लेखक – राजेंद्र पाराशर
मध्य प्रदेश में लोकसभा चुनाव 2024 में दो अलगअलग इतिहास बने. भाजपा ने प्रदेश की सभी 29 सीटों पर जीत हासिल कर इतिहास रचा तो कांग्रेस ने सभी सीटें गंवा कर इतिहास बनाया. भाजपा ने अनुशासित संगठन के चलते इतिहास बनाया तो कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं का भरोसा तोड़ कर उन की उपेक्षा करते हुए यह इतिहास रचा. पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ विधानसभा चुनाव 2023 के बाद प्रदेश कांग्रेस के अपने समर्थकों और नेता एवं कार्यकर्ताओं का भरोसा अर्जित नहीं कर पाए, जो उन्होंने 2018 में प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद पाया था. वहीं उन के स्थान पर पीढ़ी परिवर्तन के चलते नएनवेले अध्यक्ष बने जीतू पटवारी भी प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं का दिल जीतने में पूरी तरह असफल रहे. दोनों ही नेताओं की असफलता के पीछे एकजैसे कारण भी नजर आए. दोनों नेताओं ने इस चुनाव में ‘मैं, मेरा और उन की अपनी अकड़’ को अपने ऊपर इस कदर अंगीकार किया कि नेता, कार्यकर्ता उन से दूर होते चले गए.
चाहे प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया रही हो या फिर संगठन में काम बांटने को ले कर हो, इन्होंने कर्मठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की, जिस के चलते 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की यह दशा हुई कि वह दो सीटों पर तो प्रत्याशी ही खड़े नहीं कर पाई और जिन सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए वहां मतदान होने तक साफ नजर आया कि मैदान में कांग्रेस है ही नहीं. कांग्रेस पूरी तरह मैदान से बाहर नजर आई. कुछ प्रत्याशी इस बात का इंतजार करते रहे कि उन के क्षेत्रों में संगठन सक्रियता दिखाए, मगर संगठन ही नहीं था तो सक्रियता किस तरह दिखाई जाती.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस हारी कहां, वह तो चुनाव लड़ी ही नहीं. जब चुनाव नहीं लड़ी तो हार किस बात की. 2018 में कमलनाथ ने बड़े तामझाम के साथ मध्यप्रदेश की कमान संभाली थी. उस वक्त नेता और कार्यकर्ताओं का जोश भी उन के साथ था और भरोसा भी. यही कारण था कि मध्य प्रदेश में वे 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनाने में सफल रहे थे. मगर उन की यह सफलता उन के कार्य और व्यवहार के चलते मात्र 18 महीने ही स्थिर रही. गुटबाजी के चलते युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की पार्टी में स्थिति बिगड़ी. सिंधिया की नाराजगी को ले कर कमलनाथ उन्हें समझा नहीं सके और न ही मना सके. परिणाम यह हुआ कि सिंधिया ने भाजपा की ओर रुख किया और कांग्रेस की सरकार गिरा दी.
लंबा राजनीतिक अनुभव रखने वाले कमलनाथ अगर चाहते तो सिंधिया को मना कर सरकार और कांग्रेस दोनों को बचा सकते थे. साथ ही, सिंधिया को भाजपा में जाने से भी रोक सकते थे, मगर अपने अहं और अकड़ के चलते उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि आग में घी डालते हुए कमलनाथ सिंधिया के खिलाफ बयानबाजी कर उन्हें मैदान में उतरने की चुनौती देते नजर आए. सिंधिया को कमलनाथ की चुनौती नागवार गुजरी और फिर उन्होंने जो किया वह कांग्रेस को रसातल में भेजने के लिए काफी था. इस के बाद भी कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष बने रहे. वह भी इस उम्मीद पर कि 2023 के विधानसभा चुनाव में सरकार बना लेंगे, मगर चुनाव में ऐसा हुआ नहीं और कांग्रेस सिमट कर 66 की संख्या पर रह गई.
इस चुनाव के पहले सपा प्रमुख अखिलेश यादव के खिलाफ की एक टिप्पणी भी उन पर भारी पड़ गई. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस का कई स्थानों पर खेल बिगाड़ने का काम इस चुनाव में किया. यह अलग बात है कि सपा भी अपना खाता विधानसभा चुनाव में नहीं खोल पाई, मगर कांग्रेस की हार का कारण जरूर वह बनी. कांग्रेस की इस हार ने अखिलेश में जोश भरा जिस के चलते लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ जब कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने मध्य प्रदेश में सपा के साथ गठबंधन के तहत खजुराहो संसदीय सीट पर मैदान में उतरने का फैसला लिया. यह अलग बात है कि सपा की घोषित प्रत्याशी मीरा यादव का नामांकन ही यहां पर निरस्त हो गया और भाजपा को एक तरह से मतदान के पहले ही जीत हासिल हो गई. अगर कमलनाथ सपा मुखिया अखिलेश के खिलाफ बयानबाजी न करते तो संभवतया खजुराहो सीट पर ऐसा न होता, जो हुआ.
‘जा रहे हैं, नहीं जा रहे हैं’ में अटके रहे पितापुत्र
कमलनाथ और उन के बेटे नकुलनाथ को ले कर लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा में जाने की अटकलों ने भी कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को पूरी तरह चिंतित और विचलित कर के रखा. दिल्ली स्थित आवास पर पहले कांग्रेस का झंडा उतार कर यह संदेश दिया कि कमलनाथ भाजपा में जा रहे हैं. यह बात सुन उन के सभी समर्थक नेता दिल्ली पहुंच गए और उन के साथ नजर आए. बस, यहीं से कमलनाथ को ले कर कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में अविश्वास पैदा हुआ, जो मतदान होने तक जारी रहा.
कमलनाथ ने भी खुल कर पार्टी हित में काम तो नहीं किया, बल्कि वे और उन के समर्थक पूरी तरह यही भ्रम फैलाते रहे कि कमलनाथ भाजपा में जा रहे हैं. इस के बाद ये बातें सामने आईं कि नकुलनाथ अगर जीते भी तो वे भाजपा की सदस्यता ले लेंगे. कमलनाथ को ले कर भाजपा में जाने और न जाने की अटकलों ने पार्टी कार्यकर्ता का मनोबल इस कदर गिराया कि लोकतंत्र के बड़े पर्व लोकसभा चुनाव में वह मैदान में नजर नहीं आया. परिणाम यह हुआ कि कमलनाथ खुद अपने बेटे को जीत नहीं दिला सके.
चुनाव के दौरान छिंदवाड़ा संसदीय सीट की अमरवाड़ा विधानसभा सीट के कांग्रेस विधायक कमलेश शाह ने कांग्रेस का दामन छोड़ा और भाजपा में चले गए. कमलनाथ के हनुमान कहे जाने वाले प्रदेश के पूर्व मंत्री दीपक सक्सेना, जिन के दम पर कमलनाथ ने छिंदवाड़ा को अपना गढ़ बनाने में कामयाबी हासिल की, भी उन का साथ छोड़ भाजपा में चले गए. मगर कमलनाथ ने अपनी अकड़ के चलते इन नेताओं को रोकने का भी प्रयास नहीं किया. वे आखिर तक अपने भरोसे के नेताओं को यह भरोसा नहीं दिला सके कि वे कांग्रेस नहीं छोड़ रहे हैं.
इस के बाद मध्य प्रदेश में पहले चरण में हुए छिंदवाड़ा में मतदान के बाद कमलनाथ किसी दूसरे संसदीय क्षेत्र में सभाएं लेने भी नहीं पहुंचे. दो संसदीय क्षेत्रों नर्मदापुरम और बैतूल में जरूर उन्होंने सभाएं लीं. इस के पीछे भी उन के अपने समर्थकों का मैदान में होना बड़ा कारण था. इन दोनों संसदीय क्षेत्रों में सभाएं ले कर वे दिल्ली और फिर विदेश रवाना हो गए. कमलनाथ का बीच चुनाव में इस तरह जाना कांग्रेस नेताओं को यह भरोसा दिला गया कि कमलनाथ कांग्रेस में रह कर भी कांग्रेस में नहीं हैं. इस के चलते अगले तीन चरणों के चुनावों में कार्यकर्ता और नेता पूरी तरह निराश नजर आया.
हवाईयात्रा कर हवाबाजी करते रहे पटवारी
चुनाव में आर्थिक तंगी बता कर कांग्रेस के हिस्से में प्रदेश में एक हैलिकौप्टर आया. इस का उपयोग प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते स्वाभाविक था कि जीतू पटवारी ही उपयोग करेंगे. उन्होंने पूरे चुनाव के दौरान खूब हवाई यात्राएं कीं और अपने साथ राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव को रखते हुए एकजुटता का संदेश देने का प्रयास जरूर किया. वहीं दूसरे नेताओं से उन्होंने लगातार दूरी बनाए रखी. मगर कार्यकर्ताओं के भरोसे पर वे कभी खरे उतरते नजर नहीं आए. कई सीटों पर प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया के दौरान दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं पर दबाव बना कर अपने समर्थकों को टिकट दिलाने में कामयाब रहे. यह दबाव वाली कामयाबी भी उन्हें ले डूबी.
सब से पहले इंदौर में कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम जिसे टिकट दिलाने के लिए पूरी ताकत पटवारी ने लगाई, वे ऐनवक्त पर धोखा दे कर भाजपा के साथ हो लिए. खजुराहो के बाद इंदौर सीट पर भी कांग्रेस का प्रत्याशी मतदान के पहले ही मैदान छोड़ कर गायब हो गया. इसी तरह मुरैना में सतीश सिकरवार को टिकट दिला कर उन्होंने इस संसदीय सीट की विजयपुर विधानसभा सीट के विधायक रामनिवास रावत की नाराजगी मोल ले ली. अपनी उपेक्षा के चलते रावत ने भी पटवारी को निशाने पर लिया और कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया.
वहीं सागर संसदीय सीट की बीना से कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे भी सागर संसदीय सीट पर अपनी उपेक्षा के चलते भाजपा में चली गईं. इस तरह अमरवाड़ा के बाद 2 और कांग्रेस विधायक पटवारी की अकड़ के कारण कांग्रेस छोड़ गए, मगर पटवारी ने भी कमलनाथ की तरह ‘मैं, मेरा और मेरी अकड़’ के चलते इन नेताओं को रोकने का प्रयास नहीं किया. इतना ही नहीं, प्रदेश में बड़े ब्राह्मण चेहरा रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी को भी भाजपा में जाने से रोकने का प्रयास पटवारी ने नहीं किया. धीरेधीरे कांग्रेस सिमट गई और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कार्यकर्ता में अपना भरोसा खोते रहे. साथ ही, कई बार वे इस तरह की बयानबाजी करते रहे जिस से कांग्रेस को ही नुकसान हुआ. पूर्व मंत्री इमरती देवी को ले कर की गई एक टिप्पणी ने पटवारी के खिलाफ ऐसा माहौल खड़ा किया कि पूरी भाजपा ने एकजुटता दिखाई और उन्हें महिला विरोधी घोषित करने का प्रयास किया. मामले में पुलिस ने एफआईआर भी दर्ज की है.
पटवारी की हवाहवाई बयानबाजी ने भी कांग्रेस को खूब कमजोर किया. दूसरी ओर प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं से न तो उन्होंने रायशुमारी की और न ही उन्हें मानइज्जत ही दी. जिस के चलते ये नेता भी घर बैठते नजर आए. पटवारी भाजपा के खिलाफ मुद्दे उठाने में भी असफल रहे. बीते 20 सालों में देखें तो प्रदेश में व्यापमं घोटाला, मंदसौर का किसान आंदोलन, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे थे, मगर पटवारी ने इन मुद्दों पर जोर ही नहीं दिया. इन मुद्दों को ले कर भाजपा को घेरा ही नहीं. पटवारी के अलावा पूरी कांग्रेस ही इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ मुद्दों पर हावी होती नजर नहीं आई.
गुटों में बंटे नेताओं ने कांग्रेस को समेट दिया
मध्य प्रदेश में कांग्रेस का इतिहास रहा है कि गुटों में बंटी रही. प्रदेश में कांग्रेस की हार के लिए खुद कांग्रेसी ही जिम्मेदार होते हैं. लोकसभा चुनाव में एक बार फिर यही बात सामने आई. ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में चले जाने से प्रदेश कांग्रेस में सिर्फ दो गुट ही बचे नजर आ रहे थे, मगर लोकसभा चुनाव में जीतू पटवारी ने अपना नया गुट खड़ा करने की कोशिश की.
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह अपनेअपने गुटों के नेताओं के लिए सक्रिय रहे. उन के समर्थक नेताओं की सक्रियता भी मैदान में नजर नहीं आई. कमलनाथ अपने पुत्र के लिए छिंदवाड़ा से बाहर नहीं गए. वहीं दिग्विजय सिंह और उन के समर्थक पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन ये दोनों अपने संसदीय क्षेत्रों राजगढ़ और रतलाम-झाबुआ से बाहर नहीं गए. वहीं पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह वैसे तो विंध्य अंचल की 4 संसदीय सीटों का चेहरा कहलाते हैं, मगर वे केवल सीधी संसदीय क्षेत्र तक ही सिमटे रहे. इस के चलते प्रदेशभर में इन नेताओं के समर्थकों ने भी मैदान में सक्रियता नहीं दिखाई, बल्कि इन के समर्थक इन नेताओं के संसदीय क्षेत्र में पहुंच कर कार्य करते नजर आए. इन समर्थकों द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र, जहां के वे निवासी हैं, के प्रत्याशी की उपेक्षा की. यह भी कांग्रेस की हार का बड़ा कारण सामने आया. दिग्विजय सिंह और कमलनाथ कांग्रेस के ऐसा नेता हैं जिन के समर्थक हर संसदीय क्षेत्र में हैं. इन के समर्थकों ने अपने नेताओं के लिए उन के क्षेत्रों में पहुंच कर काम किया और अपने संसदीय क्षेत्र के प्रत्याशी से दूरी बनाए रखी.