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जापान में फैला मांस खाने वाले बैक्टीरिया का आतंक

कोरोना महामारी के बाद जापान में जिस तरीके की बहुत जल्दी लोगों को एक दूसरे से मिलनेजुलने में ढील दी गई, उस के कारण जापान एक और दुर्लभ बीमारी से जूझ रहा है. वहां एक ऐसे बैक्टीरिया का प्रकोप बढ़ा है जो शरीर के ऊतकों पर प्रहार कर उन की ह्त्या कर रहे हैं. इस बैक्टीरिया के ज़्यादा शिकार 15 साल से कम आयु के बच्चे हैं. इस बैक्टीरिया को मांसभक्षी नाम दिया गया है. यानी, मांस खाने वाला बैक्टीरिया.

इस बीमारी को स्ट्रेप्टोकोकल टौक्सिक शौक सिंड्रोम (एसटीएसएस) कहा जाता है. यह बैक्टीरिया इतना खतरनाक है कि 48 घंटे में लोगों की जान ले लेता है. जापान के नैशनल इंस्टिट्यूट औफ इन्फैक्शियस डिजीज के मुताबिक अब तक वहां इस के करीब 1,000 मामले सामने आ चुके हैं. सिर्फ जापान ही नहीं, तमाम और देशों में इसी तरह के केसेज सामने आ रहे हैं. इन में कई यूरोपीय देश शामिल हैं.

इस बैक्टीरिया को मांस खाने वाला कहा जा रहा है. दरअसल, यह सीधे मांस नहीं खाता बल्कि इंसान के टिश्यू को मारता है. इसलिए इसे मांस खाने वाला कहते हैं. यह बीमारी ग्रुप ए स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया की वजह से हो रही है. यह बच्चों और बुजुर्गों के लिए सब से ज्यादा खतरनाक है. इस से संक्रमित लोगों में सब से पहले बदन में सूजन और गले में खराश होती है. ग्रुप-ए स्ट्रेप्टोकोकस जब टिश्यू या ऊतक को मारता है तो उस कंडीशन को नेक्रोटाइजिंग फसाइटिस कहा जाता है. इस के अलावा शरीर में दर्द, बुखार, लो ब्लडप्रैशर, नेक्रोसिस (शरीर के ऊतकों का मरना), सांस लेने में समस्या, और्गन फेलियर जैसी समस्याएं भी होती हैं. इस के कुछ ही घंटों बाद मौत हो जाती है.

यह बैक्टीरिया शरीर में जहरीला पदार्थ पैदा करता है, जिस से जलन होने लगती है. फिर यह शरीर में टिशू को डैमेज करता है, जिस से सूजन फैलने लगती है. इस के बाद टिशू मरने लगते हैं, जिस से तेज दर्द होने लगता है. जापान में इस बीमारी से लड़ने के लिए हैल्थ अथौरिटीज लगातार हालात का जायजा ले रही हैं. जापान के सभी अस्पतालों को अलर्ट पर रखा गया है. लोगों को जागरूक करने के लिए कैंपेन चलाए जा रहे हैं. इस में बीमारी की गंभीरता और खतरों के बारे में बताया जा रहा है.

डाक्टरों का अनुमान है कि साल के अंत तक इस बीमारी से मरने वालों की मृत्युदर 30 फीसदी तक पहुंच सकती है. इस जानलेवा बीमारी के चलते जापान में एक बार फिर लोगों ने मास्क पहनना और एहतियात बरतना शुरू कर दिया है. डराने वाली बात यह है कि यह बीमारी कोरोना महामारी की तरह एक व्यक्ति से दूसरे में फैलती है. इस बीमारी से बचने के लिए डाक्टरों ने लोगों से बारबार हाथ धोने और खुले घावों का तुरंत इलाज कराने की अपील की है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक स्ट्रेप्टोकोकस बीमारी अब यूरोप के 5 देशों तक फैल चुकी है. इन में ब्रिटेन, फ्रांस, औयरलैंड, नीदरलैंड और स्वीडन शामिल हैं. वहां इस बैक्टीरिया ने सब से ज्यादा बच्चों पर अटैक किया है. यह बीमारी जिस दर से बढ़ रही है, उस से अंदाजा लगाया गया है कि आने वाले समय में जापान में हर साल इस बीमारी के 2,500 मामले आ सकते हैं. इस बीमारी से बचने के लिए इस की जल्दी पहचान, देखभाल और तुरंत इलाज जरूरी है.

आखिर नीट विवाद कैसे पहुंचा कोर्ट और क्यों मुश्किल है आम छात्रों का कोर्ट में लड़ पाना

नीट में एक लाख 50 हजार सीट्स के लिए इस बार लगभग 24 लाख छात्रों ने एग्जाम दिया. जिस तरह पूरे देश में परीक्षाओं में चल रही धांधली बड़ा मुद्दा बना हुआ है, नीट एग्जाम की गड़बड़ी ने इस मुद्दे की गरमी को बढ़ाने का ही काम किया. यही कारण था कि इन में से कुछ जागरूक छात्रों, जिन्हें आशंका थी कि बाकी संस्थाओं में हो रही धांधली के बाद यहां भी एनटीए जैसी स्वायत्तता बौडी भी फेल नजर आ रही है, ने न्यायालयों के दरवाजे खटकाए. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार और एनटीए यह मानने को ही राजी नहीं थे कि नीट एग्जाम में कोई गड़बड़ी हुई है.

नीट परीक्षा में गड़बड़ी की जानकारी मिलते ही इस में परीक्षा देने वाले कुछ छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट व लोअर कोर्ट में याचिकाएं दायर करनी शुरू कर दीं. 11 जून को नीट एग्जाम में गड़बड़ी का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई कि नीट यूजी 2024 रिजल्ट को वापस लिया जाए और दोबारा एग्जाम कराया जाए.

इस याचिका में कहा गया कि नीट एग्जाम में मनमाने तरीके से ग्रेस मार्क दिए गए हैं और इसी वजह से 67 स्टूडैंट्स को एकजैसे यानी फुल मार्क्स 720 नंबर आए. छात्रों ने मांग की कि मामले की जांच के लिए एसआईटी बनाई जाए. कुछ छात्रों ने काउंसलिंग पर रोक लगाने और री-एग्जाम के लिए भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.
इन मामलों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, जिस में कोर्ट ने काउंसलिंग पर रोक लगाने और री-एग्जाम का आदेश जारी करने से इनकार कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए एनटीए को नोटिस जारी किया और एक याचिका को एक दूसरी याचिका के साथ जोड़ दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परीक्षा की पवित्रता प्रभावित हुई है, इसलिए हमें एनटीए को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगना बनता है. कोर्ट में इस मामले की सुनवाई 8 जुलाई को होगी.

13 जून को सुप्रीम कोर्ट ने नीट को ले कर तेलंगाना के अब्दुल्ला मोहम्मद फैज और आंध्र प्रदेश के दा. शेख रोशन मोहिद्दीन की याचिका पर सुनवाई की, जिस में कोर्ट ने कहा, ग्रेस मार्क वाले छात्रों के लिए नीट एग्जाम दोबारा आयोजित किया जाए. 2024 की नीट यूजी परीक्षा में 1,563 छात्रों को ग्रेस मार्क्स दिए गए थे, जिसे केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस की जानकारी दी. सरकार ने बताया कि ग्रेस मार्क्स पाने वाले स्टूडैंट्स को दोबारा नीट परीक्षा देने का अवसर दिया जाएगा. अगर कोई दोबारा नीट नहीं देना चाहता तो उस का रिजल्ट, ग्रेस मार्क्स हटा कर, जारी किया जाएगा.

नीट यूजी का परीक्षाफल आया तो इस में 67 स्टूडैंट्स को 720 में से 720 अंक मिले. दो स्टूडैंट्स को 718 और 719 अंक मिले. सारा विवाद यहीं से शुरू हुआ. एनटीए ने बताया कि 6 परीक्षा केंद्रों के 1,563 स्टूडैंट्स को ग्रेस मार्क्स दिए गए हैं, क्योंकि वहां परीक्षा देरी से शुरू हुई थी. स्टूडैंट्स को परीक्षा देने के लिए निर्धारित समय से कम वक्त मिला था.

सुप्रीम कोर्ट में दी गई जानकारी के अनुसार, नीट यूजी 2024 में नौर्मलाइजेशन फार्मूले का उपयोग कर के 1,563 कैंडिडेट्स को ग्रेस मार्क्स दिए गए थे. इन परीक्षार्थियों को परीक्षा के लिए निर्धारित 3 घंटे 20 मिनट का समय नहीं दिया गया था. एनटीए ने ग्रेस मार्क्स देने का फैसला दिशा पांचाल बनाम भारत संघ व अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर लिया था.

दरअसल, साल 2018 में हुई नीट परीक्षा में कई परीक्षा केंद्रों पर परीक्षार्थियों को तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था. औनलाइन परीक्षा में कुछ कैंडिडेट्स का सिस्टम देरी से लौगइन हुआ था. वहीं कुछ में प्रश्न तेजी से भाग जा रहे थे. दिशा पांचाल बनाम भारत संघ मामले में मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित और जस्टिस दीपक गुप्ता की बैंच ने नीट की औनलाइन परीक्षा में परीक्षार्थियों के सवाल हल करने के लौगइन और लौगआउट की टाइमिंग के हिसाब से ग्रेस मार्क्स देने का फैसला सुनाया था.

सरकार और उस के सिस्टम को सही काम करना चाहिए. आम व्यक्ति के लिए हर बात के लिए कोर्ट जाना संभव नहीं होता. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाना हर किसी के वश का नहीं होता. वहां वकील की फीस ज्यादा होती है. यह खर्च हर किसी के वश में नहीं होता है. सरकारी संस्थाओं को मुकदमा लड़ने के लिए पैसा संस्था की तरफ से मिल जाता है. आम आदमी कैसे अपनी छोटी परेशानी को ले कर कोर्ट जा सकता है. इसीलिए संविधान ने हर संस्था की जिम्मेदारी अलग तय की है.

बेरी का झाड़: सुकुमार सेन शांत स्वभाव का क्यों था

सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा. बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

रात में मेरी नींद बारबार टूट जाती है, क्या करूं?

सवाल

रात में मुझे नींद नहीं आती है. मेरी उम्र अभी 48 वर्ष है. रात में मेरी नींद बारबार टूट जाती है. मुझे किसी चीज की टैंशन भी नहीं है. दिन में नींद आती है लेकिन सोने के लिए लेटती हूं तो नींद उड़ जाती है. इस कारण दिन के वक्त मैं अलसाई सी रहती हूं. क्या मुझे डाक्टर के पास जाना चाहिए?

जवाब

जिन लोगों को अकसर नींद न आने की समस्या रहती है उन में मेलाटोनिन हार्मोन की कमी देखी गई है. मेलाटोनिन वह हार्मोन है जो नींद के चक्र को ठीक बनाए रखने के साथ अच्छी और गहरी नींद प्राप्त करने में मदद करता है.

मेलाटोनिन सिर्फ नींद के लिए ही जरूरी नहीं है, इस की कमी के कारण चिंता और मनोदशा संबंधी विकार, शरीर का तापमान कम होने और एस्ट्रोजन हार्मोन के बढ़ने जैसी दिक्कतें भी हो सकती हैं. हमारी राय में आप डाक्टर से परामर्श लें.

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पता : कंचन, सरिता

ई-8, झंडेवाला एस्टेट, नई दिल्ली-55.

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ध्वनि प्रदूषण का दिल पर असर

ट्रैफिक नौइस और हार्ट अटैक के बीच संबंध होता है. यातायात के शोर से स्ट्रोक, मधुमेह और हार्ट संबंधी कई बीमारियों के पनपने का खतरा बढ़ जाता है. इस शोर को हृदय रोगों के एक जोखिम कारक के रूप में भी जिम्मेदार माना गया है.

ध्वनि प्रदूषण ऐसी समस्या है जो हमें धीरेधीरे नुकसान पहुंचाती है. ध्वनि प्रदूषण की वजह से भारत में हर साल हजारों लोग अपनी सुनने की क्षमता खो देते हैं. हमारे कान एक निश्चित ध्वनि की तीव्रता को ही सुन सकते हैं. ऐसे में तेज ध्वनि कानों को नुकसान पहुंचा सकती है. ज्यादा शोर की वजह से लोगों को रात में नींद भी नहीं आती और इस से उन्हें तनाव व बेचैनी की शिकायत भी हो जाती है. पिछले कुछ सालों में हार्ट पेशेंट की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है. खासकर युवा भी हार्ट अटैक का शिकार हो रहे हैं और इस का एक खास कारण ध्वनि प्रदूषण भी है.

हाल ही में जर्नल सर्कुलेशन रिसर्च में प्रकाशित एक स्टडी में ट्रैफिक नौइस और हार्ट अटैक के बीच संबंध पाया गया है. अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की टीम ने बड़े पैमाने पर आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि यातायात के शोर से स्ट्रोक, मधुमेह और दूसरी हार्ट संबंधी बीमारियों के विकास की संभावना बढ़ जाती है.

शोध में पाया गया कि सड़क यातायात के शोर में हर 10 डेसिबल की वृद्धि के साथ हृदय रोग का खतरा 3.2 प्रतिशत बढ़ जाता है.

रात के समय होने वाला यातायात का शोर नींद में खलल डालने का काम करता है. ऐसे में नींद की कमी रक्त वाहिकाओं में तनाव हार्मोन के स्तर को बढ़ा देती है जिस से सूजन, हाई ब्लडप्रैशर और रक्त वाहिका संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.

जरमनी के मेनज विश्वविद्यालय चिकित्सा केंद्र के वरिष्ठ प्रोफैसर और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक थौमस मुंजेल का कहना है कि यह महत्त्वपूर्ण है कि यातायात शोर को अब सबूतों के आधार पर हृदय रोगों के लिए एक जोखिम कारक के रूप में मान्यता दी गई है. ऐसे में ट्रैफिक शोर में कमी के उपायों को करना बहुत ही आवश्यक हो जाता है. बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कई कारण हो सकते हैं.

ध्वनि प्रदूषण की सब से बड़ी वजह ट्रैफिक

इस ध्वनि प्रदूषण की सब से बड़ी वजह ट्रैफिक को माना जाता है. जो लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां ट्रैफिक ज्यादा होता है उन्हें इन परेशानियों का सामना करना पड़ता है. ऐसे इलाके में रहने वाले लोगों के लिए ध्वनि प्रदूषण एक बहुत बड़ी चुनौती बन गया है.

सैंट्रल रोड रिसर्च इंस्टिट्यूट ने कुछ समय पहले 5 महानगरों के ध्वनि प्रदूषण पर एक रिसर्च की और उस में पाया कि जो लोग सड़क के किनारे बने घरों में रहते हैं वे कभी चैन से नहीं सो पाते. सामान्य तौर पर 2 लोगों के बीच की बातचीत 40 डेसिबल की ध्वनि पर होती है लेकिन जो लोग सड़क के ट्रैफिक के आसपास रहते हैं उन्हें लगातार 60 डेसिबल की ध्वनि सुननी पड़ती है. करीब 17.1 प्रतिशत लोगों पर इस का बुरा असर पड़ता है. इसी तरह 70 डेसिबल ध्वनि हो तो 29.4 प्रतिशत, 75 डेसिबल ध्वनि पर 39.6 प्रतिशत और 80 डेसिबल ध्वनि हो तो 49.6 प्रतिशत लोगों पर बुरा असर पड़ता है. वे अनिद्रा और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाते हैं.

दिल्ली में दिन के ट्रैफिक का शोर औसत 77 से 80 डेसिबल और रात में 55 से 65 डेसिबल रहता है. यानी दिन में दिल्ली की आधी जनता ध्वनि प्रदूषण से परेशान रहती है.

भारत की सड़कों पर तेजी से बढ़ती गाडि़यां

अगर आप विश्व के उन 10 शहरों को देखें जहां ट्रैफिक की समस्या सब से ज्यादा है तो उस सूची में आप को दिल्ली और मुंबई के नाम भी दिख जाएंगे. हाल ही में एक रिपोर्ट आई थी और उस में भी ट्रैफिक जाम के मामले में मुंबई तथा दिल्ली शीर्ष 10 शहरों में शामिल थे.

ट्रैफिक कंजेशन के मामले में मुंबई विश्व में पहले नंबर पर थी तो दिल्ली चौथे पायदान पर थी. यह हालत सिर्फ दिल्ली और मुंबई की ट्रैफिक व्यवस्था की नहीं है बल्कि भारत के कमोबेश हर महानगर की यही स्थिति है. आप बेंगलुरु को देख लो, चेन्नई या गुवाहाटी पर नजर डालें, हर जगह आप को ऐसे ही हालात दिखेंगे.

बढ़ती हुई गाडि़यां और ध्वनि प्रदूषण

भारत की सड़कों पर चलने वाले वाहनों की संख्या देखें तो इन में हाल के दशकों में कई गुना वृद्धि हुई है. मिनिस्ट्री औफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमैंटेशन की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 से 2016 के दौरान रजिस्टर्ड गाडि़यों की संख्या में करीब 400 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. 2001 में लगभग 5.5 करोड़ रजिस्टर्ड गाडि़या थीं लेकिन 2016 आतेआते यह आंकड़ा 17.5 करोड़ पहुंच गया था. पिछले 8 सालों में यह आंकड़ा कहां पहुंचा होगा, यह आप सम?ा ही सकते हैं. यह वृद्धि कारों और दुपहिया वाहनों में सब से ज्यादा हुई. जीवनशैली में आते सुधारों और औटो लोन की उपलब्धता ने वाहन खरीद को काफी आसान बना दिया है. पहले गाडि़यों का सपना सिर्फ उच्चवर्ग की पहुंच में होता था लेकिन अब मध्यवर्ग भी गाडि़यों का मुख्य उपभोक्ता बन चुका है.

सड़कों का निर्माण और रखरखाव

एक तरफ हर साल लाखों नई गाडि़यां सड़कों पर आ रही हैं तो उसी के मुताबिक सड़कों का निर्माण करना भी जरूरी है और इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि सड़कें बनें तो वे टिकाऊ भी हों. मगर ऐसा है नहीं. टूटीफूटी और गड्ढों से भरी सड़कें न सिर्फ ट्रैफिक जाम को बढ़ाती हैं बल्कि हर साल न जाने कितने लोगों की मौत की वजह भी बनती हैं.

पार्किंग की समस्या से बढ़ती मुश्किलें

आप किसी भी शहर, कसबे में जाएं तो आप को सड़कों पर अवैध रूप से खड़ी गाडि़यां दिख ही जाएंगी. शहरों में तो यह हालत और भी बदतर हैं. सरकारी नाकामी की वजह से लोगों ने सड़कों को ही अपनी पार्किंग की जगह बना ली है. लोग सरकारी जगहों को भी अपनी सम?ा कर स्कूटर या गाड़ी खड़ी कर देते हैं.

दरअसल जिस हिसाब से गाडि़यां बढ़ी हैं उस अनुपात में पार्किंग स्पेस के बारे में कभी कोई योजना ही नहीं बनी. अवैध पार्किंग के कारण सड़कें ही गायब होती जा रही हैं और गाडि़यां खड़ी होने की वजह से चलने की जगह ही नहीं.

सिंगापुर जैसे देशों में देखें तो वहां नई गाड़ी खरीदने पर न सिर्फ भारीभरकम टैक्स देना पड़ता है बल्कि सड़क पर गाड़ी चलाने के लिए अलग से परमिट भी लेना पड़ता है. इस के अलावा एरिया लाइसैंस प्रणाली के तहत चुनिंदा क्षेत्र में प्रवेश के लिए अलग से लाइसैंस लेना होता है. वहां अवैध पार्किंग रोकने के लिए एक हौटलाइन नंबर भी है जिस पर कोई भी इस की सूचना दे सकता है. हमारे यहां भी अगर सरकार कठोर नियम बनाए और भारीभरकम जुर्माने का प्रावधान करे तो समस्या थोड़ी सुधर सकती है.

पुरानी खराब हो रही बसों की वजह से भी लगता है जाम

दिल्ली में सफर करते हुए अकसर रुकी हुई खराब बस के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम से हम सब को जू?ाना पड़ता है. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2022 से जून 2023 के बीच दिल्ली में हर दिन औसतन 79 डीटीसी या क्लस्टर बसें खराब हुईं जिन में से प्रत्येक को ठीक करने में लगभग 40 मिनट लगे. सुबह और शाम के व्यस्त घंटों में ऐसा होने का सीधा मतलब है लंबा जाम.

चूंकि राजधानी में ज्यादातर फ्लाईओवर और सड़कें दो लेन वाली हैं इसलिए हर बार किसी वाहन के खराब होने पर घंटों की परेशानी होती है. एक लेन के अवरुद्ध हो जाने से हौर्न बजाने वाली कारों, टैंपो, औटो रिकशा, मोटरसाइकिल और हर तरह के अन्य वाहनों की कतार सड़क को जाम कर देती है. बेकरार चालक एकदूसरे का रास्ते काट कर आगे निकलने की कोशिश करते हैं जिस से समस्या और बढ़ जाती है.

ये बसें 10 से 12 साल पुरानी हैं और अकसर अपनी क्षमता से ज्यादा यात्रियों को ले जाते हुए गड्ढेदार सड़कों पर चलती हैं. एक बस औसतन रोज 200 किलोमीटर चलती है जिस का मतलब है कि वह 14 साल में 10 लाख किलोमीटर से भी ज्यादा चल चुकी होगी. कागजों पर एक डीटीसी बस का प्रमाणित जीवन 12 साल या 7.5 लाख किलोमीटर है. लेकिन 2019 में सरकार ने उन के परिचालन जीवन को 15 साल तक बढ़ाने का फैसला किया.

दिल्ली यातायात पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक पिछले वर्षों में बसों के खराब होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. जुलाई 2022 में कुल 809 खराबी की सूचना मिली थी. अक्तूबर, नवंबर और दिसंबर 2022 में यह आंकड़ा क्रमश: 977, 1,192 और 2,132 तक बढ़ गया. जनवरी 2023 में 3,029 खराब देखी गईं. जून 2023 में 3,145.

सीएनजी से चलने वाली बसों में उम्र बढ़ने के साथ इंजन के गरम होने, शौर्ट सर्किट और अन्य समस्याएं आने की संभावना रहती है. दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की संख्या उन की क्षमता से लगभग पांच से छह गुना ज्यादा है. स्वाभाविक रूप से अगर सड़क के बीच में कोई बस खराब हो जाती है तो उस जगह के आसपास अन्य वाहनों की आवाजाही से जाम लग जाता है. जाम का सीधा मतलब है ध्वनि प्रदूषण. एक बार जाम वाले इलाके में फंस कर देखिए, हौर्न की आवाजें दादीनानी याद दिला देती हैं. दिमाग की नसें फटने लगती हैं. ऐसे में बेचारे दिल की क्या हालत होती होगी.

मनोरंजन के साधन

मनोरंजन के उपकरण जैसे टीवी, रेडियो, टेप रिकौर्डर, म्यूजिक सिस्टम (डीजे) आदि ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारक हैं. खासकर शादी समारोह, धार्मिक आयोजन, मेला, पार्टी और अन्य प्रकार के फंक्शन में लाउडस्पीकर के उपयोग से जिस तरह का ध्वनि प्रदूषण होता है उस का एहसास सब को होगा. फंक्शन भले ही बहुत दूर गली के दूसरे कोने में हो मगर उस डीजे और म्यूजिक सिस्टम वगैरह की पहुंच पूरे महल्ले में होती है. कान में उंगली या ईयरप्लग डाल कर बैठिए तो भी राहत नहीं मिलती. इन से उत्पन्न होने वाली तीव्र ध्वनि शोर के साथसाथ बीमारियों का कारण बनती है.

निर्माण कार्य

कंस्ट्रक्शन साइट पर होने वाले शोर से भी ध्वनि प्रदूषण फैलता है. कहीं न कहीं निर्माण कार्य होता ही रहता है. भवनों, घरों, पुलों, ब्रिज और सड़कों, फैक्ट्रियों व कारखानों समेत विभिन्न प्रकार के निर्माण के दौरान होने वाला शोर सब को परेशान करता है.

आतिशबाजी

आतिशबाजी यानी पटाखे जलाना पर्यावरण प्रदूषण का सब से बड़ा कारण है. साथ ही, यह ध्वनि प्रदूषण के लिए भी उतना ही जिम्मेदार है. कोईकोई पटाखे तो इतनी भयंकर आवाज से फूटते हैं कि कमजोर दिल वाले अचानक से कांप उठते हैं.

ध्वनि प्रदूषण से बचाव के उपाय

सरकार और आम लोगों के संयुक्त प्रयासों से ध्वनि व शोर की तीव्रता को कम कर ध्वनि प्रदूषण कम किया जा सकता है. व्यस्त सड़कों, खासकर रिहायशी इलाकों में ध्वनि अवरोधक लगाने से शोर का स्तर 10 डेसिबल तक कम किया जा सकता है.

सड़क निर्माण में कम आवाज पैदा करने वाली डामर का उपयोग करने से शोर का स्तर 3-6 डेसिबल तक कम हो सकता है. शहरी सड़क यातायात के शोर को कम करने के लिए साइकिल और सार्वजनिक परिवहन जैसे वैकल्पिक परिवहन को अपनाने की सलाह दी जा सकती है.

सड़क किनारे पौधारोपण कर पौधों की लंबी कतार खड़ी कर के ध्वनि प्रदूषण को कंट्रोल किया जा सकता है. हरे पौधे ध्वनि की तीव्रता को 10 से 15 डीबी तक कम कर सकते हैं.

हौर्न के अनुचित उपयोग को बंद

कर ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है. प्रैशरहौर्न पर रोक, इंजन व मशीनों की समय पर मरम्मत और एक बेहतर ट्रैफिक व्यवस्था के जरिए ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है.

ऐसे उपकरणों का निर्माण करना जो शोर या ध्वनि की तीव्रता को कम करें.

आमतौर पर सरकारें सिर्फ कानून बना कर फाइन करने में इच्छुक रहती हैं. ध्वनि प्रदूषण कम करने में उन की रुचि कम ही होती है.

संबोधन : अनिल ने मां को क्यों नहीं भेजा पागलखाने ?

‘‘अरे ओ औरंगजेब, दरवाजा खोल नासपीटे. मुझे क्यों बंद कर रखा है. जल्दी खोल… नहीं तो तोड़ डालूंगी.’’

दरवाजे पर जोरजोर से धमक पड़ने लगी.

आरती नेे बगल में सोए पति को झकझोर दिया, ‘‘सुनिए, उठिए न. मांजी कितना शोर मचा रही हैं.’’

‘‘तो क्या करूं. उन्हें खोल तो सकता नहीं. खोलूंगा तो अभी से बाहर जाने की जिद करेंगी. मारपीट शुरू कर देंगी,’’ अनिल ने ठंडी सांस ले कर कहा.

अनिल और आरती की शादी हुई अभी महीना भर ही हुआ था. आरती एक साधारण परिवार से थी. अनिल ने जब बिना दहेज शादी के लिए हां कही, तो आरती और उस के घर वालों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था.

शादी से पहले जब अनिल आरती से मिला था तो बोला था, ‘आरती, मैं तुम्हें एक बात बता देना चाहता हूं. अगर तुम्हें मंजूर हो तो शादी के लिए हां कहना, वरना तुम इनकार कर सकती हो.’

‘कहिए.’

‘मेरी मां को पागलपन के दौरे पड़ते हैं. उन की देखभाल तुम्हें ही करनी होगी. मेरे 2 छोटे भाई और एक छोटी बहन है, जो तुम से भाभी नहीं, एक मां जैसी उम्मीद रखेंगे. क्या तुम इतनी जिम्मेदारियां उठा पाओगी?’ अनिल ने आरती की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

‘मैं आप के विश्वास की कसौटी पर खरी उतरने की कोशिश करूंगी,’ आरती के होंठों पर मुसकान थिरक उठी थी.

आरती बहू बन कर आई तो एक बंद कमरे की खिड़की से उस ने सास को देखा था. वह चौकी पर बैठी न जाने क्याक्या बुदबुदा रही थीं. सफेद साड़ी से लिपटा उन का गोरा बदन ऐसा लग रहा था मानो संगमरमर की कोई जीतीजागती मूर्ति हो. ‘कौन कहेगा ये पागल हैं. चेहरे का तेज तो महारानियों को भी मात करता है,’ आरती सोचने लगी थी.

घर में कदम रखते ही आरती ने बिखरे हुए घर को आंचल में समेट लिया था. वह खूब जतन से सास की सेवा करती, उन के कपड़े बदलती, उन्हें खाना खिलाती. उसे हैरानी होती, ‘मांजी इतनी शांत रहती हैं, किसी से कुछ कहती भी नहीं. बस, अपनेआप में खोई न जाने क्या बुदबुदाती रहती हैं. पागल क्या ऐसे होते हैं.’

पर, एक रात उसे अपने सवाल का जवाब मिल ही गया. उस रात सब को खाना खिलाने के बाद वह खाना ले कर सास के कमरे में गई तो चौंक पड़ी थी. आज उन की आंखों में उसे कुछ अलग ही भाव नजर आए थे. हमेशा खोईखोई सी रहने वाली आंखों में क्रोध और तिरस्कार लहरा रहा था.

आरती ने खाना उन के सामने रख कर कहा, ‘मांजी, खाना खा लीजिए.’

मां ने आंखें तरेर कर बहू को देखा, ‘यह खाना मैं खाऊंगी,’ और दाल की कटोरी उठा कर आरती की ओर खींच मारी थी.

आरती की चीख निकल गई थी. कटोरी उस के माथे से टकरा कर झन्न से जमीन पर जा गिरी थी. बिफरी हुई मां ने कमरे का सारा सामान उठा कर फेंकना शुरू कर दिया था.

आरती थरथर कांप रही थी. माथे का लहू बह कर उस के चेहरे को रक्तरंजित कर गया था. उस की चीख सुन कर सब दौड़े आए थे.

अनिल ने छोटे भाई को आवाज दी थी, ‘पप्पू, जल्दी से रस्सी ला, लगता है, मां को फिर से दौरा पड़ गया.’

तीनों भाइयों ने मां को जबरदस्ती पकड़ कर रस्सी से पलंग के साथ बांध दिया था. चीखचीख कर मां के होंठों से झाग निकल रहा था. आंखें लाल हो गर्ई थीं. बिखरे बालों से उन का रूप और डरावना लग रहा था.
वह चीख रही थीं, ‘राजकुमारी ऐसा खाना खाती है, सूखी रोटी. सिर्फ एक सब्जी, पानी जैसी दाल. कहां मर गए सारे रसोइए.’

आरती भय और आश्चर्य से जैसे जड़ हो गई थी. पूरी रात माथे के दर्द से उसे नींद नहीं आई थी.

सुबह हलकी सी झपकी लगी तो सास की चीख सुन कर फिर से उठ गई, ‘‘औरंगजेब दरवाजा खोल.’’

देखा तो 4 बजे थे. उस ने अनिल से पूछा, ‘‘मां इतनी उग्र क्यों हो जाती हैं?’’ मेरी तो डर के मारे घिग्घी बंध गई थी.

‘‘मां हमेशा से ऐसी नहीं थीं. जीवन की कड़वी सचाइयों से सब को एक न एक दिन रूबरू होना ही पड़ता है. पर मां सचाइयों को सहन नहीं कर पाई और उन का दिमागी संतुलन बिगड़ गया.’’

‘‘कड़वी सचाइयां…’’

‘‘हां, मेरी मां बहुत बड़े जमींदार परिवार की एकलौती बेटी थीं. पिता राजा साहब कहलाते थे और वह राजकुमारी. दर्जनों नौकर एक हुक्म पर दौड़ पड़ते थे. उन की हर तमन्ना पूरी होती थी. जब उन का विवाह मेेरे पिता के साथ हुआ, तभी से उन के जीवन में उलटा चक्र घूमने लगा.

“तुम ने बचपन में एक कहानी सुनी होगी एक गरीब लकड़हारे की. एक ही बेटी थी. एक दिन राजकुमार उसे ब्याह ले गया और वह रानी बन गई.’’

‘‘हां.’’

‘‘मेरी मां की कहानी इसी कहानी का उलटा पहलू है. एक राजकुमारी के दामी बन जाने की दुखभरी कहानी.’’

‘‘क्या…?’’ आरती आश्चर्य से बोली.

‘‘मेरे नाना ने मेरे पिता के घर का ऐश्वर्य देख कर मेरी मां का विवाह किया था. उन्हें पता नहीं था कि मेरे दादाजी की शान खोखली है. ठीक वैसी ही जैसे सोने का मुलम्मा चढ़ा पीतल का जेवर. उन का मकान तक गिरवी पड़ा था. वजह थी, मेरे दादा और बड़े चाचा की जुए और शराब की लत. इन सब से जो संपत्ति बची थी, वह 5 बेटियों के दहेज में स्वाहा हो गई. मेरे पिता कालेज में प्रोफेसर थे. मां उन के साथ शहर आ गई.’’

‘‘पिता के घर से पति के घर का माहौल एकदम अलग था. कहां दर्जनों नौकरचाकर. कहां खुद बरतन, कपड़े धोना, खाना बनाना. मां का मस्तिष्क दोनों के इतने बड़े अंतर में सामंजस्य नहीं बैठा पाया. धीरेधीरे उन का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा. बच्चों की जिम्मेदारी, जीवन की छोटीबड़ी जरूरतों और मन की अतृप्त लालसाओं ने मां के हृदय को डांवांडोल कर दिया था. पिताजी मां को भरसक खुश रखने की कोशिश करते. मां का जीवन सामान्य ढर्रे पर आने लगा था कि नियति ने अपने क्रूर हाथों से मेरे पिताजी की जीवन डोर खींच लगी.

‘‘मां वैधव्य की कंटीली राह में नितांत अकेली रह गईं. उन की स्थिति बिलकुल भंवर में डोलती उस नाव जैसी थी, जिस के नाविक को सागर की गहराई लील गई हो. जीवन के भंवर में फंसी वह इस आघात को झेल नहीं पाई.

“पिताजी की मौत के एक महीने बाद उन्हें पागलपन का पहला दौरा पड़ा. बुरी तरह चीखते हुए मां ने घर का सारा सामान उठा कर चीखते हुए फेंकना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से पड़ोसियों ने उन्हें कमरे में बंद किया. पूरी रात वह चीखतीचिल्लाती रहीं.

‘‘‘खुद तो मर कर मुक्ति पा गए और मेरे सिर पर छोड़ गए सब को. कायर कहीं के. मुझे पागल समझ रखा है क्या. इतने बड़े घर की एकलौती बेटी हूं मैं. नौकरों की फौज है मेरे लिए और मैं… मैं खाना बनाऊं, कपड़े धोऊं, बच्चों के नखरे उठाऊं. मार डालूंगी, सब को मार डालूंगी.’ मां कभी ठठा कर हंसती, तो कभी बिलखबिलख कर रो पड़तीं.’’

आरती की आंखें बरस पड़ीं, ‘‘उफ, कितना मानसिक क्लेश झेला है मां ने.’’

‘‘मैं तब 14 साल का था. मैं ने समझ लिया था, अब मुझे ही छोटे भाईबहनों की देखरेख करनी होगी. मां को भी संभालना होगा.’’

‘‘मैं ने घरघर जा कर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. पिताजी की पेंशन और ट्यूशन के रुपयों से जैसेतैसे गुजारा होने लगा. मां वैसे तो शांत रहतीं, पर कभीकभार व्यग्र हो उठतीं.’’

‘‘कभीकभी 3 ईंटों का चूल्हा बना, बड़ी सी कड़ाही उस पर धर देतीं. कड़ाही में चम्मच चलाते हुए बड़बड़ाती रहतीं, ‘हलवा बन गया. बस, अब रामदीन गरमगरम पूरी उतारेगा. रायता, कटहल की मसालेदार सब्जी, सब तैयार है. अरे रामू, गोपाल, हरिया, शिवा कहां मर गए सब. बाबूजी को मेरे हाथ का हलवा बहुत पसंद है. जल्दी से आसन लगाओ, तब तक मैं थाली सजाती हूं.’

‘‘झूठमूठ की थाली सजा, वह अपने बिछाए आसन के नजदीक रख देतीं और आंगन के खंभे का सहारा ले कर बैठ जातीं. निर्लिप्त दृष्टि से एकटक शून्य में निहारती रहतीं. न खातीं, न पीतीं. न नहातींधोती,’’ कहते हुए अनिल भावुक हो उठा. आरती का मन भी भर आया. तभी मां जोर से चिल्लाई, ‘‘औरंगजेब, अभागे, खोल न मुझे. मैं बाहर जाऊंगी. जल्दी खोल,’’ ऐसे लगा कि दरवाजा अब टूटा कि तब टूटा.

आरती ने मनुहार से कहा, ‘‘खोल दीजिए न, बाहर आना चाहती हैं तो इस में बुरा क्या है.’’

‘‘तुम नहीं जानतीं. मां घर से बाहर जा कर बाजारों में घूमती रहती हैं. जाने क्याक्या उधार में खरीद लाती हैं. सब पर राजकुमारी होने की धौंस जमाती रहती हैं. एक दिन तो उन्होंने हद कर दी. मिठाई बनाने वाले कारीगर के साथ शामियाने वाले और बैंडबाजे वाले को भी बुला लाईं. बड़ी मुश्किल से उन सब को समझाबुझा कर वापस किया. कोई मानने को तैयार ही नहीं होता था कि मेरी तेजतर्रार वाकपटु मां पागल हैं.’’

आरती सोच में पड़ गई. एक नारी के दिल के भाव को, उस के दर्द को एक नारी ही समझ सकती है. बेटी के विवाह की लालसा से मां यह सब करती हैं. मन में कहीं गहरे तक पैठा है कि बेटी जल्द से जल्द किसी अच्छे घर में ब्याह दी जाए. भले ही मानसिक संतुलन खो बैठी हैं, फिर भी बेटे की कम आमदनी, उस के छोटे से कंधे पर घर का भारी बोझ, बेटी के विवाह का खर्च, यह सबकुछ महसूस कर के ही तो वह अनजाने में ऐसा कदम उठा बैठती हैं.
आरती ने पूछा, ‘‘मां, आप को औरंगजेब क्यों कहती हैं.’’

‘‘तुम ने इतिहास में पढ़ा होगा. औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कैद कर लिया था. मैं भी मां को कमरे में बंद कर देता हूं न. इसलिए मेरी पढ़ीलिखी मां मुझे औरंगजेब कहती हैं.’’

अनिल के चेहरे पर विषाद भरी मुसकराहट खिंच गई, जिस में उस के दिल का दर्द साफ झलक रहा था.

‘‘आप के नाना ने अपनी बेटी की खोजखबर नहीं ली.’’

‘‘नाना तो मां के विवाह के तीसरे वर्ष ही चल बसे थे और भाईभाभी भला किस के अपने हुए हैं,’’ अनिल ने कहा.

‘‘आप को मांजी का इलाज रांची में करवाना चाहिए. वहां के मानसिक अस्पताल में ऐसे रोगियों का बेहतर इलाज होता है.’’

‘‘सबकुछ कर के हार गया हूं, आरती. महल्ले वालों ने, रिश्तेदारों ने हजार बार कहा कि मां को पागलखाने में डाल दूं, पर मेरा मन नहीं मानता. कैसे अपनी जन्मदात्री को पागलखाने के वीरान सन्नाटे में अकेली छोड़ दूं?’’

आरती का मन भर आया. उस ने स्नेह से कहा, ‘‘आप दुखी क्यों होते हैं? आप ने तो अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाया है. कौन कहता है, आजकल के जमाने में श्रवण कुमार नहीं होता.’’

‘‘दुनिया चाहे जितनी भी तारीफ कर ले, श्रवण कुमार कह ले, पर मेरी मां तो मुझे औरंगजेब ही कहती हैं न. उन के दिल में मेरे लिए नफरत है, सिर्फ नफरत. उन का यह संबोधन मेरे हृदय में कील की तरह चुभता है.’’

आरती ने सोचा, ‘कौन कहता है पुरुष संवेदनशील नहीं होते? क्या हृदय की वेदना और आंखों से छलकती करुणा केवल नारी तक ही सीमित है. पुरुष भी मोम सा मुलायम दिल रखते हैं, छिपा हुआ ही सही.’

उस ने स्नेह से पति का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘मेरे बड़े भैया के एक दोस्त जानेमाने मनोचिकित्सक हैं. मैं मां के लिए उन से बात करूंगी. मुझे उम्मीद है सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

‘‘जैसा तुम उचित समझो,’’ अनिल एक ठंडी सांस भर कर उठ गया.

आरती पति और सास को साथ ले कर दिल्ली आ गई, जहां उस के भाई के दोस्त डा. अविनाश प्रैक्टिस करते थे.

आरती ने महसूस किया कि घर से बाहर निकल कर मांजी कुछ राहत महसूस कर रही हैं. चुपचाप बैठी वह गाड़ी की खिड़की से बाहर देख रही थीं. चेहरे पर शांति थी.

डा. अविनाश एक हंसमुख नवयुवक थे. उन्होंने प्रेम से मांजी की जांच की और कुछ सवाल उन से पूछे. मांजी धीमे स्वर में जवाब देती गईं. डा. अविनाश ने कुछ दवाएं लिख कर परचा अनिल को दे दिया.

आरती ने पूछा, ‘‘भैया, अब हम आप से कब मिलें?’’

‘‘आप दोनों आज शाम को मेरे घर पर मिलिए. आप दोनों को बहुत सी बातें बतानी हैं,’’ डा. अविनाश ने कहा.

शाम को मिलने पर डाक्टर ने समझाया, ‘‘मांजी को मनोरोग है, जिसे डाक्टरी भाषा में सिजोफ्रेनिया कहते हैं.’’

‘‘सिजोफ्रेनिया होने का कारण क्या है, डाक्टर.’’ अनिल ने पूछा.

डा. अविनाश ने बताया, ‘‘वैसे तो इस के पीछ कई कारण होते हैं, पर मुख्य कारण है किसी न किसी वजह से उपजा तनाव. आज के भौतिकवादी समाज में तनाव एक तरह से रचबस गया है. यही वजह है कि बहुत से रोगों की उत्पत्ति का कारण तनाव है.’’

‘‘किस तरह का तनाव, डाक्टर,’’ आरती ने पूछा.

‘‘जैसे बचपन में मांबाप का प्यार न मिलना, कोई दुर्घटना, विकलांगता या फिर वैसी स्थिति जो आप की माताजी की है. वह बचपन से जिस वैभव को देखती आई थीं, विवाहित जीवन में उस की कमी ने उन का मानसिक संतुलन ही बिगाड़ दिया.’’

‘‘डाक्टर, वैसे तो मां शांत रहती हैं, पर कभीकभी न जाने उन्हें क्या हो जाता है कि मारपीट करने पर उतारू हो जाती हैं. चित्त अशांत रहता है. कभी ठीक रहती हैं, कभी चीखने लगती हैं, कभी रोने लगती हैं, कभी गहरी उदासी में डूब जाती हैं,’’ अनिल ने मायूसी से कहा.

‘‘देखिए, जिंदगी एक सामान्य भावना है और जब जिंदगी पर भावनात्मक अंकुश नहीं रह जाता, तब व्यक्ति चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है. अकेलापन, उदासी में डूबे रहना, बोलचाल बंद कर देना या लगातार बिना बात बोलते रहना ही मनोरोग के लक्षण हैं,’’ डाक्टर ने समझाया.

‘‘मां ठीक तो हो जाएंगी न,’’ अनिल ने पूछा.

‘‘जी हां, आप बिलकुल चिंता न करें. उचित सलाह और सही दवाओं के सेवन से सिजोफ्रेनिया का मरीज ठीक हो जाता है. बस, सही देखभाल की जरूरत होती है,’’ डाक्टर ने कहा, तो आरती और अनिल के सिर से मानो बोझ उतर गया.

डा. अविनाश के इलाज से धीरेधीरे मांजी स्वस्थ होने लगीं. फिर एक दिन ऐसा आया, जब वह बिलकुल ठीक हो गईं. दोनों पतिपत्नी की खुशी का ठिकाना न रहा. आखिर, उन की सेवा रंग लाई थी.

एक रात जब पूरा परिवार साथ बैठ कर खाना खा रहा था, आरती ने खीर का कटोरा सास के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘मांजी, जरा अपने औरंगजेब को खीर तो दे दीजिए.’’

‘‘नहीं, बहू, औरंगजेब नहीं, यह तो मेरा श्रवण कुमार है,’’ मांजी ने भीगे स्वर में कहा और स्नेह से बेटे को अंक में भींच लिया.

पूरे परिवार के चेहरे खिल उठे. अनिल की खुशी का तो पारावार नहीं था. उसे अनचाहे संबोधन से मुक्ति जो मिल गई थी.

प्राइवेट हौस्पिटल : डाक्टर चांडक को क्यों सरकारी हौस्पिटल आना पड़ा ?

डाक्टर चांडक शहर के मशहूर डाक्टर थे और सरकारी सेवा में थे. दूसरे डाक्टरों की जिंदगी उन से अच्छी थी क्योंकि वे प्राइवेट हौस्पिटल में खूब कमा रहे थे. देखादेखी डाक्टर चांडक भी प्राइवेट हौस्पिटल चले गए मगर फिर ऐसा क्या हुआ कि उन को वापस सरकारी हौस्पिटल आना पड़ा…

डाक्टर चांडक आज सुबह से ही बहुत खुश थे, सरकारी मैडिकल कालेज हौस्पिटल में आ कर. इतने खुश थे जैसे किसी को चांद मिल गया हो या फिर पंछी को आसमां मिल गया हो. आज सुबह से ही बहुत ही अच्छा लग रहा था हौस्पिटल में, जैसे नौकरी का पहला दिन हो.

डाक्टर चांडक को देख कर उन के अधिनस्थ रैजिडेंट डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ व दूसरे लोग उन्हें वापस यहां देख कर बहुत ही खुश थे.

“सर, आप को वापस यहां देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है,” इंचार्ज सिस्टर आशा बोली.

“हां, मुझे भी,” मुसकराते हुए उन्होंने नर्सिंग स्टाफ से कहा.

सब यही सोच रहे थे कि क्यों डाक्टर चांडक को आज बहुत ही अच्छा लग रहा है? ऐसी भी क्या खास बात है?
बात दरअसल, कुछ महीने पहले की है. डा. चांडक इसी मैडिकल कालेज में प्रोफैसर हैं, पिछले 25 सालों से. अब उन की उम्र 50 साल से ज्यादा हो गई है. मतलब उन की चिकित्सीय अनुभव 25 साल से ज्यादा का हो गया है. उन के बारे में कहा जाता है कि वे मरीज के कमरे में प्रवेश करते समय ही पहचान जाते हैं कि इस मरीज की तकलीफ क्या है? ऊपर से डा. चांडक का मधुर स्वभाव व निर्मल मुसकराता चेहरा मरीज ही नहीं नर्सिंग स्टाफ व जुनियर डाक्टर को भी प्रभावित और प्रोत्साहित करता है.

डा. चांडक की उपलब्धियां उन की मेहनत के साथसाथ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भी थीं. पर इन सब के बावजुद वे अपने प्राइवेट मित्रों जितना कमा नहीं पाते थे. हालांकि उन की लग्जरी लाइफ कोई खास कम नहीं थी. अच्छा बड़ा सरकारी क्वार्टर के साथ ही उन के पास अपने होम टाउन में 3 बीएचके फ्लैट था. 2 कारें जिन में एक खुद के लिए और एक बेटे के लिए. 2-3 सालों में विदेश में एक बार घूम के आते थे और दूसरे बड़े शहरों में कालेज परीक्षा इंटरव्यू लेने जाते थे, तो अपनी पत्नी को भी साथ में ले जाते थे.

कुल मिला कर डाक्टर चांडक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सरकारी नौकरी से संतुष्ट थे. हालांकि उन की आर्थिक स्थिति अपने प्राइवेट डाक्टर्स जैसी अतिसंपन्न नहीं थी. उन के डाक्टर मित्र शहर की हर नई प्रौपर्टी में निवेश करते थे. साल में कम से कम 2 बार विदेश यात्राएं करते थे और उन के पास हर साल नई लग्जरी गाड़ी होती थी.

तभी उन की शांत जिंदगीरूपी तालाब में हलचल हुई, लहरें उठीं और तूफान बनी और समुद्रतट से जोरदार टकराई. उन का दोस्त सोनी, जो उन के साथ मैडिकल कालेज में पढ़ते थे, का जो दूसरे शहर में प्रैक्टिस करता था और साथ में उन के साथ मैडिकल कालेज में डाक्टर बना था, शहर में ही कौन्फ्रैंस में मिला.

कालेज का सदाबहार टौपर और मैडिसिन में गोल्डमैडलिस्ट, अपने दोस्त की आर्थिक हालत देख कर उसे बहुत दुख हुआ और वह डाक्टर चांडक से गुस्से में बोला, “तेरी प्रतिभा सरकारी तालाब में जंग खा रही है. अब तो प्राइवैट प्रैक्टिस के लिए तैयार हो जा. अब तो लगभग सारी जवाबदारियां भी पूरी हो चुकी हैं. अब रिस्क ले, सौरी रिस्क नहीं कमा ले.”

“पर अपना हौस्पिटल, वह भी इस उम्र में शुरू करूं?” उन्होंने आश्चर्य से अपने दोस्त को कहा.

“भाई, अब कोई भी नया डाक्टर अपना हौस्पिटल खुद शुरू नहीं करता है. ऊपर से पुराने जमेजमाए बड़ेबड़े डाक्टर भी अपने हौस्पिटल बेच रहे हैं और कोरपोरेट हौस्पिटल में जा रहे हैं बड़ेबड़े पैकेज के साथ. अपने हौस्पिटल के इनवैस्टमेंट व मैनेजमेंट का झंझट नहीं. बहुत सारा बड़ा पैकेज दे रहे हैं और तुम तो अनुभवी हो और मैडिकल कालेज के प्रोफैसर हो. तुम को तो बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. तुम अपनेआप को कुएं से बाहर निकाल और समुद्र नहीं, तो तालाब में ही आ जा. देख, दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है,” उस ने अपने दोस्त को समझाने के लिए कहा.

डा. चांडक की पत्नी शुरू से ही उन्हें प्राइवेट में कुछ करने को कह रही थीं. दूसरों को छोड़ो जब उन की मैडिकल की पढ़ाई चल रही थी तभी उन्होंने प्राइवेट का ही सोचा था. पर पासआउट होते ही उन को तुरंत ही दूसरे दिन अपने ही मैडिकल कालेज में असिस्टेंट प्रोफैसर की नियुक्ति मिली और प्राइवेट हौस्पिटल खोलने के लिए निवेश भी बड़ा चाहिए था. उन्होंने सोचा कि कुछ समय नौकरी करूंगा और बाद में अपना प्राइवेट कर दूंगा. पर जवाबदारियां बढ़ती गईं और दूसरा उन्हें सरकारी कालेज में मरीज देखने के साथसाथ स्टूडैंट को पढ़ाने का भी मजा आ रहा था पर अब बेटा बैंक की जौब में सैटल हो चुका और बेटी की शादी हो चुकी थी. अब उन्होंने दूसरे दोस्तों व परिवार के साथ सलाहमशविरा किया. ज्यादातर का मंतव्य प्राइवेट प्रैक्टिस करने का था.

हिम्मत कर के एक दिन सरकार को इस्तीफा दे दिया और उसी शहर में ही नया खुला कौरपोरेट हौस्पिटल जो अभी 1 साल पहले ही उस की नई ब्रांच खुली थी, अच्छाखासा पैकेज और इंसैंटिव दे रही थी, उन्होंने अपनी नई नौकरी जौइन कर ली.

यहीं से उन की जीवन की चिकित्सक तरीके की दूसरी पारी शुरू होती है. पहले दिन वह थोड़ी उत्सुकता और थोड़ी झिझक के साथ अस्पताल पहुंचे. अस्पताल के जगहजगह पर सिक्योरिटी गार्ड थे और हर जगह उन को पूछ कर उन को अंदर जाना पड़ा क्योंकि यहां के सिक्योरिटी गार्ड उन को पहचानते नहीं थे. उन की चैंबर बेसमेंट में थी जो दूसरे डाक्टर के साथ थी.

उन के चैंबर के बाहर काले रंग की मंहगी प्लेट पर गोल्डन रंग में नाम के साथ डिग्री व पूर्व प्रोफैसर, मैडिकल कालेज टंगी हुइ थी. बाहर सिस्टर नर्स बहुत छोटी सी टेबल पर बैठी थी. वेटिंगरूम बहुत बड़ा था और सरकारी हौस्पिटल की लकड़ी की बेंचों की जगह बड़ेबड़े सोफे रखे थे जिस में आदमी बैठते ही धंस जाता है. बीच में कांच की बड़ी डिजाइनर सैंटर टेबल थी जिस पर मैडिकल की पत्रिकाएं पड़ी हुई थीं जो हिंदी भाषा में और कौमन मैन को समझ में आए, ऐसी भाषा में थी. यहां डाक्टर की जगह, ज्यादातर बड़ा स्थान मरीज व उन के रिश्तेदारों के लिए थी. उन की चैंबर और उस की छत छोटी थी जबकि सरकारी हौस्पिटल में उन की कक्ष में ऐग्जामिनेशन टेबल से ज्यादा उन की खुद की टेबल थी.

उन्होंने बाहर सरसरी तौर पर नजर डाली फिर अपने कक्ष में प्रवेश किया. कुछ समय बाद सिस्टर एक चार्ट पेपर ले कर अंदर आई,”सर, आप के आज की पेशेंट की ओपीडी लिस्ट है,” पेपर मेज पर रखते हुए कहा.

“कितने मरीज हैं?”

“सर, 7 मरीज अभी हैं और 5 शाम को हैं,” नर्स ने नाम के साथ बताया.

‘क्या सिर्फ इतने ही पेशेंट? डाक्टर को हैरतअंगेज आश्चर्य हुआ. इतने मरीज तो वे अपने चैंबर से वार्ड तक जातेजाते रास्ते में ही देख लेते थे. वहां उन की रोजाना ओपीडी 100 से ज्यादा ही थी, ‘उन्होंने मन ही मन बुदबुदाते कहा.

“डा. चांडक, आप ने आज तक सरकारी हौस्पिटल में ही अभी तक काम किया है. यह शायद प्राइवेट हौस्पिटल में आप का पहला अनुभव है. आप को बुरा न लगे तो मैं कुछ महत्त्वपूर्ण बातें आप को बताना चाहता हूं,” सुटेडबुटेड मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने उन से कहा. चपरासी दोनों के लिए कौफी रख कर गया.

“यहां मरीज व उन के रिलैटिव को ज्यादा प्रश्न पूछने की आदत होती है. क्योंकि हमारे ज्यादातर मरीज पढ़ेलिखे व संभ्रात घर के होते हैं और यहां आने से पहले इंटरनैट में खाफी कुछ सर्च कर के आते हैं. हमारा मूल उद्देश्य मरीज की संतुष्टि है. जब तक वे प्रश्न पूछे उन्हें संतोषजनक जवाब देते रहना है. भले ही इस में आप को झल्लाहट हो, भले ही आप को अच्छा नहीं लगे. सर, यहां व सरकारी हौस्पिटल में यही महत्त्वपूर्ण अंतर है,” मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने कौरपोरेट हौस्पिटल की संस्कृति से परिचय कराया.

‘डाक्टर का मूल कर्तव्य दर्दी की संतुष्टि से ज्यादा दर्दी का दर्द तकलीफ मूल रूप से मिटाना होता है नकि दर्दी और उस के संबंधियों को खुश करना होता है,’ उन्होंने मन ही मन कहा. पर आज पहला दिन था इसिलिए उन्होंने बहस करने की जगह चुपचाप सुना.

पहला मरीज शहर के बाहर का था. अनेक अस्पताल में उस का इलाज चल चुका था और कई डाक्टर से सलाह ले चुका था, पर ठीक नहीं हुआ. डा. चांडक ने उस की फाइल देखी और मरीज का परीक्षण किया. देखा कि मरीज लंबे समय से बीमार है. उस की जांच कर के उन्होंने एक टेस्ट के लिए लेबोरेटरी में उसे भेजा. लेबोरेटरी से डाक्टर का फोन आया और आश्चर्य के साथ बोला, “सर, सिर्फ एक ही टेस्ट?”

“बाकी सारे टेस्ट मरीज के किए हुए हैं,” उन्होंने शांत मन से कहा.

“वह बात आप की सही है, सर. पर यहां आए हर मरीज के सारे रिपोर्ट कराए जाते हैं भले ही वह एक दिन पहले ही दूसरी जगह क्यों न कराए हो,” किसी डा. नीरज ने यहां के सिस्टम को बताते हुए कहा.

2 घंटे बाद रिपोर्ट आई. उन्हें पता था कि रिपोर्ट पौजिटिव ही आएगी.

”देखिए, आप को पेट की टीबी है. इसीलिए पेट लंबे समय से दर्द कर रहा है. 6 महीने दवा लेनी पड़ेगी, मैं 1 महीने की दवा लिखता हूं. आप चाहें तो यह दवा अपने शहर में सरकारी हौस्पिटल से भी ले सकते हैं. चाहें तो यहां महीने में एक बार आ कर मेरे से लिखा कर ले जा सकते हैं,” उन्होंने पेपर पर दवा लिखते हुए दर्दी को औप्शन दिए.

”धन्यवाद डाक्टर साहब. एक साल से हैरान हो गए थे, कोई पक्का निदान नहीं हो रहा था. अब तो हम आप से ही दवा लेंगे,” मरीज को अभी तक दूसरे डाक्टर पर विश्वास नहीं था.

”सर, आप को इस मरीज को ऐडमिट करना था,” मैनेजर ने हलकी नाराजगी से कहा.

“यह तो एक डाक्टर को तय करना है कि मरीज के साथ क्या करना चाहिए?” उन्होंने गुस्से को दबा कर कहा.

उन की ओपीडी दिनोंदिन बढ़ रही थी क्योंकि उन का निदान, टेस्ट और दवाई कम से कम. कोई बिना जरूरत के ऐडमिशन व टेस्ट नहीं.

इस कारण हौस्पिटल का स्टाफ तक अपनी जानपहचान वालों को डा. चांडक को बताने को कहता था. उन की ओपीडी तो बढ़ रही थी पर इस तुलना में हौस्पिटल में ऐडमिशन नहीं हो रहे थे. दूसरे टेस्ट बहुत ही कम हो रही थी.

एक बार हौस्पिटल संचालक ने उन्हें बुलाया, ”डा. चांडक, आप की ओपीडी काफी अच्छी हो गई है पर उन की तुलना में ऐडमिशन क्यों नहीं हो रहे हैं? अब आप को 3 महीने हो गए. हम सभी को टारगेट देते हैं. आप को अगले महीने यह टारगेट पूरे करने होंगे,” कहते हुए एक प्रिंट पेपर उन की और बढ़ा कर कहा.

“टारगेट? यह तो कंपनियां अपने सैल्समेन को देती हैं. यह कैसे संभव है कि पहले से ही बता सकते हैं कि किस मरीज को दवा देनी है कि किस को ऐडमिट करना है?” उन्हें आज का दिन बहुत ही खराब लगा पूरी जिंदगी में.

जब वे कालेज में राउंड लेते थे तब 2 असिस्टैंट प्रोफैसर और रेजिडैंट डाक्टर उन के साथ झुंड की तरह चलता था. उन का मरीज पर 1-1 वाक्य बोलना महत्त्वपूर्ण होता था. उन की क्लीनिकल जब क्लास लेते थे तब पिन ड्रौप साइलेंस होता था. वह माहौल यहां नहीं था. पूरी रात घर पर भी चिंतामग्न थे. पर पहले महीने उन्हें फीस के रूप में ₹5लाख से भी ज्यादा का चेक मिला जो उन की 3 महीने की सैलरी के बराबर थी तो उन्हें लगा कि क्यों उन के सारे साथी प्राइवेट की ओर भागते हैं.

”सर, डाक्टर निशांत आप से मिलना चाहते हैं,” रिसेप्सनिस्ट ने इंटरकोम पर कहा.

”मैं यूरोलोजिस्ट हूं. मैं यहां 1 साल पहले काम करता था. अभी अपने शहर में खुद का हौस्पिटल शुरू किया है. यहां मेरा दोस्त राजेश आप के वार्ड में ही भरती है. बस, उस का डायग्नोसिस व प्रोग्नोसिस जानने आया हूं,” अपना परिचय दे कर दोस्त की तबियत के बारें में उन्होंने मैडिकल भाषा में पूछा.

उन्होंने अच्छी तरह से पूरा केस बताया और कब डिस्चार्ज करना है वह भी बताया. डाक्टर निशांत इतने सीनियर डाक्टर के संयम व सादगी से बहुत ही प्रभावित हुए. चाय पीतेपीते बातों ही बातों चांडक ने हौस्पिटल के टारगेट के बारें में पूछा तो डाक्टर निशांत यह सुन कर हंसने लगे.

“सर, इस हौस्पिटल में 200 करोड़ से भी ज्यादा निवेश हुआ है. ऊपर से हर महीने का मैंटेनेस खर्च, 100 से ज्यादा सिक्योरिटी गार्ड्स, 200 से ज्यादा स्टाफ, 10-10 लिफ्ट और सैंट्रली वातानुकल एसी का लाखों रुपए का बिल, इन सब का अंतिम बोझ मरीज पर ही पड़ता है.

“इतना सारा खर्च व मुनाफे के लिए न सिर्फ बहुत सारे मरीज बल्कि ढेर सारे ऐडमिशन, टेस्ट आदि भी चाहिए. इसलिए न चाहते हुए भी मैनेजमेंट को टारगेट देना ही पड़ता है और डाक्टर्स को वे टारगेट पूरे करने पड़ते हैं. नहीं तो हौस्पिटल ही चल नहीं पाएगा.”

”ओहो,” डाक्टर चांडक को प्राइवेट हौस्पिटल का अर्थशास्त्र समझ में आया.

डाक्टर चांडक मरीजों को भरती तो करते थे, पर दिन जरूरी ऐडमिशन उन की आत्मा को गंवारा नहीं था. ऐसा नहीं था कि मरीज भरती के लिए मना करते थे या बिल देने से मना करते थे. ज्यादातर मरीज संभ्रात घर के होते थे. साथ में लगभग सभी के पास मैडिक्लेम पौलिसी भी थी. कालेज में भी उन्हें कई कंपनी वाले अच्छी औफर करते थे खासकर दवा व टेस्ट के लिए, पर उन्होंने वही किया जो सही था और मन को गंवारा था. इस कारण वे अपने जूनियर डाक्टर, स्टाफ व मरीजों में प्रिय थे. सब लोग दिल से उन का सम्मान करते थे.

जब पहले महीने उन्हें ₹5 लाख से भी से ज्यादा राशी का चेक मिला, जिस में इंसैंटिव नहीं था तो वह फूले नहीं समाए. सरकार में 25 साल की नौकरी के बाद भी उन की सैलरी प्राइवेट हौस्पिटल से कई गुना कम थी. अब उन्हें समझ में आया कि ज्यादतर डाक्टर साथी क्यों प्राइवेट की ओर रूख करते हैं. शायद घर वाले भी इसलिए प्राइवेट करने को कहते थे. भविष्य में यह चेक की राशी बढ़ने वाली थी, रौकेट की तरह.
पर वे येनकेनप्रकारेण टारगेट पूरा करने में सक्षम नहीं थे. इसीलिए ऐडमिनिस्ट्रेशन का उन पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. वे धर्मसंकट में फंस गए. ढेर सारी प्राइवेट कमाई या फिर आत्मा की संतुष्टि. इस कारण वे तनाव में रहने लगे और उन का सदा हंसमुख निर्मल चेहरा चिंताग्रस्त हो गया.

“पापा, क्या बात है, आजकल बहुत तनाव में लग रहे हो?” बेटे ने पास आ कर उन से आदरभाव से पूछा.

“हां बेटा, बहुत चिंताग्रस्त हूं,” फिर उन्होंने अपने मन का द्वंद बताया, “समझ में नहीं आ रहा है, बेटा कि मैं क्या करूं?”

“पापा, आप हमेशा ही कहते हो कि जो दिल को सही लगे वही करो. दिमाग का क्या है वह तो स्वार्थी है, हमेशा नफानुकसान के बारे में सोचता है. इसलिए आप ने मुझे बोर्ड मैरिट में आने के बाद भी सांइस की जगह मेरी मनपसंद कौमर्स विषय लेने दिया, सब के सांइस के जोर देने पर भी मैं डाक्टर का बेटा हूं तो मुझे डाक्टर बनना चाहिए.

“पापा, आप जो भी निर्णय लेंगे, हम सब आप के साथ हैं,” बेटे ने पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

“थैंक्यू बेटा,” बेटे ने उन की मन की गांठ खोल दी.

दूसरे दिन सुबह ही कालेज में पहुंच गए. डीन सर उन के 2 साल सीनियर थे, मैडिकल स्टूडैंट समय में. उन्होंने आने का कारण पूछा तो बोले,”मैं कालेज वापस जौइन करना चाहता हूं, उन्होंने धीरे से जैसे शर्मिंदगी के भाव से कहा.

“अरे वापस क्यों,” मुसकराते हुए डीन सर ने आगे कहा, “तुम्हारा इस्तीफा सरकार ने मंजूर ही कब किया था? यह देखो सरकार का कल ही पत्र आया है जिस में लिखा है कि सरकार में डाक्टरों की भारी कमी है और प्रोफैसरों की तो और भी ज्यादा कमी है. और प्रोफैसर के कारण मैडिकल कालेज को हर साल 3 रैजिडेंट डाक्टर की सीट्स मिलती हैं जिस के कारण सरकार को विशेषज्ञ डाक्टर मिलते हैं. इसलिए उन का इस्तीफा नामंजूर किया जाता है,” पत्र पढ़ कर वे बहुत खुश हुए.

“सर, मैं कब जौइन करूं?” उन्होंने झेंपते हुए पूछा.

“कल ही आ जाओ. वापस आना है तो देरी क्यों?” कहते हुए उन्होंने मुसकराते हुए कौफी मंगवाई.

“डाक्टर चांडक, मनुष्य मिट्टी जैसा होता है. इसलिए तुम उस माहौल में रह नहीं सके,” डीन सर ने वैसे ही समझाया जैसे पहले दिन मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के समय समझाया था किशजितना प्रैक्टिकल सिखोगे उतना ही जिंदगी में अच्छा डाक्टर बनोगे.

शादी : अपनी बेटी पर सुरेशजी को गर्व क्यों हुआ

‘‘सुनो, आप को याद है न कि आज शाम को राहुल की शादी में जाना है. टाइम से घर आ जाना. फार्म हाउस में शादी है. वहां पहुंचने में कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा,’’ सुकन्या ने सुरेश को नाश्ते की टेबल पर बैठते ही कहा.

‘‘मैं तो भूल ही गया था, अच्छा हुआ जो तुम ने याद दिला दिया,’’ सुरेश ने आलू का परांठा तोड़ते हुए कहा.

‘‘आजकल आप बातों को भूलने बहुत लगे हैं, क्या बात है?’’ सुकन्या ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

‘‘आफिस में काम बहुत ज्यादा हो गया है और कंपनी वाले कम स्टाफ से काम चलाना चाहते हैं. दम मारने की फुरसत नहीं होती है. अच्छा सुनो, एक काम करना, 5 बजे मुझे फोन करना. मैं समय से आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या कहते हो, 5 बजे,’’ सुकन्या ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आफिस से घर आने में ही तुम्हें 1 घंटा लग जाता है. फिर तैयार हो कर शादी में जाना है. आप आज आफिस से जल्दी निकलना. 5 बजे तक घर आ जाना.’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ सुरेश ने आफिस जाने के लिए ब्रीफकेस उठाते हुए कहा. आफिस पहुंच कर सुरेश हैरान रह गया कि स्टाफ की उपस्थिति नाममात्र की थी. आफिस में हर किसी को शादी में जाना था. आधा स्टाफ छुट्टी पर था और बाकी स्टाफ हाफ डे कर के लंच के बाद छुट्टी करने की सोच रहा था. पूरे आफिस में कोई काम नहीं कर रहा था. हर किसी की जबान पर बस यही चर्चा थी कि आज शादियों का जबरदस्त मुहूर्त है, जिस की शादी का मुहूर्त नहीं निकल रहा है उस की शादी बिना मुहूर्त के आज हो सकती है. इसलिए आज शहर में 10 हजार शादियां हैं.

सुरेश अपनी कुरसी पर बैठ कर फाइलें देख रहा था तभी मैनेजर वर्मा उस के सामने कुरसी खींच कर बैठ गए और गला साफ कर के बोले, ‘‘आज तो गजब का मुहूर्त है, सुना है कि आज शहर में 10 हजार शादियां हैं, हर कोई छुट्टी मांग रहा है, लंच के बाद तो पूरा आफिस लगभग खाली हो जाएगा. छुट्टी तो घोषित कर नहीं सकते सुरेशजी, लेकिन मजबूरी है, किसी को रोक भी नहीं सकते. आप को भी किसी शादी में जाना होगा.’’

‘‘वर्माजी, आप तो जबरदस्त ज्ञानी हैं, आप को कैसे मालूम कि मुझे भी आज शादी में जाना है,’’ सुरेश ने फाइल बंद कर के एक तरफ रख दी और वर्माजी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है, आज तो हर आदमी, बच्चे से ले कर बूढ़े तक सभी बराती बनेंगे. आखिर 10 हजार शादियां जो हैं,’’ वर्माजी ने उंगली में कार की चाबी घुमाते हुए कहा, ‘‘आखिर मैं भी तो आज एक बराती हूं.’’

‘‘वर्माजी, एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या वाकई में पूरे स्टाफ को शादी में जाना है या फिर 10 हजार शादियों की खबर सुन कर आफिस से छुट्टी का एक बहाना मिल गया है,’’ सुरेश ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘लगता है कि आप को आज किसी शादी का न्योता नहीं मिला है, घर पर भाभीजी के साथ कैंडल लाइट डिनर करने का इरादा है. तभी इस तरीके की बातें कर रहे हो, वरना घर जल्दी जाने की सोच रहे होते सुरेश बाबू,’’ वर्माजी ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, वर्माजी, ऐसी बात नहीं है. शादी का न्योता तो है, लेकिन जाने का मन नहीं है, पत्नी चलने को कह रही है. लगता है जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों भई…भाभीजी के मायके में शादी है,’’ वर्माजी ने आंख मारते हुए कहा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, वर्माजी. पड़ोसी की शादी में जाना है. ऊपर वाले फ्लैट में नंदकिशोरजी रहते हैं, उन के बेटे राहुल की शादी है. मन इसलिए नहीं कर रहा कि बहुत दूर फार्म हाउस में शादी है. पहले तो 1 घंटा घर पहुंचने में लगेगा, फिर घर से कम से कम 1 घंटा फार्म हाउस पहुंचने में लगेगा. थक जाऊंगा. यदि आप कल की छुट्टी दे दें तो शादी में चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, सुरेश बाबू, आप डरते बहुत हैं. आज शादी में जाइए, कल की कल देखेंगे,’’ कह कर वर्माजी चले गए.

मुझे डरपोक कहता है, खुद जल्दी जाने के चक्कर में मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलाना चाहता है, सुरेश मन ही मन बुदबुदाया और काम में व्यस्त हो गया.

शाम को ठीक 5 बजे सुकन्या ने फोन कर के सुरेश को शादी में जाने की याद दिलाई कि सोसाइटी में लगभग सभी को नंदकिशोरजी ने शादी का न्योता दिया है और सभी शादी में जाएंगे. तभी चपरासी ने कहा, ‘‘साबजी, पूरा आफिस खाली हो गया है, मुझे भी शादी में जाना है, आप कितनी देर तक बैठेंगे?’’

चपरासी की बात सुन कर सुरेश ने काम बंद किया और धीमे से मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं ने भी शादी में जाना है, आफिस बंद कर दो.’’

सुरेश ने कार स्टार्ट की, रास्ते में सोचने लगा कि दिल्ली एक महानगर है और 1 करोड़ से ऊपर की आबादी है, लेकिन एक दिन में 10 हजार शादियां कहां हो सकती हैं. घोड़ी, बैंड, हलवाई, वेटर, बसों के साथ होटल, पार्क, गलीमहल्ले आदि का इंतजाम मुश्किल लगता है. रास्ते में टै्रफिक भी कोई ज्यादा नहीं है, आम दिनों की तरह भीड़भाड़ है. आफिस से घर की 30 किलोमीटर की दूरी तय करने में 1 से सवा घंटा लग जाता है और लगभग आधी दिल्ली का सफर हो जाता है. अगर पूरी दिल्ली में 10 हजार शादियां हैं तो आधी दिल्ली में 5 हजार तो अवश्य होनी चाहिए. लेकिन लगता है लोगों को बढ़ाचढ़ा कर बातें करने की आदत है और ऊपर से टीवी चैनल वाले खबरें इस तरह से पेश करते हैं कि लोगों को विश्वास हो जाता है. यही सब सोचतेसोचते सुरेश घर पहुंच गया.

घर पर सुकन्या ने फौरन चाय के साथ समोसे परोसते हुए कहा, ‘‘टाइम से तैयार हो जाओ, सोसाइटी से सभी शादी में जा रहे हैं, जिन को नंदकिशोरजी ने न्योता दिया है.’’

‘‘बच्चे भी चलेंगे?’’

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं, हमारे साथ कहां जाएंगे.’’

‘‘हमारा जाना क्या जरूरी है?’’

‘‘जाना बहुत जरूरी है, एक तो वह ऊपर वाले फ्लैट में रहते हैं और फिर श्रीमती नंदकिशोरजी तो हमारी किटी पार्टी की मेंबर हैं. जो नहीं जाएगा, कच्चा चबा जाएंगी.’’

‘‘इतना डरती क्यों हो उस से? वह ऊपर वाले फ्लैट में जरूर रहते हैं, लेकिन साल 6 महीने में एकदो बार ही दुआ सलाम होती है, जाने न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ सुरेश ने चाय की चुस्कियों के बीच कहा.

‘‘डरे मेरी जूती…शादी में जाने की तमन्ना सिर्फ इसलिए है कि वह घर में बातें बड़ीबड़ी करती है, जैसे कोई अरबपति की बीवी हो. हम सोसाइटी की औरतें तो उस की शानशौकत का जायजा लेने जा रही हैं. किटी पार्टी का हर सदस्य शादी की हर गतिविधि और बारीक से बारीक पहलू पर नजर रखेगा. इसलिए जाना जरूरी है, चाहे कितना ही आंधीतूफान आ जाए.’’

सुकन्या की इस बात को उन की बेटी रोहिणी ने काटा, ‘‘पापा, आप को मालूम नहीं है, जेम्स बांड 007 की पूरी टीम साडि़यां पहन कर जासूसी करने में लग गई है. इन के वार से कोई नहीं बच सकता है…’’

सुकन्या ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों के खाने का क्या हिसाब रहेगा. मुझे कम से कम बेफिक्री तो हो.’’

‘‘क्या मम्मा, अब हम बच्चे नहीं हैं, भाई पिज्जा और बर्गर ले कर आएगा. हमारा डिनर का मीनू तो छोटा सा है, आप का तो लंबाचौड़ा होगा,’’ कह कर रोहिणी खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर चौंक कर बोली, ‘‘यह क्या मां, यह साड़ी पहनोगी…नहींनहीं, शादी में पहनने की साड़ी मैं सिलेक्ट करती हूं,’’ कहतेकहते रोहिणी ने एक साड़ी निकाली और मां के ऊपर लपेट कर बोली, ‘‘पापा, इधर देख कर बताओ कि मां कैसी लग रही हैं.’’

‘‘एक बात तो माननी पड़ेगी कि बेटी मां से अधिक सयानी हो गई है, श्रीमतीजी आज गश खा कर गिर जाएंगी.’’

तभी रोहन पिज्जा और बर्गर ले कर आ गया, ‘‘अरे, आज तो कमाल हो गया. मां तो दुलहन लग रही हैं. पूरी बरात में अलग से नजर आएंगी.’’

बच्चों की बातें सुन कर सुकन्या गर्व से फूल गई और तैयार होने लगी. तैयार हो कर सुरेश और सुकन्या जैसे ही कार में बैठने के लिए सोसाइटी के कंपाउंड में आए, सुरेश हैरानी के साथ बोल पड़े, ‘‘लगता है कि आज पूरी सोसाइटी शादी में जा रही है, सारे चमकधमक रहे हैं. वर्मा, शर्मा, रस्तोगी, साहनी, भसीन, गुप्ता, अग्रवाल सभी अपनी कारें निकाल रहे हैं, आज तो सोसाइटी कारविहीन हो जाएगी.’’

मुसकराती हुई सुकन्या ने कहा, ‘‘सारे अलग शादियों में नहीं, बल्कि राहुल की शादी में जा रहे हैं.’’

‘‘दिल खोल कर न्योता दिया है नंदकिशोरजी ने.’’

‘‘दिल की मत पूछो, फार्म हाउस में शादी का सारा खर्च वधू पक्ष का होगा, इसलिए पूरी सोसाइटी को निमंत्रण दे दिया वरना अपने घर तो उन की पत्नी ने किसी को भी नहीं बुलाया. एक नंबर के कंजूस हैं दोनों पतिपत्नी. हम तो उसे किटी पार्टी का मेंबर बनाने को राजी नहीं होते हैं. जबरदस्ती हर साल किसी न किसी बहाने मेंबर बन जाती है.’’

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं कि मेकअप ही खराब हो जाए,’’ सुरेश ने कार स्टार्ट करते हुए कहा.

‘‘कितनी देर लगेगी फार्म हाउस पहुंचने में?’’ सुकन्या ने पूछा.

‘‘यह तो टै्रफिक पर निर्भर है, कितना समय लगेगा, 1 घंटा भी लग सकता है, डेढ़ भी और 2 भी.’’

‘‘मैं एफएम रेडियो पर टै्रफिक का हाल जानती हूं,’’ कह कर सुकन्या ने रेडियो चालू किया.

तभी रेडियो जौकी यानी कि उद्घोषिका ने शहर में 10 हजार शादियों का जिक्र छेड़ते हुए कहा कि आज हर दिल्लीवासी किसी न किसी शादी में जा रहा है और चारों तरफ शादियों की धूम है. यह सुन कर सुरेश ने सुकन्या से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि आज शहर में 10 हजार शादियां होंगी?’’

‘‘आप तो ऐसे पूछ रहे हो, जैसे मैं कोई पंडित हूं और शादियों का मुहूर्त मैं ने ही निकाला है.’’

‘‘एक बात जरूर है कि आज शादियां अधिक हैं, लेकिन कितनी, पता नहीं. हां, एक बात पर मैं अडिग हूं कि 10 हजार नहीं होंगी. 2-3 हजार को 10 हजार बनाने में लोगों को कोई अधिक समय नहीं लगता. बात का बतंगड़ बनाने में फालतू आदमी माहिर होते हैं.’’

तभी रेडियो टनाटन ने टै्रफिक का हाल सुनाना शुरू किया, ‘यदि आप वहां जा रहे हैं तो अपना रूट बदल लें,’ यह सुन कर सुरेश ने कहा, ‘‘रेडियो स्टेशन पर बैठ कर कहना आसान है कि रूट बदल लें, लेकिन जाएं तो कहां से, दिल्ली की हर दूसरी सड़क पर टै्रफिक होता है. हर रोज सुबहशाम 2 घंटे की ड्राइविंग हो जाती है. आराम से चलते चलो, सब्र और संयम के साथ.’’

बातों ही बातों में कार की रफ्तार धीमी हो गई और आगे वाली कार के चालक ने कार से अपनी गरदन बाहर निकाली और बोला, ‘‘भाई साहब, कार थोड़ी पीछे करना, वापस मोड़नी है, आगे टै्रफिक जाम है, एफ एम रेडियो भी यही कह रहा है.’’

उस को देखते ही कई स्कूटर और बाइक वाले पलट कर चलने लगे. कार वालों ने भी कारें वापस मोड़नी शुरू कर दीं. यह देख कर सुकन्या ने कहा, ‘‘आप क्या देख रहे हो, जब सब वापस मुड़ रहे हैं तो आप भी इन के साथ मुड़ जाइए.’’

सुरेश ने कार नहीं मोड़ी बल्कि मुड़ी कारों की जगह धीरेधीरे कार आगे बढ़ानी शुरू की.

‘‘यह आप क्या कर रहे हो, टै्रफिक जाम में फंस जाएंगे,’’ सुकन्या ने सुरेश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं होगा, यह तो रोज की कहानी है. जो कारें वापस मुड़ रही हैं, वे सब आगे पहुंच कर दूसरी लेन को भी जाम करेंगी.’’ धीरेधीरे सुरेश कार को अपनी लेन में रख कर आगे बढ़ाता रहा. चौराहे पर एक टेंपो खराब खड़ा था, जिस कारण टै्रफिक का बुरा हाल था.

‘‘यहां तो काफी बुरा हाल है, देर न हो जाए,’’ सुकन्या थोड़ी परेशान हो गई.

‘‘कुछ नहीं होगा, 10 मिनट जरूर लग सकते हैं. यहां संयम की आवश्यकता है.’’

बातोंबातों में 10 मिनट में चौराहे को पार कर लिया और कार ने थोड़ी रफ्तार पकड़ी. थोड़ीथोड़ी दूरी पर कभी कोई बरात मिलती, तो कार की रफ्तार कम हो जाती तो कहीं बीच सड़क पर बस वाले बस रोक कर सवारियों को उतारने, चढ़ाने का काम करते मिले.

फार्म हाउस आ गया. बरात अभी बाहर सड़क पर नाच रही थी. बरातियों ने अंदर जाना शुरू कर दिया, सोसाइटी निवासी पहले ही पहुंच गए थे और चाट के स्टाल पर मशगूल थे.

‘‘लगता है, हम ही देर से पहुंचे हैं, सोसाइटी के लोग तो हमारे साथ चले थे, लेकिन पहले आ गए,’’ सुरेश ने चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए सुकन्या से कहा.

‘‘इतनी धीरे कार चलाते हो, जल्दी कैसे पहुंच सकते थे,’’ इतना कह कर सुकन्या बोली, ‘‘हाय मिसेज वर्मा, आज तो बहुत जंच रही हो.’’

‘‘अरे, कहां, तुम्हारे आगे तो आज सब फीके हैं,’’ मिसेज गुप्ता बोलीं, ‘‘देखो तो कितना खूबसूरत नेकलेस है, छोटा जरूर है लेकिन डिजाइन लाजवाब है. हीरे कितने चमक रहे हैं, जरूर महंगा होगा.’’

‘‘पहले कभी देखा नहीं, कहां से लिया? देखो तो, साथ के मैचिंग टाप्स भी लाजवाब हैं,’’ एक के बाद एक प्रश्नों की झड़ी लग गई, साथ ही सभी सोसाइटी की महिलाओं ने सुकन्या को घेर लिया और वह मंदमंद मुसकाती हुई एक कुरसी पर बैठ गई. सुरेश एक तरफ कोने में अलग कुरसी पर अकेले बैठे थे, तभी रस्तोगी ने कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘क्या यार, सुरेश…यहां छिप कर चुपके से महिलाआें की बातों में कान अड़ाए बैठे हो. उठो, उधर मर्दों की महफिल लगी है. सब इंतजाम है, आ जाओ…’’

सुरेश कुरसी छोड़ते हुए कहने लगे, ‘‘रस्तोगी, मैं पीता नहीं हूं, तुझे पता है, क्या करूंगा महफिल में जा कर.’’

‘‘आओ तो सही, गपशप ही सही, मैं कौन सा रोज पीने वाला हूं. जलजीरा, सौफ्ट ड्रिंक्स सबकुछ है,’’ कह कर रस्तोगी ने सुरेश का हाथ पकड़ कर खींचा और दोनों महफिल में शरीक हो गए, जहां जाम के बीच में ठहाके लग रहे थे.

‘‘यार, नंदकिशोर ने हाथ लंबा मारा है, सबकुछ लड़की पक्ष वाले कर रहे हैं. फार्म आउस में शादी, पीने का, खाने का इंतजाम तो देखो,’’ अग्रवाल ने कहा.

‘‘अंदर की बात बताता हूं, सब प्यारमुहब्बत का मामला है,’’ साहनी बोला.

‘‘अमा यार, पहेलियां बुझाना छोड़ कर जरा खुल कर बताओ,’’ गुप्ता ने पूछा.

‘‘राहुल और यह लड़की कालिज में एकसाथ पढ़ते थे, वहीं प्यार हो गया. जब लड़कालड़की राजी तो क्या करेगा काजी, थकहार कर लड़की के बाप को मानना पड़ा,’’ साहनी चटकारे ले कर प्यार के किस्से सुनाने लगा. फिर मुड़ कर सुरेश से कहने लगा, ‘‘अरे, आप तो मंदमंद मुसकरा रहे हैं, क्या बात है, कुछ तो फरमाइए.’’

‘‘मैं यह सोच रहा हूं कि क्या जरूरत है, शादियों में फुजूल का पैसा लगाने की, इसी शादी को देख लो, फार्म हाउस का किराया, साजसजावट, खानेपीने का खर्चा, लेनदेन, गहने और न जाने क्याक्या खर्च होता है,’’ सुरेश ने दार्शनिक भाव से कहा.

‘‘यार, जिस के पास जितना धन होता है, शादी में खर्च करता है. इस में फुजूलखर्ची की क्या बात है. आखिर धन को संचित ही इसीलिए करते हैं,’’ अग्रवाल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा.

‘‘नहीं, धन का संचय शादियों के लिए नहीं, बल्कि कठिन समय के लिए भी किया जाता है…’’

सुरेश की बात बीच में काटते हुए गुप्ता बोला, ‘‘देख, लड़की वालों के पास धन की कोई कमी नहीं है. समंदर में से दोचार लोटे निकल जाएंगे, तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा.’’

‘‘यह सोच गलत है. यह तो पैसे की बरबादी है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘सारा मूड खराब कर दिया,’’ साहनी ने बात को समाप्त करते हुए कहा, ‘‘यहां हम जश्न मना रहे हैं, स्वामीजी ने प्रवचन शुरू कर दिए. बाईगौड रस्तोगी, जहां से इसे लाया था, वहीं छोड़ आ.’’

सुरेश चुपचाप वहां से निकल लिए और सुकन्या को ढूंढ़ने लगे.

‘‘क्या बात है, भाई साहब, कहां नैनमटक्का कर रहे हैं,’’ मिसेज साहनी ने कहा, जो सुकन्या के साथ गोलगप्पे के स्टाल पर खट्टेमीठे पानी का मजा ले रही थी और साथ कह रही थी, ‘‘सुकन्या, गोलगप्पे का पानी बड़ा बकवास है, इतनी बड़ी पार्टी और चाटपकौड़ी तो एकदम थर्ड क्लास.’’

सुकन्या मुसकरा दी. ‘‘मुझ से तो भूखा नहीं रहा जाता,’’ मिसेज साहनी बोलीं, ‘‘शगुन दिया है, डबल तो वसूल करने हैं.’’

उन की बातें सुन कर सुरेश मुसकरा दिए कि दोनों मियांबीवी एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं. मियां ज्यादा पी कर होश खो बैठा है और बीवी मीनमेख के बावजूद खाए जा रही है.

सुरेश ने सुकन्या से कहा, ‘‘खाना शुरू हुआ है, तो थोड़ा खा लेते हैं, नहीं तो निकलने की सोचते हैं.’’

‘‘इतनी जल्दी क्या है, अभी तो कोई भी नहीं जा रहा है.’’

‘‘पूरे दिन काम की थकान, फिर फार्म हाउस पहुंचने का थकान भरा सफर और अब खाने का लंबा इंतजार, बेगम साहिबा घर वापस जाने में भी कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा. चलते हैं, आंखें नींद से बोझिल हो रही हैं, इस वाहन चालक पर भी कुछ तरस करो.’’

‘‘तुम भी बच्चों की तरह मचल जाते हो और रट लगा लेते हो कि घर चलो, घर चलो.’’

‘‘मैं फिर इधर सोफे पर थोड़ा आराम कर लेता हूं, अभी तो वहां कोई नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुकन्या सोसाइटी की अन्य महिलाआें के साथ बातें करने लगी और सुरेश एक खाली सोफे पर आराम से पैर फैला कर अधलेटे हो गए. आंखें बंद कर के सुरेश आराम की सोच रहे थे कि एक जोर का हाथ कंधे पर लगा, ‘‘सुरेश बाबू, यह अच्छी बात नहीं है, अकेलेअकेले सो रहे हो. जश्न मनाने के बजाय सुस्ती फैला रहे हो.’’

सुरेश ने आंखें खोल कर देखा तो गुप्ताजी दांत फाड़ रहे थे. मन ही मन भद्दी गाली निकाल कर प्रत्यक्ष में सुरेश बोले, ‘‘गुप्ताजी, आफिस में कुछ अधिक काम की वजह से थक गया था, सोचा कि 5 मिनट आराम कर लूं.’’

‘‘उठ यार, यह मौका जश्न मनाने का है, सोने का नहीं,’’ गुप्ताजी हाथ पकड़ कर सुरेश को डीजे फ्लोर पर ले गए जहां डीजे के शोर में वर और वधू पक्ष के नजदीकी नाच रहे थे, ‘‘देख नंदकिशोर के ठुमके,’’ गुप्ताजी बोले पर सुरेश का ध्यान सुकन्या को ढूंढ़ने में था कि किस तरीके से अलविदा कह कर वापस घर रवानगी की जाए.

सुकन्या सोसाइटी की महिलाओं के साथ गपशप में व्यस्त थी. सुरेश को नजदीक आता देख मिसेज रस्तोगी ने कहा, ‘‘भाई साहब को कह, आज तो मंडराना छोड़ें, मर्द पार्टी में जाएं. बारबार महिला पार्टी में आ जाते हैं.’’

‘‘भाभीजी, कल मैं आफिस से छुट्टी नहीं ले सकता, जरूरी काम है, घर भी जाना है, रात की नींद पूरी नहीं होगी तो आफिस में काम कैसे करूंगा. अब तो आप सुकन्या को मेरे हवाले कीजिए, नहीं तो उठा के ले जाना पड़ेगा,’’ सुरेश के इतना कहते ही पूरी महिला पार्टी ठहाके में डूब गई.

‘‘क्या बचपना करते हो, थोड़ी देर इंतजार करो, सब के साथ चलेंगे. पार्टी का आनंद उठाओ. थोड़ा सुस्ता लो. देखो, उस कोने में सोफे खाली हैं, आप थोड़ा आराम करो, मैं अभी वहीं आती हूं.’’

मुंह लटका कर सुरेश फिर खाली सोफे पर अधलेटे हो गए और उन की आंख लग गई.

नींद में सुरेश ने करवट बदली तो सोफे से नीचे गिरतेगिरते बचे. इस चक्कर में उन की नींद खुल गई. चंद मिनटों की गहरी नींद ने सुरेश की थकान दूर कर दी थी. तभी सुकन्या आई, ‘‘तुम बड़े अच्छे हो, एक नींद पूरी कर ली. चलो, खाना शुरू हो गया है.’’

सुरेश ने घड़ी देखी, ‘‘रात का 1 बजा था. अब 1 बजे खाना परोस रहे हैं.’’

खाना खाते और फिर मिलते, अलविदा लेते ढाई बज गए. कार स्टार्ट कर के सुरेश बोले, ‘‘आज रात लांग ड्राइव होगी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 3 बज जाएंगे. मैं सोचता हूं कि उस समय सोने के बजाय चाय पी जाए और सुबह की सैर की जाए, मजा आ जाएगा.’’

‘‘आप तो सो लिए थे, मैं बुरी तरह थक चुकी हूं. मैं तो नींद जरूर लूंगी… लेकिन आप इतनी धीरे कार क्यों चला रहे हो?’’

‘‘रात के खाली सड़कों पर तेज रफ्तार की वजह से ही भयानक दुर्घटनाएं होती हैं. दरअसल, पार्टियों से वापस आते लोग शराब के नशे में तेज रफ्तार के कारण कार को संभाल नहीं पाते. इसी से दुर्घटनाएं होती हैं. सड़कों पर रोशनी पूरी नहीं होती, सामने से आने वाले वाहनों की हैडलाइट से आंखों में चौंध पड़ती है, पटरी और रोडडिवाइडर नजर नहीं आते हैं, इसलिए जब देरी हो गई है तो आधा घंटा और सही.’’

पौने 4 बजे वे घर पहुंचे, लाइट खोली तो रोहिणी उठ गई, ‘‘क्या बात है पापा, पूरी रात शादी में बिता दी. कल आफिस की छुट्टी करोगे क्या?’’

सुरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘कल नहीं, आज. अब तो तारीख भी बदल गई है. आज आफिस में जरूरी काम है, छुट्टी का मतलब ही नहीं. अगर अब सो गया तो समझ लो, दोपहर से पहले उठना ही नहीं होगा. बेटे, अब तो एक कप चाय पी कर सुबह की सैर पर जाऊंगा.’’

‘‘पापा, आप कपड़े बदलिए, मैं चाय बनाती हूं,’’ रोहिणी ने आंखें मलते हुए कहा.

‘‘तुम सो जाओ, बेटे, हमारी नींद तो खराब हो गई है, मैं चाय बनाती हूं,’’ सुकन्या ने रोहिणी से कहा.

चाय पीने के बाद सुरेश, सुकन्या और रोहिणी सुबह की सैर के लिए पार्क में गए.

‘‘आज असली आनंद आएगा सैर करने का, पूरा पार्क खाली, ऐसे लगता है कि हमारा प्राइवेट पार्क हो, हम आलसियों की तरह सोते रहते हैं. सुबह सैर का अपना अलग ही आनंद है,’’ सुरेश बांहें फैला कर गहरी सांस खींचता हुआ बोला.

‘‘आज क्या बात है, बड़ी दार्शनिक बातें कर रहे हो.’’

‘‘बात दार्शनिकता की नहीं, बल्कि जीवन की सचाई की है. कल रात शादी में देखा, दिखावा ही दिखावा. क्या हम शादियां सादगी से नहीं कर सकते? अगर सच कहें तो सारा शादी खर्च व्यर्थ है, फुजूल का है, जिस का कोई अर्थ नहीं है.’’

तभी रोहिणी जौगिंग करते हुए समीप पहुंच कर बोली, ‘‘पापा, बिलकुल ठीक है, शादियों पर सारा व्यर्थ का खर्चा होता है.’’

सुकन्या सुरेश के चेहरे को देखती हुई कुछ समझने की कोशिश करने लगी. फिर कुछ पल रुक कर बोली, ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आज सुबह बापबेटी को क्या हो गया है?’’

‘‘बहुत आसान सी बात है, शादी में सारे रिश्तेदारों को, यारों को, पड़ोसियों को, मिलनेजुलने वालों को न्योता दिया जाता है कि शादी में आ कर शान बढ़ाओ. सब आते हैं, कुछ कामधंधा तो करते नहीं…उस पर सब यही चाहते हैं कि उन की साहबों जैसी खातिरदारी हो और तनिक भी कमी हो गई तो उलटासीधा बोलेंगे, जैसे कि नंदकिशोर के बेटे की शादी में देखा, हम सब जम कर दावत उड़ाए जा रहे थे और कमियां भी निकाल रहे थे.’’

तभी रोहिणी जौगिंग का एक और चक्कर पूरा कर के समीप आई और बोलने लगी तो सुकन्या ने टोक दिया, ‘‘आप की कोई विशेष टिप्पणी.’’

यह सुन कर रोहिणी ने हांफते हुए कहा, ‘‘पापा ने बिलकुल सही विश्लेषण किया है शादी का. शादी हमारी, बिरादरी को खुश करते फिरें, यह कहां की अक्लमंदी है और तुर्रा यह कि खुश फिर भी कोई नहीं होता. आखिर शादी को हम तमाशा बनाते ही क्यों हैं. अगर कोई शादी में किसी कारण से नहीं पहुंचा तो हम भी गिला रखते हैं कि आया नहीं. कोई किसी को नहीं छोड़ता. शादी करनी है तो घरपरिवार के सदस्यों में ही संपन्न हो जाए, जितना खच?र् शादी में हम करते हैं, अगर वह बचा कर बैंक में जमा करवा लें तो बुढ़ापे की पेंशन बन सकती है.’’

‘‘देखा सुकन्या, हमारी बेटी कितनी समझदार हो गई है. मुझे रोहिणी पर गर्व है. कितनी अच्छी तरह से भविष्य की सोच रही है. हम अपनी सारी जमापूंजी शादियों में खर्च कर देते हैं, अकसर तो उधार भी लेते हैं, जिस को चुकाना भी कई बार मुश्किल हो जाता है. अपनी चादर से अधिक खर्च जो करते हैं.’’

‘‘क्या बापबेटी को किसी प्रतियोगिता में भाग लेना है, जो वहां देने वाले भाषण का अभ्यास हो रहा है या कोई निबंध लिखना है.’’

दार्जलिंग में कंचनजंगा एक्सप्रेस हादसा, आम यात्रियों की सुरक्षा के लिए क्या कर रही है सरकार

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के रंगापानी स्टेशन के करीब सियालदह जाने वाली कंचनजंगा एक्सप्रेस ट्रेन को 17 जून यानी बकरीद के त्योहार की सुबह एक मालगाड़ी ने इतनी जोरदार टक्कर मारी कि एक्सप्रेस ट्रेन के तीन डिब्बे मय यात्री हवा में सीधे खड़े हो गए. कंचनजंगा एक्सप्रेस का इस्तेमाल अक्सर पर्यटक दार्जिलिंग की यात्रा के लिए करते हैं. इसके अलावा ईद के मौके पर बड़ी संख्या में मुस्लिम लोग अपने घरों को लौट रहे थे. वे ईद की खुशियां अपने परिवार और बच्चों संग मनाने के लिए उत्साहित थे. किसे पता था कि ईद का दिन मातम में तब्दील हो जाएगा. इस हादसे में अभी तक 15 लोगों की मौत की सूचना आयी है. हालांकि गंभीर रूप से घायल लोगों को देखते हुए मौत का आंकड़ा बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. 60 से ज्यादा घायलों को अस्पताल पहुंचाया जा चुका है, खबर लिखे जाने तक डिब्बे काटने और लोगों को बाहर निकालने का काम जारी है. इस दुर्घटना में मालगाड़ी के पायलट और सह-पायलट की भी मौत हो गई है. प्रारंभिक रिपोर्टों से पता चलता है कि मालगाड़ी ने पीछे से सिग्नल को अनदेखा करके कंचनजंगा एक्सप्रेस में टक्कर मार दी. जबकि पश्चिम बंगाल में रानीपतरा रेलवे स्टेशन और चत्तर हाट जंक्शन के बीच स्वचालित सिग्नलिंग प्रणाली सुबह 5.50 बजे से ही खराब थी. सुबह 5:50 बजे से स्वचालित सिग्नलिंग प्रणाली के खराब होने के कारण कंचनजंगा एक्सप्रेस रानीपतरा रेलवे स्टेशन और चत्तर हाट के बीच रुक गयी थी मगर सुबह 9 बजे के लगभग उसी पटरी पर पीछे से आ रही मालगाड़ी ने सिग्नल को अनदेखा किया और अपनी पूरी रफ़्तार से आगे खड़ी एक्सप्रेस में जबरदस्त टक्कर दे मारी.

ट्रेन हादसा इतना भयावह था कि आवाजें दूर-दूर तक सुनाई दीं. ट्रेन में अफरातफरी का मंजर था। घायलों की चीख पुकार ने दहलाने वाला था। हादसा इतना भयंकर था कि डिब्बे हवा में उठते ही लोग एक दूसरे पर गिरने लगे. चीखों से पूरा क्षेत्र गूंजने लगा. यात्री हवा में झूल रहे डिब्बों की बदहवास से नीचे कूदने लगे. स्थानीय लोग जो उस समय आसपास के खेतों में काम कर रहे थे, दौड़ कर लोगों को निकालने और अस्पताल पहुंचाने में जुट गए. बाद में प्रशासन ने गैस कटर मांगा कर डिब्बों को काटना और उसमें घायलावस्था में फंसे लोगों को निकालना शुरू किया.

जाहिर है स्टेशन मास्टर से लेकर पूरे स्टाफ ने खराब सिग्नल के बारे में पीछे आ रही ट्रेनों को अवगत नहीं कराया. उनकी घोर लापरवाही का नतीजा है कि कितने ही निर्दोष यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, कितने होंगे जो जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाएंगे और अनेकों के जख्म भरने में महीनों का समय लग जाएगा.

गौरतलब है कि 2014 से 2023 के बीच सालाना औसतन 71 रेल हादसे हुए हैं. सबसे ज्यादा हादसे डिरेलमेंट यानी ट्रेन के पटरी से उतर जाने के कारण होते हैं. 2015-16 से 2021-22 के बीच 449 ट्रेन हादसे हुए थे, जिनमें से 322 की वजह डिरेलमेंट थी.

रेलवे भारत की लाइफलाइन है. हर दिन ढाई करोड़ से ज्यादा यात्री ट्रेन से सफर करते हैं. इतना ही नहीं, 28 लाख टन से ज्यादा की माल ढुलाई भी रोजाना होती है. अमेरिका, रूस और चीन के बाद दुनिया का चौथा सबसे लंबा रेल नेटवर्क भारत का ही है. ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे हादसों को रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है? सरकार ने दो ट्रेनों की टक्कर रोकने के लिए ‘कवच’ सिस्टम शुरू किया था. मोदी सरकार ने इसका बड़ा हो-हल्ला मचाया था. बताया गया था कि रेल कवच एक ऑटोमेटिक ट्रेन प्रोटेक्शन सिस्टम है. इंजन और पटरियों में लगी इस डिवाइस से ट्रेन की स्पीड को कंट्रोल किया जाता है. इससे खतरे का अंदेशा होने पर ट्रेन में अपने आप ब्रेक लग जाता है.

दावा किया गया था कि अगर दो इंजनों में कवच सिस्टम लगा है तो उनकी टक्कर नहीं होगी. अगर एक ही पटरी पर आमने-सामने से दो ट्रेनें आ रही हैं तो कवच एक्टिवेट हो जाता है. कवच ब्रेकिंग सिस्टम को भी एक्टिव कर देता है. इससे ऑटोमैटिक ब्रेक लग जाते हैं और एक निश्चित दूरी पर दोनों ट्रेनें रुक जाती हैं. लेकिन अभी तक मात्र 139 लोको इंजनों में ही कवच सिस्टम लग पाया है. वर्ष 2022 के बजट में ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल के तहत इसकी घोषणा की गई थी. इस योजना में कुल 2,000 किलोमीटर रेल नेटवर्क पर कवच सिस्टम को लगाने की बात कही गई थी. लेकिन दार्जिलिंग में जहां टक्कर हुई है, उस लाइन पर ये सिस्टम अब तक नहीं लग पाया है.

इसी तरह से इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम की भी बड़ी चर्चा हुई थी. ये सिस्टम सिग्नल, ट्रैक और प्वॉइंट के साथ मिलकर काम करता है. इंटरलॉकिंग सिस्टम ट्रेनों की सुरक्षित आवाजाही सुनिश्चित करता है. अगर लाइन क्लियर नहीं होती है तो इंटरलॉकिंग सिस्टम ट्रेन को आने जाने के लिए सिग्नल नहीं देता है. दावा है कि ये सिस्टम एरर प्रूफ और फेल सेफ है. फेल सेफ इसलिए, क्योंकि अगर सिस्टम फेल होता भी है तो भी सिग्नल रेड हो जाएगा और ट्रेनें रुक जाएंगी. 31 मई 2023 तक 6,427 स्टेशनों में इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम लगाए जाने की बात सरकार ने कही थी. बावजूद इसके देश में ट्रेन हादसे रुक नहीं रहे हैं.

दरअसल सरकार का पूरा ध्यान हिन्दू-मुस्लिम करने, नफरत फैलाने, अडानी-अम्बानी को खुश करने में लगा रहता है. गरीब जनता की जान की उसे कोई परवाह नहीं है. किसी के घर का अकेला कमाने वाला मर जाए, किसी माँ की गोद सूनी हो जाये, किसी नवब्याहता का सुहाग उजड़ जाए, बच्चे अनाथ हो जाएँ इन बातों से सरकार को कुछ लेना देना नहीं है. अगर सरकार गरीबों के लिए ज़रा भी हमदर्दी रखती तो देखती कि एसी ट्रेनों की जनरल बोगियों में गरीब आदमी कैसे ठुंसा हुआ जाता है. गर्मी और पसीने से लथपथ बच्चे कैसे खिड़कियों की और मुँह दिए खड़े रहते हैं ताकि सांस लेने भर की हवा मिल जाए. लोग दरवाजे के बाहर तक लटके रहते हैं. औरतें मर्दों के पैरों के बीच दबी-सिकुड़ी बैठी होती हैं. यहाँ तक कि लोग शौचालयों तक में खड़े होकर जाते हैं. जिस देश की 70 फ़ीसदी जनता अभी तक गरीबी से जूझ रही है उसके लिए ट्रेनों में जनरल डिब्बे बढ़ाने की बजाय सरकार एसी डिब्बे बढ़ाती जा रही है. सरकार ऐसी पटरियों पर बुलेट ट्रैन दौड़ाने की सोच रही है जो आये दिन उखड़ी पडी होती हैं. जिन पर मवेशी रातें गुजारते हैं. सरकार की सारी आशिकी उन अमीर उद्योगपतियों से है जिनके पैसे पर सरकार नाचती है. शानदार बुलेट ट्रेनें भी इन्हीं उद्योगपतियों के लिए पटरियों पर तीर की गति से दौड़ेंगी ताकि वे अपने गंतव्य पर जल्दी और आराम से पहुचें. गरीबों के लिए जिनके वोट के दम पर सत्ता का सिंहासन हासिल होता है, सरकार ने उनके लिए कितनी ट्रेनें चलाई? उनकी सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए? एसी ट्रेनों में उनके लिए कितने डिब्बे जोड़े? कोई जवाब है सरकार के पास?

भारत में हाल ही में हुई प्रमुख रेल दुर्घटनाएं

जून 2, 2023

एक साल पहले जून के महीने में ही बेंगलुरु-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस से टकराने के बाद कोरोमंडल एक्सप्रेस बालासोर में एक मालगाड़ी टकरा गई थी. इस हादसे में 300 से अधिक लोगों की मौत हुई थी, जबकि 1,000 से अधिक लोग घायल हो गये थे.

29 अक्टूबर, 2023

29 अक्टूबर, 2023 को विशाखापट्टनम-पलासा पैसेंजर ट्रेन और विशाखापत्तनम-रायगडा पैसेंजर ट्रेन के बीच टक्कर हो गई थी. इस टक्कर में 14 लोगों की मौत हो गई थी.

11 अक्टूबर, 2023

11 अक्टूबर, 2023 को बिहार नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. इस दुर्घटना में 70 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे.

25 अगस्त, 2023

लखनऊ-रामेश्वरम भारत गौरव ट्रेन में आग लग गई थी. इस आग की वजह से 9 यात्रियों की मौत हो गई थी जबकि 20 अन्य घायल हो गए थे.

13 जनवरी, 2022

13 जनवरी, 2022 को बीकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस के 12 डिब्बे पटरी से उतर गए थे. इसमें 9 यात्रियों की मौत हो गई थी जबकि 36 अन्य घायल हो गए थे.

2004 से 2014 के बीच हुई रेल दुर्घटनाएं

2004 से 2014 के बीच करीब 1853 रेल दुर्घटनाएं हुई हैं. 2004-14 की अवधि के दौरान प्रतिवर्ष 171 रेल दुर्घटनाएं हुई हैं. 2015 से 2023 तक 449 रेल दुर्घटना हुई हैं. 2014-23 की अवधि के दौरान प्रतिवर्ष 71 रेल दुर्घटनाएं हुई हैं.

घूस का गुजरात मौडल : अब किश्तों की भी सहूलियत

किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मर जाता है, इस कहावत वाली कड़वी सचाई कुछ मानों में मानव जीवन पर भी इस रूप में लागू होती है कि आदमी घूस में पैदा होता है घूस में जीता है और घूस देतेदेते ही एक दिन इस नश्वर और घूसखोर संसार से विदा हो जाता है. इस के बाद यह जिम्मेदारी बिना किसी लिखित अलिखित वसीयत के उस की संतानें संभाल लेती हैं. जिन के पैदा होते वक्त दाई और अस्पताल में नर्स को पिता ने घूस दी थी. फिर स्कूल में दाखिले के लिए भी जेब ढीली की थी और फिर नौकरी के लिए भी दी थी.

अब वही संतानें घूस का यह कर्ज उतारने की परंपरा निभाते पिता के डेथ सर्टिफिकेट को वक्त पर यानी अपनी खुद की मौत के पहले हासिल कर लेने नगरनिगम, पंचायत या नगरनिगम कर्मियों को रिश्वत देंगी. इस के बाद उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र बनवाने और जगह नामांतरण कराने से ले कर उस के बैंक सहित जहांजहां पैसे जमा होंगे वहां वहां चढ़ावा लगेगा. पैतृक संपत्ति हथियाने या उस का अपना हक हासिल करने भी घूस जरुरी है. इस के समानांतर ही गंगा पूजन, तेरहवी, पिंड दान और मोक्ष के लिए भी घूस दी जाती है. ठीक वैसे ही जैसे पिता ने नामकरण से ले कर जन्मपत्री बनवाने वगैरह के लिए दान दक्षिणा रुपी घूस दी थी. इस लिहाज से तो घूस एक तरह का कर्ज ही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. बस लेने वालों की शक्ल और ओहदे बदल जाते हैं.

तो घूस धर्म जितनी ही शाश्वत है. हवा, पानी, वस्त्र और भोजन की तरह अनिवार्य है. समझदार लोग इस से बचने की कोशिश नहीं करते और न ही अब सिस्टम को दोष देते हैं. क्योंकि अधिकतर लोग धार्मिक किस्म के होते हैं. उन्हें एहसास रहता है कि घूसखोरी का रिवाज धर्म से प्रेरित है. लोग बातबात में भगवान और उस के दलालों को घूस देते हैं कि हे प्रभु हमारा यह काम हो जाए तो हम इतने का प्रसाद चढ़ाएंगे भंडारा कराएंगे और काम अगर बड़ा हो तो भागवत भी करा देंगे या मूर्ति के सर सोने का मुकुट चढ़ा देंगे या कि मंदिर में वाटर कूलर ( आधुनिक प्याऊ ) या एसी लगवा देंगे. बिना किसी हिचक और सर्वे के कहा जा सकता है कि आज भी बेटी की शादी के लिए घूस सब से ज्यादा भगवान को दी जाती है.

यानी दक्षिणा और घूस की तादाद काम के सामाजिक और आर्थिक महत्व के हिसाब से तय होती है. अरबों की काम में करोड़ों की, करोड़ों के काम में लाखों की, लाखों के काम में हजारों की और हजारों के काम में कुछ सौ रुपयों की घूस दी जाती है. यहां आ कर यह रेट लिस्ट या सूचकांक स्थिर हो जाता है. सैकड़ों के कामों में सैकड़ों की ही घूस लगती है. इस से नीचे के कामों में जो नाम मात्र की घूस लगती है उस का वजन लोगों को नहीं लगता यह ठीक वैसी ही होती है जैसे होटल में हजार दो हजार का डिनर डकारने के बाद सौ या पचास रुपए की वेटर को बख्शीश दे दी जाती है. इसे घूस में गिनना जरुरी नहीं होता.

बिरला ही कोई नौन बायोलौजिकल होगा जिसे जिंदगी में कभी घूस न देनी पड़ी हो. हाल तो यह है कि भिखारियों को भी अपना धंधा करने के लिए घूस देना पड़ती है. दरअसल में घूस का लेनदेन सामाजिकता की पहचान है जो यह बताती है कि लोग मह्तावाकांक्षी हैं और जिंदगी में कुछ कर गुजरना चाहते हैं. उन के लिए घूस रोड़ा नहीं है बल्कि एक अपौर्चुनिटी या जरिया है. जो लोग घूस को गलत और भ्रष्टाचार मानते और समझते हैं उन्हें एक बार अपने भीतर के भक्त को टटोलना चाहिए कि वह आखिर मंदिरों में क्यों जाता है और मन्नत के एवज में कुछ देता क्यों है जबकि वहां से किसी तरह के रिटर्न की गारंटी नहीं होती. खुशी या फख्र तो इस बात पर होना चाहिए कि ऊओपर वाले को दी गई घूस अकसर जाया हो जाती है लेकिन नीचे वालों को दी गई घूस अकसर बिगड़े काम बना जाती है.

घूस के बारे में अब ढकामुंदा कुछ नहीं रह गया है इस में विकट की ट्रांसपेरेंसी है. इतनी कि अदालत में अपनी कुर्सी पर बैठा जज भी ख़ामोशी से देखता रहता है कि क्लर्क ने टेबल के नीचे या ऊपर से तारीख बढ़ाने की अपनी फीस ले ली है. इसी तर्ज पर क्लर्क को भी मालूम रहता है कि फलाने बनाम ढिकाने में साहब ने 5 लाख रुपए गटक कर जमीन ढिकाने की घोषित कर दी है. यह पारदर्शिता हर सरकारी विभाग में है हमें इस पर गर्व होना चाहिए.

नयानया गर्व तो अब हम इस बात पर भी कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के गृह राज्य गुजरात में घूस किश्तों में भी ली जाने लगी है. घूसखोरों की इस दयानतदारी को कुछ बुद्धिजीवियों ने सहानुभूति पूर्वक किया गया भ्रष्टाचार करार दिया है. वहां कम से कम 10 मामले ऐसे पकड़े गए हैं जिन में घूस इन्स्टालमैंट पर चल रही थी. आमतौर पर यह माना जाता है और है भी कि मकान और एफएमसीजी के प्रौडक्ट किश्तों में मिलने की सहूलियत है क्योंकि उपभोक्ता एकमुश्त देने की हैसियत नहीं रखता. देश की 90 फीसदी कारें मांबाप के आशीर्वाद से नहीं बल्कि ईएमआई की कृपा से सड़कों को गुलजार बना रहीं हैं यही हाल मकानों का है.

आइए गुजरात के कुछ मामलों पर सरसरी नजर डाल कर तसल्ली कर इस नई सुविधा का लाभ सभी लें. इस बाबत सरकार से मांग की जा सकती है कि तरक्की का तो बोगस निकला लेकिन घूस का यह गुजरात मौडल हमारे प्रदेश में भी लागू किया जाए. अफसरों को इस बाबत अलिखित निर्देश दिए जाएं कि वे गरीब पीड़ितों को यह सहूलियत मुहैया कराएं नहीं तो उन के खिलाफ रासुका जैसे किसी कानून के तहत कार्रवाई की जा सकती है.

– इसी साल मार्च में गुजरात जीएसटी विभाग के साहबों ने अहमदाबाद की एक मोबाइल दुकान पर छापा मारते लाखों का घपला घोटाला पकड़ा था जिस से दुकानदार बेचारा परेशान हो गया. इसी बीच दो दलाल या बिचोलिये फरिश्तों की तरह प्रगट हुए जिन्होंने कुछ लेदे कर मामला रफादफा करवाने का भरोसा दिलाया. सौदा 21 लाख रुपए में पटा लेकिन दुकानदार ने अभी इतनी बेईमानी नहीं की थी कि 21 लाख रुपए एकमुश्त दे पाता. इन फरिश्तों ने बिना चुटकी बजाए यह समस्या भी हल कर दी और कहा कि कोई बात नहीं तुम यह घूस किश्तों में दे दो. दुकानदार ने 2 लाख रुपए की पहली किश्त शायद अदा भी कर दी लेकिन फिर उस का मन बदल गया और उस ने करार तोड़ते एसीबी यानी एंटी करप्शन ब्यूरो में शिकायत दर्ज करा दी. नतीजतन 30 मार्च को 2 आरोपी पकड़ लिए गए.

– 4 अप्रैल को डायमंड नगरी सूरत में एक उपसरपंच और तालुका पंचायत सदस्य एक किसान से 35 हजार रुपए की घूस लेते पकड़े गए. किसान का काम करवाने के लिए यह डील 80 हजार रुपए में हुई थी. किसान के दिल में भी बेईमानी आ गई और उस ने भी वही किया जो अहमदाबाद के दुकानदार ने किया था.

– इस के चंद दिनों बाद ही एसीबी ने गांधी नगर में एक पुलिस उपनिरीक्षक को 10 हजार रुपए की घूस लेते पकड़ा यह सौदा 40 हजार रुपए में तय हुआ था लेकिन साहब पीड़ित की शिकायत पर दूसरी किश्त लेने के पहले ही पकड़े गए.

लेने वाले तो बेईमान थे ही लेकिन घूस देने वालों ने भी कम बेईमानी नहीं की जो एकाध किश्त के बाद ही अनुबंध तोड़ बैठे. कायदे से तो इन पर भी वादाखिलाफी और करार तोड़ने का मामला दर्ज होना चाहिए. वैसे भी आजकल घूस देना भी जुर्म है.

अब एसीबी के अफसर मान रहे हैं कि यह कोई नई बात नहीं है. घूस अकसर किश्तों में ही दी जाती रही है. यह चलन या रिवाज पूरे देश में है कि घूस दो किश्तों में दी जाती है. पहली किश्त काम होने के पहले और दूसरी काम होने के बाद देने का प्रावधान है. आमतौर पर लोग दूसरी किश्त से टीडीएस टाइप की कटोती कर दूसरी किश्त भी दे देते हैं. उन्हें यह एहसास रहता है कि जाने कब घूसखोर से कोई दूसरा काम पड़ जाए और उस वक्त वह हरिशचंद्र बन जाए या फिर रेट ही बढ़ा दे.

कुछ ऐसे काम भी होते हैं जिन में घूसखोर दूसरी किश्त न मिलने पर कोई नया अडंगा लगा सकता है. मसलन मकान जमीन जायदाद का नामांतरण जिस में किश्त न मिलने पर कोई भी आपत्ति लगाई जा सकती है. ऐसे कामों में लोंचा नहीं होता. देने वाला वक्त पर दूसरी किश्त धन्यवाद सहित अदा कर देता है. छोटेमोटे कामों जिन में घूस की रकम कम होती है में किश्तों की सहूलियत नहीं होती जैसे थानों में. एफआईआर दर्ज न होने देने या मनमाफिक लिखवाने में देने वाला निहायत ही ईमानदारी बरतता है क्योंकि पुलिस वालों के पास अनापशनाप अधिकार होते हैं वे राह चलते आप को पकड़ कर अपनी खुन्नस निकाल सकते हैं.

देखा जाए तो गुजरात के लोगों ने अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है जो दसियों मामले किश्तों में घूस के उजागर हुए उन से होगा यह कि अब यह सहूलियत बंद हो जाएगी. लेकिन घूस कभी बंद नहीं होगी. घूस सर्वव्यापी है उस के बगैर आप जायजनाजायज कोई काम नहीं कर सकते. इसलिए घूस दें जिस से काम हो सके. उस के तरीके पर झल्लाएं, घबराएं या बौखलाएं नहीं. याद करें 100 में से 70 मौकों पर आप खुद घूस देने को लालायित रहते हैं फिर बेवजह का हल्ला क्यों?

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