सोशल मीडिया पर आए दिन कोई न कोई यह शिकायत करते मिल ही जाता है कि फेसबुक पर तो उसके सैकड़ोंहजारों फ्रेंड्स थे लेकिन जब हार्टअटैक के चलते अस्पताल में भर्ती हुआ तो मिजाजपुर्सी के लिए दो दोस्त भी नहीं आए. एक किसी के मरने की खबर व्हाट्सएप पर चलती है तो उसे RIP बोल कर श्रद्धांजलि देने वालों की होड़ लग जाती है. लेकिन जब उस की शव यात्रा निकलती है तो बमुश्किल 20 - 25 लोग ही नजर आते हैं .

इस फर्जी अपनेपन ने हमें कितना अकेला, चालाक और असंवेदनशील बना दिया है इसे नापने का कोई पैमाना ही नही . इस के नुकसान सभी समझ रहे हैं कि हम भीड़भाड़ वाले शहरों में अकेले पड़ते जा रहे हैं लेकिन सामाजिक शिष्टाचार निभाने का मौका या वक्त आता है तो हम खुद अपने आप में सिकुड़ जाते हैं . हम अप ने मोबाइल की स्क्रीन में ठीक पिंजरे के तोते की तरह कैद हो कर रह गये हैं जो पिंजरे के अंदर से टे टे तो बहुत करता रहता है पर पिंजरे की कैद को ही उस ने अपना सुख मान लिया है .

हम क्यों तोते के मानिंद एक छोटी सी स्क्रीन में कैद हो कर रह गए हैं इस का ठीकठाक जवाब शायद ही कोई दे पाए . इसे समझने के कई दूसरे तरीके भी हैं मसलन हम आप में से कब से किसी ने पड़ोसी से अचार ,दूध , शकर , चाय पत्ती या दही जमाने जरा सा जामन नही माँगा और न ही हमारे दरवाजे पर कोई कभी इस तरह के आइटम मांगने आया. ज्यादा नही कोई 20 - 25 साल पहले तक ये नज़ारे आम थे और यह भी कि बेटे से यह कहना कि देख पड़ोस बाले शर्मा जी के यहां कटहल की सब्जी बनी हो तो एक कटोरी लेते आना . और हाँ उन्हें कटोरे में खीर देते आना शर्मा जी को बहुत पसंद है तेरी माँ के हाथ की बनी खीर .

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