रेटिंगः एक स्टार
निर्माताः कुलदीप उमरावसिंह ओस्तवाल
लेखकः स्टैनिश गिल
निर्देशकः नीरज सहाय
कलाकारः मनोज जोशी, मंजरी फड़नीस, मिलिंद गुनाजी, अली असगर, शाहबाज़ खान, अमन वर्मा, विनीत शर्मा, अवतार गिल, अशोक समर्थ, अनिल जॉर्ज, वैभव माथुर
अवधिः दो घंटे दो मिनट
सिनेमा का काम आम लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें शिक्षा देना भी होता है. सिनेमा का काम सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को उठाना भी होता है. मगर 2014 के बाद हिंदी सिनेमा की दिशा बदल सी गयी है.अब तो सरकार व राजनेताओं को खुश करने के लिए,उन का महिमा मंडन करने वाली फिल्में बनने लगी हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दो फिल्में और दो वैब सीरीज बन चुकी हैं,जिन्हें दर्शक सिरे से नकार चुके हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गुरू रहे और महाराष्ट्र में ठाणे जिले के कद्दावर शिवसेना नेता स्व.आनंद दिघे पर मराठी में ‘धर्मवीर’ आयी और इस फिल्म के तीन माह बाद ही एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए थे.
अब उस का सीक्वेल ‘धर्मवीर 2’ बनी है, जिस का हाल ही में भव्य ट्रेलर लौंच मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने ही किया. इस के अलावा कई नेताओं पर फिल्में बन चुकी हैं.अब 26 जुलाई को निर्माता कुलदीप उमराव सिंह ओस्तवाल तथा निर्देशक नीरज सहाय की सच्ची घटनाओं पर आधारित राजनीतिक फिल्म ‘‘द यू पी फाइल्स’’ प्रदर्शित हुई है, जो कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बायोपिक फिल्म है. फिल्म में उन चुनौतियों का चित्रण है, जिन का सामना मुख्यमंत्री बनने के बाद अभय सिंह को राज्य पर शासन करने और अपने दृष्टिकोण को लागू करने के प्रयासों के दौरान करना पड़ता है.
कहानीः
फिल्म शुरू होती है, जब महाराज अभय सिंह (मनोज जोशी) अपने आश्रम में गायों को चारा खिला रहे हैं, तभी दिल्ली से उन के पास फोन आता है कि उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाता है और अब उन्हे इसे गुंडा राज्य हटा कर राज्य में एक सुशासन मॉडल स्थापित करना है. मुख्यमंत्री बनते ही अभय सिंह को याद आता है कि पिछली सरकार के वक्त किस तरह डीजीपी (शाहबाज खान ) ने उन की बात नही मानी थी और उन पर किस तरह जानलेवा हमला करवाया गया था. मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले वह डीजीपी को नौकरी से निकाल कर सूर्यवंशी को नया डीजीपी बनाते हैं.इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह महिलाओं के कल्याण की दिशा में काम करते हुए, उन के धर्म की परवाह किए बिना मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के बाद भी सुरक्षा देने के कानून, भूमाफिया, अपराधियों और भ्रष्ट नौकरशाहों से मुकाबला करते हुए राज्य में कौमन सिविल कोड भी लागू करते हैं.
मुख्यमंत्री अपराधियों को दंडित करने से लेकर बलात्कार पीड़ितों को सशक्त बनाने, भ्रष्ट नौकरशाहों को ग्रामीण क्षेत्रों में भेज कर रोजगार सृजन के लिए गांव के विद्युतीकरण को प्राथमिकता देने, किसानों की कर्ज माफी करने के साथ ‘किसान बांड’ के नाम पर जनता से पैसे वसूलने जैसे अद्वितीय उपायों को लागू करते हैं. वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ग की परवाह किए बिना बारबार ‘‘एक देश, एक कानून’ की भी वकालत करते हैं. अप ने संवादों में बार बार संविधान से टस या मस न होेने की बात करते हैं.सड़क पर नमाज पढ़ने या आरती करने पर पाबंदी लगाते हैं. भ्रष्ट विरोधी नेताओं के घर, औफिस व फैक्टरी पर बुल्डोजर भी चलवाते हैं.
समीक्षाः
निर्देशक नीरज सहाय अपनी इस फिल्म के माध्यम से उत्तर प्रदेश की छवि को फिर से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं. इसके लिए वह राज्य की गुंडागर्दी, अराजकता, गरीबी, खराब सड़क आदि का उल्लेख करते हैं. फिर वह यह बताते हैं कि नए मुख्यमंत्री अभय सिंह किस तरह अराजकता, गुंडागर्दी आदि को खत्म करने के लिए कानून से परे जाकर भी काम करते हैं. लेकिन निर्देशक व लेखक को तथ्यों की कोई जानकारी नहीं है. कहानी भी भटकी हुई है.कहानी के अनुसार दृश्यों में कहीं कोई तारतम्य नहीं है.फिल्म में गाने जबरन ठूंसे हुए हैं.एक गंभीर दृश्य चल रहा होता है कि अचानक गाना शुरू हो जाता है.
दर्शक की समझ में नहीं आता कि यह क्या हो गया. उस गाने का औचित्य भी नहीं दिखाया गया. जब निर्देशक का ध्यान किसी एक इंसान यानी कि योगी जी का महिमा मंडन करना हो, तो वह कहानी कैसे सोचेंगें. मजेदार बात यह है कि फिल्म की शुरूआत में ‘डिस्क्लेमर’ दिया गया है कि यह फिल्म देश के एक काल्पनिक प्रदेश की कहानी है. लेकिन फिल्म में हर जगह उत्तर प्रदेश सरकार के बोर्ड लगे हैं. यहां तक तक कि जब भी मुख्यमंत्री के दृश्य आते हैं, तो उनके पीछे भी उत्तर प्रदेश सरकार ही लिखा नजर आता है.
आखिर यह क्या है? इस पर सैंसर बोर्ड की भी नजर नही गयी… उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ईमेज एक ‘फायरब्रांड’ धाकड़, निडर, ताकतवर नेता की है,मगर फिल्म में उनकी यह ईमेज कहीं नहीं उभरती.सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कभी भी कोई भी मुख्यमंत्री के औफिस या घर में पहुंच जाता है. सिर्फ दूसरी पार्टी के नेता ही नही बल्कि आम मुस्लिम महिलाओं के लिए तो कोई रोकटोक नही है.अजीब से दृश्य हैं. निर्देशक के तौर पर नीरज सहाय बुरी तरह से मात खा गए हैं. लेखक स्टैनिस गिल भी मात खा गए. मुख्यमंत्री अभय सिंह कई जगह अति क्लिस्ट हिंदी बोलते हैं, तो कहीं बहुत ही साधारण संवाद बोलते हैं,जो कि गलत है. यदि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपना महिमा मंडन करने के मकसद से इस फिल्म को बनवाया है,तो वह इस फिल्म को देखकर अपना माथा पीट लेंगे.
किसी का महिमा मंडन करने के लिए भी एक सशक्त और सुयोग्य कहानी की जरूरत होती है. हर समय पर विचारविमर्श होता है. पर फिल्म में किसी भी मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं होती. केवल कार्रवाई होती है .मुख्यमंत्री का अपना दृष्टिकोण और वह स्वयं हर समाधान की वकालत करते हैं, इस से इंसान व सरकार का प्रभाव अति कमजोर हो जाता है.
लेखक स्टैनिश गिल की पटकथा नब्बे के दशक के बौलीवुड की याद दिलाते हुए असंबद्ध और असूत्रबद्ध तरीके से प्रस्तुत की गई है. घिसेपिटे चरित्रों और कहानी के ट्रैकों की भरमार है.एक तरफ आप सुजाता मेनन को निडर व अति बहादुर पुलिस अफसर बताते हैं, तो वहीं जिस तरह से बाहुबली नेताओं के साथ मुठभेड़ और उसमें सुजाता मेनन के शहीद होने को दिखाया गया है,यह पूरा दृश्य लेखक व निर्देशक की नासमझी का ही परिचायक है. फिल्म में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसकी सीमाओं को लेकर सवाल जरुर उठाया गया है.
फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसने व ठीक करने की जरुरत थी. पर एडीटर अप ने काम को सही ढंग से अंजाम नही दे पाए.
अभिनयः
जहां तक अभिनय का सवाल है तो मुख्यमंत्री अभय सिंह के किरदार में मनोज जोशी ने षानदार अभिनय किया है.उन्होने योगी आदित्यनाथ के पहनावे के साथ ही चाल ढाल व बोलने के लहजे को भी पकडने का सही प्रयास किया है.मुख्यमंत्री के सचिव उमाष्ंाकर किरदार में अली असगर अपनी छाप छोड़ जाते हैं.उनकी ईमेज हास्य कलाकार की है,मगर इस फिल्म में धीर गंभीर सचिव के किरदार को जिस तरह से आत्मसात कर उन्होने निभाया है,उसके लिए उनकी प्रषंसा की जानी चाहिए.बाहुबली नेता अब्दुल के किरदार में अनिल जॉर्ज अपनी छाप छोड़ जाते हैं.निडर पुलिस इंस्पेक्टर सुजाता मेनन के किरदार में मंजरी फड़नीस भी प्रभावित करती हैं.पर स्टंट के सीन उनके वष के नहीं है.