण इसमें करीब 1. 24 की कमी आई.

प्रोपैगेंडा मूवीज का जहर कितना गहरा 
आमतौर पर, द कश्मीर फाइल्स (2022), द केरला स्टोरी (2023), द वैक्सीन वार (2023), 72 हूरें  (2023),  रजाकार (2024) जैसी मूवी को प्रोपैगेंडा मूवी के रूप में माना गया. ये सभी फिल्में एक के बाद एक करके पिछले दो सालों से रिलीज होती रही हैं. क्या इन मूवीज का उद्देश्य सत्तारूढ़ पार्टी के हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाना था. रजाकार और  द कश्मीर फाइल्स मूवीज कहीं न कहीं यह इशारा कर रही थी कि हिंदुओं के नरसंहार में मुस्लिम समुदाय के हाथ को नकारा नहीं जा सकता है. वहीं द केरला स्टोरी में भी यह दिखाने की कोशिश की गई कि किस तरह हिंदू लड़कियों को बहलाफुसलाकर लव जिहाद के एजेंडे को सफल बनाया जा रहा है, 72 हूरें में यह दिखाया गया कि काफिरों को मारने के बाद जन्नत जाने से 72 हूरें मिलती है.  हाल ही में रिलीज हुई रजाकार मूवी ने तो मुसलमानों को गलत ठहराने के एजेंडे को काफी बल दिया. हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार के दृश्य इतने भयावह थे कि समुदाय विशेष के प्रति आसानी से घृणा का बीज बोया जा सकता है. सामाजिक समरसता और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इस तरह प्रयासों पर अंकुश जरूरी है।

 

फेसबुकिया प्यार : रितु के जाल में कैसे फंस गया विनोद

देर रात को फेसबुक खोलते ही रितु चैटिंग करने लगती. जैसे वह पहले से ही इंटरनैट पर बैठ कर विनोद का इंतजार कर रही हो. उस से चैटिंग करने में विनोद को भी बड़ा मजा मिलने लगा था. रितु से बातें कर के विनोद की दिनभर की थकान मिट जाती थी. स्कूल में बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते थका हुआ उस का दिमाग व जिस्म रितु से चैटिंग कर तरोताजा हो जाता था.

पत्नी मायके चली गई थी, इसलिए घर में विनोद का अकेलापन कचोटता रहता था. ऐसी हालत में रितु से चैटिंग करना अच्छा लगता था. विनोद से चैटिंग करते हुए रितु एक हफ्ते में ही उस से घुलमिल सी गई थी. वह भी उस से चैटिंग करने के लिए बेताब रहने लगा था.

आज विनोद उस से चैटिंग कर ही रहा था कि उस का मोबाइल फोन घनघना उठा, ‘‘हैलो… कौन?’’ उधर से एक मीठी आवाज आई, ‘हैलो…विनोदजी, मैं रितु बोल रही हूं… अरे वही रितु, जिस से आप चैटिंग कर रहे हो.’

‘‘अरे…अरे, रितु आप. आप को मेरा नंबर कहां से मिल गया?’’ ‘‘लगन सच्ची हो और दिल में प्यार हो तो सबकुछ मिल जाता है.’’

फेसबुक पर चैटिंग करते समय विनोद कभीकभी अपना मोबाइल नंबर भी डाल देता था. शायद उस को वहीं से मिल गया हो. यह सोच कर वह चुप हो गया था. अब विनोद चैटिंग बंद कर उस से बातें करने लगा, ‘‘आप रहती कहां हैं?’’

‘वाराणसी में.’ ‘‘वाराणसी में कहां रहती हैं?’’

‘सिगरा.’ ‘‘करती क्या हैं?’’

‘एक नर्सिंग होम में नर्स हूं.’ ‘‘आप की शादी हो गई है कि नहीं?’’

‘हो गई है…और आप की?’ ‘‘हो तो मेरी भी गई है, पर…’’

‘पर, क्या…’ ‘‘कुछ नहीं, पत्नी मायके चली गई है, इसलिए उदासी छाई है.’’

‘ओह, मैं तो कोई अनहोनी समझ कर घबरा गई थी…’ ‘‘मुझ से इतना लगाव हो गया है एक हफ्ते में… आप की रातें तो रंगीन हो ही रही होंगी?’’

‘यही तो तकलीफ है विनोदजी… पति के रहते हुए भी मैं अकेली हूं,’ कहतेकहते रितु बहुत उदास हो गई. उस का दर्द सुन कर विनोद भी दुखी हो गया था. उस ने अपना फोटो चैट पर भेजा. रितु ने भी अपना फोटो भेज दिया था. वह बड़ी खूबसूरत थी. गोलमटोल चेहरा, कजरारी आंखें… पतले होंठ… लंबे घने बाल देख कर विनोद का मन उस की मोहिनी सूरत पर मटमिटा था. वह उस से बातें करने के लिए बेचैन रहने लगा. मोबाइल फोन से जो बात खुल कर न कह पाता, वह बात फेसबुक पर चैट कर के कह देता. रितु का पति मनोहर शराबी था. वह जुआ खेलता, शराबियों के साथ आवारागर्दी करता, नशे में झूमता हुआ वह रात में घर आ कर झगड़ा करता और गालीगलौज कर के सो जाता.

रितु जब तनख्वाह पाती तो वह छीनने लगता. न देने पर वह उसे मारतापीटता. मार से बचने के लिए वह अपनी सारी तनख्वाह उसे दे देती. रितु विनोद से अपनी कोईर् बात न छिपाती. वह अपनी रगरग की पीड़ा जब उसे बताती, तब दुखी हो कर वह भी कराह उठता. स्कूल में बच्चों को अब पढ़ाने का मन न करता. पत्नी घर पर होती तो बाहुपाश में उस को… उस की पीड़ा को वह भ्ूल जाता. पर अब तो रितु की याद उसे सोने ही न देती. चैट से मन न भरता तो वह मोबाइल फोन से बात करने लगता. ‘‘हैलो… क्या कर रही हो तुम?’’ ‘आप की याद में बेचैन हूं. आप से मिलने के लिए तड़प रही हूं… और आप?’

‘‘मेरा भी वही हाल है.’’ ‘तब तो मेरे पास आ जाओ न. आप वहां अकेले हो और मैं यहां अकेली. दोनों छटपटा रहे हैं. मैं आप को पत्नी का सारा सुख दूंगी.’

रितु की बात सुन कर विनोद के बदन में तरंगें उठने लगतीं. बेचैनी बढ़ जाती. तब वह जोश में उस से कहता, ‘‘मैं कैसे आऊं… तुम्हारा पति मनोहर जो है. हम दोनों का मिलना क्या उसे अच्छा लगेगा?’’ ‘आप आओ तो मैं कह दूंगी कि आप मेरे मौसेरे भाई हो. वैसे, वे कल अपने गांव जा रहे हैं. गांव से लौटने में उन को 2-4 दिन तो लग ही जाएंगे. परसों रविवार है. आप उस दिन आ जाओ न. ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलेगा. मैं आप का इंतजार करूंगी,’ रितु का फोन कटा तो विनोद की बेचैनी बढ़ गई. वह रातभर करवटें बदलता रहा.

रविवार को विनोद उस से मिलने वाराणसी चल पड़ा. उस के बताए पते पर पहुंचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई. मकान की दूसरी मंजिल पर रितु जिस फ्लैट में रहती थी, उस में 2 कमरे, रसोईघर, बरामदा था. उस ने अपना घर खूब सजा रखा था, जिसे देख कर विनोद का मन खिल उठा. खातिरदारी और बात करतेकरते दिन ढलने लगा तो विनोद ने कहा, ‘‘आप से बात कर के बड़ा मजा आया. वापस भी तो जाना है मुझे.’’

‘‘कहां वापस जाना है आज? आज रात तो मैं कम से कम आप के साथ रह लूं… फिर कब मिलना हो, क्या भरोसा?’’ रितु ने इतना कहा, तो विनोद की बांछें खिल उठीं. इतना कह कर वह उस के गले लग गया. रितु कुछ नहीं बोली. ‘‘मैं आप की बात भी तो नहीं टाल सकता… चलो, अब कमरे में चल कर बातें करें.’’

विनोद ने कमरे में रितु को डबल बैड पर लिटा दिया और उस के अंगों से खेलने लगा. इतने में पता नहीं कहां से मनोहर उस कमरे में आ घुसा और विनोद को डपटा, ‘‘तू कौन है रे, जो मेरे घर में आ कर मेरी पत्नी का रेप कर रहा है?’’

मनोहर को देख विनोद घबरा गया. उस का सारा नशा गायब हो गया. रितु अपनी साड़ी ओढ़ कर एक कोने में सिमट गई. मनोहर ने पहले तो विनोद को खूब लताड़ा, लातघूंसों से मारा, फिर पुलिस को फोन मिलाने लगा.

विनोद उस के पैर पकड़ कर पुलिस न बुलाने की भीख मांगता हुआ उस से बोला, ‘‘इस में मेरी कोई गलती नहीं है. रितु ने ही फेसबुक पर मुझ से दोस्ती कर के मुझे यहां बुलाया था.’’ ‘‘मैं कुछ नहीं जानता. फेसबुक पर दोस्ती कर के औरतों को अपने प्यार के जाल में फांस कर उन के साथ रंगरलियां मनाने वाले आज तेरी खैर नहीं है. जब पुलिस का डंडा पीठ पर पड़ेगा तब सारा नशा उतर जाएगा,’’ कह कर मनोहर फिर से पुलिस को फोन मिलाने लगा.

‘‘नहीं मनोहर बाबू, मुझे छोड़ दो. मेरा भी परिवार है. मेरी सरकारी नौकरी है. मुझे पुलिस के हवाले कर दोगे तो मैं बरबाद हो जाऊंगा,’’ कहता हुआ विनोद उस के पैरों पर अपना माथा रगड़ने लगा. काफी देर बाद हमदर्दी दिखाता हुआ मनोहर उस से बोला, ‘‘अपनी इज्जत और नौकरी बचाना चाहता है, तो 50 हजार रुपए अभी दे, नहीं तो मैं तुझे पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’ इतना कहने के बाद मनोहर कमरे में लगा कैमरा हाथ में ले कर उसे दिखाता हुआ बोला, ‘‘तेरी सारी हरकत इस कैमरे में कैद है. जल्दी रुपए ला, नहीं तो…’’ ‘‘इतने रुपए मैं कहां से लाऊं भाई. मेरे पास तो अभी 10 हजार रुपए हैं,’’ कह कर विनोद ने 2-2 हजार के 5 नोट जेब से निकाल कर मनोहर के सामने रख दिए. गुस्से से लालपीला होता हुआ मनोहर बोला, ‘‘10 हजार रुपए…?

50 हजार रुपए से कम नहीं चाहिए, नहीं तो पुलिस को करता हूं फोन…’’ मनोहर की दहाड़ सुन कर विनोद रोने लगा. वह बोला, ‘‘आप मुझ पर दया कीजिए मनोहर बाबू. मैं घर जा कर बैंक से रुपए निकाल कर आप को दे दूंगा.’’

‘‘बहाना कर के भागना चाहता है तू. मुझे बेवकूफ समझता है. अभी जा और एटीएम से 15 हजार रुपए निकाल और कल 25 हजार रुपए ले कर आ, नहीं तो… कोई चाल तो नहीं चलेगा न. चलेगा तो जान से भी हाथ धो बैठेगा, क्योंकि तेरी सारी करतूत मेरे इस कैमरे में कैद है.’’ मनोहर की बात मानना विनोद की मजबूरी थी. वह बहेलिए के जाल में फंसे कबूतर की तरह फेसबुक की दोस्ती के जाल में फंस कर छटपटाने लगा था.

अंगदान न करने के पीछे धार्मिक मिथ्या

भारत में अंगदान जितनी संख्या में हो रहे हैं उस से ज्यादा देश में इस की मांग है. यानी, भारत में प्रति 10 लाख आबादी में अंगदान डोनर एक से भी कम है. यह आंकड़ा दुनियाभर के कई विकसित देशों के मुकाबले बेहद शर्मनाक है. खासतौर पर अमेरिका और स्पेन जैसे देशों की तुलना में जहां डोनरों की दर दुनिया में सब से ऊंची है और जहां प्रति 10 लाख लोगों में 40 अंगदान डोनर हैं.

भारत में इस तरह की स्थिति के चलते जीवित रहने के लिए दान के अंगों की जरूरत वाले कई मरीजों की मौत हो जाती है. भारत अंगदान करने वाले देशों के सब से निचले पायदानों में कहीं पर ठहरता है.

हम बात कर रहे हैं उस भारत की जहां गर्व “दानदक्षिणा” करने पर तो किया जाता है पर यह गर्व अंगों या जरूरतमंदों को दान किए खून का नहीं बल्कि मंदिरों में बैठे पंडों को, वहां विराजमान मूर्तियों पर दूध, तेल, फूल, प्रसाद, पैसों के अभिषेक पर किया जाता है. आमतौर पर लोग इसे शिक्षा की कमी से जोड़ देते हैं, लेकिन खातेपीते लोग सब से ज्यादा इस भ्रम को पाले रहते हैं.

हमारा धर्मशास्त्र हमें यही तो सिखाता है कि अपने मरने पर शरीर में किसी प्रकार की काटपीट न होने दें क्योंकि पुनर्जन्म की व्याख्या शास्त्रों में ही बांची जाती है. हमारे शास्त्रों का पूरा आधार ही पुनर्जन्म पर टिका है, इसी का डर दिखा कर भक्तों से मंदिरों में पैसे काटे जाते हैं.

बात इस जन्म के यहीं खत्म होने की होती, तो लोग मरने के बाद की कहानी को न सोचते, लेकिन यहां धर्म ही सिखाता है कि इस जन्म के बाद एक और जन्म है, और फिर एक और जन्म है. तब भला कोई कैसे अपने अंगों को शरीर से हटवा सकता है? क्या उसे यह डर नहीं सताएगा कि अगर इस जन्म में अंग दान कर दिए तो अगले जन्म में बेअंग पैदा न हो जाएं.

डाक्टर और प्रत्यारोपण के विशेषज्ञों ने अंगों के डोनरों की कमी के लिए कुछ वजहों की शिनाख्त की हैं. उन में अंगदान के बारे में जागरूकता की कमी, प्रैक्टिस से जुड़ी गलत मान्यताएं और बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं.

मान्यताएं ऐसी हैं कि अच्छाभला आदमी अपना सिर धुनना शुरू कर दे. क्योंकि यही मान्यताएं हमें मंगलवार को हनुमान पूजा के बाद गरीब लोगों को लड्डू दान करना पसंद कराती हैं. हम निर्जीव मूर्तियों में लाखों का पैसा फेंक आते हैं लेकिन जीवित प्राणियों में एक इंसान नहीं देखते.

यही कारण है कि हर साल, सड़क परिवहन के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 1,50,000 लोग सड़कों पर मारे जाते हैं. यानी, लगभग 410 से ज्यादा लोग प्रतिदिन दम तोड़ देते हैं. समस्या यह कि इन मृतकों के परिजनों से बात करे कौन? डाक्टर खुद सकुचाते हैं, कहीं उन के परिजन लाठीडंडों से पीटने न लग जाएं.

मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मासिक रेडियो प्रसारण में जनता से अंगदान का विकल्प चुनने की अपील की थी. उन्होंने कहा कि उन की सरकार एक नीति पर काम कर रही है जो अंगदान की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करेगी और उसे सरल बनाएगी.

लेकिन समस्या यह कि देश में अगर अंगदान करने के इच्छुक लोग बढ़ भी जाएं तो सभी अस्पतालों में अंग प्रत्यारोपण से जुड़ी तमाम प्रक्रियाओं के लिए जरूरी साजोसामान या उपकरण मौजूद नहीं हैं. भारत में सिर्फ 250 अस्पताल ही नैशनल और्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट और्गनाइजेशन (नोटो) से पंजीकृत हैं. यह संगठन देश के अंग प्रत्यारोपण कार्यक्रम का समन्वय करता है.

यानी, देश में प्रत्येक 43 लाख नागरिकों के लिए तमाम सुविधाओं और उपकरणों वाला सिर्फ एक अस्पताल है. भारत के देहाती इलाकों में तो ट्रांसप्लांट सैंटर कमोबेश हैं भी नहीं.

समस्या यह कि ताजा राष्ट्रीय स्वास्थ्य रूपरेखा के मुताबिक, भारत उन देशों में शामिल है जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सब से कम पैसा खर्च किया जाता है. प्रधानमंत्री चाहे जितनी चाहे बातें कर लें, अगर स्वास्थय क्षेत्र में पैसा नहीं लगाएंगे तो ये बातें मात्र बातें ही साबित होंगी.

समझने वाली बात यह है कि भारत में अंग प्रत्यारोपण जीवित डोनरों के जरिए ही संभव हो पाता है यानी अपने जीवित रहते ही अपना अंग दान करने पर राजी होना, जैसे कि किडनी. आज विज्ञान ने तरक्की कर ली है, वेदों-शास्त्रों में बेबुनियाद विज्ञान खोजने वाले भी जरूरत पड़ने पर अस्पताल दौड़े चले जाते हैं. इन्हें भी समझने की जरूरत है कि यह तभी संभव होगा जब यह दोमुंहापन छोड़ा जाए और सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने पर मजबूर किया जाए.

हड्डियों को स्वस्थ रखने के लिए खाएं ये चीजें

मजबूत हड्डियों के लिए जरूरी तत्त्व किस तरह के खानपान से मिल सकते हैं, जानिए जरूर:

कैल्सियम: कैल्सियम शरीर में सब से अधिक मात्रा में पाया जाने वाला तत्त्व है. शरीर के 99% कैल्सियम का संचय हड्डियों में होता है जबकि शरीर की विभिन्न क्रियाओं में केवल 1% ही इस का उपयोग किया जाता है. एक औसत व्यक्ति को प्रतिदिन 1,000 से 1,200 मिलिग्राम कैल्सियम की आवश्यकता होती है. हरी पत्तेदार सब्जियां कैल्सियम का अच्छा स्रोत होती हैं. इन के अलावा मछलियां, साबूत अनाज, केले, ब्रैड, पास्ता सोया मिल्क, टोफू और बादाम भी कैल्सियम के अच्छे स्रोत हैं. कम वसायुक्त डेयरी प्रोडक्ट्स में वसायुक्त डेयरी प्रोडक्ट्स की तुलना में अधिक कैल्सियम होता है.

विटामिन डी: विटामिन डी की कमी से हड्डियां कमजोर और मुलायम हो जाती हैं. सूर्य का प्रकाश विटामिन डी का सब से अच्छा स्रोत है. सूर्य की रोशनी के अलावा दूध, अंडा, चिकन, मछली आदि भी विटामिन डी के अच्छे स्रोत हैं.

पोटैशियम: जो लोग पर्याप्त मात्रा में पोटैशियम का सेवन करते हैं उन की हड्डियों की सेहत बेहतर रहती है. शकरकंद, आलू छिलके सहित, दही और केले पोटैशियम के अच्छे स्रोत हैं.

मैग्नीशियम: पालक, चुकंदर, टमाटर, आलू, शकरकंद, किशमिश आदि खाइए, क्योंकि इन में भरपूर मात्रा में मैग्नीशियम पाया जाता है, जो हड्डियों को मजबूत बनाता है.

प्रोटीन: प्रोटीन शरीर का निर्माण करने वाले तत्त्वों में सब से महत्त्वपूर्ण है. यह हड्डियों को मजबूत रखता है. प्रोटीन हड्डियों के लिए ही नहीं उतकों और लिंगामैंट्स के लिए भी बेहद जरूरी है. मेनोपौज के बाद जिन महिलाओं के भोजन में प्रोटीन की मात्रा कम होती है उन में औस्टियोपोरोसिस का खतरा 30% तक बढ़ जाता है.

विटामिन सी और के: हड्डियों को स्वस्थ रखने के लिए विटामिन सी और के भी बहुत आवश्यक हैं. लालमिर्च, हरीमिर्च, संतरा, अंगूर, ब्रोकली, स्ट्राबैरी, अंकुरित अनाज, पपीता और पाइनऐप्पल विटामिन सी के अच्छे स्रोत हैं. शलगम, पालक, सरसों और मैथी में भी विटामिन के भरपूर मात्रा में पाया जाता है.

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