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यूसीसी में औरतें तो और बेहाल हैं, हिंदू हित कहां हैं

खुद भाजपा आलाकमान गिरते मतदान को ले कर किस तरह चिंतित है, यह खीझ उस के एक बयान से समझ में भी आती है जिस में कहा गया है कि कम मतदान का मतलब यह भी हो सकता है कि जो मतदाता विपक्ष और उस की दिशा व नेतृत्व की कमी से निराश हैं वे वोट देने के लिए नहीं जा रहे हैं. कम मतदान का यह मतलब कतई नहीं है कि लोग सत्तारूढ़ दल के प्रति उदासीन हैं.
पर हकीकत यह है कि भाजपा आलाकमान ने खुलेतौर पर हिटलरी फरमान जारी करने शुरू कर दिए हैं. भाजपा की राज्य इकाइयों से कम मतदान के बाबत लिखित में सफाई मांगी गई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तो मध्यप्रदेश के राजगढ़ से यह एलान कर दिया है कि जिन मंत्रियों के इलाकों से मतदान कम होगा उन से मंत्री पद छीन लिया जाएगा और जो विधायक ज्यादा मतदान कराएंगे उन्हें मंत्री पद से नवाजा जाएगा.

भाजपा की बड़ी चिंता हिंदीभाषी राज्य उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्यप्रदेश ज्यादा हैं. इन चारों ही राज्यों में मतदान प्रतिशत गिरा है. उत्तरप्रदेश में दूसरे चरण में केवल 54.85 फीसदी मतदान हुआ जबकि 2019 में 62 फीसदी वोटिंग हुई थी. राजस्थान में भी 2019 के मुकाबले 5 फीसदी कम वोटिंग हुई और मध्यप्रदेश में भी 8 फीसदी के लगभग मतदान कम हुआ.

भाजपाई चिंता की दूसरी बड़ी वजह महिलाओं की मतदान में कम होती दिलचस्पी है. मध्यप्रदेश में महिला मतदान में 11 फीसदी की अहम गिरावट दर्ज हुई है. लगभग यही आंकड़ा दूसरे हिंदीभाषी राज्यों का है, जहां से भाजपा अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थी लेकिन अब उस का भरोसा डगमगाने लगा है. यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों के बाद एक इंग्लिश अखबार को दिए स्पैशल इंटरव्यू से भी साबित होती है कि भाजपा अब तेजी से मुद्दे बदलने को मजबूर हो गई है.

एक तरह से सियासी हलकों में इसे इंडिया गठबंधन और कांग्रेस नेता राहुल गांधी की कामयाबी ही माना जा रहा है कि वे जो भी कहते हैं उस के चंद घंटों के भीतर ही भगवा गैंग उस पर स्पष्टीकरण देना शुरू कर देता है. राहुल गांधी ने कहा कि भाजपा आरक्षण हटाने की साजिश कर रही है तो पूरी भाजपा लाइन में लगे स्कूली बच्चों की तरह मिमियाती नजर आई कि, यह गलत है, हम तो आरक्षण के प्रबल पक्षधर हैं. लोग भरोसा करें, इस के लिए यह बात आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी कहनी पड़ी. यह और बात है कि इस से दलित, आदिवासियों का भरोसा नहीं बढ़ा, उलटे, शक और गहराने लगा.

राहुल गांधी जब यह आरोप लगाते हैं कि भाजपा संविधान बदल देगी तो भाजपा संविधान को गीता, कुरान और बाइबिल बताने लगती है. विपक्ष के हमलों पर जितनी सफाई भाजपा देती जा रही है उतनी ही घिरती भी जा रही थी, इसलिए नरेंद्र मोदी ने पहले राम-श्याम किया और फिर कोई चारा न देख सीधे हिंदूमुसलिम पर उतर आए. बांसवाड़ा में दिए उन के आधेअधूरे और तोड़मरोड बयानों से भी बात बनती नजर नहीं आई तो वे सीधे एक इंग्लिश दैनिक अखबार के सामने यह कहते नजर आए-

– तीसरे कार्यकाल में समान नागरिक संहिता और वन नेशन वन इलैक्शन पर हम ठोस कदम उठाएंगे.
– हम 400 सीटें जीतना चाहते हैं जिस से कि एससी, एसटी और ओबीसी के अधिकारों की रक्षा हो सके और उन का आरक्षण व अधिकार छीन कर अपने वोटबैंक को बढ़ाने की विपक्षी दलों की नापाक साजिशें नाकाम हो जाएं.

आखिरी महत्त्वपूर्ण बात महिलाओं को लुभाती हुई थी कि कांग्रेस हर घर में छापा मारेगी. वह किसानों की जमीन और महिलाओं के गहनों पर धावा बोलेगी. इस के बाद वे शौचालय और उज्ज्वला योजना की महिमा भी गाते नजर आए.

आरक्षण पर रार के माने

400 सीटें जीत कर दलित आदिवासियों और पिछड़ों के हक व उन के रिजर्वेशन को सलामत रखने की बात विकट की विरोधाभाषी और हास्यास्पद है जिस के जरिए नरेंद्र मोदी चुनाव को पूरी तरह हिंदू बनाम मुसलमान बना देने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं. इन तीनों तबकों के लोगों ने अयोध्या के राम मंदिर से न कोई वास्ता रखा है और न ही कोई दिलचस्पी दिखाई है क्योंकि यह एक क्या, तमाम मंदिर ऊंची जाति वालों के लिए होते हैं. छोटी जाति वालों ने खुद अपने छोटेछोटे देवीदेवताओं के छोटेछोटे मंदिर गलीमहल्लों में बना लिए हैं. जब वे धर्म और मंदिरों के नाम पर घेरे में नहीं आ रहे तो अब उन्हें यह डर दिखा कर उन के हिंदू होने का एहसास कराया जा रहा है कि भाजपा को वोट नहीं दिया तो आरक्षण न केवल छिन जाएगा बल्कि यह मुसलमानों को दे दिया जाएगा.

लेकिन दलित, आदिवासी, पिछड़ा भाजपा पर विश्वास नहीं कर रहा है क्योंकि 400 सीटें जीत कर संविधान बदलने की बात कर्नाटक के अनंत कुमार हेगड़े सहित भाजपा के ही 4 सांसदों और खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष डाक्टर विवेक ओबेराय ने कही थी. दूसरे, यह हर कोई जानता है कि आरक्षण कांग्रेस और डाक्टर भीम राव आंबेडकर की देन है जिसे ले कर आज तक देशभर के सवर्ण रोते-झींकते कांग्रेस को कोसते रहते हैं. अब ये सवर्ण असमंजस में हैं कि भाजपा को कोसें या न. चूंकि धार्मिक पार्टी और सरकार है, इसलिए कोसने में कोफ़्त होती है, सो, बीच का रास्ता यह है कि वोट ही न दिया जाए.

यही अघोषित बहिष्कार भाजपा के गले की हड्डी बन गया है जिस का एक समीकरण यह भी बनता है कि भाजपा का कोर वोटर ही बूथ तक नहीं जा रहा, इसलिए वोटिंग कम हो रही है और जो वोट डालने जा रहे हैं वे भाजपा के कोर वोटर नहीं हैं, इसलिए उस पर सवर्णों जैसा अंधा यकीन नहीं कर पा रहे, खासतौर से मोदीभक्त महिलाएं जिन का मोह भगवा से भंग हो रहा है.

यूसीसी और उज्ज्वला

यूसीसी से आम हिंदुओं को क्या हासिल होगा, यह भी खुद कट्टर भाजपाइयों को समझ नहीं आ रहा है कि इस से मुसलमानों के लिए तो कई दिक्कतें खड़ी होंगी लेकिन जिन दिक्कतों से हम जूझ रहे हैं उन का क्या होगा. जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 के बेअसर होने से हिंदुओं को किसी भी तरह का फायदा नहीं हुआ है. हां, कुछ भक्तों को जरूर यह आत्मिक सुख मिला कि मुसलमानों से कुछ छिना.
यही बात तीन तलाक पर लागू होती है जिस से हिंदू महिलाओं को कुछ हासिल नहीं हुआ है. उन के तलाक के मसले सालोंसाल अदालत में चलते हैं, इस दौरान वे एक अभिशप्त सामाजिक जीवन जीती हैं. इसे दूर करने के लिए भाजपा कोई कानून न तो कभी बना पाई और न ही अभी कोई पहल कर रही.

हिंदू महिलाएं सब से ज्यादा दहेज और घरेलू हिंसा व प्रताड़ना का शिकार होती हैं. यूसीसी क्या उन्हें इस से छुटकारा दिला पाएगा, इस सवाल का जवाब तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से महिलाओं को मांगना ही चाहिए.

साल 2022 में 6.4 हजार युवतियां दहेज की बलि चढ़ी थीं यानी मार दी गई थीं. यानी, घोषित तौर पर एक दिन में 20 दहेज हत्याए होती हैं. दहेज के लिए तो हर तीसरी महिला प्रताड़ना का शिकार होती है जिन में से 90 फीसदी घुटघुट कर जीती हैं. वे कहीं शिकवाशिकायत ही नहीं करतीं क्योंकि इस से घर टूटने के डर के साथसाथ खुद के पारिवारिक व सामाजिक तौर पर बहिष्कृत होने और अकेले पड़ जाने की सजा सिर पर खड़ी रहती है.

जो महिलाएं अदालत की चौखट तक जाती हैं वे भी सालोंसाल उस पर एड़ियां रगड़ती रहती हैं. इधर मंदिर की चौखट पर भगवान इन की नहीं सुनता तो अदालत में जज साहब और बाबू लोग इन्हें तारीख के नाम पर नचाते रहते हैं जिस से वे थकहार कर न्याय के लिए लड़ने की हिम्मत छोड़ दें. इन दोनों सहित महिलाओं की दूसरी अधिकतर मुसीबतें धर्म की देन हैं, इसलिए किसी की हिम्मत इस बाबत पहल करने की नहीं पड़ती. मुसलिम महिलाओं को एक कुरीति से मुक्त कराने का स्वागत उसी स्थिति में किया जा सकता है जब हिंदू महिलाओं को भी उन की दुश्वारियों से आजाद कराने की पहल कोई सरकार करे.

अब चूंकि महिलाओं को समझ आने लगा है कि 10 साल मोदी सरकार महिलाओं के नाम पर ढिंढोरा ही पीटती रही है, जमीनी तौर पर कुछ नहीं हुआ है तो वे वोट डालने नहीं जा रहीं जिस के बाबत गरमी सहित तरहतरह के बहाने बनाए जा रहे हैं. वोट से सामाजिक बदहाली सुधरने की उम्मीद एक सपना ही है क्योंकि मोदी सरकार तो अपने राजनीतिक वादों पर भी खरी नहीं उतरी है.
पीएम उज्ज्वला योजना इस की बड़ी मिसाल है जिस की बाबत हर कभी हर कहीं से खबरें आती रहती हैं कि जिन महिलाओं को गैस सिलैंडर दिए गए उन में से आधे से ज्यादा के पास उस में गैस भरवाने के लिए पैसे ही नहीं. नतीजतन, वे चूल्हे पर ही खाना बना रही हैं और धुएं से मुक्ति भाजपा के विज्ञापनों में ही शोभा देती है.

खुद पैट्रोलियम और प्राक्रतिक गैस राज्यमंत्री रामेश्वर तेली राज्यसभा में लिखित में मान चुके हैं कि उज्ज्वला योजना के तहत 4.13 करोड़ लाभार्थियों ने एक बार भी रसोई गैस सिलैंडर को रीफिल नहीं कराया है. और तो और, 7.67 करोड लाभार्थियों ने एक बार ही सिलैंडर भरवाया है. यानी, कम से कम 12 करोड़ लोगों की आमदनी इतनी भी नहीं है कि वे गैस सिलैंडर भरवा सकें. तो जाहिर है कि ये यूसीसी, विश्वगुरु, तीसरी बड़ी व्यवस्था जैसे हजारों दावे उसी तरह खोखले हैं जिस तरह आज भी महिलाएं शौच के लिए खुले में जाने को मजबूर हैं.

यूनिसेफ और डब्लूएचओ की ताजा रिपोर्ट व आंकड़ों के मुताबिक भारत की ग्रामीण आबादी का 6ठा हिस्सा अभी भी खुले में शौच के लिए मजबूर है. चुनावी दावों की पोल तो हर कहीं खुली पड़ी है. भोपाल के प्रैस कौम्प्लैक्स के पास के 2 शौचालयों में अब आवारा कुत्तों का डेरा है. शहर से दूर किसी भी दिशा में चले जाएं, तो ये शौचालय टूटफूट चुके हैं जिन में मवेशी आराम फरमाते दिख जाएंगे या शाम को शराबी और जुआरी कसीनो व बार की तरह इन में बैठे नजर आएंगे. ऐसे में महिलाएं क्यों वोट डालें, यह न केवल भाजपा को बल्कि सभी दलों सहित जिम्मेदार नागरिकों को भी सोचना चाहिए कि जरूरी क्या है- यूसीसी, वन नैशन वन इलैक्शन या ये बुनियादी सहूलियतें.

बालिका गृहों में यौन शोषण, जिम्मेदार कौन

पूर्वी चंपारण में जिला मुख्यालय मोतिहारी शहर के बरियारपुर स्थित एक बालिका गृह से 28 अप्रैल को 9 लड़कियां फरार हो गईं. घटना का खुलासा हुआ तो हड़कंप मच गया. एसपी कांतेश कुमार मिश्र के निर्देश पर त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिस ने दो बच्चियों को बरामद कर लिया मगर 7 अभी भी लापता हैं, जिन की तलाश जारी है. एक साथ 9 बच्चियों के बालिका गृह से फरार होने के बाद बालिका गृह की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है. निश्चित ही ये बच्चियां उत्पीड़न से परेशान हो कर यहां से भागीं.

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पिछले साल दिसंबर में छपरा में बालिका गृह की खिड़की तोड़ कर 5 लड़कियां भाग गई थीं. इस से पहले नवंबर में मुरादाबाद के सिविल लाइन थाना क्षेत्र के एक बालिका गृह से 3 किशोरियां भाग निकली थीं. 9 महीने पहले बोधगया में बालिका गृह से एक नाबालिग लड़की फरार हो गई थी. वह करीब 13 दिनों से इस बालिका गृह में रह रही थी. किशोर गृहों, बालिकागृहों और अनाथाश्रमों से बच्चों के भाग जाने की खबरें लगभग हर दिन अखबारों के किसी न किसी कोने में होती हैं जिन पर सरसरी निगाह डाल कर हम पन्ना पलट देते हैं.

कहां सुरक्षित बालिकाएं

बात 2012 की है. इलाहाबाद जिसे योगी सरकार में अब प्रयागराज कहा जाता है, यहां के सरकारी शिशुगृह शिवकुटी से एक 7 साल की बच्ची को एक युगल ने गोद लिया था. यह बच्ची जब इस युगल के साथ उन के घर जाने के लिए तैयार हुई तो उस के चंद कपड़े भी युगल के सुपुर्द कर दिए गए. घर पहुंच कर जब मांबाप ने बच्ची के कपड़े खोल कर देखे तो उन्हें उस पर खून के धब्बे दिखाई दिए. शक होने पर उन्होंने बच्ची से प्यार से पूछताछ की कि उस के साथ आश्रम में क्या होता था? थोड़ा सा प्यार पा कर बच्ची हिलकने लगी और उस ने रोरो कर एक भयावह कहानी बयां की, जिसे सुन कर उस को गोद लेने वाले मांबाप अवाक रह गए. इस बच्ची से शिशुगृह का चौकीदार विद्याभूषण ओझा अकसर बलात्कार करता था.

वह युगल सीधे शिशुगृह की सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता के पास पहुंचा. उर्मिला गुप्ता को जब उन्होंने सारी बात बताई तो उस का रिएक्शन कुछ ख़ास नहीं था. जाहिर था कि वहां क्या चल रहा है इस बात की उसे पूरी जानकारी थी. मगर वह इतना समझ गई कि यदि उस ने खुद कोई कदम नहीं उठाया तो वह दंपत्ति पुलिस और मीडिया तक जा सकता है.

लिहाजा उर्मिला गुप्ता को मजबूरीवश पूरी बात इलाहाबाद के पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी के संज्ञान में लानी पड़ी, जिस के बाद हुई कार्रवाई में चौकीदार विद्याभूषण ओझा को गिरफ्तार कर पूछताछ की गई. इस पूछताछ में उजागर हुआ कि वह उस गृह की कई बच्चियों के साथ बलात्कार करता है. उस के साथ रसोइया भी इस कुकर्म में शामिल रहता है.

हैरत की बात यह कि 50 वर्षीय वह चौकीदार उस शिशुगृह में पिछले 6 सालों से तैनात था. सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता अकसर उस के साथ अनेक बच्चियों को इलाज आदि के लिए सरकारी अस्पताल भी भेजती थी. यह घटना थर्रा देने वाली थी.

चौकीदार विद्याभूषण ओझा ने 7 से 9 वर्ष आयु वर्ग की जिन बच्चियों का बलात्कार किया उन में से 2 बच्चियां मानसिक रोगी थीं. इस मामले में 11 अप्रैल 2012 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इलाहाबाद के पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी को तलब किया और पूरे कांड की जांच के लिए एक कमेटी गठित की. इस कमिटी ने जब शिशुगृह में जा कर बच्चों से बात की तो चौकीदार और रसोइये की घिनौनी हरकतों की परतें उधड़ती चली गईं.

हैरत की बात है कि इस शिशुगृह में इस चौकीदार की ड्यूटी सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक होती थी. उस की हिम्मत की इन्तहा यह थी कि वह दिन के उजाले में बच्चियों के साथ बलात्कार करता रहा और बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदार सुपरिंटेंडेंट से ले कर पूरा स्टाफ आंखें मूंदे बैठा रहा.

इस घटना के खुलासे के बाद इस शिशुगृह में तैनात सभी कर्मचारियों को निलंबित किया गया और सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता को गिरफ्तार कर चौकीदार और रसोइये के साथ नैनी जेल भेजा गया. इन के साथ बाल गृह की एक आया रमापति को भी जेल भेजा गया, जिस को चौकीदार और रसोइये के कुकृत्यों की पूरी जानकारी थी. चौकीदार ओझा की ड्यूटी इस आया और रसोइये के साथ दोपहर का खाना तैयार करने के लिए किचन में लगाई जाती थी, जहां एक कोने में ये बच्चियों को ले जा कर उन से दुराचार करता था.

सुनने वाला कौन

मासूम बच्चियों के साथ शिशु गृहों और किशोर गृहों के कर्मचारियों द्वारा बलात्कार की घटना दिल दहला देने वाली है. अधिकांश जगहों पर कमोबेश यही हालत है. इस से इनकार नहीं किया जा सकता है. देश में शिशुगृहों और किशोरगृहों से लड़कियों के भाग निकलने की घटनाएं आयदिन होती हैं. जाहिर है कि बच्चियां न तो इन शिशु गृहों और किशोर गृहों में सुरक्षित हैं और न खुश हैं.

जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत दर्ज नीतिनियमों का कोई पालन किसी राजकीय गृह में नहीं हो रहा है. न तो बच्चों की कोई उचित शिक्षा हो रही है, न उन की काउंसलिंग. यही वजहें हैं कि बहुत सारे अपराधी बच्चे भी जो सजा काट कर समाज में वापस जाते हैं, पुन: अपराध के दलदल में समा जाते हैं.

काउंसलिंग और पुनर्वास के अभाव में वेश्यालय, कारखानों, खदानों, मिलों आदि से छुड़ाए गए बच्चे, इन राजकीय गृहों की यातनाओं से तंग आ कर मौका पाते ही यहां से भाग निकलते हैं और फिर उन्हीं जगहों पर जा कर काम करने लगते हैं. वजह एक ही है. इन गृहों में रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं. नन्हींनन्हीं बच्चियां यहां दुराचार का शिकार हो रही हैं. उन की चीखें सुनने वाला कोई नहीं है.

बच्चे मिट्टी का लोंदा होते हैं. उन्हें जिस सांचे में ढालें, उसी में ढलते चले जाते हैं. बड़े खुशनसीब होते हैं वे बच्चे जिन्हें मांबाप का भरपूर लाड़प्यार, अच्छी शिक्षा और स्वस्थ माहौल मिलता है, लेकिन बड़े ही अभागे हैं वे बच्चे, जिन के बचपन को किसी शाप ने डस लिया है, जो यतीम हैं, लावारिस हैं, अपने परिवार से बिछड़ गए हैं या अपराध की दलदल से निकाले गए हैं और सरकारी बाल गृहों, यतीम गृहों या सम्प्रेक्षण गृहों में यातनापूर्ण जीवन जी रहे हैं, छटपटा रहे हैं, तिलतिल मर रहे हैं. जहां न मां की गोद है, न बाप का प्यार, न सुरक्षा न अपनापन, अगर कुछ है तो बस सरकारी कर्मचारियों का गुस्सा, आतंक, पिटाई, भूख, नशा, बीमारी, बलात्कार और मौत.

गृहों का संचालन

गौरतलब है कि भिन्नभिन्न आयु वर्ग और भिन्न परिस्थितियों से आए बच्चों के लिए हर राज्य सरकार चार प्रकार के गृहों का संचालन करती है –

1. औब्जरवेशन होम्स

2. स्पैशल होम्स

3. बाल गृह

4. शेल्टर होम्स

औब्जरवेशन होम्स में उन बच्चों को रखा जाता है, जिन्हें किसी अपराध में लिप्त पाया जाता है. अदालत में जितने साल तक उन के केस की सुनवाई चलती है उतने साल ये बच्चे औब्जरवेशन होम में रहते हैं.

अदालत से उन के अपराध की सजा तय हो जाने के बाद बच्चों को औब्जरवेशन होम से स्पैशल होम में भेज दिया जाता है. जहां उन के जीवन में सुधार लाने के लिए बेहतर खानपान, व्यायाम, काउंसलिंग, शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा दिए जाने का प्रावधान जुवेनाइल एक्ट में दिया गया है.

बाल गृहों में वे बच्चे रखे जाते हैं, जिन्हें बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति के अड्डों, मिलों, कारखानों, खदानों इत्यादि से छुड़ाया जाता है. इनमें शिशु और किशोर बालक बालिकाएं आती हैं.

शेल्टर होम्स वे जगहें हैं, जहां बच्चे सर्वप्रथम ला कर कुछ दिनों के लिए बच्चे रखे जाते हैं.

नारकीय और यातनापूर्ण जीवन

इन चारों प्रकार के गृहों में सरकार की तरफ से उन सारी सुविधाओं का होना आवश्यक है जिस से बच्चे का पूर्ण विकास हो सके, उन को बेहतर शिक्षा दी जा सके और पर्याप्त काउंसलिंग के जरिए उन के जीवन में ऐसा सुधार लाया जाए ताकि जब वे यहां अपना वक्त बिता कर वापस अपने समाज और परिवार में जाएं तो एक अच्छे नागरिक के रूप में आगे का सफर तय कर सकें, लेकिन अफसोस, कि ‘सुधार गृहों’ के नाम पर चल रहे देश के तमाम सरकारी गृहों में जीवन काट रहे बच्चों के जीवन में सुधार लाने जैसी कोई गतिविधि कहीं नहीं हो रही है, अलबत्ता इन सरकारी गृहों का निरीक्षण करने पर पता चलता है कि यहां बच्चों का जीवन कितना नारकीय और यातनापूर्ण है.

सरकारी घरों में बच्चों को भरपेट भोजन न मिलना, कोई गलती हो जाने पर उन्हें भूखा रखना, उन की बीमारी में उन्हें उचित इलाज न मिलना, उन्हें खेलकूद की सुविधाएं उपलब्ध न होना, छोटीछोटी बातों पर उन को बुरी तरह पीटना जैसे तमाम अमानवीय और क्रूर व्यवहार बहुत आम हैं.

सरकारी अनाथाश्रमों एवं किशोर गृहों में नन्हें मासूम बच्चों की दयनीय दशा और उन के साथ सरकारी कर्मचारियों का बर्बर सलूक बताता है कि ‘सुधार गृहों’ का बोर्ड लगा कर चल रहे इन जेल सरीखे आश्रम ‘यातना गृहों’ में तब्दील हो चुके हैं जहां बच्चों के साथ मारपीट से ले कर बलात्कार तक हो रहे हैं, लेकिन मासूमों की चीखें इन चारदीवारियों से बाहर नहीं आ पातीं. यही वजह है कि सुधार गृहों की यातनाओं से तंग आ कर बच्चों के वहां से भाग निकलने की खबरें आएदिन अखबार की सुर्खियां बनती हैं.

राजकीय गृहों में रहने वाले बच्चों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न की तरफ सर्वप्रथम शीला वारसे नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता का ध्यान गया था. पश्चिम बंगाल और खासतौर पर कोलकाता की जेलों में बने बाल सुधार गृहों में बच्चों की दयनीय हालत देख कर वे हैरान थीं. यहां उन बच्चों की हालत बेहद नाजुक थी जो मानसिक रूप से अस्वस्थ थे अथवा मिर्गी के रोगी थे. इन सभी बच्चों को स्वस्थ बच्चों के साथ ही रखा जाता था. इन की देखभाल के लिए किसी भी मानसिक चिकित्सक की कोई व्यवस्था नहीं थी, नतीजतन वार्ड के स्वस्थ बच्चे और कभी कभी जेलकर्मी इन मानसिक रोगी बच्चों की हरकतों से खीज कर उन्हें बुरी तरह मारते पीटते थे और उन्हें बांध कर भूखा रखते थे. शीला वारसे ने 27 जनवरी 1989 को तत्कालीन चीफ जस्टिस औफ इंडिया आर एस पाठक को एक संवेदनशील पत्र लिख कर उन का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था.

शीला वारसे के पत्र को चीफ जस्टिस औफ इंडिया ने एक जनहित याचिका के रूप में लिया और मामला सुनवाई के लिए उच्चतम न्यायालय में आया. लम्बी चली सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय में जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी एवं जस्टिस एन के मुखर्जी की बेंच ने 5 सितम्बर 1995 को देश के तमाम उच्च न्यायालयों को आदेशित किया कि वे सरकारी अनाथाश्रमों, बाल एवं किशोर सुधार गृहों में रह रहे बच्चों और किशोरों के उचित संरक्षण और उचित सुविधाएं देने के लिए राज्य सरकारों को आदेश पारित करें.

क्या कहते हैं नियम

बच्चों की स्थिति को कैसे सुधारा जाए, उन की देखभाल, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा कैसे की जाए, उन की काउंसलिंग किस प्रकार हो तथा उन का पुनर्वास कैसे कराया जाए इस को देखने और आदेश पारित करने की जिम्मेदारी उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को सौंपी गई. उच्च न्यायालयों में यह मामला क्रिमिनल मिसलेनियस पिटीशन नंबर 505/1994 इन रिट पिटीशन (क्रिमिनल न. 237/1989 शीला बारसे बनाम यूनियन औफ इंडिया) के तौर पर दर्ज है.

अदालतों के संज्ञान में आने के बाद कई राज्यों ने सुधार गृहों के संबंध में नए कानून भी बनाए, लेकिन वर्तमान समय में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 ही सब से ज्यादा मान्य है, जिसमें अनाथ या अपराधी बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, पुनर्वास इत्यादि के विषय में कुछ नियम तय हैं, जैसे –

प्रत्येक बच्चे के विकास के लिए 40 स्क्वायर फीट स्पेस का होना सुनिश्चित किया गया है. इस के अतिरिक्त सरकारी गृहों में प्रति 25 बच्चों के पीछे दो डोरमेट्रीज, दो कक्षाएं, एक चिकित्सा कक्ष, एक किचेन, एक खाने का कमरा, एक स्टोर रूम, एक मनोरंजन कक्ष, एक लाइब्रेरी, 5 बाथरूम, 8 शौचालय, एक सुप्रिटेंडेंट का औफिस, एक काउंसलिंग रूम, एक वर्कशौप रूम, सुप्रिटेंडेंट का आवास, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड या वेलफेयर कमेटी के लिए एक औफिस एवं एक खेल का मैदान होना आवश्यक है.

इन सभी जरूरतों के लिए एक सरकारी गृह के पास कम से कम 8495 स्क्वायर फीट की जगह होनी जरूरी है. लेकिन अधिकांश राज्य सरकारों के पास और खासतौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के पास इन बच्चों को रखने के लिए अपनी इमारतें तक नहीं हैं. तमाम राजकीय गृह किराए के छोटेछोटे घरों में चलाए जा रहे हैं. राज्य में ऐसे सुधार गृह गिनती के हैं, जिन में बच्चों के खेलने के लिए खेल के मैदान हों. हालत इतनी बदत्तर है कि छोटेछोटे चारपांच कमरों में 40-40 से 50-50 और कहींकहीं तो 100-100 बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रहने के लिए मजबूर हैं.

देश के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने अनाथाश्रमों एवं सुधार गृहों में रह रहे बच्चों के संबंध में समयसमय पर राज्य सरकारों को कई दिशानिर्देश भी दिए हैं, लेकिन सरकार द्वारा बच्चों के उद्धार के लिए कोई खास कदम नहीं उठाए गए हैं, उल्टे सरकारों ने इन बच्चों को संभालने की अपनी जिम्मेदारियों को स्वयं सेवी संस्थाओं की तरफ खिसका दिया है, जो अब धन कमाने और बच्चों के उत्पीड़न के बड़ेबड़े अड्डे बन चुके हैं.

प्रयागराज में शिवकुटी का शिशुगृह हो या मम्फोर्डगंज का बालिका आश्रम, सभी जगह एक जैसा हाल है. 11 से 18 वर्ष तक की बालिकाओं के लिए चल रहे राजकीय बाल गृह में 40 बालिकाओं के रहने के लिए मात्र 4 छोटे छोटे कमरे हैं. एक किचन, दो शौचालय, दो स्नानागार, एक छोटा बरामदा, जिस में सुप्रिटेंडेंट का औफिस चलता है. शौचालयों की साफसफाई इन्हीं बच्चियों से करवाई जाती है. दोदो, तीनतीन बच्चियां एक ही तख्त पर सोती हैं. न तो यहां खेलने का मैदान था और न मनोरंजन का अन्य कोई साधन.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश देश के बाल सुधार गृहों की स्थिति के अध्ययन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी. इस न्यायिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे 40 प्रतिशत “विधि विवादित बच्चे” बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं. यहां उन्हें रखने का मकसद उन में सुधार लाना है, लेकिन हमारे बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है.

किशोर न्याय अधिनियम के कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाय अभी भी कागजों पर ही हैं. सुधार और आश्रय गृहों में रहने वाले बच्चे खासकर लड़कियां बिलकुल सुरक्षित नही हैं. सब से चिंताजनक बात यह है कि गृहों में बच्चियों के साथ बलात्कार, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के ज्यादातर मामलों में वहां के कर्मचारी और अधिकारी ही शामिल होते हैं. और क्या खबर कि पैसे की हवस में इन बच्चियों को रात के अंधेरे में देह के भूखे भेड़ियों के पास भी भेजा जाता हो.

पति बातबात पर गुस्सा करते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 37 वर्षीया विवाहिता, डेढ़ साल के बेटे की मां हूं और संयुक्त परिवार की बहू हूं. हम सब लोग एक घर में ही रहते हैं. मेरे पति पहले बहुत अच्छे थे पर मेरी शादीशुदा बड़ी ननद जब भी हमारे घर आती है, तब वह सब को भड़काती रहती है. इसी कारण पति बातबात पर गुस्सा करते हैं और अब तो उन्होंने मुझे दुत्कारना भी शुरू कर दिया है. मैं एक निजी फर्म में काम करती हूं और ससुराल वालों व पति को अपनी कमाई देती हूं. अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?

जवाब

पहले यह जानने का प्रयास करें कि पति आप पर किस बात पर गुस्साते हैं. आप खुद सोचें कि कहीं आप उन पर चीजें थोपने तो नहीं लगी हैं जिस की वजह से वे आप से चिढ़ने लगे हैं. हो सकता है उन्हें आप का नौकरी करना पसंद न हो और आप जबरदस्ती जौब कर उन्हें नीचा दिखा रही हों. इस के लिए आप पति से खुल कर प्यार से बात करें और जानने की कोशिश करें कि समस्या आखिर कहां है. जहां तक ननद की भड़काने की बात है, तो हो सकता है यह आप की गलतफहमी हो. इस बात को ले कर भी पति से ही चर्चा करें. ननद से मिलजुल कर रहने की कोशिश करें. सबकुछ धीरेधीरे ठीक हो जाएगा.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

Mother’s Day 2024 : परवरिश का पैमाना

बच्चों की परवरिश का यह सब से बेहतर दौर है. आज उन्हें तमाम सुखसुविधाएं, साधन और आजादी मिली हुई है. उन्हें महंगी शिक्षा दिलाने में मांबाप लाखों रुपए खर्च करने से नहीं हिचकते क्योंकि उन की पहली प्राथमिकता संतान और उस का बेहतर भविष्य है. अभिभावकों की कमाई का आधे से ज्यादा पैसा बच्चों पर खर्च हो रहा है, यह कम हैरत की बात नहीं क्योंकि पहले ऐसा नहीं था, तब तसवीर कुछ और थी. अपने बच्चों के सुखसहूलियतों की खातिर मांबाप कोल्हू के बैल की तरह पैसा कमाने में जुटे हैं. इस की अहम वजह है अब बच्चे पहले की तरह थोक में नहीं 1 या 2 ही पैदा किए जा रहे हैं.

मौजूदा मांबाप चाहते हैं कि जो उन्हें उन के मांबाप से नहीं मिल सका, वह सब वे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों को दें. एमएनआईटी भोपाल के एक 46 वर्षीय प्राध्यापक आर के बघेल का कहना है, ‘‘आज की पीढ़ी को वह सब मिल रहा है जो हमारी पीढ़ी को नहीं मिला था. आज के बच्चे हमारी तरह तंगी में नहीं पढ़ रहे. वे कोर्स की 1 किताब मांगते हैं हम 4 ला कर देते हैं. कंप्यूटर, इंटरनैट, एसी, कार, गीजर जैसी चीजें हर उस घर में मौजूद हैं जिस की आमदनी 60-70 हजार रुपए है,’’ बघेल बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं, ‘‘ऐसा महज संपन्न परिवारों में ही नहीं है बल्कि कम कमाई वाले मांबाप भी हैसियत से बढ़ कर बच्चों की जरूरतों और इच्छाओं पर खर्च कर रहे हैं और इस के लिए अधिकांश मांएं नौकरी भी कर रही हैं.’’ भोपाल के सीनियर पीडिएट्रिक ए एस चावला की मानें तो, ‘‘बच्चों की परवरिश पर आजकल के मांबाप उन के जन्म से पहले से ही पैसा खर्चने में कंजूसी नहीं करते. बच्चे अब वैज्ञानिक तरीके से पाले जा रहे हैं. पहले की तरह कुदरत के भरोसे नहीं पलते. बच्चे अब मांबाप की पहली प्राथमिकता हैं.

उन के स्वास्थ्य से मांबाप कोई समझौता नहीं करते. उन्हें जरा सी बीमारी हो तो भी वे हमारे पास दौड़ते हैं और महंगे इलाज के लिए सोचते नहीं.’’ इन दोनों की ही बातें सच और हकीकत के काफी नजदीक हैं क्योंकि बच्चों को ले कर मांबाप कोई समझौता नहीं करते. पहले एक मांबाप के 4, 6 या उस से भी ज्यादा बच्चे होना आम बात थी. लिहाजा, उन की परवरिश पर कम खर्च किया जाता था. लोग ज्यादा कमाते भी नहीं थे. ऐसे में उन की परवरिश पर होने वाला खर्च उन की संख्या के हिसाब से बंट जाता था. 40 के ऊपर के अधिकांश मांबाप को याद है कि उन के दौर में चवन्नीअठन्नी का मिट्टी का खिलौना मांगने पर भी झिड़कियां और डांट मिलती थी. जेबखर्च के नाम पर महीने में 5 रुपए भी नहीं मिलते थे और बड़े भाईबहनों के कपड़ों को छोटा करवा कर पहना जाता था, उन की पुरानी कौपियों के कोरे पन्ने फाड़ कर रफ कौपी बनाई जाती थी और पुरानी किताबों से पढ़ाई करनी पड़ती थी. मौसम की सब से सस्ती सब्जी खरीदी जाती थी जिस से सभी पेट भर खा सकें और नातेरिश्तेदारी में एकाध बच्चे को ही ले जाया जाता था.

यह और ऐसी कई बातें भले ही इन मांबाप के लिए मीठी यादें हों पर समानांतर एक कुंठा भी है कि हम अपने बच्चों को वह सब देंगे जिस के लिए हमें तरसना पड़ा था. किसी भी स्कूलकालेज में चले जाइए, संपन्नता बच्चों के चेहरों के अलावा महंगे कपड़ों और ब्रैंडेड सामान से भी झलकती है. यह ठीक है कि संयुक्त परिवार खत्म हो चले हैं और एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, लोग सामाजिक रूप से सिकुड़ते जा रहे हैं पर वे अपने छोटे दायरे में खुश हैं क्योंकि उस में कोई कमी या अभाव नहीं है. इस का सब से बड़ा फायदा बच्चों को मिला है जिन के पास जरूरत की हर चीज मौजूद है, तमाम आधुनिक गैजेट्स हैं, वक्त काटने के लिए मनोरंजन के तरहतरह के साधन हैं और अपने शौकों पर खर्च करने के लिए पैसे की तंगी नहीं. यानी बेहतर भविष्य और कैरियर बनाने में कोई अड़ंगा नहीं है.

लेकिन इस के बाद भी कुछ बच्चों को शिकायत है कि मम्मीपापा उन्हें उतना वक्त नहीं देते जितने के वे हकदार हैं या जितना उन्हें चाहिए. इस शिकायत से यह बात महज कहने वाली साबित होती है कि नाजनखरों में पल रहे आज के बच्चे नाजुक और कमजोर हैं. मांबाप से वक्त की कमी की शिकायत बताती है कि वे जागरूक भी हैं. कुछ वजहों से यह जागरूकता कभीकभी अवसाद और आक्रामकतायुक्त हो जाती है. भोपाल में बीती 25 अप्रैल को 12वीं कक्षा की 17 वर्षीय एक छात्रा महिमा राज ने दोपहर 1 बजे बाथरूम में जा कर फांसी लगा ली. अपने छोड़े सुसाइड नोट में महिमा ने अपने मम्मीपापा को संबोधित कर के लिखा था, ‘मम्मी, आप के पास हमारी बात सुनने का समय नहीं है, यह चेतावनी है, आप लोग अपने काम में लगे रहते हो, मैं कुछ कहना चाहती हूं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है, अब तो आप मेरी बात सुनेंगे.’ सागर पब्लिक स्कूल की छात्रा महिमा के पिता रवींद्र कुमार राज सिंडीकेट बैंक में अधिकारी हैं और मां रंजना राज भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत हैं. जाहिर है पतिपत्नी दोनों के नौकरी करने के कारण महिमा और उस की बहन को किसी तरह की कमी न थी. महिमा की खुदकुशी ने एक नई बहस मांबाप की भूमिका को ले कर छेड़ दी. अधिकांश ने व्यथित हो कर मांबाप को इस का जिम्मेदार ठहराया कि कैसे लापरवाह हैं, कमाने में इस तरह व्यस्त रहे कि बच्ची को वक्त नहीं दे पाए.

बड़े पैमाने पर हुई इस चर्चा, जिस में लोग मुद्दे की बात नहीं पकड़ पाए, ने रवींद्र और रंजना का दुख दोगुना कर दिया. जाहिर है लगभग सभी ने महिमा के इस आत्मघाती कदम को उसी के नजरिए से देखा. यह कम ही लोगों ने सोचा कि उस के मांबाप दोनों आखिरकार नौकरी किस के लिए कर रहे थे. शाहपुरा इलाके के फौर्चून प्रैस्टिज अपार्टमैंट में रहने वाले इस दंपती की हर मुमकिन कोशिश यह थी कि बेटियों के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए ताकि वे बेहतर पढ़ाई कर सकें और उन की शादी में कोई दिक्कत पेश न आए. इन दोनों में से कोई एक नौकरी न करता तो भी सम्मानजनक तरीके से 4 सदस्यों के परिवार का गुजारा हो जाता. यह है गड़बड़ आत्महत्या चूंकि महिमा ने की है इसलिए उस से सभी को सहानुभूति है और सोचा भी उसी के दिमाग से जा रहा है. हादसे के दिन दोपहर में रवींद्र घर आए थे.

महिमा घर में नहीं मिली तो वे परेशान हो उठे, बाथरूम में झांक कर देखा तो बेटी को फांसी के फंदे पर लटकता देख उन के होश फाख्ता होना स्वाभाविक बात थी. अकेलापन इस पीढ़ी के किशोरों की एक बड़ी समस्या है जिसे आगे और बढ़ना ही है क्योंकि अधिकांश पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं और केवल पैसा कमाने नहीं बल्कि बच्चों के सुख और सहूलियतों की खातिर हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, खटते हैं, कार्यालय जाते हैं और तमाम दिक्कतें उठाते हैं यानी खुद वह सुख छोड़ते हैं जिसे वे भोग सकते थे. मांबाप की एक बड़ी गलती या भूल बच्चों को समझदार और परिपक्व मान लेने की है क्योंकि वे इंटरनैट इस्तेमाल करते हैं, टीवी देखते हैं. लड़कों के मामले में बात थोड़ी भिन्न है. वे मांबाप की गैरमौजूदगी में यारदोस्तों के साथ घूमतेफिरते, गपें लड़ाने में वक्त काट लेते हैं. अब हालांकि लड़कियों को भी यह आजादी मिलने लगी है पर वे भावनात्मक रूप से मांबाप के ज्यादा नजदीक रहती हैं और उन्हें चाहती भी हैं. मिसाल महिमा जैसी लड़कियों की लें तो उन्हें इस बात का एहसास कराने वाला कोई नहीं था कि मम्मीपापा उस की बेहतरी के लिए नौकरी कर रहे हैं. उस के मन की यह गांठ खोलने वाला भी कोई नहीं था कि मांबाप उसे चाहते हैं पर चाहत व्यक्त करने के लिए उन के पास वक्त नहीं, और है भी तो उस की उम्र के चलते उसे परिपक्व मान व्यक्त नहीं कर रहे हैं.

हो यह रहा है कि मांबाप बच्चों को उन की पाठ्यपुस्तकों, टीवी और इंटरनैट के हवाले कर बेफिक्र होने की गलती कर रहे हैं. पाठ्यपुस्तकें सिर्फ उत्तीर्ण करा सकती हैं, दुनियादारी का पाठ नहीं पढ़ा सकतीं. टीवी बच्चों के दिमाग में कचरा भर रहा है. तमाम पारिवारिक कहे जाने वाले धारावाहिक हिंसा, षड्यंत्र, कुटिलता और टूटन से भरे पड़े हैं. इन में व्यावहारिक शिक्षा का अभाव है व ऊंचनीच और समझ सिखाने वाले सबक नहीं हैं. नतीजतन, इन से घिरा बच्चा खुद को अकेला ही पाता है. टीवी की काल्पनिक दुनिया देख वह उसी को हकीकत मान घबरा उठता है. चूंकि कोई विकल्प उस के पास नहीं होता इसलिए वह एक काल्पनिक संसार में, जहां कदमकदम पर छलकपट है, खुद को घिरा पाता है. परिणामस्वरूप, वह जिद्दी, चिड़चिड़ा और विद्रोही हो जाता है. मांबाप इस हालत में देख उसे समझाते हैं तो वे उसे दुश्मन से लगते हैं.

बातबात में मांबाप की शिक्षाप्रद बातों के विरोध को ही बच्चे फैशन, जागरूकता व हक मानने लगते हैं और कुतर्क करने लगते हैं. एक हद तक समझाने के बाद भी बच्चा समझने की कोशिश नहीं करता, उलटे सुनने से ही इनकार कर देता उठता है. मांबाप थकहार कर चुप हो जाते हैं क्योंकि नौकरी या कारोबार करतेकरते ही वे पहले से काफी थके होते हैं. बच्चों में अच्छे, व्यावहारिक और शिक्षात्मक साहित्य को पढ़ने की आदत किशोरावस्था से ही डाली जानी चाहिए जिस से बच्चे आंख के बजाय दिमाग से सोचें, विश्लेषण करें और निष्कर्ष निकालें. इस से वे अपनी समस्याओं से निबटने में खुद को सक्षम पाएंगे. वे मांबाप की न सुनें पर पुस्तकों और पत्रिकाओं की जरूर सुनने को मजबूर होंगे जो व्यावहारिकता सिखाती हैं और प्रशिक्षित भी करती हैं. ऐसे में बच्चा पलायनवादी प्रवृत्ति से बचा रह कर रचनात्मक बना रहता है जो उस के आत्मविश्वास की बड़ी वजह होता है.

Mother’s Day 2024: ममता – क्या ममता का रूप भी कभी बदल पाता है

दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

मैं ही दोषी हूं: शची के साथ वक्त ने कैसा मजाक किया

‘‘मिश्राजी, अब तो आप खुश हैं न, आप का काम हो गया…आप का यह काम करवाने के लिए  मुझे काफी पापड़ बेलने पड़े,’’ शची ने मिठाई का डब्बा पकड़ते हुए आदतन कहा.

‘‘भाभीजी, बस, आप की कृपा है वरना इस छोटी सी जगह में बच्चों से दूर रहने के कारण मेरा तो दम ही घुट जाता,’’ मिश्राजी ने खीसें निपोरते हुए कहा.

शची की निगाह मिठाई से ज्यादा लिफाफे पर टिकी थी और उन के जाते ही वह लिफाफा खोल कर रुपए गिनने लगी. 20 हजार के नए नोट देख कर चेहरे की चमक दोगुनी हो गई थी.

शची के पति पल्लव ऐसी जगह पर कार्यरत थे कि विभाग का कोई भी पेपर चाहे वह ट्रांसफर का हो या प्रमोशन का या फिर विभागीय खरीदारी से संबंधित, बिना उन के दस्तखत के आगे नहीं बढ़ पाता था. बस, इसी का फायदा शची उठाती थी.

शुरू में पल्लव शची की ऐसी हरकतों पर गुस्सा हो जाया करते थे, बारबार मना करते थे, आदर्शों की दुहाई देते थे पर लोग थे कि उन के सामने दाल न गलती देख, घर पहुंच जाया करते थे और शची उन का काम करवाने के लिए उन पर दबाव बनाती, यदि उन्हें ठीक लगता तो वे कर देते थे. बस, लोग मिठाई का डब्बा ले कर उन के घर पहुंचने लगे…शची के कहने पर फिर गिफ्ट या लिफाफा भी लोग पकड़ाने लगे.

इस ऊपरी कमाई से पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई खुशी को देख कर पल्लव भी आंखें बंद करने लगे. उन के मौन ने शची के साहस को और भी बढ़ा दिया. पहले अपना काम कराने के लिए लोग जितना देते शची चुपचाप रख लेती थी किंतु जब इस सिलसिले ने रफ्तार पकड़ी तो वह डिमांड भी करने लगी.

पत्नी खुश, बच्चे खुश तो सारा जहां खुश. पहले जहां घर में पैसों की तंगी के कारण किचकिच होती रहती थी वहीं अब घर में सब तरह की चीजें थीं. यहां तक कि बच्चों के लिए अलगअलग टीवी एवं मोटर बाइक भी थीं.

शची जब अपनी कीमती साड़ी और गहनों का प्रदर्शन क्लब या किटी पार्टी में करती तो महिलाओं में फुसफुसाहट होती थी पर किसी का सीधे कुछ भी कहने का साहस नहीं होता था. कभी कोई कुछ बोलता भी तो शची तुरंत कहती, ‘‘अरे, इस सब के लिए दिमाग लड़ाना पड़ता है, मेहनत करनी पड़ती है, ऐसे ही कोई नहीं कमा लेता.’’

कहते हैं लत किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती और जब  यही लत अति में बदल जाती है तो दिमाग फिरने लगता है. यही शची के साथ हुआ. पहले तो जो जितना दे जाता वह थोड़ी नानुकुर के बाद रख लेती लेकिन अब काम के महत्त्व को समझते हुए नजराने की रकम भी बढ़ाने लगी थी. शची की समझ में यह भी आ गया है कि आज सभी को जल्दी है तथा सभी एकदूसरे को पछाड़ कर आगे भी बढ़ना चाहते हैं. और इसी का फायदा शची उठाती थी.

कंपनी को अपने स्टाफ के लिए कुछ नियुक्तियां करनी थीं. पल्लव उस कमेटी के प्रमुख थे. जैसा कि हमेशा से होता आया था कि मैरिट चाहे जो हो, जो चढ़ावा दे देता था उसे नियुक्तिपत्र मिल जाता था तथा अन्य को कोई न कोई कमी बता कर लटकाए रखा जाता था. एक जागरूक प्रत्याशी ने इस धांधली की सूचना सीबीआई को दे दी और उन्होंने उस प्रत्याशी के साथ मिल कर अपनी योजना को अंजाम दे दिया.

वह प्रत्याशी मिठाई का डब्बा ले कर पल्लव के घर गया. उस दिन शची कहीं बाहर गई हुई थी अत: दरवाजा पल्लव ने ही खोला. उस ने उन्हें अभिवादन कर मिठाई का डब्बा पकड़ाया और कहा, ‘‘सर, सेवा का मौका दें.’’

‘‘क्या काम है?’’ पल्लव ने प्रश्नवाचक नजर से उसे देखते हुए पूछा.

‘‘सर, मैं ने इंटरव्यू दिया था.’’

‘‘तो क्या तुम्हारा चयन हो गया है?’’

‘‘जी हां, सर, पर नियुक्तिपत्र अभी तक नहीं मिला है.’’

‘‘कल आफिस में आ कर मिल लेना. तुम्हारा काम हो जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर, लिफाफा खोल कर तो देखिए, इतने बहुत हैं या कुछ और का इंतजाम करूं.’’

‘‘अरे, इस की क्या जरूरत थी… जितना भी है ठीक है,’’ पल्लव ने थोड़ा झिझक कर कहा क्योंकि उन के लिए यह पहला मौका था…यह काम तो शची ही करती थी.

‘‘सर, यह तो मेरी ओर से आप के लिए एक तुच्छ भेंट है. प्लीज, एक बार देख तो लीजिए,’’ उस प्रत्याशी ने नम्रता से सिर झुकाते हुए कहा.

पल्लव ने रुपए निकाले और गिनने शुरू कर दिए. तभी भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते के लोग बाहर आ गए और पल्लव को धरदबोचा तथा पुलिस कस्टडी में भेज दिया.

शची जब घर लौटी तो यह सब सुन कर उस ने अपना माथा पीट लिया. उसे पल्लव पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उसी के सामने रुपए गिनने क्यों शुरू किए…लेते समय सावधानी क्यों नहीं बरती. थोड़ा सावधान रहते तो मुंह पर कालिख तो नहीं पुतती. लोग तो करोड़ों रुपए का वारान्यारा करते हैं पर फिर भी नहीं पकड़े जाते और यहां कुछ हजार रुपयों के लिए नौकरी और इज्जत दोनों जाती रहीं. इच्छाएं इस तरह उस का मानमर्दन करेंगी यह उस ने सोचा भी नहीं था.

जानपहचान के लोग अब बेगाने हो गए थे. वास्तव में वह स्वयं सब से कतराने लगी थी. सब उस की अपनी वजह से हुआ था. पल्लव तो सीधेसीधे काम से काम रखने वाले थे पर उस की आकांक्षाओं के असीमित आकाश की वजह से पल्लव को यह दिन देखना पड़ा है.

शची ने यह सोच कर कि पैसे से सबकुछ संभव है, शहर का नामी वकील किया पर उस ने शची से पहले ही कह दिया, ‘‘मैडम, मैं आप को भुलावे में नहीं रखना चाहता. आप के पति रंगेहाथों पकड़े गए हैं अत: केस कमजोर है पर हां, मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगा.’’

पल्लव अलग से परेशान थे क्योंकि उन की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. आश्चर्य तो शची को तब होता था जब उसे अपने पति से मिलने के लिए ही नजराना चुकाना पड़ता था.

‘‘तो क्या सारा तंत्र ही भ्रष्ट है. अगर यह सच है तो यह सब दिखावा किस लिए?’’ अपने वकील को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘मैडम, आज के दौर में बहुत कम लोग ईमानदार रह गए हैं. जो ईमानदार हैं उन्हें भी हमारी व्यवस्था चैन से नहीं रहने देती. आप जिन लोगों की बात कर रही हैं वे भी कहीं नौकरी कर रहे हैं, उन्हें भी अपनी नौकरी बचाने के लिए कुछ मामले चाहिए… अब उस में कौन सा मुरगा फंसता है यह व्यक्ति की असावधानी पर निर्भर है.’’

उधर पल्लव सोच रहे थे कि नौकरी गई तो गई, पूरे जीवन पर एक कलंक अलग से लग गया. जिन बीवीबच्चों के लिए मैं ने यह रास्ता चुना वही उसे अब दोष देने लगे हैं. शची तो चेहरे पर झुंझलाहट लिए मिलने आ भी रही थी पर बच्चे तो उन से मिलने तक नहीं आए थे. क्या सारा दोष उन्हीं का है?

कितने अच्छे दिन थे जब शची के साथ विवाह कर के वह इस शहर में आए थे. आफिस जाते समय शची उन से शाम को जल्दी आने का वादा ले लिया करती थी. दोनों की शामें कहीं बाहर घूमने या सिनेमा देखने में गुजरती थीं. अकसर वे बाहर खा कर घर लौटा करते थे. हां, उन के जीवन में परेशानी तब शुरू हुई जब विनीत पैदा हुआ. अभी विनीत 2 साल का ही था कि विनी आ गई और वे 2 से 4 हो गए लेकिन उन की कमाई में कोई खास फर्क नहीं आया.

हमेशा हंसने वाली शची अब बातबात पर झुंझलाने लगी थी. पहले जहां वह सजधज कर गरमागरम नाश्ते के साथ उन का स्वागत किया करती थी अब बच्चों की वजह से उसे कपड़े बदलने का भी होश नहीं रहता था. पल्लव समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें?

बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल करवाने के लिए डोनेशन चाहिए था. उस स्कूल की मोटी फीस के साथ दूसरे ढेरों खर्चे भी थे…कैसे सबकुछ होगा? कहां से पैसा आएगा…यह सोचसोच कर शची परेशान हो उठती थी.

उन्हीं दिनों उन के एक मातहत का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. उस ने पल्लव से निवेदन किया तो उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उस का ट्रांसफर रुकवा दिया था. इस खुशी में वह मिठाई के साथ 2 हजार रुपए भी घर दे गया. अब शची उन से इस तरह के काम करवाने का आग्रह करने लगी थी. शुरू में तो वह झिझके भी पर धीरेधीरे झिझक दूर होती गई और वह भी अभ्यस्त हो गए थे. ऊपर की कमाई के पैसों से शची के चेहरे पर आई चमक उन्हें सुकून पहुंचा जाती थी…साथ ही बच्चों की जरूरतें भी पूरी होने लगी थीं.

खूब धूमधाम से उन्होंने पिछले साल ही विनी का विवाह किया था…विनीत भी इसी वर्ष इंजीनियरिंग कर जाब में लगा है. अच्छीभली जिंदगी चल रही थी कि एकाएक वर्षों की मेहनत पर ग्रहण लग गया.

तब पल्लव को भी लगने लगा था कि भ्रष्टाचार तो हर जगह है… अगर वह भी थोड़ाबहुत कमा लेते हैं तो उस में क्या बुराई है. फिर वह किसी से मांगते तो नहीं हैं, अगर कुछ लोग अपना काम होने पर कुछ दे जाते हैं तो यह तो भ्रष्ट आचरण नहीं हुआ. लगता है, उन के साथ किसी ने धोखा किया है या उन्हें जानबूझ कर फंसाया गया है.

कहते तो यही हैं कि लेने वाले से देने वाला अधिक दोषी है पर देने वाला अकसर बच निकलता है जबकि अपना काम निकलवाने के लिए बारबार लालच दे कर वह व्यक्ति को अंधे कुएं में उतरने के लिए प्रेरित करता है और प्यास बुझाने को आतुर उतरने वाला यह भूल जाता है कि कुएं में स्वच्छ जल ही नहीं गंदगी के साथसाथ कभीकभी जहरीली गैसें भी रहती हैं और अगर एक बार आदमी उस में फंस जाए तो उस से बच पाना बेहद मुश्किल होता है. बच भी गया तो अपाहिजों की तरह जिंदगी बितानी पड़ जाती है.

अब पल्लव को महसूस हो रहा था कि बुराई तो बुराई है. किसी के दिल को दुखा कर कोई सुखी नहीं रह सकता. उन्होंने अपना सुख तो देखा पर जिसे अपने सुखों में कटौती करनी पड़ी, उन पर क्या बीतती होगी…इस पर तो उन का ध्यान ही नहीं गया था.

मानसिक द्वंद्व के कारण पल्लव को हार्टअटैक पड़ गया था. सीबीआई ने अपने अस्पताल में ही उन्हें भरती कराया किंतु हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जा रही थी. शची, जो इस घटना के लिए, सारी परेशानी के लिए उन्हें ही दोषी मानती रही थी…उन की बिगड़ती हालत देख कर परेशान हो उठी.

पहले जब शची ने पल्लव की बिगड़ती हालत पर सीबीआई का ध्यान आकर्षित किया था तो उन में से एक ने हंसते हुए कहा था, ‘डोंट वरी मैडम, सब ठीक हो जाएगा. यहां आने पर सब की तबीयत खराब हो जाती है.’

उस समय उस की शिकायत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन दूसरे दिन जब वह मिलने गई तो पल्लव को सीने में दर्द से तड़पते पाया. शची से रहा नहीं गया और वह सीबीआई के सीनियर आफिसर के केबिन में दनदनाती हुई घुस गई तथा गुस्से में बोली, ‘आप की कस्टडी में अगर पल्लव की मौत हो गई तो लापरवाही के लिए मैं आप को छोड़ूंगी नहीं. आखिर कैसे हैं आप के डाक्टर जो वास्तविकता और नाटक में भेद नहीं कर पा रहे हैं.’

शची की बातें सुन कर वह सीनियर अधिकारी पल्लव के पास गया और उन की हालत देख कर उन्हें नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया पर तब तक देर हो चुकी थी. डाक्टर ने पल्लव को भरती तो कर दिया पर अभी वह खतरे से खाली नहीं थे.

रोतेरोते शची की आंखें सूज गई थीं. कोई भी तो उस का अपना नहीं था. ऐसे समय बच्चों ने भी शर्मिंदगी जताते हुए आंखें फेर ली थीं. इस दुख की घड़ी में बस, उस की छोटी बहन विभा जबतब उस से मिलने आ जाया करती थी जो बहन को समझाबुझा कर कुछ खिला जाया करती थी.

शची टूट एवं थक चुकी थी. जाती भी तो जाती कहां? घर अब वीरान खंडहर बन चुका था. अत: वह वहीं अस्पताल में स्टूल पर बैठे पति को एकटक निहारती रहती थी. पल्लव को सांस लेने में शिकायत होने पर आक्सीजन की नली लगाई गई थी. सदमा इनसान को इस हद तक तोड़ सकता है, आज उसे महसूस हो रहा था. पति की हालत देख कर शची परेशान हो जाती पर कर भी क्या सकती थी. पल्लव की यह हालत भी तो उसी के कारण हुई है.

मन में हलचल मची हुई थी. तर्कवितर्क चल रहे थे. कभी पति को इतना असहाय उस ने महसूस नहीं किया था. दोनों बच्चे अपनीअपनी दुनिया में मस्त थे. पल्लव की गिरफ्तारी की खबर सुन कर उन दोनों ने अफसोस करना तो दूर, शर्मिंदगी जताते हुए किनारा कर लिया था पर बीमार पल्लव को देख कर रहा नहीं गया तो एक बार फिर उन की बीमारी के बारे में उस ने बच्चों को बताया.

विनी ने रटारटाया वाक्य दोहरा दिया था, ‘ममा, मैं नहीं आ सकती, डैड की वजह से मैं घर के सदस्यों से नजर नहीं मिला पा रही हूं…आखिर डैड को ऐसा करने की आवश्यकता ही क्या थी?’

आना तो दूर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया विनीत की भी थी. शची समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे. बच्चों के मन में पिता के प्रति बनी छवि ध्वस्त हो गई थी…पर क्या वह नहीं जानते थे कि पिता के इतने कम वेतन में तो उन की सुरसा की तरह नित्य बढ़ती जरूरतें व इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती थीं.

शची को अपनी कोख से जन्मी संतानों से नफरत होने लगी थी. कितने स्वार्थी हो गए हैं दोनों…पिता तो पिता उन्हें मां की भी चिंता नहीं रही…उस मां की जिस ने उन के अरमानों को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास किए, उन्हीं के लिए गलत रास्ता अपनाया, हर सुखसुविधा दी…अच्छे से अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलवाई, धूमधाम से विवाह किया…यहां तक कि दहेज में विनी को जब कार दी थी तब तो उस ने नहीं पूछा कि ममा, इतना सब कैसे कर पा रही हो.

‘तुम बच्चों को क्यों दोष दे रही हो शची?’ उस के मन ने उस से पूछा, ‘उन्होंने तो वही किया जिस के वह आदी रहे थे… जैसे माहौल में तुम ने उन्हें पाला वैसे ही वह बनते गए. क्या तुम ने कभी किसी कमी का एहसास उन्हें कराया या तंगी में रहने की शिक्षा दी…पल्लव तो आदर्शवादी रहे थे, चोरीछिपे किए तुम्हारे काम से नाराज भी हुए थे तब तो तुम्हीं कहा करती थीं कि मैं सिर्फ वेतन में घर का खर्च नहीं चला सकती…तुम तो कुछ नहीं कर रहे हो, जो भी कर रही हूं वह मैं कर रही हूं…और हम मांग तो नहीं रहे…अगर थोड़ाबहुत कोई अपनी खुशी से दे जाता है तो आप को बुरा क्यों लगता है?’ अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन वह बोल पड़ी, ‘पर मैं ऐसा तो नहीं चाहती थी.’

‘ठीक है, तुम ऐसा नहीं चाहती थीं पर क्या तुम्हें पता नहीं था कि जो जैसा करता है उस का फल उसे भुगतना ही पड़ता है.’

अपनी आत्मा के साथ हुए वादविवाद से अब शची को एहसास हो गया था कि उसी ने बुराई को प्रश्रय दिया था. पल्लव के विरोध करने पर तकरार होती पर अंतत: जीत उस की ही होती. पल्लव चुप हो जाते फिर घर में खुशी के माहौल को देख कर वह भी उसी के रंग में रंगते गए.

अगर वह पल्लव को मजबूर नहीं करती, उन की सीमित आय में ही घर चलाती और बच्चों को भी वैसी ही शिक्षा देती तो आज पल्लव का यह हाल न होता…कहीं न कहीं पल्लव के इस हाल के लिए वही दोषी है.

पल्लव ने उस की खातिर बुराई का मुखौटा तो पहन लिया था पर शायद मन के अंदर की अच्छाई को मार नहीं पाए थे तभी तो अपनी छीछालेदर सह नहीं पाए और बीमार पड़ गए पर अब पछताए होत क्या जब चिडि़यां चुग गईं खेत.

पल्लव की हिचकी ने उस के मन में चल रहे अंधड़ को रोका. उन्हें तड़पते देख कर वह डाक्टर को बुलाने भागी और जब तक डाक्टर आए तब तक सब समाप्त हो चुका था. उस की आकांक्षाओं के आकाश ने उस का घरसंसार उजाड़ दिया था.

खबर सुन कर विभा भागीभागी आई और उसे देखते ही शची चीत्कार कर उठी, ‘‘पल्लव की मौत के लिए मैं ही दोषी हूं…मैं ही उन की हत्यारिन हूं… पल्लव निर्दोष थे…मेरी गलती की सजा उन्हें मिली…’’

शची का मर्मभेदी प्रलाप सुन कर विभा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उसे संभाले. सचाई का एहसास एक न एक दिन सब को होता है पर यहां देर हो गई थी.

दशकों से नारी व्यथा की चर्चा ढाक के तीन पात

जो चीज पुरुषों के लिए जायज ठहरा दी गई, महिलाओं के लिए उस की मनाही है. जानेमाने समाजवादी चिंतक व सांसद रहे डा. राम मनोहर लोहिया ने नारियों को जब सब से विवश दलित की कोटि में रखा था तो जरूर उन की दृष्टि में नारी जाति की परवशता का स्पष्ट खाका मौजूद रहा होगा. देश की स्वतंत्रता के समय से आज तक नारी को समान अधिकार दिलाने के लिए उन की सामाजिक दशा सुधारने की दिशा में अनगिनत आंदोलन और नारों की गूंज कभी मंद न पड़ी मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात.

किसी भी दैनिक समाचारपत्र, टीवी चैनल, पत्रिका के पन्ने पलटिए, सब से अधिक चर्चा और खबर नारी उत्पीड़न और शोषण की ही होती है. समाज के निर्माण और उत्थान में आधे से अधिक का सतत योगदान करने वाली इस सत्ता के प्रति हमारे तथाकथित सभ्य समाज की वह कौन सी कुंठा है जिस के कारण तमाम तरह के सरकारी, गैरसरकारी प्रयासों के बाद भी आज तक नारी की दिशा में एवं उन के प्रति हमारी दृष्टि से समुचित सुधार शुरू नहीं किए जा सके हैं. आज तो उलटी गिनती शुरू हो गई है.

‘यत्र नार्यस्त पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ जैसे थोथे व आधेअधूरे संस्कृत श्लोक का सहारा ले कर चाहे जो कह दिया जाए, असल में नारियों को जूतियों की तरह बदल देने की आदत आज भी वैसी ही है. समकालीन समाज में और तथाकथित आज के हमारे सभ्य समाज में नारियों की दशा में जो भी सकारात्मक परिवर्तन हुआ है वह आधुनिक शिक्षा के बल पर हुआ है पर आज व्हाट्सऐप संस्कृति सूई उलटी घुमा रही है.

हमारी संकुचित दृष्टि और महिलाओं के खिलाफ रवैए में कोई बहुत अंतर नहीं आया है. नारियां आज भी हमारे घरों में दोयम दरजे की नागरिकता वहन कर रही हैं. जब कभी और जहां कहीं भी उन्होंने अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा और मौलिक सोच का जीवट से अपनी काबिलीयत सिद्ध करने की कोशिश की है, उन पर सौ लांछन, हजार तोहमतें बरसी हैं.

मशहूर साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को आज भी खूब पढ़ा जाता है पर उन्होंने ही कहा था कि पुरुष में स्त्रियों के गुण आ जाते हैं तो वह देवता हो जाता है और स्त्रियों में जब पुरुषों के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा. लगता है कि उन के इस कथन में भी वह पुरुषवादी अहं सक्रिय था जो स्त्रियों की कर्मठता, मौलिकता और मजबूती का अनुभव होते ही या तो अपनी आंखें बंद कर लेता है या किसी जन्मजात या पूर्वाग्रही कुंठा से भर जाता है कि नारी पुरुषों से श्रेष्ठ कभी हो ही नहीं सकती.

प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्नी के संदर्भ में लिखा है, ‘वह एक अभागी स्त्री थी.’ कोई व्यक्तिगत अनुभव रहा होगा जिस की खटास उन के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद पर दस्तक देता रहा होगा और जिसे भरसक दूर कर देने का काम उन की पत्नी शिवरानी देवी ने किया होगा. एक बाल विधवा से पुनर्विवाह कर प्रेमचंद ने अपनी रचनात्मक ईमानदारी का एक प्रमाण तो दिया था पर उस समय के समाज के प्रभाव से वे बच नहीं पाए.

अपनी मूल मंशा में हर धर्म अपना मतलब साधता है और अपनी ताकत पर लोगों को अपने पक्ष में कर के कमजोरों को ?ाकने को मजबूर करता है. धर्म के कर्मकांड का सब से अधिक वजन नाजुक मानी जाने वाली स्त्रियों को इसलिए उठाना पड़ता है क्योंकि वे समाज में सब से कमजोर हैं. पुरुषधर्म कहीं प्रचलन में नहीं है पर नारीधर्म हर धर्म का एक मूल बिंदु है. कौमार्य, पतिव्रता, पति की सेवा आदि पहले भी स्त्रियों की अच्छाई की बड़ी कसौटियां थीं और आज भी हैं.

सारे पर्वत्योहार, उपवास, नियम मूलतया स्त्रियों को बांधने के लिए बनाए गए हैं और इन्हें मान कर ही स्त्री अपने को अच्छा सिद्ध कर सकती है.

अलगअलग मानदंड क्यों

पुरुष वर्ग के लिए ऐसे मानदंडों पर उतर कर अच्छा कहलाने का विधान कहीं भी नहीं है. महीने में कईकई उपवास, निर्जला उपवास और उन से जुड़े पवित्रता व नैतिकता के सारे कानूनरिवाज को मानना सिर्फ स्त्रियों की जिम्मेदारी है. इन सारे विधिनिषेधों में जीवनभर जकड़ी रहती स्त्रियों को आज भी आमतौर पर, मृतक के साथ श्मशान जाने की मनाही है. बिना भाई वाली बहनें अपने पितामाता को मुखाग्नि का अधिकार नहीं रखतीं और अगर कहीं कोई ऐसा कर ले तो वह बड़ा समाचार बन जाती है. बेगम खालिदा जिया, शेख हसीना, बेनजीर भुट्टो, महबूबा मुफ्ती, नजमा हेपतुल्ला और मोहसिना किदवई के मील का पत्थर हो जाने के बावजूद आज भी आम मुसलिम लड़की का शिक्षा का अधिकार आधाअधूरा है.

सच तो यह है कि इनरबिल्ट अथवा प्रकृति की बनावट में स्त्रियां पुरुषों से अधिक श्रेष्ठ हैं. कांट का कथन ‘सितारे आसमान की कविता हैं और स्त्रियां धरती की’ और अमृता प्रीतम का दावा कि ‘हमें घटा कर देखो, तुम रेत में बदल जाओगे,’ भावुक कथन का दावा मात्र नहीं हैं, ये सृष्टि के अकाट्य सच हैं. फिर भी हिंदी की लेखिका मन्नू भंडारी के कथन को किसी भी दशा में खारिज नहीं किया जा सकता कि, ‘औरत के साथ क्याक्या और कैसीकैसी ज्यादतियां हुई हैं और हमारा कानून भी इस मामले में कितना आधाअधूरा है, यह पुरुष ने पढ़ कर जाना होगा और स्त्री ने भोग कर.’

चौतरफा तमाम प्रयासों के बावजूद कई दशकों की सैकड़ों नारीविमर्श की पुस्तकों और समकालीन तत्संबंधी आंदोलन के समानांतर यह सच तिल भर भी छोटा नहीं हुआ है कि नारी आज भी धर्म और समाज के पूर्वाग्रह व पक्षपात की कातर भोक्ता है तो क्यों? यह प्रश्न हम में से हर व्यक्ति की खुद से संबद्ध नारियों को दृष्टि में रख कर पूछने व उस का उचित उत्तर प्राप्त करने की जरूरत है.

हम ने अभीअभी अपेक्षाकृत नारी श्रेष्ठता की बात की है. प्रकृत रूप में सामान्य स्थितियों में नारियां अधिक सकारात्मक और समर्पणमयी हैं. वे बचपन में अपनी सहेलियों से भिड़ कर अपने घुटने जख्मी कर नहीं लौटतीं.

आज भी तमाम सांस्कृतिक प्रदूषण के बावजूद वे हमारी तरह बीच चौक पर खड़ी हो कर फर्राटे से मांबहन की गालियों के नग जड़ कर अपनी बातें नहीं कहतीं. वे राह चलते लावारिस कुत्तों पर लात नहीं चलातीं. वे मधुमक्खी के छत्तों पर योजनाबद्ध रूप में डंडे नहीं मारतीं. वे किसी भी फालतू पड़ी साइकिल के ट्यूब से हवा नहीं निकालतीं और न ही वे क्लास में पुरुष शिक्षक को घूंघट ओढ़ा कर या शिक्षिका की मूंछें बना कर, उन की विकृत तसवीरें ब्लैकबोर्ड पर बना कर अपनी कारस्तानी का परिचय देती हैं.

हम स्तरहीन नहीं बल्कि औसत और उच्च परिवारों की बात कर रहे हैं पर अपने साहस की सिद्धि और योग्यता परीक्षा की सफलता के बावजूद उन्हें फाइटर प्लेन उड़ाने से उच्चाधिकारियों द्वारा रोक दिया जाता है तो क्यों?

धर्म के जंजाल में फंसी महिला

आज वे विश्व की कई बड़ी कंपनियों की बागडोर पूरी कुशलता से थामे बैठी हैं. अमेरिका की पेप्सिको, फ्रांस की अरेबा और भारत में आईसीआईसीआई बैंक की बागडोर महिला के हाथों में रही है, जिन्होंने इस पूर्वाग्रह को धता बता दिया है कि वे अपनी शारीरिक संरचना या मानसिक बनावट के कारण दिमागी कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं हैं. वे शिकार हैं तो पुरुषों और उन के थोपे हुए धर्म के नियमों की वजह से.

मगर हमारा पक्षपात हर कहीं सक्रिय है. बिकिनी के प्रचार वाले मैनिक्विन तोड़ डाले जाते हैं. अंडरवियर के प्रचार में अर्धनग्न स्त्रियों पर अश्लीलता का आरोप लग जाता है पर पुरुषों पर कोई बवाल नहीं होता, क्योंकि पुरुषवादी अहं स्त्रियों को बराबरी का हक नहीं दे सकता है. पुरुष नंगा घूमे तो वह साधु हो जाता है. स्त्रियां बौयकट बाल रखें तो वे चालू. स्त्रियों के चुस्त होने और चुस्त दिखने से हमारी हिंदू धर्मजनित संस्कृति को बुखार चढ़ता है. यही हिंदू संस्कृति तब अपना मौन नहीं तोड़ती जब भंवरी देवी को डायन का इलजाम दे कर नंगा घुमाया जाता है या स्त्री अधिकार के नाम पर मणिपुरी की आदिवासी महिलाएं नग्न प्रदर्शन कर अपना विरोध जताती हैं.

सच तो यह है कि हमारी संस्कृति नंगी और मैली हो कर नष्ट ही तब होती है जब कोई क्रिएटिव या कैलिबर वाली महिला अपना निर्णय खुद लेने को तैयार होती है. तब समाज क्या, परिवार के लिए भी यह प्रतिष्ठा बिगड़ जाने का कारण बनने लगता है.

रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने तो घोषित ही कर दिया- ‘जिभि स्वतंत्र भय बिगड़हि नारी’ और ‘ताड़न के अधिकारी शूद्र पगु बोल नारी.’ इस पर बहुत चर्चा होती है. मगर सुधार के नाम पर वही ढाक के तीन पात.

एक स्टूडियो में फोटो खिंचवाती किसी लड़की से फोटोग्राफर ने कई बार कहा, ‘स्माइल प्लीज.’ लड़की तटस्थ रही तो फोटोग्राफर ने अपनी खी?ा उतारी, ‘आप मुसकराती क्यों नहीं, हंसिए, हंसती हुई लड़कियां अच्छी लगती हैं.’ लड़की ने उतनी ही ठंडक और गंभीरता से कहा, ‘नो, हंसती हुई लड़कियां घरवालों को भी अच्छी नहीं लगतीं, आप मेरी तटस्थ फोटो खींचें.’

‘क्या लड़कों की तरह दांत फाड़ कर हंस रही हो.’ यह डांट सिर्फ लड़कियों के नाम पर रजिस्टर्ड है मगर पूरे समाज और अपने हिस्से की रोने की ‘पावर औफ अटौर्नी’ सिर्फ स्त्रियों के नाम है. ‘कैसी बेहया है, इतनी डांट पड़ गई मगर रोई तक नहीं.’ एक खास बात है कि इन्हें रोने से कोई नहीं रोकता, ‘कैसी बेहया है, ससुराल जाते वक्त भी उसे रोना न आया.’ यह उन घरों में भी कहा जाता है जहां लड़कियों को ‘पराया धन’ मान कर, गैरबराबरी का शिकार बना कर परपंरागत ढंग से पाला गया होता है कि वे रोतेरोते ही बड़ी हुई होती हैं.

महिलाओं का दोयम दर्जा

अजीब विरोधाभास, गजब तरह की विडंबना नारियों के जीवन में उतर आधुनिकता के इस दौर में भी बनी हुई है कि नई दुलहन खिलखिला कर हंसे तो बेशर्म, बेशऊर और फूटफूट कर न रोए तो बेहया, निर्लज्ज. अपना घर छोड़ कर नए लोगों में आई है और रोती भी नहीं. जो अपना घर वह छोड़ आई है वहां घंटों यही सुनसुन कर वह बड़ी हुई है कि उस का घर कहीं और है. उसे अपने घर जाना है. सच कहा किसी कवि ने- बेटियां तो ठंडी बयार हैं जो बहुत दिनों तक पिता के घर नहीं रहतीं.

वह हंसेगी तो फंसेगी, सो, उदास रहे. पुरुष उच्छृंखल हो तो वीर है, सही मर्द. स्त्रियां अपनी स्वतंत्रता सिद्ध भी कर लें तो बेढंगी. मर्द मुंहफट हो तो साहसी. स्त्रियां सच कह दें तो बदजुबान, बदमिजाज, बदतमीज. आज पत्नी मर जाए तो ‘तेरहवीं’ पर नई दुलहन दहेज के साथ आ जाती है और किसी की भौंह पर बल नहीं पड़ता. वहीं, उसी घर की लड़की विधवा हो जाए और वर्षों उदास शोकाकुल न दिखे तो बेशर्म और अगर वह कहीं छिप, चुरा कर रोती हुई अपने बुरे समय का मातम करे तो बाबा तुलसी नाराज, ‘चोर नारि जिथि प्रकट न रोई.’

ऐ नारियो, आप कहां जाएंगी, क्या करेंगी? लोक अदालत में तो आप को न्याय मिलता नहीं दिखता. अपनी कोई अदालत बनानी पड़ेगी, ऐसा लगता है पर वहां भी क्या यह सच आप का पीछा छोड़ देगा.

आज तो राजनीति ने भी ऐसी करवट ले ली है कि ममता बनर्जी को छोड़ कर कोई महिला नेता दमखम वाली नहीं बची. भारतीय जनता पार्टी में 2014 से पहले जिन महिला नेताओं ने अपनी स्वतंत्र जगह बनाई थी, उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया गया है. आज कुछ इकलौती बेटियां व्यवसाय चलाने का काम कर रही हैं पर वह व्यवसाय, जो उन के पिता खड़ा कर गए थे. वरना, चाहे मैडल हासिल कर लेने वाली लड़कियां हों या भाषण वाली, दोयम ही रहती हैं.

दहेज से जुड़ी मौतों का जिम्मेदार कौन

हाल ही में नोएडा में एक महिला करिश्मा को कथित तौर पर दहेज की मांग पूरी न कर पाने के कारण मार दिया गया. हत्या का आरोप उस के ससुराल वालों पर लगा. उन्होंने कथित तौर पर बहू को पीटपीट कर मार डाला. करिश्मा की शादी 4 दिसंबर, 2022 को विकास से हुई थी.

मृतका के भाई ने पुलिस को बताया कि दहेज की मांग में टोयोटा फौर्च्यूनर और 21 लाख रुपए नकद की मांग की गई थी. इस से पहले शादी में 11 लाख रुपए का सोना और एक कार दी गई थी. इस बीच करिश्मा को एक बेटी हो गई. इस के बाद विकास और उस का परिवार करिश्मा को और प्रताड़ित करने लगा. भाई ने आरोप लगाया कि मामला नहीं सुलझने पर करिश्मा के परिवार ने विकास के परिवार को 10 लाख रुपए और दिए लेकिन फिर भी वे लोग करिश्मा को प्रताड़ित करते रहे.

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मृतक करिश्मा के भाई ने इस मामले की शिकायत पुलिस में दर्ज कराई. शिकायत के आधार पर आईपीसी की धारा 498 ए (महिला पर क्रूरता), 304 बी (दहेज हत्या), 323 (चोट पहुंचाना) और दहेज निषेध अधिनियम के प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई. पुलिस ने आरोपी पति विकास भाटी उर्फ बिट्टू और उस के पिता सोमपाल भाटी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. मृतक महिला के पति, ससुर, सास, ननद और 2 जेठ के खिलाफ भी दहेज हत्या का मुकदमा दर्ज किया.

इस 19 मार्च को उत्तर प्रदेश के लखनऊ में भी एक पति ने अपनी पत्नी के सिर में गोली मार कर हत्या कर दी. मृतका के परिजनों ने पति पर दहेज के लिए प्रताड़ित करने का आरोप लगाया. लखनऊ के मलिहाबाद इलाके में रहने वाले ऋषि यादव की 7 साल पहले वर्षा यादव से शादी हुई थी. शादी के बाद से ही दोनों के बीच अकसर झगड़ा हुआ करता था.

उस दिन भी किसी बात को ले कर वर्षा और ऋषि के बीच झगड़ा हो गया जिस के बाद गुस्से में आ कर ऋषि ने पत्नी के सिर में गोली मार दी. खून से लथपथ वर्षा जमीन पर गिरी पड़ी थी. जिस के बाद तत्काल उसे अस्पताल ले जाया गया लेकिन डाक्टरों ने वर्षा को मृत घोषित कर दिया. मृतका वर्षा के परिजनों ने पति ऋषि पर गंभीर आरोप लगाए. परिजनों का कहना था कि ऋषि अकसर दहेज में गाड़ी नहीं मिलने को ले कर परेशान करता था. दोनों के बीच इसे ले कर झगड़ा होता था. वह कहता था तुम्हारे परिवार ने सभी बहनों को गाड़ी दी लेकिन तुम्हें नहीं दी है. आरोपी पति को हिरासत में ले लिया गया.

हमारे देश में अनेक प्रकार की प्रथाएं हैं. ऐसी ही एक प्रथा है दहेज़. दहेज मूल रूप से शादी के दौरान दुलहन के परिवार द्वारा दूल्हे के परिवार को दिए जाने वाली भेंट है जैसे कि आभूषण, नकद, वाहन, घर, कपड़े आदि. कोई भी मातापिता अपनी बेटी के विवाह के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार अच्छे से अच्छा करने की कोशिश करते हैं. मगर कभीकभी लड़के और उस के परिवार वाले इस की और अधिक डिमांड करने लगते हैं और इस तरह दहेज़ हत्या की पृष्ठभूमि बनती है.

गलत भी हो सकते हैं आरोप

मगर इस तरह के मामलों में हमेशा लड़का पक्ष ही दोषी हो, ऐसा नहीं है. दरअसल, कई दफा लड़कियां या उन का परिवार अपनी खुंदक निकालने के लिए भी लड़के के परिवार पर तमाम आरोप लगाते हैं. 498 ए के तहत दहेज़ प्रताड़ना या क्रूरता का आरोप लगा कर पूरे परिवार को जेल की हवा खिला दी जाती है. सब जानते हैं कि 498 और इस तरह के कुछ कानूनों की पकड़ में आने के बाद जमानत मिलनी बहुत कठिन हो जाती है और कई बार मामला सुप्रीम कोर्ट में भी चला जाता है. ऐसे में जब पूरा परिवार जेल में हो तो हर सदस्य की जमानत के लिए अलगअलग लाखों देने पड़ सकते हैं. ऐसे मामलों में ससुराल पक्ष दोषी न हो तब भी पूरा परिवार गिरफ्त में आ जाता है और उन सब की जिंदगी खराब हो जाती है जो कहीं से भी उचित नहीं.

लड़कियां भी चाहती हैं दहेज

कुछ मामलों में इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि खुद लड़कियां दहेज़ चाहती हैं. दहेज़ के सामान का उपयोग लड़कियां खुद करती हैं. ज्यादा दहेज़ मिल ने पर वे ससुराल में ज्यादा रुतबा दिखा पाती हैं और यदि घर में देवरानी, जेठानी आदि हैं तो दहेज़ के जरिए उन के आगे खुद को सुपीरियर दिखाने से बाज नहीं आतीं. साथ ही, लड़कियां जानती हैं कि यही मौका है जब अपने पिता या भाई से दहेज़ के नाम पर रकम या गाड़ी आदि मांगी जा सकती है. बाद में लड़कियों को समान्यतया अपने मायके से कुछ नहीं मिलता खासकर संपति का हक़ मिलने के बावजूद वे इस मामले में दखल नहीं दे पातीं.

झगड़ों की वजह कुछ और भी हो सकती है

कभीकभी ऐसा भी होता है कि पतिपत्नी का मेल नहीं हो पा रहा हो या ईगो क्लैश कर रहा हो जिस से उन में झगड़े चल रहे हों. यह भी संभव है कि लड़की पति या ससुराल वालों के साथ सही रिश्ता नहीं बना पा रही हो और इसलिए घर में झगड़े हो रहे हों. झगड़ों के दौरान ससुराल वाले दहेज़ की बात उठाएं और इसी में मारपीट बढ़ते हुए इस अंजाम तक पहुंच जाए. ऐसे में भले ही मारपीट या लड़ाईझगड़े दोनों की तरफ से होती है मगर अकसर फंस जाते हैं लड़के वाले. फिर उन का पूरा परिवार सलाखों के पीछे पहुंच जाता है. भले ही लड़के की ननद या जेठानी या दादा का इन सब में कोई हाथ न हो, फिर भी अगर दुर्भावनावश लड़की वाले उन्हें भी इन झमेलों में शामिल कर लें तो बचाव का उपाय नजर नहीं आता.

दहेज देने वाले मातापिता भी हैं कसूरवार

लड़की की मौत के लिए वो मांबाप भी बराबर के जिम्मेदार हैं जो लड़की को विदा करते हुए कहते हैं कि पिता के घर से लड़की की डोली उठी है और अब पति के घर से ही अर्थी उठेगी. वे अपनी बेटी को अपने लिए बोलना, लड़ना और अपने आत्मसम्मान के लिए खड़े होना नहीं सिखाते. अपनी बेटी को पेड़ बनाने के बजाय लता बन कर रहने की सीख देते हैं.

समाज भी है दोषी

सब से बड़ा दोषी है हमारा समाज जिस को हम सब मिल कर बनाते हैं. खासकर इस समाज की औरतें सब से बड़ी दोषी हैं. ज़रा याद कीजिए जब भी हमारे आसपास किसी की शादी होती है तब लड़कों को हमेशा दूल्हे की साली और दुलहन की सहेलियों को ले कर बात करते सुना जाता है. बुजुर्गों को खानेपीने की व्यवस्था और राजनीति की बात करते सुना जाता है मगर केवल औरतें ही होतीं हैं जो सब से पहले देखती हैं कि दुलहन के गले में पड़ा हार कितने तोले का है और असली है या नकली? गाड़ी कौन सी है? दूल्हे की अंगूठी कितने वजन की है वगैरह. जाहिर है जब हम मिल कर दहेज़ की ख्वाहिश करेंगे और दहेज़ मिलने पर तारीफ के पुल बांधेंगे तो हर कोई चाहेगा कि उसे खूब दहेज़ मिले चाहे वह लड़का हो या लड़की.

सरकारी दामाद की चाहत

सब को सरकारी नौकरी वाला दामाद चाहिए या यों कहें कि पैसे वाला ही चाहिए. समाज में यह एक चलन बन गया है कि अच्छे लड़के मतलब अच्छी नौकरी. बाकी लड़के का चरित्र, परिवार, परिवार के लोगों का व्यवहार ये सब बेकार के मुद्दे हैं. यदि सरकारी नौकरी वाला दामाद बेटी को दारू पी कर पीटे तब मांबाप समझाते हैं कि क्या करें बेटी, यही तेरा नसीब है. बरदाश्त कर ले. वहीं अगर लड़की मरजी से शादी करे और रिश्ता न चले तब मांबाप बोलते हैं कि भुगतो. मांबाप बेटी के पैदा होते ही उस की शादी के लिए पैसे जोड़ने लगते हैं. क्या यह बेहतर नहीं कि उसी पैसे से लड़की को पढ़ाओलिखाओ, काबिल बनाओ और जब कोई लड़के वाला दहेज मांगे तो झाड़ू मार कर उसे बाहर का रास्ता दिखाओ.

दहेज न मांगना नकारेपन के टैग जैसा

कभीकभी लगता है कि दहेज लेना सही भी है और ज़रूरी भी क्योंकि आप दहेज की मांग न करो तब लड़की के घरवालों को लगता है कि लड़का नकारा है. शायद इसलिए कुछ भी मांग नहीं की गई है. सोचिए, हमारा समाज कितना दोगला है. इस बात का अंदाज़ा आप ऐसे लगा सकते हैं कि एक सरकारी नौकरी वाला लड़का जिस को पैसे की कोई कमी नहीं है उसे एक लड़की का बाप पंद्रह-बीस लाख रुपए तक देने को तैयार रहता है. मगर जो लड़का अच्छा है, मेहनत भी करता है लेकिन उस की कमाई कम है तो उस को 15-20 लाख तो दूर की बात है, कोई बाप अपनी बेटी की बात भी नहीं चलाएगा.

लड़कियां भी कम दोषी नहीं

आजकल की ज्यादातर लड़कियों को भी यही लगता है कि लड़का तो पैसे वाला होना चाहिए, बाकी तो ठोकपीट कर सही कर ही लेंगे. लड़कियों को क्या पता नहीं होता कि उन की ज़िंदगी का सौदा कितने में हो रहा है? फिर भी वे ऐसे ही सौदे चाहती हैं.

आजकल लड़कियां अनपढ़ भी नहीं होतीं कि अपना भलाबुरा न सोच सकें या चार पैसे कमा कर आत्मनिर्भर न बन सकें. जब भी किसी लड़की को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है तब क्या वह उसी समय घर छोड़ कर अलग नहीं रह सकती? जिंदगी जाने से तो अच्छा है न, कि वह न मायके वालों पर बोझ बने और न अत्याचार सहे बल्कि अलग हो जाए और कोई नौकरी ढूंढे.

जरूरी नहीं कि हर ससुरालवाले वहशी-दरिंदे ही हों. कहीं न कहीं गलती तो लड़की की भी होती होगी, तभी रिश्तों में खटास आने लगती है और फिर कुछ हादसा हो जाए तो मायके वाले सारा दोष ससुराल वालों पर मढ़ कर उन्हें हत्यारा घोषित कराने में लग जाते हैं. वैसे भी अच्छे खातेपीते घर के लोगों को दहेज़ की गाड़ी के पीछे कानून के पचड़ों में फंसने की ख्वाहिश नहीं हो सकती.

लड़की अगर एक समृद्ध परिवार से आती है तो उसे जीवन में किसी चीज की कमी नहीं होती. वह पढ़ीलिखी और कमाने में सक्षम होती है. मगर नौकरी के बजाय वह शादी कर के सैटल होने को वरीयता देती है. उसे अपने लिए लड़का डाक्टर या बड़ा सरकारी अफसर चाहिए होता है. मांबाप भी ऐसे घर में अपनी बेटी की शादी करने को बावले रहते हैं ताकि रिश्तेदारों में नाक ऊंची हो सके. बेटी भी ससुराल में आराम की जिंदगी चाहती है, इसलिए धनी परिवार ढूंढती है और साथ में, बढ़िया दहेज़ भी ताकि वहां उस की पूछ हो, लोग उस से दब कर रहें.

वह अपने साथ लकदक दहेज ले कर आती है. खासी पढ़ीलिखी और डिग्रियों वाली होने के बावजूद वह नौकरी के चक्कर में नहीं फंसती. लड़की के पिता अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहते हैं कि बेटी के घर में पैसों की कोई कमी है जो हम अपनी लड़की को पैसे कमाने को बाहर भेजें. पति भी उसी शौविनिस्ट मेल क्लब का सदस्य होता है जो पत्नी से काम नहीं करवाना चाहता. पत्नी पढ़ीलिखी चाहिए ताकि समाज में रुतबा दिखा सके लेकिन उस पढ़ाई के जरिए पैसे कमाने वाली नहीं चाहिए होती है.

लड़की को विदा करते हुए मां गीत गाती है कि महलों का राजा मिला. रानी बेटी राज करेगी. लड़की भी यह सोच कर पति के राजमहल में आती है कि पैर पर पैर चढ़ा कर राज करेगी. लेकिन सब इतना आसान नहीं होता. ससुराल वालों को लड़की की कमाई का पैसा तो नहीं चाहिए लेकिन लड़की से पैसा जरूर चाहिए होता है. एक दिन खबर आती है कि लड़की जला कर मार डाली गई.

अब लड़की के मांबाप, भाई सब रोरो कर धरतीआसमान एक कर देते हैं. कोर्टकचहरी के चक्कर काटते हैं. दहेज हत्या का मुकदमा चलाते हैं. वे कसम खाते हैं कि अपनी मरी हुई बेटी का बदला लेना है. उस के ससुराल वालों को जेल भिजवाना है.

सवाल यह उठता है कि जब सैकड़ों बार उन की बेटी ने उन्हें रोरो कर फोन किया था कि ये लोग मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित करते हैं, पति हाथ उठाता है, सास ताने देती है तो पिता और भाई का कलेजा क्यों नहीं पसीजा? तब तो उन्होंने लड़की को संस्कारों की याद दिलाई. सहनशीलता का सबक सिखाया, बरदाश्त करने का पाठ पढ़ाया. उन की मांगें पूरी करने का वादा किया. लड़की खुद भी अगर प्रताडना सह कर रोती रही तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि ससुराल छोड़ कर अलग रहती.

जो बाप अपनी बेटी को वापस लेने न आ सका, बाद में उस ने दुनिया के सारी कोर्टकचहरियां नाप डालीं ताकि लड़की के पति और ससुर को जेल भिजवा सके. आईपीसी की कोई धारा, देश का कोई न्यायालय इन सारे पिताओं को कठघरे में खड़ा कर के यह सवाल नहीं पूछता कि जब आप की बेटी आप को फोन कर के कह रही थीं कि मेरा पति मुझे मार रहा था, प्रताड़ित कर रहा था तो आप आए क्यों नहीं और बेटी को बचाया क्यों नहीं. आप ने और ज्यादा दहेज क्यों दिया. क्यों अपनी बेटी को एडजस्ट करने और सहने का पाठ पढ़ाया. लड़की को संपत्ति में बराबर का अधिकार देने के नाम पर जिन को काठ मार जाता है वे बापभाई भरभर कर दहेज देते हैं. यह कैसा मजाक है?

वैसे भी, दहेज़ देने की शुरुआत लड़की के मांबाप ही करते हैं. अगर वे शुरू में ही दहेज़ देने से इनकार कर दें तो आगे इस दहेज़ की ललक नहीं बढ़ेगी. लड़की वाले तो अच्छा कमाऊ लड़के की चाह में ज्यादा से ज्यादा दहेज़ दे कर पढ़ालिखा अमीर और वेल एस्टाब्लिशड लड़के की तलाश में रहते हैं. इस के विपरीत यदि वे लड़की को अपनी पसंद के किसी साधारण मगर प्यार करने वाले लड़के से करने दें तो नजारा ही कुछ और होगा.

इसलिए दहेज़ प्रथा को ले कर रोते रहने या किसी को आरोपी साबित करने के बजाय यदि हम इस की जड़ को ही ख़त्म करने पर ध्यान दें या लड़कियों को भी अपने बल पर रहने की आदत डालें तो ऐसा नहीं होगा. लड़कियों को लता के बजाय पेड़ बनने की शिक्षा देनी चाहिए.

क्या कहता है कानून

यदि वर या उस के परिवार द्वारा दहेज़ के लिए वधु या उस के परिवार पर ज़ोरज़बरदस्ती की गई तो वह कानूनी अपराध की श्रेणी में आएगा. कई लोग दहेज़ के लालच में आ कर अपनी बहू एवं अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं, उन्हें चोट पहुंचाते हैं. कई बार महिलाओं की मौत भी हो जाती है. इस के मद्देनजर दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 में लागू किया गया. इस के अनुसार दहेज़ मांगना, लेना और देना कानूनी अपराध है. इस कानून को और सशक्त बनाने के लिए और औरतों के प्रति क्रूरता व अपराध को कम करने के लिए IPC की धारा 498A और 198A में नए कानून जोड़े गए.

दहेज प्रतिषेध अधिनियम- इस कानून में धारा 3 के तहत यदि कोई भी व्यक्ति दहेज मांगे, ले या दे तो उसे कानूनी रूप से कम से कम 5 साल की जेल कैद और 15,000 रुपए जुर्माना देना होगा.

यदि लड़की के मातापिता अपनी मरजी से लड़की को कुछ भेंट देना चाहते हैं तो वह भेंट लड़की के पास ही रहनी चाहिए न की उस के परिवार या लड़के के पास. ऐसा करने पर कम से कम 6 महीने की जेल और 10,000 रुपए जुर्माना है.

धारा 304B के तहत यदि किसी भी महिला की मौत जलने से, या अनजान परिस्थितियों में शादी के 7 साल के अंदर अंदर हो जाती है और यदि कोई सबूत मिलता है जिस से यह साबित हो जाए की मरने से पहले महिला शारीरिक, मानसिक शोषण का शिकार थी तो उस की मौत का जिम्मेदार उस के पति और उस के घरवालों को माना जाएगा. ऐसा होने पर कम से कम 7 साल से ले कर उम्रकैद तक की सजा है.

धारा 302 के तहत यदि कोई पति अपनी पति को दहेज न मिलने पर जान से मार देता है तो उसे फांसी की सजा सुनाई जा सकती है.

धारा 498A इस धारा के चलते यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी को या पुरुष के घरवाले उसे नुकसान पहुचाएं, उस का शोषण करें, तो उन्हें 3 साल तक की सजा सुनाई जा सकती है. साथ ही, जुर्माना भी भरना पड़ सकता है.

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने शादी के 7 साल के भीतर मौत को ले कर अहम टिप्पणी की. सुप्रीम कोर्ट ने दहेज हत्या से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया है. शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि मौत का कारण पता नहीं हो तो शादी के 7 साल के भीतर ससुराल में सभी अस्वाभाविक मौत को दहेज हत्या नहीं माना जा सकता है. जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने इस मामले में आरोपी को बरी कर दिया. व्यक्ति को हाईकोर्ट ने सैक्शन 304 बी (दहेज हत्या) और सैक्शन 498 ए (क्रूरता) के मामले में दोषी ठहराते हुए 7 साल की सजा सुनाई थी.

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