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उधर तूतूमैंमैं हो रही, इधर संतों ने हिंदू राष्ट्र का संविधान भी बना डाला

2024 के आम चुनाव जिस दुर्लभ बात के लिए याद किए जाएंगे उन में से एक यह भी होगा कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक मंच से संविधान की दुहाइयां देने और आरक्षण खत्म न करने का भरोसा देने को मजबूर कर दिया. 4 जून के नतीजे जो आएंगे सो आयेंगे, ऊंट किसी भी करवट बैठे लेकिन भाजपा का कोर वोटर यानी सवर्ण तबका सकते और सदमे में है जो यह आस लगाए बैठा था कि भाजपा 400 पार पहुंची तो यह झंझट भी खत्म कर देगी ठीक वैसे ही जैसे अयोध्या में राम मंदिर बनाया है और जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 बेअसर किया है.

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राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों ही एकदूसरे पर आरक्षण खत्म कर देने का आरोप लगाते अपनी तरफ से यह आश्वासन दे रहे हैं कि संविधान और आरक्षण सलामत रहेंगे लेकिन उसी सूरत में जब हम सत्ता में आएंगे. इस रामायण का उत्तरकांड बहुत संक्षिप्त है कि दलित तबके, जिसे धर्मग्रंथों में बारबार शूद्र कहते प्रताड़ित करने के निर्देश और आदेश दिए गए हैं, की ताकत का एहसास दोनों दलों और उन के दिग्गजों को है.

चुनावी मैदान में इस बार कोई दलित हिमायती दल दमदारी से नहीं है. उत्तरप्रदेश में बसपा नाम मात्र को है जिसे सियासी पंडित लड़ाई में गिन ही नहीं रहे. इस बार तो वह किसी का खेल बिगाड़ने की स्थिति में भी नही दिख रही. इस के बाद भी अगर आत्माओं के अस्तित्व की मान्यता को पलभर के लिए भी मान्यता दे दी जाए तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की आत्मा मुसकराती नजर आएगी जिन्होंने बहुत कठिन परिस्थितियों में संविधान बनाया था और शूद्रों को दलित बनाते आरक्षण की सहूलियत दी थी. सवर्ण हिंदू तब भी कसमसा और तिलमिला कर, बेबसी में ही सही, झुका था और आज तो उस का नेता, उस का हीरो, उस का भगवान, उस का आदर्श झुकझुक जा रहा है.

अब कोई जीते कोई हारे, दलित, आदिवासी, पिछड़ा पहले से ही जीत गया है. लेकिन बात जब संविधान की छिड़ी ही है तो देश के सनातनी धर्मगुरुओं ने इस पचड़े से दूर हिंदू राष्ट्र के संविधान का मसौदा ही तैयार कर लिया है. मुमकिन है बात ‘सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’ जैसी लगे लेकिन साधुसंतों की यह उम्मीद अभी जिंदा है कि भाजपा 4 जून को सरकार बनाएगी और भीमराव अंबेडकर का संविधान 370 की तरह निष्प्रभावी कर नया संविधान लागू करेगी जो मूलतया मनुस्मृति पर आधारित है. आधुनिक काल के हिसाब से उस में से दलितों को ठोंकने व कूटने के निर्देश नहीं दिए गए हैं, उन की नजर में अब शायद इसे दोहराने की जरूरत खत्म हो गई है.

ऐसा है हिंदू राष्ट्र का संविधान

संविधान निर्माण समिति के समानांतर है एक हिंदू राष्ट्र संविधान निर्माण समिति जिस के सदस्य तमाम छोटेबड़े मठाधीश, साधुसंत, उन के संगठन व अखाड़े हैं. ये सभी प्रयाग में लगने वाले माघ मेले में जरूर जाते हैं, यही उन की धर्म संसद है. इस का आयोजन हर कभी काशी यानी वाराणसी में भी होता है. इसी धर्म संसद ने 2014 के आम चुनाव के काफी पहले 13 अप्रैल, 2013 में ही जयपुर और वाराणसी से नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था.

हिंदू राष्ट्र के संविधान का निर्माण का मसौदा यहीं से तैयार होता है, जिस की बाकायदा घोषणा कोई एक साल पहले की गई थी. अब इस की लिखाई जोरों पर है, जिस के लिए सभी मठाधीशों से रायमशवरा चल रहा है. धर्म संसद देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव ध्वनिमत और सर्वसम्मति से पहले ही पारित कर चुकी है. इस मुहिम की अगुआई घोषिततौर पर शाम्भवी पीठाधीश्वर आनंदस्वरूप कर रहे हैं यानी हिंदू राष्ट्र के संविधान का अंबेडकर उन्हें कहा जा सकता है. प्रस्तावित संविधान 750 पृष्ठों का होगा. समिति का स्पष्ट मानना है कि देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का यही उपयुक्त समय है.

अभी तक इस संविधान के 32 पृष्ठ तैयार हो चुके हैं जिन पर सभी धर्माचार्य सहमत हैं. ये 32 पृष्ठ ही बता देते हैं कि देश बांटने का घिनौना खेल दरअसल कहां से खेला जा रहा है. अगर कोई सिख खालिस्तान की मांग करता है तो भगवा गैंग खीखी कर उस पर झपट्टा मारते उसे आतंकी, खालिस्तानी, देशद्रोही और भी न जाने क्याक्या करार दे देता है लेकिन ये लोग खुलेआम हिंदू राष्ट्र की मांग करें और उस का संविधान तक बनाने लगें तो भी देशद्रोही नहीं बल्कि पूजनीय होते हैं. तमाम भाजपाई नेता इन के पांवों में लोट लगाते नजर आते हैं. फिर क्या खा कर वे देश की अखंडता का राग अलापते हैं, यह तो उन का भगवान, कहीं हो तो वही, जाने. हिंदू राष्ट्र कैसा होगा, इस बारे में उन के संविधान से ये बातें अधिकृत तौर पर छन कर आई हैं.

– देश की राजधानी काशी होगी.

– वोट देने का अधिकार सिर्फ हिंदुओं को होगा. मुसलमान और ईसाईयों से यह अधिकार छीन लिया जाएगा. हां, सिख, बौद्ध और जैन धर्म के लोग वोट डाल सकते हैं क्योंकि समिति उन्हें हिंदू मानती है (यह और बात है कि इन धर्मों के लोग कभी खुद को हिंदू नहीं मानते क्योंकि ये बने ही हिंदू धर्म के पाखंडों और भेदभाव के खिलाफ हैं).

– कृषि करमुक्त होगी.

– गुरुकुल अनिवार्य होंगे.

– मसौदे में वर्णव्यवस्था शामिल रहेगी. (अभी इसे स्पष्ट नहीं किया गया है कि मंशा क्या है)

– ब्रिटिश काल में बने सभी कानून रद्द किए जाएंगे. (जाहिर है, मनुस्मृति वाले कानून लागू किए जाने की बात अप्रत्यक्ष रूप से की जा रही है.)

– वाराणसी में धर्म संसद बनेगी.

– इस अनूठे हिंदू राष्ट्र के संविधान के मुखपृष्ठ यानी कवरपेज पर अखंड भारत की तसवीर है जिस में पाकिस्तान और बंगलादेश भी शामिल हैं. समिति में हालफिलहाल आनंदस्वरूप के अलावा प्रमुख रूप से बतौर ख़ास कर्ताधर्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील बी एन रेड्डी, रक्षा विशेषज्ञ आनंद वर्धन, विश्व हिंदू महासंघ के अध्यक्ष अजय सिंह और सनातन धर्म विशेषज्ञ चंद्रमणि मिश्रा सहित कामेश्वर उपाध्याय शामिल हैं. किसी गैरसवर्ण को जगह नहीं दी गई है क्योंकि इन की नजर में वह हिंदू ही नहीं और होगा भी तो निचले दर्जे का ही होगा जो ब्रह्मा के पैर से पैदा हुआ माना जाता है.

इस निर्माणाधीन संविधान का मसौदा देशभर के धर्माचार्यों के पास विचारार्थ भेजा गया है. शायद ही कोई बताए या इन से पूछे कि जब देश में औलरेडी संविधान है तो इस नए संविधान की जरूरत क्या आन पड़ी. इस बारे में ये लोग बड़ी कुटिलता से बचकानी दलील, जो काल्पनिक ही है, यह देते हैं कि संविधान निर्माताओं की मूल भावना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की थी. इस में 300 संशोधन किए गए, धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया. अब इसलामिक आतंकवाद बढ़ रहा है कई राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं.

अब इन विद्वानों को कौन बताए कि संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने हिंदू धर्मग्रंथों को जला देने की बात कही थी, फिर वे क्यों हिंदू राष्ट्र बनाना चाहेंगे. हिंदू धर्म के पाखंडों और ब्राह्मणवाद की जितनी तार्किक और तीखी खिंचाई अंबेडकर ने की है उतनी पिछले सौ सालों में कोई नहीं कर पाया.

अब नरेंद्र मोदी भी इन्हीं साधुसंतों का सा डर दिखा रहे हैं और हास्यास्पद बात यह कह रहे हैं कि कांग्रेस की मंशा दलितों, आदिवासियो और पिछड़ों का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देने की है. वे कांग्रेस को 3 चुनौतियां भी दे रहे हैं. दरअसल न केवल नरेंद्र मोदी बल्कि पूरा भगवा गैंग डरा और घबराया हुआ है क्योंकि यह चुनाव बेमुद्दा है और दलित, आदिवासी, पिछड़ा उस पर भरोसा नहीं कर रहा. ये लोग जानते हैं कि आरक्षण कांग्रेस की देन है. भाजपा के कई नेता, 4 सांसद और खुद प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार विवेक ओबेराय आरक्षण खत्म करने की बात कह चुके हैं. जबकि कांग्रेस की तरफ से यह बात कोई नहीं कहता और न ही कह सकता. जिन कांग्रेसियों के मन में मनुवाद और आरक्षण हटाने की कीड़ा रेंग रहा होता है वे समारोहपूर्वक भाजपा में शामिल हो जाते हैं.

आरक्षण और भाजपा की हकीकत पर सवर्ण समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष अर्चना श्रीवास्तव बेहद बेबाकी से कहती हैं कि भाजपा खुलेतौर पर झूठ बोल रही है. वह डर गई है कि इस बार गाड़ी कहीं 200-225 पर ही न अटक जाए. दलित तो कभी दिल से उस के साथ था ही नहीं, अब सवर्ण भी छिटक रहा है. पिछले चुनाव की तरह इस चुनाव में कोई एयरस्ट्राइक मुद्दा या लहर नहीं है और मोदी जी का जादू भी प्याज के छिलकों की तरह उतर चुका है. इसलिए वे बौखलाहट में धर्म को मुद्दा बनाने के लिए हिंदूमुसलिम सरेआम करने लगे हैं. इस से प्रधानमंत्री पद की गरिमा और प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है. अभी तक वे दबी आवाज में हिंदूमुसलिम करते थे लेकिन अब आम कट्टर हिंदूवादी की तरह धर्म के आधार पर देश को बांटने की बात करने लगे हैं. यह दुखद है और समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है कि बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे कन्नी काट रहे हैं. और तो और, औरतों की इज्जत लूटने वालों को पनाह दे रहे हैं. ऐसे में महिलाएं उन्हें क्यों वोट देंगी.

क्या पेरेंट्स बच्चों में भेदभाव करते हैं?

संतान छोटी हो या बड़ी, मातापिता के लिए सभी बराबर होनी चाहिए. यदि वे उन से भेदभावपूर्ण व्यवहार  करेंगे तो घरपरिवार का माहौल खराब होगा जिस का खमियाजा सभी को भुगतना पड़ सकता है. बनारस की अलका कहती है, ‘‘हम 4 भाईबहन हैं. मेरे मातापिता हमें प्यार तो करते हैं लेकिन उनका झुकाव मेरे छोटे भाई तुषार की तरफ ज्यादा रहता है. हमें अकसर डांटमार पड़ जाती है, लेकिन मजाल है कि वे कभी तुषार को नजर से घूरें भी. खानापीना, घूमनाफिरना चाहे कोई भी वजह हो, तुषार को कभी एडजस्ट नहीं करना पड़ता.’’

आप ने भी अपनी फैमिली, मिलनेजुलने वाले या पासपड़ोस के बच्चे से यह जरूर सुना होगा कि ‘मेरी मम्मी या पापा मुझे प्यार नहीं करते हैं, दीदी या भैया को करते हैं.’ लखनऊ के आलोक कहते हैं, ‘‘मैं और मेरे 2 भाई पढ़ाईलिखाई में एवरेज थे लेकिन मेरे मंझले भाई को दुनिया से कोई मतलब नहीं होता था. वह हर वक्त किताब में घुसा रहता था. यही वजह थी कि वह मातापिता का चहेता बेटा था. उस की राय लेना, उस के खानेपीने से ले कर कपड़ेलत्ते सब पर मांबाप का पूरा ध्यान रहता था. मुझे और दूसरे भाइयों को इस बात पर बहुत गुस्सा आता था. इसलिए हम लोग आपस में एकदूसरे से लड़ा करते थे.’’

ज्यादातर मांबाप शायद इसे स्वीकार न करें, लेकिन एक शोध के अनुसार, मातापिता का एक बच्चे की तरफ ?ाकाव आम है. ऐसा करना न सिर्फ फैमिली लाइफ में फर्क डालता है बल्कि कई बार यह हानिकारक हो सकता है और इस का असर लंबे वक्त तक देखा जा सकता है. इस तरह का रवैया लगभग 65 फीसदी परिवारों में देखा जाता है. कई अलगअलग संस्कृतियों और देशों में इस का अध्ययन किया गया है. इसे बच्चों में होने वाली कई इमोशनल प्रौब्लम्स की एक महत्त्वपूर्ण वजह मानी जा रही है.

सिंगल चाइल्ड का चलन

क्या आप ने कभी किसी से यह सवाल किया है कि ‘आप कितने भाईबहन हैं?’ अगर हां तो आप को अकसर यह जवाब मिला होगा कि हम दो और हमारे दो या हम तीन या चार भाईबहन हैं. आप ने यह बहुत कम सुना होगा कि मेरा सिर्फ एक ही बच्चा है या फिर मैं सिंगल चाइल्ड हूं. लेकिन अगर आप अमेरिका या यूरोप के किसी देश में रहते हैं तो सिंगल चाइल्ड होने की बात सुनना आप के लिए बहुत मामूली सी होगी. जी हां, दरअसल अमेरिका और यूरोप के कई मुल्कों में हाल के कुछ सालों में ‘वन चाइल्ड एंड डन’ यानी एक बच्चा और बस हो गया का ट्रैंड देखने को मिला है. इन देशों में ज्यादातर शादीशुदा लोग एक से ज्यादा बच्चा पैदा करने से बचना चाहते हैं.

कनाडा की रहने वाली जेन डाल्टन

4 बच्चे चाहती थीं और इस के लिए उन्होंने पूरी तैयारी भी कर ली थी. लेकिन 2018 में उन की बेटी के जन्म के ठीक 2 महीने बाद जेन और उन के पति ने यह फैसला किया कि उन के लिए एक बच्चा ही काफी है, यानी, वे ‘वन चाइल्ड एंड डन’ की नीति अपनाएंगे. हालांकि डाल्टन ऐसी अकेली महिला नहीं हैं जिन्होंने ऐसा फैसला किया है. यूरोप में बच्चे वाले परिवार में 49 फीसदी परिवार ऐसे हैं जिन का एक बच्चा है. वहीं कनाडा में एक ही बच्चे वाले परिवार का समूह सब से बड़ा है, जो 2001 में 37 फीसदी से बढ़ कर 2021 में 45 फीसदी हो गया है. 2015 में 18 फीसदी अमेरिकी महिलाओं के सिंगल चाइल्ड थे, जबकि 1976 में केवल 10 फीसदी महिलाओं को एक ही बच्चा था.

करीब 85 से अधिक देशों में किए गए एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि पहले बच्चे के एक साल तक मातापिता बहुत खुश रहते हैं लेकिन दूसरे बच्चे के बाद उन की खुशियां आधी हो जाती हैं और तीसरे के बाद तो उन की खुशी जैसे छिन ही जाती है.

सामाजिक दबाव

हालांकि कई देशों में अब सिर्फ एक ही बच्चे का चलन बन रहा है, फिर भी एक से अधिक बच्चे पैदा करने का समाजिक दबाव बना रहता है. हमारे देश में ज्यादातर पेरैंट्स का कहना है कि उन पर परिवार के सदस्यों से ले कर सड़क चलते लोगों तक पर एक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दबाव डाला जाता है. इसलिए वे दबाव में आ कर 2 या 2 से अधिक बच्चे पैदा करने को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन जो मातापिता ऐसा नहीं करते, उन्हें लोगों को और यहां तक कि खुद को भी यह विश्वास दिलाना पड़ता है कि उन्होंने ऐसा कर के सही काम किया है क्योंकि 2 या 2 से अधिक बच्चे पैदा करने के बाद सभी बच्चों पर विशेष ध्यान नहीं दे पाते हैं. ऐसे में किसी को ज्यादा और किसी को कम मानते हैं, जिस से बच्चों के बीच आपस में ही असंतोष पैदा होने लगता है.

लखनऊ की रहने वाली सबीहा का सिर्फ एक ही बच्चा है और यह उन का सोचसम?ा कर लिया गया फैसला है. वे कहती हैं, ‘‘एक बच्चे का फैसला वक्त की जरूरत है.’’ इस में उन के पति और परिवार के सभी लोगों की रजामंदी शामिल है. उन का अपना परिवार और उन के पति भी इस फैसले में साथ हैं, लेकिन रिश्तेदारों की राय में एक से ज्यादा बच्चे होने चाहिए. सबीहा का मानना है कि अगर आप और आप के पति किसी फैसले में साथ हैं तो बाकी दुनिया की फिक्र नहीं करनी चाहिए.

भेदभाव का असर

ज्यादा बच्चे होने पर मांबाप सभी बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते. ऐसे में जिन बच्चों को इग्नोर किया जाता है उन में आपस में जलन की भावना आ जाती है. मांबाप का यह रवैया जिंदगीभर भाईबहन के आपसी रिश्ते को नुकसान पहुंचा सकता है. कभीकभी कुछ बच्चे बीमार रहते हैं तो मांबाप का ज्यादा ध्यान बीमार बच्चे की तरफ रहता है. दूसरा बच्चा होस्टल में रहता है और बहुत दिनों बाद घर आने पर मांबाप बच्चे की खातिर में लग जाते हैं तो दूसरे बच्चे को यह महसूस होने लगता है कि उसे कम तरजीह दी जा रही है. जबकि ऐसा नहीं है. मांबाप के लिए सभी बच्चे बराबर होते हैं. फिर भी वे ऐसा नहीं सम?ाते, इसलिए हमें ऐसी चीजों से बचना चाहिए.

नाजुक दिल पर असर

अगर एक बच्चा थोड़ा बिगड़ैल होता है और दूसरा थोड़ा सीधा तो मांबाप उसी का उदाहरण देने लगते हैं. ऐसे में वह और चिढ़ जाता है. बच्चे का दिल बहुत नाजुक होता है, गुस्से में भी मांबाप अगर कोई ऐसी बात कह देते हैं तो वह बच्चे के दिल पर छाप छोड़ जाती है.

मनोवैज्ञानिक डा. शेख बशीर कहते हैं, ‘‘भारत एक पित्तृसत्तात्मक समाज है. भारत में मांबाप द्वारा बच्चों में फर्क करने की सब से बड़ी वजह लिंगभेद है. बहुत सारे घरों में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले कम तरजीह दी जाती है. लिंगभेद पढ़ाईलिखाई से ले कर हर निर्णय तक में शामिल होता है.’’

कभीकभी बच्चों में गैप कम होने से सिबलिंग राइवलरी हो जाती है. ऐसे में बच्चे को यह लगता है कि हम लोग तो एक बराबर हैं तो मु?ा पर कम ध्यान क्यों दिया जा रहा है. भारत में स्किन कलर की वजह से भी पक्षपात होता है. एक बच्चा अगर काला है और एक गोरा तो रंग की वजह से किसी बच्चे को कम, किसी को ज्यादा तरजीह दी जाती है. लेकिन ऐसे में ‘फेवरिट चाइल्ड’ को आगे जा कर बहुत दिक्कतों का भी सामना करना पड़ सकता है.

ऐसे में क्या करना चाहिए

जैसे ही किसी मांबाप को ऐसा महसूस होता है कि वे अपने किसी बच्चे को नजरअंदाज कर रहे हैं और दूसरे को ज्यादा तवज्जुह दे रहे हैं तो उन्हें उस बच्चे से फौरन बात करनी चाहिए. उसे बताना चाहिए कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है और अगर ऐसा है भी तो उस की कोई खास वजह है, जैसे हो सकता है कि उन का कोई भाई या बहन किसी खास तरह की बीमारी का शिकार हो और उसे विशेष देखरेख की जरूरत हो.

मांबाप को यह समझना जरूरी है कि हर बच्चा अपने में खास होता है. उसे अलग कर के न देखें और न ही दूसरे बच्चों से कम्पेयर करें. अगर आप के 2 छोटे बच्चे हैं तो दोनों के एक ही ढंग के खिलौने खरीदिए. ऐसा कभी मत कहिए कि बेटे, तुम तो बड़े हो, तुम्हें इस की क्या जरूरत है. अगर आप बेटे के लिए बाइसिकिल लाती हैं तो उसे बेटी को भी चलाने के लिए दिया करें. ऐसा कभी न कहें कि बेटी, यह तो तुम्हारे भाई के लिए है. हमें याद रखना चाहिए कि बच्चा छोटा हो या बड़ा, सभी हमारे लिए बराबर हैं. छोटे पर ध्यान देना इसलिए जरूरी होता है कि वह नासम?ा होता है. लेकिन इस का यह अर्थ नहीं कि बड़ा यह सबकुछ सम?ाता नहीं है.

गर्मी में चेहरे पर पसीने आने के कारण जलन महसूस होता है, क्या करूं?

सवाल

गरमी में मुझे बहुत पसीना आता है. मेरी उम्र 26 साल है. चेहरे पर तो हद से ज्यादा आता है. इस कारण गरमी में चेहरे पर मेकअप ठहरता ही नहीं. सब से बड़ी समस्या यह है कि
पसीने के कारण चेहरे पर जलन होने लगती है. बहुत परेशान हूं, क्या करूं?

जवाब

गरमी के दिनों में शरीर से पसीना निकलना जरूरी है. शरीर में मौजूद स्वेट ग्लैंड पसीने को रिलीज करते हैं. जब स्वेट ग्लैंड ओवरऐक्टिव हो जाते हैं तो ज्यादा पसीना निकलता है. पसीने के कारण त्वचा में जलन महसूस होती है. जलन के साथसाथ कभीकभी रेडनैस, रैशेज और दाने होने लगते हैं.यह कौमन प्रौब्लम है. डाक्टरों का कहना है कि पसीना आने के कारण जलन महसूस होने की वजह वेसोडायलेशन यानी ब्लड वेसल्स का चौड़ा होना है. त्वचा में हीट रैश के कारण स्किन में मौजूद डक्ट ब्लौक हो जाती है और पसीना बाहर  निकलने के बजाय त्वचा में फंस जाता है. इस वजह से खुजली, जलन और दाने निकलने की समस्या हो सकती है.

आप कुछ घरेलू रैमिडीज अपना सकती हैं. चेहरे की जलन दूर करने के लिए चेहरे पर बर्फ लगाएं, ठंडक मिलेगी. एलोवेरा जैल का प्रयोग करें. उस में एंटीइंफ्लेमेटरी गुण होते हैं जिस से जलन और
सूजन दूर होती है. चंदन का लेप लगा सकती हैं. चंदन की तासीर ठंडी होती है.इस के अलावा त्वचा को जलन से बचाने के लिए समयसमय पर चेहरे को पानी से धोती रहें. अपनी डाइट में ताजे फल, दही
शामिल करें.

भरपूर मात्रा में पानी पिएं. एल्कोहल, चायकौफी से दूरी बनाएं. कौटन के कपड़े पहनें. ज्यादा औयली या मिर्चमसाले वाला भोजन न खाएं वरना त्वचा में जलन हो सकती है और त्वचा औयली हो
जाएगी. मेकअप उत्पादों का कम से कम इस्तेमाल करें. यह सब कर के देखिए, फायदा होगा.

धर्म और सब्सिडी के शहद में डूबता बौलीवुड

हाल के कुछ सालों में धर्म और सत्ता के पक्ष में धड़ाधड़ फिल्में बनीं. इन फिल्मों ने कमाई भले नहीं की लेकिन समाज को बांटने व सत्ताधारी पार्टी को चुनावी फायदा पहुंचाने की भरसक कोशिश की. इन फिल्मों को सरकार से सब्सिडी ही नहीं मिली बल्कि कई मौकों पर सत्ता पर काबिज राजनेताओं ने इन का सीधा प्रचार भी किया. सरकार के सीधे दखल से बौलीवुड ने राजनीतिक प्रचार तो किया लेकिन वह पूरी तरह बरबाद होने की कगार पर पहुंच गया है. सिनेमा के विकास के लिए असल में तो दर्शक चाहिए होते हैं लेकिन यदि लोकाश्रय न मिल रहा हो और फिल्में केवल राजाश्रय मिलने वाले शहद पर बनें तो चिपचिप कर छत्तों में मर जाएंगी.

पहले कुछ फिल्मकार सरकार से धन ले कर अच्छी फिल्में भी बनाते रहे हैं मगर ऐसा करते समय कहीं न कहीं वे फिल्में एक खास विचारधारा की पोषक होती हैं, जिन से सिनेमा व समाज दोनों का नुकसान होता है. यह सत्य है कि सब्सिडी के नाम पर सरकार जो धन देती थी उस के पीछे उस की अपनी एक सोच तो रहती थी पर वह ज्यादा ढोलबजाऊ नहीं थी. राजाश्रय के बल पर बनने वाली तमाम फिल्मों को दर्शक सिरे से नकार रहे हैं.

ऐसी फिल्मों को नकारे जाने के बाद भी इस तरह की फिल्में धड़ल्ले से बन रहीं हैं और हर चुनावी मौसम में प्रदर्शित भी हो रही हैं. आम चुनाव की तैयारियां सिर्फ चुनाव आयोग या राजनीतिक पार्टियां ही नहीं करतीं बल्कि फिल्म इंडस्ट्री भी करती है. ये तैयारियां पिछले 3 वर्षों से जोरों पर थीं जिस के परिणामस्वरूप इस साल कोई दर्जनभर ऐसी हिंदी फिल्में बौलीवुड से रिलीज हुईं जो खालिस राजनीति पर आधारित थीं. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही सिनेमा का भी कट्टर धर्मपंथियों की गिरफ्त में जाना कतई हैरानी की बात नहीं है बल्कि ऐसा न होता तो जरूर हैरानी होती क्योंकि वे प्रचार का कोई जरिया नहीं छोड़ते.

आम चुनाव पर राजनीतिक फिल्मों के प्रभाव को आंकने व नापने के लिए हालांकि थोड़ा पीछे ?ांकना जरूरी है कि वे फिल्में राजनीतिक नेताओं और सरकार से आम लोगों के मन की बात कैसे खूबसूरती से कह जाती थीं कि कोई फसाद या विवाद खड़ा नहीं होता था, लेकिन उस से पहले एक ?ालक हालिया प्रदर्शित फिल्मों की देखें तो लगता है कि हिंदुत्व पर बनी अधिकतर फिल्में फ्लौप भले ही रही हों लेकिन उन के पीछे एक एजेंडा है और एक बड़ा प्रोपगंडा भी.

बीती 23 फरवरी को ‘आर्टिकल 370’ फिल्म रिलीज हुई. नाम से ही जाहिर है कि फिल्म जम्मूकश्मीर से आर्टिकल 370 को बेअसर करने के मोदी सरकार के फैसले के प्रचार के लिए बनी है. ‘आर्टिकल 370’ को बनाने वाले निर्माता आदित्य धर और निर्देशक आदित्य सुहास जाम्भले हैं जिन्होंने 2019 में ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’ फिल्म बना कर आम चुनाव में भाजपा को मजबूती देने का काम किया था. एक चेहरा ‘रामायण’ सीरियल वाले राम यानी अरुण गोविल का है जो मेरठ से भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. फिल्म में वे भारत के प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं.

‘आर्टिकल 370’ का असली प्रमोशन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 फरवरी को ही जम्मू से एक चुनावी सभा के दौरान कर दिया था. उन्होंने फिल्ममेकर्स और कलाकारों की तरफ इशारा करते कहा था कि अब दुनियाभर में आप की जयजयकार होने वाली है. अच्छा है कि लोगों को सही जानकारी मिलेगी. फिल्म की लागत में राजाश्रय का कितना योगदान था, इस के कोई खास माने नहीं क्योंकि निर्माताओं का अपना निजी मकसद भी 370 से ताल्लुक रखते तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करना और नरेंद्र मोदी की इमेज को चमकाना था. आजकल फिल्मों के प्रमोशन में कलाकारों की भागीदारी आम बात और व्यावसायिक जरूरत है. आर्टिकल 370 के मद्देनजर यह भूमिका नरेंद्र मोदी ने क्यों निभाई, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि वे अपने इस फैसले को ले कर आशंकित और एक हद तक भयभीत भी थे, इसलिए आम लोगों की ज्यादा से ज्यादा सहमति बटोर रहे थे.

6 मार्च को तेलंगाना के संगारेड्डी की एक चुनावी रैली में भी उन्होंने कहा कि ‘आर्टिकल 370’ फिल्म लोकप्रिय हो रही है. यह पहली बार है कि लोग इस तरह की फिल्मों की बदौलत ऐसे मुद्दों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. तेलंगाना की रैली में नरेंद्र मोदी के ‘आर्टिकल 370’ की तारीफ के बाद पूरा भगवा गैंग ‘आर्टिकल 370’ के प्रमोशन के लिए पिल पड़ा. रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी इस के प्रमोशन में दो बोल कहे तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इसे टैक्सफ्री करते अपनी कैबिनट के साथियों के साथ इसे देखा और आम जनता से भी इसे देखने की अपील की.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु साय ने भी फिल्म को टैक्सफ्री कर दिया. टैक्सफ्री होने से यह लगभग मुफ्त के भाव पड़ी. लिहाजा, ठीकठाक पैसा कमा ले गई जिसे अप्रत्यक्ष राजाश्रय कहा जा सकता है. अच्छा तो यह रहा कि किसी ने यह नहीं कहा कि आओ ‘आर्टिकल 370’ देखो और इंटरवल में समोसा, पौपकौर्न, कौफी और कोल्डड्रिंक्स मुफ्त में खाओपियो.

फिल्मों का भगवाकरण

पिछले कुछ सालों से कट्टरपंथी फिल्मों के नाम के आगे फाइल और स्टोरी शब्द जोड़ने का भी अजीबोगरीब रिवाज शुरू हुआ है, मसलन ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरला स्टोरी’ और ‘बस्तर : द अनटोल्ड स्टोरी’. इन फाइल्स और स्टोरी में हिंदुत्व और मोदी सरकार का जम कर बखान होता है. इन्हें देख कर लगता ऐसा है कि हिंदू जैसी दीनहीन, शोषित और कायर जाति दुनिया में कोई और है ही नहीं और हिंदू इतना कमजोर व बेवकूफ है कि छोटेमोटे गुंडों से ले कर संगठित गिरोहों के आगे घुटनों के बल आते शीश ?ाका देता है, कि आओ भाइयो, अत्याचार करो, हिंसाबलात्कार और लूटपाट और जो भी बन पड़े, करो ताकि हमारी सरकार बनी रहे.

इन ‘फाइलों’ का असल मकसद दूसरे धर्मों, खासतौर से इसलाम, को बदनाम करना रहता है. कहने का यह मतलब नहीं कि मुसलमान या दूसरे कोई दूध के धुले होंगे लेकिन तथ्यों, जो होते ही तथाकथित हैं, को इतना तोड़मरोड़ कर इस तरह की फिल्मों में पेश किया जाता है कि देखने वाला पूरी मुसलिम कौम, समुदाय या धर्म से ही नफरत करने लगता है. धर्म से नफरत हर्ज की बात नहीं क्योंकि सभी धर्म एकजैसे हैं जो अपने भक्त लोगों से पैसा ऐंठते रहने के लिए उन्हें पिछड़ा, अंधविश्वासी और अक्ल से पैदल बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

धार्मिक नफरत का वैचारिक फिल्मीकरण कोई सार्थक मैसेज नहीं देता बल्कि लोगों में नफरत फैलाता है. विवेक अग्निहोत्री की ‘कश्मीर फाइल्स’ के एक दृश्य में हिंदूवादी नारा लगाते दिखाए गए हैं कि गद्दारों को गोली मारो. ऐसे दृश्यों को इतनी चालाकी से दिखाया जाता है कि आम दर्शक आतंकवादियों और मुसलमानों में कोई फर्क नहीं कर पाता और फिर राह चलता मुसलमान उसे राक्षस लगने लगता है. गद्दारों के माथे पर कोई निशान थोड़े ही होता है.

मार्च 2022 में प्रदर्शित ?ाठ का पुलिंदा यह फिल्म किसी चुनावी हथकंडे से कम नहीं थी. पिछले 3 सालों से ऐसी फिल्में योजनाबद्ध तरीके से एक नियमित अंतराल में प्रदर्शित की जा रहीं हैं जिन का मकसद माहौल को बनाए रखना होता है. जम्मूकश्मीर से पंडितों के पलायन का पूरा सच क्या है, यह कोई नहीं बता सकता लेकिन ‘कश्मीर फाइल्स’ का सच काल्पनिक था, यह हरकोई जानता है. उसे सच के रूप में प्रचारित किया गया तो देश में जगहजगह सांप्रदायिक माहौल बिगड़ा. मध्य प्रदेश के 2022 के खरगौन दंगों का तो जिम्मेदार ही इस फिल्म को माना गया था. 1947 से पहले अंगरा राजाओं के जमाने में अल्पसंख्यक वहां के बहुसंख्यकों के साथ काम कर रहे थे, यह इतिहास अब कोई नहीं बताता.

‘केरल स्टोरी’ को भी एक खास मकसद से ही बनाया गया था कि कैसे गैरमुसलिम लड़कियां आईएसआईएस की गिरफ्त में फंसाई जाती हैं. इस फिल्म पर भी मुकम्मल बवाल हुआ था और मेकर्स ने बाद में यह स्वीकार लिया था कि 32 हजार लड़कियों का धर्म परिवर्तन हुआ, यह गलत है, बल्कि फिल्म में 3 लड़कियों की कहानी है. फिर भी रिलीज के बाद देशभर के लोगों ने मान लिया कि औरतों को जबरन मुसलमान बना कर उन्हें कट्टरपंथी भी बना दिया जाता है. लव जिहाद पर विवाद और फसाद खासतौर से सोशल मीडिया पर आएदिन होते रहते हैं जिन पर कहा जाता है कि भोलीभाली हिंदू लड़कियों को मुसलिम लड़के नाम और पहचान बदल कर अपने जाल में फंसाने के साथ उन का शारीरिक शोषण करते हैं.

प्रचार में इस्तेमाल

भाजपा को ऐसे मुद्दों से चुनावी फायदा यह होता है कि हिंदू डर कर उसे वोट देते हैं. उन का ध्यान फिर खुद से जुड़े मुद्दों, जैसे महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार वगैरह पर नहीं जाता. दूसरा फायदा जो आसानी से किसी को दिखता नहीं, वह यह है कि चंद उदाहरणों की आड़ में युवतियों पर तरहतरह के प्रतिबंध पेरैंट्स लगाने लगते हैं कि यह मत करो वह मत करो, यह मत पहनो वह मत पहनो, घर में रहो आदि. यह पारिवारिक आचार संहिता दरअसल धर्म द्वारा निर्मित और निर्देशित है कि औरतों को कैसे मर्दों की सरपरस्ती में रहना चाहिए जो ‘केरल स्टोरी’ जैसी फिल्मों से लड़कियों की आजादी छीनने में बतौर हथियार इस्तेमाल की जाती हैं और प्रसंगवश हिंदू लड़कों को शह देती है कि वे पत्नी को पांव की जूती सम?ाने में कोई संकोच न करें क्योंकि पुरुष होने के नाते वह स्त्री को विधर्मियों से बचाता है. यह नेक काम फिर हिंदूवादी संगठनों के गुर्गे वैलेंटाइन डे जैसे मौकों पर सार्वजनिक रूप से करते नजर आते हैं. चुनाव के दिनों में सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों के जरिए हिंदुत्व का प्रचार बहुत आम है.

यह ट्रैंड भी है कि इन एजेंडाधारी फिल्मों के आगे निर्देशक जानबू?ा कर ‘अनटोल्ड स्टोरी’ या ‘फाइल’ जोड़ देता है ताकि दर्शकों को यह छिपा रहस्य जैसा लगे. सुदीप्तो सेन ने ‘केरल स्टोरी’ के बाद एक और फिल्म ‘बस्तर : द अनटोल्ड स्टोरी’ बना डाली जो कहने को नक्सलवाद पर आधारित थी लेकिन उस में बताया यह गया है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नक्सली हिंसा थमी है और बस्तर में धड़ाधड़ विकास हो रहा है.

जाहिर है, कुछ निर्मातानिर्देशकों ने जैसे नरेंद्र मोदी की इमेज चमकाने का ठेका ले रखा है जिस के एवज में उन्हें कोई न कोई तो आश्रय मिलता ही होगा. अच्छा तो अभी तक यह है कि उन्होंने या किसी और ने नोटबंदी के फायदे गिनाती फिल्म नहीं बना डाली. कोई आश्चर्य नहीं कि ‘ब्रिलियंट स्टोरी औफ नोटबंदी’ नामक फिल्म बना डाली जाए जिस में लाइनों में लगे हिंदू देश के लिए श्रमदान करते हुए कहे जाएं.

इन फिल्मों का असर अभी खत्म नहीं हुआ था कि चुनावों के मद्देनजर ऐसी ही कुछ और फिल्में हाल ही में प्रदर्शित हुई हैं और कुछ जल्द ही होने वाली हैं. 19 जनवरी को प्रदर्शित हुई रवि जाधव द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैं अटल हूं’ अटल बिहारी वाजपेयी की बायोपिक के सिवा कुछ नहीं है लेकिन इस में कोशिश यह की गई है कि कारगिल युद्ध और पोखरन परमाणु परीक्षण जैसे प्रसंग दिखा कर पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा नेता अटल बिहारी के नाम पर माहौल बनाया जा सके. यह और बात है कि वह माहौल बना नहीं और फिल्म लागत भी नहीं निकाल पाई. बेहतर ऐक्ंिटग के लिए पहचाने जाने वाले पंकज त्रिपाठी अटल बिहारी वाजपेयी के रोल में तनिक भी नहीं जंचे और न जाने क्यों किसी भाजपा नेता ने किसी पब्लिक मीटिंग या रैली में अपने पितृपुरुष की जिंदगी पर बनी इस फिल्म का जिक्र तक नहीं किया.

फसाद व विवाद

22 मार्च को रिलीज हुई ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ का हश्र तो इतना बुरा हुआ कि फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता रणदीप हुड्डा की जायदाद तक बिक गई. सावरकर भगवा गैंग के आदर्श हैं जिन्हें ले कर, खासतौर से महाराष्ट्र में, आएदिन विवाद होना आम बात है. फिल्म बनाने की मंशा अगर पाकसाफ होती तो रणदीप हुड्डा की प्रौपर्टी बिकने से बच सकती थी लेकिन कांग्रेस को जलील करने के चक्कर में वे गच्चा खा गए. ‘कालापानी के लिए किसी कांग्रेसी को सजा क्यों नहीं हुई’ जैसा सवाल उठाना एक बेतुकी और गैरजरूरी बात थी. महात्मा गांधी की अहिंसा को कठघरे में खड़ा करना भी उन्हें महंगा पड़ गया.

एक फिल्म जो भारी फसाद और विवाद पैदा कर सकती है वह है ‘जहांगीर नैशनल यूनिवर्सिटी’ जिस में जेएनयू की कथित देशविरोधी गतिविधियों को उजागर करने की बात निर्देशक विनय शर्मा कह रहे हैं. यह फिल्म 5 अप्रैल को रिलीज होनी थी लेकिन किन्हीं वजहों के चलते नहीं हो पाई. उम्मीद है कि यह वोटिंग के किसी भी एक खास चरण के दौरान रिलीज हो सकती है. फिल्म कैसी होगी, इस का अंदाजा उस के पोस्टर से ही लगाया जा सकता है जो भगवा रंग का है. भगवा रंग के नक्शे पर फिल्म की टैगलाइन है- ‘क्या एक एजुकेशनल यूनिवर्सिटी देश को तोड़ सकती है.’

फिल्म में उर्वशी रौतेला, पीयूष मिश्रा, सिद्धार्थ बोडके, रश्मि देसाई, विजय राज और अतुल पांडेय सहित भाजपा सांसद रहे अभिनेता रवि किशन जैसे कलाकारों की भीड़ है. फिल्म कैसी होगी और इस के प्रदर्शन पर कैसेकैसे हंगामे होंगे, इस का अंदाजा जानेमाने लेखक इरफान हबीब के इस ट्वीट से लगाया जा सकता है कि जेएनयू को ले कर एक सनक रही है. ऐसा सिर्फ इसलिए कि यह संस्थान सोचने की आजादी देता है और विचारों व संस्कृतियों का सच्चा मेल यहां होता था. यही एक वजह है कि इस प्रमुख संस्थान को हर दिन निशाना बनाया जा रहा है और इसे कमजोर किया जा रहा है.

फिल्म कितनी भड़काऊ और उत्तेजक होगी, इस का अंदाजा उस के ट्रेलर से लग जाता है जिस में भारत तेरे टुकड़े होंगे… और जय श्रीराम के नारे छात्रों द्वारा लगाए जा रहे हैं.  निर्देशक की मंशा जेएनयू को बदनाम कर भगवा गैंग को चुनावी फायदा पहुंचाने की है बशर्ते अगर यह वक्त पर रिलीज हो पाई तो. जेएनयू के छात्र अपने संस्थान के बारे में गलतबयानी और गलत दिखाना बरदाश्त कर पाएंगे, ऐसा लगता नहीं.

मंडी से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहीं अभिनेत्री कंगना रनौत निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘इमरजैंसी’ भी रिलीज के लिए अटकी हुई है जिस में उन्होंने इंदिरा गांधी का किरदार निभाया है. यह फिल्म काफी सुर्खियां बटोर चुकी है इसलिए नहीं कि इस में कंगना हुबहू इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं बल्कि इसलिए कि इंदिरा गांधी आज भी प्रासंगिक हैं और भगवा गैंग जबतब इंदिरा गांधी व इमरजैंसी पर हायहाय करता रहता है. उस के लिए यह वोटकमाऊ मुद्दा शुरू से ही रहा है. कट्टर हिंदूवादी, बड़बोली कंगना से यह उम्मीद करना बेकार की बात है कि इस में उन्होंने इंदिरा गांधी के किरदार से न्याय किया होगा. उन का मकसद तो जैसे भी हो नरेंद्र मोदी को खुश करना रहता है जो ‘इमरजैंसी’ में भी दिखना तय है.

हिंदूवादी और मोदीवादी फिल्मों को तो सैंसर बोर्ड तुरंत रिलीज कर देता है लेकिन उस ने ‘द साबरमती रिपोर्ट’ को लटका कर रखा है. एकता कपूर द्वारा निर्मित और रंजन चांदेल द्वारा निर्देशित इस फिल्म को 3 मई को प्रदर्शित होना था लेकिन सैंसर बोर्ड ने कुछ दृश्यों पर एतराज जताते प्रदर्शन पर रोक लगा दी है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक गोधरा कांड के बाद हुए दंगों पर बनी इस फिल्म में कुछ दृश्य ऐसे हैं जिन से एक वर्ग विशेष की भावनाएं आहत हो सकती हैं और आदर्श आचार संहिता भी कहीं न कहीं आड़े आ रही है. मुमकिन है इस फिल्म में एकता कपूर ने नरेंद्र मोदी का महिमामंडन न किया हो और राजधर्म निभाने न निभाने पर जोर दे दिया हो. अब वह वर्ग विशेष जिस की भावनाएं भड़कने का डर था वह हिंदू है या मुसलमान, इस का पता तो फिल्म के रिलीज होने के बाद ही चलेगा जिस में लीड रोल में ‘12वीं फेल’ से चर्चित हुए ऐक्टर विक्रांत मैसी हैं.

फिल्म के जरिए हिंदुत्व का विस्तार

फिल्मों के जरिए हिंदुत्व का विस्तार केवल बौलीवुड से आ रही हिंदी फिल्मों तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि यह दक्षिण में भी पैर पसार रहा है जिस के अधिकतर कर्ताधर्ता हिंदूवादी ही हैं. आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव हैं जहां भगवा गैंग कुछ हाथ न लगते बौखलाया हुआ है. 15 मार्च को तेलुगू में एक हाहाकारी फिल्म रिलीज हुई ‘रजाकार – द साइलैंट जिनोसाइड औफ हैदराबाद’ जिस के निर्माता गुडडू नारायण रेड्डी हैं. खास बात यह कि वे 3 साल पहले तक कांग्रेसी थे लेकिन अब भाजपाई नेता हैं. ‘रजाकार…’ फिल्म हैदराबाद के ऐतिहासिक हिंदू नरसंहार पर आधारित है. रजाकार निजाम की सेना को कहा जाता था जो आम जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाती थी, उस में 2 लाख तक सैनिक हुआ करते थे.

‘केरल स्टोरी’ और ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह यह फिल्म भी तथ्यों को ले कर शक के दायरे में है. आजादी के बाद निजाम हैदराबाद मीर उस्मान अली खान ने अपनी रियासत के विलय से इनकार कर दिया था, नतीजतन तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने जबरन रियासत का विलय भारत में करवाया था.

इस के बाद काफीकुछ गड्डमड्ड है कि हिंदूमुसलिम दंगे कितने हुए और जनता व रजाकारों की लड़ाई में कितनी निर्ममता और नृशंसतापूर्वक लोगों का कत्लेआम किया गया पर ये लोग सिर्फ हिंदू ही थे और रजाकारों में सिर्फ मुसलमान ही थे, इस पर इतिहास विरोधाभासी है. रजाकार के रिलीज के बाद मुसलिम नेताओं ने इस की आलोचना की और इसे भाजपा व आरएसएस का एजेंडा बताया तो गर्मागर्मी बढ़ी भी थी. लेकिन इस फिल्म के टीजर और पोस्टर लौंच होने जैसे मौकों पर कंगना रनौत सहित बंदी संजय कुमार, जीतेंद्र रेड्डी और सी विद्यासागर जैसे छोटेबड़े भाजपा नेताओं का मौजूद होना व जय श्रीराम के नारे लगाना इलैक्शन ऐक्शन ही था.

फिल्मों के जरिए अपने पक्ष में माहौल बनाना कोई नई या हैरानी की बात नहीं है लेकिन मोदीकाल में, उन के मुताबिक, फिल्मों की तादाद बढ़ी है और उन की मंशा भी जानबू?ा कर नहीं छिपाई जाती. यह अघोषित इमरजैंसी है जो कला और कलाकारों दोनों का नुकसान कर रही है पर सब से बड़ा नुकसान दर्शकों का हो रहा है जिन से किसी को कोई सरोकार नहीं. दर्शक भी इन फिल्मों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रहे क्योंकि ये हिंदुत्व की डौक्यूमैंट्री ज्यादा है. वरना तो राजनीति पर बनी फिल्मों की एक लंबी फेरहिस्त है जिन्होंने बौक्सऔफिस पर तो रिकौर्ड बनाए ही, साथ ही, दर्शकों को राजनीति के दावपेंचों से रूबरू भी कराया.

‘आज का एमएलए’, ‘इंदु सरकार’, ‘किस्सा कुरसी का’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’, ‘राम अवतार’, ‘राजनीति इन्कलाब सरकार इन्कलाब’, ‘आरक्षण’, ‘नायक’ जैसी सैकड़ों फिल्में मिसाल हैं जिन में कोई धार्मिक या वैचारिक पूर्वाग्रह नहीं था बल्कि ये फिल्में सार्वजनिक समस्याओं से कनैक्ट थीं. इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘आंधी’ में एक अलग फ्लेवर था जो एक ऐसी नेत्री की कहानी थी जो अपने पति और परिवार से तालमेल नहीं बैठा पाती. लेकिन अब इफरात से हो यह रहा है कि फिल्मकारों को हर तरह का आश्रय सरकारें दे रही हैं जिस से वे मुद्दे की यानी आम जनता की बात न करें. फिल्मों से जुड़ी एजेंसियों और संस्थानों के भगवाकरण का सिलसिला भी नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही शुरू कर दिया था. बिलाशक, ऐसा पहले भी होता था लेकिन एक दायरे के अंदर होता था.

जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट सरकारें थीं तब नाट्य संस्था ‘इप्टा’ के जलवे थे. अब इस संस्था का कोई नाम ही नहीं लेता. इतना ही नहीं, कम्यूनिस्ट सरकार के वक्त श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुंदन शाह, सईद मिर्जा जैसे फिल्मकारों को वहां की सरकार के अलावा पश्चिम बंगाल के बड़ेबड़े उद्योगपति फिल्में बनाने के लिए पैसा दिया करते थे जोकि अब बंद हो गया और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने फिल्में बनाना बंद कर दीं.

मजेदार बात यह है कि आज भी सब से अधिक सब्सिडी पश्चिम बंगाल सरकार ही दे रही है. श्याम बेनेगल व गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार किस तरह की फिल्में बना रहे थे, वह किसी से छिपा नहीं है. मगर उन की फिल्में दर्शकों को पसंद आ रही थीं क्योंकि वे फिल्म बनाते समय दर्शकों की पसंद का भी खयाल रखते थे. कहीं से धन मिल गया, इसलिए स्तरहीन फिल्में बनाना इन का मकसद कभी नहीं रहा. लेकिन वर्तमान समय में स्थितियां बदल गई हैं. अब सिनेमा या समाज के प्रति समर्पित फिल्मकार नहीं हैं. इन दिनों तो हर फिल्मकार येनकेनप्रकारेण अपनी जेब भरने की फिराक में लगा हुआ है. परिणामतया वह ऐसा सिनेमा बना रहा है जिसे दर्शक सिरे से नकार रहा है और सिनेमा खत्म होता जा रहा है पर इस की चिंता न सरकार को है और न ही फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को.

फिल्मों पर सरकारी छूट

भारत देश में सब से पहले महाराष्ट्र सरकार ने मराठीभाषी फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी देना शुरू किया था. उस वक्त हर मराठी फिल्म को 25 लाख रुपए का अनुदान मिल रहा था. देखते ही देखते ढेर सारी मराठी फिल्में बनने लगीं और बहुत जल्द लोगों ने कहना शुरू किया कि मराठी सिनेमा का पतन शुरू हो गया. उस वक्त फिल्म निर्माता की सोच सिर्फ इतनी होती थी कि कम से कम बजट में फिल्म बना कर सरकार से 25 लाख रुपए का अनुदान ले कर कुछ रकम अपनी जेब में डाल ली जाए. यानी, यह एक अलग तरह का व्यवसाय शुरू हो गया था. स्तरहीन मराठी फिल्में बनने लगी थीं जिस का विरोध मराठी फिल्म इंडस्ट्री के अंदर ही पनपा था. तब 2014 में महाराष्ट्र सरकार की नई फिल्म पौलिसी आई और सब्सिडी का पैमाना तय किया गया जिस से मराठी सिनेमा को फायदा हुआ.

फिलहाल महाराष्ट्र सरकार मराठी भाषा की फिल्मों को अलगअलग कैटेगरी के अनुसार 30 व 40 लाख रुपए की सब्सिडी, फिल्मसिटी स्टूडियो में शूटिंग करने पर 50 प्रतिशत छूट, इंटरटेनमैंट टैक्स में पूरी राहत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर डेढ़ लाख रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में दे रही है. इतना ही नहीं, 2023 में महाराष्ट्र सरकार पुरस्कृत फिल्मों को एक करोड़ रुपए तक सब्सिडी देने का प्रस्ताव ले कर आई थी, यह लागू हुआ या नहीं, पता नहीं. मगर मार्च माह में ‘इम्पा’ के साथ बातचीत में महाराष्ट्र सरकार ने सभी सरकारी इमारतों या प्रतिष्ठानों में शूटिंग के लिए कोई शुल्क न लेने की घोषणा की है. हर फिल्मकार इसे बहुत बड़ी राहत के तौर पर देखता है.

एक वक्त वह था जब गुजरात में गुजराती फिल्मों का जलवा था. बेहतरीन से बेहतरीन फिल्में बन रही थीं पर अचानक वहां की सरकार ने 5 लाख रुपए सब्सिडी देनी शुरू की थी, तब वहां भी सब्सिडी का ऐसा व्यापार शुरू हुआ कि वहां का गुजराती सिनेमा तबाह हो गया. पिछले कुछ वर्षों से गुजरात सरकार की फिल्म नीति में बदलाव आया और तब से अच्छी गुजराती फिल्में बनने लगी हैं.

सब्सिडी के लिए फिल्म निर्माण

मशहूर अभिनेता, निर्माता व निर्देशक तथा गुजरात सरकार की फिल्म नीति की कमेटी का हिस्सा रहे दीपक अंतानी से जब हम ने कहा कि राज्य सरकारों की ‘फिल्म सब्सिडी’ की नीति से सिनेमा, खासकर क्षेत्रीय सिनेमा, को नुकसान हो रहा है, फिल्म निर्माता सब्सिडी के चक्कर में फिल्म की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दे रहे तो दीपक अंतानी ने कहा, ‘‘कुछ हद तक यह सच है लेकिन हर इंडस्ट्री में अंतर रहता ही है. एक अंबानी की फैक्टरी है तो दूसरा आम पावरलूम है. इसी तरह सिनेमा जगत में भी है. कुछ निर्माता एक बड़े बजट के साथ फिल्म बनाते हैं. उन का टारगेट ‘सब्सिडी’ नहीं. कुछ निर्माता ऐसे भी हैं जो केवल सब्सिडी के लिए ही फिल्म बनाते हैं. उन्हें इस बात की चिंता रहती है कि उन की फिल्म रिलीज होगी या नहीं, दर्शक मिलेंगे या नहीं. उन का सारा जुगाड़ सब्सिडी पाने का ही होता है. वे तो जो पैसा जेब से डालते हैं, वह सारा पैसा सब्सिडी व फिल्म के दूसरे राइट्स से पाने की फिराक में ही रहते हैं. ऐसे फिल्मकार फिल्म के प्रचार व डिस्ट्रिब्यूशन पर पैसा खर्च नहीं करते.

‘‘कुछ फिल्मकार औसत दर्जे की फिल्म बनाते हैं. वे अपनी जेब से कुछ रकम डालते हैं. पब्लिसिटी पर भी कुछ खर्च करते हैं. फिल्म की कहानी वगैरह पर भी पैसा खर्च करने में यकीन रखते हैं. ऐसे निर्माता भी सब्सिडी पर निर्भर रहते हैं. फिर भी उन की फिल्म की मेकिंग व फिल्म की कहानी व विषय कुछ अच्छा रहता है. लेकिन इस तरह का सिनेमा ज्यादा लोगों तक पहुंच नहीं पाता. ओटीटी के आने से फिल्मकारों को एक नई दिशा मिल गई है लेकिन कुछ निर्माता व निर्देशक ऐसे भी हैं जोकि नियमित रूप से फिल्में बनाते हैं. उन के लिए सब्सिडी आय का एक हिस्सा मात्र होता है. कमाई के लिए उन की नजर मुख्यतया बौक्सऔफिस से होने वाली आय पर होती है.’’

पिछले 4-5 वर्षों से भाजपाशासित राज्यों की सरकारों के बीच फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने के नाम पर सब्सिडी/अनुदान देने की होड़ सी लगी हुई है. सब से अधिक अनुदान उत्तर प्रदेश की योगी सरकार दे रही है. इस के लिए सरकार ने फिल्म ‘बंधु’ संस्था बना रखी है. कभी इस संस्था के चेयरमैन राजू श्रीवास्तव थे. इस के साथ मशहूर गायिका मालिनी अवस्थी के पति आईएएस औफिसर अवनीश कुमार अवस्थी भी जुड़े हुए थे. 2022 से वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुख्य सलाहकार भी नियुक्त किए गए हैं.

फिल्म बंधु की वैबसाइट पर 80 फिल्मों की सूची दी गई है, जिन्हें वर्ष 2017 में अनुदान दिया गया, इस में रकम का भी जिक्र है कि किस फिल्म को कितनी रकम दी गई. वैबसाइट के अनुसार यह सूची 2017 तक की है. 2017 से 2023 की कोई सूची उपलब्ध नहीं है. इन 80 फिल्मों में से ‘जौली एलएलबी 2 (अक्षय कुमार), ‘मौम’ (बोनी कपूर), ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’ (अक्षय कुमार), ‘रेड’ (निर्माण- टीसीरीज व सलमान खान), ‘बरेली की बर्फी’ (निर्माण- विनीत जैन, टाइम्स ग्रुप), ‘कागज’ (सतीश कौशिक, जो कि हरियाणा सरकार की फिल्म नीति के चेयरमैन भी थे), ‘व्हाई चीट इंडिया’ (निर्माण- टीसीरीज) को छोड़ कर बाकी फिल्मों के लोगों ने नाम भी न सुने होंगे.

दूसरी बात जो बड़ी फिल्में हैं उन के निर्माण से जुड़े लोग अरबपति हैं और परोक्ष या अपरोक्ष रूप से भाजपा से जुड़े हुए हैं. उन फिल्मों में से ‘व्हाई चीट इंडिया’, ‘रेड’, ‘कागज’ ने बौक्सऔफिस पर पानी तक नहीं मांगा था. उत्तर प्रदेश सरकार की संस्था फिल्म बंधु तो पैसा बांटने में माहिर है. यह संस्था फिल्म निर्माता के साथ ही फिल्म से जुड़े कलाकार को भी अलग से लाखों रुपए का अनुदान देती है. एक इंग्लिश अखबार में 5 फरवरी, 2020 को छपी रिपोर्ट के अनुसार योगी सरकार की फिल्म बंधु ने 2020 में 22 फिल्मों, 16 हिंदी और 6 भोजपुरी के बीच 112 करोड़ 40 लाख रुपए बांटे थे. इन में अनुराग कश्यप व रिलायंस की फिल्म ‘सांड़ की आंख’, ‘बहन होगी तेरी’ जैसी फिल्में समाहित हैं.

इस मामले में ओडिशा सरकार भी पीछे नहीं है. नियम बनाया गया है कि जिन फिल्मों में स्क्रीन टाइम का कम से कम 5 प्रतिशत ओडिशा, इस की संस्कृति, विरासत, पर्यटन स्थलों आदि को बढ़ावा देने वाले दृश्य होंगे, उन्हें 1.25 करोड़ रुपए तथा उन फिल्मों को 2.50 करोड़ रुपए तक दिए जाएंगे जिन का स्क्रीन टाइम कम से कम 10 प्रतिशत ओडिशा, इस की संस्कृति, विरासत, पर्यटन स्थलों आदि को बढ़ावा देने वाला हो पर कुछ फिल्मों को 3 करोड़ रुपए भी अनुदान राशि के तहत दिए गए. ओडिशा सरकार की तरफ से कोई सूची उपलब्ध नहीं हो पाई.

2019 में ओडिशा सरकार ने इंग्लिश, हिंदी या अन्य भाषा की फिल्मों के फिल्म निर्माताओं को 2.5 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी प्रदान करने का निर्णय लिया, जो अपनी फिल्मों में ओडिशा और इस की संस्कृति, विरासत व पर्यटन स्थलों को बढ़ावा देंगे. सरकार का दावा है कि फिल्म निर्माताओं को ओडिशा में शूटिंग के लिए प्रोत्साहित करने के लिए यह निर्णय लिया गया.

सब्सिडी का फिल्मों पर असर

फिल्म निर्माता नंदिता दास ने कपिल शर्मा व शहाना गोस्वामी को हीरो ले कर अपनी फिल्म ‘ज्विगाटो’ को 25 दिन में भुवनेश्वर, ओडिशा में फिल्माया था. इसे ओडिशा सरकार ने टैक्सफ्री कर दिया था. इस के अलावा इसे कितनी सब्सिडी मिली, अभी तक पता नहीं चला. सूत्र दावा कर रहे हैं कि नंदिता दास को 3 करोड़ रुपए मिले. मशहूर अभिनेत्री व निर्देशक नंदिता दास ने 2008 में गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म ‘फिराक’ का लेखन व निर्देशन किया था. फिर 10 साल बाद 2018 में उन्होंने दूसरी फिल्म ‘मंटो’ का निर्देशन किया. लेकिन जब वे ओडिशा सरकार से सब्सिडी ले कर बतौर निर्देशक व सहनिर्माता अपनी तीसरी फिल्म ‘ज्विगाटो’ ले कर आईं तो यह फिल्म कहीं से भी नंदिता दास की फिल्म नहीं लगी.

इस फिल्म से नंदिता दास ने भी साबित कर दिया कि जब कलाकार, सरकार या सरकारी धन के लिए काम करता है तो वह अपनी कला के साथ केवल अन्याय ही करता है. नंदिता दास ने इस फिल्म को ओडिशा राज्य की फिल्म पौलिसी को ध्यान में रख कर फिल्माते हुए ओडिशा सरकार से सब्सिडी के रूप में एक मोटी रकम ऐंठी. मगर इस प्रयास में उन्होंने फिल्म की विषयवस्तु का सत्यानाश कर डाला. मगर एक तबका जरूर खुश होगा कि नंदिता दास ने भुवनेश्वर के मंदिरों के दर्शन करा दिए. परिणामतया बेरोजगारी, सामाजिक असमानता और राजनीतिक अंत:दृष्टि को ठीक से चित्रित करने के बजाय उन्होंने एक उपदेशात्मक व अतिनीरस फिल्म बना डाली. कम से कम नंदिता दास से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती थी.

जब सरकारी सहायता की दरकार हो तो फिल्मकार किस तरह डर कर काम करता है, उस का आईना नंदिता दास की फिल्म ‘ज्विगाटो’ है. नंदिता दास ने कुछ दृश्यों में सूक्ष्मता से धन व वर्ग विभाजन की तसवीर पेश की है पर खुल कर नहीं. लगता है कि वे इसे पेश करते हुए डरती नजर आती हैं.

हरियाणा सरकार ने भी सिनेमा को बढ़ावा देने की दिशा में एक कदम उठाते हुए हरियाणा और इस की संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली 4 फिल्मों- अभिनेता व निर्देशक यशपाल शर्मा की ‘दादा लखमी’, ‘1600 मीटर’, ‘छलांग’ और ‘तेरा क्या होगा लवली’-  को हरियाणा फिल्म और मनोरंजन नीति 2022 के तहत ‘सब्सिडी’ दी. इन्हें 50 लाख से ले कर 2 करोड़ रुपए तक दिए गए, यह स्पष्ट नहीं कि किस फिल्म को कितनी राशि दी गई. फिलहाल इस की चेयरपर्सन अभिनेत्री मीता वशिष्ठ हैं. ‘दादा लखमी’ को कुछ इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में पुरस्कृत किया जा चुका है. बाकी 3 फिल्में कहां रिलीज हुईं, पता नहीं.

क्रिएटिविटी पड़ती कमजोर

इतना ही नहीं, सब्सिडी के बल पर भाजपा समर्थक फिल्मकार आकाश आदित्य लामा अब तक नागालैंड के लिए ‘रानी की मोरनी’, ‘तौबा तेरा जलवा’ व 29 मार्च को प्रदर्शित फिल्म ‘बंगाल 1947’ बना चुके हैं. पहली फिल्म ‘रानी तेरी मोरनी’ में चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी यानी कि केंद्र सरकार का पैसा लगा था. इसे तब स्वीकृति मिली थी जब चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के चेयरमैन मुकेश खन्ना थे. यह फिल्म आज तक दर्शकों तक नहीं पहुंची.

29 मार्च को प्रदर्शित फिल्म ‘बंगाल 1947’ एक बेहतरीन प्रेमकहानी वाली फिल्म है. इस में 1947 की पृष्ठभूमि में एक उच्च कुलीन राजा के लंदन में उच्च शिक्षा हासिल कर चुके पोते मोहन और एक डोम जाति की लड़की शबरी की खूबसूरत प्रेमकहानी है. मगर भाजपा की नीति के अनुसार फिल्म में जो कुछ पिरोया गया है उस के चलते फिल्म बरबाद हो गई. इस फिल्म ने बौक्सऔफिस पर पानी नहीं मांगा.

भारत ही नहीं, सब्सिडी का यह गड़बड़?ाला पूरे विश्व में है. विश्व के कई देश अपने देश के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उन भारतीय फिल्मों को काफी नकद अनुदान के अलावा कई दूसरी सुविधाएं भी दे रहे हैं जिन हिंदी फिल्मों में वहां के पर्यटन स्थल, वहां की सड़कों व अन्य चीजों को चित्रित किया जाता है. विदशों से अनुदान बटोरने में फरहान अख्तर और शाहरुख खान सब से आगे हैं.

फरहान अख्तर ने 2011 में फिल्म ‘डौन 2’ को जरमनी में फिल्मा कर जरमनी सरकार से 25 करोड़ रुपए का अनुदान पाया था. वहीं शाहरुख खान की फिल्म ‘रा वन’ को 30 करोड़ रुपए का अनुदान मिला था. जबकि ‘देसी बौयज’ जैसी ऐक्शनप्रधान फिल्म को यूके सरकार ने 5 करोड़ रुपए दिए थे. इस तरह विदेशों से अनुदान पाने वाली हिंदी फिल्मों की लंबी सूची है. अनुदानप्राप्त ‘रा वन’ और ‘देसी बौयज’ ने बौक्सऔफिस पर पानी तक नहीं मांगा था. इस से किस का कितना नुकसान हुआ, अंदाज लगाया जा सकता है. क्या इस से सिनेमा का विकास हुआ, यह सवाल है.

सब्सिडी की कमजोर कड़ी

यों तो हर राज्य सरकार की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडी में भ्रष्टाचार की कहानियां आएदिन सुनाई पड़ती रहती हैं जिन के सुबूत नहीं हैं. हर राज्य में ‘अंधा बांटे रेवडि़यां अपनोंअपनों को दे’ का ही नियम लागू है. कुछ वर्षों पहले एक भोजपुरी कलाकार ने फिल्म बंधु’ पर आरोप लगाते हुए फेसबुक पर कुछ लिखा था, मगर 2 दिनों बाद ही उस कलाकार ने अपना फेसबुक पेज ही डिलीट कर दिया. अब वह कलाकार कहां है, किसी को पता नहीं.

हर सरकार की फिल्म अनुदान नीति की कमजोर कड़ी यह नियम है कि फिल्म को सब्सिडी तभी मिलेगी जब वह फिल्म रिलीज होगी. इस नियम का पालन करने के लिए ज्यादातर फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को किसी भी सिनेमाघर में एक शो रिलीज कर देते हैं और वहां पर अपने दोस्तों, सगेसंबंधियों को बुला कर फिल्म दिखा कर उस का वीडियो बना लेते हैं. इस के अलावा फिल्म कहीं रिलीज नहीं होती. हर सरकार की फिल्म सब्सिडी की कमेटी में ज्यादातर ब्यूरोक्रेट्स ही बैठे हुए हैं जिन्हें सिनेमा की सम?ा नहीं है, फिल्म की कहानी व पटकथा की सम?ा नहीं है.

ये सभी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर फौर्म में कुछ जानकारी मांगते हैं और उसी आधार पर निर्णय लिया जाता है. क्या फिल्म सब्सिडी कमेटी से जुड़े लोग सब्सिडी देने से पहले फिल्म देखते हैं, इस का जवाब नहीं में ही मिलेगा. यदि ऐसा होता तो हिंसा व सैक्स से भरपूर फिल्म ‘रेड’ को सब्सिडी न दी गई होती.

इसी के साथ यह बात साफतौर पर सामने आती है कि जब फिल्मकार सब्सिडी पाने के लिए फिल्म बनाता है तब वह फिल्म की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देता, जिस के चलते फिल्में बौक्सऔफिस पर धड़ल्ले से पिटती जा रही हैं. फिल्म उद्योग से जुड़े लोग मानते हैं कि सरकार द्वारा नकद सब्सिडी देने के बजाय अन्य मदों में छूट देनी चाहिए. शूटिंग लोकेशन के किराए में कटौती की जानी चाहिए और ये सारी रियायतें हर फिल्मकार को मिले, किसी एक फिल्मकार को नहीं.

कौन सा राज्य कितनी सब्सिडी दे रहा

महाराष्ट्र : मराठी भाषा की फिल्मों को 30 व 40 लाख रुपए की सब्सिडी, फिल्म सिटी स्टूडियो में शूटिंग करने पर 50 प्रतिशत छूट, इंटरटेनमैंट टैक्स में पूरी राहत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर डेढ़ लाख रुपए प्रोत्साहन राशि. महाराष्ट् में सरकारी इमारतों या प्रतिष्ठानों में शूटिंग के लिए कोई शुल्क नहीं. इतना ही नहीं, अब महाराष्ट्र सरकार पुरस्कृत फिल्मों को एक करोड़ रुपए तक सब्सिडी देने का प्रस्ताव ले कर आई है.

गोवा : फिल्म की लागत का 50 प्रतिशत, ज्यादा से ज्यादा 20 लाख रुपए.

गुजरात : सिर्फ गुजराती फिल्मों को 5 लाख से 50 लाख रुपए तक की सब्सिडी, फिल्मों को 5 कैटेगरीज में बांटा गया है. बाल फिल्मों को 25 प्रतिशत अलग से, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कार जीतने पर 2 से 5 करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि. रजत कमल जीतने वाली फिल्म को एक करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि, मनोरंजन कर में 100 प्रतिशत की छूट.

आंध्र प्रदेश : तेलुगू भाषा की बाल फिल्मों को लगभग 40 लाख रुपए, अलगअलग मुकाम पर, अन्य तेलुगू फिल्मों को बजट का 15 प्रतिशत.

कर्नाटक : मनोरंजन कर में कन्नड़ फिल्मों को पूरी छूट तथा पुरस्कृत फिल्मों को 5 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि. एक 14-सदस्यीय कमेटी नई फिल्म नीति बनाने पर काम कर रही है.

मध्य प्रदेश : फीचर फिल्म के लिए 2 करोड़ रुपए, वैब सीरीज व टीवी सीरियल एक करोड़ रुपए, डौक्यूमैंट्री 40 लाख रुपए और अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों को 10 करोड़ रुपए.

हरियाणा : हरियाणवी फिल्मों को 2 करोड़ रुपए तक.

ओडिशा : यदि फिल्म की लंबाई का 5 प्रतिशत ओडिशा का कल्चर या पर्यटन नजर आएगा तो सवा करोड़ रुपए, 10 प्रतिशत ओडिशा का कल्चर व पर्यटन नजर आएगा तो ढाई करोड़ रुपए और कुछ फिल्मों को 3 करोड़ रुपए.

हिमाचल प्रदेश : मनोरंजन कर में पूरी छूट, हिमाचल प्रदेश में किसी भी भाषा की फिल्म के फिल्माए जाने पर फिल्म में 26 मिनट हिमाचल फोक को दिया गया तो 10 लाख रुपए.

तमिलनाड़ु : तमिल फिल्मों को मनोरंजन कर में 100 प्रतिशत छूट तथा 7 लाख रुपए का अनुदान.

केरल : मलयालम फिल्मों को 37 हजार से एक लाख 88 हजार रुपए तक की सब्सिडी, राज्य पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों को एक से 6 लाख रुपए तक प्रोत्साहन राशि, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर 2 लाख रुपए की सब्सिडी.

उत्तर प्रदेश : कई स्तर पर एक करोड़ से 5 करोड़ रुपए तथा फिल्म के बजट का 25 से 75 प्रतिशत तक, ओटीटी फिल्मों को एक करोड़ रुपए या लागत का 50 प्रतिशत. 2023 की नीति के अनुसार अवधी, ब्रज, बुंदेली या भोजपुरी में फिल्में बनाने पर लागत का 50 प्रतिशत सब्सिडी देने का प्रावधान है. इंग्लिश, हिंदी या अन्य भाषाओं में बनी फिल्मों के लिए सब्सिडी फिल्म निर्माण की लागत का 25 प्रतिशत होगी. राज्य में स्टूडियो या लैब सहित अन्य स्थापना के लिए 25 प्रतिशत या अधिकतम 50 लाख रुपए की सब्सिडी दी जाएगी. यदि पूर्वांचल, विंध्याचल और बुंदेलखंड में स्टूडियो खोले जाते हैं तो राशि 35 प्रतिशत या अधिकतम 50 लाख रुपए होगी.

राज्य में आधे से अधिक शूटिंग दिवस वाली फिल्मों के लिए सब्सिडी की राशि अधिकतम 1 करोड़ रुपए होगी.

उत्तर प्रदेश में इंटरनैशनल फिल्म सिटी बनाने के लिए स्वीडन से 10 हजार करोड़ रुपए आएंगे.

उत्तराखंड व दिल्ली : 22 भाषाओं की फिल्मों को 3 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी.

?ारखंड : ?ारखंड की स्थानीय भाषा में बनी फिल्म को बजट का 50 प्रतिशत, अन्य भाषाओं की फिल्मों को बजट का 25 प्रतिशत.

बिहार : बिहार में बिहार के आधे तकनीशियन को ले कर 75 प्रतिशत फिल्माई गई भोजपुरी फिल्म को बजट का 25 प्रतिशत, ज्यादा से ज्यादा एक करोड़ रुपए.

बिहार में 50 प्रतिशत तक फिल्माई गई हिंदी फिल्म के बजट का 25 प्रतिशत या 2 करोड़ रुपए में से जो कम होगा. अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिलने पर 10 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि.

पश्चिम बंगाल : बंगाली, संथाली और नेपाली भाषा की फिल्मों को बजट का 10 से 98 प्रतिशत.

राजस्थान : राजस्थान में 75 प्रतिशत फिल्माई गई फिल्म को मनोरंजन कर मुक्त, 5 लाख रुपए की सब्सिडी.

पंजाब : मोहाली के पास सरकार के स्टूडियो में फिल्माई गई फिल्म को 50 हजार रुपए.

विदेशी अनुदान : इंगलैंड, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जरमनी, इटली, न्यूजीलैंड, पोलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, चाइना और कोरिया देश भी अपने यहां शूटिंग करने पर हर भारतीय फिल्म को सब्सिडी दे रहे हैं.

इस के अलावा विश्व के 50 देश ऐसे हैं जहां के फिल्म कौर्पोरेशन या फिल्म कंपनियां भी भारतीय फिल्मों को अपने साथ मिल कर फिल्म बनाने पर आर्थिक मदद करती हैं. मसलन, आबूधाबी फिल्म कमीशन की तरफ से भारतीय फिल्म निर्माता को 30 प्रतिशत की रकम की छूट मिलती है, जितना वे वहां पर शूटिंग करने पर खर्च करते हैं. दक्षिण अफ्रीका में पूरी फिल्म की शूटिंग करने पर डेढ़ मिलियन डौलर तक की सब्सिडी मिलती है. ?

लेखक: भारत भूषण श्रीवास्तव  और  शांतिस्वरूप त्रिपाठी

सासुजी हों तो हमारी जैसी

पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं.

मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइर््र. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब

सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Mother’s Day 2024- बेटी का सुख : वह मां के बारे में क्यों ज्यादा सोचती थी

मैं नहीं जानती बेटे क्या सुख देते हैं, किंतु बेटी क्या सुख देती है यह मैं जरूर जानती हूं. मैं नहीं कहती बेटी, बेटों से अच्छी है या कि बेटे के मातापिता खुशहाल रहेंगे. किंतु यह निश्चित तौर पर आज 70 वर्ष की उम्र में बेटी की मां व उस के 75 वर्षीय पिता कितने खुशहाल हैं, यह मैं जानती हूं. जब वह मेरे घर आती है तो पहनने, ओढ़ने, सोने, बिछाने के कपड़ों का ब्योरा लेती है. बिना इजाजत, बिना मुंह खोले फटापुराना निकाल कर, नई चादर, तकिए के गिलाफ, बैडकवर आदि अलमारी में लगा जाती है. रसोईघर में कड़ाही, भगौने, तवा, चिमटे, टूटे हैंडल वाले बरतन नौकरों में बांट, नए उपकरण, नए बरतन संजो जाती है.

हमारे जूतेचप्पलों की खबर भी खूब रखती है. चलने में मां को तकलीफ होगी, सो डाक्टर सोल की चप्पल ले आती है. पापा के जौगिंग शूज घिस गए हैं, चलो, नए ले आते हैं. वे सफाई देते हैं, ‘अभी तो लाया था.’ ‘कहां पापा, 2 साल पुराना है, फिर आप रोज घूमने जाते हैं, आप को अच्छे ब्रैंड के जौगिंग शूज पहनने चाहिए.’ बाप के पैरों के प्रति बेटी की चिंता देख कर सोचती हूं, ‘बेटे इस से अधिक और क्या करते होंगे.’ जब हम बेटी के घर जाते हैं तब जिस क्षण हवाईजहाज के पहिए धरती को छूते हैं, उस का फोन आ जाता है, ‘जल्दी मत करना, आराम से उतरना, मैं बाहर ही खड़ी हूं.’ एअरपोर्ट के बाहर एक ड्राइवर की तरह गाड़ी बिलकुल पास लगा कर सूटकेस उठाने और कार की डिक्की में रखने में दोनों के बीच प्यारी, मीठी तकरार कानों में पड़ती रहती है, ‘पापा, आप नहीं उठाओ, मम्मी तुम बैठ जाओ, हटो पापा, आप की कमर में दर्द होगा…’

‘तेरे से तो मैं ज्यादा मजबूत हूं, अभी भी.’ उन दोनों की बातें कानों में चाशनी घोल देती हैं. घर के दरवाजे पर स्वागत करती वैलकम नानानानी की पेंटिंग हमारी तसवीरों के साथ चिपकाई होती है. घर का कोनाकोना चहक रहा होता है, शीशे सा साफसुथरा घर हमारे रहने की व्यवस्था, छोटीछोटी चीजों को हमारे लिए पहले से ला कर कमरे में, बाथरूम में रख दिया गया होता है. पापा के लिए उन की पसंद का नाश्ता, चायबिस्कुट मेज पर रखा होता है. उन की पसंद की सब्जियां जैसे करेले, लौकी, तुरई, विशेषरूप से इंडियन शौप से ला कर रखे गए होते हैं.

हमारी पसंद के पकवान ऐसे परोसे जाते मानो हम शाही मेहमान हों. कितने बजे पापा चाय पिएंगे, अपनी कामवाली को सौसौ हिदायतें, ट्रे में गिलास, जग और पानी का खयाल, बिजली का स्विच कहां है, लिफ्ट कौन से फ्लोर पर रुकती है, सुबह पापा घूमने निकलें, उस से पहले उन का फोन वहां के सिमकार्ड के साथ उन के साथ दे देना. दोपहर हो या रात या दिन, हमारे रुटीन का इतना ध्यान रखती है. तकिया ठीक है कि नहीं, एसी अधिक ठंडा तो नहीं है, रात में कमरे का चक्कर मार जाती है मानो हम कोई छोटे बच्चे हों.

‘बेटा, तू सो जा, इतनी चिंता क्यों करती है, तेरा इतना व्यस्त दिन जाता है, पूरा दिन चक्करघिन्नी सी घूमती है, दसदस बार गाड़ी चलाती है, सड़कें नापती है…’ पर वह सुनीअनसुनी कर देती है. बेटियां, बस, ऐसी ही होती हैं. नहीं जानती कि बेटे क्या करते हैं पर बेटी तो चेहरे के भाव पढ़ कर अंतर्मन तक उतर जाती है

मुझे अपनी 65 वर्षीय मां की बरबस याद चली आई. उस दिन भी 11 बजे थे. लगभग 20-25 साल पहले हम दिल्ली में पोस्टेड थे. मायका पास था, करीब 2 घंटे दूर. सो महीनेपंद्रह दिनों में वृद्ध मातापिता से मिलने चली जाया करती थी. सुबह की बस पकड़ कर घर पहुंची. रिकशा से उतर कर अम्मा को ढूंढ़ा, देखा, घर के एक किनारे खामोश बैठी थीं. बहुत क्षीण लग रही थीं. चेहरा उतरा हुआ. आंखें विस्फारित, फटीफटी सी. पैनी कंटीली झाड़ी सी सूखी झुरियों को, देखते ही समझ गई कि उन्हें प्यास लगी है. भाग कर रसोई में गई. एक लोटा ठंडा नीबू पानी बनाया.

जब उन्होंने 2 गिलास पानी एक के बाद एक गले से नीचे उतार लिए तब अपनी धोती से गिलास पकड़ेपकड़े रुंधे गले से बोलीं, ‘आज मेरा व्रत है, सुबह से किसी ने नहीं पूछा कि तुम ने कुछ लिया कि नहीं.’ वे अपने पति, मेरे पिता के बड़े से घर में रहती थीं, जहां उन का बेटाबहू व 2 पोतियां, आधा दर्जन नौकरचाकर दिनरात काम करते थे. पुत्रवती खुशहाल अवश्य होती है, किंतु उस दिन पुत्रवती मां की गीली आंखें मेरे मानस पर शिलालेख की भांति अमिट छाप छोड़ गईं. ‘आज बड़ी ढीली लग रही हो?’ बेटी ने एक दिन मुझे देर तक सोते देखा तब पास आ कर माथे पर हाथ रखा और थर्मामीटर लगाया. लगभग 100 डिगरी बुखार था. उसी क्षण ब्लडप्रैशर, शुगर आदि सब चैक होने शुरू हो गए. सारे काम एक तरफ, मां की तबीयत पर सब का ध्यान केंद्रित हो गया, बारीबारी, सब हाल पूछने आते.

‘नानी, यू औलराइट?’ धेवता गले लगा कर के स्कूल जाता, धेवती ‘टेक केयर, नानी’ कह कर जाती. बेटी मेरी पसंद की किताबें लाइब्रेरी से ले आई थी. दामाद से ले कर कामवाली तक मात्र थोड़े से बुखार में ऐसी सेवा कर रहे थे मानो मैं अंतिम सांसें ले रही हूं. यह बात जब मैं ने कह दी तो बिटिया के झरझर आंसू टपकने लगे, ‘अच्छा बाबा, मैं अभी नहीं मर रही, पर तू ही बता, 70वें साल में चल रही हूं…’ उस का उदास चेहरा देख कर चुप हो गई. किंतु बोझिल यादों का पुलिंदा अपने बूढ़े मांबाप के बुढ़ापे की ओर एक बार फिर खुल गया. अपने बूढ़े मातापिता को उन के बेटे यानी मेरे भाई के घर में नितांत अकेले समय काटते देखा था. मैं यह नहीं कहती कि उन्होंने क्या किया, किंतु उन्होंने क्या नहीं किया, उस का दर्द टीस बन कर शिरायों में उमड़ताघुमड़ता अवश्य है.

एक प्रोफैसर पिता ने कभी अच्छे दिनों में जमीन खरीद कर एक साधारण सा घर बनाया था. बिना मार्बल, बिना ग्रेनाइट लगाए. उन के जाने के बाद घर, बंगला बन गया. उसे करोड़ों की संपत्ति का दरजा मिल गया. मातापिता की जबानी ख्वाहिश तथा लिखित वसीयत, पांचों बेटों को बराबर दी गई संपत्ति की धज्जियां उड़ा दी गईं. उन का आदेश, उन की इच्छा को झूठ, उन की लिखी वसीयत को बकवास कह कर पुत्र ने रद्दी में फेंक दिया. बेटियां पराई हो जाती हैं, फिर भी आप से जुड़ी रहती हैं. वे एक नहीं, 3 घरों में बंटी रहती हैं. बेटियां पलपल की खबर रखने वाली, मन की धड़कन सुनने वाली बेटियां होती हैं. बेटे क्या करते हैं मुझे नहीं मालूम, किंतु बेटियां क्या करती हैं, अनुभव कर रही हूं. अपने रिटायर्ड पैंशनयाफ्ता पिता के बैंक बैलेंस की धड़कन पर पूरी नजर रखती हैं, उन के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे, चुपचाप उन के पर्स में डौलर सरका जाती हैं.

देखो, बावली कितने डौलर रख गई है मेरे पर्स में… जानती है उस के पापा को सब्जीफल खरीदने का शौक है, किंतु अपने रुपए से कितना सामान ला सकेंगे.

मेरे ही एक भाई ने मुझे प्रैक्टिकल होने का पाठ पढ़ाया था, जब मां बीमार थीं और मृत्यु से पहले कोमा में चली गई थीं. चेन्नई से आए भाई वापस जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी पत्नी से फोन पर मेरे सामने ही बात की थी, ‘क्या करूं? वापस आ जाऊं, कुछ औफिस का काम है.’

उधर से, ‘नहीं, वहीं रुको, एक ही बार आना.’ (निधन के बाद, 2 बार का हवाई खर्च क्यों करना, मां आज नहीं तो 2-4 दिनों में निबट जाएंगी) अनकही हिदायत का अर्थ. और एक तरफ यूरोप से मात्र 15 दिनों के लिए बेटी अपनी बीमार मां से मिलने चली आई थी, जरा भी प्रैक्टिकल नहीं थी. बेटे क्या करते हैं, क्या नहीं, निष्कर्ष निकालना, निर्णय लेना उचित नहीं. बहुत से बेटों वाले उपरोक्त तर्क का जोरदार खंडन करेंगे. मैं तो सिर्फ आपबीती बता रही हूं क्योंकि मेरा कोई बेटा नहीं है. आपबीती ही नहीं, जगबीती का उदाहरण समक्ष आया जब डाक्टर रवि वर्मा ने अपना अनुभव शेयर किया.

उन के पिता ने वृद्धाश्रम बनाया था जिस में 30 कमरे थे और वे बिना शुल्क उन बुजुर्गों की सेवा कर रहे थे जिन को देखने वाला कोई नहीं था. वे बता रहे थे, ‘बुजुर्गों के रिश्तेदार आदि, अलबत्ता तो कोई नहीं आता है, आता है तो भी हम उन्हें उन के कमरे में नहीं जाने देते.’ वे आगे बताते हैं, ‘अकसर बेटे आते थे और अपने पिता को मारपीट कर उन की 8-10 हजार रुपए की पैंशन की रकम छीन कर ले जाते थे. अब हम ने नियम बना दिया है कि मिलने वाले हमारे सामने सिर्फ औफिस में मिल सकते हैं.’ और फिर उन्होंने जोड़ा, ‘बेटियां आती हैं तो अपने वृद्ध मातापिता के लिए कुछ फल, मिठाई, कपड़ालत्ता ले कर आती हैं, बेटे तो सिर्फ छीनने आते हैं.’ यह उन का अनुभव है, मेरा नहीं.

हमारे यहां 13 से ले कर 25 वर्ष की लड़कियां घरों में काम करने आती हैं. उन के भाई महंगे मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल, नए फैशन की जींस, और सारा दिन चौराहे पर जमघट लगाए धींगामस्ती करते हैं. 16 वर्षीय मेरी कामवाली रोज अपना मोबाइल याद करती है, ‘तीन बहनों में एक ही तो है, उस ने मांग लिया मैं कैसे न करती. हम अपने भाई को कभी न नहीं करते.’ जन्म से एक मानसिकता, बेटे को घीचुपड़ी, बेटी को बचीखुची. निश्चित रूप से बेटे भी बहुतकुछ करते होंगे, किंतु बेटियां क्या करती हैं, यह मैं दावे से कह सकती हूं. बेटियां मन से जुड़ी रहती हैं, वे कदम से कदम मिला कर अपना समय आप को देती हैं और यकीन मानिए, बुढ़ापे में समय बेशकीमती है, 5 बेटों के मेरे बाऊजी कितने अकेले थे, देखा है उन के चेहरे पर व्यथा के बादलों को.

5 में से 4 तो बाहर रहते थे. साल में एकाध बार मिलने आते थे. किंतु जो उन के साथ उन के घर में रहता था उस के बारे में बाऊजी एक दिन मुझ से बोले, ‘देख, तेरा छोटा भाई सामने के दरवाजे से अंदर आएगा और, परेड करता बाएं मुड़, सीधा अपने कमरे में चला जाएगा. मैं सामने बैठा उसे दिखाई नहीं देता.’ और ऐसा ही हुआ. 6 महीने बाद जब मिलने गई तो पता चला भाई ने अब सामने का दरवाजा छोड़, बरामदे से ही अलग प्रवेशद्वार प्रयोग करना शुरू कर दिया था. बूढ़ा व्यक्ति अपनी स्मृति के गलियारों में भटकता है. वह अपने गांव, अपने पुराने दिनों को किसी के साथ बांटना चाहता है. बस, यही बेटियां घंटों अपने बाप के साथ उन के देहात के मास्टरजी के रोचक किस्से सुनती हैं.

इसलिए, मैं शायद नहीं जानती, पूरी तरह वाकिफ नहीं हूं कि बेटे भी ये सब करत हैं, किंतु अपनी बेटी अपने पापा के साथ समय जैसे धन को खूब लुटाती है. समय बदल रहा है, आज का वृद्ध कह रहा है, हमें अपना स्पेस चाहिए, आधुनिक युग में फाइवस्टार ओल्डएज होम बन रहे हैं. वे ओल्डएज होम नहीं, कब्र कहलाते हैं. न बेटे की न बेटी की किसी की जरूरत नहीं. सभी सुविधाओं से लैस इस प्रकार की व्यवस्था की जा रही है जहां, खाना, रहना, अस्पताल, जिम, मनोरंजन के साधन, हरेभरे लौन, पार्क आदि घरजैसी बल्कि घर से बढ़ कर तमाम जरूरतों का ध्यान रखते हुए, प्रौपर्टी बन और बिक रही हैं.

दृष्टिकोण बदल रहा है. मांबाप कह रहे हैं, यदि बच्चों को पालापोसा तो क्या उन से हम बदला लें? हम ने उन्हें जन्म दे कर उन पर कोई एहसान नहीं किया. सो, उन्हें बुढ़ापे की लाठी की तरह इस्तेमाल करना बंद करो. इस प्रकार की अवधारणा तूल पकड़ रही है. तब तो बेटेबेटी का किस्सा ही खत्म. बेटे कैसे होते हैं? बेटियों से बेहतर, कि बदतर, टौपिक निरर्थक, चर्चा बेमानी और तर्क अर्थहीन. किंतु ऐसे पांचसितारा कब्र में रहने वाले कितने और कौन हैं, अपने देश की कितनी फीसदी जनता उस का उपभोग कर सकती है? मेरे देश का अधिकांश वयोवृद्ध आज भी बेटीबेटे की ओर आशातीत नजरों से निहारता है.

जिंदगी जिएं ऐसे कि हर पल में मिले ख़ुशी

आज के समय में जब युवाओं से पूछा जाता है कि उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य क्या है तो 70 -80 फीसदी का जवाब होता है कि वे धनवान बनना चाहते हैं जबकि 50 फीसदी से ज्यादा युवाओं की जिंदगी का लक्ष्य मशहूर बनना है. मगर क्या महज धन या शोहरत हासिल कर के आप खुश रह सकते हैं? 75 वर्ष तक चले एक शोध का निष्कर्ष कुछ और ही रहा. इस स्टडी का निष्कर्ष यह था कि रिलेशनशिप में इन्वेस्ट करना जिंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए. अच्छे और सच्चे रिश्ते ही खुशहाली का राज है.

हमें अक्सर सीख दी जाती है कि रात दिन मेहनत से काम करें और ज्यादा से ज्यादा धन और कामयाबी हासिल करें. हमें लगता है कि बस इस से ही जिंदगी अच्छी हो जाएगी. लेकिन इस आपाधापी में हम अपने रिश्तों में इन्वेस्ट करने में पीछे रह जाते हैं. उम्र बढ़ने के बाद अहसास होता है कि हमारी मुट्ठियां खाली ही रह गईं. मन के अंदर भी एक वीरानापन ही रह गया.

द हार्वर्ड स्टडी ऑफ अडल्ट डेवलपमेंट इंसान की जिंदगी के बारे में की गई एक सबसे लंबे वक्त की स्टडी है जिस में 75 बरसों तक 724 लोगों की जिंदगी की स्टडी की गई. इसमें उनके काम, उनकी जिंदगी, उनकी सेहत और तमाम मुद्दों का रेकॉर्ड रखा गया. शोधकर्ताओं ने इतने बरसों और इतने लोगों की स्टडी में पाया कि अच्छी रिलेशनशिप हमें खुश और सेहतमंद रखती हैं. सामाजिक रिश्ते हमारे लिए बहुत अच्छे होते हैं और अकेलापन हमें खाने को दौड़ता है. स्टडी से पता चला कि जो लोग परिवार, दोस्त, कम्युनिटी के साथ सामाजिक तौर पर बेहतर ढंग से जुड़े हुए हैं वे ज्यादा खुश हैं और उनकी सेहत भी दूसरों के मुकाबले बेहतर रहती है. अकेले रहने के परिणाम बेहद खराब पाए गए. उनकी सेहत मिडलाइफ में गिरने लगती है. उनका दिमाग भी बीच में काम करना कम कर देता है.

स्टडी में दूसरी जो सबसे बड़ी बात सामने आई वह यह थी कि यह सिर्फ संख्या की बात नहीं है कि आपके कितने दोस्त हैं बल्कि असल बात यह है कि जिन लोगों के साथ आपकी दोस्ती या रिश्ते हैं उनमें से कितनों के साथ आपकी घनिष्ठता है. यही नहीं अगर आप द्वंद्व में जीते हैं तो वह आपकी सेहत के लिए बहुत खराब होता है. शादी में अगर बहुत ज्यादा उलझन हो जबकि उसमें प्यार नहीं हो तो वह सेहत के लिए बहुत बुरा साबित होता है. जबकि अगर आप अपने रिश्ते को लेकर सुरक्षित महसूस करते हैं और इस एहसास के साथ जीते हैं कि कोई है जिस पर वे मुश्किल के वक्त भरोसा कर सकते हैं या जिस से अपने मन के सारे राज शेयर कर सकते हैं तो आप दिमागी तौर पर भी फिट रहते हैं. तात्पर्य यह है कि अच्छे और भरोसेमंद रिश्ते हमारी सेहत और खुशियों के लिए जरूरी हैं.

क्या आज हमें कोई ऐसा शख्स मिल सकता है जिस पर भरोसा कर सकें

अब बात करें रिश्तों से जुड़े आज की हकीकत की. रिश्ते तभी प्रगाढ़ होते हैं जब हम सामने वाले से अपने मन की हर बात बिना किसी डर या झिझक के शेयर कर सकें. हमें इस बात का खौफ न हो कि जब कल वह हम से मुंह मोड़ ले और हमारे विरोधी से जा मिले और हमारे सारे राज खोल कर रख दे. जैसा कि आज की पोलिटिकल पार्टियां करती हैं. आज किसी एक के सपोर्ट में हैं तो कल किसी और के. दो मिनट में पासा ही पलट देती हैं. विरोधी पार्टी के आगे सारे सीक्रेट्स खोल देती हैं. तभी तो आज कोई पार्टी किसी दूसरी पार्टी पर भरोसा नहीं करती. सब अपनी चाल खेलते हैं. वैसे भी पार्टी में कौन सा नेता विभीषण निकल आए और दूसरी तरफ का सगा बन कर नाभि में अमृत होने का राज खोल दे यह कोई नहीं जानता.

जैसे हमारे नेतागण एक दूसरे के प्रति कतई निष्ठावान नहीं वैसे ही समाज में भी लोग एक दूसरे के पीठ में खंजर घोंपने में माहिर दीखते हैं. आज जब पति पत्नी की, भाई भाई की और पुत्र पिता की हत्या कर रहे हैं , एकदूसरे से आगे भागने की जुगत में नैतिकता ताक पर रख बस भागे जा रहे हैं तो जाहिर है चालबाजियां , झूठ फरेब और स्वार्थ का बाजार गर्म है. इस जमाने में ऐसे रिश्ते मिलने आसान नहीं जिन पर आप आँख मूँद कर भरोसा कर सकें.

कोई राज राज न रहा

अगर आप को ऐसा रिश्ता मिल भी जाता है जिस से आप सारे राज शेयर कर सकें तो ज़रा होशियार रहिए. आज के जमाने में कोई राज राज नहीं रह गया है. एक तरफ आप के मोबाइल के जरिए एक छोटी से छोटी बात, आप की चैट्स , आप के ट्रेवलिंग डिटेल्स , आप के ऑर्डर्स , आप के शौक यानी आप की पूरी जन्मकुंडली , आप के क्रेडिट कार्ड्स, आप के देखे गए या सर्च किए गए विडोयोज और लिंक्स, गूगल सर्च , फ़ोन कॉल्स और यहाँ तक कि आप के द्वारा किए गए लेनदेन आदि सब कुछ पर निगरानी रखी जा रही है. हर वक्त आप पर नजर रखी जाती है. आप का कोई काम, कोई हरकत या कोई बातचीत छिपी नहीं है.

नया स्मार्ट फोन पहली बार सेटअप करते वक्त आप से कई परमिशंस मांगी जाती हैं. इस दौरान गूगल अकाउंट से लॉगिन करना पड़ता है और यहां से गूगल आपका डाटा जुटाना शुरू कर देता है. फोन में कई सेटिंग्स बाय-डिफॉल्ट इनेबल रहती हैं जिनके साथ गूगल आप पर पल पल नजर रखता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि आप कब कहां गए, क्या सर्च किया, गूगल इसका पूरा रिकॉर्ड भी रखता है. इस तरह जुटाए जाने वाले डाटा का इस्तेमाल यूजर को बेहतर अनुभव देने उस से जुड़े विज्ञापन दिखाने के लिए किया जाता है. मगर शायद ही कोई चाहेगा कि गूगल उसकी हर गतिविधि और मूवमेंट का पूरा रिकॉर्ड रखे.

इसी तरह इसी तरह सरकार भी हमारे ऊपर हर वक्त नजर रखती है. आजकल हर जगह आधार कार्ड से पहचान दिखाना अनिवार्य कर दिया गया है. आप कहीं ट्रेवल करें , किसी होटल में ठहरें, कोई सिम लें, कहीं अप्लाई करें या इस तरह का कुछ भी काम करें तो आधार कार्ड की कॉपी ले ली जाती है. पैन कार्ड के जरिए भी आप के पैसों और लेनदेन पर पूरी नजर रखी जाती है. आपकी कोई एक्टिविटी छिप ही नहीं सकती. हर जगह सीसीटीवी कैमरे बाकी कसर पूरी करते हैं. कहने का अर्थ यह है कि सीक्रेट्स रह कहाँ गए जो आप किसी अपने को राजदार बनाएं और घनिष्टता बढ़ाएं.

इसी तरह किसी पर भरोसा करना भी मुश्किल हो गया है. कब कौन राजदार बन कर आप की सारी बात रिकॉर्ड कर ले या फिर आप की एक्टिविटीज की वीडियो बना डाले. पति तक पत्नी की अश्लील वीडियो बना कर रिश्तों को कलंकित कर डालते हैं. इसलिए किसी के करीब जाने या उस के आगे अपना मन खोलने से पहले पचासों बार सोचना पड़ता है. सब के हाथ में स्मार्टफोन होता है. किसी को घनिष्ठ मान कर बात कीजिए और तुरंत सारे राज कैप्चर कर लिए जाएं तो आप क्या करेंगे. आजकल तो घरों में सीक्रेट कैमरे लगा कर राज जान लिए जाते हैं. इसलिए बेहतर ये होगा कि अपनापन बढ़ाने के लिए किसी पर आँख मूँद कर भरोसा न करें. कोई कितना भी अजीज हो उस से कुछ राज तो छिपा कर अपने मन में रखें ही.

यानी रिश्तों में घनिष्टता बढ़ाने से ज्यादा इस बात पर जोर दें कि जब मिलें खुले मन से मिलें. गिले शिकवे कहने या पुरानी बातों को ले कर लड़नेझगड़ने के बजाए उस पल को एंजोए करें. हंसे और हंसाए. जीवन के हर पल का आनंद लें. जिंदगी की असली खुशियां यही हैं.

जिम की वजह से होने वाली बीमारियां कौन सी हैं, जानें

मुंबई में रहने वाले 26 वर्षीय राकेश को जिम का बहुत शौक था, क्योंकि उन्हें फिल्मों में ऐक्टर्स के सिक्स पैक बहुत आकर्षित करते थे. उन्होंने जिम जौइन किया और एक दिन कुछ ज्यादा वजन उठा लिया जिस से उन की कमर की मसल्स टियर हो गईं. डाक्टर ने उन्हें एक महीने का रैस्ट बताया. उन्होंने रैस्ट किया, पर मसल्स में दर्द अभी भी है. इसलिए उन्होंने जिम करना तकरीबन छोड़ रखा है, क्योंकि अभी भी उन की यह समस्या खत्म नहीं हुई है.

वर्कआउट के शौकीन लोग आजकल अधिकतर जिम में जाने से नहीं कतराते, क्योंकि वहां का एयरकंडीशन और इन्स्ट्रक्टर की ट्रेनिंग हर व्यक्ति, चाहे वह यूथ हो या वयस्क, को पसंद होती है. वयस्क जिम को मानसिक तनाव से मुक्त स्थान भी समझते हैं, क्योंकि वहां आने वाले यूथ को देख कर उन में भी मोरल बूस्ट होता है. साथ ही, आज की जीवनशैली में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को कम करने और फिटनैस को बनाए रखने के लिए हर कोई जिम को जरूरी महसूस करता है.

देखा जाए तो जिम में वर्कआउट करने की कई मशीनें होती हैं, जिन्हें लोग छोटेछोटे अंतरालों के लिए इस्तेमाल करते हैं. लेकिन जिम में इस्तेमाल की जाने वाली मशीनों से हमें कई तरह के इंफैक्शन का खतरा रहता है. यहां वर्कआउट के लिए रखे गए इक्विपमैंट को कई सारे लोग इस्तेमाल करते हैं. यही वजह है कि जिम के बाद कई सारे इंफैक्शन या बीमारी व्यक्ति अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं. आइए जानते हैं, जिम जाने से होने वाली बीमारियां क्या हो सकती हैं और उन से सावधानी बरतना जरूरी क्यों है.

हार्टअटैक आने का खतरा

एक रिसर्च में शोधकर्ताओं ने वर्कआउट के दौरान दिल को होने वाले नुकसान के साथ संबंध में जानने की कोशिश की. रिसर्च में शोधार्थियों ने उम्रदराज पुरुष ऐथलीटों को शामिल किया. इस दौरान टीम ने पाया कि हैवी वर्कआउट से कोरोनरी एथेरोस्क्लेरोसिस नामक बीमारी के होने का खतरा बढ़ जाता है.

दरअसल, इस बीमारी की वजह से आप के दिल की धमनियों के ऊपर और अंदर वसा व बैड कोलैस्ट्रौल जमा होने लगता है. इस स्थिति में हार्टअटैक होने का खतरा बढ़ जाता है. शोध में सामने आए निष्कर्षों के मुताबिक, ये धमनियां पूरे शरीर में रक्त का संचार करती हैं और जब उन की आंतरिक त्वचा ब्लौक होने लगती है तो रक्त का संचार रुक जाता है. यही वजह है कि व्यक्ति को चलतेफिरते या फिर जिम करते हुए हार्टअटैक आ जाता है.

मसल्‍स में खिंचाव व दर्द

अधिक ऐक्‍सरसाइज करने से बौडी मसल्‍स में खिंचाव व दर्द की समस्‍या हो सकती है. हाई इंटेनसिटी ऐक्‍सरसाइज करने से बौडी मसल्‍स पूरी तरह से ऐक्‍टिवेट हो जाते हैं. ऐसे में ओवर वर्कआउट करने से मसल्‍स में अधिक खिंचाव हो सकता है. बौडी पर अधिक दबाव डालने से दर्द या चोट लगने का खतरा भी बढ़ जाता है.

भूख कम लगना और वजन कम होना

वर्कआउट करने के बाद आमतौर पर भूख अधिक लगती है, लेकिन जरूरत से ज्‍यादा ऐक्‍सरसाइज करने से भूख में कमी आ सकती है. इस के अलावा शरीर में हार्मोनल चैलेंज आने लगते हैं, जिस वजह से भूख कम हो जाती है. ओटीएस यानी ओवरट्रेनिंग सिंड्रोम भूख में कमी, थकावट और वजन कम होने का कारण बन सकता है.

नींद में परेशानी

जब बौडी के स्ट्रैस हार्मोन का संतुलन बिगड़ जाता है तो बौडी सोते हुए भी तनाव महसूस करती है. तनाव में होने की वजह से प्रौपर नींद नहीं आती. ऐक्‍सरसाइज करने के बाद बौडी को रिकवरी की आवश्‍यकता होती है और नींद न आने की वजह से बौडी रिलैक्‍स नहीं हो पाती. कई बार पर्याप्‍त नींद न आना थकान, मूड स्‍विंग और चिड़चिड़ेपन का कारण बन जाती है.

वीक हो सकती है इम्‍यूनिटी

ऐक्‍सरसाइज करने के बाद यदि थकान या कमजोरी महसूस हो रही है तो समझिए बौडी की इम्‍यूनिटी वीक हो रही है. रोग प्रतिरोधक क्षमता के कमजोर होने पर बौडी में इंफैक्‍शन और बीमारी आसानी से हो सकती है. ऐक्‍सरसाइज के साथ बौडी की इम्‍यूनिटी बढ़ाने पर भी जोर देना जरूरी होता है.

इतना ही नहीं, जिम में जाने से कई प्रकार की त्वचा संबंधी बीमारियां भी हो सकती हैं, जिस का ध्यान रखना बहुत जरूरी होता है, क्योंकि एक व्यक्ति के एक मशीन के प्रयोग के बाद दूसरा व्यक्ति भी उसे प्रयोग करता है. कुछ बीमारियां निम्न हैं-

• इम्पेटिगो एक प्रकार का त्वचा संक्रमण है जो बैक्टीरिया के कारण होता है. इस संक्रमण से त्वचा लाल हो जाती है और प्रभावित जगह पर खुजली होनी शुरू हो जाती है. इस के बाद त्वचा पपड़ी छोड़ती है. यह संक्रमण दूसरे इंसान में भी फैल सकता है.

• फंगस की वजह से अकसर स्किन पर दाद की समस्या हो जाती है. दाद संक्रमित स्थानों या किसी व्यक्ति को छूने पर फैलता है. रिंग की बनावट वाला यह संक्रमण लाल और पपड़ीदार होता है. दाद में खुजली और चुभन जैसी समस्या होती है.

• ऐथलीट फुट एक बेहद साधारण फंगल संक्रमण है और इसे टिनिया पेडिस के नाम से जाना जाता है. यह पैरों में होता है और हाथ से खरोंचने पर हाथों में भी फैल सकता है.

• जिम में ह्यूमन पेपिलोमावायरस का जोखिम भी होता है. जिम में नंगेपांव चलने से इस संक्रमण के होने का खतरा बढ़ जाता है. इसलिए जिम के दौरान हमेशा शूज पहन कर चलें.

जिम के अंदर हाइजीन का बहुत खयाल रखने की आवश्यकता होती है. किसी से भी किसी सामान को शेयर करने से बचें. मसलन, किसी की तौलिया, बोतल या दूसरे किसी भी निजी सामान का उपयोग करने से बचें. किसी भी मशीन का इस्तेमाल करने से पहले उसे साफ करें.

शरीर के अनुसार लें प्रोटीन

आम धारणा है कि फैट और कार्बोहाइड्रेट युक्त खाना खाने से वजन बढ़ता है. इसलिए फिटनैस की दौड़ में शामिल लोग ज्यादा से ज्यादा एनर्जी, प्रोटीन युक्त खाना लेना चाहते हैं. मैडिकल जर्नल नेचर मेटाबौलिज्म में पब्लिश हुई एक स्टडी के मुताबिक रोजाना शारीरिक जरूरत की 22 प्रतिशत से ज्यादा कैलोरी अगर प्रोटीन से ली जाएं, तो यह इम्यून सेल्स को सक्रिय कर सकता है, शरीर में अमिनो एसिड बढ़ा सकता है. इस से आर्टरीज में ब्लौकेज आने लगते हैं, जो हार्टअटैक का कारण बन सकता है.

एक्सपर्ट की लें सलाह

कई लोग तो इस के लिए प्रोटीन पाउडर या सप्लीमैंट लेते हैं, जो उन के शरीर के लिए हानिकारक भी हो सकता है. इस बारे में मुंबई की कोकिलाबेन धीरुबाई हौस्पिटल की कंसल्टेंट स्पोर्ट्स न्यूट्रिशनिस्ट पूजा उदेशी कहती हैं कि प्रोटीन पाउडर या सप्लीमैंट अपने शरीर और वजन के हिसाब से लेना पड़ता है. अधिक लेने पर उस का असर खराब हो सकता है. प्रोटीन के भी कई सारी वैराइटीज वाले प्रोडक्ट होते हैं, जो मार्केट में मिलते हैं. इस के साइड इफैक्ट की अगर बात करें तो अधिक मात्रा में लेने पर किडनी की समस्या, कार्डिएक अरैस्ट या लिवर की समस्या आदि कुछ भी हो सकती है.

जिम करने वाले हर व्यक्ति की प्रोटीन की जरूरत अलगअलग होती है, जिसे न्यूट्रिशनिस्ट की सलाह ले कर लेना पड़ता है, ताकि शरीर को किसी प्रकार का नुकसान न हो. अधिकतर लोग ट्रेनर से बात कर या खुद अपने हिसाब से लेने लगते हैं, जो ठीक नहीं. प्रोटीन की मात्रा उम्र से अधिक, वजन पर निर्भर करती है.

एक किलोग्राम के वजन पर एक ग्राम प्रोटीन लिया जा सकता है. इस के अलावा किसी बीमारी, खेल खेलने या व्यायाम से प्रोटीन की जरूरत अधिक पड़ती है. शाकाहारी लोग जो अधिक प्रोटीन नहीं खा पाते, उन्हें प्रोटीन शेक लेने की जरूरत पड़ सकती है. कितनी मात्रा में व्यक्ति प्रोटीन ले, इस की जानकारी एक्सपर्ट से ले लेना अच्छा होता है. नैचुरल प्रोडक्ट पर अधिक ध्यान देना अच्छा होता है, मसलन शाकाहारी लोग पनीर, अंकुरित दाल, सोयाबीन, ब्राउन राइस आदि ले सकते हैं, जबकि नौनवेज खाने वाले लोग अंडा, मछली, मांस आदि को नियमित खा सकते हैं.

न्यूट्रिशनिस्ट पूजा उदेशी कहती हैं, “मेरे पास भी एक लड़का आया था, जिस के शरीर में प्रोटीन की मात्रा अधिक थी. मैं ने उस का ब्लड टैस्ट कर कैरोटीन के स्तर की जांच की. यूरिया की मात्रा शरीर में कितनी है, उसे पता किया. फिर उस को बैलेंस करना पड़ा. प्रोटीन पाउडर या सप्लीमैंट को कभी भी छोड़ कर नैचुरल डाइट पर आया जा सकता है और यह शरीर के लिए बेहतर होता है.

जिम जाएं पर रखें ध्यान

जिम के शौकीन आज सभी हैं. इसलिए जिम जाते व्यक्त कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें, ताकि आप की फिटनैस और स्वास्थ्य दोनों बनी रहे. कुछ सुझाव ये हैं-

1. वर्कआउट या ऐक्सरसाइज हमेशा डाक्टर या ट्रेनर की एडवाइस से ही करना चाहिए.
2. आप को फिटनैस मेंटेन रखने के लिए नौर्मल लैवल की ऐक्सरसाइज ही करनी चाहिए.
3. हैवी ऐक्सरसाइज करने से बौडी और हार्ट दोनों पर नैगेटिव इफैक्ट पड़ने लगता है.
4. ट्रेडमिल या किसी कार्डियो ऐक्सरसाइज का यूज करते समय एक बार में 10 मिनट से अधिक वक्त न बिताएं.
5. हर कार्डियो ऐक्सरसाइज के बाद कम से कम 5 मिनट का ब्रेक जरूर लें, ताकि हार्ट को रिलैक्स फील हो.
6. वर्कआउट के दौरान यदि छाती की लेफ्ट साइड में दर्द हो, तो तुरंत ऐक्सराइज रोक कर डाक्टर से मिलें.

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