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नीट एग्जाम में गड़बड़ी, जिम्मेदार एनटीए की गवर्निंग बौडी पर क्यों न चले मुकदमा

नीट परीक्षा पर उठे सवालों के बीच सब से अधिक चर्चा एनटीए की हो रही है. एनटीए यानी नैशनल टेस्टिंग एजेंसी. जिस की स्थापना 2017 में हुई थी, जो मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन आती है. यह देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और कई सरकारी नौकरियों के लिए परीक्षा आयोजित करती है. इस एजेंसी का मुख्य काम उच्च शिक्षा और विभिन्न सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कुशल, पारदर्शी और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप परीक्षाएं आयोजित करना है.

नैशनल टेस्टिंग एजेंसी की स्थापना भारतीय संस्था पंजीकरण अधिनियम 1860 के तहत हुई थी. ये स्वायत्त संस्था है जो देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और छात्रवृत्ति के लिए एंट्रेंस एग्जाम आयोजित करती है. इस एजेंसी के चेयरपर्सन प्रो. प्रदीप कुमार जोशी हैं जोकि यूपीएससी के भी पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं. इस के महानिदेशक आईएएस सुबोध कुमार सिंह हैं. इस के अलावा कई संस्थानों के निदेशक और कुछ विश्वविद्यालयों के कुलपति भी एनटीए की गवर्निंग बौडी में आते हैं.

नैशनल टेस्टिंग एजेंसी के पास एजुकेशन एडमिनिस्ट्रेटिव, एक्सपर्ट्स, रिसर्चर और असैसमेंट डेवलपर की टीम होती है. नैशनल टेस्टिंग एजेंसी पर कई बड़ी परीक्षा कराने का जिम्मा है. एजेंसी की तरफ से कौमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट, जौइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन मेन्स के अलावा एजेंसी यूजीसी नेट परीक्षा का आयोजन करती है. मैडिकल फील्ड की बड़ी परीक्षा नैशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट-अंडर ग्रेजुएट नीट का आयोजन कराती है.

इस के साथसाथ राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी कौमन मैनेजमेंट कम एडमिशन टेस्ट, इंडियन इंस्टीट्यूट औफ फौरेन ट्रेड एंट्रेंस टेस्ट, नैशनल इंस्टीट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी एंट्रेंस एग्जाम, जौइंट इंटीग्रेटेड प्रोग्राम इन मैनेजमेंट एडमिशन टेस्ट, औल इंडिया आयुष पोस्ट ग्रेजुएट एंट्रेंस टेस्ट, जैसी परीक्षाओं का आयोजन भी करती है. इन में से कुछ परीक्षा वर्ष में एक बार तो कुछ साल में दो आयोजित की जाती हैं.

नीट एग्जाम में हुई गड़बड़ी के चलते एनटीए यानी नैशनल टेस्टिंग एजेंसी पर जिस तरह से सवाल उठ रहे हैं उस के लिए गवर्निंग बौडी जिम्मेदार है. 24 लाख छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करने के अपराध पर इन के ऊपर मुकदमा चलना चाहिए. हरियाणा के शिक्षक भर्ती घोटाले के जिम्मेदार ओम प्रकाश चैटाला सहित अन्य लोगों के साथ ऐसा हो चुका है. एनटीए की गर्वनिंग बौडी में 10 लोग शामिल हैं. इस के अध्यक्ष हैं प्रो. (सेवानिवृत्त) प्रदीप कुमार जोशी. यह यूपीएससी के पूर्व अध्यक्ष भी रहे हैं. सदस्यों में पहला नाम सुबोध कुमार सिंह आईएएस है. एनटीए के महानिदेशक हैं.

इस के अलावा आईआईटी के 3 निदेशक इस के सदस्य हैं. एनआईटी के 2 निदेशक, कैट के वर्तमान और पूर्ववर्ती अध्यक्ष के रूप में आईआईएमएस के 2 निदेशक सदस्य हैं. आईआईएसईआर पुणे के निदेशक, रोटेशन आधार पर आईआईएसईआर का प्रतिनिधित्व करते हुए एनटीए के सदस्य हैं.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति केंद्रीय विश्वविद्यालयों का प्रतिनिधित्व रोटेशन के आधार पर करते हुए सदस्य हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) के कुलपति सदस्य हैं. राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (एनएएसी) बेंगलुरु के अध्यक्ष सदस्य हैं. इस के साथ ही साथ दा. हरीश शेट्टी जो एमडी (मनोचिकित्सा) दा. एलएच हीरानंदानी अस्पताल पवई, मुंबई में हैं वह भी एनटीए के सदस्य हैं.

लापरवाही के मामलों में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जिन पर मुकदमें चले हैं उन को सजा भी मिली है. हरियाणा के शिक्षक भर्ती घोटाले में पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चैटाला और उन के पुत्र अजय चैटाला को अदालत ने 10 साल कैद की सजा सुनाई है. पूर्व सचिव विद्याधर और आईएएस अधिकारी संजीव कुमार को भी 10 साल की सजा सुनाई गई है. 1999-2000 में हरियाणा के 18 जिलों में 3206 जेबीटी शिक्षकों की अवैध भर्ती के मामले में सजा मिली. अदालत ने 53 अन्य को भी इस घोटाले में भारतीय दंड संहिता व भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत दोषी पाया.

आईपीसी व पीसीए की 120-बी (आपराधिक षडयंत्र), 420 (धोखाधड़ी), 467 (जालसाजी), 468 (धोखाधड़ी के लिए जालसाजी) और 471 (वास्तविक की जगह जाली दस्तावेज का इस्तेमाल) धाराओं के तहत आरोप तय किए थे. सीबीआई ने साल 2004 में मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला समेत 62 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. अदालत में हुई गवाहियों से ये साबित हुआ कि जेबीटी भर्ती के लिए उम्मीदवारों से 3 से 5 लाख रुपए तक की रिश्वत ली गई थी.

यह कोई मामूली गड़बड़ी नहीं है, बल्कि मैडिकल लाइन से जुड़ी गड़बड़ी है जिस पर देश की स्वास्थ्य संरचना टिकी हुई है. नीट एग्जाम देने के बाद छात्र अलगअलग मैडिकल पेशे में डाक्टर बनते हैं. जिन के ऊपर करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी होती है, उन पर मैडिकल क्षेत्र में नएनए रिसर्च की जिम्मेदारी होती है. ऐसे में यदि यहां गड़बड़ी पाई जाती है तो इस का दूरगामी प्रभाव देखने को मिलता है जो देश के लिए खतरनाक ही साबित होगा. ऐसे में जांच के साथ गवर्निंग बौडी पर मुकदमा चलाए जाना जरूरी है.

महिलाएं मैनस्प्लेनिंग के खिलाफ उठाएं आवाज

सिंपल भाषा में मैनस्प्लेनिंग किसी पुरुष द्वारा यह दिखाना है कि वह मर्द है और इसलिए सामने वाली महिला से बेहतर जानकारी रखता है. मैनस्प्लेनिंग का अनुभव हम सभी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आएदिन करते हैं. यह अंगरेजी के दो शब्द मैन और एक्सप्लेनिंग (समझाना) से मिल कर बना है.

उदाहरण के लिए औफिस में जब आप किसी राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक मुद्दे पर अपनी राय रखती हैं या किसी प्रेजेंटेशन पर अपने विचार सुनाने लगती हैं तभी सामने बैठा पुरुष सहकर्मी कह उठता है कि रुको आप को यह बात उतनी क्लियर नहीं. मैं ठीक से समझाता हूं. यानी उसे यह लगता है कि चूंकि वह एक मर्द है और आप औरत तो ज़ाहिर तौर पर वह आप से बेहतर जानकारी रखता है.

कई दफा औफिस में आप के सुपरवाइजर भी आप की बात को ठीक से सुने बगैर ही कह देते हैं कि आप के आइडियाज पुराने हैं. यानी एक महिला की बात या राय को दरकिनार ख़ुद को सही और बेहतर साबित करने की कोशिश मैनस्प्लेनिंग है. इसी तरह जब साथ बैठा पुरुष आप की बात बीच में काट कर तेज आवाज में अपनी बात कहने लगे या आप पर अपने विचार थोपने लगे तो यह मैनस्प्लेनिंग है. ऐसा सिर्फ कार्यालय में नहीं बल्कि अपने घरों में भी होता है. ज्यादातर घरों में पति, बौयफ्रैंड या भाई अपनी बात ऊपर रखते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे सब जानते हैं जबकि औरतों को कुछ भी सही से पता नहीं होता.

हर तरह के मुद्दों पर पुरुषों की बिलकुल सटीक राय हो ये जरूरी नहीं. हर विषय पर हर पुरुष को गहराई से पता हो यह भी जरूरी नहीं. ख़ास तौर पर बात जब महिलाओं की जिंदगी और उन के अनुभवों के बारे में हो. मगर अकसर पुरुष उन मुद्दों पर भी महिलाओं को नहीं बोलने देते या उन्हें टोकते है और उन की बात को अनसुना करते हैं. कई दफा वे उन की आलोचना भी करते हैं. यही मैनस्प्लेनिंग है जिसे किसी भी महिला को स्वीकारना नहीं चाहिए.

कई ऐसे भी पुरुष होते हैं जो अपने सामने बैठी महिला के पास अधिक जानकारी है यह महसूस कर घबरा जाते हैं. असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. उन का मेल ईगो हावी होने लगता है और इसलिए अपने इस ईगो की खातिर वह मैन्स्पेलिंग का सहारा लेते हैं.

क्या है मैनस्प्लेनिंग

मैनस्प्लेनिंग एक पुरुषवादी समाज की वास्तविकता है. यह पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा खुद को श्रेष्ठ मानना और बात करते समय महिलाओं को कमतर आंकने का तरीका है. मरियम एंड वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार, ‘किसी महिला को किसी बात को इस तरह से समझाना कि मानो उसे उस विषय के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है, मैनस्प्लेनिंग कहलाता है.’

कल्पना कीजिए कि आप किसी मीटिंग में हैं और आप का पुरुष सहकर्मी आप को बीच में रोकता है, आप की बात को काटता है और आप को समझाने लगता है कि वह आप से ज्यादा जानता है. वह आप को रोकते हुए खुद बोलना शुरू कर देता है. ऐसे में आप पर क्या बीतेगी? ठीक इसी तरह अकसर औफिस की मीटिंग में पुरुष सहकर्मियों से तो इनपुट लिए जाते हैं लेकिन महिला सहकर्मियों की किसी भी जानकारी को नजरअंदाज कर दिया जाता है. इस दौरान अकसर महिला कर्मचारियों को सुनने को मिलता है कि मैं आप को बाद में समझाऊंगा. आप को कुछ नहीं पता. यह थोड़ा कठिन मुद्दा है इसलिए मुझे समझाने दीजिए. महिलाओं पर इस का क्या असर पड़ेगा ? जाहिर है पुरुषों का इस तरह का व्यवहार स्त्री के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाता है.

दरअसल हमारे पितृसत्तात्मक समाज में किसी महिला को होने वाले ऐसे अनुभव आम हैं. उसे अपने जीवन में कदमकदम पर इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ता है. खासतौर पर कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ साथी पुरुषकर्मी अकसर ऐसा करते हैं. जबकि घर में तो अपने ही करीबी रिश्तेदार भी ऐसा बर्ताव करने से नहीं हिचकते. इस तरह के व्यवहार की वजह से महिलाओं के आत्मसम्मान के साथसाथ कैरियर पर भी असर पड़ता है.

महिलाओं के कैरियर पर बुरा असर

फार्चून में प्रकाशित रिपोर्ट में एक स्टडी के माध्यम से कहा गया है कि शौर्ट टर्म के लिए मैनस्प्लेनिंग महिला कर्मचारियों को अपमानित महसूस कराती है. लेकिन अगर लंबे वक्त तक इस के असर की बात करे तो इस का असर महिलाओं के कैरियर पर पड़ता है.

पुरुषों के द्वारा महिला को बीच में सिर्फ इसलिए टोकना क्योंकि वह एक महिला है, काफी अपमानजनक होता है. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी सांता बारबरा के एक अध्ययन में पाया गया कि एक मिक्स्ड जेंडर कनवरसेशन में 48 में से 47 व्यवधानों में पुरुषों द्वारा महिलाओं की बातचीत को बाधित करना शामिल होता है. एक अन्य शोध में सामने आया कि पुरुषों द्वारा एक महिला की तुलना में 3 गुना अधिक बाधा डालने की संभावना होती है. इसी शोध से पता चला कि पुरुषों द्वारा अक्सर मीटिंग्स में महिलाओं पर हावी हो कर और आक्रामक हो कर बात करने की फितरत होती है जिस से कमरे में बाकी सभी लोग चुप हो जाते हैं.

कार्यस्थल पर महिलाओं मैनस्प्लेनिंग के साथसाथ हेपीटिंग (जब कोई पुरुष किसी विचार को दोहराता है जो पहले महिला ने सुझाया हो) जैसी समस्या का भी सामना करना पड़ता है. इस तरह के नकारात्मक व्यवहार को खत्म करने का प्रयास बहुत जरूरी है.

वरना लंबे समय तक ऐसा व्यवहार महिलाओं के कैरियर को प्रभावित करता है. मैनस्प्लेनिंग जेंडर स्टीरियोटाइप को वर्कप्लेस पर बनाए रखता है जिस का महिला कर्मचारियों पर कई तरह से असर पड़ता है. मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी, कोलरार्डो स्टेट यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों द्वारा इस विषय पर अध्ययन किया गया है कि यह व्यवहार वर्कप्लेस में महिलाओं के काम को कई स्तर पर प्रभावित करता है. इस तरह का लगातार व्यवहार महिलाओं को सेल्फ इवैल्यूएशन पर केंद्रित कर देता है. उन्हें लगने लगता है कि वे सच में कम योग्य हैं. वह इस वजह से प्रतिस्पर्धा और पैसा कमाने में पीछे छूट जाती है.

इस प्रकार के व्यवहार के पीछे वजह चाहे जो भी हो पुरुषों को यह समझना बहुत ही जरूरी है कि हर मुद्दे और बात की समझ उन्हें हो ये जरूरी नहीं होता. उन्हें कभीकभी महिला को बोलने का मौका देना सीखना होगा. उन्हें अपने आसपास बैठी महिलाओं की बातों को बिना टोके सुनना सीखना होगा. उन्हें ये भी स्वीकारना होगा कि जिंदगी सिर्फ उन्हीं के अनुभवों से परिभाषित नहीं होती.

इस सोच का आधार पितृसत्ता और धर्म है

ऐसा नहीं है कि प्रत्येक पुरुष मैनस्प्लेनिंग करता है या फिर वह ऐसा जानबूझ कर करता है. परंपरागत तौर पर पुरुष को बेहतर मानने वाले व्यवहार की वजह से और इस तरह के माहौल में रहने की वजह से छोटे लड़कों में ही इस तरह की प्रवृत्ति समाज द्वारा विकसित कर दी जाती है. पुरुषों के इस तरह के व्यवहार के पीछे कई सारी वजहें होती है. बचपन से घरों में पुरुषों को ऊपर रखा जाता है. उन की हर बात को तवज्जो दी जाती है और अकसर उन्हें यह अहसास दिलाया जाता है कि घर की महिलाओं के आगे वे सुप्रीम हैं. चाहें अच्छे खाने की बात हो या अच्छी पढ़ाई की, ज्यादातर घर में लड़के को ही वरीयता दी जाती है. इस वजह से उन के अंदर मेल ईगो घर जमाने लगता है जो युवा होतेहोते उन के दिलोदिमाग पर गहरी जड़ें जमा लेता है. यही वजह है कि अधिकतर वे ये मान कर चलते हैं कि चूंकि सामने एक महिला है इसलिए वह हर बात में कमतर है. उसे कुछ नहीं पता और इसलिए बगैर मांगे सलाह देने लग जाते हैं.

पितृसत्तात्मक सोच कहीं न कहीं धर्म से कनैक्टेड हैं. ज्यादातर धर्म ग्रंथों में पुरुषों को ही सुप्रीम दर्जा दिया गया है. औरतों को उन की दासी की तरह ट्रीट किया जाता है. धर्म के द्वारा औरतों को पुरुषों के अधीन करना भी एक तरह की साजिश है. वे पुरुषों को औरतों का मालिक बना कर उन्हें लड़ने के लिए उकसाता है और यह दिखाता है कि पुरुष की गैर मौजूदगी में धर्म की वजह से औरतें सुरक्षित रहेंगी. पुरुष जब आपस में लड़ते हैं तो उन्हें प्रलोभन के रूप में स्त्री सौंपी जाती है. इस तरह यह दुष्चक्र चलता रहता है. जिस का नतीजा यह होता है कि पुरुष औरतों को अहमियत नहीं देते और उन्हें अपने बराबर का नहीं मानते.

कैसे बचें इस समस्या से

सब से पहले महिलाओं का खुद के लिए खड़ा होना जरुरी महिलाओं को ऐसा होने पर उसी समय तुरंत बोलने की जरूरत है. जिस तरह कुछ समय पहले एक बार अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हेरिस ने पूर्व राष्ट्रपति पेंस को तुंरत मौके पर बोल कर किया था. सीनेटर कमला हैरिस ने कहा, “मिस्टर उपराष्ट्रपति मैं बोल रही हूं.” जब उपराष्ट्रपति पेंस ने उन से बात करना जारी रखा तो उन्होंने मुसकराते हुए एक बार फिर दोहराया कि मैं बोल रही हूं.

दरअसल वैसी स्थिति में तुरंत बोलने पर सामने वाले को अपने गलत व्यवहार के बारे में पता चलता है. उसे खुद के व्यवहार को महसूस में मदद मिलती है. खुद के लिए खड़ा होने से आप का आत्मविश्वास बढ़ता है. साथ ही यह संदेश औरों तक जाता है कि आप खुद का सम्मान करते हैं और अनुचित हस्तक्षेप या खराब व्यवहार स्वीकार नहीं करेंगे. इस के विपरीत तुरंत न बोलने से दूसरे व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता है कि उस का व्यवहार अपमानजनक है और वह इसे कभी बदलने के बारे में सोचेगा ही नहीं.

बोलना है जरूरी

किसी भी समय आप को ऐसे व्यवहार के सामने चुप नहीं बैठना चाहिए. अपनी बात कहते रहें और पुरुषों को चुनौती देते रहें. जब भी ऐसा लगे कि औफिस में आप का स्पेस किसी पुरुष क्लीग के द्वारा खत्म किया जा रहा है तो वहां बोलना बहुत जरूरी है. अकसर महिलाएं सब कुछ जानने के बावजूद बोलना नहीं चाहती हैं और इस वजह से स्थिति खराब हो जाती है. आप जब तक अपने लिए बोलेंगी नहीं आप की आवाज को सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं होगा. आत्मविश्वास बनाएं रखें. जब हम किसी विषय पर काम कर रहे होते हैं तो हम उस के अनेक पहलुओं को जानते हैं. आप अपनी जानकारी जब तक सब के सामने नहीं रखेंगी तब तक आप की क्षमता का पता लोगों को खास कर बौस को कैसे चलेगा?

सामने वाले को टोकते हुए अपनी बात जारी रखें

वर्कप्लेस में मैनस्प्लेनिंग एक सामान्य व्यवहार है इसलिए जब भी आप औफिस में इस का सामना करती हैं तो विनम्रता से हस्तक्षेप करते हुए कहें, “मैं इस विषय से परिचित हूं” या “मैं अपनी बात रखने के बाद आप का दृष्टिकोण जानना चाहूंगी.” औफिस में महिलाएं खुद से अपनी बातों को रखने की कोशिश करें और जो स्पेस उन्हें मिला है उसे यूज करें. क्योंकि पुरुषों की बनाई दुनिया में अपना स्पेस क्लेम करना बहुत आवश्यक है. अगर आप की बात दब गई है तो आप उसे दोबारा बता कर सामने रखें. आप के प्रयास से ही चीजें बदलेंगी.

महिलाएं एकदूसरे को मदद करें

शोध से पता चलता है कि महिलाएं बैठकों में केवल 25 प्रतिशत समय ही बोलती हैं जबकि पुरुष शेष 75 प्रतिशत समय बोलते हैं. पुरुष न केवल विचारों को अधिक साझा करते हैं बल्कि वे अन्य पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक बार बाधित करते हैं. अगर महिलाएं एकदूसरे की मदद करते हुए एक साथ मिल कर काम करना शुरू करें और एकदूसरे का सपोर्ट करें तो वे अधिक समय तक अपनी बात रख सकेंगी. यह रणनीति महिलाओं को ऊपर उठाने के साथसाथ अपने स्वयं के बिंदुओं को साबित करने में भी मदद कर सकती है. जब मैनस्प्लेन किया जा रहा हो या बात की जा रही हो तो महिलाएं किसी अन्य महिला की ओर रीडायरैक्ट कर सकती हैं. उदाहरण के तौर पर वह मीटिंग में खुद के बाद बोलने के लिए किसी महिला को आमंत्रित करें. अगर कोई पुरुष सहकर्मी बीच में बोल रहा है तो उन्हें रूकने को कहें. यह मीटिंग में खुद की आवाज़ को अधिक समय तक रखने का एक तरीका है.

कौल आउट करें

फोर्ब्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर समय पुरुषों को एहसास नहीं होता है कि वे ऐसा कर रहे हैं और उन के व्यवहार को कौल आउट करने से समझ बढ़ती है. आप साफ तौर पर सामने वाले से कहें कि इस तरह उन का बीच में बोलना एटिकेट के खिलाफ है और आप को समस्या हो रही है. तब दूसरों का ध्यान भी आप पर जाएगा और पुरुषों को अपनी गलती का अहसास होगा.

मैन्सप्लेनिंग से महिलाओं को कमतर आंका जाता है. मैन्सप्लेनिंग का कार्य यह मानता है कि महिलाओं के पास वह ज्ञान या समझ नहीं है जो व्याख्या करने वाले के पास है. अकसर मामला इस के विपरीत होता है. मैन्सप्लेनिंग से महिला कर्मचारियों को यह महसूस हो सकता है कि उन्हें महत्व नहीं दिया जा रहा, उन्हें कमतर आंका जा रहा है और वे अक्षम हैं. इन भावनाओं से उत्पादकता में कमी आ सकती है और उन में अपनेपन की भावना कम हो सकती है, जिस के कारण कुछ महिलाएं अपनी कंपनियों को छोड़ कर ऐसी जगहों की तलाश में चली जाती हैं जहां उन्हें अधिक मूल्यवान और सराहनीय महसूस हो. विविधता प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कर्मचारियों, विशेष रूप से पुरुष कर्मचारियों को मैन्सप्लेनिंग और इसे कैसे रोका जा सकता है, के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए.

आस्था नहीं हताशा की वजह से बढ़ रहा धार्मिक माहौल

पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इसका सब से बड़ा कारण हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इंसान धर्म की शरण में चला जाता है. इस सदी का सब से बड़ा उदाहरण कोरोना के रूप में सामने आया, जिस में पूरी दुनिया के लोग फंसे हुए थे. इस से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना प्रयोग हुआ कि बाद में इस के प्रभाव से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.

रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की जिस के बारे में कहा कि यह उन को भी लाभ देगी जिन को कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी जिन को कोरोना नहीं हुआ है. दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती जो बचाव और इलाज दोनों करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का प्रयोग किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का प्रयोग होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का प्रयोग होता है. रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.

कोरोना के बाद कई तरह के शोध बताते हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का प्रभाव बढ़ाने का काम किया. चर्च में लोग कोविड-19 प्रतिबंधों के साथ प्रार्थना कर रहे थे. कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले 2 अध्ययनों से पता चलता है कि गैरधार्मिक लोगों की तुलना में धार्मिक लोगों में मनोवैज्ञानिक संकट कम हो गया था. वर्किंगपेपर के रूप में जारी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन के अनुसार, 2020 और 2021 में यूके के कोविड-19 लौकडाउन के दौरान धार्मिक आस्था वाले लोगों ने धर्मनिरपेक्ष लोगों की तुलना में कम स्तर की नाखुशी और तनाव का अनुभव किया.

कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले शोध से पता चलता है कि जो लोग व्यक्तिगत रूप से कोविड संक्रमण का अनुभव करने के बाद बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य में भी धार्मिक विश्वास को बनाए रहे उन की हालत में कुछ हद तक सुधार हुआ था. यह अध्ययन 2021 की शुरुआत के दौरान अमेरिकी लोगों पर हुआ था.

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि कुल मिला कर इन अध्ययनों से पता चलता है कि वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल जैसे संकट के खिलाफ धर्म ने एक ढाल के रूप में कार्य किया. कैम्ब्रिज के भूमि अर्थव्यवस्था विभाग के प्रोफैसर शौन लारकाम और नवीनतम अध्ययन के सह लेखक ने कहा, ‘‘लोग पारिवारिक पृष्ठभूमि, जन्मजात गुणों या नए या मौजूदा संघर्षों से निबटने के कारण धार्मिक बन सकते हैं.

‘‘कोविड-19 महामारी एक असाधारण घटना थी जो लगभग एक ही समय में सभी को प्रभावित कर रही थी, इसलिए हम पूरे समाज के नकारात्मक प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं. इस को मापने का एक अवसर मिला कि कुछ लोगों के लिए किसी संकट से निबटने में धर्म महत्त्वपूर्ण था.’’

लारकाम और उन के कैम्ब्रिज सहयोगियों प्रोफैसर श्रेया अय्यर और डा. पोवेन शी ने पहले 2 राष्ट्रीय लौकडाउन के दौरान यूके में 3,884 लोगों से एकत्र किए गए सर्वेक्षण डेटा का विश्लेषण किया और इस की तुलना महामारी से पहले डेटा से की. उन्होंने पाया कि जबकि लौकडाउन सार्वभौमिक नाखुशी में वृद्धि से जुड़ा था, उन लोगों के लिए दुखी महसूस करने में औसत वृद्धि 29 फीसदी कम थी जो खुद को एक धर्म से संबंधित बताते थे.

कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी. उस का कारण यह था कि चारों तरफ हताशा का माहौल था. लोगों को लग रहा था कि धर्म ही इस से बाहर निकाल सकता है. कोरोना के खत्म होने के बाद भी लौकडाउन का प्रभाव तमाम तरह की परेशानियां ले कर आया. इन में एक सब से बड़ी दिक्कत हो रही है अचानक होने वाली मृत्यु. हार्ट की बीमारियों के कारण युवाओं में मौत की घटनाएं बढ़ रही हैं.

असफलता में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक

भारत में इस बीच लोगों में धर्म का प्रभाव बढ़ गया. धर्म का ही प्रभाव था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए. जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था, कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे.

उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जीवन रहेगा या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशाभरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. उस डर और हताशा ने धर्म के प्रति आस्था को बढ़ावा दिया. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना. जादूटोना कराना ऐसे तमाम माध्यम हैं जिन के जरिए लोग अपनी हताशा से निकलने का काम करते हैं.

मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज ?का युवा इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है. पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराशभाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है. परीक्षा पास आती है तो युवा परीक्षा पास करने की गुजारिश ले कर यहां आते हैं.

मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं मुकदमे के पक्ष का फैसला अपने पक्ष में कराने के लिए. बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है. जब इन को पता चलता है कि इस मंदिर के दर्शन से होगा तो वहां जाएंगे, जब किसी पूजा से काम होने वाला होगा तो वह करवाएंगे. यह बढ़ती धार्मिक आस्था के कारण ही होता है.

बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे. डाक्टरों के औपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. वाहनचालक अपने आगे भगवान रखते हैं जिस से कोई ऐक्सिडैंट न हो. धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.

जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमे?ागड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी; वैसेवैसे धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में नौकरी मांगेंगे.

अब सहायक दलों के सहारे नरेंद्र मोदी

80 के दशक में जब जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ, उस की राजनीति का केंद्र अयोध्या का राम मंदिर बना. अयोध्या में राम मंदिर का विवाद नया नहीं था. यह अदालत में चल रहा था. आजादी के बाद कांग्रेस इस मुद्दे को ले कर असमंजस में थी. कांग्रेस का एक धड़ा इस के समर्थन में था जबकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सोच इस मुद्दे से दूर रहने की थी. जिस वजह से 80 के दशक तक यह मुद्दा फैजाबाद की कचहरी तक सीमित था. भाजपा को इस मुद्दे में जान दिख रही थी. आरएसएस इस आंदोलन की भूमिका बना चुका था. इस के लिए विश्व हिंदू परिषद और रामजन्मभूमि न्यास का गठन हो चुका था.

आरएसएस की सोच इस मुद्दे की लड़ाई को कोर्टकचहरी से बाहर राजनीतिक रूप से लड़ने की थी. इस में भाजपा की भूमिका प्रमुख थी. आंदोलन को धार देने के लिए शिलापूजन और ईंटपूजन जैसे कार्यक्रम हुए. जनता का रु?ान देख कर उस समय कांग्रेस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर अयोध्या मसले में दखल देने का दबाव बना.

इस के बाद कांग्रेस ने मंदिर का ताला खुलवाने में प्रमुख भूमिका अदा की. उस समय भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इस की कमान सौंपी गई. उन के साथ कई प्रमुख नेताओं को लगाया गया. सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा की कमान उन के हाथ में थी.

इस मुद्दे का असर था कि 1984 में लोकसभा की 2 सीटें जीतने वाली भाजपा ने 1989 के लोकसभा चुनाव में 88 सीट पा गई. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में मंदिर मुद्दे ने कांग्रेस का नुकसान किया. नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री बने, उस के बाद आज तक कांग्रेस कभी उत्तर प्रदेश में सरकार नहीं बना पाई.

उत्तर प्रदेश में राममंदिर आंदोलन बढ़ा. प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने कमंडल की इस राजनीति का मुकाबला करने के लिए मंडल कमीशन की मांगें मान लीं. इस को ‘मंडल बनाम कमंडल’ मुद्दे के रूप में जाना जाता है.

1992 में कारसेवकों ने राममंदिर पर कार सेवा करने के नाम पर ढांचा गिरा दिया. इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे भाजपा नेता कल्याण सिंह, जिस वजह से पुलिस ने बल प्रयोग नहीं किया. 1999 से 2004 की अटल सरकार पर दबाव बना, लेकिन कुछ हो नहीं पाया. 2009 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष में आया, जिस को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.

10 साल बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को अतार्किक हल किया. मंदिर और मसजिद बनाने का रास्ता खोल दिया. उस समय केंद्र की मोदी सरकार ने इसे लपक लिया और मंदिर बनाने की कवायद सरकार ने ले ली. आज भी रामजन्मभूमि ट्रस्ट केवल दिखावे के लिए है.

मोदी सरकार ने 2024 के लोकसभा चुनाव के केंद्र में राममंदिर को रख कर तैयारी शुरू की. इस की योजना यह थी कि चुनाव के पहले मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम हो पाए. भूमिपूजन से ले कर प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम चुनावी और भव्य रखे गए जिस से वोट लेने में मदद मिले. भाजपा को उम्मीद थी कि चुनाव में मंदिर दर्शन न करने वाले नेताओं को जनता नकार देगी.

भाजपा को उम्मीद थी कि 2024 में उस की जीत में कोई दिक्कत नहीं आएगी. इसी आत्मविश्वास में 400 पार का नारा दे दिया. जब 4 जून को चुनाव परिणाम आए तो भाजपा को सब से करारी हार राम के उत्तर प्रदेश में मिली.

भाजपा का राममंदिर कार्ड पूरी तरह से फेल हो गया. पूरे देश में भाजपा को केवल 240 सीटें मिलीं हैं.

2024 के ताजा आमचुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन ने राजनीति से मंदिर मुद्दे का फिलहाल पटाक्षेप कर दिया है. अब एनडीए की यह सरकार 1999 वाली अटल सरकार की तरह हिंदूवादी विवादित मुद्दों से दूर रहना पड़ेगा. नरेंद्र मोदी को अपनी कट्टर हिंदूवादी धार्मिक छवि सुधारनी होगी.

गर्भदान : वीनी उस बच्ची के लिए निष्ठुर कैसे हो सकती है

‘‘नहीं, आरव, यह काम मुझ से नहीं होगा. प्लीज, मुझ पर दबाव मत डालो.’’

‘‘वीनी, प्लीज समझने की कोशिश करो. इस में कोई बुराई नहीं है. आजकल यह तो आम बात है और इस छोटे से काम के बदले में हमारा पूरा जीवन आराम से गुजरेगा. अपना खुद का घर लेना सिर्फ मेरा ही नहीं, तुम्हारा भी तो सपना है न?’’

‘‘हां, सपना जरूर है पर उस के लिए…? छि…यह मुझ से नहीं होगा. मुझ से ऐसी उम्मीद न रखना.’’

‘‘वीनी, दूसरे पहलू से देखा जाए तो यह एक नेक काम है. एक निसंतान स्त्री को औलाद का सुख देना, खुशी देना क्या अच्छा काम नहीं है?’’

‘‘आरव, मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत नहीं हूं. मुझे ज्यादा समझाने की कोई आवश्यकता नहीं.’’

‘‘हां वीनी, तुम कोई गंवार स्त्री नहीं हो. 21वीं सदी की पढ़ी हुई, मौडर्न स्त्री हो. अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हो. इसीलिए तो मैं तुम से यह उम्मीद रखता हूं. आखिर उस में बुरा ही क्या है?’’

‘‘यह सब फालतू बहस है, आरव, मैं कभी इस बात से सहमत नहीं होने वाली हूं.’’

‘‘वीनी, तुम अच्छी तरह जानती हो. इस नौकरी में हम कभी अपना घर खरीदने की सोच भी नहीं सकते. पूरा जीवन हमें किराए के मकान में ही रहना होगा और कल जब अपने बच्चे होंगे तो उन को भी बिना पैसे हम कैसा भविष्य दे पाएंगे? यह भी सोचा है कभी?’’

‘‘समयसमय की बात है, आरव, वक्त सबकुछ सिखा देता है.’’

‘‘लेकिन वीनी, जब रास्ता सामने है तो उस पर चलने के लिए तुम क्यों तैयार नहीं? आखिर ऐसा करने में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? तुम्हें मेरे बौस के साथ सोना थोड़े ही है?’’

‘‘लेकिन, फिर भी 9 महीने तक एक पराए मर्द का बीज अपनी कोख में रखना तो पड़ेगा न? नहींनहीं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?’’

‘‘कभी न कभी तुम को बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखना तो है ही न?’’

‘‘यह एक अलग बात है. वह बच्चा मेरे पति का होगा. जिस के साथ मैं ने जीनेमरने की ठान रखी है. जिस के बच्चे को पालना मेरा सपना होगा, मेरा गौरव होगा.’’

‘‘यह भी तुम्हारा गौरव ही कहलाएगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो पता है न? नहीं, आरव, मुझ से यह नहीं होगा.’’

पिछले एक हफ्ते से घर में यही एक बात हो रही थी. आरव वीनी को समझाने की कोशिश करता था. लेकिन वीनी तैयार नहीं हो रही थी.

बात कुछ ऐसी थी. मैडिकल रिपोर्ट के मुताबिक आरव के बौस की पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता था. और साहब को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने का विचार पसंद नहीं था. न जाने किस का बच्चा हो, कैसा हो. उसे सिर्फ अपना ही बच्चा चाहिए था. साहब ने एक बार आरव की पत्नी वीनी को देखा था. साहब को सरोगेट मदर के लिए वह एकदम योग्य लगी थी. इसीलिए उन्होंने आरव के सामने एक प्रस्ताव रखा. यों तो अस्पताल किसी साधारण औरत को तैयार करने के लिए तैयार थे पर साहब को लगा था कि उन औरतों में बीमारियां भी हो सकती हैं और वे बच्चे की गर्भ में सही देखभाल न करेंगी. प्रस्ताव के मुताबिक अगर वीनी सरोगेट मदर बन कर उन्हें बच्चा देती है तो वे आरव को एक बढि़या फ्लैट देंगे और साथ ही, उस को प्रमोशन भी मिलेगा.

बस, इसी लालच में आरव वीनी के पीछे पड़ा था और वीनी को कैसे भी कर के मनाना था. यह काम आरव पिछले एक हफ्ते से कर रहा था. लेकिन इस बात के लिए वीनी को मनाना आसान नहीं था. आरव कुछ भी कर के अपना सपना पूरा करना चाहता था. लेकिन वीनी मानने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘वीनी, इतनी छोटी सी बात ही तो है. फिर भी तुम क्यों समझ नहीं रही हो?’’

‘‘आरव, छोटी बात तुम्हारे लिए होगी. मेरे लिए, किसी भी औरत के लिए यह छोटी बात नहीं है. पराए मर्द का बच्चा अपनी कोख में रखना, 9 महीने तक उसे झेलना, कोई आसान बात नहीं है. मातृत्व का जो आनंद उस अवस्था में स्त्री को होता है, वह इस में कहां? अपने बच्चे का सपना देखना, उस की कल्पना करना, अपने भीतर एक रोमांच का एहसास करना, जिस के बलबूते पर स्त्री प्रसूति की पीड़ा हंसतेहंसते झेल सकती है, यह सब इस में कहां संभव है? आरव, एक स्त्री की भावनाओं को आप लोग कभी नहीं समझ सकते.’’

‘‘और मुझे कुछ समझना भी नहीं है,’’ आरव थोड़ा झुंझला गया.

‘‘फालतू में छोटी बात को इतना बड़ा स्वरूप तुम ने दे रखा है. ये सब मानसिक, दकियानूसी बातें हैं. और फिर जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ाबहुत खोना भी पड़ता है न? यहां तो सिर्फ तुम्हारी मानसिक भावना है, जिसे अगर तुम चाहो तो बदल भी सकती हो. बाकी सब बातें, सब विचार छोड़ दो. सिर्फ और सिर्फ अपने आने वाले सुनहरे भविष्य के बारे में सोचो. अपने घर के बारे में सोचो. यही सोचो कि कल जब हमारे खुद के बच्चे होंगे तब हम उन का पालन अच्छे से कर पाएंगे. और कुछ नहीं तो अपने बच्चे के बारे में सोचो. अपने बच्चे के लिए मां क्याक्या नहीं करती है?’’ आरव साम, दाम, दंड, भेद कोई भी तरीका छोड़ना नहीं चाहता था.

आखिर न चाहते हुए भी वीनी को पति की बात पर सहमत होना पड़ा. आरव की खुशी का ठिकाना न रहा. अब बहुत जल्द सब सपने पूरे होने वाले थे.

अब शुरू हुए डाक्टर के चक्कर. रोजरोज अलग टैस्ट. आखिर 2 महीनों की मेहनत के बाद तीसरी बार में साहब के बीज को वीनी के गर्भाशय में स्थापित किए जाने में कामयाबी मिल गई. आईवीएफ के तीसरे प्रयास में आखिर सफलता मिली.

वीनी अब प्रैग्नैंट हुई. साहब और उन की पत्नी ने वीनी को धन्यवाद दिया. वीनी को डाक्टर की हर सूचना का पालन करना था. 9 महीने तक अपना ठीक से खयाल रखना था.

वीनी के उदर में शिशु का विकास ठीक से हो रहा था, यह देख कर सब खुश थे. लेकिन वीनी खुश नहीं थी. रहरह कर उसे लगता था कि उस के भीतर किसी और का बीज पनप रहा है, यही विचार उस को रातदिन खाए जा रहा था. जिंदगी के पहले मातृत्व का कोई रोमांच, कोई उत्साह उस के मन में नहीं था. बस, अपना कर्तव्य समझ कर वह सब कर रही थी. डाक्टर की सभी हिदायतों का ठीक से पालन कर रही थी. बस, उस के भीतर जो अपराधभाव था उस से वह मुक्ति नहीं पा रही थी. लाख कोशिशें करने पर भी मन को वह समझा नहीं पा रही थी.

आरव पत्नी को समझाने का, खुश रखने का भरसक प्रयास करता रहता पर एक स्त्री की भावना को, उस एहसास को पूरी तरह समझ पाना पुरुष के लिए शायद संभव नहीं था.

वीनी के गर्भ में पलबढ़ रहा पहला बच्चा था, पहला अनुभव था. लेकिन अपने खुद के बच्चे की कोई कल्पना, कोई सपना कहां संभव था? बच्चा तो किसी और की अमानत था. बस, पैदा होते ही उसे किसी और को दे देना था. वीनी सपना कैसे देखती, जो अपना था ही नहीं.

बस, वह तो 9 महीने पूरे होने की प्रतीक्षा करती रहती. कब उसे इस बोझ से मुक्ति मिलेगी, वीनी यही सोचती रहती. मन का असर तन पर भी होना ही था. डाक्टर नियमितरूप से सारे चैकअप कर रहे थे. कुछ ज्यादा कौंप्लीकेशंस नहीं थे, यह अच्छी बात थी. साहब और उन की पत्नी भी वीनी का अच्छे से खयाल रखते. जिस से आने वाला बच्चा स्वस्थ रहे. लेकिन भावी के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सकता है. होनी के गर्भ से कब, कैसी पल का प्रसव होगा, कोई नहीं कह सकता है.

वीनी और आरव का पूरा परिवार खुश था. किसी को सचाई कहां मालूम थी?

सातवें महीने में बाकायदा वीनी की गोदभराई भी हुई. जिस दिन की कोई भी स्त्री उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती है, उस दिन भी वीनी खुश नहीं हो पा रही थी. अपने स्वजनों को वह कितना बड़ा धोखा दे रही थी. यही सोचसोच कर उस की आंखें छलक जाती थीं.

गोदभराई की रस्म बहुत अच्छे से हुई. साहब और उन की पत्नी ने उसी दिन नए फ्लैट की चाबी आरव के हाथ में थमाई. आरव की खुशी का तो पूछना ही क्या?

आरव पत्नी की मनोस्थिति नहीं समझता था, ऐसा नहीं था. उस ने सोचा था, बस 2 ही महीने निकालने हैं न. फिर वह वीनी को ले कर कहीं घूमने जाएगा और वीनी धीरेधीरे सब भूल जाएगी. और फिर से वह नौर्मल हो जाएगी.

आरव फ्लैट देख कर खुशी से उछल पड़ा था. उस की कल्पना से भी ज्यादा सुंदर था यह फ्लैट. बारबार कहने पर भी वीनी फ्लैट देखने नहीं गई थी. बस, मन ही नहीं हो रहा था. उस मकान की उस ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी, ऐसा उस को प्रतीत हो रहा था. बस, जैसेतैसे

2 महीने निकल जाएं और वह इन सब से मुक्त हो जाए. नियति एक स्त्री की भावनाओं के साथ यह कैसा खेल खेल रही थी, यही खयाल उस के दिमाग में आता रहता था. इसी बीच, आरव का प्रमोशन भी हो चुका था. साहब ने अपना वादा पूरी ईमानदारी से निभाया था.

लेकिन 8वां महीना शुरू होते ही वीनी का स्वास्थ्य बिगड़ा. उस को अस्पताल में भरती होना पड़ा. और वहां वीनी ने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची 9 महीना पूरा होने से पहले ही आ गई थी, इसीलिए बहुत कमजोर थी. बड़ेबड़े डाक्टरों की फौज साहब ने खड़ी कर दी थी.

बच्ची की स्थिति धीरेधीरे ठीक हो रही थी. अब खतरा टल गया था. अब साहब ने बच्ची मानसिकरूप से नौर्मल है या नहीं, उस का चेकअप करवाया. तभी पता चला कि बच्ची शारीरिकरूप से तो नौर्मल है लेकिन मानसिकरूप से ठीक नहीं है. उस के दिमाग के पूरी तरह से ठीक होने की कोई संभावना नहीं है.

यह सुनते ही साहब और उन की पत्नी के होश उड़ गए. वे लोग ऐसी बच्ची के लिए तैयार नहीं थे. साहब ने आरव को एक ओर बुलाया और कहा कि बच्ची का उसे जो भी करना है, कर सकता है. ऐसी बच्ची को वे स्वीकार नहीं कर सकते. अगर उस को भी ऐसी बच्ची नहीं चाहिए तो वह उसे किसी अनाथाश्रम में छोड़ आए. हां, जो फ्लैट उन्होंने उसे दिया है, वह उसी का रहेगा. वे उस फ्लैट को वापस मांगने वाले नहीं हैं.

आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? साहब और उन की पत्नी तो अपनी बात बता कर चले गए. आरव सुन्न हो कर खड़ा ही रह गया.

वीनी को जब पूरी बात का पता चला तब एक पल के लिए वह भी मौन हो गई. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

तभी नर्स आ कर बच्ची को वीनी के हाथ में थमा गई. बच्ची को भूख लगी थी. उसे फीड कराना था. बच्ची का मासूम स्पर्श वीनी के भीतर को छू गया. आखिर अपने ही शरीर का एक अभिन्न हिस्सा थी बच्ची. उसी के उदर से उस ने जन्म लिया था. यह वीनी कैसे भूल सकती थी. बाकी सबकुछ भूल कर वीनी ने बच्ची को अपनी छाती से लगा लिया. सोई हुई ममता जाग उठी.

दूसरे दिन आरव ने वीनी के पास से बच्ची को लेना चाहा और कहा, ‘‘साहब, उसे अनाथाश्रम में छोड़ आएंगे और वहां उस की अच्छी देखभाल का बंदोबस्त भी करेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है.’’

‘‘सौरी आरव, यह मेरी बच्ची है, मैं ने इसे जन्म दिया है. यह कोई अनाथ नहीं है,’’ वीनी ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘पर वीनी…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आरव.’

‘‘पर वीनी, यह बच्ची मैंटली रिटायर्ड है. इस को हम कैसे पालेंगे?’’

‘‘जैसी भी है, मेरी है. मैं ही इस की मां हूं. अगर हमारी बच्ची ऐसी होती तो क्या हम उसे अनाथाश्रम भेज देते?’’

‘‘लेकिन वीनी…’’

‘‘सौरी आरव, आज कोई लेकिनवेकिन नहीं. एक दिन तुम्हारी बात मैं ने स्वीकारी थी. आज तुम्हारी बारी है. यह हमारे घर का चिराग बन कर आई है. हम इस का अनादर नहीं कर सकते. जन्म से पहले ही इस ने हमें क्याक्या नहीं दिया है?’’

आरव कुछ पल पत्नी की ओर, कुछ पल बच्ची की ओर देखता रहा. फिर उस ने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार करने लगा.

‘‘वीनी, हम इस का नाम क्या रखेंगे?’’

वीनी बहुत लंबे समय के बाद मुसकरा रही थी.

भूलकर भी न कहें अपने बच्चों से ये 9 बातें

कार्ल पिकहार्डट एक मनोवैज्ञानिक और लेखक हैं जिन्होंने पेरेंटिंग पर 15 से ज्यादा किताबें लिखी हैं. उन का कहना है कि जिस बच्चे में आत्मविश्वास नहीं होता वह कुछ भी नया या चुनौती भरा काम करने से हिचकिचाता है. क्योंकि उसे नाकामयाब होने का डर रहता है. इस से बड़ा हो कर भी वह बच्चा दूसरों से पीछे रह जाता है और एक सफल करियर नहीं बना पाता.

एक अभिभावक के रूप में आप को हमेशा अपने बच्चे का सपोर्ट करना चाहिए. उसे हर काम के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें बच्चे से कभी भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि ऐसी बातें उस के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचाती हैं.

  1. लड़के/लड़कियां ऐसा नहीं करते

एक बच्चा सिर्फ एक मासूम बच्चा होता है. वह लड़का या लड़की नहीं होता. उसे जेंडर रूल्स न सिखाएं. उसे जो करना पसंद है उसे करने दें. किसी चीज को जानना चाहता है तो जानने दें.

उदाहरण के लिए आप का बेटा किचन में रोटी बनाने की कोशिश करे तो यह कहने की जरूरत नहीं लड़के रोटी नहीं बनाते. उलटा उस के प्रयास की सराहना करें. ताकि बचपन से उस के मन में लड़का होने का दंभ न भर जाए.

  1.  मुझ से बात मत करो

अपने बच्चे के साथ बातचीत का मार्ग हमेशा खुला रखें. उसे कभी भी बात/बहस न करने की बात नहीं करें. उन्हें सवाल करने और जिज्ञासा जाहिर करने की छूट हमेशा दें. उन्हें मौका दें कि वे विभिन्न मुद्दों पर अपने मन की बात सामने रखें कि वे क्या चाहते या सोचते हैं.

  1.  पापा को आने दो

यह बच्चों को डराने का बहुत पुराना नुस्खा है पर इस तरह बच्चों को डराना बहुत गलत है. इस से बच्चे के मन में चिंता और डर पैदा होते हैं. वह जहां अपने पापा से दूर होता जाता है वही आप बच्चे को अनजाने में यह समझा रही होती हैं कि आप में बच्चे को संभालने की क्षमता नहीं.

मान लीजिए कि बच्चे के हाथों से कोई कीमती चीज टूट गई है. सीधेसीधे धमकी भरे अंदाज में उसे यह कहने कि पापा को आने दो बताती हूं  के बजाय आप उस से पूछें कि इस बाबत पापा से मैं बात करूं या फिर आप खुद पापा के आगे अपनी बात रखेंगे और बताएंगे कि ऐसा गलती से हो गया. बच्चे के अंदर यह साहस भरे कि वह बड़ों के आगे अपनी गलती स्वीकार कर अपना पक्ष रखें.

  1. स्ट्रेट नो न कहे

छोटे से बच्चे को कभी सीधे तौर पर न मत कहें. इस से वे अपने अभिभावकों के प्रति विश्वास खो देंगे. यदि आप को बच्चे की कोई बात ठीक न लगे तो उन्हें अलग तरह से समझाएं जैसे चिल्लाओ मत के बजाय आराम से बोलो डियर या फिर घर में मत खेलों के बजाय तुम अपने दोस्तों को पार्क में बुला कर खेलो, बहुत मजा आएगा.

  1. तुम यह नहीं कर सकते

अपने बच्चे के आत्मविश्वास को ठेस न पहुंचाएं. कई दफा ऐसी परिस्थिति भी आ सकती है जब आप का बच्चा कुछ करने की जिद कर रहा हो और आप जानते हो कि वह ऐसा नहीं कर सकता. ऐसे में उसे साफ इनकार करने के बजाय वह काम करने का मौका दें.

मान लीजिये कि आप का बच्चा एक भारी कुर्सी उठाने जा रहा है जो उस की उम्र में संभव नहीं. ऐसे में एकदम से रोकने के बजाय उसे कहिए कि चलो मैं भी तुम्हारी मदद करता हूं या हम दोनों मिल कर इसे उठाएंगे. बच्चे कोशिश करतेकरते ही सीखते हैं. यदि आप उसे हर बात में नकारात्मक ढंग से टोकेंगे तो वह कुछ नया करने की कोशिश ही नहीं करेगा और समय के साथ उस के व्यक्तित्व में निखार आने के बजाय वह दब्बू और डरपोक किस्म का बच्चा बनता जाएगा.

  1.  तुम्हारे जैसे बच्चे को कोई पसंद नहीं करता

अपने बच्चों के जेहन में उन की नकारात्मक छवि न बनाए. उसे खुद से प्यार करना सिखाएं और गलतियों के लिए उस पर ब्लेम करने के बजाय अपनी गलतियां भी देखें. सही बातें समझाएं. उसे सही दिशा दें न कि उस के वजूद को ललकारने लगे. एक मांबाप अपने बच्चे को जो सब से खूबसूरत तोहफा दे सकते हैं वह है आत्मविश्वास.

  1. मुझे अकेला छोड़ दो

भले ही आप किसी बात पर बहुत परेशान हों, बच्चा आप को इरिटेट कर रहा हो, उसे कभी भी यह न कहें कि मुझे अकेला छोड़ दो. इस से बच्चे के नाजुक मन पर असर पड़ेगा. उसे लगेगा कि आप उसे प्यार नहीं करते और छुटकारा पाना चाहते हैं.

  1. तुम एक बैड बौय/गर्ल हो

अपने बच्चे से कभी भी उस के बारे में नकारात्मक बातें न करें. इस से बच्चे का आत्मविश्वास घट जाता है. बच्चे मासूम होते हैं और हर चीज में अच्छा देखते हैं. उन्हें प्यार से समझाएं कि कैसे कुछ वर्डस और एक्टिविटीज दूसरे को हर्ट कर सकती हैं. उन से कहें कि तुम दुनिया के सब से अच्छे बच्चे हो इसलिए दूसरों को दुख पहुंचाने वाले काम कभी भी मत करना. ऐसा करने पर यकीनन बच्चे कभी भी आप को शर्मिंदा नहीं होने देंगे.

  1.  तुम अपने भाईबहन जैसे क्यों नहीं

फिल्म ‘तारे जमीन पर’ इसी  विषय पर केंद्रित थी कि एक ही मांबाप के 2 बच्चों में भी स्वभाव  और योग्यता में बहुत अंतर होता है. यदि आप बारबार बच्चे को अपने भाईबहन जैसा बनने को कहेंगे तो उस के अंदर ईर्ष्या के भाव पैदा होने लगेंगे. उसे लगेगा जैसे पापा ने उसे अकेला छोड़ दिया है. इस  से आप के बच्चों के मन में एकदूसरे के प्रति विद्वेष की भावना पैदा होने लगेगी.

किसको कहे कोई अपना

सुधा बहुत दिनों से राजेश्वर में एक प्यारा सा बदलाव देख रही थी. धीरगंभीर राजेश्वर आजकल अनायास मुसकराने लगते, कपड़ों पर भी वे विशेष ध्यान देते हैं. पहले तो एक ड्रैस को वे 2 व 3 दिनों तक औफिस में चला लेते थे, पर अब रोज नई ड्रैस पहनते हैं. हमेशा अखबार या टीवी की खबरों में डूबे रहने वाले राजेश्वर अब बेटे द्वारा गिफ्ट किया सारेगामा का कारवां में पुराने गाने सुनने लगे थे.

सुधा भी सारी जिम्मेदारियां खत्म होने पर राहत महसूस कर रही थी. वह सोच रही थी राजेश्वर में भी बदलाव का यही कारण था. सुधा को एक ही दुख था कि राजेश्वर उस से रूठेरूठे रहते हैं. वह जानती थी कि इस में सारी गलती पति की नहीं है पर वह भी तो उस समय पूरे घर की जिम्मेदारियों में डूब कर राजेश्वर के मीठे प्रस्तावों को अनदेखा कर दिया करती थी.

राजेश्वर के औफिस जाने के बाद सुधा चाय का कप लिए सोफे पर आ बैठी. काम वाली बाई को 11 बजे आना था. चाय पीतेपीते सुधा अतीत की लंबी गलियों में निकल पड़ी.

20 साल की उम्र में म्यूजिक विषय के साथ बीए किया था. वह कालेज की लता मंगेशकर कहलाती थी. वह बहुत भोली, नम्र भी थी. संगीत विषय में एमए करना चाहती थी. पर मातापिता विवाह के लिए पात्र देखने लगे. ऐसे में राजेश्वर का रिश्ता आ गया. वे सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी थे. पिता नहीं थे. विरासत में

2 हवेलियां मिली थीं. एक भाई, 2 बहनें, मां, भरापूरा परिवार. वे बस, घरेलू लड़की जो घरपरिवार को संभालने और बांध के रखने में सक्षम हो, चाहते थे. दानदहेज की कोई डिमांड नहीं थी.

सुधा के परिवार को रिश्ता भा गया. बस, 20 साल की उम्र में सुधा दुलहन बन राजेश्वर की बड़ी हवेली में आ गई. पायल की रुनझुन और चूडि़यों की खनखनाहट से राजेश्वर का दिल धड़क उठा. सब ने अनुरोध कर के 4 दिनों के लिए दोनों को मसूरी घूमने भेजा. बस, उस के बाद सुधा के सिर पर जिम्मेदारियों का भारी ताज पहना दिया गया.

अब पारिवारिक जिम्मेदारी और सब को खुश रखना, बस ये 2 बातें ही सुधा के जेहन में रह गईं, बाकी सब भूल गई. पूरे घर का काम उस के नाजुक कंधों पर आ गया. सास, गठिया वात की मरीज, देवर और ननदों पर पढ़ाई का जोर. बस, सुधा ही सारा दिन नाचती रहती. कभीकभी ननदों का सहयोग मिल जाता, तो कुछ आराम मिल जाता.

रिश्तेदारों के सामने जब घर वाले सुधा की खुल कर तारीफ करते तो सुधा फूली न समाती. सास की बहूबहू, ननदों और देवर की भाभीजीभाभीजी और राजेश्वर की सुधासुधा की आवाजों से हवेली मुखरित रहती. सुधा तो ससुराल में ऐसी रम गई कि अपनेआप को ही भुला बैठी.

राजेश्वर रात को बड़ी बेताबी से सुधा की राह देखते पर सुधा को तो 11 बजे तक बरतन धोने, अगले दिन के खानेनाश्ते के मेनू बनाने, दही जमाने से फुरसत न मिलती. खीझ कर राजेश्वर सो जाते. वे भी औफिस से थक कर आते थे.

कभी 11 या 12 बजे तक सुधा को फुरसत मिल भी जाए तो वह मसाले और हींग की बास मारते कपड़े पहने राजेश्वर की बगल में जा लेटती. गुस्से में भरे वे या तो सोफे पर जा लेटते या मुंह फेर कर सो जाते. भोली और सीधी सुधा कभी यह न समझ पाई कि अपनी ससुराल की कश्ती खेतेखेते वह अपनी सोेने सी गृहस्थी को डुबोती जा रही है. इसी दौरान बेटा भी हो गया.

मुश्किल से 40 दिन आराम कर के फिर कोल्हू के बैल जैसी जुट गई. धीरेधीरे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं. ननदों और देवर की शादियों की सारी जिम्मेदारी सुधा और राजेश्वर पर थी. वे अकेले कमाने वाले थे. अब देवर की नौकरी लग गई तो उस की भी शादी कर दी. सास का देहांत हो चुका था.

देवरानी के चाव भी सुधा को पूरे करने पड़े. वह नए जमाने की लड़की थी. सुधा जैसा ठहराव उस में न था. घरपरिवार के कामों में न तो रुचि और न ही बहू होने के कर्तव्य का एहसास था. सुधा चुपचाप लगी रहती. देवरानी बहाना बना किचन से निकल जाती. सुधा घर की बड़ी बहू के एहसास में दबी कुछ न कहती.

ननदों और उन की ससुराल से आने वालों की कैसे खातिरदारी करनी है, क्या लेनादेना है, सारी सिरदर्दी सुधा की थी. देवरानी तो सजधज के मेहमानों से बतियाने में चतुर थी.

देवर ने बड़ी होशयारी से बड़े भाई राजेश्वर को खुद के छोटी हवेली में जाने को मना लिया. देवरदेवरानी छोटी हवेली में शिफ्ट हो गए. बेटा अतुल 12वीं कर इंजीनियरिंग कालेज चला गया था. अचानक फोन की आवाज से सुधा वर्तमान में लौट आई. उस की भतीजी अंजू का फोन था. वह वकील थी और इसी शहर में रहती थी.

इतनी दौड़भाग में सुधा समय से पहले ही बुजुर्ग लगने लगी. एक दिन राजेश्वर के किसी खास मित्र के घर में पार्टी थी. सुधा को आग्रह कर आने को कहा था. सुधा अपनी ओर से बहुत सलीके से तैयार हो कर गई थी, पर चेहरा आभाहीन था, बालों में सफेदी झांकने लगी थी. वहां जा कर सब के बीच उसे बड़ा अटपटा लगने लगा. राजेश्वर के सुदर्शन व्यक्तित्व के सामने वह बहुत ही फीकी दिख रही थी. सभी लोगों की निगाहें उस पर थीं, आखिर सुधा उन के बौस की पत्नी थी. कुछ महिलाओं ने तो यह कह दिया कि मैडम, आप अपना ध्यान नहीं रखतीं, इतनी छोटी उम्र में बुजुर्ग लगने लगी हो. यह सुन वह झेंप गई. राजेश्वर भी खिसियाने से हो गए.

राजेश्वर उस से खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. भोली सुधा सोचती, मैं तो उन के घरपरिवार की सेवा ही करती रही, फिर भी मुझ से अलगाव क्यों? समय का पहिया आगे बढ़ गया था. अतुल की पढ़ाई खत्म हो गई थी. मुंबई की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई थी.

औफिस की 4 दिनों की छुट्टी थी. सुधा का मन हुआ कि अब बेटा भी नौकरी कर आत्मनिर्भर हो गया है. उस की ओर से बेफिक्री हो गई है. कहीं घूमने का प्लान करते हैं. शायद राजेश्वर को भी थोड़ा बदलाव चाहिए. बेचारे घरपरिवार के कारण जीवन के वो लुत्फ न उठा पाए जो उन्हें मिलने चाहिए थे. देर न करते हुए उस ने शाम की चाय के बाद इन छुट्टियों में अपने दोनों की घूमने की प्लानिंग बताई. राजेश्वर कुछ देर चुप रहे, फिर ठंडे स्वर में बोले, ‘‘शुक्र है तुम्हें घरपरिवार से हट कर कुछ सूझा तो सही, पर माफ करना मैं बताना भूल गया, मेरा कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाने का प्रोग्राम बन चुका है. कल सवेरे मुझे निकलना है.’’ यह सुन सुधा चुप रह गई.

राजेश्वर गोवा के लिए निकल गए. सुधा को एकाएक घर बहुत सूना लगने लगा. वह औटो कर छोटी हवेली देवरानी के घर चली गई. छोटी हवेली की साजसज्जा देख हैरान रह गई. उसे अपने घर की याद आई, बाबा आदम के जमाने का सोफा जो सास के समय से चला आ रहा था. पुराने समय की सजावट जिसे ठीक करने का सुधा और राजेश्वर के सिर पर जिम्मेदारियों के बोझ के रहते न तो समय मिला, न पैसा था जो कुछ कर पाते.

देवरानी किसी महारानी की तरह सजधज कर मैगजीन पढ़ रही थी. सुधा अपनी मामूली सी साड़ी की सिलवटें ठीक करने लगी. एक कृत्रिम मुसकराहट के साथ देवरानी गले लग गई. देवर बाहर गए थे. औपचारिक बातचीत होती रही. लंच के समय देवर भी आ गए. भाभी को अभिवादन कर भाई के बारे में पूछने लगे. सुधा ने जब दोस्तों के साथ गोवा जाने की बात कही, तो हैरान हो गए, बोले, ‘‘मैं तो भैया के सारे दोस्तों को जानता हूं. वे सब तो यहीं शहर में हैं. अभीअभी तो बाजार में ही मिले थे. पता नहीं कौन से दोस्त साथ गए हैं?’’

तभी खाना लग गया. घर में एक स्थायी मेड रखी थी. वह सारा काम देखती थी. उस ने कई तरह के व्यंजन टेबल पर सजा दिए. सुधा हैरान रह गई. शाम को देवर सुधा को कार से घर छोड़ने जाने लगा तो सुधा के मन में एक टीस सी उठी, वह घर पर अकेली थी, एक बार भी रात को रुकने को नहीं कहा. निराश सी कार में बैठ गई. जिस देवर को छोटे भाई की तरह रखा, वह समय के साथ कैसे बदल गया. इन लोगों के लिए मैं ने अपना जीवन कुरबान कर दिया. कोई मेरा न हुआ.

घर आ कर चाय बना कर बैठी ही थी कि मुंबई से बेटे अतुल का फोन आ गया. कुछ नाराज सी आवाज में बोला, ‘‘मम्मी, पापा क्या गोवा गए हैं?’’ सुधा ने हामी भरी तो वह बोला, ‘‘पापा ने मुझे एक फोन तक नहीं किया, मिलना तो दूर. और मां, वे किस के साथ गए हैं? मेरा दोस्त मनीष, पापा को जानता है. वह कह रहा था कि उन के साथ कोई महिला थी. जब उस ने पापा को दूर से अभिवादन किया तो वे उठ कर बाहर चले गए.’’

सुधा बोली, ‘‘किसी दोस्त की बीवी होगी या टेबल शेयर किया होगा.’’

बेटे के फोन से सुधा तनावग्रस्त हो गई. रातभर सोचती रही. दिन काटे नहीं कट रहे थे. 2 बार राजेश्वर को फोन लगाया पर फोन स्विचऔफ था. अगले दिन शहर में रहने वाली भतीजी को बुला लिया. वह वकील थी, फिर भी दोपहर बाद अपना लैपटौप ले कर आ गई. यहीं से काम करती रही, बूआ से बातचीत भी करती रही.

सुधा ने अपने मन की दुविधा अंजू को कह सुनाई. अंजू बोली, ‘‘बूआजी, फूफाजी ऐसा कुछ करेंगे, लगता तो नहीं पर आजकल कोर्ट में ऐसेऐसे केस आ रहे हैं कि कभीकभी शादी जैसे पवित्र बंधन पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं. आप अपनी किसी हौबी को फिर से शुरू करो. इस प्रकार खाली रहने से मन आशंकाओं से घिर जाता है. फिर भी कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद करना. मैं शहर में ही हूं.’’

सुधा का मन कुछ शांत हुआ. बूआभतीजी मिल कर बाजार गईं, चाटपकौड़ी खाई. सुधा ने अपना सालों पुराना हारमोनियम ठीक करवाया. सालों बाद सुर लगाने की कोशिश करने लगी. पर सुर ठीक नहीं लग पा रहे थे. सुधा मायूस हो गई. भतीजी अंजू ने समझाया, ‘‘बूआ, कोईर् भी हुनर हो, सालोंसाल छोड़ दो तो यही होता है. मन शांत कर अभ्यास करिए, सब हो जाएगा.’’

अगले दिन सवेरे अंजू चली गई. शाम तक राजेश्वर आ पहुंचे. सुधा भरी बैठी थी. चाय दे कर मौके की तलाश में बैठ गई. चाय पी कर राजेश्वर सुस्ताने बैठे ही थे कि सुधा का रोष फूट पड़ा, बोली, ‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं आप किन दोस्तों के साथ गोवा गए थे.’’

अचानक राजेश्वर बौखला गए, बोले, ‘‘क्यों? मेरे हर दोस्त को तुम जानती हो जो बताऊं?’’ अपना पक्ष मजबूत करते हुए आगे बोले, ‘‘तुम्हें सारे दिन किचन में रहना अच्छा लगता, तो मैं भी घर में कैद हो जाऊं?’’

सुधा आक्रोश से भर उठी, ‘‘आप के दोस्त तो सारे यहीं थे, आप किस के साथ गए थे? अतुल के दोस्त ने आप को किसी महिला के साथ देखा था, वह कौन थी?’’

पोल खुलती देख स्वर को ऊंचा कर के राजेश्वर बोले, ‘‘रही न कुएं की मेढक, तुम जैसी औरतों से तो बस दालसब्जियों के मोलभाव करवा लो, बाहर की दुनिया क्या जानो. एक मित्र मिल गया था, उस की पत्नी थी वह, समझीं.’’ वे आगे बोले, ‘‘मेरी जासूसी करने से अच्छा है कुछ रहनेसहने व पहनेओढ़ने के तौरतरीके सीख लेतीं तो पढ़ीलिखी महिलाओं के बीच खड़ी होने योग्य हो जातीं.’’ यह कह कर राजेश्वर बाहर निकल गए.

सुधा के स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी थी, बेबसी पर आंसू छलक आए. आहत सी वह डिनर बनाने लग गई. रात के 12 बज गए. पति का अतापता नहीं था. सुधा समझ गईर्, दाल में कुछ काला है. थोड़ी देर में राजेश्वर आ गए. कपड़े बदल, तकिया उठा दूसरे बैडरूम में चले गए.

सुधा रातभर अपने बैडरूम में लेटी सोचती रही, समय के साथ मैं ही न बदली, सब बदल कर उस से दूर हो गए. अब अपने को बदल के खुद को पति के मुकाबले का बनाऊंगी. पूरी रात सुधा ने रोते हुए काटी. सवेरे उठ किचन में लग गई. राजेश्वर बड़े बेमन से नाश्ता कर औफिस निकल गए.

सुधा ने पति की अटैची खोली. कपड़े धोने के लिए निकालने लगी. अचानक रामेश्वर के टौवल में से एक पीला सिल्क का ब्लाउज गिरा. सुधा ने ब्लाउज को अपनी अलमारी में रख दिया.

शाम को जब चाय पी कर राजेश्वर टीवी देखने लगे तो सुधा भी वहीं आ गई. वह बोली, ‘‘आप को जो दोस्त की पत्नी वहां मिली थी वह क्या अपना ब्लाउज भी आप की अटैची में डाल गई थी.’’ यह कह उस ने ब्लाउज उन के आगे रख दिया.

ब्लाउज देख राजेश्वर शर्मिंदा हो गए पर ऊंची आवाज से सुधा को डांटने लगे. लेकिन जब बदले में सुधा ने खरीखोटी सुनाई तो स्वर बदल कर बोले, ‘‘देखो सुधा, तुम मेरे योग्य न कभी थीं. न भविष्य में होगी. तुम ने सारी जिंदगी किचन में गुजार दी. अब मैं अपने अनुसार जीना चाहता हूं. मैं तुम्हें घर से जाने को नहीं कहता. जैसे पहले रहती थीं, रहती रहो. पर मुझे मेरे अनुसार जीने दो.’’ यह कह कर उठ खड़े हुए.

सुधा बोली, ‘‘लेकिन मैं ने तो अपना सारा जीवन आप के परिवार पर कुरबान कर दिया.’’ इस पर राजेश्वर बोले, ‘‘यह करने को मैं ने तुम्हें मजबूर नहीं किया था. गरिमा मेरी पुरानी मित्र हैं. उन्होंने शादी नहीं की थी. वे और मैं बचपन से एकसाथ पढ़े और बड़े हुए. पिताजी ने मेरी मंशा जाने बिना न जाने क्यों तुम से मेरा रिश्ता तय कर दिया. अब मैं गरिमा का साथ चाहता हूं.’’

यह सुनते ही सुधा के दिल में सैकड़ों तीर एकसाथ घुस गए, बेहोशी सी आने लगी, किसी तरह लड़खड़ाती बिस्तर तक पहुंची और कटे पेड़ सी गिर पड़ी.

2 दिनों बाद रक्षाबंधन था. बड़ी हवेली में ही सब आते और यहीं राखी मनाई जाती. वह बेताबी से रक्षाबंधन का इंतजार करने लगी. उसे पूरा भरोसा था सब उसी का साथ देंगे. उस की सेवा और पूरे परिवार के लिए समर्पण किसी से छिपा न था. बेटा अतुल भी आने वाला था. राजेश्वर की प्रेमकहानी उसी दिन सुनाई जाएगी.

रक्षाबंधन वाले दिन सवेरे उठ कर सुधा ने पकवान और खाना बना कर रख दिया. देखतेदेखते सभी आ गए. राखी बांध कर बहनें नेग के लिए सुधा की ओर देखने लगीं. पर सुधा चुप बैठी रही. उस ने देवरानी को भोजन परोसने को कहा तो सब हैरान रह गए. सौसौ मनुहार से खाना खिलाने वाली सुधा को क्या हो गया? खाने के बाद सुधा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘आज सब के सामने अपनी एक समस्या बता रही हूं. कृपया, मुझे आज इस का कोई समाधान बताएं.’’ यह कह कर सुधा ने राजेश्वर की सारी प्रेमकहानी आरंभ से अंत तक सुना दी.

इस बीच न जाने कब राजेश्वर उठ कर बाहर चले गए. कुछ देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा. फिर बड़ी ननद बोली, ‘‘भाभी, इस उम्र में आप को भैया पर यही लांछन लगाने को मिला था.’’ छोटी ननद बोली, ‘‘भैया इतने बड़े ओहदे पर हैं आप तो उन के पद की गरिमा भी भूल गई हैं. आप उन के सामने क्या हैं? उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं, फिर भी भैया को आप से कोई शिकायत नहीं है.’’

सुधा ननदों की बातें सुन कर हैरान हो रही थी कि देवर बोला, ‘‘भाभी, मेरे राम जैसे भाई पर इलजाम लगाते शर्म न आई.’’ देवरानी मुंह में पल्लू दिए अपनी हंसी को भरसक दबाने की कोशिश कर रही थी. बस, अतुल ही सिर नीचा किए बैठा था.

अब सुधा का धैर्य जवाब दे गया. वह सोचने लगी, ये वही ननदें, देवर और पति हैं जिन की सेवा में मैं ने खुद को भुला दिया. जिन के लिए मैं ने अपने संगीत, रूपरंग की बलि चढ़ा दी. मेरे अस्तित्व और स्वाभिमान पर इतना बड़ा आघात. अपने गहने, कपड़े, सेवाएं दे कर आज तक इन की मांगें पूरी करती आई हूं.

सब बहाने से उठ कर जाने लगे तो सुधा तिलमिला उठी, बोली, ‘‘तो सुनिए आप के उसी राम सदृश्य भाई ने मेरे साथ विश्वासघात किया है. आज मैं ने भी उन से तलाक ले कर अलग रहने का फैसला लिया है.’’ सुधा को उम्मीद थी कि सब मुझे मनाने आगे आएंगे.

अभी वह यह सोच ही रही रही थी कि राजेश्वर की आवाज आई, ‘‘आज सब राखी का नेग ले कर नहीं जाएंगे?’’ देखतेदेखते राजेश्वर ने 500 रुपए के नोट की गड्डी निकाली. बहनों के साथ छोटी भाभी को भी रुपए दिए. नेग ले कर सब घर जाने को तैयार हो गए. सुधा मूर्ति की तरह बैठी रही.

जातेजाते ननदें सुधा को गीता का ज्ञान देने लगीं, ‘‘भाभी बुजुर्ग हो गई हो, बेतुकी बातें बोलना छोड़ समझदार बनो.’’ देवर भी कहां पीछे रहने वाले थे, बोले, ‘‘इस उम्र में तलाक ले कर पूरे खानदान का नाम रोशन करोगी क्या?’’ और पत्नी का हाथ पकड़ निकल गए.

अतुल ही खिन्न सा बैठा रहा. सब के जाते ही घर में मरघट सा सन्नाटा पसर गया. अतुल भी घर में आने वाले भयंकर तूफान के अंदेशे से बचने के लिए घर से बाहर निकल गया.

अब सुधा और राजेश्वर दोनों ही सांप और नेवले की तरह एकदूसरे पर आक्रमण करने लगे. सुधा अपनी सेवाओं और घर के लिए की कुरबानियों की दुहाई देती रही तो राजेश्वर उस की पत्नी के रूप में नाकाबिलीयत के किस्से सुनाते रहे.

राजेश्वर ने आखिरकार सोचा, सुधा तलाक की गीदड़ भभकी दे रही है. जाएगी कहां? मायके में एक भाईभाभी रह गए थे. वे भी जायदाद बेच कर विदेश जा बसे. पढ़ाईलिखाई में कुछ खास न तो डिगरी ही है, न 46 की उम्र में कोईर् नौकरी के योग्य है. इसलिए सुधा से मुखातिब हो कर बोले, ‘‘जो जी में आए करो. तुम्हारी योग्यता तो बस किचन तक की है. यह तुम भी जानती हो.’’

सुधा तिलमिला कर बोली, ‘‘मैं ग्रेजुएट हूं, संगीत जानती हूं. तुम ने मेरे स्वाभिमान को ललकारा है और कुरबानियों को नकारा है. अब क्या तुम्हें ऐसे ही छोड़ दूंगी, गुजाराभत्ता भी लूंगी और हवेली में हिस्सा भी. मेरा बेटा है अपने दादा की जायदाद पर उस का भी हक है.’’

यह सुन राजेश्वर सन्न रह गए. पैर पटकते घर से बाहर चले गए. सुधा सिर से पैर तक सुलग रही थी. उस ने अंजू को फोन कर बुलवा लिया. अंजू आ गई तो उस ने सारी बातें कह सुनाईं.

अंजू बोली, ‘‘अच्छी तरह सोचसमझ लो बूआ. एक बार तलाक की अर्जी लग गई, फिर लौटने पर किरकिरी होगी.’’

सुधा बोली, ‘‘सब स्वार्थ से मेरे साथ जुड़े थे. स्वार्थ खत्म होते ही दूर हो गए. तुम अर्जी लगा दो.’’

अतुल घर आ गया था. यह सब जान कर बोला, ‘‘मां, अकेले रह लोगी न? मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है. आप के साथ अन्याय तो हुआ है पर मैं पापा को भी नहीं छोड़ूंगा. वैसे भी मम्मी, मैं ने अपनी एक सहपाठिन से विवाह करने का मन बना लिया है. आप दोनों के पास आताजाता रहूंगा. शादी कोर्ट में करूंगा.’’

अतुल की व्यावहारिकता देख सुधा हैरान रह गई. काश, उस के पास भी ऐसी व्यावहारिक बुद्धि होती तो वह समय रहते संभल जाती और अपनों से न छली जाती.

तलाक की अर्जी पर राजेश्वर ने भी साइन कर दिए. वे गरिमा के साथ सुखमय जीवन के सपने देखने लगे. पहली पेशी पर जज द्वारा कारण पूछे जाने में दोनों ने खुल कर एकदूसरे की कमियों का बखान किया. जज ने समझौते के लिए 6 महीने का समय दिया. सुधा को 40 हजार रुपए गुजारे भत्ते और हवेली के पिछले हिस्से में रहने का अधिकार मिला. बाद में विधिवत म्यूचुअल तलाक हो गया. राजेश्वर गरिमा के फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

अब सुधा को अपनेपराए की पहचान हो गई. सेवाभाव, परिवार के लिए त्याग, बलिदान की नाकामी का एहसास अच्छी तरह हो गया. सब से बड़ी सीख सुधा को यह मिली कि इस जीवन में उस ने अपने वजूद को, गुणों को, रूपरंग को दांव पर लगा कर जो फैसले किए वे गलत थे. चाहे जितनी सेवा कर लो, परिवार के लिए कुरबानी दे दो पर अपने वजूद को दरकिनार न करो. अब वह अपनी बाकी जिंदगी को संवारने के लिए कटिबद्ध हो गई. 2 कमरे, 4 लड़कियों को किराए पर दे दिए. रौनक भी रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी. कालेज के रिटायर्ड संगीत सर के घर जा नियमित रियाज करना शुरू कर दिया. कुछ ही समय बाद संगीत सम्मेलनों में अपने गुरुजी के साथ जा कर शिरकत भी करने लगी.

समय का पहिया आगे निकल गया था. एक दिन सुधा एक संगीत प्रोग्राम में जजमैंट करने आ रही थी कि उस की कार लालबत्ती पर रुक गई. कार की खिड़की से बाहर देखने पर सड़कपार किसी डाक्टर के क्लिनिक से राजेश्वर एक युवक का सहारा लिए निकल रहे थे. एकदम कमजोर हो चुके थे. आसपास गरिमा या कोई और नहीं था. तभी हरी बत्ती हो गई. गाड़ी बढ़ गई.

मेरे घरवाले जबरदस्ती मेरी शादी कराना चाहते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 23 वर्ष है. मैं एमफिल कर रही हूं. मेरे मम्मीपापा मेरी शादी कराना चाहते हैं. उन के मुताबिक, अब मुझे शादी कर लेनी चाहिए. उन की इस रूढि़वादी सोच से मैं परेशान हो चुकी हूं. मेरा एक बौयफ्रैंड है जिस की उम्र 27 वर्ष है. वह और मैं दोनों ही अभी अपने कैरियर पर फोकस करना चाहते हैं. सच तो यह है कि मुझे उस से अब तक साथ जीनेमरने जैसा प्यार भी नहीं हुआ कि मैं उस से शादी करने के बारे में सोचूं. मुश्किल यह है कि मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और मेरे मम्मीपापा लवमैरिज के लिए हां नहीं कहेंगे, यह भी स्पष्ट है. मुझे लग रहा है कि मैं घर छोड़ कर कहीं दूर भाग जाऊं या किसी से शादी करनी ही है तो अपने मम्मीपापा के खिलाफ जा कर अपने बौयफ्रैंड से ही शादी कर लूं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं.

जवाब

आप की परेशानी सचमुच चिंतनीय है. 21वीं सदी में आ कर भी आप के मातापिता की रूढि़वादी सोच के बारे में जान कर बेहद दुख हुआ. आप अभी केवल 23 वर्ष की हैं और आप का शादी न करने का फैसला सही भी है. आप शादी करना ही नहीं चाहतीं तो ऐसे में अपने उस बौयफ्रैंड से शादी कर के भी आप कैसे खुश रह पाएंगी जिस से आप को प्यार भी नहीं. इस स्थिति में हो तो यही सकता है कि आप अपने मातापिता के खिलाफ जाएं लेकिन अपनी आजादी के लिए, अपने बौयफ्रैंड से शादी के लिए नहीं. आप का कैरियर आप की पहली प्राथमिकता है तो उसी पर फोकस करें.

आप पढ़ीलिखी हैं तो जब तक आप की पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती, मातापिता को टालती रहें. पढ़ाई पूरी कर नौकरी ढूंढ़ें और अपना अलग पीजी या रूम ले कर रह लें. इस के लिए हो सकता है आप को अपने मातापिता से लड़ना पड़े. अपने मम्मीपापा को यह बता दें कि आप शादी करेंगी लेकिन तब जब आप अपना कैरियर बना लेंगी, अपने पैरों पर खड़ी हो जाएंगी. रही बात बौयफ्रैंड की, तो भविष्य में क्या है, किसे पता. शायद आप तब अपनी फीलिंग्स और शादी के बारे में अपने विचारों को ले कर क्लियर भी हो जाएं.

दर्शकों के दिलों से नहीं जुड़ पाती फिल्म चंदू चैम्पियन

(2 स्टार)

बौलीवुड में पिछले कुछ सालों से बायोपिक फिल्मों का चलन बढ़ा है, उस में भी खिलाड़ियों की बायोपिक फिल्म बनाने की. यह एक अलग बात है कि अब तक इस तरह की बायोपिक फिल्मों को बौक्स औफिस पर बहुत कम सफलता नसीब हुई है. अब 14 जून को फिल्म सर्जक कबीर खान की बायोपिक व स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म ‘चंदू चैंम्पियन सिनेमाघरों में पहुंची है, जो कि 1972 में तैराकी के क्षेत्र में पैरा ओलंपिक में गोल्ड मैडल सहित कई अर्वाड जीत चुके और 2018 में सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाजे जा चुके महाराष्ट्र के सांगली जिले के निवासी मुरलीकांत पेटकर की बायोपिक फिल्म है.

फिल्म में शीर्ष भूमिका कार्तिक आर्यन ने निभाई है. कार्तिक का दावा रहा है कि यह फिल्म उन के कैरियर के लिए ‘गेम चेंजर’ और सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. इस फिल्म को ले कर अति उत्साही कार्तिक आर्यन कुछ समय पहले कुछ चुनिंदा पत्रकारों को ले कर अपने गृह नगर ग्वालियर गए थे, जहां उन्होंने भव्य समारोह में फिल्म ‘चंदू चैंम्पियन’ का ट्रेलर लौंच किया था. उस के बाद उन के चमचानुमा पत्रकारों ने तो कार्तिक आर्यन को ‘चने के झाड़ पर चढ़ाना’ शुरू कर दिया और ऐसे पत्रकार फिल्म के प्रदर्शन के बाद भी अपने इस काम को अंजाम देते हुए नजर आ रहे हैं. जबकि मुझे फिल्म का ट्रेलर देख कर निराशा हुई थी और फिल्म देख कर भी निराशा ही हाथ लगी.

सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कई ऐसे दृष्य पिरोए गए हैं जो कि दिल को छूने की बजाय फूहड़ लगते हैं. फिल्म भावनात्मक स्तर पर भी दर्शकों से नहीं जुड़ती. इस के अलावा फिल्म को ठीक से प्रचारित भी नहीं किया गया. दूसरी बात मुरलीकांत पेटकर की वीरता व उपलब्धियों का कोई सानी नहीं, मगर अफसोस उन के बारे में आज कोई नहीं जानता. मतलब दर्शक उन के नाम से परिचित नहीं हैं. हमारी व्यक्तिगत राय में इस तरह के सभी गुमनाम लोगों पर फिल्में बननी चाहिए, मगर अच्छे ढंग से.

फिल्म की शुरुआत स्थानीय पुलिस स्टेशन से होती है,जहां वृद्ध मुरलीकांत पेटकर (कार्तिक आर्यन) खुद को अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित न किए जाने के लिए भारत के राष्ट्रपतियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की मांग करते हुए राष्ट्रपतियों के खिलाफ मुकदमा करने की बात करते हैं. (अब यह तथ्य कितना सही है, यह तो खुद मुरलीकांत पेटकर या निर्देशक कबीर खान ही जानते हैं.) पुलिस इंस्पैक्टर ऐसा करने को ले कर जब कई सवाल करता है, तब मुरलीकांत पेटकर अपनी जिंदगी की कहानी सुनाना शुरू करते हैं.

कहानी के अनुसार 1 नवंबर 1944 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के इस्लामपुर गांव में जन्मे मुरलीकांत पेटकर (कार्तिक आर्यन) बचपन से ही खिलाड़ी बन कर भारत के लिए ओलंपिक पदक लाने का सपना देखते हैं. मुरली बचपन में यह सपना उस वक्त देखते हैं जब वह पहलवान केडी जाधव को सांगली के कराड़ स्टेशन पहुंचने पर मिल रही प्रशंसा को देखता है. यह 1962 की बात है जब के डी जाधव हेलसिंकी ओलंपिक में पुरुषों के बेंटमवेट (57 किग्रा) फ्रीस्टाइल में कांस्य पदक जीतने के बाद भारत के पहले व्यक्तिगत ओलंपिक पदक विजेता बनने के बाद घर लौटे थे.

जाधव की वीरता से प्रेरित हो कर, मुरलीकांत ओलंपिक में भाग लेने का सपना देखना शुरू कर देता है. इस के लिए उसे सिर्फ धमकाया ही नहीं जाता बल्कि वह अपने स्कूल के सहपाठियों व अपने गांव में हंसी का पात्र बना रहता है. पर किशोरवय में गांव के शक्तिशली इंसान के बेटे को कुश्ती में हराने पर मुरलीकांत को गांव से भागना पड़ता है और ट्रेन में उस की मुलाकात जर्नेल सिंह (भुवन अरोड़ा ) से होती है जो कि उसे सलाह देता हे कि वह भारतीय फौज का हिस्सा बन जाए तो उस के लिए ओलंपिक तक पहुंचना आसान हो जाएगा.

फौज में उसे युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग के साथ ही टाइगर (विजय राज) से बौक्सिंग की ट्रेनिंग मिलती है और वह भारतीय सेना की तरफ से भारत के लिए कई पदक जीतता है. 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते हुए मुरलीकांत को 9 गोलियां लगती हैं. जबकि टाइगर बुरी तरह से घायल हो जाते हैं.

डाक्टरों के प्रयास से 8 गोलियां निकाली जाती हैं पर एक गोली आज भी उन की रीढ़ की हड्डी में मौजूद है. इस की वजह से वह अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते. अस्पताल के बिस्तर पर पड़े रहने के दौरान टाइगर स्वस्थ हो कर मुरलीकांत से मिलने पहुंचते हैं और उन का हौसला बढ़ाते हुए मुक्केबाजी की बजाय तैराकी सीख कर तैराकी के खेल में पैरा औलंपिक में हिस्सा लेने की सलाह देते हैं. फिर 1972 में वह तैराकी में पैरा औलंपिक खेलों में गोल्ड मैडल हासिल करते हैं. उस के बाद वह विवाह करते हैं. 5 बेटों के पिता मुरलीकांत पेटकर अचानक 2017 में आवाज उठाते हैं कि उन्हें ‘अर्जन अवार्ड’ क्यों नहीं मिला. अंततः 2018 में मुरलीकांत पेटकर को पद्मश्री से नवाजा जाता है.
फिल्म की पटकथा में तमाम खामियां हैं. फिल्म की शरूआत जिस तरह से होती है, वह गले नहीं उतरती. यह यकीन करना मुश्किल होता है कि कई अर्वाड और ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीत चुके मुरलीकांत पेटकर 45 वर्ष बाद खुद को ‘अर्जुन अवार्ड’ न मिलने का मुदकमा दायर करने के लिए पुलिस स्टेशन गए होंगे. वह अभी जीवित हैं और खुद ही इस सच को बता सकते हैं. हो सकता है कि मुरलीकांत ने अपने गांव के विकास के लिए सराकर पर दबाव बनाने के लिए ऐसा किया भी हो तो भी परदे पर इसे सही ढंग से चित्रित करने में फिल्मकार कबीर खान बुरी तरह से असफल रहे हैं.

इस के अलावा भारत के किसी भी थाने या अदालत में भारत के राष्ट्रपति के खिलाफ मुकदमा न लिखा जा सकता है और न ही चलाया जा सकता है. यह एक सम्मान है भारत के संविधान का अपने राष्ट्रपति के प्रति. मगर फिल्मकार ने एक नहीं कई पूर्व राष्ट्रपतियों के नामों पर मुकदमा चलाने की बात से शुरू होती है. यह लेखकों और निर्देशक की सब से बड़ी भूल है. ऊपर से सेंसंर बोर्ड ने इस दृष्य को पारित कर दिया, यह उस से भी अधिक बड़ी गलती है.

अंतरराष्ट्रीय बौक्सिंग प्रतियोगिता के दौरान मुरलीकांत व जर्नेल सिंह का टीवी इंटरव्यू बहुत ही ज्यादा हास्यास्पद नजर आता है. 1965 में जब मुरलीकांत कश्मीर मे तैनात थे, उस वक्त भारत पाक युद्ध का दृष्य पूरी तरह से नकली लगता है. इसी तरह 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में कबीर खान ने जिस तरह से आतंकवादी हमले का चित्रण करते हुए विश्व इतिहास को दिखाने का प्रयास किया है, उस से यह बात साफ तोर पर उजागर हो गई कि उन्हें राजनैतिक रूप से वह पूरी तरह से अनजान हैं.

पूरी फिल्म में मुरलीकांत के संघर्ष के दौरान भारत के सामाजिक परिदृष्य के साथ ही मुरलीकांत के परिवार के संघर्ष व सोच को रेखांकित करने में फिल्मकार असफल रहे हैं. मुरलीकांत की बतौर सैनिक या बतौर खिलाड़ी दी जाने वाली ट्रेनिंग के दृष्य हूबहू तमाम फिल्मों में पहले ही दोहराए जा चुके हैं. फिल्म के कई दृष्य दर्षकों को फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ की याद दिलाते हैं, फिर चाहे वह फिल्म का गाना ‘ऐश करे पड़ोसी’ ही हो. यह गाना ‘भाग मिल्खा भाग’ के गीत ‘हवन करेंगे..’ की याद दिलाता है.
यशपाल शर्मा का किरदार तो पूरी तरह से ‘भाग मिल्खा भाग’ की याद दिलाता है. इसी तरह कई दृष्य हैं. कम से कम कबीर खान जैसे अनुभवी निर्देशक से तो इस तरह की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. फिर भी धुंध में खोए हुए नायक को पुनर्जीवित करने का जो कदम कबीर खान ने बेहतर उठाया है.

सुदीप चटर्जी की सिनेमैटोग्राफी सराहनीय है. नितिन बैद का संपादन बढ़िया है.भारत के एक उम्रदराज़ वरिष्ठ खिलाड़ी मुरलीकांत पेटकर के किरदार के साथ न्याय करने में कार्तिक आर्यन विफल रहे हैं. उम्र का असर उन की संवाद अदायगी व बोली में भी नजर नहीं आता. मुरलीकांत मूलतः महाराष्ट्र के मराठी भाषी इंसान हैं और सेना से अलग होने के बाद वह पिछले 50 वर्षों से महाराष्ट्र के गांव में ही रह रहे हैं, यह कार्तिक आर्यन के अभिनय में नजर नहीं आता. हर अभिनेता के लिए आवश्यक होता है कि वह किरदार के अनुरूप अपनेआप को ढाले. सिर्फ वजन बढ़ाना या घटाना या मसल पावर दिखाना ही अभिनय नहीं है. कार्तिक आर्यन को कुछ तो मिल्खा सिंह का किरदार निभा चुके अभिनेता फरहान अख्तर से सीखना चाहिए था.

1965 के युद्ध में मुरलीकांत पेटकर के घायल होने के बाद जब वह विकलांग हो जाते हैं और अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, उस वक्त कार्तिक आर्यन को परदे पर देख कर अहसास होता है कि उन के अभिनय में कितनी खामियां हैं. महज ‘भूल भुलैय्या 2’ की सफलता से खुद को अति बेहतरीन अभिनेता मान लेना उन की भूल है. कठिन तैराकी प्रशिक्षण के दृष्यों में यदि हम कार्तिक आर्यन की संवाद अदायगी, स्वर, बोली आदि को नजरंदाज कर दें, तो उन का अभिनय अच्छा माना जाएगा.

मुरलीकांत के सपने व पीड़ा को समझने वाले उन के कोच टाइगर के किरदार में अपनी अभिनय प्रतिभा के बल पर दर्शकों के दिल में अपनी जगह बना लेते हैं. टोपाज के किरदार में राजपाल यादव भी अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. मुरलीकांत के दोस्त और साथी मुक्केबाज जर्नेल सिंह के किरदार में भुवन अरोड़ा भी सम्मेहित करते हैं. यशपाल शर्मा के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नहीं. पुलिस इंस्पैक्टर के किरदार में श्रेयष तलपड़े ठीक ठाक ही हैं. टीवी रिपोर्टर के छोटे किरदार में भाग्यश्री बोरसे अपनी छाप छोड़ जाती है

कुवैत अग्निकांड : सपने ले कर गए थे, ताबूत में घर लौटे

उन की आंखों में छोटेछोटे सपने थे. किसी को अपना घर बनाना था, किसी को बहन की शादी करनी थी, कोई अपने छोटे भाईबहनों का भविष्य संवारना चाहता था तो कोई पिता का हाथ बंटाने की चाहत में कुवैत गया था, मगर उन के नन्हेनन्हे सपने अधूरे ही रह गए. सपने देखने वाले बंद ताबूतों में अपने घर वापस लौटे हैं. कुवैत के मंगाफ शहर में हुए अग्निकांड में 49 लोगों की मौत हुई है, जिस में 45 भारतीय हैं. इस के अलावा 50 से ज्यादा लोग बुरी तरह झुलसी हालत में अस्पतालों में जीवन की जंग लड़ रहे हैं. मृतकों में सब से अधिक 24 केरल के, 5 तमिलनाडु के, 3 उत्तर प्रदेश के, 2 बिहार के और एक निवासी झारखंड का था. उत्तर प्रदेश के जिन 3 लोगों की मौत हुई है उस में गोरखपुर के दो युवक शामिल हैं. एक गुलरिया के जयराम गुप्ता और दूसरे गोरखनाथ थाना क्षेत्र के जैतपुर उत्तरी निवासी अंगद गुप्ता. जबकि तीसरा मृतक गाजीपुर का रहने वाला है.

मंगाफ की जो बहुमंजिली इमारत 12 जून 2024 की सुबह 4.30 बजे पालक झपकते लाक्षागृह में तब्दील हो गई, उस में अधिकांश लोग भारत, ख़ासकर केरल और तमिलनाडु के रहने वाले थे. हालांकि अन्य देशों नेपाल और फिलीपींस के लोग भी वहां रहते थे. कुवैत की एक निर्माण कंपनी एनबीटीसी ग्रुप ने 195 से ज्यादा श्रमिकों के रहने के लिए यह बिल्डिंग किराए पर ले रखी थी. इस बिल्डिंग में कम किराए पर बड़ी संख्या में प्रवासी लोगों को रखा जाता है. कुवैत के मीडिया के मुताबिक आग रसोई में लगी थी. चूंकि गर्मियों का मौसम है इसलिए वहां ज्यादातर मजदूर नाइट शिफ्ट में काम कर रहे हैं. कुछ मजदूर जो नाइट शिफ्ट कर के तड़के लौटे थे, वे किचन में अपने लिए खाना बना रहे थे. गर्मी के कारण वहां आग तेजी से फैलने लगी. जो लोग इमारत में मौजूद थे, वे आग पर काबू पाने की स्थिति में नहीं थे. वहां पर्याप्त पानी भी नहीं था और आग से बचाव के कोई उपकरण भी इमारत में नहीं थे. आग फैलते ही पूरी बिल्डिंग गहरे धुएं से भर गई. निकलने का रास्ता आग ने रोक लिया था और छत का रास्ता बंद था. लिहाजा अधिकांश मौतें धुएं के कारण दम घुटने से हुईं. सुबह साढ़े चार बजे का वक्त था. इमारत में अधिकतर लोग उस वक्त दिन भर की कड़ी मेहनत से थके गहरी नींद में सोए हुए थे.

दरभंगा के नैनाघाट वार्ड 6 निवासी काले खां अभी महज 23 साल का था. काले खां के घर में उस की की शादी की तैयारी चल रही थी. अगले महीने उस की बारात नेपाल जाने वाली थी. काले खां अगले महीने 5 जुलाई को भारत लौटने वाला था. मगर उस की लाश ताबूत में लौटी है. काले खां कुवैत के एक मौल में श्रमिक के रूप में काम कर रहा था.

48 साल के लुकोसे कुवैत की कंपनी एनबीटीसी में फोरमैन थे. उन की मौत की खबर सुन कर केरल में उन का परिवार सदमे में है. लुकोसे के मातापिता बुज़ुर्ग हैं. मां 86 साल की हैं और पिता 93 साल के हैं. लुकोसे की पत्नी और बच्चों पर तो मानों दुख का पहाड़ टूट पड़ा है. घर में लुकोसे ही एकमात्र कमाने वाले व्यक्ति थे. उन की कमाई से ही पूरा घर चल रहा था.

बिनौय जोसेफ त्रिशूर जिले के चावक्कड़ के पास पलायूर के रहने वाले थे. पलायूर में अपना एक घर बनाने की लालसा में पैसा कमाने के लिए वे कुवैत गए थे. बिनौय जोसेफ की दो नन्ही बेटियां हैं. छोटी वाली अभी कक्षा एक में गई है. कुवैत जाने से पहले बिनौय जोसेफ चावक्कड़ में एक दुकान में सेल्समैन थे. उन के पास अपना घर नहीं था. पिछले साल, बिनौय ने घर बनाने के लिए जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीदा था. कुछ पैसा जमा कर के उन्होंने उस जमीन पर एक छोटा सा शेड बना लिया था. वह 44 साल की उम्र में कुवैत सिर्फ इसलिए गए थे, ताकि वह जमीन खरीदने में हुई देनदारी चुका सकें और घर बनाने के लिए पर्याप्त पैसे जुटा सकें.

झारखंड के युवक मोहम्मद अली हुसैन 18 दिन पहले ही कुवैत गए थे. कुवैत जाते समय उस के परिजनों ने सोचा भी नहीं था कि वे उन्हें आखिरी बार देख रहे हैं. 24 वर्षीय हुसैन अपने 3 भाईबहनों में सब से छोटा था और अपने परिवार की मदद के लिए रांची से कुवैत गया था. उसे वहां सेल्‍समैन की नौकरी मिल गई थी. लेकिन हुसैन को उस की मौत कुवैत ले गई थी. महज 18 दिन ही बीते थे, और उस की मौत की खबर ने पूरे घर को सदमे में डाल दिया. रांची में वाहनों के टायरों का छोटा सा कारोबार चलाने वाले उस के पिता मुबारक कहते हैं, “हम ने कभी नहीं सोचा था कि 18 दिनों के भीतर इतनी बड़ी घटना हो जाएगी. मेरे बेटे के एक सहकर्मी ने बृहस्पतिवार को सुबह उस की मौत की सूचना मुझे दी. शाम तक मैं इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि अपनी पत्नी को इस दुखद खबर के बारे में बता सकूं. मेरा बेटा स्नातक की डिग्री पूरी करने के बाद ‘सर्टिफाइड मैनेजमैंट अकाउंटेंट (सीएमए) का कोर्स कर रहा था. एक दिन अचानक उस ने कहा कि वह कुवैत जाएगा. वह घर के खर्चों में मेरा हाथ बंटाना चाहता था. मगर इतना बड़ा दुख दे गया.”

27 वर्षीय श्रीहरि प्रदीप ने पिछले हफ्ते ही कुवैत में अपनी पहली नौकरी शुरू की थी. इस अग्निकांड में प्रदीप की भी मौत हो गई है. केरल के रहने वाले प्रदीप मैकेनिकल इंजीनियर थे. जिस इमारत में आग लगी, वहां प्रदीप की कंपनी एनबीटीसी के कई लोग रहते थे. वह भी कुछ दिन पहले ही यहां शिफ्ट हुए थे. वहीं, प्रदीप के पिता इस इमारत से कुछ दूर दूसरी बिल्डिंग में रहते थे. वह पिछले 10 साल से एनबीटीसी कंपनी में कार्यरत हैं. उन्होंने ही प्रदीप को वहां बुलाया था. अग्निकांड के बाद वे बदहवास से अपने बेटे को धुंए के गुबार में तलाशते रहे. फिर अस्पताल के मुर्दाघर में उन्होंने अपने बेटे की पहचान की.

केरल के कोल्लम के रहने वाले उमरुद्दीन शमीर का परिवार तो इतने सदमे में हैं कि उन के पास आने वाले फोन के जवाब भी उन के पड़ोसी दे रहे हैं. उमरुद्दीन की 9 महीने पहले ही शादी हुई थी. उमरुद्दीन एक भारतीय मालिक की तेल कंपनी में ड्राइवर का काम कर रहे थे.

आखिर क्या वजह है कि कुवैत और सऊदी अरब जैसे देशों में भारत से इतने लोग नौकरी के लिए जाते हैं. कुवैत में दोतिहाई आबादी प्रवासी मजदूरों की है. ये देश पूरी तरह बाहरी मजदूरों पर निर्भर है, खासकर निर्माण और घरेलू क्षेत्र में. मजदूरी के अलावा पढ़ेलिखे नौजवानों के लिए भी कुवैत में अनेक ऐसे काम हैं जिस में उन की अच्छी कमाई हो जाती है. इस में सेल्समैन, मौल मैनेजर, सुपरवाइजर के अलावा फैक्ट्रियों में काम का संचालन करने वालों की काफी डिमांड है. मगर वहां उन के रहनेखाने की व्यवस्था बहुत बदतर है. मानवाधिकार समूह कई बार कुवैत में प्रवासियों के जीवनस्तर को ले कर सवाल उठा चुके हैं. अपनी दयनीय हालत के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार ये प्रवासी मजदूर वर्ग भी है जो ज्यादा से ज्यादा पैसा बचा कर भारत अपने घरपरिवार को भेजने की चाह में खुद न्यूनतम खर्च और असुविधाजनक परिस्थितियों में गुजर बसर के लिए तैयार हो जाता है. एकएक कमरे में 12 से 20 लोग सो लेते हैं. किचन और शौचालयों की हालत बदतर होती है. फिर भी ज्यादा से ज्यादा पैसा कमा कर देश वापस लौटने की चाह में ये हर चीज में एडजस्ट कर लेते हैं.

मजदूर वर्ग की बात छोड़ दें तो कुवैत में सब से ज्‍यादा डिमांड बिजनैस एडमिनिस्‍ट्रेटर की रहती है. बीते कुछ सालों में कुवैत में कारोबार का विस्‍तार तेजी से हुआ है और तमाम विदेशी कंपनियां भी वहां अपना बिजनेस स्‍थापित कर रही हैं. लिहाजा अच्‍छी स्किल वालों को यहां हर महीने औसतन 400 कुवैती दिनार तक पगार मिल जाती है. यह भारतीय करेंसी में 1,09,055 रुपए के करीब होता है. जो पढ़ेलिखे भारतीय नौजवानों के लिए एक बहुत बड़ा लालच है क्योंकि भारत में तो उन्हें नौकरी ही नहीं मिलती. यदि किस्मत से मिल जाए तो इतने पैसे नहीं मिलते.

कुवैत में नौकरी खोजने वालों के लिए दूसरी सब से हौट जौब है मौल मैनेजर की. कुवैत और सऊदी अरब में मौल कल्‍चर तेजी से फैल रहा है और वहां दुनिया के बेहतरीन शौपिंग सेंटर भी बनाए जा रहे. ऐसे में मौल मैनेजर की जौब आएदिन निकलती रहती है. उन का काम शौपिंग सेंटर को चलाना होता है. इस काम के लिए हर महीने 500 कुवैती दिनार मिल जाते हैं, जो भारत के 1,36,319 रुपए के बराबर होंगे.

आप को जानकर हैरानी होगी कि कुवैत में भले ही अरबी और फारसी बोली जाती है, लेकिन वहां इंग्लिश टीचर की काफी डिमांड है. इस का कारण यह है कि ग्‍लोबल मार्केट खुलने की वजह से वहां अंगरेजी की मांग बढ़ रही है. जिस के लिए टीचर की जरूरत होती है. इंग्लिश पढ़ाने वाले को हर महीने औसतन 300 से 350 कुवैती दिनार (करीब 95,423 रुपये) मिल जाते हैं.

कुवैत में सब से ज्‍यादा पैमेंट इंजीनियरिंग सैक्‍टर में मिलती है. अभी खाड़ी देश में इन्‍फ्रा पर काफी काम हो रहा है, लिहाजा सिविल और इलैक्ट्रिकल इंजीनियर की मांग भी यहां काफी ज्‍यादा बढ़ गई है. इन का काम इन्‍फ्रा प्रोजैक्‍ट की डिजानिंग, प्‍लानिंग और डेवलपमैंट पर निगाह रखना है. इस काम के लिए हर महीने औसतन 600 से 750 कुवैती दिनार (1.63 लाख से 2.04 लाख रुपए) मिल जाते हैं.

कुवैत में ग्राफिक डिजाइनर की मांग भी काफी रहती है. इस में एडवरटाइजिंग, वेबसाइट की डिजाइनिंग और तमाम डिजिटल प्‍लेटफौर्म पर ग्राफिक्‍स डिजाइन करने की प्रोफाइल दी जाती है. इस के लिए हर महीने 250 से 350 कुवैती दिनार मिल जाते हैं, जो भारत के 95,423 रुपए के बराबर होते हैं. भारत में कोई ग्राफिक डिजाइनर इतनी अच्छी तनख्वाह की कल्पना भी नहीं कर सकता है.

कुवैत और अन्‍य खाड़ी देशों में विदेशी कंपनियों का जमावड़ा लग रहा है तो इन कंपनियों को मानव संसाधन विभाग के लिए भी बड़ी संख्या में प्रोफैशनल्‍स की जरूरत है. स्किल वाले व्‍यक्ति को हर महीने करीब 250 से 400 कुवैती दिनार मिल जाते हैं, जो भारतीय करेंसी में 1,09,055 रुपए तक हो सकते हैं.

कुवैत में तेल की तमाम फैक्ट्रियां हैं. इस के अलावा मैन्‍युफैक्‍चरिंग व अन्‍य इंडस्ट्रियल डेवलपमैंट के लिए भी फैक्‍ट्री सुपरवाइजर की जौब काफी निकलती है. इस फील्‍ड में काम करने वाले को हर महीने औसतन 600 कुवैती दिनार (करीब 1,63,582 रुपये) तक मिल जाते हैं.

कुवैत में कंपनियों और शौपिंग मौल्‍स की बढ़ती संख्‍या को देखते हुए सेल्‍स रीप्रेजेंटेटिव्‍स की डिमांड भी काफी बढ़ रही है. इन का काम सेवाओं और प्रोडक्‍ट का प्रोमोशन करना है. इस काम के लिए हर महीने औसतन 200 से 400 कुवैती दिनार (करीब 1.09 लाख रुपये) तक मिल जाते हैं.

इन नौकरियों का लालच बड़ी संख्या में भारतीय नौजवानों को खाड़ी देशों में ले जा रहा है. आज 90 लाख से अधिक भारतीय खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं. संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई में जहां 35 लाख से अधिक भारतीय कार्यरत हैं तो वहीं कुवैत में भारतीयों की तादात 9 लाख के करीब है. भारतीय विदेश मंत्रालय की 2022 की सूची देखें तो सऊदी अरब में साढ़े 24 लाख से अधिक, कतर में करीब 9 लाख, ओमान में साढ़े 6 लाख और बेहरीन में 3 लाख से ज्यादा भारतीय काम के लिए गए हैं. मगर इन के रहनेखाने और स्वास्थ्य समस्याओं के लिए इन देशों में कुछ ख़ास इंतजाम नहीं हैं. शोषण, प्रताड़ना और अवयवस्था का शिकार हो कर हर साल अनेकों भारतीय अपनी जान से हाथ धो रहे हैं.

कुवैत और अन्य खाड़ी देशों में भारतीय मजदूरों की बढ़ती संख्या यह साबित करती है कि भारत में नौकरियां नहीं हैं और मोदी सरकार युवा हाथों को रोजगार देने में बिलकुल फेल साबित हुई है. दूसरी ओर इन्हीं प्रवासी लोगों से सरकार को सीधे 120 अरब डौलर की विदेशी मुद्रा मिल रही है जिस से प्रधानमंत्री 8000 करोड़ रुपये के दोदो एयरोप्लेन खरीद रहे हैं. यह बहुत शर्मनाक है.

चीन आबादी की दृष्टि से भले अब दूसरे नंबर पर आ गया, पहले वहां की आबादी भारत से ज्यादा थी. लेकिन बावजूद इतनी बड़ी जनसंख्या के चीनी मजदूर मजदूरी करने बाहर कम ही जा रहे हैं क्योंकि वहां की सरकार उन का ज्यादा ख्याल रखती है और वहां मजदूरों को ज्यादा इज्जत मिलती है.

एक आंकड़े के मुताबिक़ पिछले दो सालों में अकेले कुवैत में 1400 भारतीयों की मौत हो चुकी है. ज्यादातर मजदूर वर्ग के लोगों ने इस देश में अपनी जान गंवाई है. कुवैत में स्थित भारतीय दूतावास को 2021 से 2023 के बीच 16000 शिकायतें मिलीं. यह सारी शिकायतें उन भारतीय मजदूरों की थीं जिन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें ना समय पर सैलरी मिलती है और ना ठीक से रहने के लिए कोई जगह दी जाती है. इस के अलावा कई अन्य प्रकार के शोषण का वे शिकार होते हैं.

फरवरी 2024 में भारतीय संसद में विदेश मंत्रालय की तरफ से यह जानकारी दी गई कि कुवैत में 2021 से 2023 के बीच 731 प्रवासी मजदूरों की मौत हुई जिस में से 708 भारतीय मजदूर थे. थोड़ा और पीछे जाएं तो कोरोना काल के दौरान वहां हजारों मजदूरों की मौत हुई क्योंकि उन तक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंचीं. 2014 से 2018 के बीच कुवैत में 2932 प्रवासी मजदूरों की मौत दर्ज की गई थी.

यह आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि कुवैत में मजदूरों के लिए हालात अच्छे नहीं हैं. वहां ख़राब स्थिति और कम संसाधनों के बीच उन को रहने के लिए मजबूर किया जाता है. कुवैत की अर्थव्यवस्था जो इस समय बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है उस में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका भारतीय मजदूरों की है. वहां की कुल आबादी का 21 फीसदी भारतीय-जन है, बावजूद इस के भारतीय मजदूरों के साथ कुवैत में काफी खराब व्यवहार होता है. स्थानीय लोग भी उन के साथ बदसलूकी से बाज नहीं आते हैं. जो कंपनियां इन मजदूरों को हायर करती हैं वो उन के पासपोर्ट तक जब्त कर लेती हैं कि कहीं शोषण से तंग आ कर ये टिकट कटा कर वापस भारत न भाग जाएं.

खाड़ी देशों में भारतीय मजदूरों के काम के घंटे भी तय नहीं हैं. उन से घंटों काम लिया जाता है और उन के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है. एकएक कमरे में 15 से 20 मजदूरों को रहने के लिए बाध्य किया जाता है. इस समय कुवैत में बंदरगाह के पास कई ऐसी इमारतें हैं जहां सुविधा और सुरक्षा के कोई बंदोबस्त नहीं हैं. खतरा लगातार मंडराता रहता है. लेकिन ऐसे कठिन हालात में भी भारतीय मजदूर कुवैत और खाड़ी देशों में जाने के लिए तैयार हैं क्योंकि भारत में भूखे मरने से बेहतर है जान जोखिम में डाल कर अपने परिवार के लिए रहनेखाने और जीने का इंतजाम कर लें. यही मजबूरी 45 प्रवासियों की दर्दनाक मौत के रूप में सामने आई है

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