लोकसभा चुनाव के दौरान 7 मई को बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने अपने 29 वर्षीय भतीजे आकाश आनंद को अचानक अपने उत्तराधिकारी और राष्ट्रीय कोऔर्डिनेटर के पद से हटा दिया. जबकि आकाश को वे 2017 से ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में तैयार कर रही थीं, जब आकाश की उम्र महज 22 बरस की थी. मायावती ने आकाश को राष्ट्रीय कोऔर्डिनेटर बनाया और लोकसभा चुनाव से पहले उन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि मायावती ने आकाश आनंद को अपरिपक्व कह कर पार्टी कोऔर्डिनेटर पद के साथसाथ उत्तराधिकार के दायित्व से भी मुक्त कर दिया?
दरअसल आकाश आनंद एक जोशीले युवा हैं. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान उनके जोशीले भाषण दलित और पिछड़े समाज के लोगों में जान फूंक रहे थे. लोग उनके भाषणों से उत्साहित थे. इससे आकाश का जोश और बढ़ गया. उन्होंने जिस तरह मनुवादियों को गरियाना शुरू किया तो दलितों को लगा कि उन्हें आकाश के रूप में अपना तारणहार मिल गया. अपने हर भाषण में आकाश आनंद सवर्णों की सरकार यानी भारतीय जनता पार्टी की जम कर आलोचना कर रहे थे. एक चुनावी रैली में आकाश आनंद को कहते हुए सुना गया, “यह सरकार बुलडोजर सरकार और देशद्रोहियों की सरकार है, जो पार्टी अपने युवाओं को भूखा छोड़ती है और अपने बुजुर्गों को गुलाम बनाती है, वह आतंकवादी सरकार है. अफगानिस्तान में तालिबान ऐसी ही सरकार चलाता है.”
गोया कि भाजपा की तुलना आकाश आनंद ने तालिबान से कर डाली. आकाश यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीबी) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए राज्य में 16,000 अपहरण की घटनाओं को लेकर भी भाजपा सरकार पर महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहने का आरोप लगाया. उन्होंने यहां तक कह डाला कि केंद्र की भारतीय जनता पार्टी ‘चोरों की पार्टी’ है, जिसने चुनावी बांड के माध्यम से 16,000 करोड़ रुपये लिए. और बस आकाश के इसी अति जोशीले और बेबाक लहजे ने मायावती को डरा दिया.
ऐसे उत्तेजक भाषणों के बाद आकाश आनंद के खिलाफ 28 अप्रैल को सीतापुर में एक एफआईआर भी दर्ज हुई. मायावती पहले ही भ्रष्टाचार के अनेक मुकदमों में फंसी हुई हैं. चाहे प्रदेश की 11 शुगर मिल औने पौने दामों में बेचने का मामला हो, चाहे ताज कॉरिडोर मामला या आय से अधिक संपत्ति का मामला, मायावती पर 131 से ज्यादा आरोप हैं, जिनमें से अधिकांश जांचें सीबीआई द्वारा की जा रही हैं.
मायावती के खिलाफ सीबीआई ने 700 पन्नों के तीन ट्रंक सबूत जुटा रखे हैं. मायावती के खिलाफ उसके पास 50 से ज्यादा गवाह हैं. 1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तब से लेकर अपने तीसरे कार्यकाल तक उन्होंने और उनके रिश्तेदारों ने अरबोंखरबों की जितनी संपत्ति अर्जित की इसका पूरा कच्चा चिट्ठा सीबीआई के पास है. मोदी सरकार के एक इशारे पर सीबीआई कब उनको उठा कर जेल में बंद कर दे, यह तलवार बराबर उनकी गर्दन पर लटकी हुई है. ऐसे में भतीजे आकाश आनंद के भाजपा विरुद्ध दिए जा रहे भाषणों से वे बुरी तरह डर गयीं.
सीबीआई जो केंद्र सरकार के इशारे पर उनके विरोधियों के केस की गति बढ़ाती घटाती है, मायावती की गर्दन भी केंद्र सरकार के हित में दबा रखी है. जिस भाजपा के खिलाफ मायावती चूं भी नहीं कर सकतीं, उसके खिलाफ उनके भतीजे ने जब मोर्चा ही खोल दिया तो वे बुरी तरह घबरा उठीं. क्या पता अंदरखाने उनको दिल्ली से फ़ोन भी गया हो कि सम्भालो वरना…. और बस मायावती ने आननफानन में आकाश आनंद को अपरिपक्व बताते हुए ना सिर्फ पार्टी के सभी कार्य उनके हाथ से ले लिए बल्कि राष्ट्रीय कोऔर्डिनेटर पद और अपने उत्तराधिकार से भी वंचित कर दिया.
लेकिन आकाश आनंद को चुनाव के बीच हटा देने से बसपा को नुकसान ज़्यादा हुआ. आकाश दलित और पिछड़ों की पसंद बन कर उभर रहे थे, दलित युवा उनके नेतृत्व में एकजुट हो रहा था, उनके खून में गर्मी आ रही थी और बसपा समर्थकों की तादाद बढ़ रही थी, आकाश के चेहरे में दलितों और पिछड़ों को आंबेडकर और काशीराम दोनों की छवि दिखने लगी थी कि तभी मायावती के फैसले ने उनकी उफनती आशाओं पर ठंडा पानी उंडेल दिया. आकाश के मैदान छोड़ते ही पिछड़ों-दलितों की यह भीड़ इधर उधर भागने लगी. पिछड़े कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की तरफ भागे तो दलित भी कई भाग में बंट कर कुछ सपा और कांग्रेस तो कुछ चंद्रशेखर आजाद के झंडे तले जुट गए.
नगीना सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने वाले दलित नेता चंद्रशेखर आजाद को मायावती के फैसले का बड़ा फायदा मिला. बसपा से छिटके दलित चंद्रशेकर से आ जुड़े और नगीना सीट पर उन्होंने अपने विरोधी पर बड़े अंतर से जीत दर्ज की, जबकि लोकसभा में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पायी.
पार्टी की ऐसी दुर्दशा होने के बाद मायावती को आकाश के बारे में अपना फैसला वापस लेना पड़ा. बसपा की हार की समीक्षा करने पर पार्टी के अन्य सदस्यों ने एकसुर में यही कहा कि आकाश आनंद को निकालना सबसे बड़ी भूल थी. खैर मायावती ने अब भूल सुधार ली है. लोकसभा चुनाव के बाद वो काफी एक्टिव भी नज़र आ रही हैं. लोकसभा के रिजल्ट में भाजपा की हालत भी पतली हुई है. जनता ने भाजपा की सीटों को 240 पर ही समेट कर उसकी ताकत को सीमित कर दिया है, जिसके चलते उसे सहयोगियों के सहारे किसी तरह अपनी सरकार बचाना और चलाना है. भाजपा की ताकत कमजोर होने से मायावती का डर भी कुछ कम हुआ है. लिहाजा जिस भतीजे को अपरिपक्व बताकर उन्होंने बाहर किया था, 47 दिन बाद ही उसको ना सिर्फ नेशनल कोऔर्डिनेटर बना कर वापस लिया बल्कि उसकी ताकत भी दुगनी कर दी है. अब हर मीटिंग और हर फैसले में आकाश सबसे अहम भूमिका निभाएंगे और पार्टी नेताओं को उन्हें सहयोग करना होगा. पार्टी के अहम फैसलों में भी आकाश आनंद की भूमिका रहेगी. उम्मीदवारों के चयन भी उनकी राय से होगा.
कुछ ही दिन में उपचुनाव होने हैं और उसके लिए मायावती आकाश के नेतृत्व में अपने कैंडिडेट्स उतार रही हैं. उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होने हैं. आकाश आनंद पहले भी दूसरे राज्यों की जिम्मेदारी संभालते रहे हैं. अब इन चुनावों में पार्टी के पास एक दमदार युवा चेहरा होगा. उसके जोशीले भाषण होंगे. आकाश ने कुछ बेहतर किया तो उनके आगे के राजनीतिक सफर की दिशा भी तय हो जाएगी. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2027 में हैं. इन तीन सालों में वह और परिपक्व होकर बसपा को मजबूत करेंगे.
फिलहाल आकाश के सामने अपने खोये हुए वोटर्स को वापस लाने की चुनौती है. इसके साथ ही नगीना से लोकसभा सीट जीतने वाले दलित नेता चंद्रशेखर आजाद भी उनके सामने बड़ी चुनौती बन कर खड़े हो गए हैं. दलितों और पिछड़ों के सामने इस वक़्त दो लीडर हैं. चुनाव उनको करना है. वे आकाश की भाषण शैली से भी प्रभावित हैं तो चंद्रशेखर की जीत में उनको अपना मसीहा दिखने लगा है. चंद्रशेखर उम्र में आकाश आनंद से बड़े और काफी परिपक्व हैं. वे सनातनियों के खिलाफ धुआंधार बोलते हैं और उनकी शैली काफी आक्रामक है. उनकी ताकत को हर दलित महसूस करता है.
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में मायावती ने यूपी में सभी 80 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे लेकिन किसी भी सीट पर पार्टी का खाता नहीं खुला, उलटे उनका वोट बैंक 10 फीसदी नीचे आ गया. कुल वोट मिले 9.39 फीसदी, जो बसपा के गठन से अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है. बसपा ने जब 1989 में अपना पहला चुनाव लड़ा था, तब भी बसपा को 9.90 फीसदी वोट मिले थे और उसने लोकसभा की 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन 2024 में तो मायावती का कोई भी प्रत्याशी दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच सका.
रही-सही कसर चंद्रशेखर आजाद ने पूरी कर दी. उन्होंने नगीना लोकसभा सीट से एक लाख 52 हजार वोट के बड़े अंतर से जीत दर्ज की. मायावती ने दलित होने के नाते चंद्रशेखर को कोई रियायत नहीं दी थी. उनके खिलाफ भी उन्होंने अपना उम्मीदवार उतारा था, जिनका नाम था सुरेंद्र पाल सिंह. चंद्रशेखर के सामने चुनाव लड़ रहे सुरेंद्र पाल सिंह को महज 13,272 वोट मिले, जबकि चंद्रशेखर ने 5,12,552 वोट लाकर इस सीट से शानदार जीत दर्ज की. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चंद्रशेखर की जीत ने तय कर दिया है कि उत्तर प्रदेश में वे दलित राजनीति का नेतृत्व करेंगे. लेकिन उपचुनाव में अगर आकाश आनंद की मेहनत रंग लाती है और 2027 के विधानसभा चुनाव तक वे जमीनी स्तर पर अपने मतदाताओं को जोड़ने में सफल होते हैं तो प्रदेश के राजनीति में बसपा का सिक्का फिर चमक सकता है.
देखा जाए तो इस वक्त दलित और पिछड़े दो ध्रुवों – चंद्रशेखर और आकाश, के बीच ऊहापोह की स्थिति में हैं. अब दोनों को ही सिद्ध करना होगा कि दलितों का मसीहा कौन है. मायावती को भी समझ में आ गया है कि अगर अपने दलित वोटों को बचाये रखने के लिए चंद्रशेखर से मुकाबला करना है तो उसी तेवर की जरूरत है, जो आकाश आनंद के पास है. चंद्रशेखर अभी तक सीधे मायावती पर हमलावर होने से बचते थे, अगर आकाश आनंद उनका नाम लेते हैं तो फिर चंद्रशेखर के निशाने पर भाजपा, सपा और कांग्रेस ही नहीं बल्कि बसपा भी होगी. और आकाश आनंद-चंद्रशेखर की सियासी लड़ाई में जो जीतेगा, वही दलितों-पिछड़ों का नया मसीहा होगा.
निसंदेह दोनों ही काफी प्रखर, ओजस्वी, जानकार और बेख़ौफ़ नेता हैं. लेकिन चंद्रशेखर जहां काशीराम की शिक्षाओं को दलितों के बीच पहुंचाना चाहते हैं और उनको उनके अधिकारों के प्रति जागृत करना चाहते हैं वहीं आकाश आनंद राजनीतिक इच्छा से इस सफर पर आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि शक्तिशाली होने पर दोनों ही दलितों और पिछड़ों के लिए आदर्श साबित हो सकते हैं. लेकिन इनकी शक्ति अगर आपस में प्रतिद्वंदिता करने में खर्च होगी तो इससे दलितों-पिछड़ों का नुकसान होगा. दलित और पिछड़ा वर्ग जब तक दो नावों की सवारी करेगा उसके विकास की गति धीमी ही रहेगी. वह कभी चंद्रशेखर का मुंह ताकेगा तो कभी आकाश आनंद से उम्मीद लगाएगा. कांशीराम के बाद इतने बेख़ौफ़, प्रखर और बेबाक नेता पहली बार दलितों-पिछड़ों को मिले हैं. दोनों युवा हैं. दोनों आगे कई सालों तक राजनीति में रहेंगे. अगर दोनों साथ मिल कर चलें तो मनुवादियों को धूल चटा सकते हैं. लेकिन ऐसी संभावना कम ही है.
एक तीसरा विकल्प है कांग्रेस. यदि दोनों मिल कर कांग्रेस के साथ चलते हैं तो देश में कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जहां जाति-धर्म-सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर राजनीति नहीं खेली जाती. यही एक पार्टी है जिसमें हिन्दू, मुसलमान, दलित, पिछड़ा, ईसाई, सिख, आदिवासी आदि सभी से सामान व्यवहार होता है. किसी को शूद्र मान कर उसे दरी बिछाने या कांवर ढोने तक सीमित नहीं किया जाता. हालांकि मनुवाद के समर्थक इस पार्टी में भी खूब हैं, मगर उनकी सोच संविधान से ऊपर नहीं है. संविधान को सर्वोपरि रखने वाली कांग्रेस ही एक ऐसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी है जिसमें सब कम्फर्टेबल है. यही एक पार्टी है जो ‘सबका साथ सबका विकास’ की सोच को वास्तविक रूप में भारत की धरती पर उतार सकती है.
भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को
हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को
आजकल के वैवाहिक आमंत्रण पंत्रों में आउट डेटेड बना दी गईं ये मधुर पंक्तियां कम ही दिखती हैं, क्यों ? इस सवाल का सीधा सा जबाब यह है कि अब बुलावे में पहली सी आत्मीयता और लगाव नहीं रह गए हैं. शादी में बुलाना कम से कम 80 फीसदी मामलों में बेहद व्यवहारिक व्यवसायिक और औपचारिक होता जा रहा है और लगभग से ज्यादा डिजिटल हो गया है. पहले वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका जिन को दी या भेजी जाती थी वे सिलैक्टेड होते थे यानी उन्हें बुलाना ही होता था.
वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका आते ही घर में हलचल सी मच जाती थी. वर वधू के मातापिता और दादादादी और दर्शानाभिलाशियों सहित स्वागत को उत्सुक लोगों के नाम पढ़ कर उन के पारिवारिक इतिहास और भूगोल के चीरफाड़ की रनिंग कमेंट्री होती थी, उन से खुद के रिश्ते संबंध या परिचय जो भी हो का बही खाता खुलता था और फिर तय होता था कि इस शादी में कौनकौन जाएगा और मेजबान के अपने यानी मेहमान के प्रति किए गए और दिए गए व्यवहार के हिसाब से क्या गिफ्ट दिया जाएगा.
यानी बात जैसे को तैसा या ले पपड़िया तो दे पपड़िया वाली कहावतों को फौलो करती हुई होती थी कि अगर उन के यहां से कोई हमारे यहां की शादी में आया था तो हमें भी जाना चाहिए और उन के यहां से जो व्यवहार या तोहफा आया था लगभग उसी मूल्य और हैसियत का हमें भी देना चाहिए.
बढ़ते शहरीकरण और सिमटती रिश्तेदारी के चलते अब और भी बहुत सी चीजें गुम हो गई हैं. उन की व्याख्या करने को यही एक पहलू पर्याप्त हैं कि 20 फीसदी अपवादों को छोड़ दिया जाए तो शादी का कोई भी इनविटेशन जाने की बाध्यता नहीं रह गया है. अब घर पर कार्ड देने वही आता है जो वाकई में आप की गरिमामयी उपस्थित्ति आशीर्वाद समारोह में चाहता है.
यह जाहिर है नजदीकी रिश्तेदार या अभिन्न मित्र होता है जिस से एक नियमित संपर्क भी आप का होता है. वह आप को डिजिटली तो कार्ड भेजेगा ही साथ में एक बार से ज्यादा फोन कर याद भी दिलाएगा और मुमकिन है कार्ड कुरियर से भी भेजे और उस के साथ में मिठाई का डब्बा भी हो यहां जाने आप को सोचना नहीं पड़ता.
लेकिन अगर डिजिटली बुलाने वाले चाहे वे नए हों या पुराने के निमंत्रण में न नेह हैं और न ही उस ने रूबरू हो कर मानस के राजहंस और प्रियवर जैसा कोई आत्मीय संबोधन देते भूल न जाना जैसा मार्मिक और भावनात्मक आग्रह किया हुआ होता है तो जाहिर है उस ने एक औपचारिकता भर निभा दी है. नया कोई ऐसा करे तो बात ज्यादा अखरती नहीं लेकिन कोई पुराना करे तो इगो आड़े आना स्वभाविक बात है.
बुलाने के साथसाथ जाने न जाने के पैमाने भी बदल रहे हैं. मसलन अब इनविटेशन कार्ड में सिर्फ वेन्यू गौर से देखा जाता है कि घर से कितने किलोमीटर दूर किस डायरैक्शन में जाना पड़ेगा. कार्ड के बाकी मसौदे से कोई खास मतलब जाने वाले को नहीं रहता. यानी यह उत्साहहीनता और औपचारिकता दो तरफा हैं जो एक उलझन तो मन में पैदा कर ही देते हैं कि जाएं या न जाएं. और जाएं तो गिफ्ट क्या ले जाएं. हालांकि जमाना नगदी वाले लिफाफों का है इसलिए यह सरदर्दी कम तो हुई है.
अहम सवाल जाएं या नहीं इस का फैसला इन पोइंट्स से तय करें –
1 – अगर सिर्फ व्हाट्सऐप पर कार्ड डाल दिया गया है तो जाना कतई जरुरी नहीं क्योंकि बुलाने वाले की मंशा अगर वाकई बुलाने की होती तो वह कार्ड पोस्ट करने के पहले या बाद में एक बार फोन करता या मैसेज में छोटा ही सही आग्रह जरुर करता.
2 – मुमकिन यह भी है वह वाकई बुलाना चाह रहा हो लेकिन भूल गया हो या इतनी समझ और व्यवहारिकता उस में न हो कि फोन भी कर ले.
3 – ऐसे में यह देखें कि आप के उस से संबंध कैसे हैं. कई बार संबंध बेहद औपचारिक और परिचय तक ही सीमित होते हैं और केवल इसी आधार पर बेटे या बेटी की शादी का इनविटेशन कार्ड दे दिया जाता है. मसलन बुलाने वाला आप की कालोनी या अपार्टमेंट का वाशिंदा हो सकता है जिस से कभीकभार चलतेफिरते दुआ सलाम या बातचीत हो जाती है जिस के बारे में आप यह तो जानते हैं कि ये थर्ड फ्लोर पर कहीं रहने वाले शर्माजी हैं लेकिन पीएन शर्मा हैं या एनपी शर्मा हैं इस में कन्फ्यूज हों तो ऐसी शादी में जाना जरुरी नहीं.
4 – औफिस कुलीग भी अकसर इसी तरह कार्ड देते हैं कि आप आएं न आएं इस से उस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. यहां आप को तय करना है कि आप उस से कैसे संबंध रखना चाहते हैं. अगर बढ़ाना चाहते हैं तो जाना हर्ज की बात नहीं. यह भी अहम है कि कार्ड देते वक्त उस ने आग्रह कैसे किया था और दोबारा कभी याद दिलाया या नहीं.
5 – जाने न जाने का एक पैमाना यह भी सटीक है कि पिछले एक साल में आप उस के घर कितनी दफा गए या वह कितनी बार आप के घर आया था. अगर इस का जबाब एक बार भी नहीं में है तो जाना बाध्यता नहीं.
6 – बुलाने बाले से आप की कितनी बार फोन पर बात हुई या होती है इस से भी जाने न जाने की उलझन हल हो सकती है. इस के अलावा इस बात से भी तय कर सकते हैं कि आप उस के घर में किस किस को जानते हैं और उस के अलावा किसी मेंबर को जानते भी हैं या नहीं. ठीक यही बात उस पर भी लागू होती है. पारिवारिक परिचय प्रगाढ़ हो यह भी आजकल जरुरी नहीं है लेकिन इतना तो हो कि जब आप जाएं तो असहज महसूस न करें कि घर के मुखिया के सिवाय किसी को जानते ही नहीं.
असल में नई दिक्कत यह खड़ी हो रही है कि जानपहचान और रिश्तेदारी का दायरा सिमट रहा है. शादी के आमंत्रण पहले की तरह थोक में और आत्मीयता से नहीं आते हैं लेकिन जैसे भी आएं, जब आ ही जाते हैं तो मन में जाने न जाने को ले कर दुविधा पैदा हो जाती है. यही कार्ड जब व्हाट्सऐप पर आते हैं तो तय करना मुश्किल हो जाता है कि मेजबान सचमुच आमंत्रित कर रहा है या सिर्फ सूचना दे रहा है जिस के कोई माने आपके लिए नहीं होते.
जमाना ज्यादा से ज्यादा शेयर और लाइक का है. अकसर फेसबुक और व्हाट्सऐप ग्रुप में कोई भी शादी का कार्ड डाल देता है कि आप सभी पधारना और वर वधू को आशीर्वाद देना. इस तरह के बुलावे पर हालांकि कोई ध्यान नहीं देता हां बधाई आशीर्वाद और शुभकामनाओं की झड़ी ऐसे लग जाती है मानो ग्रुप के सदस्यों न उस भतीजे या भतीजे को गोद में खिलाया हो. यह सब आभासी और बनावटी है. इस से बचना ही बेहतर होता है. लेकिन बुलाने वाला नया हो या पुराना उसे व्हाट्सऐप पर ही शुभकामनाएं देने की औपचारिकता और शिष्टाचार निभाना न भूलें.
महाभारत युद्व शुरू से पहले श्रीकृष्ण ने अपने उपदेश में कहा ‘अहं सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्वं प्रवर्तते, इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः’ अर्थात मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूं. प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है. जो बुद्धिमान यह भलीभांति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं.
2024 की लोकसभा चुनाव के शपथ ग्रहण से ले कर स्पीकर के चुनाव तक नरेंद्र मोदी का जिद्दी स्वभाव व्यवहार नजर आया. भाजपा को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला. एनडीए के घटक दल चंद्र बाबू नायडू और जदयू के नीतीश कुमार की वैशाखी पर चढ़ कर नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली. शपथ लेने के बाद उन्होंने नीतीश और नायडू से किसी तरह की सलाह नहीं ली. मोदी मंत्रिमंडल में जदयू से राजीव रंजन सिंह, रामनाथ ठाकुर, टीडीपी से राममोहन नायडू को मंत्री बनाया गया. पूरे मंत्रिमंडल के गठन में भाजपा की संख्या भारी रही. उन के नेताओं को बड़े विभाग दिए. पूरा मंत्रिमंडल 2019 वाला ही दिखा.
मंत्रीमंडल के गठन के बाद दूसरी बड़ी परीक्षा लोकसभा स्पीकर के चुनाव को ले कर थी. लोकसभा स्पीकर के चुनाव में पेंच फंस गया कि विपक्ष डिप्टी स्पीकर की मांग करने लगा. इस के लिए सत्ता पक्ष तैयार नहीं था. स्पीकर को ले कर चुनाव की नौबत आ गई. सत्ता और विपक्ष अपनेअपने संख्या बल को ठीक करने लगा. भाजपा की तरफ से यह जिम्मेदारी राजनाथ सिंह को सौंप दी गई.
10 साल से उपेक्षा का शिकार रहे राजनाथ सिंह को पहली बार महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया. राजनाथ सिंह को साफतौर पर बता दिया गया था कि ओम बिडला को ही स्पीकर बनाना है. विपक्ष ओम बिडला के नाम पर तैयार नहीं था. राजनाथ सिंह ने कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे से बात की. इस के बाद भी बात डिप्टी स्पीकर के मसले पर टूट गई. इस पूरे परिदृष्य मे नरेंद्र मोदी कहीं नजर नहीं आए. न तो उन्होंने चंद्र बाबू नायडू से बात की न ही नीतीश कुमार से. इन नेताओं के भी बयान सामने नहीं आए.
जबकि इंडिया ब्लौक में टीएमसी की ममता बनर्जी ने कहा कि कांग्रेस ने उन से बात नहीं की. इंडिया ब्लौक में यह हालत है कि नेता अपनी बात कह सकता है. एनडीए में मोदी की तानाशाही है. जिस में चलते नीतीश और नायडू अपने मन की बात बाहर बोल भी नहीं पा रहे हैं. 2014 और 2019 की मोदी सरकार में राजनाथ सिंह के कद को छोटा करने का प्रयास किया गया था. 2024 में जब भाजपा का संख्या बल कम हुआ तो राजनाथ सिंह को ही स्पीकर चुनाव की डील करने की जिम्मेदारी दी गई.
जदयू और टीडीपी से स्पीकर के चुनाव में कोई सलाह नहीं ली गई. इस के जरिए नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगी टीडीपी और जदयू को साफ संदेश दे दिया है. यह सरकार कहने भर के लिए एनडीए की है असल में यह भाजपा की सरकार है. सहयोगी दल इस सरकार की पूंछ भर है, लेकिन उन की पूछ नहीं है. मंत्रिमंडल के बंटवारे में भी यह बात देखने को मिली और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में भी यही संदेश नरेंद्र मोदी ने दिया है कि सहयोगी दल प्रेमाभक्ति तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर रहे. इसी में उन का भला है.
लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में नरेंद्र मोदी का फैसला बताता है कि उन में अहम का भाव अभी बना है. जिस तरह से 2014 और 2019 विपक्ष को दरकिनार कर के फैसले लिए उसी तरह से 2024 में भी तानाशाही भरे फैसले ले रहे हैं. इस का पहला उदाहरण मंत्रिमंडल गठन में देखने को मिला जब सहयोगी दलों को केवल नाम वाले मंत्रालय दिए गए. दूसरा उदाहरण उस समय देखने को मिला जब प्रोटेम स्पीकर का चुनाव करना था.
पंरपरा के हिसाब से जो सब से अधिक बार सांसद का चुनाव जीत कर आता है उस को ही प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है. जो एक तरह से अस्थायी स्पीकर होता है. उस का काम नए संसद सदस्यों को षपथ दिलाना होता है. कांग्रेस के के. सुरेश सब से अधिक 8 बार सांसद का चुनाव जीत कर आए थे. मोदी सरकार ने के. सुरेश की जगह भर्तहरि माहताब को प्रोटेम स्पीकर बनाया जो 7 बार चुनाव जीते थे.
सरकार का तर्क था कि के. सुरेश ने लगातार 8 बार चुनाव नहीं जीता. भर्तहरि माहताब लगातार 7 बार चुनाव जीतने वाले सांसद हैं. प्रोटेम स्पीकर का साथ देने के लिए 5 सदस्यों की एक कमेटी बनी थी. इस में विपक्ष के 3 सांसद थे. इन्होने प्रोटेम स्पीकर का साथ देने से मना कर दिया.
स्पीकर उम्मीदवार के रूप में ओम बिडला को विपक्ष पंसद नहीं कर रहा था. क्योकि 2019 में उन का कार्यकाल बहुत विवादित रहा था. नरेंद्र मोदी की जिद थी कि ओम बिडला ही उन के स्पीकर होंगे. इसलिए प्रोटेम स्पीकर के साथ ही साथ स्पीकर भी अपनी रूचि का बनाना चाहते थे. ऐसे में स्पीकर के लिए सत्ता पक्ष की तरफ से ओम बिडला और विपक्ष की तरफ से के. सुरेश चुनाव मैदान में उतरे. 26 जून को सुबह 11 बजे चुनाव हुआ. ध्वनिमत से ओम बिडला को लोकसभा अध्यक्ष चुन लिया गया.
इस बहाने नरेंद्र मोदी ने यह दिखाने की कोशिश की है कि 2019 के मुकाबले भले ही भाजपा पहले जितनी सीटें जीत न पाई हो पर उन का मंत्रिमंडल वैसा ही रहेगा जैसा 2019 में था. इस के जरिए वह अपना आत्मविश्वास दिखाना चाहते थे. इसलिए ओम बिडला को ही स्पीकर बनाया. सहयोगी दल हो या विपक्ष उन के मुंह पर यह तमाचा मारने वाला फैसला था.
18वीं लोकसभा में नए अध्यक्ष का चुनाव संविधान के अनुच्छेद-93 के तहत किया जाता है. लोकसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव सांसद अपने बीच में से ही करते हैं. लोकसभा अध्यक्ष का पद का संसदीय लोकतंत्र में महत्वपूर्ण स्थान है. संसद सदस्य अपनेअपने चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन अध्यक्ष सदन के ही पूर्ण प्राधिकार का प्रतिनिधित्व करता है.
लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव इस के सदस्य सभा में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत के जरिए किया जाता है. यानी जिस उम्मीदवार को उस दिन लोकसभा में मौजूद आधे से अधिक सांसद वोट देते हैं, वह लोकसभा अध्यक्ष चुन लिया जाता है. अध्यक्ष के लिए कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं है, उसे केवल लोकसभा का सदस्य होना चाहिए.
लोकसभा अध्यक्ष सदन का कामकाज ठीक से चलाने के लिए जिम्मेदार होता है. इसलिए यह पद काफी महत्वपूर्ण है. संसदीय बैठकों का एजेंडा भी लोकसभा अध्यक्ष ही तय करते हैं. सदन में किसी तरह का विवाद पैदा होने पर कार्रवाई भी लोकसभा अध्यक्ष ही करते हैं. लोकसभा की विभिन्न समितियों का गठन अध्यक्ष ही करते हैं.
लोकसभा में अध्यक्ष का आसन इस तरह होता है कि वह सब से अलग दिखाई दे. अध्यक्ष अपने आसन से पूरे सदन पर नजर रखते हैं. लोकसभा अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होने से ले कर लोकसभा के भंग होने के बाद नई लोकसभा की पहली बैठक से ठीक पहले तक अपने पद पर रह सकते हैं. लोकसभा भंग होने की स्थिति में हालांकि अध्यक्ष संसद सदस्य नहीं रहते हैं, लेकिन उन्हें अपना पद नहीं छोड़ना पड़ता है.
लोकसभा अध्यक्ष से उम्मीद की जाती है कि वह तटस्थ भाव से सदन चलाएंगे. सदन में किसी प्रस्ताव पर मतदान में अगर दोनों पक्षों को बराबर वोट मिलने की स्थिति में अपना निर्णायक वोट डाल सकते हैं. आमतौर पर वो किसी प्रस्ताव पर मतदान में भाग नहीं लेते हैं. लोकसभा का अध्यक्ष, लोकसभा सचिवालय के प्रमुख होते हैं. यह सचिवालय उन के नियंत्रण में ही काम करता है. लोकसभा सचिवालय के कर्मियों, संसद परिसर और इस के सुरक्षा प्रबंधन का काम अध्यक्ष ही देखते हैं.
आमतौर पर लोकसभा अध्यक्ष का पद सत्ता पक्ष और उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की परंपरा रही है. 16वीं और 17वीं लोकसभा में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत था. 16वीं लोकसभा में भाजपा की सुमित्रा महाजन को अध्यक्ष चुना गया था. वहीं एआईएडीएमके के एम. थंबीदुरई को उपाध्यक्ष बनाया गया था. 17वीं लोकसभा में ओम बिरला को अध्यक्ष चुना गया था. इस लोकसभा में उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ था.
संविधान का अनुच्छेद 94 सदन को लोकसभा अध्यक्ष को पद से हटाने का अधिकार देता है. लोकसभा अध्यक्ष को 14 दिन का नोटिस दे कर प्रभावी बहुमत से पारित प्रस्ताव के जरिए उन के पद से हटाया जा सकता है. प्रभावी बहुमत का मतलब उस दिन लोकसभा में 50 फीसदी से अधिक सदस्य सांसद मौजूद होते हैं. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 7 और 8 के जरिए भी लोकसभा अध्यक्ष को हटाया जा सकता है. अगर स्पीकर स्वयं पद छोड़ना चाहें तो वो अपना इस्तीफा डिप्टी स्पीकर को दे सकता हैं.
ओम बिडला का पिछला कार्यकाल विवादित रहा है. सांसदों को न बोलने देने, माइक बंद करने से ले कर सांसदों के निलम्बन तक के बहुत सारे मामले थे. अब फिर ओम बिडला स्पीकर बन गए हैं. ऐसे में हालात बेहद टकराव वाले होंगे. वह पूरी ताकत से विपक्ष को बोलने से रोक सकते हैं. अब विपक्ष की संख्या भी बढ़ गई है. उन के बीच एकता भी आ गई है. सत्ता पक्ष का संख्या बल पहले के मुकाबले कम है. ऐेसे में ओम बिडला के लिए यह कार्यकाल पहले जैसा सरल नहीं होगा.
नरेंद्र मोदी का स्वभाव और रणनीति इस तरह की रहती है कि वह अपने आगे दूसरे नेता या दल को पनपने न दें. मोदी ने कभी सहयोगी दलों पर निर्भर रह कर राजनीति नहीं की. जब वह गुजरात में मुख्यमंत्री रहे, अपने विरोधियों और सहयोगियों को पनपने नहीं दिया. प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में हाईकमान कल्चर आया. 2014 और 2019 के दोनों कार्यकाल में न तो नेता प्रतिपक्ष रहा न ही सहयोगी दलों से पूछ कर काम किया. दोनों कार्यकाल में एनडीए केवल नाममात्र का था. नीतीश कुमार ने तो मोदी हटाओ की मुहिम चलाई थी. इंडिया ब्लौक के सूत्रधार वही थे.
अब वह नरेंद्र मोदी के साथ हैं. भाजपा के सहयोगी दलों जदयू और टीडीपी के लिए अब एनडीए से अलग होना सरल नहीं है. ऐसे में उन के लिए भाजपा का पिछलग्गू बन कर चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. अगर सरकार में रह कर मलाई खानी है तो मोदीमोदी करना होगा. हृदय से उन की पूजा करनी होगी. चरणदास की तरह से प्रभू के चरणों में उन के प्रसाद की चाह में पडे रहना पड़ेगा. यही नहीं नरेंद्र मोदी भाजपा को बहुमत में लाने का प्रयास करेंगे, जिस से सहयोगी दलों पर उन की निर्भरता कम हो जाए.
ऐेसे में औपरेशन लोटस से छोटे दल घबराए हुए हैं. पंजाब में अकाली दल ने केवल एक सीट ही जीती है. इस के बाद अकाली दल में आपसी झगड़े खड़े हो गए हैं. सुखबीर सिंह बादल का आरोप है कि भाजपा और उस की एजेंसियों के द्वारा इस काम को किया जा रहा है. अगर पंजाब में आकाली दल कमजोर हुआ तो वहां पर खालिस्तानी आंदोलन उभर सकता है. जो पंजाब ही नहीं पूरे देश के लिए खतरनाक होगा. ऐसे में भाजपा का यह कदम घातक होगा. असल में भाजपा अपनी संख्या बढ़ाने के लिए छोटे दलों में तोड़फोड़ करना चाहती है. ऐसे में उस के निशाने पर सहयोगी दलों के साथ ही साथ विरोधी दल भी हैं.
सरकार के शपथ ग्रहण और लोकसभा स्पीकर चुनाव के बाद मोदी सरकार को राहत मिल गई है. ऐसे में अब वह अपने विस्तार पर ध्यान देगी. वह जल्द से जल्द अपनी 272 की संख्या के करीब तक पहुंचना चाहती है. ऐसे में औपरेशन लोटस सब से प्रमुख है. सहयोगी और विरोधी दोनों दलों को सावधान रहने की जरूरत है.
ब्रिटेन के प्रमुख अख़बार ‘द डेली टैलीग्राफ’ के एक हालिया सर्वे के मुताबिक प्रधानमंत्री ऋषि सुनक उत्तरी इंगलैंड सीट से चुनाव हार सकते हैं. और तो और, 4 जुलाई को होने जा रहे मतदान में उन की कंजर्वेटिव पार्टी के हाउस औफ कौमन्स की 650 में से महज 53 सीटें ही ले जाने की स्थिति इस सर्वे में बताई गई है. 4 जून को भारत के आम चुनाव परिणाम देख कहा जा सकता है कि इन सर्वेक्षणों का क्या भरोसा जो एनडीए और भाजपा को भारी बढ़त पर बता रहे थे लेकिन नतीजों के आसपास भी कोई नहीं था.
इस लिहाज से बात ठीक है लेकिन यह बात अहम है कि आमतौर पर विदेशी सर्वेक्षण भक्ति और आस्था से प्रेरित नहीं होते और ब्रिटेन के मामले में तो साफ़ दिख रहा है कि टैलीग्राफ सत्तारुढ़ दल की ही दुर्गति होना बता रहा है. दो टूक यह भी कहा जा सकता है कि 1855 से प्रकाशित हो रहे टैलीग्राफ की अपनी अलग साख और विश्वसनीयता है और इस के अलावा भी हर कोई यह कह और मान रहा है कि इस बार कंजर्वेटिव पार्टी और ऋषि सुनक दोनों की हालत खस्ता है. सुनक की जीत की उतनी ही संभावना है जितनी कि उन की हार की आशंका है यानी चांस फिफ्टीफिफ्टी है. उलट इस के, प्रमुख विपक्षी दल लेबर पार्टी बहुत आगे चल रही है. टैलीग्राफ के सर्वे में उसे 516 सीटें मिलने का अंदाजा जताया गया है.
एक अकेले टैलीग्राफ ही नहीं, बल्कि कई दूसरे सर्वेक्षणों में भी लेबर पार्टी को काफी बढ़त पर बताया जा रहा है. ब्रिटिश इंटरनैश्नल मार्केटिंग रिसर्च और डाटा एनालिसिस कंपनी यूगोव (you Gov) के पोल में भी कंजर्वेटिव पार्टी को 20 फीसदी और लेबर पार्टी को 47 फीसदी वोट मिलने की बात कही गई है. एक और सर्वे पोलिटिको पोल में तो कंजर्वेटिव पार्टी को तीसरे नंबर पर जाते दिखाया गया है. उसे केवल 18 फीसदी वोट मिलने की संभावना जताई गई है. रिफौर्म यूके पार्टी को 19 फीसदी वोटों के साथ दूसरा स्थान दिया गया है. रिफौर्म यूके 2018 में गठित नईनवेली छोटी सी लेकिन दक्षिणपंथी ही पार्टी है जिस के मुखिया वे नाइजेल फराज हैं जिन्हें एक वक्त में ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर निकालने के लिए जाना जाता है.
यह वह वक्त है जब भारत में भाजपा की दुर्दशा की चर्चा दुनियाभर में जारी है लेकिन कोई स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा है कि ऐसा क्यों हुआ. सिर्फ एक सरिता पत्रिका ही है जो यह बताती रही कि नरेंद्र मोदी और भाजपा जनता को धर्म की आड़ ले कर गुमराह कर रहे हैं, बहलाफुसला रहे हैं जिस की हकीकत जनता समझने लगी है. नरेंद्र मोदी हालांकि टीडीपी और जेडीयू की बैसाखियों के सहारे तीसरी बार प्रधानमंत्री बन जरूर गए हैं लेकिन उन के तेवर अब पहले जैसे आक्रामक और तानाशाही वाले नहीं रह गए हैं. हालांकि वे अपनी तरफ से ठसक दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन वे पुराने ज़माने के ठाकुरों सरीखी साफ़साफ़ दिखती है जिन के पास आन, बान और शान के संस्मरण ज्यादा होते हैं भगवा हवेली में अब कम दीयों की रोशनी है.
इसी तर्ज पर अगर ब्रिटेन में ऋषि सुनक की हार की स्क्रिप्ट लिखी जा रही है तो उस की प्रस्तावना या इबारत शुरू ही इस बात से होती है कि कंजर्वेटिव पार्टी भी घोषित तौर पर दक्षिणपंथी है. इस बात को इतिहास के साथसाथ उस के वर्तमान चुनावप्रचार से भी समझा जा सकता है. कंजर्वेटिव पार्टी के कुछ उम्मीदवार भारत का हवाला देते हुए यह प्रचार कर रहे हैं कि मोदी फिर प्रधानमंत्री बन गए हैं. इस का मतलब यह है कि आने वाले महीने कश्मीर के लोगों के लिए और कठिन होने वाले हैं. असल में एक पत्र के जरिए कश्मीरी और पाकिस्तानी समुदाय के मतदाताओं को इस तरह लुभाने की कोशिश कंजर्वेटिव पार्टी कर रही है कि हम अगर जीते तो संसद में कश्मीर मुद्दा उठाएंगे. इस स्टाइल के प्रचार को लेबर पार्टी ने विभाजनकारी बताते हुए एतराज जताया है.
घोषित तौर पर ही लाल रंग के झंडे वाली सौ साल पुरानी लेबर पार्टी उदार वामपंथी मानी जाती है जो धरमकरम और चर्चों की राजनीति से दूर रहती है. इस का दिल और दिमाग समाजवादी है क्योंकि इस का जन्म ही मजदूर संगठनों की देन है. तीन बार प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर लेबर पार्टी के एक लोकप्रिय नेता रहे हैं.
इस चुनाव में लेबर पार्टी के एक प्रमुख नेता डेविड लैमी भारत का नाम लेते हुए कंजर्वेटिव पार्टी पर 25 जून को जम कर यह कहते हुए बरसे थे कि 14 साल से कंजर्वेटिव पार्टी सत्ता में है. इस दौरान कितनी दीवाली आईं गईं लेकिन सरकार भारत के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमैंट यानी मुक्त व्यापार समझौता कराने में असफल रही है. उन के निशाने पर ऋषि सुनक के साथसाथ पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन भी थे. हालांकि, 10 लाख भारतीयों को रिझाने के लिए उन्होंने जम कर भारत की तारीफ भी की.
ब्रिटेन के चुनावी मुद्दों, मसलन महंगाई, इमिग्रेशन, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, घरेलू और विदेश नीति वगैरह से परे से यह सोचना लाजिमी है कि डेविड लैमी को आखिर अपनी बात में दीवाली शब्द का इस्तेमाल जोर दे कर क्यों करना पड़ा. दरअसल, प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही ऋषि सुनक भी अपना धार्मिक चेहरा उजागर करने को जीत की गारंटी मानने लगे हैं. वे नियमित रूप से साउथेम्पटन स्थित मंदिर में जाते रहे हैं, जिस का हल्ला उन के प्रधानमंत्री बनने के बाद मचा था. कम ही लोगों को जानकारी है कि वे यहां अकसर भंडारा भी करवाते हैं. यह ठीक है कि उन्होंने बेहद उठापटक के दौर में यह पद संभाला था लेकिन उन के सामने खुद की काबिलीयत को साबित करने का सुनहरा मौका भी था जिसे वे धर्म और पूजापाठ के दिखावे की राजनीति के चलते चूक गए लगते हैं.
हालात से लड़ने के बजाय ऋषि ने धर्म का सहारा लिया और धर्मस्थलों के चक्कर काटने शुरू कर दिए. सितंबर 2022 में जब वे भारत आए थे तब दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में भी उन्होंने पूजापाठ और जलाभिषेक करते हुए अपने हिंदू होने का राग आलापा था. 12 नवंबर, 2023 को दीवाली पर उन्होंने 10 डाउनिंग स्ट्रीट में दीवाली की ग्रैंड पार्टी आयोजित की थी. उस दिन उन्होंने अपने पहले ब्रिटिश एशियाई प्रधानमंत्री होने से ज्यादा कट्टर हिंदू होने का जिक्र किया था. इस भव्य और खर्चीले दीवाली समारोह में प्रीति जिंटा, अक्षय कुमार और ट्विंकल खन्ना जैसे फ़िल्मी सितारे खासतौर से शामिल हुए थे.
दीवाली का जिक्र कर डेविड लैमी ने कूटनीतिक चाल चलते ईसाई मतदाताओं को क्या याद दिलाने की कोशिश की है, इस सवाल का जवाब यही है कि उन्होंने भी एक धार्मिक चाल चली है, जिस की कोई काट ऋषि सुनक या कंजर्वेटिव पार्टी के पास नहीं है. दीवाली की पार्टी में ऋषि सुनक की पत्नी अक्षता मूर्ति परंपरागत भारतीय परिधान में थीं लेकिन ऋषि हास्यास्पद लग रहे थे क्योंकि उन्होंने टाई भी पहनी थी और शाल भी कंधों पर डाल रखा था. उस दिन उन के परिवार ने जम कर पूजापाठ और भजनआरती वगैरह किए.
ऋषि सुनक अपने हिंदू होने पर गर्व करें, यह किसी के लिए एतराज की बात नहीं लेकिन वे खुद के धार्मिक, कर्मकांडी और मूर्तिपूजक होने की नुमाइश बहैसियत ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हर कभी खुलेआम करें, यह बात ब्रिटेनवासी हजम नहीं कर पा रहे क्योंकि उन का भगवान देश की बदहाली दूर नहीं कर पाया जिस की जिम्मेदारी ब्रिटेन के लोगों ने उन्हें दी थी. जब भारत के हिंदू ही नरेंद्र मोदी का धर्मकर्म ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाए जिस के चलते उन्होंने भाजपा को 240 पर समेट दिया तो दक्षिणपंथी सुनक ब्रिटेन में कामयाब हो पाएंगे, ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं.
यह बात भी कम अहम नहीं कि ब्रिटेन के लोगों ने कभी ऋषि सुनक के हिंदू होने को अन्यथा नहीं लिया. उलटे, उन का स्वागत ही किया था. लेकिन वह स्वागत एक ऐसे स्मार्ट और प्रतिभाशाली नेता के तौर पर किया गया था जो देश की लडखडाती हालत को संभालने की कूवत रखता है. यह उम्मीद तो तभी ढहना शुरू हो गई थी जब ऋषि सुनक घबरा कर हिंदू देवीदेवताओं का गुणगान ‘गंगा मैया ने बुलाया है’ वाली तर्ज पर करने लगे थे.
इस का एक बेहतर उदाहरण मोरारी बापू की रामकथा में उन का नरेंद्र मोदी की तरह ‘राम सिया राम’ करते रहना था. यह रामकथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में 15 अगस्त, 2023 को आयोजित की गई थी. कथा की शुरुआत में ही उन्होंने कहा था कि, ‘मैं आज यहां प्रधानमंत्री के नहीं, बल्कि एक हिंदू के रूप में आया हूं. 10 डाउनिंग स्ट्रीट में एक सुनहरा गणेश प्रसन्नतापूर्वक बैठा है. साउथेम्पटन मंदिर में मेरे मातापिता और परिवारजन हवनपूजाआरती करते थे. बाद में मैं और मेरे भाईबहन दोपहर का भोजन और प्रसाद परोसने लगे थे.’
मोरारी बापू से रूबरू होते उन्होंने कहा था, ‘मैं आज यहां से रामायण को याद करते हुए जा रहा हूं लेकिन साथ ही, भगवदगीता और हनुमान चालीसा को भी याद करता हूं.’ आखिर में जय सिया राम का नारा लगाते हुए उन्होंने मोरारी बापू से ब्रिटेन के लोगों की सेवा करने के लिए असीम शक्ति मांगी. बापू ने गदगद होते उन्हें आशीर्वाद और सोमनाथ के मंदिर वाला शिवलिंग तोहफे में दे दिया.
यहां यह तुलना करना गैरप्रासंगिक नहीं कि ऐसा भारत में कोई करता तो सनातनी उस का क्या हश्र करते जहां मुसलमानों को आएदिन उन की पूजा पद्धतियों और त्योहारों के रीतिरिवाजों को ले कर तरहतरह से कोसा जाता है. मानो धर्म और ऊपर वाले में आस्था के कापीराइट सिर्फ सनातनी हिंदुओं के ही हों. और तो और, दलितों को भी आएदिन मंदिरों से मारपीट कर खदेड़े जाने की घटनाएं बहुत आम हैं. इस पर भी तरस खाने लायक बात यह कि राग सहिष्णुता और विश्वगुरु बनने गाया जाता है.
ऐसा एक नहीं, बल्कि कई मौकों पर हुआ जब ऋषि सुनक ने अपनी आस्था सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते नरेंद्र मोदी को भी पछाड़ने की कोशिश की. दुनियाभर के मीडिया और बुद्धिजीवियों ने कंजर्वेटिव पार्टी की इस बाबत तारीफ की थी कि उस ने एक हिंदू अल्पसंख्यक को सब से बड़े पद पर बैठाया. लेकिन उन्हीं दिनों में पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक तारेक फतह के इस ट्वीट की भी चर्चा रही थी कि ऋषि और कमला एकदूसरे के विपरीत हैं. कमला हिंदू और अपनी भारतीय पहचान पर शर्मिंदा थीं वहीं ऋषि सुनक ने अपनी हिंदू पहचान कभी नहीं छिपाई, दोनों की तुलना मत कीजिए.
असल में लोग अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की तुलना महज भारतीय मूल के होने पर करने लगे थे. लेकिन लोग यह भूल गए थे कि कमला हैरिस अमेरिका की वामपंथी पार्टी डैमोक्रेटिक से ताल्लुक रखती हैं और सुनक ब्रिटेन की दक्षिणपंथी पार्टी कंजर्वेटिव से गहरे तक कनैक्ट हैं.
तमाम सर्वेक्षणों, मीडिया और सियासी पंडितों और विश्लेषकों की नजर में ऋषि सुनक और कंजर्वेटिव पार्टी चुनाव से बाहर हैं. लेकिन भारत के 4 जून के नतीजों के मद्देनजर कोई भविष्यवाणी करना समझदारी नहीं होगी अस्तु यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जो भगवान राम अपने देश में ही भाजपा को 370 सीटें नहीं दिला सका, अपने ही लोकसभा क्षेत्र फ़ैजाबाद में नहीं जिता पाया, तमाम टोटकों और कर्मकांडों के बाद भी एनडीए को 400 पार नहीं करा सका वह ब्रिटेन जा कर ऋषि सुनक और कंजर्वेटिव पार्टी की नैया पार लगा पाएगा, इस में शक है. और फिर, फैसला वोटर को करना है जिस ने दुनियाभर में पिछले दस साल जम कर दक्षिणपंथ को हवा दी और अब घबरा कर उस से किनारा कर रहा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी लड़ाई वामपंथ और दक्षिणपंथ की है जिस में हालफ़िलहाल कांटे की टक्कर है. मुमकिन है, भारत में कमजोर पड़ते दक्षिणपंथ का असर ब्रिटेन के वोटरों पर, थोड़ाबहुत ही सही, पड़ा हो और वही अमेरिका में भी देखने में आए लेकिन उस के लिए पहले 5 जुलाई और फिर नवंबर तक इंतजार करना पड़ेगा.
वह रीता सा बचपन था और अब यह व्यस्त सा यौवन. जाने क्यों सूनापन मीलों से मीलों तक यों पसरा है मानो बाहर कुहरा और घना हो आया है. राउरकेला से 53 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के जशपुर के इस छोटे से साफसुथरे लौज में अचानक मैं क्या कर रही हूं, खुद ही नहीं जानती.
लौज के इस कमरे में बैठी खुली खिड़की से दूर कुहरे में मैं अपलक ताकती हुई खुद को वैसा महसूस करने की कोशिश कर रही हूं जैसा हमेशा से करना चाहती थी, हां, चाहती थी, लेकिन कर नहीं पाई थी.
हो सकता है ऐसा लगे कि युवा लड़की अकसर व्रिदोहिणी हो जाती है, घरपरिवार, पेरैंट्स हर किसी से लोहा लेना चाहती है क्योंकि वह अपनी सोच के आगे किसी को कुछ नहीं समझती. पर रुको, ठहरो, पीछे चलो. देखोगे तो ऐसा पूरी तरह सच नहीं है.
चलो, थोड़ा इतिहास खंगालें.
तब मैं बहुत छोटी थी. यही कोई 5 साल की. मुझे याद है मेरे पापा मुझे प्यार करते थे. गोद में बिठाते थे. लेकिन जैसे ही मैं मां के पास जाना चाहती, पापा क्रोधित हो कर मुझे प्रताडि़त करते. मुझे अपशब्द कहते. मुझे गोद में पटक देते.
धीरेधीरे मैं बड़ी होती गई. देखा, मां अपने शास्त्रीय गायन की वजह से कई बार पापा के हाथों पिटती थीं. उन के गायन की वजह से कई बार लोग हमारे घर आते. पापा मां पर गाहेबगाहे व्यंग्य कसते, मां को ले कर अपशब्द कहते. और उन के जाने के बाद कई दिनों तक मां को जलील करते रहते. ऐसा वातावरण बना देते कि घर के काम के बाद मां अपना गायन ले कर बैठ ही नहीं पातीं, और बेहद दुखी रहतीं.
मां मेरे नानानानी की इकलौती संतान थीं. बहुत ही सरल, शांत, कर्मठ और अपने गायन में व्यस्त रहने वाली. पापा पार्टी पौलिटिक्स में रुचि रखने वाले, दूसरों पर रोब जमाने वाले बड़बोले. पापा के परिवार को ऊंचे खानदान के होने का बड़ा गर्व था. कुल, मान और पैसे के बूते समाज में उन के रोब को देखते हुए मेरे नाना ने मेरी मां के रूप में दुधारू गाय यहां बांध दी. उन्होंने सोचा था कि इन के रोब से बेटी का और उस के बाद बेटी के पिता का मान और रोब बढ़ेगा. मगर हुआ कुछ उलटा ही.
मां हैं मेरी शांत प्रकृति की. वे अपशब्दों और पीड़ा के आगे अपने होंठ सिल लेतीं ताकि बेटी को लड़ाई के माहौल से दूर रखा जा सके. मगर परिवार में किसी एक व्यक्ति की भी मनमानी से बच्चों के विकास का माहौल नहीं रहता, चाहे दूसरा कितना ही चुप रह जाए.
उस वक्त मेरी उम्र कोई 12 वर्ष की रही होगी जब जाने किनकिन घटनाओं के बाद मेरे पापा चिल्लाते हुए आए और मां का गला दबोच लिया. मेरी मां बड़ी स्वाभिमानी थीं. पापा उन का गला दबा रहे थे और वे चुपचाप उन से आंखें मिलाए खड़ी थीं. यह दृश्य देख मैं अंदर से कांप गई. पापा की छत्रछाया में मुझे मेरी मौत नजर आने लगी. मैं बिलख कर पापा के पैरों में पड़ कर भीख मांगने लगी कि वे मां को छोड़ दें.
मुझे पापा ने झटका दिया. मैं नाजुक सी, बेबस बच्ची अभी संभलती, उन्होंने मां को छोड़ मुझे गरदन पकड़ कर उठाया और धक्का दे कर कहा, ‘कमीनी, मां की तरफदारी करती है.’ मैं उन के धक्के से दूर जा गिरी, मां ने दौड़ कर मुझे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.
इस तरह हम मांबेटी के न चाहते हुए भी पापा के खुद के व्यवहार की वजह से पापा को लगता गया कि हम उन के विरोधी हैं, मां उन के बारे में मुझे भड़काती हैं और तभी मैं उन से दूर होती जा रही हूं.
घर का माहौल बेवजह विषैला हो गया था. लेकिन मां को पापा से अलग होने की सलाह देने पर मां का साफ इनकार ही रहता. मैं बड़ी पसोपेश में थी कि इतनी भी क्या मजबूरी कि मां को घुटघुट कर जीना पड़े और तब, जब वे रेडियो की हाई आर्टिस्ट भी हैं.
खैर, 15 साल की अवस्था में उस का भी पता मुझे लग ही गया कि मां की आखिर मजबूरी क्या थी. नानीजी का देहांत हुआ तो हम दोनों मांबेटी के साथ पापा भी रस्म निभाने कोलकाता पहुंचे.
मां की स्थिति देख नाना कुछ अवाक दिखे. मां के साथ पापा का अभद्र व्यवहार नानाजी को खलने लगा. नाना ने जरा पापा को समझाना क्या चाहा, पापा उखड़ गए. उन के अनुसार, नाना को हमेशा दामाद के आगे झुक कर रहना चाहिए, और कुछ समझाने का दुस्साहस कदापि नहीं करना चाहिए.
नाना सकते में थे. अब तक कभी मां ने कुछ बताया नहीं था, और लगातार हो रहे मां के साथ गलत व्यवहार का नाना को पता भी नहीं था.
मैं ने नाना को सबकुछ बता कर हमारे घर की परेशानी दूर करनी चाही. मां के पीछे मैं ने नाना के सामने मेरी मां की जिंदगी के कई सारे पन्ने खोल दिए. पर बात इस तरह बिगड़ जाएगी, मुझे तो अंदाजा ही नहीं था. नाना को हार्टअटैक आ गया और हम पर कई सारी परेशानियां एकसाथ आ गईं.
खैर, जैसेतैसे जब वे ठीक हो कर आए तो उन में काफी मानसिक परिवर्तन आ गया था. उन्होंने मां को सुझाव दिया कि मां चाहें तो यहीं रुक जाएं. लेकिन मां ने ऐसा करने से मना कर दिया. अभी मैं 10वीं में थी और मेरे जीवन में कोई बाधा उत्पन्न हो, वे ऐसा नहीं चाहती थीं. क्या बस इतनी ही बात थी? हम ने जोर डाला मां पर, तो कुछ बातें और सामने आईं.
दरअसल, मेरी नानी के पिता ने नानी की मां को अपनी जिंदगी से इस तरह अलग कर रखा था और अपनी भाभी के इतने करीबी थे कि उन की मां ने जहर खा लिया था.
नानी और उन की दीदी को बड़े दुख सहने पड़े थे. तो नानी ने वचन लिया था मेरी मां से कि जिंदगी में कभी हिम्मत हार कर पलायन नहीं करेगी. अपने बच्चों को समाज के नजर में कमतर नहीं होने देगी. मां तो वचन निभा रही थीं लेकिन मैं पापा के ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, प्रतिशोध से खूब परेशान थी.
किसी भी तरह घर से निकलने के लिए मैं 12वीं करते हुए प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. इस लिहाज से पहली बार में होटल मैनजमैंट में मेरा सरकारी कालेज में चयन हो गया तो बिना वक्त गंवाए भुवेनश्वर में मैं ने ऐडमिशन ले लिया. अब दूसरे साल कोलकाता के मैरियट होटल से मैं इंडस्ट्रियल टे्रनिंग कर रही थी. पर इस बार भी परिस्थितियां जटिल होती गईं.
परिवारनुमा कठघरे में खड़े जवाबतलब से मैं बेतहाशा ऊब चुकी थी और वाकई अपने चारों ओर की बददिमाग दीवारों को हथौड़ों के बेइंतहा वार से तोड़ देना चाहती थी. ट्रेनिंग के दौरान मैं अपने दूसरे दोस्तों की तरह अलग फ्लैट ले कर रहना चाहती थी. पापा ने ऐसा होने नहीं दिया. कंपनी के जीएम पद पर थे वे. पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन थी तो विश्वास की कमी.
पीछे मुड़ कर देखने पर उन्हें सिर्फ अंधड़ ही तो दिखता था, धुआं ही धुआं. न रिश्ता साफ था, न प्यार, न विश्वास. उन के दिल में हमेशा मेरे लिए शक ही रहे. उन्हें लगा कि अकेलेपन का मौका मिलते ही मैं सब से पहले उन की इज्जत पर वार करूंगी. बदले की जिस फितरत में वे झुलस रहे थे उसी में दूसरों को भी आंकना उन की आदत हो गईर् थी.
मां पर उन्होंने यह जिम्मेदारी डाल दी कि वे अपने पिताजी को यह दायित्व दे दें कि वे मेरी जिम्मेदारी उठाएं. पापा की यह बात, जो उन्होंने मेरी मां से कही, मेरे कानों में गूंजती रहती, ‘अपने पिताश्री से कहो कि बेटी ब्याह कर सिंहासन पर बैठ सम्राट बने पैर न डुलाते रहें बल्कि पोती की सेवा कर के कुछ दामाद का भी ऋ ण उतारें.’
अवाक थी मैं, नाना हमेशा से ही अपनी कम आर्थिक स्थिति में भी हमारा खयाल रखते रहे हैं.
इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के लिए मैं भुवनेश्वर से कोलकाता गई थी. मेरी इच्छा थी मैं दिल्ली के लीलाज होटल गु्रप में अपनी ट्रेनिंग पूरी करूं. मैं ने पापा से छिपा कर वहां के लिए इंटरव्यू दिया और चयन भी हो गया. मगर पापा की मरजी के बगैर मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकी.
नाना पूरी लगन से मेरी जिम्मेदारी में जुट गए थे. लेकिन यहां भी प्रेम का बंधन अब भारी पड़ने लगा मुझ पर. मुझे ट्रेनिंग से वापस आने में रात के 2 बज रहे थे. होटल की गाड़ी घर तक छोड़ रही थी. अभी नींद आने तक सारे दिन का संदेश मुझे फोन पर चैक करना होता था. दरअसल, ड्यूटी में अथौरिटी के आदेश से फोन जमा रहते थे.
अब नाना की हिदायत होने लगी कि मैं रात को फोन न पकड़ूं, दोपहर तक न सोई रहूं, भले ही रात 3 बजे तक नींद आई हो. मेरा ड्रायर से गीले बाल सुखाना उन्हें गवारा न था जबकि होटल में हमें ऐसी ही हिदायतें दी गई थीं क्योंकि हमें ड्यूटी में गीले बाल ले कर आना मना था. पोशाक मेरी मरजी की मैं पहनूं तो नाना की सभ्यता में खलल पड़ता.
मतलब इन कोलाहलों ने मेरे अंतर्मन को सन्नाटे में तबदील कर दिया था. नाना अपनी जगह सही थे. और मैं अब बच्ची नहीं रह गई थी, यह सब नाना को समझाते रहने की एक बड़ी कठिन परिस्थिति से मैं जूझने को मजबूर थी.
अब बहुत हो चुका था. अंतर्मुखी होना मेरी खासीयत से ज्यादा नियति हो गई थी. प्यारइमोशन, सुखदुख अब मैं किसी से साझा नहीं करना चाहती थी. मुझे अपने पापा के आदेशोंनिर्देशों, नाना के अफसोसों, मां की प्यारभरी फिक्रों से नफरत होने लगी थी. मैं सब से दूर जाना चाहती थी. और तब जाने कैसे इस निर्बंध के बंधन में जकड़ कर यहां आ पहुंची थी. यह था उस की अभी तक की जिंदगी का इतिहास.
खुली खिड़की से कुहरा मेरी तरफ बढ़ता सा नजर आया, जैसे अब आ कर मुझे पूरी तरह जकड़ लेगा और मैं खो जाऊंगी इस घने से शून्य में.
ठंड से जकड़न बढ़ती जा रही थी मेरी. पीछे से जैसे कुहरे ने हाथ रखा हो मेरी पीठ पर. मैं सिहर कर पीछे मुड़ी. ओह, प्रबाल वापस आ गया था और अपना ठंडा बर्फीला हाथ मेरी पीठ पर रख मुझे बुला रहा था. वह बोला, ‘‘यह लो अदरक वाली चाय. मैं पी कर तुम्हारे लिए एक ले आया. इस लौज के नीचे क्या मस्त चाय बन रही है. यहां से दूर उस सामने पहाड़ी तक घने कुहरे की चादर बिछ गई है. चलो न, अब तैयार हो कर पैदल चलें पहाड़ी तक.’’
मैं ने चाय ली और उस से थोड़ी मोहलत मांगी. वह नीचे चला गया.
6 फुट का यह लंबा, गोरा, गठीला, रोबीला नौजवान मेरी एक बात पर मेरे साथ कहीं भी चला जाता है. मेरे लिए लोगों से कितनी ही बातें सुनता है और मैं कभी इस से ढंग से बात ही नहीं कर पाती. आज इस की इच्छा का मान रखना चाहिए मुझे.
वूलन ट्राउजर पर ग्रे कलर की हूडी चढ़ा कर मैं नीचे आ गई. वह मेरे इंतजार में इधरउधर घूमते हुए अगलबगल के छोटे होटलों में लंच के लिए जानकारी जुटा रहा था. मेरी 5 फुट 4 इंच की हाइट और उस की 6 फुट की हाइट के साथ खड़े होते ही अपने ठिगनेपन के एहसास भर से बिदक कर मैं हमेशा उस से दूर जा खड़ी होती हूं और वह एक रहस्यमयी मुसकान के साथ मेरी ओर देख कर फिर दूसरी ओर देखने लगता है.
छत्तीसगढ़ के मनोरम जशपुर में क्रिसमस का यह दिसंबरी महीना गुलाबी खुमारी से पत्तेपत्ते को मदहोश किए था. पहाड़ी तक पहुंचने की सड़क बर्फीली लेकिन चमकीली हो रही थी. पास ही दोनों ओर खाईनुमा ढलानों में मकानों और पेड़ों की कतारें एकदूसरे से दूरियों के बावजूद जैसे लिपटे खड़े दिख रहे थे.
प्रकृति और मानव जिजीविषा का अनुपम समागम. जितना यहां तालमेल है मानव और प्रकृति के बीच, हम शहर के कारिंदों में कहां? रहना होता है बित्तेभर की दूरी में और दिल की खाई पाटे नहीं पाटी जाती.
प्रबाल आगे निकल रहा था. इस कुहेलिका ने उसे कुतूहल से भर दिया था और अकसर मेरा ध्यान रखने वाला प्रबाल आज कुदरत के नजारों में डूबा हुआ आगे बढ़ गया था.
मैं ने घड़ी देखी. सुबह के 8 बज रहे थे. कल आए थे हम दोनों यहां.
होटल मैरियट में क्रिसमस की भारी व्यस्तता के बाद 28 और 29 दिसंबर को हम दोनों को छुट्टी मिली थी.
20 साल की उम्र भारतीय समाज में शिशुकाल ही मानी जाती है, अपने परिवार और रिश्तेदारों में तो अवश्य. ऐसे में पीछे जरूर ही पहाड़ टूट कर ध्वंस लीला चलने की उम्मीद कर सकती हूं. वह भी जब बिना बताए एक लड़के के साथ मैं यहां आ गई हूं.
प्रबाल को मैं 2 सालों से जानती हूं. कालेज में भी वह मेरा अच्छा दोस्त रहा. और इस ट्रेनिंग में भी बराबर मुझे समझने का और साथ देने का जैसे बीड़ा ही उठा रखा था उस ने.
प्रबाल रुक कर मेरा इंतजार कर रहा था. पास जाते ही उस ने एक ऊंची पहाड़ी के पास गोल से एक सफेद रुई से मेघ की ओर इशारा किया. मैं ने देखा तो उस ने कहा, ‘‘ठीक तुम्हारी तरह है यह मेघ.’’
‘‘कैसे?’’
‘‘तुम भी तो ऐसी ही सफेद रुई सी लगती हो कोमल, लेकिन अंदर दर्द का गुबार भरा हुआ, लगता है बरस पड़ोगी अभी. लेकिन बिन बरसे ही निकल जाती हो दूर बिना किसी से कुछ कहे.’’
मैं खुद को कठोर दिखाने का प्रयास करती रहती हूं, लेकिन सच, शरमा गई थी अभी, कैसे समझ पाता है वह इतना मुझे. उस के साथ मेरी दोस्ती बड़ी सरल सी है. ‘कुछ तो है’ जैसा होते भी जैसे कुछ नहीं है. उस के साथ क्यों आई, न जानते हुए भी मुझे उस के साथ ही आने की इच्छा हुई, जाने क्यों. वह भी तो कभी किसी बात पर मुझे मना नहीं करता.
‘‘एकदम अविश्वसनीय,’’ मैं अचानक बोल पड़ी तो वह अवाक हुआ, ‘‘क्या?’’
‘‘तुम्हारा यों बोलना.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कभी कहते नहीं ऐसे.’’
झेंपते हुए वह आगे बढ़ गया. मैं नहीं बढ़ पाई. वहीं रुकी रही. सोच रही थी पीछे क्या हो रहा होगा. नाना, पापा, मां ‘क्यों और क्यों नहीं’ के सवाल लिए सब बरसने को तैयार खड़े मिलेंगे.
77 साल की उम्र में कई तरह की शारीरिक, मानसिक परेशानियों की वजह से थकेहारे नाना अब भी सहर्ष उस युवा लड़की की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर थे, जो दबंग दामाद की व्रिदोहिणी बेटी थी और कभी भी उन की नपीतुली कटोरी में नहीं उतरने वाली थी. मेरे अचानक कहीं चले जाने की बात नाना को, मेरे पापा को बतानी पड़ी, कहीं मैं कुछ करगुजर जाऊं और पूरे परिवार को पछताना पड़े.
मैं ने अपना फोन खोला तो पापा के ढेरों संदेश दिखे, ज्यादातर धमकीभरे.
‘पापा, मैं जिऊंगी, मेरी सांसों को आप मेरी मां की तरह डब्बे में बंद नहीं कर सकते. भले ही कितनी ही माइनस हो जाए औक्सीजन मेरे लिए, मैं सांसें तो पूरी लूंगी, पापा,’ मैं ने सोचा.
मैं पीछे से जा कर प्रबाल के बराबर चलने लगी थी. हम एक पहाड़ी पर आ पहुंचे थे. दूधिया कुहरा छंट गया था और अब सूरज की चंपई किरणों ने हमें अपने आलिंगन में ले लिया था.
प्रबाल ने झिझकते हुए मेरा हाथ पकड़ा. मैं धड़कनों को महसूस कर रही थी. मैं ने उस के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर उस के पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘प्रबाल, हम दोस्त क्यों हैं, कभी यह सवाल तुम ने सोचा है?’’
‘‘तुम यह सवाल क्यों सोचती हो?’’
‘‘जरूरी है प्रबाल, मेरे लिए यह सवाल जरूरी है. मैं खुद को बहुत अच्छी तरह जानती हूं, इसलिए.’’
‘‘मैं ने तो सोचा नहीं. बस.’’
‘‘अगर सोचोगे नहीं तो आगे चल कर शायद पछताना भी पड़े.’’
‘‘तुम तो अपने घर वालों के बारे में सबकुछ बता ही चुकी हो, मेरे बारे में भी जानती ही हो कि मेरे बड़े भाई इंजीनियर हैं, शादीशुदा हैं, बेंगलुरु में जौब करते हैं, मम्मीपापा दोनों सरकारी जौब में थे और अब दोनों ही रिटायर हो चुके हैं, काफी पैंशन मिलती है, घरबार है. मेरी होटल की पढ़ाई को नाक कटाने वाला मान कर वे मुझ से सीधेमुंह बात नहीं करते थे. तो खानदान से लगभग बिछड़ा हुआ मैं अपने बलबूते ताकत जुटाने की कोशिश कर रहा हूं और तब तक पापा के पैसे से फलफूल रहा हूं. क्या तुम्हें मेरे इन विशेषणों से कोई परेशानी है?’’
‘‘इसलिए, इसलिए ही प्रबाल, मैं तुम से बात करना चाह रही थी. तुम ने लक्ष्य निर्धारित कर के दौड़ना शुरू कर दिया है लेकिन जिसे संग लिए तुम दौड़ में जीतना चाहते हो वह तो सैर पर निकली है. उसे तो तुम्हारे लक्ष्य से कोई वास्ता नहीं, प्रबाल. उसे अभी हवाओं के कतरों को अपनी झोली में भरने की फिक्र है.’’
‘‘समझता हूं अभ्रा. लेकिन मुझे तुम्हारे साथ की आदत हो गई है. इसलिए नहीं कि तुम बहुत खूबसूरत, मासूम, गोरी और स्लिम हो या तुम अपने पापा की इकलौती हो, या तुम्हारा ब्यूटी सैंस बिंदास है, बल्कि इसलिए कि हम दोनों की सोच में बहुत अंतर नहीं, हम एकदूसरे को एकदूसरे पर थोपते नहीं. और हम समानांतर साथ चल सकते हैं बहुत दूर, इसलिए.’’
‘‘पर उम्मीद के बंधन में मैं नहीं बंध सकती प्रबाल. मैं खरा उतरने से आजिज आ गई हूं. भूल जाओ मुझे और जिन पलों में जब तक साथ हैं उतने में ही जीने दो मुझे.’’
प्रबाल मुझे अपलक देखता रहा. सूरज की भरपूर रोशनी के बावजूद सारे कुहरे उस के चेहरे पर ही आ कर जम गए थे जैसे. हम वापसी में सारे रास्ते चुप रहे और अपने कमरे में आ कर कुछ देर अपनेअपने पलंग पर लेटे रहे.
हम थक कर सो तो गए थे लेकिन हमारे अंदर भी एक कोलाहल था और बाहर भी.
कोलकाता वापस जा कर इस कोलाहल ने मेरे जीवन में भारी संघर्ष का रूप ले लिया. एक लड़के के साथ भागी हुई लड़की फिर से वापस आई है. यह तो भारतीय समाज में कलंक ही नहीं, मौत के समान दंडनीय है. भला हो कानून का जो अंधा है, इसलिए सारे पक्षों को देख पाता है, वरना आंख वालों से इस की उम्मीद नहीं.
मांपापा दोनों इस बीच नाना के पास आ गए थे और पापा अपने मोरचे पर तहकीकात में मुस्तैद रहते हुए भी अपनी कटी नाक के लिए मुझ पर जीभर लानत भेज रहे थे.
नाना ने आते ही मुझे लड़के से बात कराने पर जोर देना चाहा. बात करा दूं तो शादी के लिए ठोकाबजाया जा सके.
अब किस तरह किसकिस को समझाऊं कि इन लोगों की नापतोल से बाहर भागी थी मैं, और साथ था एक समझने वाला दोस्त.
पापा ने इस बीच फरमान सुना दिया, ‘‘सब बंद. पढ़ाई के नाम पर सारे चोंचले बंद. तुम मेरे साथ वापस चल रही हो, एक लड़का देखूंगा और तुम्हें विदा कर दूंगा. सांप नहीं पाल सकता मैं.’’
‘क्या मुझे नाना की बात से हमदर्दी थी? या मैं पापा के आगे घुटने टेक दूं? नहीं पापा, मैं जिऊंगी मां के इतिहास को पलट कर. मैं जिऊंगी खुद की सांसों के सहारे,’ यह सब सोचती मैं सभी को अनदेखा कर अपनी ट्रेनिंग पूरी करने को होटल के लिए निकल गई. होटल पहुंच कर नाना को फोन कर दिया कि ट्रेनी के लिए बने होटल के बंकर में ही मैं रह जाऊंगी, पर वापस उन के घर अब नहीं जाऊंगी.
मुझे होटल से 4 हजार रुपए भत्ते के मिलते और होटल में ही रहनाखाना फ्री था. यह ट्रेनिंग पीरियड कट जाने के लिए काफी था. लेकिन बाद की बात भी माने रखने वाली थी.
मेरे बंकर में रह जाने से प्रबाल को मेरे पीछे के हालात का अनुमान हो गया था और उस की मेरे प्रति सहानुभूति से मुझे उन्हीं गृहस्थी के पचड़े की बदबू सी महसूस हो रही थी. प्रबाल मेरे सख्त रवैए के प्रति अचंभित था. आखिर लड़की को क्या जरा भी सहारा नहीं चाहिए?
नहीं प्रबाल, मैं अपनी सांसें खुद अपने ही संघर्ष की ऊष्मा से तैयार करूंगी.
होटल में रह जाने के मेरे निर्णय की गाज नाना और मां पर गिरी. पापा मां को बिना लिए ही लौट गए इस हिदायत के साथ कि नाना और मां मिल कर जितना बिगाड़ना है मुझे बिगाड़ते रहें, वे अब जिम्मेदार नहीं.
इधर नाना से भी और गिड़गिड़ाया न गया, मां तो पापा के आगे थीं ही गूंगी.
मां की दुर्गति देख यही लगा कि मैं पापा के आगे हथियार डाल दूं और पापा के ढूंढ़े कसाई के खूंटे से बंध जाऊं. लेकिन यह मेरी दुर्गति की इंतहा हो जाती और मां के भविष्य की सुधार की कोई गारंटी भी नहीं थी.
दूसरी मुश्किल थी अगले 6 महीने की कालेज फीस का इंतजाम करना, जो
50 हजार रुपए के करीब थी और यह नाना से लेने की कोशिश पापा के साथ बवाल को अगले पड़ाव तक ले जाने के लिए काफी थी. तो क्या करती, प्रबाल के फीस भर देने के अनुरोध को मजबूरी में मान जाती या पढ़ाई और जिंदगी छोड़ सामंती अहंकार के आगे फिर टूट कर गिर जाती?
साल के बीच से एजुकेशन लोन मिलना मुश्किल था. मैं ने प्रबाल से ही कहना बेहतर समझा. उस ने सालभर की फीस भर दी और मेरी तसल्ली के लिए इस बात पर राजी हो गया कि मैं कोर्स पूरा होते ही नौकरी कर के उस का कर्ज चुका दूंगी.
एक दिन मैं ट्रेनी की हैसियत से होटल की ड्यूटी के तहत रिसैप्शन काउंटर पर खड़ी थी. पापा एक 30 वर्षीय युवक के साथ अचानक कार से उतर कर मेरे पास आए.
पापा ने मुझे मेरे एचआर मैनेजर का मेल दिखाया. मेरे यहां से रवानगी का इंतजाम करा लिया था उन्होंने.
मैं जल्द एचआर मैनेजर मैम से मिलने गई और वस्तुस्थिति का संक्षेप में खुलासा कर उन से सकारात्मक फीडबैक ले कर पापा के साथ दुर्गापुर लौट गई. हां, जातेजाते एक शर्त लगा दी कि मां वापस आएंगी, तभी आप का कहा सुनूंगी.
अजायबघर के उस लड़की घूरने वाले शख्स, जिसे पापा साथ लाए थे, के आगे पापा को हां कहना पड़ा.
घर आ कर मेरे कुछ भी कर जाने की धमकी के आगे झुक कर पापा ने मां को बुलवा लिया.
अब शठे शाठ्यम समाचरेत यानी जिस ने लाठी का प्रयोग किया उस के लिए लाठी का ही तो प्रयोग करना पड़ेगा, समान आचरण से ही क्रूर इंसान को सीख मिल सकेगी.
एक तरफ मुझे ट्रेनिंग में वापस जाने की हड़बड़ी थी. दूसरी ओर शादी वाले युवक से पीछा छुड़ाना था. और तो और, प्रबाल के लिए हमारे परिवार में एक स्थान बनाना था ताकि मुझे ले कर उस की कोशिश को महत्त्व मिल सके.
सब से पहले मैं ने प्रबाल से बात की. वह सहर्ष तैयार हो गया कि नाना और पापा की कड़ी को जोड़ने में वह मुख्य भूमिका में आएगा. धीरेधीरे उस की पहल पर नाना की प्रबाल के साथ जहां अच्छी ट्यूनिंग हो गई वहीं मेरे पापा के स्वभाव के प्रति भी उन में नर्म रुख आया.
इधर, एचआर मैनेजर मैम को उन की बात की याद दिलाते हुए मैं ने उन से मुझे जल्द ट्रेनिंग में वापस बुलाने को कहा. मैम मेरी आत्मनिर्भरता की सोच का स्वागत करती थीं और उन्होंने पापा पर जोर डाला कि वे मेरी ट्रेनिंग को पूरी करने दें. अड़ी तो मैं भी थी. उन्होंने भी सोचा कि एक बार यह पारंपरिक बिजनैसमैन फैमिली में चली गई तो यों ही इस का बेड़ा गर्क होने ही वाला है. कहीं ज्यादा रोक से बिगड़ गई तो लड़के वालों के सामने हेठी हो जाएगी. पापा ने मुझे ट्रेनिंग में जाने दिया. प्रबाल मुझ पर लगातार नजर रखे था.
एक दिन बड़ी घुटी सी महसूस कर रही थी मैं. माइग्रेन से सिर फटा जा रहा था मेरा. प्रबाल पास आया और मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘व्यर्थ ही परेशान होती हो. मैं हूं तुम्हारा दोस्त, क्यों इतना सोचती हो. तुम मेरे साथ होती हो तो मुझे खुशी होती है, और मैं यह तुम से कह कर और ज्यादा खुश होना चाहता हूं. तुम भी कहो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं तो. इस से मुझे बेहद खुशी होगी. विचारों को खुला छोड़ो. इतना घुटती क्यों हो?’’
मैं, बस, रो पड़ी. मेरी स्थिति भांप कर प्रबाल ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं अभ्रा, तुम चाहो तब भी और न चाहो, तब भी. जरूरी नहीं कि हम सामाजिक रीति से पतिपत्नी बनें कभी, लेकिन साथ होने का एहसास, जो समझे जाने का एहसास है, वह अनमोल है. अगर मेरा तुम से जुड़े रहना तुम्हें पसंद नहीं, तो बेझिझक तुम वह भी कह दो. हां, मैं तुम्हें भूलने की गारंटी तो नहीं दे सकूंगा, लेकिन तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा.’’
आंखों में आंसू थे मेरे जरूर, लेकिन दिल में सुकून के फूल खिल उठे थे. सच, प्रबाल की सोच मेरी सोच के कितने करीब थी.
जब तुम्हें कोई पसंद आता है तो तुम अपनी मरजी से उसे पसंद करते हो. फिर बंधन के नाम पर प्रेम की जगह उम्मीदों, आदेशों, निर्देशों और खुद की मनमानी की जंजीरों से क्यों बांध देते हो उसे? यह तो सामने वाले के दायरे को संकरा करना हुआ.
परिवार में पिता कमा कर लाता है, अपना दायित्व निभाता है. यह उस का बड़प्पन है. लेकिन बदले में परिवार के अन्य सदस्यों के विचारों और इच्छाओं का मान न करना, अपनी मनमानी करना, न्यायसंगत नहीं है. पैसे के बदले उसे ऐसे अधिकार तो नहीं मिल सकते. बच्चे पैदा करने में आप ने किसी पर दया तो नहीं की थी. विचारों के उथलपुथल के बीच मैं सुन्न सी पड़ गई थी.
प्रबाल ने कहा, ‘‘जो भी परेशानी हो, मुझे बताना. मैं हल निकालूंगा.’’
शादी वाले युवक का फोन नंबर कुछ सोच कर मैं ने पापा से यह कह कर रख लिया था कि शादी से पहले परिचय कर लूंगी फोन पर. बाद में मैं ने यह नंबर प्रबाल को दिया और हम ने इस पर मंथन करना शुरू किया.
प्रबाल इस बीच नाना के साथ अपनेपन की जमीन तैयार कर चुका था. अब वह वहां जा कर मेरे उन विचारों से मेरे घर वालों को अवगत करा रहा था जिन में अब तक किसी की दिलचस्पी नहीं थी. उस ने नाना से अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘अहंकार पर मत लो नाना. मैं समझता हूं उसे, क्योंकि मैं ने समझने की कोशिश की है. आप लोग उस के ज्यादा करीबी जरूर हो, लेकिन बात किसी को महत्त्व देने की है. आप लोग खुद को और खुद की सोचों को ज्यादा महत्त्व देते हो और मैं अभ्रा को. इसलिए, मैं ज्यादा आसानी से उसे समझ पाता हूं.’’
नाना इतने भी अडि़यल नहीं थे, वे समझ गए और मुझे मदद देने को तैयार हो गए. शादी वाले युवक को फोन कर नाना ने कहा, ‘‘बेटा, आप का बहुत ही परंपरावादी परिवार है, लेकिन यह शादी आप को कोई सुख नहीं दे पाएगी. लड़की के पिता सिर्फ बेटी को सजा देने के लिए यह शादी करवा रहे हैं. लेकिन बेटी किसी दबाव या मनमानी सह कर नहीं जिएगी. वह स्वतंत्र सोच वाली आधुनिक लड़की है. शादी के बाद आप सब की जगहंसाई न हो. बाकी, आप की इच्छा.’’
लड़के ने तुरंत फोन रखने की कोशिश में कहा, ‘‘मैं नहीं करने वाला यह शादी, मुझे शुरू से ही शक था.’’
‘‘सुनो बेटे, सुनोसुनो, यह तुम मत कहना कि हम ने आगाह किया तुम्हें, क्योंकि लड़की के पापा के डर से हमें यह कहना पड़ेगा हम ने ऐसा नहीं कहा. और तुम प्रमाण देने लगे तो हमें फिर और दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. आप लोग लड़के वाले हो, लड़की के बारे में पता करना आप का हक है. इसी लिहाज से कह देना कि आप को लड़की जमी नहीं.’’
‘‘हां, कह दूंगा.’’
बात शांति से खत्म. पापा को जब सुनने में आया कि होटल मैनेजमैंट पढ़ने वाली लड़की खानदानी बहू नहीं बन सकती और इसलिए रिश्ता खत्म, तो पापा ने खूब लानत भेजी मुझे. मैं ने भी कह दिया, ‘‘अब तो कहीं ऊंची नौकरी कर लूं तभी आप की कटी नाक फिर से निकले. फीस जारी रखिए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो कर आप का नाम रोशन करूं.’’
‘‘और लड़कों के साथ जो भाग जाती हो?’’
‘‘एक दोस्त है मेरा प्रबाल, लड़की की शक्ल नहीं है उस की. बस, इतना ही कुसूर है. थोड़ा तो आगे बढि़ए पापा.’’
इस बीच, प्रबाल नाना की पुरानी सोचों में काफी बदलाव ले आया था. वे अब नई पीढ़ी को समझने को तैयार रहने लगे थे. मैं ट्रेनिंग में ही थी और होटल का बंकर ही फिलहाल मेरा ठिकाना था.
मेरे जन्मदिन पर नाना ने अपने घर में एक छोटा सा आयोजन रखा और कुछ परिचितों को बुलाया. पार्टी के खास आकर्षण मेरे मांपापा थे जिन्हें नाना ने अपनी वाकपटुता से आने के लिए राजी कर लिया था. निसंदेह इस में प्रबाल की दक्षता भी कम नहीं थी.
प्रबाल का मानना था कि तोड़ने में हम जितनी ऊर्जा गंवाते हैं, जोड़ने में उतनी ही ऊर्जा क्यों न गंवा कर देखा जाए. जिंदगी को खूबसूरती से जिया जाए तो दुनिया की सुंदरता को हम शिद्दत से महसूस कर सकते हैं.
प्रबाल और मेरी उपस्थिति में जब एक अच्छी पार्टी रात गए खत्म हुई तो नाना ने प्रबाल को रात हमारे साथ ही रुक जाने को कहा.
पापा का पहला सवाल, ‘‘अभी तक यहां क्यों है?’’ इशारा प्रबाल की ओर था उन का.
नाना ने कहा, ‘‘ताकि हम सब साथ हो सकें. कुछ देर रुक कर मेरी बात सुनो आकाश, किसी की कुछ न सुनना और अपना फरमान दूसरों पर थोप देना, तुम्हारी यह आदत तुम्हें दूसरों की नजर में गिरा रही है.’’
‘‘मैं आप का कोई ज्ञान नहीं सुनूंगा. आप बेटी के बाप हैं, उतना ही रहें.’’
‘‘बस पापा,’’ मैं कूद पड़ी थी बीच में, ‘‘पुराने ढकोसलों से पटी पड़ी आप की सोच और उन निरर्थक सोचों पर आप की दूसरों की जिंदगी चलाने की कोशिश हमें ले डूबेगी. आप बुरी तरह अहंकार की चपेट में हैं, पैसे और रुतबे की धौंस से आप अपने परिवार को बांधे नहीं रख सकते. जिंदगीभर आप तानाशाही नहीं चला सकते. आप मेरा खर्च उठा कर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, बदले में लेने की कुछ फिक्र न करें. बेटी का पिता कह कर किसे नीचे दिखा रहे हैं? आप क्या हैं?’’
मेरी मां अवाक मुझे देख रही थीं. अचानक बोल उठीं, ‘‘यह प्रबाल की संगत का असर है, वरना सोच तो कब से थी हम में, लेकिन बोलने की हिम्मत कहां थी.’’
‘‘यही तो चाहते रहे पापा कि उन के आगे किसी की हिम्मत नहीं पड़े. उन्हें कभी हिम्मत हुई कि अपने अंदर के अहंकार के शिलाखंड को तोड़ें? कोशिश ही नहीं की कभी खुद को गलत कहने की, खुद की सोचों को मथने की.’’
पापा सिर झुकाए बैठे रहे जैसे सिर से पैर तक ज्वालामुखी पिघल कर गिरतेगिरते बर्फ सा जमता जा रहा था. धीरेधीरे उन्होंने सिर उठाया और प्रबाल की ओर देखा और देखते रह गए. 6 फुट की हाइट, गोरा, शांत, सुंदर चेहरा, समझदार ऐसा कि सब को साथ लिए चलने का हुनर हो जिस में, अच्छा परिवार, लेकिन नौकरीकैरियर? होटल? नहींनहीं.
पापा अभी कुछ नकारात्मक कह पड़ते, इस से पहले मैं ने कमान संभाल ली, ‘‘पापा, अभी मुझे काफी कुछ करना है, दुनिया को अपने सिरे से ढूंढ़ना है, इसलिए नहीं कि मैं मनमानी करना चाहती हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे खुद को खुद के अनुसार गढ़ना है किसी अन्य के अनुसार नहीं.
‘‘मेरे खयाल से प्रबाल अगर होटल लाइन में है तो यह उस की खुद की मरजी है, किसी और की मरजी की गुलामी कर के आप के अनुसार किसी खानदानी लाइन जैसे कि डाक्टरी या इंजीनियरिंग में जाता और अपना परफौर्मैंस खराब करता तो क्या वह किसी काम का होता?’’
तुरंत मां ने कहा, ‘‘हम प्रबाल को अपना समझते हैं. यह हमेशा हमारे परिवार के साथ खड़ा रहा है. मेरे हिसाब से आकाश, आप भी समझ रहे होंगे. हम इसे अपने लिए बांध कर रख लेते हैं. अभ्रा को पढ़ने देते हैं.’’
पापा ने पहली बार खुलेदिल से प्रबाल की ओर देखा, फिर मां से कहा, ‘‘ठीक है.’’
ये दो शब्द उपस्थित सारे लोगों की सांसों में सुगंधित, मीठी बयार भर गए.
प्रबाल समझ गया था कि उसे राजगद्दी मिल चुकी है लेकिन उसे राजगद्दी से ज्यादा ‘मैं’ चाहिए थी. वह मेरी भावनाओं को अच्छी तरह समझता था.
उस ने कहा, ‘‘मां, मैं वचन देता हूं मैं आप सब का ही हूं और रहूंगा. मैं अभ्रा को छोड़ कर कहां जाऊंगा? मगर उसे खुल कर जीने दें. उसे जब जैसे मेरे साथ आना हो, आए. यह मुक्ति का बंधन है, टूटेगा नहीं.’’
मैं प्रबाल की आंखों से उतर कर जाने कहां खो कर भी प्रबाल में ही समा गई. हां, यह मुक्ति का ही बंधन था जिस ने मुझे अदृश्य डोर में बांधे रखे था, बिना बंधन का एहसास दिए. द्य
ऐसा भी
होता है
मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं. वे अपने दूसरे पुत्र की शादी के लिए विशेष चिंतित थे क्योंकि उस की उम्र बढ़ती जा रही थी. वैसे तो वे हमेशा कहते फिरते थे कि वरयोग्य कन्या मिल जाने पर शादी कर लेंगे पर जब भी कोई लड़की वाला आता, इतनी मांग सामने रख देते कि वह लौट जाता.
चूंकि लड़का कदकाठी और देखने में ठीक था व मुंबई में कमाता था सो आने वालों की कतार लगी रहती थी. एक जगह शादी तय होने लगी पर लेनदेन का मामला आड़े आने लगा. उसे भी हाथ से निकल जाते देख उन्होंने शादी के लिए हां कर दी. विवाह के बाद जब कन्यापक्ष के लोग चौथ ले कर आए और लड़की की विदाई की चर्चा करने लगे, तब उन्होंने टाल दिया. वे इसी प्रकार 3-4 बार आए, मगर वापस लौटा दिए जाते.
लोगों के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि दानदहेज की जितनी मेरी चाह थी, वह रकम मिलने पर ही विदाई करेंगे. अंत में बेचारे रिश्तेदारों को कर्ज ले कर उन की मांगें पूरी करनी पड़ीं. यह खबर चारों ओर हवा की तरह फैल गई और उन की थूथू होने लगी. इस के बाद भी उन के कान पर जूं न रेंगी. किसी के सामने पड़ जाने पर अपनी नजरें चुराते हुए घर में घुस जाते. सभाजीत
मुझे औफिस के काम से देहरादून जाना
था. मेरा बेटा मुझे बस में बिठाने आया था. वहां पहुंच कर मालूम हुआ कि देहरादून की बस जाने वाली है, मैं तुरंत बस की तरफ बढ़ गई और जल्दीजल्दी बस में चढ़ने लगी. मेरी इस जल्दबाजी में बैग बस के दरवाजे में फंस कर फट गया. अब तक बस चल दी थी, इसलिए मैं ने कपड़े उठाए और बस की पीछे वाली सीट पर ही बैठ गई.
मैं सोच रही थी, इन कपड़ों को कैसे ले जाऊंगी और बेटे से भी चलते समय कोई बात नहीं हो पाई. तभी झटके से बस रुक गई, शायद ड्राइवर ने बस के पीछे स्कूटर से आते हुए लड़के को देख लिया था. लड़का बस के पास आ कर खिड़की से कंडक्टर को बैग दे कर कह रहा था कि कृपया, यह बैग मेरी मां को दे दीजिएगा.
मैं अपने बेटे की आवाज से चौंक गई. तभी कंडक्टर ने मुझे बैग थमाते हुए कहा कि मैडम, यह बैग आप का बेटा दे गया है.
पहचान की एक क्षीण रेखा उभरी, पर कोई आधार न मिलने के कारण उस लिखावट में ही उलझ कर रह गई. लिफाफे को वहीं पास रखी मेज पर छोड़ कर वह चपातियां बनाने रसोईघर में चली गई.
अब 1-2 घंटे में राहुल और रत्ना दोनों आते ही होंगे. कालिज से आते ही दोनों को भूख लगी होगी और ‘मांमां’ कर के वे उस का आंचल पकड़ कर घूमते ही रह जाएंगे. मातृत्व की एक सुखद तृप्ति से उस का मन सराबोर हो गया. चपाती डब्बे में बंद कर, वह जल्दीजल्दी हाथ धो कर चिट्ठी पढ़ने के लिए आ खड़ी हुई.
पत्र उस के ही नाम का था, जिस के कारण वह और भी परेशान हो उठी. उसे पत्र कौन लिखता? भूलेभटके रिश्तेदार कभी हालचाल पूछ लेते. नहीं तो राहुल के बड़े हो जाने के बाद रोजाना की समस्याओं से संबंधित पत्र उसी के नाम से आते हैं, लेदे कर पुरुष के नाम पर वही तो एक है.
मर्द का साया तो वर्षों पहले उस के सिर पर से हट गया था. खैर, ये सब बातें सोच कर भी क्या होगा? फिर से उस ने लिफाफे को उठा लिया और डरतेडरते उस का किनारा फाड़ा. पत्र के खुलते ही काले अक्षरों में लिखे गए शब्द रेतीली मिट्टी की तरह उस की आंखों के आगे बिखर गए. इतने वर्षों के बाद यह आमंत्रण. ‘‘मेरे पास कोई भी नहीं है, तुम आ जाओ.’’ और भी कितनी सारी बातें. अचानक रुलाई को रोकने के लिए उस ने मुंह में कपड़ा ठूंस लिया, पर आंसू थे कि बरसों रुके बांध को तोड़ कर उन्मुक्त प्रवाहित होते जा रहे थे. उस खारे जल की कुछ बूंदें उस के मुख पर पड़ रही थीं, जिस के मध्य वह बिखरी हुई यादों के मनके पिरो रही थी. उसे लग रहा था कि वह नदी में सूख कर उभर आए किसी रेतीले टीले पर खड़ी है. किसी भी क्षण नदी का बहाव आएगा और वह बेसहारा तिनके की तरह बह जाएगी.
चिट्ठी कब उस के हाथ से छूट गई, उसे पता ही नहीं चला और वह जाल में फंसी घायल हिरनी की तरह हांफती रही. अभी राहुल, रत्ना भी तो नहीं आएंगे. डेढ़ घंटे की देर है. घड़ी की सूइयां भी उस की जिंदगी सी ठहर गई हैं. चलतेचलते घिस गई हैं. एक दमघोंटू चुप्पी पूरे कमरे में सिसक रही थी. मात्र उसे यदाकदा अपनी धड़कनों की आवाज सुनाई दे जाती थी, जिन में विलीन कितनी ही यादें उस के दिल के टुकड़े कर जाती थीं.
जब वह इस घर में दुलहन बन कर आई थी, सास ने बलैया ली थीं. ननदों और देवरों की हंसीठिठोली से घरआंगन महक उठा था. वह निहाल थी अपने गृहस्थ जीवन पर. शादी के बाद 3 ही वर्षों में राहुल और रत्ना से उस का घर खिलखिला उठा था. उसे मायके गए 2 वर्ष हो गए थे. मां की आंखें इंतजार में पथरा गईं. कभी राहुल का जन्मदिन है तो कभी रत्ना की पढ़ाई. कभी सास की बीमारी है, तो कभी देवर की पढ़ाई. सच पूछो तो उसे अपने पति को छोड़ कर जाने की इच्छा ही नहीं होती. उन की बलवान बांहों में आ कर उसे अनिर्वचनीय आनंद मिलता. उस का तनमन मोगरे के फूलों की तरह महक उठता.
भाभी ही कभी ठिठोली भरा पत्र लिखतीं, ‘क्यों दीदी, अब क्या ननदोई के बिना एक रात भी नहीं सो सकतीं.’ वह होंठों के कोनों में हंस कर रह जाती.
सास कभीकभी मीठी झिड़की देतीं, ‘एक बार मायके हो आओ बहू, नहीं तो तुम्हारी मां कहेगी कि बूढ़ी अपनी सेवा कराने के लिए हमारी बेटी को भेज नहीं रही है.’
वह हंस कर कहती, ‘अम्मां, चली तो जाऊं पर तुम्हें कौन देखेगा? देवरजी का ब्याह कर दो तब साल भर मायके रह कर एक ही बार में मां का हौसला पूरा कर दूंगी.’
रात को राहुल के पिताजी ने भावभीने कंठ से कहा, ‘अंजु, साल भर मायके रहोगी तो मेरा क्या होगा? मैं तो नौकरी छोड़ कर तुम्हारे ही साथ चला चलूंगा.’
उन के मधुर हास्य में पति प्रेम का अभिमान भी मिला होता. पर उसे क्या पता था कि एक दिन यह सबकुछ रेतीली मिट्टी की तरह बिखर जाएगा. राहुल के पिताजी के तबादले की सूचना दूसरे ही दिन मिल गई थी. उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन का तबादला रुक जाए पर कुछ भी नहीं हो सका. आखिर उन्हें कोलकाता जाना ही पड़ा.
जाने के बाद कुछ दिनों तक लगातार उन के पत्र आते रहे. सप्ताह में 2-2, 3-3. मां ने कई बार लिखा, अब तो जंवाई भी नहीं हैं, इधर ही आजा, अकेली का कैसे दिल लगेगा? वह लिखती, ‘अम्मां अकेली कहां हूं, सास हैं, देवर हैं. अब तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. मेरे सिवा कौन देखेगा इन्हें,’ फिर भरोसा था कि राहुल के पिताजी शीघ्र ही बुला लेंगे.
धीरेधीरे सबकुछ खंडित हो गया, उन के विश्वास की तरह. लिफाफे से अंतर्देशीय, फिर पोस्टकार्ड और तब एक लंबा अंतराल. पत्र भी बाजार भाव की तरह महंगे हो गए थे. बच गए थे मात्र उस के सुलगते हुए अरमान. सास, देवर का रवैया भी अब सहानुभूतिपूर्ण नहीं रह गया था.
बीच में यह खबर भी लावे की तरह भभकी थी कि राहुल के पिताजी ने किसी बंगालिन को रख लिया है. पहले उसे यकीन नहीं आया था, पर देवर के साथ जा कर उस ने जब अपनी आंखों से देख लिया तो बरसों से ठंडी पड़ी भावनाएं राख में छिपी चिनगारी की तरह सुलग कर धुआं देने लगीं. भावावेश में उस का कंठ अवरुद्ध हो गया. हाथपैर कांप उठे. उस ने राहुल के पिता के आगे हाथ जोड़ दिए.
‘मेरी छोड़ो, इन बच्चों की तो सोचो, जिन्हें तुम ने जन्म दिया है. कहां ले कर जाऊंगी मैं इन्हें,’ आगे की बात उस की रुलाई में ही डूब गई.
जवाब उस के पति ने नहीं, उस सौत ने ही दिया था, ‘एई हियां पर काय को रोनाधोना कोरता है. जब मरद को सुखमौज नहीं दे सोकता तो काहे को बीवी. खली बच्चा पोइदा कोरने से कुछ नहीं होता, समझी. अब जाओ हियां से, जियादे नखरे नहीं देखाओ.’
वह एक क्षण उसे नजर भर कर देखती रही. सांवले से चेहरे पर बड़ा गोल टीका, पूरी मांग में सिंदूर, पैरों में आलता और उंगलियों में बिछुआ…उस में कौन सी कमी है. वह भी तो पूरी सुहागिन है. मगर वह भूल गई कि उस के पास एक चीज नहीं है, पति का प्यार. पर कहां कमी रह गई उस के प्यार में, पूरे घर को संभाल कर रखा उस ने. उसी का यह प्रतिफल है.
हताश सी उस की आत्मा ने फिर से संघर्ष चालू किया, ‘मैं तुम से नहीं अपने पति से पूछ रही हूं.’
‘ओय होय, कौन सा पति, वो हमारा होय. पाहीले तो बांध के रखा नहीं, अभी उस को ढूंढ़ने को आया. खाली बिहाय करने से नाहीं होता, मालूम होना चाहिए कि मरद क्या मांगता है. अब जाओ भी,’ कहतेकहते उस ने धक्का दे दिया.
रत्ना भी गिर कर चिल्लाने लगी. उसे अपनेआप पर क्षोभ हुआ. काश, वह इतनी बड़ी होती कि पति को छोड़ कर चल देती या वह इतने निम्न स्तर की होती कि इस औरत को गालियां दे कर उस का मुंह बंद कर देती और उस की चुटिया पकड़ कर घर से बाहर कर देती, पर अब तो बाजी किसी और के हाथ थी.
लेकिन उस के देवर से नहीं रहा गया. बच्चों को पकड़ कर उस ने कहा, ‘बोलो भैया, क्या कहते हो? अगर भाभी से नाता तोड़ा तो समझ लो हम से भी नाता टूट जाएगा. तुम्हें हम से संबंध रखना है कि नहीं? भैया, चलो हमारे साथ.’
‘मेरा किसी से कोई संबंध नहीं.’
दिसंबर की ठिठुरती सांझ सा वह संवेदनशील वाक्य उस की पूरी छाती बींध गया था. अचेत हो गई थी वह. होश आया तो देवर उस के सिरहाने बैठा था और दोनों बच्चे निरीह गौरैया से सहमे हुए उसे देख रहे थे.
‘अब चलो, भाभी, यहां रह कर क्या करोगी? तुम जरा भी चिंता मत करो, हम लोग हैं न तुम्हारे साथ. और फिर देखना, कुछ ही दिनों में भैया वापस आएंगे.’
बिना किसी प्रतिक्रिया के वह लौट आई. पर इसी एक घटना से उस की पूरी जिंदगी में बदलाव आ गया. कुछ दिनों तक तो घर वालों का रवैया अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रहा. सास कुछ ज्यादा ही लाड़ दिखाने लगी थीं, पर एक कमाऊ पूत का बिछोह उन को साले जा रहा था.
देवर की नौकरी लगते ही देवर की भी आंखें बदलने लगी थीं. न तो सास के हाथों में दुलार ही रह गया था और न देवर की बोली में प्यार. बच्चे उपेक्षित होने लगे थे. देवर की शादी के बाद वह भी घर की नौकरानी बन कर रह गई थी. अपनी उपेक्षा तो वह सह भी लेती पर दिन पर दिन बिगड़ते हुए बच्चों को देख कर उस का मन ग्लानि से भर उठता. आखिर कब तक वह इन बातों को सह सकती थी. मां के ढेर सारे पत्रों के उत्तर में वह एक दिन बच्चों के साथ स्वयं ही वहां पहुंच गई.
वर्षों से बंधा धीरज का बांध टूट कर रह गया और दोनों उस अविरल बहती अजस्र धारा में बहुत देर तक डूबतीउतराती रही थीं. मां ने कुम्हलाए हुए चेहरे पर एक नजर डाल कर कहा था, ‘जो हो गया उसे भूल जा, अब इन बच्चों का मुंह देख.’
पर मां के यहां भी वह बात नहीं रह गई थी. पिताजी की पेंशन से तो गुजारा होने से रहा. भैयाभाभी मुंह से तो कुछ नहीं बोलते पर उसे लगता कि उस सीमित आय में उस का भार उन्हें पसंद नहीं. तब उस ने ही मां के सामने प्रस्ताव रखा था कि वह कहीं नौकरी कर लेगी.
मां पहले तो नहीं मानी थीं, ‘लोग क्या कहेंगे, बेटी क्या मायके में भारी पड़ गई?’
पर उस ने ही उन्हें समझाया था, ‘मां, छोटीछोटी आवश्यकताओं के लिए भैया पर निर्भर रहना अच्छा नहीं लगता. कल बच्चे बड़े होंगे तो क्या उन्हें भैया के दरवाजे का भिखारी बना कर रखूंगी.’
मां ने बेमन से ही उसे अनुमति दी थी. कहांकहां उस ने पापड़ नहीं बेले. कभी नगरपालिका में क्लर्क बनी, तो कभी किसी की छुट्टी की जगह काम किया. अंत में जा कर मिडिल स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली. छोेटे बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते बच्चे कब बडे़ हो गए, उसे पता ही नहीं चला. और आज तो इस स्थिति में आ गई है कि अब राहुल चार पैसे का आदमी हो जाएगा तो वह नौकरी छोड़ कर निश्चिंत हो जाएगी. हालांकि आज भी वह आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हो सकी है, लेकिन किसी का सहारा भी तो नहीं लेना पड़ा.
पर आज यह पत्र, वह क्या जा पाएगी वहां? इतने वर्षों का अंतराल?
राहुल के आने के बाद ही उस की तंद्रा टूटी. वह पत्थर की मूर्ति की तरह थी. उसे झकझोरते हुए राहुल ने चिट्ठी लपक ली.
‘‘मां, तुम्हें क्या हो गया है?’’
‘‘बेटे,’’ और वह राहुल का कंधा पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मैं क्या करूं?’’
‘‘मां, तुम वहां नहीं जाओगी.’’
‘‘राहुल.’’
‘‘हां मां, उस आदमी के पास जिस ने आज तक यह जानने की जुर्रत नहीं की कि हम लोग कैसे जीते हैं. तुम ने कितनी मेहनत से हमें पाला है. तुम्हें न सही पर हमें क्यों छोड़ दिया? मां, तुम अगर समझती हो कि हम लोग बुढ़ापे में तुम्हारा साथ छोड़ देंगे तो विश्वास रखो, ऐसा कभी नहीं होगा. मैं शादी ही नहीं करूंगा. मां, तुम उन्हें बर्दाश्त कर सकती हो, क्योंकि वे तुम्हारे पति हैं पर हम कैसे बर्दाश्त कर लेंगे उसे, जो सिर्फ नाम का हमारा पिता है? कभी उस ने दायित्व निभाने का सोचा भी नहीं. तुम अगर जाना ही चाहती हो तो जाओ, पर याद रखो, मैं साथ नहीं रह पाऊंगा.’’
उस की आंखों से अनवरत बहते आंसुओं ने पत्र के अक्षरों को धो दिया और वह राहुल का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई.
सुधा वर्मा
सरल शब्दों में समझें तो अगर दुनिया के विकसित देशों में 100 में से एक महिला को जिंदगी में सर्वाइकल कैंसर होता है तो भारत में 53 महिलाओं में से एक को यह बीमारी होती है यानी भारतीय दृष्टिकोण में करीब आधे का फर्क है.
अन्य कारण
छोटी उम्र में संभोग करना.
एक से ज्यादा पार्टनर के साथ यौन संबंध बनाना.
ऐक्टिव और पैसिव स्मोकिंग.
लगातार गर्भनिरोधक दवाइयों का इस्तेमाल.
इम्यूनिटी कम होना.
भारतीय महिलाएं माहवारी से जुड़ी बातों पर आज भी खुल कर बात करने से बचती हैं. शायद इसलिए भारतीय महिलाओं में ब्रैस्ट कैंसर के बाद सर्वाइकल कैंसर दूसरा सब से आम कैंसर बन कर उभर रहा है. योनि से असामान्य रक्तस्राव और संभोग के बाद पैल्विक में दर्द जैसी समस्याओं से दोचार हो रही हैं, तो यह जानकारी आप के लिए ही है…
कैसे होता है
सर्विक्स गर्भाशय का भाग है, जिस में सर्वाइकल कैंसर ह्यूमन पैपीलोमा वायरस (एचपीवी) संक्रमण की वजह से होता है.
यह संक्रमण आमतौर पर यौन संबंधों के बाद होता है और इस बीमारी में असामान्य ढंग से कोशिकाएं बढ़ने लगती हैं.
इस वजह से योनि में खून आना, बंद होना और संबंधों के बाद खून आने जैसी समस्याएं हो जाती हैं.
लक्षण
आमतौर पर शुरुआत में इस के लक्षण उभर कर सामने नहीं आते, लेकिन अगर थोड़ी सी सावधानी बरती जाए तो इस के लक्षणों की पहचान की जा सकती है:
नियमित माहवारी के बीच रक्तस्राव होना, संभोग के बाद रक्तस्राव होना.
पानी जैसे बदबूदार पदार्थ का भारी डिस्चार्ज होना.
जब कैंसर के सैल्स फैलने लगते हैं तो पेट के निचले हिस्से में दर्द होने लगता है.
संभोग के दौरान पैल्विक में दर्द महसूस होना.
द्य असामान्य, भारी रक्तस्राव होना.
द्य वजन कम होना, थकान महसूस होना और एनीमिया की समस्या होना भी लक्षण हो सकते हैं.
कंट्रोल करने की वैक्सीन व टैस्ट
वैसे तो शुरुआत में सर्वाइकल कैंसर के लक्षण दिखाई नहीं देते लेकिन इसे रोकने के लिए वैक्सीन उपलब्ध है, जिस से तकरीबन 70 फीसदी तक बचा जा सकता है.
नियमित रूप से स्क्रीनिंग की जाए तो सर्वाइकल कैंसर के लक्षणों की पहचान की जा सकती है.
बीमारी की पहचान करने के लिए आमतौर पर पैप स्मीयर टैस्ट किया जाता है. इस टैस्ट में प्री कैंसर सैल्स की जांच की जाती है.
बीमारी की पहचान करने के लिए नई तकनीकों में लगातार विकास किया जा रहा है. इस में लिक्विड बेस्ड साइटोलोजी (एलबीसी) जांच बेहद कारगर साबित हुई है.
एलबीसी तकनीकों के ऐडवांस इस्तेमाल से सर्वाइकल कैंसर की जांच करने में सुधार आया है.
इलाज
अगर सर्वाइकल कैंसर का पता शुरुआती स्टेज में चल जाता है तो बचने की संभावना 85% तक होती है. वैसे सर्वाइकल कैंसर का इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि कैंसर किस स्टेज पर है. आमतौर पर सर्जरी के द्वारा गर्भाशय निकाल दिया जाता है और अगर बीमारी बिलकुल ऐडवांस स्टेज पर होती है तो कीमोथेरैपी या रेडियोथेरैपी भी दी जाती है.
बचाव है जरूरी
डाक्टर से सलाह ले कर ऐंटीसर्वाइकल कैंसर के टीके लगवाएं.
महिलाओं को खासतौर से व्यक्तिगत स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि जननांगों की साफसफाई बहुत महत्त्वपूर्ण है.
माहवारी में अच्छी क्वालिटी का सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करना चाहिए.
समय पर डाक्टर से संपर्क करना कैंसर के इलाज का सब से अहम कदम है, इसलिए शारीरिक बदलावों को नजरअंदाज न करें.
-डा. अंजलि मिश्रा, लाइफलाइन लेबोरटरी
सवाल
मेरी पत्नी अच्छी जौब में सैटल है. हमारे 2 बच्चे हैं. मैं आईटी कंपनी में जौब करता हूं, लेकिन कंपनी में प्रैशर बढ़ने के कारण अब मैं जौब छोड़ कर बिजनैस करना चाहता हूं. क्या मेरा फैसला सही है?
जवाब
भले ही आप की पत्नी अच्छी जौब में है, लेकिन घर के मुखिया तो आप ही हैं न, आप पर ही घर की पूरी जिम्मेदारी है. ऐसे में आप जौब छोड़ कर बिजनैस में इतनी जल्दी सैटल होंगे, यह कहना आसान नहीं है. आजकल कंपीटिशन व प्रैशर तो हर जगह है, जिसे आप को फेस करना ही पड़ेगा. इसलिए अभी जौब छोड़ने के इरादे को मन से निकालिए और खुद को कंपनी के प्रैशर के लिए तैयार करें.
इस के साथ ही बिजनैस करने के लिए खुद को तैयार करें, फिर बिजनैस शुरू कर दें. अगर आप उस में अच्छे से सैटिल हो जाते हैं तब जौब से बिजनैस में आने के बारे में सोचें. इस से पत्नी पर भार नहीं पड़ेगा और आप को अपने लक्ष्य में कामयाबी मिलने की संभावना बढ़ जाएगी.
‘रखैल, जिसे अंगरेजी भाषा में ‘कैप्ट’ कहा जाता है, शब्द सुनते ही किसी भी पत्नी के तेवर टेढ़े हो जाने स्वाभाविक हैं क्योंकि कोई भी औरत किसी पुरुष की पत्नी का दरजा हासिल करने में गरिमामय रहती है और रखैल बनते ही शर्मिंदगी का दूसरा नाम बन जाती है. फिर, आखिर क्या हो जाता है कि एक पति, पत्नी के स्थान पर एक अन्य महिला को दिल दे बैठता है या उस का दिल खुदबखुद उस ओर खिंच जाता है?
रखैल यानी वह औरत जिसे किसी भी पति ने अपनी पत्नी के अलावा अपने लिए रखा है. उस पुरुष के भावनात्मक व शारीरिक सभी अधिकार उस की रखैल को स्वत: मिल जाते हैं. वह उस के पास जाता है और शायद वहां जा कर उसे वह सुकून मिलता है जिस की उसे तलाश रहती है.
आमतौर पर भारतीय समाज में स्त्रियां शांत मानी जाती हैं और पुरुष को चंचल प्रवृत्ति का माना जाता है. यह बात भी विचारणीय है कि दिल कब किसी की ओर झुक जाता है, यह पता ही नहीं चलता और कब एक पुरुष की जिंदगी में पत्नी के स्थान पर उस की प्रेमिका या रखैल अपनी जगह बना लेती है, इस से पुरुष स्वयं अनजान रहता है.
प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों एक पुरुष का झुकाव परस्त्री की ओर हो जाता है? क्यों वह अपनी पत्नी से अधिक सुकून रखैल के पास जा कर महसूस करता है? क्या इस के लिए पत्नी ही पूरी तरह से उत्तरदायी है? इस बाबत हर उम्र की शिक्षित व अल्पशिक्षित कुछ महिलाओं से बात की गई.
देखिए, क्या कहती हैं ये महिलाएं-
कांता तिवारी जीवन के 48 वसंत पार कर चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘‘इस के लिए पूरी तरह से स्त्री ही दोषी है क्योंकि यह तब होता है जब कोई आदमी घर के माहौल या घर के लोगों से परेशान रहता है और घर में उसे वह सुकून नहीं मिलता जिस की उसे तलाश है. ऐसे में जब कोई उसे समझने वाला मिल जाता है तो उस का झुकाव उधर हो जाता है.’’
मंजू सिंह एक गृहिणी, विवाहित बेटी की मां और रिटायर्ड कर्नल की पत्नी हैं. वे कहती हैं, ‘‘विवाह के बाद एक पत्नी को समझना चाहिए कि उस का पति उस से क्या चाहता है. जब पत्नी अपने पति को समझने में भूल कर देती है तो ऐसे में आदमी को भावनात्मक सहयोग जिस से भी मिलता है वह उस की ओर खिंच जाता है, फिर चाहे वह नातेरिश्ते की कोई भाभी, बहन हो या औफिस की कोई सहकर्मी. इसलिए जब यह सहयोग घर से बाहर अधिक मिलता है तो घर यानी पत्नी गौण हो जाती है.’’
कीर्ति दुबे एक स्कूल में शिक्षिका हैं, कहती हैं, ‘‘घर आने पर जब रोजरोज चिकचिक और ताने मिलते हैं, एकदूसरे से शिकवाशिकायतें होती हैं तो आदमी घर क्यों आएगा, वह तो वहां जाएगा न, जहां उसे ठंडी बयार यानी प्यार और अपनापन मिलेगा. घर ऐसा हो जहां आ कर आदमी को सुकून का एहसास हो और घर वालों से मिलने के लिए वह लालायित रहे.’’
वीणा नागर, 2 बहुओं और 2 पोतियों की दादी हैं, ने स्वयं इस दंश को झेला है. वे कहती हैं, ‘‘कम उम्र में शादी हो गई. अपने पति के बारे में कुछ नहीं जानती थी. मैं गांव की बहुत सीधीसादी और साधारण रूपरंग की थी. वे राजनीति में अच्छा दखल रखते थे. उन्हें मौडर्न, शिक्षित पत्नी चाहिए थी जो उन की हाई प्रोफाइल सोसाइटी में फिट हो सके. मैं उन की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही थी. एक बार बीमारी के कारण वे अस्पताल में भरती रहे. वहीं पर न जाने कब वे एक नर्स को दिल दे बैठे. पानी सिर के ऊपर से निकल चुका था. शुरू में बहुत झगड़ा किया पर उस से कुछ हासिल नहीं हुआ. क्या करते, समझौता कर लिया. घरबाहर सभी को पता है. पर जब उन्हें वहां ही जाना पसंद है तो फिर क्या. हां, हमारा ध्यान भी पूरा वे रखते हैं. सामाजिक व पारिवारिक रूप से मैं ही उन की पत्नी हूं पर…’’
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि किसी पुरुष की रखैल है तो पूरी तरह तो नहीं, परंतु आंशिक रूप से पत्नी भी दोषी है, फिर चाहे उस के कारण प्रत्यक्ष हों या अप्रत्यक्ष.
पति के प्रति लापरवाही
पतिपत्नी 2 अलगअलग परिवार और परिवेश से आते हैं. उस के बाद भी प्रारंभ के दिनों में पतिपत्नी में एकदूसरे के प्रति बहुत आकर्षण रहता है. किंतु बच्चे होने और परिवार की जिम्मेदारी बढ़ने के साथसाथ इस झुकाव में कमी होने लगती है. महिलाएं घर और परिवार में इतनी अधिक व्यस्त हो जाती हैं कि वे अपने पति की ओर से लापरवाह हो जाती हैं. जब औफिस से आ कर पति अपनी परेशानी या खुशी अपनी पत्नी के साथ बांटना चाहता है तो पत्नी के पास समय ही नहीं होता. ऐसे में पति का झुकाव कई बार घर से बाहर दूसरी महिला के प्रति हो जाता है.
पति को न समझ पाना
पति को न समझना भी पतिपत्नी के रिश्ते में रखैल नाम के रिश्ते को जन्म देता है. इस का एक अहम कारण है. कई बार देखा जाता है कि पति अपनी पत्नी को स्मार्ट और मौडर्न ड्रैसेज में देखना चाहता है और इस के लिए वह प्रयास भी करता है. परंतु पत्नी अपनेआप में कोई परिवर्तन नहीं करती. एक पति ने अपनी पत्नी को सूट पहनने, गाड़ी चलाने, स्वतंत्ररूप से कंप्यूटर आदि चलाने की पूरी छूट दे रखी है परंतु पत्नी अपनेआप को परिवर्तित करने को ही तैयार नहीं. ऐसे में जब उसे कोई मनपसंद मिलता है तो भी कई बार पति का मन भटक जाता है.
घर का वातावरण
निर्मेश जब भी औफिस से घर आते, बस चाय का प्याला थमाते ही नमिता दिनभर का पूरा ब्योरा देने के बाद, अधूरे कामों की लंबी लिस्ट गिनाती और फिर बच्चे को निर्मेश को थमा निकल जाती अपने दोस्तों के साथ. कई बार तो घर आए मेहमानों के सामने भी वह निर्मेश की बेइज्जती करने से नहीं चूकती थी. ऐसे में जब निर्मेश की औफिस असिंस्टैंट ने उसे तरजीह देनी शुरू की तो निर्मेश कब उस की ओर झुक गया, उसे खुद ही पता नहीं चला.
यौन जरूरतें
चिकित्साशास्त्र ने यह प्रमाणित किया है कि महिलाओं को जहां अपने पति से भावनात्मक लगाव की आवश्यकता होती है वहीं पुरुषों को पत्नी से शारीरिक संबंधों की आवश्यकता अधिक होती है. ऐसे में जबजब पति को पत्नी से शारीरिक संबंधों की जरूरत होती है और पत्नी की ओर से बारबार न की जाती है तो अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पुरुष का झुकाव कहीं और हो ही जाता है.
स्वयं के प्रति लापरवाही
आमतौर पर विवाह के बाद महिलाएं अपने प्रति बहुत जागरूक, साफसुथरी और स्मार्ट हो कर जीती हैं. परंतु बच्चा होने और घरपरिवार की जिम्मेदारियों के बोझ तले अपने शरीर और व्यक्तित्व के प्रति लापरवाह हो जाती हैं और यह लापरवाही कभीकभी उन के पतिपत्नी के रिश्ते पर भारी पड़ जाती है.
बेमेल विवाह
कई बार कम उम्र में या बच्चे की पसंद पूछे बिना ही विवाह कर दिया जाता है. एक पिता ने अपने बेटे की शादी, बेटे के मना करने के बाद भी, अपने एक मित्र की अल्पशिक्षित बेटी से कर दी. नतीजा, शादी चली ही नहीं और बेटे का, इस बीच, अपने औफिस की सहकर्मी से लगाव हो गया. बाद में पूर्व पत्नी से तलाक ले कर उस ने उस सहकर्मी से विवाह कर लिया.
मनोवैज्ञानिक काउंसलर निधि तिवारी कहती हैं, ‘‘विवाह पतिपत्नी दोनों का रिश्ता है और उसे निभाने की जिम्मेदारी भी दोनों की होती है. यह सही है कि काफी हद तक पति की रखैल के लिए पत्नी जिम्मेदार है परंतु इसे पूरी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इस के लिए कहीं न कहीं पति का उच्छृंखल मन भी उत्तरदायी होता है.
‘‘पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहिए होते हैं. ऐसे में यदि गाड़ी का एक पहिया पटरी से उतर जाए या टूट जाए तो दूसरे का दायित्व उस पहिए को दुरुस्त कर के संतुलन को कायम रखना है, न कि पहिए को ही बदल देना. महिला यदि घरपरिवार में उलझ कर पति की ओर या अपने प्रति लापरवाह हो जाती है तो पति को उसे सहायता और सहयोग कर के अपने संबंध को मजबूत बनाना चाहिए.’’
क्या है समाधान
कई बार ऐसे संबंधों का पता चलने पर महिलाएं बहुत अधिक क्रोधित हो जाती हैं, बातबात पर पति को ताने देना, सरेआम बेइज्जती करना और उन्हें अनदेखा करना प्रारंभ कर देती हैं. इस से समस्या कम होने के बजाय और अधिक बढ़ जाती है. इस प्रकार की समस्या का समाधान प्यार, आत्ममूल्यांकन, पति से बातचीत के द्वारा दूर करने का प्रयास करना चाहिए. यदि कोई भी समाधान नजर नहीं आए, तो काउंसलर की मदद ले कर समस्या को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए.