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चावल पर लिखे अक्षर

जिंदगी और मौत की लड़ाई तो सीमा ने जीत ली थी लेकिन मोहब्बत की जंग में हार गई. जिस अनवर के साथ जीवन भर साथ निभाने की कसमें खाई थीं, सपने संजोए थे.

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुलझडि़यां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढि़यां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

 

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

शादी के लिए पैंतरेबाजी : दुल्हन के पिताजी की पैंतरेबाजी कैसे धरी रह गयी

लड़की का पिता चहका, ‘‘जनाब, मैं ने सारी उम्र रिश्वत नहीं ली. ऐसा नहीं कि मिली नहीं. मैं चाहता तो ठेकेदार मेरे घर में नोटों के बंडल फेंक जाते कि गिनतेगिनते रात निकल जाए. मगर नहीं ली, बस. सिद्धांत ही ऐसे थे अपने और जो संस्कार मांबाप से मिलते हैं, वे कभी नहीं छूटते.’’ यह कह कर उस ने सब को ऐसे देखा मानो वे लोग उसे अब पद्मश्री पुरस्कार दे ही देंगे. मगर इस बेकार की बात में किसी ने हामी नहीं भरी. लड़के की मां को यह बेकार का खटराग जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. हर बात में सिद्धांतों का रोड़ा फिट करना कहां की शराफत है भला. लड़की के बाप की बेमतलब की शेखी उसे अच्छी नहीं लगी. वह बोली, ‘‘भाईसाहब, ऐसा कर के आप अपना अगला जन्म सुधार रहे हैं मगर हमें तो इस जन्म की चिंता सताती है. बच्चों के भविष्य की फिक्र है. समाज में एकदूसरे के हिसाब से चलना ही पड़ता है. बच्चे भले हमारे एक या दो हैं मगर एक सिंपल सी शादी में आजकल 50 लाख रुपए का खर्च तो आ ही जाता है. सोना, ब्रैंडेड कपड़े, एसी बैंक्वेट हौल, 2 हजार रुपए प्रति व्यक्ति खाने की प्लेट. कुछ न पूछो. अब तो शादी में लड़के वालों के भी पसीने छूट जाते हैं.’’

लड़की की मां हर बात टालने में माहिर थी. लेनदेन की बात को खुल कर उभरने नहीं दे रही थी. उस का तर्क भी अपनी जगह सही था. मेहनत की कमाई से पेट काटकाट कर उन्होंने अपनी लड़की को डाक्टर बनाया था और अब उस के बराबर का दूल्हा ढूंढ़ने में उन्हें बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ रहा था. इस बार फिर उस ने पैंतरा बदला, ‘‘लेनदेन की बातें तो होती रहेंगी, पहले लड़का और लड़की एकदूसरे को पसंद तो कर लें.’’ लड़के का पिता काफी चुस्त और मुंह पर बात करने वाला चालाक लोमड़ था. अपनेआप को कब तक रोके रखता. 2 घंटे हो गए थे लड़की वालों के घर बैठे. लड़के ने सिगनल दे दिया था कि उसे लड़की जंच रही है. अब उस की बोली शुरू की जा सकती है. मगर इन लोगों ने आदर्शों की ढोंगपिटारी खोल ली थी. बेकार में समय बरबाद हो रहा था. कई जगह और भी बात अटकी हुई है. लड़कियां तो सब जगह एकजैसी ही होती हैं. असली चीज है नकदनामा. औफिस में लड़के के बाप ने बिना लिए अपने कुलीग तक का काम नहीं किया था कभी. तभी तो इतनी लंबीचौड़ी जायदाद बना ली. बड़ीबड़ी 3 कारें हैं. और पैसे की भूख फिर भी बढ़ती ही जा रही थी.

लड़के के बाप ने गला खखार कर अपने डाक्टर बेटे की शादी के लिए बोली की रिजर्व प्राइस की घोषणा करने के लिए अपनी आवाज बुलंद की. बेकार की इधरउधर की हजारों बातें हो चुकी थीं. बिना किसी लागलपेट के लड़के का बाप बोला, ‘‘देखिए भाईसाहब, मैं हमेशा साफ बात करने का पक्षधर रहा हूं. हमारे पास सबकुछ है – शोहरत है, इज्जत है, पैसा है. शहर में लोग हमारा नाम जानते हैं. जिस घर से कहें, लड़की के मांबाप न नहीं कहेंगे. अब आप को क्यों पसंद करते हैं हम. दरअसल, आप शरीफ, इज्जतदार और संस्कारी हैं. मेरा लड़का डाक्टर है तो आप की लड़की भी डाक्टर है. सरकारी नौकरी से ये क्या कमा लेंगे. मैं क्लीनिक के लिए जगह ले दूंगा तो भी विदेशों से कीमती मशीनें मंगवाने में 1 करोड़ रुपए से ज्यादा लग ही जाएंगे. वैसे दिल्ली की एक पार्टी तो करोड़ रुपया लगाने के लिए हां कर चुकी है मगर आप का खानदान और संस्कार…’’ लड़की की मां ने आखिरी अस्त्र से वार किया, ‘‘भाईसाहब, हमारी 2 ही लड़कियां हैं. यह 4 करोड़ की कोठी हमारे बाद इन्हें ही तो मिलेगी…’’

लड़के की मां को यह तर्क पसंद नहीं आया. नौ नकद न तेरह उधार. आखिरकार बात सिरे तक न पहुंची. अगले रविवार ये दोनों परिवार एक बार फिर अलगअलग परिवारों के साथ अपनेअपने बच्चों की शादी के लिए पैंतरेबाजी कर रहे थे

मेरे पति की बहन घर आना चाहती है लेकिन मैं नहीं चाहती , ऐसे में मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी ननद के पति यानी ननदोई कुछ दिन हमारे घर आ कर रहना चाहते हैं. मैं नहीं चाहती कि वे हमारे घर में रहें. उन के यहां आते ही मेरी सारी खुशी खत्म हो जाती है. लेकिन मेरे पति यह बात नहीं समझते. उन का कहना है कि हमें रिश्ते निभाने चाहिए और अतिथि का आदर करना चाहिए. मगर अतिथि एक दिन के लिए आए तो अच्छा है न, घर में 15 दिन बसने के लिए आ जाए, यह तो सही नहीं है. उन के आने के एक मिनट बाद से ही मैं अनकंफर्टेबल फील करने लगती हूं, पर पति को कैसे समझाऊं?

जवाब

आप यदि नहीं चाहतीं कि कोई आप के घर में इतने लंबे समय के लिए आए तो अपने पति से साफ शब्दों में कह दीजिए, यह भी बताएं कि आप अनकंफर्टेबल महसूस करती हैं. हो सकता है इस बात से आप पतिपत्नी की आपस में बहस भी हो लेकिन अपनी बात रखना गलत नहीं है. आखिर आप किसी के प्रति खुशी जाहिर तभी कर सकते हैं न जब आप सच में खुश हों. आप अपने पति को समझाइए कि 15 दिन ज्यादा हैं, बात एकदो दिन की हो तो आप एडजस्ट करने के लिए तैयार हैं.

 

ममता, मायावती की सोच भी भतीजावादी, पौलिटिक्स में महिलाएं उत्तराधिकार के मामले में पीछे

भारतीय राजनीति में मायावती जैसी फायरब्रांड नेता हो या कभी सियासी दांवपेच से बंगाल के पूर्व सीएम ज्योतिबसु की सत्ता हिला देनेवाली ममता बनर्जी या फिर सोनिया गांधी, इनके सामने जब बात उत्तराधिकारी चुनने की आई तो सबने पुरुषों को ही चुना. 

शायद यही वजह है कि साल 1996 में एचडी देवगौड़ा की गर्वन्मेंट ने जिस वुमन रिजर्वेशन बिल को संसद में पेश किया था, उसे केंद्रीय कैबिनेट को मंजूरी देने में सालों लग गए,  बिल को 18 सितंबर 2023 को मंजूरी दी गई. इसके पास होने के बाद  संसद में महिलाओं को  33 प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा. 

आकाश आनंद और अखिलेश यादव में कोई फर्क नहीं
बहुजन समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मायावती अनौपचारिक रूप से साल 2017 में  भतीजे आकाश आनंद को पार्टी के नेताओं के साथ यह कहकर मिलाने लगी थीं कि वह लंदन से एमबीए कर चुके हैं और अब पार्टी  की गतिविधियों में शामिल होंगे. साल 2019 में ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाई को पार्टी का वाइस प्रेसिडेंट बनाया और भाई के बेटे आकाश आनंद को राष्ट्रीय संयोजक घोषित किया था. कुछ समय पहले मायावती ने अभिषेक को पार्टी संयोजक और उत्तराधिकारी के पद से यह कहकर हटा दिया था कि वे अभी इम्मैच्योर हैं. लेकिन हाल में बसपा की एक बैठक में उन्हें दोबारा उनसे छीने गए पद पर बिठा दिया गया, आनंद ने भी बुआ के पांव छूए और बुआ ने उसके सिर पर हाथ फेरा. ऐसा करके यूपी की राजनीति में दिवंगत सीएम मुलायम सिंह यादव के बाद मायावती ने भी नेपोटिज्म को सलाम ठोक दिया.

ममता दीदी को भी पुरुषों पर भरोसा
ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी साल 2014 में पहली बार डायमंड हार्बर से सांसद बने. ममता के इस उत्तराधिकारी का दमखम तृणमूल कांग्रेस पार्टी के अंदर कुछ इस तरह से बढ़ गया कि साल 2019 में एक के बाद कई नेताओं ने इस पार्टी को टाटाबायबाय कह दिया, तब ममता दीदी ने अहम फैसले अपनी तरफ से लेने शुरू किए. लेकिन अब दोबारा पार्टी पर अभिषेक की पकड़ मजबूत हो गई है, एक समय लालू और मुलायम के परिवारवाद पर कटाक्ष करने वाली ममता अब अपने ही परिवार को आगे करने में लगी हैं. पार्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ के लोगों को यह पता है कि जौइंट फैमिली में पलीबढ़ी ममता के मन में भतीजे अभिषेक के लिए सदा ही सौफ्ट कौर्नर रहा है.
जहां तक अभिषेक को उत्तराधिकारी बनाने की बात है, तो ममता दीदी के 6 भाइयों के परिवार में से कोई भी लड़की सामने नहीं आई, संंभव है कि घर में लड़कियां हो ही नहीं. अगर घर में लड़कियां नहीं भी है, तो पार्टी में से किसी महिला को उत्तराधिकारी तो बनाया ही जा सकता था. ममता बनर्जी ने टीएमसी में नुसरत जहां, मिमी चटर्जी जैसी खूबसूरत एक्ट्रैसेस को शामिल तो कर लिया लेकिन केवल उनकी सुंदरता को वोट बैंक के रूप में कैश करने के लिए. महुआ मोइत्रा को संसद का रास्ता तो दिखाया लेकिन केवल चिल्लाचिल्ला कर बोलने के लिए, बात जब उत्तराधिकारी की आई, तो दीदी ने पार्टी की महिलाओं की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखा, भतीजे को चुनना केवल यह नहीं बताता की वह नेपोटिज्म को बढ़ावा दे रही हैं बल्कि यह भी बताता है कि वह महिलाओं के हाथों में पार्टी की बागडोर नहीं सौंपना चाहती इसका मतलब तो यही निकलता है कि महिलाओं की कार्यक्षमता पर उनको भरोसा नहीं है. 

पुरानी कथा का नया रूपान्तरण
बुआ का प्यार भतीजे के लिए सदियों पुराना है.  होलिका और प्रह्लाद से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है. पौराणिक कथाओं को ही देखें, तो कृष्ण और रानी कुन्ती भी इसका उदाहरण है शायद पांडवों की तरफ कृष्ण के झुकाव की यही वजह रहेगी होगी. लेकिन इसमें भी दो राय नहीं होनी चाहिए कि बुआ को भतीजे से ही नहीं भतीजियों से भी लाड़ होता है. इसकी वजह है कि वे दोनों एक ही परिवार की अलगअलग पीढ़ी की महिलाएं होती हैं और दोनों की भावनाएं और नियति लगभग समान ही होती है. इसके बावजूद राजनीतिक बुआओं ने किसी भी भतीजी को राजनीति की पकीपकाई थाली नहीं परोसी. चलिए भतीजाभतीजी की बात ही छोड़ दें, लेकिन महिला राजनीतिज्ञ होने के नाते उन्होंने परिवार से बाहर की किसी महिला को तवज्जो क्यों नहीं दी. मायावती और ममता दोनों ने जब राजनीति में जाने की सोची, तो उनका कोई राजनैतिक बैकग्राउंड नहीं था लेकिन दोनों के अटल इरादे और सूझबूझ ने उन्हें पुरुष राजनेताओं के बीच में अलग पहचान दी, ऐसे में महिला होकर भी महिलाओं से मुंह फेर लिया, और तो और आम औरतों की तरह परिवार को ही आगे रखा. इसका मतलब तो यही है कि महिलाएं सोच में परिवार और पुरुष से आगे बढ़ ही नहीं पाती.  उनकी सोच आज भी पुरुषवादी मानसिकता की गुलाम है

 

बेटी की काबलियत पर आज भी प्रश्नचिह्न क्यों
बुआ की बात छोड़ दीजिए, जब नेहरू जी की एकमात्र औलाद मिसेज इंदिरा गांधी थी, ऐसे में उनके उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा को सहर्ष स्वीकार लिया गया लेकिन दशकों बीतने के बाद उसी पार्टी की पहचान बन चुके परिवार के दो लोगों की उत्तराधिकार की बात उठती है, तो प्रियंका गांधी की बजाय राहुल गांधी को आगे बढ़ा दिया जाता है, लड़की हूं लड़ सकती हूं की वकालत करने वाली कांग्रेस पार्टी में भी लड़कियों के लेकर वही पुरानी रूढिवादी सोच काम कर रही है कि जब तक पुरुष घर में है, तो सत्ता पर महिला का हक नहीं हो सकता.

जूलियन असांजे : क्या गारंटी कि अब कोई नई खुराफात नहीं करेंगे

3 जुलाई को जूलियन असांजे अब अपना 53वां जन्मदिन अपने ढंग से मना सकते हैं. 3 दिन पहले ही जब वे साइपन के अदालत से बाहर निकले तो चेहरे पर मुसकराहट थी. कोर्ट के बाहर मौजूद उन के कुछ प्रशंसकों और समर्थकों ने उन का स्वागत तालियां बजा कर किया तो उन्होंने भी हाथ हिला कर अभिवादन स्वीकारते किसी सैलिब्रेटी की तरह प्रतिक्रिया दी.

साइपन उत्तरी अमिरिका द्वीप समूह के तहत आता है जिस का प्रशासनिक नियंत्रण अमेरिका करता है. जूलियन असांजे मामले की सुनवाई की औपचारिकताएं निभा रहे साइपन अदालत के जज रमोना मैग्लोना ने उन्हें सब से पहले जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनाएं दीं. उन्होंने कहा, “मुझे पता है कि अगले सप्ताह आप का जन्मदिन है. मुझे उम्मीद है कि आप अपनी नई जिंदगी सकारात्मक तरीके से शुरू करेंगे.”

जज रमोना मैग्लोना की तरह हर कोई उम्मीद ही कर सकता है कि खुराफाती दिमाग के मालिक जूलियन असांजे अपने परिवार जिसमे बुजुर्ग पिता, पत्नी व दो बच्चे हैं के साथ सुकून की जिंदगी जिएं लेकिन उन का अतीत देखते इस की गारंटी कोई नहीं ले सकता. वह ऐसे वक्त में एक डील के तहत रिहा हो कर अपने देश आस्ट्रेलिया पहुंचे हैं जब अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव की गहमागहमी है, हालांकि इस रिहाई से ऐसा लग नहीं रहा कि दुनिया के सब से ताकतवर देश के मुखिया के चुनाव पर कोई खास फर्क पड़ेगा.

लेकिन एक वक्त में इन्हीं जूलियन असांजे ने अमेरिका में ऐसी उथलपुथल मचा दी थी कि दुनियाभर में तहलका मच गया था. हर किसी की जुबान पर जूलियन असांजे और उन से भी ज्यादा विकीलीक्स का नाम था. आइए संक्षेप में इस दिलचस्प मामले को क्रमवार समझें.

जूलियन असांजे एक पत्रकार और विकीलीक्स नाम की वेबसाइट के संपादक हैं. व्हिसिल ब्लोअर भी उन्हें कहा जा सकता है. उन का असली नाम जूलियन पाल हाकिंस है. आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के कस्बे टाउंसविले में जन्मे जूलियन असांजे की जिंदगी में कभी कुछ भी सामान्य और सहज नहीं रहा. जब वे पैदा भी नहीं हुए थे यानी गर्भ में ही थे तभी उन की मां क्रिस्टीन और पिता जान शिप्टन में तलाक हो गया था. जूलियन के जन्म के एक साल बाद ही क्रिस्टीन ने ब्रेट असांजे से शादी कर ली. ये दोनों मिल कर एक थिऐटर कम्पनी चलाते थे. जूलियन ने होश अपने सौतेले पिता के साए में संभाला और उन्ही के सरनेम असांजे को अपनाया. हालांकि वे पूरे 10 साल के भी नहीं हुए थे कि क्रिस्टीन ने ब्रेट से भी तलाक ले लिया.

अपने कारोबार के सिलसिले में क्रिस्टीन और ब्रेट को अकसर शहरशहर घूमना पड़ता था. इसलिए जूलियन कभी नियमित स्कूल नहीं जा पाए. उन की अधिकतर पढ़ाईलिखाई घर पर ही हुई या फिर पत्राचार पाठ्यक्रमों के जरिए हुई. 15 साल की उम्र तक यह परिवार आस्ट्रेलिया के कोई 30 शहरों में रहा. इस भागादौड़ी में अच्छी बात यह रही कि जूलियन बुरी सोहबत में नहीं पड़े और न ही पढ़ाई में पिछड़े. नहीं तो ऐसे बच्चों के आवारा, नशेड़ी और अपराधी हो जाने की आशंका हमेशा बनी रहती है जो बचपन में ही पेरैंट्स का अलगाव और तलाक देख और भुगत चुके होते हैं.

खासतौर से यह आशंका उस वक्त और बढ़ जाती है जब पिता का संरक्षण न मिले या न के बराबर रहे. फिर यहां तो जूलियन ने अपने जैविक पिता को लम्बे समय तक देखा ही नहीं था. लेकिन उन के बारे में सुन जरुर रखा था. यह स्थिति किसी भी बच्चे या टीनएजर के कदम भटका देने पर्याप्त होती है. शायद ही नहीं तय है कि यह क्रिस्टीन की परवरिश का नतीजा था कि जूलियन भटके नहीं बल्कि और एकाग्र होते गए. इस प्रतिभाशाली लेकिन खुराफाती शख्स की लम्बी कहानी का फिल्मों सरीखा एक दिलचस्प मोड़ यह भी है कि 26 जून को रिहा होने के बाद उन्होंने केनबरा एयरपोर्ट पर पत्नी स्टेला के बाद जिस पिता को भावुक होते गले लगाया वे ब्रेट असांजे नहीं बल्कि जान शिप्टन थे.

यू ही गिरतेपड़ते आपाधापी की जिंदगी जीते 1994 से ले कर 2006 तक जूलियन गणित, प्रोग्रामिंग और फिजिक्स में डिग्रियां हासिल कीं. लेकिन हैरतंगेज तरीके से जूलियन 16 साल की उम्र में ही एक माहिर हैकर बन चुके थे. हैकिंग को उन्होंने नया शब्द मेंडक्स दिया था जिस का अर्थ कुलीन असत्य होता है. 1987 में हैकिंग के आरोप में पुलिस ने उन के घर छापा मारते सारे उपकरण जब्त कर लिए थे. हालांकि तब उन पर कोई आरोप नहीं लगाया गया था. लेकिन पुलिस की यह भूल , लापरवाही या उदारता कुछ भी कह लें ने जूलियन को एक कुख्यात और एक्सपर्ट हैकर बना दिया. इस दौरान उन्होंने कई दफा हैकिंग की लेकिन कुछ इस तरह कीं कि उन पर आरोप साबित नहीं हो सका. इस से उत्साहित हो कर जूलियन ने अपने दो दोस्तों के साथ मिल कर एक हैकिंग ग्रुप बना डाला.

1991 में इस हैकिंग गिरोह ने अमेरिकी सेना द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाले डाटा नेटवर्क मिलेंट को निशाने पर ले डाला. इस के बाद तो उन्हें हैकिंग की लत सी पड़ गई. कई बार वे शक के दायरे में आए लेकिन हैकिंग का आरोप साबित करना कोई आसान काम नहीं होता इसलिए बचते भी रहे. आस्ट्रेलिया की पुलिस उन की इस लत जो दरअसल में उन की प्रतिभा का भी उदाहरण थी से आजिज आ चुकी थी. मीडिया ने भी नौजवान जूलियन के कारनामों को हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया था. अब हर कहीं इस किशोर हैकर की चर्चा होने लगी थी.

आख़िरकार 1994 में जूलियन पर 31 अपराधों के आरोप लगाए गए जिन में से टेलीकौम आस्ट्रेलिया को धोखा देना और टेलीकौम नेटवर्क का धोखाधड़ी में इस्तेमाल करना सहित सूचना को हासिल करना, डेटा मिटाना और उस में फेरबदल करना प्रमुख थे. ये मामले अदालत में गए तो जूलियन इतने डिप्रेशन का शिकार हो गए कि उन्हें मेंटल अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. यहां से छुट्टी होने के बाद वे मेलबर्न के जंगलो में भटकते रहे लेकिन इस से मुकदमे खत्म नहीं हो गए. उन्हें 1996 के आखिर में 290 साल की सैद्धांतिक सजा सुनाई गई. लेकिन बाद में अच्छे चालचलन और 5 हजार आस्ट्रेलियन डौलर का जुर्माना भर देने के कारण उन्हें रिहा भी कर दिया गया.
रिहा होने के बाद वे सुधरे नहीं बल्कि और ज्यादा बिगड़ गए. हिंदी फिल्मों में अकसर दिखाया जाता है कि कम उम्र हीरो सच्चे झूठे आरोप में जेल जाता है और जब बाहर निकलता है तो उस के इरादे और हौसले और बुलंद हो जाते हैं. देखते ही देखते वह बड़ा मुजरिम या गैंग्स्टर बन जाता है. यही जूलियन के साथ हुआ जो हिंसक नहीं बल्कि बौद्धिक और तकनीकी अपराध करने के मास्टर हो चुके थे. कम्प्यत्र प्रोग्रामिंग कोडिंग और हैकिंग भी तब उन्हीं की उम्र की तरह जवान हो रहीं थीं लेकिन जूलियन उम्र और वक्त से बहुत आगे चल रहे थे.

जेल में रहते उन्हें यह तो समझ आ गया था कि किसी भी देश का कानून उन पर रहम नहीं करेगा इसलिए वे बचाव के तरीके ढूंढने लगे थे लेकिन हैकिंग की अपनी लत से समझौता करने का कोई इरादा उन का नहीं था. यहीं से जन्म हुआ हैकिंग के नए तौरतरीकों और विकीलीक्स नाम की वेबसाइट का, जिस के जरिये कई अहम जानकारियां और सूचनाएं एक खास मकसद से लीक की जातीं थीं.

बाहर आ कर जूलियन ने खुद के लिए पैसा, स्थायित्व और समर्थन जुटाना भी शुरू कर दिया. आज भी अधिकतर बुद्धिजीवी और मीडिया यह तय नहीं कर पा रहा है कि जूलियन को विलेन कहा जाए या नहीं. यूरोप सहित एशिया और अफ्रीका के कई देशों की यात्रा जूलियन ने की और व्यवसायिक मीडिया घरानों से नजदीकियां बढ़ाई. इन दिनों वे अपना एक नया फलसफा विकसित यह कहते कर रहे थे कि दरअसल में वितीय संस्थाओं के अंदर जो घालमेल होता है उसे सार्वजनिक करना कोई गुनाह नहीं होना या माना जाना चाहिए. यही बात तमाम सरकारी दफ्तरों पर भी लागू होती है जिसे आसान शब्दों में कहें तो जूलियन ट्रांसपेरेंसी की हिमायत कर रहे थे.

दिसम्बर 2006 में उन्होंने विकीलीक्स से अपना पहला पोस्ट लीक किया था जिस में उन्होंने यह समझाने की कोशिश की थी –

– कोई संगठन जितना अधिक गुप्त या अन्यायपूर्ण होता है उतना ही अधिक लोक नेतृत्व और नियोजन मंडली में भय और व्यामोह पैदा करता है. इस का परिणाम कुशल आंतरिक संचार तंत्रों में कमी (संज्ञानात्मक गोपनीयता कर में वृद्धि) और परिणामस्वरूप सिस्टम व्यापी संज्ञानात्मक गिरावट के रूप में सामने आता है. जिस के परिणामस्वरूप पर्यावरण अनुकूलन की मांग के अनुसार सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की क्षमता में कमी आती है.

सैद्धांतिक रूप से जूलियन गलत नहीं कह रहे थे लेकिन उन की यह फिलौसफी कहीं न कहीं त्रुटिपूर्ण तो थी जो एकदम किसी की समझ नहीं आई थी. सहमत लोगों की संख्या बढ़ी तो उत्साहित जूलियन असांजे ने विकीलीक्स से एक के बाद एक लीक धमाके शुरू कर दिए.

विकीलीक्स से पहला चर्चित लीक नवम्बर 2007 में किया गया था जो ग्वांतानामो बे जेल से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों का था. इन दस्तावेजों से यह उजागर हुआ था कि बगैर पुख्ता सबूतों के कई लोगों को सालों से जेल में बंद रखा गया था और समाज के लिए बेहद खतरनाक अपराधियों को आसानी से रिहा किया गया था.

इस के पहले जुलाई 2007 में विकीलीक्स से ही बगदाद हवाई हमले की फुटेज जारी की गई थीं. इन वीडियोज में साफतौर दिख रहा था कि किस तरह अमेरिकी सैनिक इराक के पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं. इस वीडियो को दुनिया भर में कोलेटरल मर्डर वीडियो के नाम से जाना गया था.

अमेरिका पर 9/11 के आतंकी हमलों से ताल्लुक रखते कोई 5 लाख मैसेज विकीलीक्स ने 24 घंटो के अंदर आम कर दिए थे जिस से भयंकर तहलका मचा था क्योंकि इन में से अधिकतर मैसेज अमेरिकी रक्षा मंत्रालय, एफबीआई और न्यूयौर्क पुलिस के अफसरों से जुड़े हुए थे.

विकीलीक्स का सब से चर्चित खुलासा जिस से तहलका मचा था वह साल 2010 के युद्ध का था जब अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की थी. इस कार्रवाई से जुड़े लाखों दस्तावेज आम हो गए थे. इन में सरकार की ख़ुफ़िया जानकारियां थीं. जिन से पता चलता था कि अमेरिकी सेना ने युद्ध के दौरान कई घटनाओं में सैकड़ों नागरिकों को जान से मार डाला था. इस लीक में प्रमुखता से अमेरिका सेना की ख़ुफ़िया विश्लेषक चेल्सी मैनिंग का नाम आया था लेकिन असली हाहाकार एक उस वीडियो के वायरल होने के बाद मचा था जिस पर अमेरिका की दुनिया भर में छीछलेदार हुई थी. इस वीडियो में इराक की राजधानी बगदाद में नागरिकों को मारा जाता हुआ दिखाया गया था. फसाद और विवाद की बड़ी वजह इस वीडियो को अमेरिकी सैन्य हेलीकाप्टर से बनाया जाना था.

लीक स्टोरीज यहीं खत्म नहीं होतीं क्योंकि जूलियन असांजे के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हो चुके थे और अमेरिका उन पर खार खाए बैठा था. साल 2010 में उन्हें स्वीडिश पुलिस ने हिरासत में ले लिया क्योंकि उन पर एक महिला के साथ दुष्कर्म किए जाने का आरोप भी था. इस गिरफ्तारी को जूलियन ने विकीलीक्स खुलासों अमेरिकी साजिश बताया था. क्योंकि गिरफ्तारी के तुरंत बाद उन के प्रत्यर्पण की मांग भी जोर पकड़ने लगी थी. इस स्थिति से बचने के लिए उन्होंने लंदन स्थित इक्वाडोर के दूतावास में शरण ले ली. यहां जूलियन ने 7 साल गुजारे इस दौरान कई हस्तियां उन से मिलने आती रहीं. इन में मशहूर सिंगर लेडी गागा और ऐक्ट्रैस पामेला एंडरसन के भी नाम शामिल हैं.

इसके बाद इक्वाडोर के राष्ट्रपति ने उन्हें दूतावास छोड़ने का फरमान जारी किया तो तुरंत ही ब्रिटेन की पुलिस के हाथों गिरफ्तार कर लिए गए. 5 साल जेल में रहने के बाद जूलियन को राहत मिली क्योंकि 2019 में स्वीडिश अधिकारीयों ने उन के खिलाफ मामला यह कहते वापस ले लिया कि उन के द्वारा किए कथित अपराध को काफी वक्त बीत चुका है.

इस दौरान प्रत्यर्पण से बचने जूलियन ने लम्बी कानूनी लड़ाई कोई फैसला इस पर हो पाता इस से पहले ही अमेरिकी जस्टिस विभाग से उन की कानून के तहत यह डील हो गई कि अगर वे अपना अपराध स्वीकार लें तो उन्हें सजा नहीं होगी क्योंकि 5 साल की सजा वे भुगत चुके हैं. इस मामले में उन्हें राष्ट्रपति जो बाइडेन की सहानुभूति मिली. जूलियन का यह डर वाजिब था कि अगर अमेरिका गए तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि वे वहां जासूसी के आरोप में मोस्ट वांटेड अपराधी थे.
डील के तहत तय हुआ कि सुनवाई साइपन की अदालत में होगी जो कि आस्ट्रेलिया के नजदीक है. वादे और समझौते के कानून के मुताबिक जज रमोना मैग्लोना ने उन्हें रिहा कर दिया.

अब जूलियन असांजे घर पहुंच गए हैं तो उन्हें लाखों लोग बधाई दे रहे हैं. हवाई अड्डे पर पत्नी स्टेला असांजे से वे गले मिले तो एक लव स्टोरी भी जीवंत हो गई कि उन्होंने जेल में ही शादी की थी और पेशे से वकील स्टेला उन का मुकदमा लड़तेलड़ते विकीलीक्स की कानूनी टीम का हिस्सा बन गईं थीं.

लेकिन खुद एक कहानी बन चुके जूलियन असांजे की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है. वे अब चुपचाप बैठ जाएंगे ऐसा सोचने की भी कोई वजह नहीं क्योंकि खुराफात उन के दिमाग में है और उस पर तकनीकी ज्ञान का एक ऐसा कवर चढ़ा है जिसे वही भेद सकते हैं, यह ज्ञान एक दुधारी तलवार है जिस का सही इस्तेमाल अगर आस्ट्रेलिया सरकार करें तो एक बेहतरीन और प्रतिभावान पत्रकार उभर कर सामने आएगा जिस की सोच में कोई खास खोट नहीं, खोट उस के करने के तरीके में है.

नेता प्रतिपक्ष के पद पर राहुल गांधी दिखाएंगे अपनी ताकत

हाथ में संविधान की कौपी ले कर लोकसभा सदस्य के तौर पर शपथ लेने वाले राहुल गांधी देश की 18वीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बन गए हैं. अपने 20 साल के राजनीतिक सफर में राहुल गांधी पहली बार किसी संवैधानिक पद पर आसीन हुए हैं. बीते दस सालों में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा अपने लिए अपशब्दों के खूब थपेड़े झेले. प्रधानमंत्री मोदी सहित तमाम भाजपा नेताओं ने खुले मंच से, सोशल मीडिया और टीवी चैनलों की डिबेट में उनका खूब मजाक उड़ाया. लेकिन 18वीं लोकसभा में प्रधानमंत्री ने जब सदन का अभिवादन किया तो उन्होंने राहुल गांधी की तरफ भी हाथ जोड़ कर ना सिर्फ ‘नमस्ते राहुल जी’ कह कर उन का अभिवादन किया, बल्कि स्पीकर ओम बिरला से मिलते वक़्त बाकायदा राहुल गांधी से हाथ मिलाया.

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया है. ये वही राहुल गांधी हैं जिन्हें अब तक भाजपा पप्पू, कांग्रेस के शहजादे और न जाने किन किन उपनामों से नवाजती रही है. आज जब उसी पप्पू को प्रधानमंत्री नमस्कार कर रहे हैं तो लोकतंत्र की इस ताकत और ख़ूबसूरती को देख कर लोगों के होंठों पर मुस्कान दौड़ जाती है. सदन के भीतर पूरे दस सालों बाद विपक्ष को राहुल गांधी के रूप में अपना ताकतवर और आक्रामक सेनापति मिला है, जिस के नेतृत्व में सदन के अंदर विपक्ष की सहमतिअसहमति पर सत्ता पक्ष को पूरा संज्ञान लेना होगा.

नेता प्रतिपक्ष जैसा महत्वपूर्ण पद राहुल गांधी ने अपनी कठोर मेहनत से पाया है. इस से पहले उन की मां सोनिया गांधी भी अक्टूबर 1999 से फरवरी 2004 तक नेता प्रतिपक्ष रह चुकी हैं. लेकिन उन को तब वह स्थान एक पकी पकाई खीर के रूप में मिला था, जबकि राहुल को यह पद जमीनी संघर्ष और जनता से जुड़ाव के नतीजे के तौर पर हासिल हुआ है.

उन के पिता स्व. राजीव गांधी भी नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं. राजीव गांधी 18 दिसंबर 1989 से 24 दिसंबर 1990 तक नेता विपक्ष थे. राहुल गांधी परिवार के तीसरे सदस्य हैं जो इस पद को सुशोभित करेंगे. गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव से काफी पहले से ही राहुल काफी सक्रिय हो गए थे उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा, भारत जोड़ो न्याय यात्रा और चुनाव प्रचार के दौरान संविधान बचाओ अभियान के साथ पार्टी को एक नेतृत्व दिया. इस बीच कई पुराने धुरंधर जैसे गुलाम नबी आजाद सरीखे कांग्रेसी नेता बगावती सुर दिखाते हुए अलग भी हो गए, जिन्हें मनाने या वापस लाने की कोशिश नहीं की गई.

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने देश भर में घूमघूम कर दरिद्र और लाचार महिलाओं, अशिक्षित, कुपोषित और धूल में लोटते बच्चों, हाथ जोड़ कर रोजगार की भीख मांगते युवाओं और सस्ती दवाओं की आस में बीमारी से जूझते बुजुर्गों के भारत को बहुत नजदीक से देखा, समझा और जज़्ब किया. इस असली भारत को देखने की जहमत कभी प्रधानमंत्री या उन के नेताओं ने बीते 10 सालों में नहीं उठाई. बकौल प्रधानमंत्री भारत तो विश्वगुरु बनने की राह पर है.

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी से सचमुच लोग जुड़े और खुद राहुल ने देश के मिजाज को समझा. लोगों की जरूरतों और उम्मीदों को जानने के बाद उन में एक परिपक्वता भी आई है. उन्हें समझ में आ चुका है कि देश की गरीब जनता को उस का हक़ दिलाने के लिए सत्ता से किस किस तरह मोर्चा लेना होगा. अब लोकसभा के भीतर राहुल की सक्रियता बढ़ेगी और वे महत्वपूर्ण विषयों पर उसी तेवर के साथ बोलते दिखाई देंगे, जैसे पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान उन के तेवर नजर आते रहे हैं. राहुल का यह बदला रूप निश्चित रूप में सत्ता पक्ष के लिए परेशानी भी पैदा करेगा और उन की मनमानियों पर भी रोक लगाएगा.

नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल गांधी सरकार के आर्थिक फैसलों की लगातार समीक्षा और सरकार के फैसलों पर कड़ी टिपण्णी भी करेंगे. Leaders Of Opposition In Parliament Act 1977 के अनुसार नेता प्रतिपक्ष के अधिकार और सुविधाएं ठीक वैसी ही होती हैं, जो एक कैबिनेट मंत्री की होती हैं. नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल को पद भी मिला है और उन का कद भी बढ़ गया है. लिहाजा अब राहुल गांधी को कैबिनेट मंत्री की तरह सरकारी सचिवालय में एक दफ्तर मिलेगा. कैबिनेट मंत्री की रैंक के अनुसार उच्च स्तर की सुरक्षा मिलेगी और मासिक वेतन और दूसरे भत्तों के लिए 3 लाख 30 हज़ार रुपये मिलेंगे, जो एक सांसद के वेतन से कहीं ज्यादा है. एक सांसद को वेतन और दूसरे भत्ते मिला कर हर महीने लगभग सवा दो लाख रुपये मिलते हैं. राहुल गांधी को एक ऐसा सरकारी बंगला मिलेगा, जो कैबिनेट मंत्रियों को मिलता है और उन्हें मुफ्त हवाई यात्रा, रेल यात्रा, सरकारी गाड़ी और दूसरी सुविधाएं भी मिलेंगी.

राहुल गांधी के पास क्या शक्तियां होंगी?

नेता प्रतिपक्ष कई जरूरी नियुक्तियों में प्रधानमंत्री के साथ बैठता है. मतलब कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी एक टेबल पर आमनेसामने होंगे और साथ मिलकर कई फैसले लेंगे. दोनों की राय से ही कई फैसले लिए जाएंगे.

चुनाव आयुक्त, केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जैसे पदों पर अधिकारियों का चयन एक पैनल के जरिए किया जाता है, जिस में प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष शामिल रहते हैं. अब तक राहुल गांधी कभी भी मोदी के साथ किसी पैनल में शामिल नहीं हुए हैं, लेकिन अब विपक्ष के नेता के रूप में उनकी सहमति आवश्यक होगी.

राहुल गांधी भारत सरकार के खर्चों की जांच करने वाली लोक लेखा समिति के अध्यक्ष होंगे. राहुल सरकार के कामकाज की लगातार समीक्षा करेंगे. वह ये जानने की कोशिश करेंगे कि सरकार कहां पर कितना पैसा खर्च कर रही है.

राहुल गांधी दूसरे देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण देने के लिए भारत बुला सकते हैं. अगर वह किसी मुद्दे पर विदेशी मेहमानों से चर्चा करना चाहें तो वह ऐसा कर पाएंगे.

नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल गांधी अब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों के प्रमुखों के चयन में भी अहम भूमिका निभाने वाले हैं. वह पिछले 10 साल से इन एजेंसियों पर काफी आरोप लगाते आए हैं और इन एजेंसियों ने उनके जीजा रौबर्ट वाड्रा को परेशान करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी, जिसका असर प्रियंका गांधी पर उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान काफी पड़ा.

राहुल का नेता प्रतिपक्ष बनना बेहद खास है क्योंकि वह जब से चुनावी राजनीति में आए कोई पद लेने से बचते रहे हैं. यहां तक कि पार्टी प्रमुख के पद से भी उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. 2004 से 2014 तक देश में कांग्रेस की सत्ता रही लेकिन उस समय भी राहुल ने कोई मंत्री पद नहीं लिया. उन पर कैबिनेट पद के लिए दबाव भी था, लेकिन फिर भी उन्होंने मना कर दिया था. 2014 में कांग्रेस जब सत्ता से बाहर हुई तो नेता प्रतिपक्ष बनाने लायक सीटें हासिल नहीं कर पाई थी. शायद राहुल को लगता था कि अभी उन्होंने देश को पूरी तरह जाना नहीं है. देश को समझने के लिए ही उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत की. भाजपा ने उनका खूब मजाक उड़ाया. कहा अभी तक इटली घूमते थे अब देश में थोड़ा घूमफिर लेने दो. भाजपा को अंदाजा ही नहीं था कि इस यात्रा में देश की जनता से उनका किसकदर आत्मीय सम्बन्ध बन जाएगा. भाजपा की आँखें तो तब खुली जब उसने राहुल की यात्राओं में उमड़ता हुआ जनसैलाब देखा. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

कल्कि 2898 एडी : ”प्रभास नहीं अमिताभ बच्चन की फिल्म..’’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः सी अश्विनी दत्त, प्रियंका दत्त, स्वप्ना दत्त

लेखकः नाग आश्विन  व साई माधव बुर्रा

निर्देशकः नाग आश्विन

कलाकारः अमिताभ बच्चन,प्रभास, कमल हासन,दीपिका पादुकोण, सास्वता चटर्जी, शोभना, अनिल जॉर्ज, राजेंद्र प्रसाद, पसुपति, अन्ना बेन, मालविका नायर, अयाज पाशा, कीर्ति सुरेश,विजय देवराकोंडा, एस एस राजामौली,रामगोपाल वर्मा व अन्य.

अवधिः तीन घंटे तीन मिनट

दक्षिण के मशहूर फिल्मकार नाग अश्विन की नई फिल्म ‘‘कल्कि 2898 एडी’ 27 जून को सिनेमाघरों में पहुंची है, मगर साढ़े छह सौ करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बुरी तरह से सिर्फ निराश ही नहीं करती है बल्कि इंटरवल तक तो ‘टार्चर’ ही है. तीन घंटे की अवधि वाली यह फिल्म  डायस्टोपियन साइंस फिक्षन व मैथोलौजिकल फिल्म है, मगर फिल्मकार ने कुछ देशी और कुछ विदेश फिल्मों (मैड मैक्स, गेम औफ थ्रोन्स, स्टार वार्स, लौर्ड औफ द रिंग्स ) के दृश्यों को भरने के अलावा सनातन धर्म,हिंदू धर्म आदि का महिमा मंडन करने के चक्कर में चूंचूं का मुरब्बा बना डाला.

पहले यह फिल्म 2022 में प्रदर्शित होने वाली थी.यह फिल्म 2019 से 2024 तक केंद्र में जो सरकार थी, शायद उसे खुश करने के लिए इस फिल्म का निर्माण किया  था.पहले इस फिल्म का नाम ‘प्रोजेक्ट के’ था.आधे से ज्यादा फिल्माए जाने के बाद इसका नाम ‘कलकी 2898 एडी’ कर दिया गया. फिल्म के अंदर संवादो में भी ‘प्रोजेक्ट के’ को ही लेकर सवाल किए गए हैं.पता नही अश्विन नाग ने इस फिल्म को भगवान विष्णु के अवतार कलकी का नाम देकर प्रचारित किया गया. पर यह फिल्म 2022 में रिलीज नही हुई.तब इसे 26 जनवरी 2024 को रिलीज करने की घोषणा की गयी. फिर नौ मई 2024 की तारीख घोषित की गयी. अफसोस अब जब यह फिल्म 27 जून को प्रदर्षित हुई तो केंद्र में सरकार कुछ बदली हुई है.वैसे फिल्मकार ने ‘आदिपुरूष’ की तर्ज पर इसका भी बंटाधार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

तेलुगू में फिल्मायी गयी यह फिल्म हिंदी,तमिल,मलयलम,कन्नड़ व अंग्रेजी भाषा में डब करके प्रदर्शित की गयी है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी महाभारत युद्ध के कुछ दृश्यों के साथ शुरू होती हैं.अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे की बात होती है,युद्ध के मैदान पर कृष्ण और अश्वत्थामा के बीच युद्ध होता है. युद्ध में द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को परास्त करने के बाद भगवान कृष् ण,अष्वत्थामा को मृत्यु  दंड देकर  मुक्ति देने की बनिस्बत अमरत्व यानी कि जीवित रहने का श्राप देकर तिल तिल गलने के लिए अनंत काल तक धरती पर छोड़ देते हैं.वह कहते है कि छह हजार वर्ष बाद जब संसार का विनाश हो जाएगा,तब वह विष्णु के दसवें अवतार कल्की के रूप में जन्म लेंगे,उस वक्त अश्वत्थामा  को उनकी रक्षा करनी होगी. उसके बादही मुक्ति मिलेगी.

फिर कहानी शुरू होती है  छह हजार वर्ष बाद यानी कि वर्तमान से 874 वर्ष बाद के काशी शहर से.जो अब वीरान व उजाड़ है. यह उन दिनों की काशी है जब गंगा में पानी नहीं है. हवा में औक्सीजन नहीं है. बरसों से किसी ने पानी बरसते नहीं देखा है.पानी सहित हर तरह की समस्या है.फिल्म में एक संवाद है-‘‘लोगों के पाप धोते धोते गंगा का पानी सूख गया.’’इसी काशी  शहर के उपर यूटोपियन शहर ‘काम्प्लेक्स’ है,जिस पर दुष्ट झुर्रीदार, सिकुड़े हुए तानाशाह सुप्रीम यास्किन (कमल हासन) का आधिपत्य है,पूरे विष्व में ‘काम्प्लेक्स’ ही एकमात्र रहने योग्य शहर है.सुप्रीम यास्किन के दल में कमांडर मानस (सास्वत चटर्जी) और सुप्रीम यास्कीन का दाहिना हाथ एक घुंघराले बालों वाला भविष्यवक्ता(अनिल जॉर्ज) शामिल हैं, जो दैवीय हस्तक्षेप और प्राचीन हथियारों गांडीव या धनुष के बारे में अंधेरे से बात करता है. सुप्रीम यास्कीन के ‘काम्प्लेक्स’ में  एक प्रयोगशाला है.यास्किन दुनिया का सबसे शक्तिशाली आदमी बनने के लिए गर्भवती महिलाओं से सीरम निकलवा कर खुद उपयोग कर अपनी उम्र घटाने के प्रयास में लगे हुए हैं.यास्कीन तक सिर्फ उनका कमांडर ही पहुंच सकता है,वही हर बार सीरम लेकर जाता है,जिस गर्भवती लड़की/महिला के गर्भ से सीरम निकाला जाता है,उसकी उसी वक्त मौत हो जाती है.उधर अच्छी जिंदगी जीने के लिए जब भैरव (प्रभास) नामक एक इनामी शिकारी कैम्प्स में प्रवेश करने की कोशिश में लगा हुआ है.इसी बीच पता चलता है कि सुमति (दीपिका पादुकोण) गर्भवती है.अब उसका सीरम निकाले जाने की बारी है.मगर एक विद्रोही कायरा (अन्ना बेन ) ,सुमति को कॉम्प्लेक्स से भगाती है,तथा उसके हमवतन (पसुपति और पाशा) बिल्कुल सही समय पर पहुंचकर सुमति को संभाला पहुॅचा देते है.कौम्पलेक्स में घुसने के लिए अपनी जगह बनाने के मकसद से भैरव,सुमति को पकड़ने निकलता है.उसी वक्त  अश्वत्थामा (अमिताभ बच्चन) को अहसास होता है कि कल्की का जन्म होने वाला है और वह सुमति की रक्षा के लिए कमर कस लेता है.आठ फुट लंबे कद और हाथ में लोहे का उंउा रखने वाले अष्वत्थामा,भैरव से लड़ते हैं.कुल मिलाकर यह कहानी यह कहानी 3102 ईसा पूर्व में महाभारत की घटनाओं, कलियुग की शुरुआत से लेकर 2898 ईस्वी तक की सहस्राब्दियों तक की यात्रा का वर्णन करती है.कथा का मूल हिंदू देवता  विष्णु के दसवें और अंतिम अवतार कल्कि की रहस्यमय छवि के आगमन की भनक तक की है.

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समीक्षाः

एक बेहतरीन आइडिया पर घटिया पटकथा वाली फिल्म है.जी हां!काफी लचर व कमजोर पटकथा के चलते यह फिल्म दर्शकों को बांधकर रखने में असफल रहती है. सेट,कास्टयूम ,वीएफएक्स पर काफी पैसा खर्च किया गया.मगर कहानी,पटकथा व संवाद पर कोई मेहनत नही की गयी. फिल्म में सनामन धर्म का महिमा मंडन करते हुए महाभारत की पौराणिक कहानियों को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है.ग्रे किरदारो को अच्छा बताने का प्रयास किया गया है.फिर चाहे वह अश्वत्थामा हो या कर्ण हो.सर्वविदित है कि अश्वतथामा ने ही अर्जुन के पांच पुत्रों की हत्या कर दी थी. कर्ण को प्रभास के किरदार भैरव से जोड़ना भी गलत है. फिल्म में अपरोक्ष रूप से भ्रूण हत्या को प्रोत्साहित ही किया गया है.. क्या फिल्मकार ने यह उचित काम किया है? फिल्म के सभीे एक्शन दृश्य किसी न किसी हौलीवुड फिल्म की नकल मात्र नजर आते हैं.

फिल्म मूलतः तेलुगु भाषा में फिल्मायी गयी है,बाद में हिंदी में उब किया गया है.हिंदी की डबिंग कमजोर है..उच्चारण दोष है.कई किरदार के संवादों के उच्चारण सही न होने पर इमोशन भी मार खा जाता है. फिल्म थ्री डी में बनायी गयी है,मगर एक भी दृश्य ऐसा नही है, जिसमें थ्री डी की जरुरत रही हो.

इसके अलावा बेवजह के सिर पैर वाले कई किरदार गढ़कर कहानी को विस्तार दिया गया है.फिल्म में इतने सारे किरदार है कि इंटरवल से पहले नब्बे मिनट की कहानी में समझ में ही नही आता कि आखिर कौन क्या कर रहा है और वह फिल्म में क्यो हैं? इंटरवल से पहले के नब्बे मिनट तो दर्शक को दिमागी टौर्चर देते हैं.बेचारा दर्शक सो जाता है.कुछ दर्शक सिनेमाघर छोड़कर भाग जाते हैं. यास्किन व सुमति की पृष्ठभूमि पर फिल्म मौन रहती हैं. यास्किन ने यह संसार कैसे रचा? कौम्प्लेक्स में लड़कियां गर्भवती कैसे होती हैं,यह भी एक रहस्य है.

फिल्म का अंतिम बीस मिनट का क्लायमेक्स बेहतरीन है. कम्प्यूटर ग्राफी और वीएफएक्स अच्छा है. फिल्म का इंटरनेशनल लुक नजर आता है,मगर बाकी सब बेकार है.पूरी फिल्म मनोरंजन व इमोषन के नाम पर शून्य है. फिल्म में जोर्डजे स्टोजिलजकोविक की सिनेमैटोग्राफी उत्कृष्ट है. संगीतकार संतोष नारायण का संगीत औसत दर्जे से भी निचले स्तर का है.

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अभिनयः

अश्वत्थामा के किरदार में अपने 80 साल की उम्र में भी अमिताभ बच्चन अपने अभिनय की बदौलत लोगों के दिलों दिमाग पर छा जाते हैं.उनका लुक, डायलाग डिलीवरी और स्टंट कमाल के हैं. फिल्म में भैरव का किरदार निभाने वाले अभिनेता प्रभास ने काफी निराश किया है.इस फिल्म से उनका करियर बर्बाद ही होना तय है.वैसे भी पिछले सात वर्षों में हिंदी में ‘बाहुबली एक’ और ‘बाहुबली 2’ के बाद प्रभास की ‘साहो’,‘आदिपुरूष’,‘राधेश्याम’, ‘सालार’ सहित एक भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफल नही हुई है.फिल्म में पहले भैरव  निगेटिव किरदार में हैं,उसके बाद वह उन्हें कर्ण बताया गया.उन्होने निराश ही किया है.पता नही नाग अश्विन ने प्रभास के किरदार भैरव को हास्य किरदार क्यों बनाया? कमल हासन का किरदार काफी छोटा है,शायद इसे दूसरे भाग में ठीक से चित्रित किया जाएगा.

दीपिका पादुकोण गर्भवती होने का स्वाभाविक अभिनय करने में विफल रही हैं.अभिनय के मामले में वह शून्य हैं.कमल हासन के हिस्से करने को कुछ रहा ही नही.राम गोपाल वर्मा ,सलमान दुलकर,दिशा पाटनी ने भी निराश किया है.सुप्रीम यास्कीन के दाहिने हाथ के किरदार में अभिनेता अनिल जार्ज प्रभावित करते हैं.अपनी मुट्ठी से घातक लेजर किरणें निकालने वाले कमांडर के किरदार में सास्वत चटर्जी भी ठीक ठाक हैं.

मैं 53 साल की हूं मेरा ब्लडप्रैशर थोड़ा बढ़ गया है, ब्लडप्रैशर सामान्य रखने के लिए क्या करूं ?

सवाल
मैं 53 साल की हूं और बैंक में औफिसर हूं. मुझ पर काम का काफी दबाव रहता है. शायद इसी कारण मेरा ब्लडप्रैशर थोड़ा बढ़ गया है. घर में बच्चे और पति मेरा मजाक उड़ाते हैं कि कहीं ऐसा होता है कि मौसम से ब्लडप्रैशर घटेबढ़े? मगर मैं तो भुक्तभोगी हूं. कृपया बताएं कि क्या  बदलते मौसम से ब्लडप्रैशर से किसी प्रकार का संबंध है या नहीं? यदि हां, तो उन दिनों ब्लडप्रैशर सामान्य रखने के लिए क्याक्या उपाय करने उपयोगी रहेंगे ताकि मैं अच्छा स्वास्थ्य बनाए रख सकूं?

जवाब
आप का शक बेबुनियाद नहीं है. बदलते मौसम में बहुत लोगों का ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. कई क्लिनिकल अध्ययनों में यह देखा गया है. यदि ब्लडप्रैशर बढ़ कर 140 अंक सिस्टोलिक और 90 अंक डायस्टोलिक के पार पहुंचने लगे तो डाक्टर से सलाह ले कर इसे नियंत्रण में लाने के लिए उचित कदम उठाना जरूरी हो जाता है.

ब्लडप्रैशर का बढ़ा रहना सेहत के लिए नुकसानदेह है. धमनियों पर अधिक दाब बने रहने से दिल, गुरदों, दिमाग और आंखों के परदों पर समय बीतने के साथ और कभीकभी यकायक भी बुरा असर पड़ सकता है.

ब्लडप्रैशर पर नियंत्रण पाने के लिए उपयुक्त दवाओं के साथसाथ जीवनशैली में भी कुछ सुधार लाने जरूरी होते हैं. संतुलित आहार, नमक का कम प्रयोग, नियमित व्यायाम और वजन पर नियंत्रण जरूरी है.

अगर सुबह उठने पर सिर के पिछले हिस्से में भारीपन महसूस हो, तो इसे ब्लडप्रैशर बढ़ा हुआ मानें. ब्लडप्रैशर जांच लें. अगर पाएं कि ब्लडप्रैशर बढ़ा हुआ है, तो तुरंत डाक्टर से सलाह लें. डाक्टर उसे काबू में लाने के लिए दवा की खुराक बढ़ाने की राय दे तो उस की बात टालें नहीं, बल्कि उस पर तुरंत अमल करें. कुछ मामलों में कोई एक नई दवा भी जोड़नी पड़ सकती है.

ठंड के दिनों में कुछ लोगों को ब्लडप्रैशर इसलिए भी बढ़ जाता है कि वे भोजन में अधिक नमक लेने लगते हैं. अत: इस बात का ध्यान रखें कि दिन भर में 5 ग्राम से अधिक नमक न लें.

अपने खानपान पर ध्यान रखें. ताजे फल और शाकसब्जियां खूब खाएं. शुद्ध दूध के बजाय स्प्रेटा दूध पीएं. भोजन में सैचुरेटेड फैट की मात्रा घटा दें.

ब्लडप्रैशर के कुछ मरीजों में यह भी होता है कि उन का ब्लडप्रैशर सुबहसुबह बहुत बढ़ जाता है. यदि आप के साथ ऐसा होता है, तो मुमकिन है कि दवा का समय बदलने से फायदा पहुंचे.

कुछ दवाएं सुबह तो कुछ शाम में लेने से चौबीसों घंटे ब्लडप्रैशर वश में किया जा सकता है. इस बारे में भी आप अपने डाक्टर से सलाह ले सकती हैं.

अपना तनाव घटाने के लिए अपनी कार्यशैली में सुधार लाएं. हंसनेखेलने, अमोदप्रमोद के लिए समय देने के साथसाथ व्यायाम, ध्यान आदि स्ट्रैस रिलीज करने के अच्छे उपाय हैं.

मानवता को बचाए रखने के लिए बुजुर्ग क्यों हैं जरूरी

सीमा और अमित अपने डेढ़ साल के बेटे अंशुल के साथ एक पारिवारिक शादी में गए थे. नन्हा अंशुल अपनी मां सीमा की गोद में बैठा आइसक्रीम के मजे ले रहा था, तभी अमित की बूढी नानी आ गयी. सीमा ने झुक कर उनके पैर छुए, उसको आशीर्वाद देते नानी के हाथ जैसे ही अंशुल को दुलारने के लिए आगे बढ़े, अंशुल चीखें मार कर रोने लगा. दरअसल नानी के बूढ़े झुर्रियोंदार चेहरे से वह बुरी तरह डर गया था. उसने कभी अपने घर में इतनी ज़्यादा उम्र का बुजुर्ग नहीं देखा था. दिल्ली में सीमा और अमित परिवार से दूर अपने अलग फ्लैट में रहते थे. दोनों जवान थे. अमित जहां अभी 28 साल का था वहीं सीमा की उम्र भी महज 26 वर्ष की थी. दोनों ने लव मैरिज की थी, इसलिए अपने घर की शान्ति के लिए शुरू से ही दोनों अपने अपने परिवार से दूर ही रहे. यहां दिल्ली में उनके फ्लैट पर आने वाले अधिकतर युवा लोग ही थे. उनके साथ नन्हा अंशुल बहुत जल्दी घुलमिल जाता था. मगर नानी जैसा बूढ़ा चेहरा देख कर तो वह घबरा ही गया.

पार्क में साथ खेल कर लौटी प्रिया और आरती किसी बात पर जोर जोर से हंस रही थीं. मां ने पूछा तो बोली – मम्मी आज राहुल अपनी दादी को लेकर पार्क में आया था. उसकी दादी चल तो पाती नहीं हैं. पूरे वक़्त राहुल का हाथ पकड़ कर पार्क में घूमती रही. उसको हमारे साथ खेलने भी नहीं दिया. बूढी को दिखाई भी कम देता है. पार्क के गेट पर लुढ़क गयी. फिर एक अंकल ने उनको उठाया. सारे लोग देख देख कर हंस रहे थे.

मां ने समझाया – ”बेटा किसी को देख कर ऐसे हंसते नहीं हैं.”

आरती – ”अरे मम्मी तुम देखती तो तुम भी हंसते हंसते पागल हो जातीं.” कहते हुए दोनों अपने कमरे में भाग गयीं. इनमे से प्रिया की उम्र 13 साल और आरती 15 साल की थी.

मेट्रो ट्रेन में जिन युवाओं या कॉलेज स्टूडेंट्स को सीट मिल जाती है, देखा गया है कि किसी बुजुर्ग के मेट्रो में चढ़ने पर वे अपनी सीट उनके लिए नहीं छोड़ते. ऐसे में कई स्टेशन तक बुजुर्ग यात्री खड़े खड़े ही यात्रा करते हैं. रास्तों पर भी अब किसी बुजुर्ग को रास्ता पार करने के लिए युवा हाथ कम ही आगे बढ़ते हैं.

बुजुर्गों के साथ बैठना, उनसे बातें करना, उनके अनुभवों से लाभ उठाना या उनकी छोटी छोटी जरूरतों को पूरा करने की चाह आज के युवाओं में नहीं देखी जाती. महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी याद आती है – बूढी काकी. बूढी काकी जिसने बुढ़ापे में अपना घर और जमीन अपने भतीजे के नाम लिख दी. जायदाद मिलने के बाद काकी के भतीजे और बहु का व्यवहार ही उनसे बदल गया. वे ना उनके खाने का ध्यान रखते और ना उनकी किसी जरूरत की परवाह करते थे. काकी अपने ही घर के बाहर बनी एक कोठरी में अकेली पड़ी रहती थी. घर के सभी लोग उसको दुत्कारते, सिर्फ एक किशोर उम्र की लड़की को छोड़ कर. काकी के भतीजे की बेटी जो कोई 12 साल की थी, आज अपनी मां की रसोई से अक्सर बूढी काकी के लिए खाने की चीजें चुरा कर उनको चुपके से खिला आती थी. बूढी काकी के प्रति उसका स्नेह और अपनत्व था और काकी भी उसको खूब प्यार देती थी, उसको खूब अच्छी अच्छी बातें करती थी. अच्छी सीख देती थी. दोनों के बीच अच्छी बॉन्डिंग थी. दो पीढ़ी पहले तक के बच्चों में अपने घर के बड़े-बूढ़ों के साथ ऐसी ही बॉन्डिंग हुआ करती थी. मगर वर्तमान पीढ़ी में यह ख़त्म हो रहा है और कई जगह पूरी तरह ख़त्म हो चुका है. बूढ़े लोगों के प्रति संवेदनहीनता और कई बार निर्ममता समाज में दिखने लगी है. इसकी कई वजहें हैं –

एकल परिवार

आजकल ज़्यादातर युवा शादी के बाद अपने मातापिता से अलग घर लेकर रहने लगे हैं. यह दूरी अच्छा करियर बनाने और नौकरियों के कारण भी आयी है. आज लड़के लड़कियां पढ़ाई ख़त्म करके अन्य शहरों में या मेट्रो सिटीज में जौब ढूंढते हैं ताकि वे कुछ आजाद रह सकें. जो युवा सरकारी नौकरी में आ जाते हैं उनकी भी पोस्टिंग अन्य शहरों में होती है. शादी के बाद वे पत्नी को अपने माता पिता के पास नहीं बल्कि अपने पास रखते हैं. अगर लड़की भी नौकरीपेशा है तो वह पति के साथ ही रहना चाहती है. ऐसे में संयुक्त परिवार अब लगभग टूट चुके हैं, जिसमें बच्चों को प्यार करने वाले दादा दादी मिलते थे. संयुक्त परिवारों में अक्सर रिश्तेदारों का भी आना जाना लगा रहता थे. कभी नानी नाना आ रहे हैं, कभी बुआ दादी चली आ रही हैं. तो बचपन से ही उनका अपने बुजुर्गों के साथ एक करीबी आत्मीय सम्बन्ध बन जाता था. वे जैसा घर के बुजुर्गों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे, घर के बाहर मिलने वाले बुजुर्गों के साथ भी वैसा ही व्यवहार रखते थे. उनकी परेशानी और जरूरतें भी आसानी से समझ जाते थे. मगर एकल परिवार के बच्चे ना तो बुजुर्गों के सानिध्य में रहते हैं, ना उनके प्रति कोई अपनत्व या स्नेह का भाव उनमें पैदा होता है. लिहाजा बाहर नज़र आने वाले बूढ़े लोगों के प्रति भी वे उपेक्षा का व्यवहार रखते हैं.

बुजुर्गों के प्रति उनकी संतानों का बुरा व्यवहार

बहुत से घरों में बहू का अपनी सास के साथ सम्बन्ध अच्छा नहीं होता है. दोनों लड़ती रहती हैं. एक दूसरे के बारे में गलत बातें कहती हैं. आयेदिन अखबारों में अनेक समाचार बुजुर्गों को प्रताड़ित करने के छपते हैं. कई बार तो बेटा बहू मिल कर बूढ़े मां बाप पर अत्याचार करते हैं. वहीं अपने बच्चों को भी उनके पास जाने से रोकते हैं और बच्चों के मन में दादा दादी के प्रति नफरत भरते हैं. बच्चे जब बहुत कम उम्र से अपने घर के बुजुर्गों को अपमानित होते देखते हैं तो उनके दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि बूढ़े लोग अच्छे नहीं होते हैं, तभी तो उनको दुत्कार कर रखा जाता है. उनको गाली दी जाती है, भूखा रखा जाता है, या बासी खाना दिया जाता है अथवा मारा-पीटा जाता है. ऐसे बच्चे बड़े होकर कभी भी परिवार और समाज के बुजुर्गों के लिए प्रेम या सदाचार का भाव प्रकट नहीं कर सकते. क्योंकि बुजुर्गों के साथ उनका कभी अपनत्व भाव रहा नहीं. ऐसे ही बच्चे मेट्रो ट्रेन या बस में बूढ़ों को खड़े देख कर भी अपनी सीट उनके लिए नहीं छोड़ते. ऐसे ही बच्चे सड़क पार करते किसी बूढ़े का हाथ थामने के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाते बल्कि इयरफोन कान में ठूंसे खटाखट खटाखट उनके बगल से होकर गुजर जाते हैं. उनको यह अहसास भी नहीं होता कि वह बुजुर्ग असहाय और जरूरतमंद है.

बीते तीन दशकों में वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों की संख्या में बहुत तेजी से इजाफा हुआ है. अब इंसान की जीवन प्रत्याशा भी काफी बढ़ गयी है. पहले जहां साठ-पैंसठ की उम्र तक ही लोग जीते थे, अब अस्सी-नब्बे साल तक जी रहे हैं. साठ साल में रिटायर होने के बाद आगे तीस साल वे घर में खाली बैठे हैं. बहुत से बुजुर्ग तो कुछ ना करने के कारण ही चिड़चिड़े हो जाते हैं. जीवन के चालीस साल काम किया और अचानक बिलकुल खाली होकर बैठ गए.

ऐसे में वे बेटे बहू के काम में टांग अड़ाने लगते हैं. उन्हें मश्वरे देने लगते हैं जो अक्सर उन्हें पसंद नहीं आते और वे चाहते हैं कि उनके बूढ़े पिता या तो अपने कमरे में रहें या भगवान् भजन करें. ऐसे ही बूढी औरतें अक्सर अपनी बहुओं के काम में नुक्स निकालती रहती हैं या रिश्तेदारों या मोहल्ले वालों से उसकी बुराई करने में लगी रहती हैं. जिससे रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है. ऐसे बूढ़े फिर अपनी ही संतानों को बोझ लगने लगते हैं. यही वजह है कि अनेक परिवार अपने बूढ़ों को त्याग रहे हैं. वे उनके साथ नहीं रहना चाहते. उनकी जरूरतें एक बोझ सी महसूस होती हैं. उनके लिए समय निकालना या उनसे थोड़ी देर बैठ कर बात करना भी वे गवारा नहीं समझते.

नौकरीपेशा बहुओं को अपने सास ससुर के लिए अलग से सादा खाना पकाना एक बोझ सा लगता है. पहले पति और बच्चों के लिए बनाओ, फिर सास ससुर के लिए बनाओ. उनके कारण वे कहीं बाहर घूमने-फिरने नहीं जा सकते. सास ससुर बीमार हो जाएं तो दिन भर उनकी देखभाल करो. महंगी दवाएं, टौनिक, डाक्टर की फीस भरो. ऐसी तमाम जिम्मेदारियां आज के बहु बेटे नहीं उठाना चाहते हैं. वे उनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहे हैं. इसलिए या तो नौकरी के बहाने वे मां बाप को छोड़ कर अन्य शहर में रह रहे हैं या वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रम में पहुंचा देते हैं. दादा दादी के प्रति मां बाप का ऐसा उपेक्षित व्यवहार देख कर बच्चे भी वैसा ही व्यवहार अपने बुजुर्गों के साथ करते हैं. फिर चाहे वे घर में हों या बाहर.

समाज और परिवार का तानाबाना ना बिखरे. इंसान का इंसान से प्रेम और स्नेह बना रहे इसके लिए बहुत जरूरी है कि हमारी सामाजिक संस्थाएं, स्कूल, कालेज और सरकार सब मिल कर बच्चों और बुजुर्गों के बीच स्नेह की डोर को मजबूत करें. बच्चों और बुजुर्गों को साथ लाकर ही उनके बीच के अजनबीपन को मिटाया जा सकता है.

स्कूलों में छोटी उम्र के बच्चों से टीचर्स पूछें या निबंध के रूप में लिखवाएं कि उनके अपने दादा दादी, नाना नानी के साथ कैसे रिश्ते हैं? वे उनसे क्या सीखते हैं? वे उनके साथ घूमने जाते हैं या नहीं? वे उनका ख्याल रखते हैं या नहीं? वे उनके साथ खाना खाते हैं या नहीं? इन सवालों के जवाब देते हुए बच्चे बहुत कुछ सीख भी जाएंगे और यदि उनके माता पिता घर के बुजुर्गों के साथ कोई अशोभनीय हरकत करते हैं तो उन पर भी रोक लगेगी.

समय समय पर स्कूलों में पेरैंट-टीचर मीटिंग होती है. ऐसे ही स्कूलों में ग्रैंड पैरेंट-टीचर मीटिंग्स भी होनी चाहिए जिसमें बच्चे अपने दादा दादी के साथ आएं. ऐसी मीटिंग्स होंगी तो दादा दादी को भी अपनी कुछ अहमियत महसूस होगी. बच्चों के साथ उनके प्रेम की डोर और मजबूत होगी, यही नहीं जब उनके जवान बेटे बहू देखेंगे कि बच्चों के स्कूल में दादा दादी भी इन्वाइट किये जा रहे हैं तो इस डर से कि कहीं उनकी कही कोई गलत बात वे बच्चों की टीचर से ना कह दें, अपने माता पिता के साथ ठीक व्यवहार करने लगेंगे. इसके साथ वे यह भी चाहेंगे कि उनके बच्चों के स्कूल में जब दादा दादी जाएं तो अच्छे कपड़े-जूते वगैरह पहन कर जाएं. इसलिए वे अपने बुजुर्गों के लिए कुछ शौपिंग भी करेंगे. उनके लिए अच्छे कपड़े भी खरीदेंगे. बहू सास को कोई अच्छी साड़ी निकाल कर पहनने के लिए देगी. अच्छी सैंडल और पर्स देगी ताकि उसके बच्चे के स्कूल में उसकी इज्जत ना घटे. फिर बच्चे भी दूसरे बच्चों से अपने दादा दादी को मिलवा कर खुश होंगे. वहाँ अन्य बुजुर्ग भी एक दूसरे से मिलेंगे, बात करेंगे. अगर बच्चों और बुजुर्गों के बीच स्नेहिल संबंधों को बनाने की शुरुआत स्कूल से हो तो इसका असर परिवार, समाज और मानवता पर गहरा पड़ेगा.

स्कूल अक्सर बच्चों को चिड़ियाघर, पिकनिक पर या ऐतिहासिक स्मारकों को दिखाने के लिए ले जाते हैं. इस लिस्ट में उन्हें वृद्धाश्रमों को भी शामिल करना चाहिए. टीचर्स बच्चों को वहाँ ले जाएं. दिन भर उनके साथ व्यतीत करें. उनके साथ गेम्स खेलें. साथ खाना खाएं. उनसे कहानियां सुने. वहां ऐसे लैक्चर भी हों जिनसे बच्चे यह जानें कि किन मजबूरियों के कारण वे बुजुर्ग परिवार से अलग वहां आकर रह रहे हैं. इससे बच्चों के अंदर अपने समाज के बुजुर्गों के लिए संवेदनशीलता पैदा होगी. वह उनकी मजबूरियों और जरूरतों को भी समझेंगे.

छोटी कक्षाओं से ही बच्चों को कहानियों की ऐसी किताबें पढ़ने को मिलनी चाहियें जिसमें दादा दादी, नाना नानी की उनके ग्रैंड चिल्ड्रेन्स के साथ बौन्डिंग की कहानियां खूब हों. इससे उनके अंदर बचपन से ही अपने बड़े-बूढ़ों के प्रति सम्मान और स्नेह विकसित होगा. टीचर्स उनको कुछ ऐसे टास्क दे सकते हैं जिसमें वे अपने क्षेत्र के किसी जरूरतमंद बुजुर्ग के लिए कुछ कर के दिखाएं. वे अपने द्वारा किये गए कार्य को लिखें और फिर सबसे अच्छा कार्य जिस बच्चे ने किया उसे पेरैंट-टीचर मीटिंग के दिन या किसी अन्य फंक्शन पर सारे पेरेंट्स और बच्चों के सामने पुरस्कृत किया जाना चाहिए. इससे सभी बच्चों में अपने आसपास के बूढ़े लोगों के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ेगी और उनके माता पिता भी अपने बुजुर्गों से अच्छा व्यवहार करेंगे.

बच्चे वही सीखते हैं जो उनके माता पिता उनके सामने करते हैं. अगर माता पिता किसी बुजुर्ग के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे हैं, तो उनको बच्चों के माध्यम से ही सही रास्ते पर लाया जा सकता है और इसकी शुरुआत स्कूलों से होनी चाहिए.

सुबह का भूला : दारजी ने सुनीयल को ऐसा क्या कहा

सतविंदर जल्दीजल्दी सारे काम निबटा कर घर से निकल ही रहा था कि केट ने पूछ लिया, ‘‘अभी से?’’

‘‘हां, और क्या, 2 घंटे तो एयरपोर्ट पहुंचने में भी लग जाने हैं,’’ सतविंदर उल्लास से लबरेज था किंतु पास बैठे अनीटा और सुनीयल सुस्त से प्रतीत हो रहे थे. आंखों ही आंखों में सतविंदर ने अपनी पत्नी केट से कारण जानना चाहा. उस ने भी नयनों की भाषा में उसे शांत रह, चले जाने का इशारा किया. फिर एक आश्वासन सा देती हुई बोली, ‘‘जाओ, बीजी दारजी को ले आओ. तब तक हम सब नहाधो कर तैयार हो जाते हैं.’’

पूरे 21 वर्षों के बाद बीजी और दारजी अपने इकलौते बेटे सतविंदर की गृहस्थी देखने लंदन आ रहे थे. सूचना प्रोद्यौगिकी में अभियांत्रिकी कर, आईटी बूम के जमाने में सतविंदर लंदन आ गया था. वह अकसर अपने इस निर्णय पर गर्वांवित अनुभव करता था, ‘बीइंग एट द राइट प्लेस, एट द राइट टाइम’ उस का पसंदीदा जुमला था. नौकरी मिलने पर सतविंदर ने लंदन के रिचमंड इलाके में एक कमरा किराए पर लिया. नीचे के हिस्से में मकानमालिक रहते थे और ऊपर सतविंदर को किराए पर दे दिया गया था. कमरा छोटा था किंतु उस के शीशे की ढलान वाली छत की खिड़की से टेम्स नदी दिखाई देती थी. यह एक अलग ही अनुभव था उस के लिए, ऊपर से किराया भी कम था. सो, सतविंदर खुशी से वहां रहने लगा. मकानमालिक की इकलौती लड़की केट सतविंदर के लिए दरवाजा खोलती, बंद करती. मित्रता होने पर वह सतविंदर को लंदन घुमाने भी ले जाने लगी. सतविंदर ने पाया कि केट बहुत ही सुलझी हुई, समझदार व सौहार्दपूर्ण लड़की है. जल्द ही दोनों एकदूसरे की तरफ खिंचाव अनुभव करने लगे. केट के दिल का हाल उस के नेत्र अपनी मूकभाषा द्वारा जोरजोर से कहते किंतु धर्म की दीवार के कारण दोनों चुप थे. परंतु केट की भलमनसाहत ने सतविंदर का मन ऐसा मोह लिया कि उस ने चिट्ठी द्वारा अपने बीजी व दारजी से अनुमति मांगी. उन की एक ही शर्त थी कि शादी अपने पिंड में हो. सतविंदर, केट व उस के मातापिता सहित अपने गांव आया और धूमधाम से शादी हो गई. एक तो गोरी, विलायती बहू, ऊपर से विनम्र, निबाहने वाला स्वभाव. केट ने जल्द ही सब का मन मोह लिया.

कुछ सालों में सतविंदर व केट के घोंसले में 2 नन्हे सुर सुनाई देने लगे. अब उन की गृहस्थी परिपूर्ण थी. बीजी बहुत प्रसन्न थीं कि पराए देश में भी उन की आंख के तारे का खयाल रखने वाली मिल गई थी. साथ ही सतविंदर को बनाबनाया घर मिल गया. कुछ समय बाद उस ने अपने ससुर के व्यवसाय में हिस्सेदारी कर ली. आज उस की गिनती लंदन के जानेमाने रईसों में होती थी. उस की तेज प्रगति का श्रेय कुछ हद तक उस की शादी को भी जाता था. सतविंदर व केट अपने बच्चों को ले कर अकसर भारत जाया करते. लेकिन जब से बच्चे बड़े हुए, तब से कभी उन की शिक्षा, कभी उन के कहीं और छुट्टी मनाने के आग्रह के चलते उन का भारत जाना कुछ कम होता गया.

पिछले वर्ष दीवाली के त्योहार पर केट, बीजी से फोन पर बात कर रही थी, ‘बच्चों की व्यस्तता के कारण हमारा आना अभी संभव नहीं है, बीजी.’ फिर अचानक ही केट के मुंह से निकला, ‘आप लोग क्यों नहीं आ जाते यहां?’ तब से कागजी कार्यवाही पूरी करतेकराते आज बीजी और दारजी लंदन आ रहे थे. दोनों बहुत हर्षोल्लासित थे. पहली बार हवाई सफर कर रहे थे और वह भी विलायत का. इस उम्र में उन्हें उत्साह के साथसाथ इतनी दूर सफर करने की थोड़ी चिंता भी थी. सामान भी खूब था. ठंडे प्रदेश जा रहे थे. दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट देख कर दोनों को सुखद आश्चर्य हुआ. हवाई जहाज के जरिए वे आखिरकार लंदन पहुंच गए. सतविंदर पहले से ही एयरपोर्ट पर प्रतीक्षारत था. गले मिलते ही बीजी और दारजी के साथसाथ सतविंदर की आंखें भी नम हो चलीं. बीजी की एक हलकी सी हिचकी बंधते ही सतविंदर ने टोका, ‘‘अभी आए हो बीजी, जा नहीं रहे जो रोने लगे.’’ अपने बेटे की बड़ी गाड़ी में सवार हो, उस के घर जाते समय रास्ते में लंदन की सड़क किनारे की हरियाली, वहां का सुहाना मौसम, सड़क पर अनुशासन, सड़क पर न कोई जानवर, न आगे निकालने की होड़ और न ही हौर्न का कोई शोर, सभी ने उन का मन मोह लिया था.

‘‘यह तो आज आप के आने की खुशी सी है जो इतनी धूप खिली है वरना यहां तो अकसर बारिश ही होती रहती है,’’ सतविंदर ने बताया. वाकई, अंगरेज स्त्रीपुरुष ऐसे हलकेफुलके कपड़ों में घूम रहे थे मानो गरमी से बुरा हाल हो रहा हो जबकि बीजी और दारजी ने हलके कोट पहने हुए थे, उन के लिए तो यह मौसम भी कुछ ठंडा ही था. घर के दरवाजे पर केट खड़ी इंतजार कर रही थी. उस ने पूरी खुशी के साथ उन का स्वागत किया. बीजी और दारजी बेहद प्रसन्न थे. उन्हें उन के कमरे में छोड़ केट उन के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करने में लग गई. ‘‘मेरे पोतापोती कित्थे होंगे? उनानूं देखण वास्ते आंखें तरस गी,’’ बीजी से अब और प्रतीक्षा नहीं हो रही थी. दारजी की नजरें भी जैसे उन्हें ही खोज रही थीं. सतविंदर ने दोनों को आवाज लगाई तो अनीटा और सुनीयल आ गए. बीजी और दारजी फौरन उन दोनों को गले से लगा लिया. हुण किन्ने वड्डे हो गए नै.

‘‘यह कौन सी भाषा बोल रहे हैं, डैड? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा,’’ सुनीयल ने बेरुखी से कहा, ‘‘और बाई द वे, हमारे नाम अनीटा और सुनीयल हैं, अनीता व सुनील नहीं.’’

सुनीयल की इस बदतमीजी पर सतविंदर की आंखें गुस्से में उबल पड़ीं कि तभी केट वहां आ गई. अभीअभी आए बीजी व दारजी के समक्ष कोई कहासुनी न हो जाए, उस ने त्वरित बात संभालते हुए सब को चायनाश्ता दिया और बच्चों को अपने कमरे में जाने को कह दिया, ‘‘जाओ, तुम दोनों अपनी पढ़ाई करो.’’

शाम तक बीजी और दारजी घर के नक्शे से अभ्यस्त हो चुके थे. घर में घूम कर उन्हें पता लग रहा था कि यहां कपड़े तो वाश्ंिग मशीन में धुलेंगे ही, बरतन भी डिशवाशर में साफ होते हैं. रसोई में माइक्रोवेव, इंडक्शन गैस के साथ वाश्ंिग मशीन लगी देख बीजी को थोड़ा आश्चर्य हुआ तो केट ने बताया कि यहां ऐसा ही होता है. सिंक के नल से पानी पीना भी उन्हें थोड़ा अजीब लग रहा था. ‘‘बीजी, यहां सारा पानी पीने योग्य है, आप किसी भी नल से पानी पी सकते हैं. इसीलिए दवाएं बाथरूम के कैबिनेट में रखने का रिवाज होता है.’’ केट ने उन्हें बहुत अच्छे से सब समझा दिया था. साथ ही, इशारे में उस ने यह भी कह दिया कि दूसरी संस्कृति में पलेबढ़े होने के कारण बच्चे अधिक टोकाटाकी पसंद नहीं करते. दोनों की संस्कृति के अंतर के कारण रिश्तों में किसी प्रकार की दरार नहीं आनी चाहिए. यदि हम पहले से ही थोड़ी तैयारी कर लें तो शायद एकदूसरे को समझ भी पाएं और अपना भी सकें. केट समझदार थी जो घरपरिवार को साथ ले कर चलना चाहती थी और जानती भी थी. किंतु पराए देश, पराई संस्कृति में पल रहे बच्चों का क्या कुसूर? अनीटा अभी 15 वर्षीया थी और सुनीयल 18 वर्ष का. मगर जिस देश में वे पैदा हुए, बड़े हो रहे थे उस की मान्यताएं तो उन के अंदर घर कर चुकी थीं. उन्हें बीजी और दारजी से बात करना जरा भी पसंद न आता.

उन के लाए कपड़े व तोहफे भी उन्हें बिलकुल नहीं भाए. बीजी व दारजी भी समझ रहे थे कि अपने ही पोतापोती के साथ संपर्कपुल बनाने के लिए उन्हें थोड़ा और धैर्य, थोड़ी और कोशिश करनी होगी. उन्हें कोई शिकायत नहीं थी. वे इस स्थिति के लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहरा रहे थे, ‘‘अब बच्चों के पास रहने के लालच में हम उन की तरक्की के आड़े तो नहीं आएंगे न,’’ दारजी का मानना था. अगले हफ्ते सतविंदर व केट, बीजी व दारजी को लंदन के प्रसिद्ध म्यूजियम घुमाने ले गए, ‘‘यहां के म्यूजियम शाम 5 बजे बंद हो जाते हैं, इसलिए हमें जल्दी चलना चाहिए.’’ नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में डायनासोर की हड्डियों का ढांचा, अन्य विशालकाय जानवरों के परिरक्षित शरीर, कोहिनूर हीरे की प्रतियां आदि देख कर दारजी बेहद खुश हुए. विक्टोरिया व अल्बर्ट म्यूजियम में संगमरमर की मनमोहक मूर्तियां, टीपू सुलतान के कपड़े तथा उन की मशहूर तलवार, दुनियाभर से इकट्ठा किए हुए बेशकीमती कालीन, मूर्तियां, कांच, कांसे व चांदी के बरतन इत्यादि देख वे हक्केबक्के रह गए, ‘‘इन गोरों ने केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया ही लूटी.’’

घूमने के बाद वे सब विक्टोरिया व  अल्बर्ट म्यूजियम के पिछवाड़े  बगीचे में बैठ कर कौफी और चिप्स का आनंद उठाने लगे. वहां झूले सी अद्भुत कुरसियां बिछी पड़ी थीं जिन पर हर उम्र के लोग बैठ कर गोलगोल झूल रहे थे. बगीचे के बीचोंबीच लगाई हुई फौआरों की कतार और उस से बहते पानी का छोटा सा कुंड, जिस में बच्चे चल रहे थे, उछल रहे थे और पानी के छींटे एकदूसरे पर उड़ा कर मदमस्त हंस रहे थे. बीजी व दारजी बहुत खुश हुए. पर वहीं बगीचे में, भीड़ के बीच, बीजी ने अपने बगल में 2 लड़कियों को एकदूसरे की गोद में लेटे देखा. दोनों एकदूसरे के शरीर पर हाथ फिरा रही थीं, एकदूसरे को होंठों पर चूम रही थीं. बीजी यह देख कर अवाक रह गईं. उन की आंखें आश्चर्य में फैल गईं, और फिर शर्म के मारे स्वयं ही झुक गईं मानो बीजी खुद कुछ ऐसा कर रही थीं जिस से उन्हें सब से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. किंतु उन्होंने पाया कि किसी और को इस दृश्य से कोई सरोकार न था. सब अपने में मस्त थे. कोई भी इन दोनों लड़कियों की ओर मुड़ कर नहीं देख रहा था. बीजी व दारजी के पिंड की तुलना में लंदन एक बहुत भिन्न संस्कृति वाला देश था. सब अपनेआप में मस्त तथा व्यस्त. किसी को किसी से कोई आपत्ति नहीं, कोई मोरल पुलिसिंग नहीं, सब को अपने जीवन के निर्णय लेने की आजादी. हर किसी को अपना परिधान चुनने की छूट. विवाह से पहले साथ रहने की और यदि साथ खुश नहीं, तो विवाहोपरांत अलग रहने की भी आजादी. हर नस्ल का इंसान यहां दिखाई दे रहा था. एक सच्चा सर्वदेशीय शहर.

घर पर बीजी ने ध्यान दिया कि सुबहसवेरे सतविंदर और केट अपनेअपने दफ्तर निकल जाते. न कुछ खा कर जाते और न ही लंच ले कर जाते. बीजी से रहा न गया, ‘‘पुत्तर, तुम दोनों भूखे सारा दिन काम में कैसे बिताते हो? कहो तो सुबह मैं परांठे बना दिया करूं, कोई देर नहीं लगती है?’’

इस पर सतविंदर ने हंस कर कहा, ‘‘बीजी, यहां का यही दस्तूर है. हम रास्ते में एक रेस्तरां से एकएक सैंडविच और कौफी का गिलास लेते हैं, ट्यूब (मेट्रो रेल) स्टेशन पर गाड़ी पार्क कर, अपनीअपनी दिशा पकड़ लेते हैं. लंच में भी हम अन्य सभी की भांति दफ्तर के पास स्थित रेस्तरां में कुछ खाने का सामान ले आते हैं. यहां ‘औन द गो’ खाने का ही रिवाज है-चलते जाओ, खाते जाओ, काम करते जाओ. आखिर टाइम इज मनी.’’ बीजी को यह जान कर भी हैरानी हुई कि लंदन कितना महंगा शहर है- एक सैंडविच करीब ढाई सौ रुपए का. मगर एक बार जब सतविंदर और केट उन्हें भी रेस्तरां ले गए तो बिल में कुछ अलग ही हिसाब आया देख दारजी बोल बैठे, ‘‘यह रेस्तरां तो और भी महंगा है.’’

‘‘नहीं दारजी, है तो उतना ही जैसे अन्य रेस्तरां. लंदन में एक नियम है यदि आप खाना ले कर चले जाते हैं तो कम पैसों का आएगा और यदि बैठ कर खाते हैं तो अधिक पैसे देने होंगे. तभी यहां औन द गो खाने का रिवाज अधिक है, बताया था न आप को. आप इस सब की चिंता मत करो, आप तो इस सब का आनंद उठाओ,’’ सतविंदर अपने बीजी व दारजी की सेवा कर बहुत खुश था. अगले दिन से घर यथावत चलने लगा. बच्चे पढ़ने जाने लगे, सतविंदर अपना व्यवसाय संभालने में व्यस्त हो गया और केट घर व दफ्तर संभालने में. बीजी और दारजी ने ध्यान दिया कि अनीटा को छोड़ने एक काला लड़का आता है जो उम्र में उस से काफी बड़ा प्रतीत होता है. फिर एक शाम खिड़की पर बैठी बीजी की पारखी नजरों ने अनीटा और उस काले लड़के को चुंबन करते देख लिया. उन का कलेजा मुंह को आ गया. ‘जरा सी बच्ची और ऐसी हरकत? जैसा किसी देश का चलन होगा, वैसे ही संस्कार उस में मिलेंगे उस में पल रहे बच्चों को’, सोच कर बीजी चुप रह गईं. परंतु उस रात उन्होंने दारजी के समक्ष अपना मन हलका कर ही डाला, ‘‘निक्की जेई कुड़ी हैगी साड्डी…की कीत्ता?’’

‘‘तू सोचसोच परेशान न होई…कुछ हल खोजते हैं,’’ दारजी की बात से वे कुछ शांत हुईं. सुबहसुबह बीजी चाय का कप थामे, बालकनी में खड़ी दूर तक विस्तृत रिचमंड हिल और आसपास फैली टेम्स नदी देख रही थीं. सेंट पीटर चर्च और उस के इर्दगिर्द मनोरम हरियाली. कितनी सुंदर जगह है. किंतु दिल में ठंडक हो तब तो कोई इस अनोखे प्राकृतिक सौंदर्य का घूंट भरे. मन तो उद्विग्न था कल रात के दृश्य के बाद से. कुछ देर में केट भी अपना कप लिए बीजी के पास आ खड़ी हुई. तभी बीजी ने मौके का फायदा उठा केट से कल रात वाली बात कह डाली, ‘‘संकोच तो बहुत हुआ पुत्तर पर अपना बच्चा है, टाल भी तो नहीं सकते न.’’

‘‘आप की बात मैं समझती हूं, बीजी, और यह बात मैं भी जानती हूं, लेकिन यहां हम बच्चों को यों टोक नहीं सकते. यह उन की जिंदगी है. यहां भारत से अलग संस्कृति है. छुटपन से ही लड़केलड़कियों में दोस्ती हो जाती है और कई बार आगे चल कर वे अच्छे जीवनसाथी बनते हैं. कई बार नहीं भी बनते. पर यह उन का निजी निर्णय होता है,’’ केट ने संक्षिप्त शब्दों में बीजी को विदेश में रह रहे लोगों की जिंदगी के एक महत्त्वपूर्ण पहलू से अवगत करा दिया. बीजी को यह बात पसंद नहीं आई मगर वे चुप रह गईं. परंतु अपने स्कूल जाने को तैयार अनीटा ने उन की सारी बातें सुन लीं. वह सामने आई और उन्हें देख मुंह बिचकाती हुई अपने विद्यालय चली गई. जाते हुए जोर से बोली, ‘‘मौम, आज शाम मुझे देर हो जाएगी. मैं अपने बौयफ्रैंड के साथ एक पार्टी में जाऊंगी, मेरी प्रतीक्षा मत करना.’’ उस की बेशर्मी और हिम्मत पर बीजी अवाक रह गईं. लेकिन केट बस ‘ओके डार्लिंग’ कह अपने दफ्तर जाने को तैयार होने में व्यस्त हो गई. वहां के अखबार से दारजी बीजी को खबरें पढ़, अनुवादित कर सुनाते जिस से उन्हें पता चलता कि ब्रितानियों में सब से अधिक बाल अवसाद, किशोरावस्था में गर्भ, बच्चों में बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति, असामाजिक व्यवहार तथा किशोरावस्था में शराब की लत जैसी परेशानियां हो रही हैं. कारण भी सामने थे- अभिभावकों की ओर से रोकटोक की कमी. मातापिता भी मानो ‘अधिकार’ और ‘आधिकारिक’ शब्दों के अर्थों का अंतर समझना भूल चुके थे. अनुशासनहीनता के माहौल में, संयुक्त परिवारों के अभाव में, एकल परिवारों में जहां सब अपने में व्यस्त हैं, मातापिता सोचते हैं कि बच्चों को अपना जीवन जीने का हक है और बच्चे मानते हैं कि उन्हें सब पता है. फिर ऐसी स्थिति उत्पन्न होना लाजिमी है.

एक सुबह सतविंदर भी वहीं बैठा उन दोनों की यह गुफ्तगू सुन रहा था. ‘‘दारजी, यहां आप बच्चों को सिर्फ मुंहजबानी समझा सकते हैं, समझ गए तो बढि़या वरना आप का कोई जोर नहीं. यहां कोई जोरजबरदस्ती नहीं चलती. आप बच्चे को गाल पर तो क्या पीठ पर धौल भी नहीं जमा सकते, यह अपराध है. मैं आप को एक सच्चा किस्सा सुनाता हूं, मेरा एक मुलाजिम है जिस का छोटा बेटा बिना देखे सड़क पर दौड़ गया. पीछे से आती कार से टक्कर हो गई. घबराया हुआ वह बच्चे को अस्पताल ले कर भागा. अच्छा हुआ कि अधिक चोट नहीं आई थी. बस, धक्के के कारण वह बेहोश हो गया था. खैर, सब ठीक हो गया. फिर कुछ दिनों बाद वह बच्चा एक दिन अचानक दोबारा सड़क पर बिना देखे दौड़ लिया. इस बार उस के पिता ने उस की पीठ पर 2 धौल जमाए और उसे खूब डांटा. पर इस बात के लिए उस पिता की इतनी निंदा हुई कि पूछो ही मत.’’

‘‘पर बेटेजी, यह तो सरासर गलत है. आखिर मांबाप, घर के बड़ेबुजुर्ग और टीचर बच्चों का भला चाहते हुए ही उन्हें डांटते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे ही हैं न. बड़ों जैसी समझ उन में कहां से आएगी? शिक्षा और अनुभव मिलेंगे, तभी न बच्चे समझदार बनेंगे,’’ बीजी का मत था.

‘‘आप की बात सही है, बीजी. बल्कि अब यहां भी कुछ ऐसे लोग हैं, कुछ ऐसे शोधकर्ता हैं जो आप की जैसी बातें करते हैं, पर यहां का कानून…’’ सतविंदर की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि अनीटा कमरे में आ गई, ‘‘ओह, कम औन डैड, आप किसे, क्या समझाने की कोशिश कर रहे हो? यहां केवल पीढ़ी का अंतर नहीं, बल्कि संस्कृति की खाई भी है.’’ जब से अनीटा ने बीजी और केट की बातें सुनी थीं तब से वह उन से खार खाने लगी थी. उस ने उन से बात करनी बिलकुल बंद कर दी. जब उन की ओर देखती तभी उस के नेत्रों में एक शिकायत होती. उन की कही हर बात की खिल्ली उड़ाती और फिर मुंह बिचकाती हुई कमरे में चली जाती. बीजी का मन बहुत दुखता किंतु वे कर भी क्या सकती थीं. सतविंदर अपने कारोबार में व्यस्त, केट अपने दफ्तरी काम में व्यस्त, सुनीयल अपने कालेज में व्यस्त. खाली थे तो बस बीजी और दारजी.

‘‘सैट, सुनीयल को अपने आगे की शिक्षा हेतु वजीफा मिला है. उस ने आज ही मुझे बताया कि उस के कालेज में आयोजित एक दाखिले की प्रतियोगिता में उस ने वजीफा जीता है. इस कोर्स को ले कर वह बहुत उत्साहित है,’’ केट, सतविंदर यानी सैट को बता रही थी,

‘‘2 साल का कोर्स है और पढ़ने हेतु वह पाकिस्तान जाएगा.’’

‘‘पाकिस्तान? पाकिस्तान क्यों?’’ दारजी का चौंकना स्वाभाविक था.

‘‘दारजी, वह कालेज पाकिस्तान में है, और सुनीयल ने वहीं कोर्स करने का मन बना लिया है. वैसे भी, यहां सब देशी मिलजुल कर रहते हैं. भारतीय, पाकिस्तानी, श्रीलंकन, बंगलादेशी, यहां सब बराबर हैं.’’

‘‘पुत्तर, यहां सब बराबर हैं पर अपनेअपने देश में नहीं.’’ लेकिन जब बच्चों ने मन बना लिया हो और उन के मातापिता भी उन का साथ देने को तैयार हों तो क्या किया जा सकता है. दारजी बस टोक कर चुप रह गए. उन के गले से यह बात नहीं उतर रही थी कि लंदन में पलाबढ़ा बच्चा आखिर पाकिस्तान जा कर आगे की शिक्षा क्यों हासिल करना चाहता है? ऐसा ही है तो भारत आ जाए, आखिर अपना देश है. इन सब घटनाओं ने बीजी व दारजी को कुछ उदास कर दिया था. कितनी खुशी के साथ, इतना कुछ सोच कर वे दोनों लंदन आए थे पर यहां खुद को अपने ही परिवार में बेगाना सा अनुभव कर रहे थे.

‘‘चलो जी, अस्सी घर चलें. अब तो हम ने अपने बेटे का घर देख लिया, उस की गृहस्थी में 3 महीने भी बिता लिए,’’ एक शाम बीजी, दारजी से बोलीं. अब उन्हें अपने घर की याद आने लगी थी. वह घर जहां पड़ोसी भी उन्हें मान देते नहीं थकते थे, उन से मशविरा ले कर अपने निर्णय लिया करते थे. दारजी सारे अनुभवों से अवगत थे. वे मान गए. अपने बेटे सतविंदर से भारत लौटने के टिकट बनवाने की बात करने के लिए वे उस के कक्ष की ओर जा रहे थे कि उन के कानों में सुनीयल के सुर पड़े, ‘‘जी, मैं खालिद हसन बोल रहा हूं.’’

‘सुनीयल, खालिद हसन?’ दारजी फौरन किवाड़ की ओट में हो लिए और आगे की बात सुनने लगे.

‘‘जी, मैं ने सुना है ओमर शरीफ के बारे में. उन्होंने यहीं लंदन में किंग्स कालेज से पढ़ाई की, और 3 ब्रितानियों तथा एक अमेरिकी को अगवा करने के जुर्म में भारत में पकड़े गए. फिर हाईजैक एयर इंडिया के हवाईजहाज और उस की सवारियों के एवज में रिहा हुए. ओमर ने कोलकाता में अमेरिकी सांस्कृतिक केंद्र को बम से उड़ाया तथा वाल स्ट्रीट पत्रकार दानियल पर्ल को अगवा करने तथा खत्म करने का बीड़ा उठाया. हालांकि ये बातें आज से 14 वर्ष पहले की हैं, हम आज भी ओमर शरीफ को गर्व से याद करते हैं. जी, मैं जानता हूं कि सीरिया में हजारों ब्रितानी जा कर जिहाद के लिए लड़ रहे हैं. मुझे गर्व है.’’ फिर कुछ क्षण चुप रह कर सुनीयल ने दूसरी ओर से आ रहा संदेश सुना. आगे बोला, ‘‘आप इस की चिंता न करें. मैं ने देखा है सोशल नैटवर्किंग साइट पर  कि वहां हमारा पूरा इंतजाम किया जाएगा, यहां तक कि वहां न्यूट्रीला भी मिलता है ब्रैड के साथ खाने के लिए. जब आप लोग हमारी सुविधाओं का पूरा ध्यान रखेंगे तो हम भी पीछे नहीं रहेंगे. जिस लक्ष्य के लिए जा रहे हैं, वह पूरा करेंगे.

‘‘मैं खालिद हसन, कसम खाता हूं कि अपनी आखिरी सांस तक जिहाद के लिए लड़ूंगा, जो इस में रुकावट पैदा करने का प्रयास करेगा, उसे मौत के घाट उतार दूंगा, ऐसी मौत दूंगा कि दुनिया याद रखेगी.’’ दारजी को काटो तो खून नहीं. यह क्या सुन लिया उन के कानों ने? उन के मनमस्तिष्क में हलचल होने लगी. उन का सिर फटने लगा. धीमे पैरों को घसीटते हुए वे कमरे में लौटे और निढाल हो बिस्तर पर पड़ गए. उन की सारी इंद्रियां मानो सुन्न पड़ चुकी थीं. उन की ऐसी हालत देख बीजी घबरा गईं. पानी का गिलास पकड़ाया, थोड़ी देर सिर दबाया.

दारजी बस शून्य में ताकते बिस्तर पर पड़े रहे. करीब 15 मिनट बाद दारजी कुछ संभले और उठ कर बैठ गए. उन्होंने जो सुना था उस का विश्लेषण करने में वे अब भी स्वयं को असमर्थ पा रहे थे. क्या कुछ कह रहा था सुनीयल? क्या वह किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य बन गया है? क्या उस ने धर्मपरिवर्तन कर लिया है? क्या इसीलिए वह बहाने से पाकिस्तान जाना चाहता है? यह क्या हो गया उन के परिवार के साथ? अब क्या होगा? सोचसोच वे थक चुके थे. निस्तेज चेहरा, निशब्द वेदना, शोक में दिल कसमसा उठा था. क्या वादप्रतिवाद से लाभ होगा, क्या सुनीयल को प्यार, लौजिक से समझाने का कोई असर होगा. यही सब सोच कर दारजी का सिर फटा जा रहा था. अखबारों में पढ़ते हैं कि जिहाद का काला झंडा खुलेआम लंदन की सड़कों पर लहराया गया, या फिर औक्सफोर्ड स्ट्रीट और अन्य जगहों पर भी आईएस के आतंकवादियों के पक्षधर देखे गए. लेकिन इन सब खबरों को पढ़ते समय कोई यह कब सोच पाता है कि आतंकवाद घर के अंदर भी जड़ें फैला रहा है. कौन विचार कर सकता है कि शिक्षित, संस्कृति व संपन्न परिवारों के बच्चे अपना सुनहरा भविष्य ताक पर रख, अपना जीवन बरबाद करने में गर्वांवित अनुभव करेंगे.

लेकिन दारजी हार मानने वाले इंसान नहीं थे. उन्हें झटका अवश्य लगा था, वे कुछ समय के लिए निढाल जरूर हो गए थे किंतु वे इस व्यथा के आगे घुटने नहीं टेकेंगे. उन्होंने आगे बात संभालने के बारे में विचारना आरंभ कर दिया. सुबह केट को बदहवासी की हालत में देख बीजी ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, पुत्तरजी?’’ केट ने उन्हें जो बताया तो उन के पांव तले की जमीन हिल गई. अनीटा गर्भवती थी. और उस का बौयफ्रैंड, वह काला लड़का कालेज में दाखिला ले, दूसरे शहर जा चुका था. अब घबरा कर अनीटा ने यह बात अपनी मां को बतलाई थी. बीजी के जी में तो आया कि अनीटा के गाल लाल कर दें किंतु दूसरे ही पल अपनी पोती के प्रति प्रेम और ममता उमड़ पड़ी. केट के साथ वे भी गईं डिस्पैंसरी जहां से उन्हें अस्पताल भेजा गया गर्भपात करवाने. सारे समय बीजी, अनीटा का हाथ थामे रहीं. उन की बूढ़ी आंखों में अनीटा की इस स्थिति के लिए खेद झलक रहा था. उस दिन से अनीटा का रवैया बीजी के प्रति थोड़ा नरम हो गया. धीरेधीरे वह बीजी के साथ थोड़े समय के लिए बैठने लगी. अब यदि बीजी उसे ‘अनीटा’ की जगह आदतानुसार ‘अनीता’ पुकारतीं तो वह नाकभौं न सिकोड़ती थी. केट ने भी उस में यह बदलाव अनुभव किया था जिस से वह काफी खुश भी थी. बीजी उसे अपने देश अपने गांव की कहानियां सुनातीं. इसी बहाने वे उसे भारत की संस्कृति से अवगत करातीं. दादीनानी की कहानियां यों ही केवल मनोरंजक मूल्य  के कारण लोकप्रिय नहीं हैं, उन में बच्चों में अच्छी बातें, अच्छी आदतें, अच्छे संस्कार रोपने की शक्ति भी है. अनीटा भी, खुद ही सही, राह चुनने में सक्षम बनती जा रही थी. उस में बड़ों के प्रति आदरभाव जाग रहा था. अपने जीवन की ओर वह स्वयं की जिम्मेदारी समझने लगी थी. और सब से अच्छी बात, अब वह सब से हंस कर, नम्रतापूर्वक बात करने लगी थी.

अनीटा की ओर से बीजी व दारजी अब निश्ंिचत थे. परंतु दारजी के गले की फांस तो जस की तस बरकरार थी. जितना समय बीत जाता, उतना ही नुकसान होने की आशंका में वृद्धि होना जायज था. उन्हें जल्द से जल्द इस का हल खोजना था. अनुभवी दिमाग चहुं दिशा दौड़ कर कोई समाधान ढूंढ़ने लगा. शाम को दफ्तर से लौट कर केट ने सब को सूप दिया. बीजी और अनीटा बालकनी में बैठे सूप स्टिक्स का आनंद उठा रहे थे. सतविंदर अभी लौटा नहीं था. सुनीयल ने कक्ष में प्रवेश किया कि दारजी बोलने लगे, ‘‘बेटा सुनीयल, फ्रांस के नीस शहर में हुए हमले की खबर सुनी? इन आतंकवादियों को कोई खुशी नसीब नहीं होगी, ऊंह, बात करते हैं अमनशांति की. बेगुनाहों को अपने गरज के लिए मरवाने वाले इन खुदगरजों को इंसानियत कभी भी नहीं बख्शेगी.’’ दारजी का तीर निशाने पर लगा. सुनीयल फौरन आतंकवादियों का पक्ष लेने लगा, ‘‘आप को क्या पता कौन होते हैं ये, क्या इन का उद्देश्य है और क्या इन की विचारधारा? बस, जिसे देखो, अपना मत रखने पर उतारू है. सब आतंकवादी कहते हैं तो आप ने भी कह डाला, ये आतंकवादी नहीं, जिहादी हैं. जिहाद का नाम सुना भी है आप ने?’’

‘‘शायद तू भूल गया कि मैं भारत में रहता हूं जहां आतंकवाद कितने सालों से पैर फैला रहा है. और तू जिस जिहाद की बात कर रहा है न, मैं भी उसी सोच पर प्रहार कर रहा हूं. यदि जिहाद से जन्नत का रास्ता खुलता है तो क्यों इन सरगनाओं के बच्चे दूर विदेशों में उच्चशिक्षा प्राप्त कर सलीकेदार जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं, क्यों नहीं वे बंदूक उठा कर आगे बढ़ते? और ये सरगना खुद क्यों नहीं आगे आते? स्वयं फोन व सोशल मीडिया के पीछे छिप कर दूसरों को निर्देश देते हैं और मरने के लिए, दूसरों के घरों के बेटों को मूर्ख बनाते हैं.

‘‘तुम्हारी पीढ़ी तो इंटरनैट में पारंगत है. साइट्स पर कभी पता करो कि जिन घरों के जवान बेटे आतंकवादी बन मारे जाते हैं उन का क्या होता है. जो बेचारे गरीब हैं, उन्हें ये आतंकवादी पैसों का लालच देते हैं, और जो संपन्न घरों के बच्चे हैं उन का ये ब्रेनवौश करते हैं. जब ये जवान लड़के मारे जाते हैं तो इन की आने वाली पीढ़ी को भी आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने की प्राथमिकता दी जाती है. अर्थात खुद का जीवन तो क्या, पूरी पीढ़ी ही बरबाद. लानत है इन सरगनाओं पर जो अपने घर के चिरागों को बचा कर रखते हैं और दूसरे घरों के दीपक को बुझाने की पुरजोर कोशिश में लगे रहते हैं.’’ दारजी ने कुछ भी सीधे नहीं कहा, जो कहा आज के आम माहौल पर कहा. फिर भी वे अपनी बातों से सुनीयल के भटकते विचारों में व्याघात पहुंचाने में सफल रहे. कुछ सोचता सुनीयल लंदन के सर्द मौसम में भी माथे पर आई पसीने की बूंदें पोंछने लगा. बुरी तरह मोहभंग होने के कारण सुनीयल शक्ल से ही व्यथित दिखाई देने लगा. मानो दारजी के शब्दों की तीखी ऊष्मा की चिलकियां उस की नंगी पीठ पर चुभने लगी थीं.

अगले 3 दिनों तक सुनीयल अपने कमरे से बाहर नहीं आया. उस के कमरे की रोशनी आती रही, फोन पर बातों के स्वर सुनाई देते रहे. परिवार वाले नेपथ्य से अनजान थे. सो, चिंतामुक्त थे. दारजी के कदम सुनीयल के कक्ष के बाहर टहलते रहते किंतु खटखटाना उन्हें ठीक नहीं लगा. उन्हें अपने खून और अपनी दिखाई राह पर विश्वास था. आखिर तीसरे दिन जब दरवाजा खुला तब सुनीयल ने दारजी को अपने समक्ष खड़ा पाया. उन की विस्फारित आंखों में प्रश्न ही प्रश्न उमड़ रहे थे. सुनीयल ने बस एक हलकी सी मुसकान के साथ उन के कंधे पर हाथ रखते हुए केट से कहा, ‘‘मौम, मैं पाकिस्तान नहीं जा रहा हूं. इतना खास कोर्स नहीं है वह, मैं ने पता कर लिया है.’’ दारजी ने झट सुनीयल को सीने से चिपका लिया. सप्ताहांत पर सतविंदर जब बीजी व दारजी के भारत लौटने की टिकट बुक करने इंटरनैट पर बैठा तो यात्रा की तारीख पूछने की बात अनीटा ने सुन ली.

‘‘बीजी, क्या मैं आप के साथ भारत चल सकती हूं?’’ रोती हुई अनीटा को बीजी ने गले से लगा लिया.

‘‘तेरा अपना घर है पुत्तर, चल और जब तक दिल करे, रहना हमारे पास.’’

‘‘मुझे यहीं छोड़ जाओगे क्या दारजी,’’ सुनीयल भी सुबक रहा था. वाईजहाज की खिड़की से जब बीजी और दारजी आकाश में तैर रहे बादल के टुकड़ों को ताक रहे थे, तब केट और सतविंदर के साथ कभी सुनीयल तो कभी अनीटा फैमिली सैल्फी लेने में मग्न थे.

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