बंगलादेश में शेख हसीना के तख्तापलट के बाद सेना प्रमुख वकार-उज-जमां ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले कर प्रधानमंत्री को बस 45 मिनट का वक़्त दिया कि वे अपना इस्तीफा दें और अपनी जान बचा कर बंगलादेश से निकल जाएं. किसी ने कल्पना भी न की होगी कि 15 साल से सत्ता संभाल रहीं प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस तरह अपना देश छोड़ कर भागना पड़ेगा. मात्र एक सूटकेस, जिस में चंद कपड़े और कुछ जरूरी सामान था, के साथ जब शेख हसीना भारत में गाजियाबाद के हिंडन एयरपोर्ट पर उतरीं तो उन के चेहरे पर गहरी मायूसी थी.
बंगलादेश की स्थितियां काफी भयावह हैं. छात्रों के एक गुट ने आरक्षण के मुद्दे पर देश की सरकार उलट दी और प्रधानमंत्री को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. हालांकि यह बात सुनने में हास्यास्पद लगती है क्योंकि तख्तापलट की तैयारी एक रात में नहीं हो सकती. तख्तापलट की घटना को भले छात्रों द्वारा अंजाम दिया गया हो मगर हसीना को सत्ताच्युत करने की रणनीति तैयार करने के पीछे बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी के नेताओं और अमेरिका व पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों का हाथ माना जा रहा है. जिन्होंने छात्र विद्रोह की आड़ में अपना रास्ता साफ किया.
कुछ खोजी अखबारों का कहना है कि इस भयंकर विद्रोह की पूरी साजिश लंदन में रची गई, जहां बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की कार्यवाहक प्रमुख खालिदा जिया के बेटे रहमान की सांठगांठ के सुबूत मिले हैं. गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया को हसीना सरकार ने पिछले 15 सालों से जेल में बंद कर रखा था. हसीना सरकार के तख्तापलट के तुरंत बाद ही खालिदा जिया को जेल से आजाद कर दिया गया.
बंगलादेश में जनवरी 2024 में हुए चुनाव के बाद से ही माहौल बिगड़ने लगा था. वहां हिंसा की घटनाएं बढ़ गई थीं. अल्पसंख्यकों की दुकानों और हिंदू मंदिरों पर लगातार हमले हो रहे हैं. जिन को रोक पाने में हसीना सरकार कामयाब नहीं हो पा रही थी. देश में महंगाई आसमान छू रही थी. आधा पेट खाने वाले लोग रोजगार के लिए तरस रहे थे, मगर हसीना का उन की तरफ कोई ध्यान नहीं था.
उधर चीन, अमेरिका और पाकिस्तान अपनेअपने स्वार्थ के चलते हसीना सरकार को सत्ता से बेदखल करने की साजिश रच रहे थे. इसी बीच जून में एक हाईकोर्ट ने 2018 में रद्द किए गए विवादास्पद कोटा सिस्टम को फिर से बहाल कर दिया. इस सिस्टम के तहत देश की कुल 56 फीसदी सरकारी नौकरियां आरक्षित थीं, जिन में 30 फीसदी आरक्षण 1971 के मुक्ति योद्धाओं के वंशजों को मिलना था. यह अदालत का फैसला था, जिस से सरकार हाथ खींच सकती थी. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब ढाका विश्वविद्यालय से इस का विरोध शुरू हुआ तो शेख हसीना ने आंदोलन करने वाले छात्रों को रजाकार (बंगलादेश के स्वाधीनता संघर्ष में पाकिस्तान का साथ देने वाले) और आतंकवादी घोषित कर दिया. इस से छात्र भड़क उठे.
16 जुलाई को उन का विरोध प्रदर्शन बहुत हिंसक हो गया. जगहजगह सुरक्षा अधिकारियों के साथ छात्रों की झड़पें हुईं. इंटरनैट बंद कर दिया गया जो 10 दिनों तक बंद रहा. विरोध तेज हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला पलटते हुए आरक्षण को 7 फीसदी पर ला दिया, लेकिन तब तक बात इतनी बिगड़ चुकी थी कि मामला सरकार से माफी की मांग पर आ गया.
5 अगस्त को सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों ने शेख हसीना के इस्तीफे की मांग करते हुए ढाका तक मार्च का ऐलान किया. लाखों की संख्या में लोग हाथों में डंडे और अन्य हथियार उठाए प्रधानमंत्री आवास की ओर चल पड़े. इसे देख कर सेना प्रमुख ने प्रधानमंत्री को अल्टीमेटम जारी किया कि वे 45 मिनट में इस्तीफा दे दें और बंगलादेश छोड़ दें.
शेख हसीना को अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़ कर भागना पड़ा. अमेरिका और ब्रिटेन सहित तमाम पश्चिमी देशों ने एक चुनी हुई प्रधानमंत्री के तख्तापलट का स्वागत किया. साफ था कि हसीना के तख्तापलट की स्क्रिप्ट कहीं और लिखी गई थी. ढाका यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले 3 छात्र नाहिद इस्लाम, आसिफ महमूद और अबूबकर मजूमदार जिन का नाम पूरे वाकए को अंजाम देने के पीछे लिया जा रहा है, वे तो दरअसल मोहरा भर थे.
बताते चलें कि नाहिद इस्लाम ढाका यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र का छात्र है. यह उस आंदोलन का नेतृत्व करता है जिस का नाम स्टूडैंट्स अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन मूवमैंट (एसएडीएम) है. नाहिद इस्लाम के सहयोगी आसिफ मेहमूद ढाका यूनिवर्सिटी में भाषाशास्त्र के छात्र हैं. वहीं अबू बकर मजूमदार भी ढाका यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है और वह भूगोल का छात्र है. एसएडीएम के बैनर तले ये छात्र सरकार से यह मांग कर रहे थे कि बंगलादेश में उस कोटा सिस्टम में बदलाव किया जाए जिस के तहत 30 फीसदी आरक्षण बंगलादेश मुक्ति संग्राम में हिस्सा लेने वाले लोगों के परिजनों को मिलता है. बंगलादेश में कुल 56 फीसदी आरक्षण फर्स्ट और सैकंड क्लास नौकरियों में मिलता है. इस व्यवस्था को भेदभाव वाला और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल होने वाला बताया जाता है.
बंगलादेश मीडिया के मुताबिक, आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नाहिद इस्लाम के साथ उस के दोनों दोस्तों को 19 जुलाई को हसीना सरकार की पुलिस द्वारा अगवा कर लिया गया था. इस के बाद उन से कड़ी पूछताछ की गई और बुरी तरह प्रताड़ित किया गया. 26 जुलाई को इन तीनों को घायल अवस्था में छोड़ दिया गया. इस के बाद इन तीनों ने आंदोलन की आग को भड़काया और अगले 10 दिनों में ही हसीना का तख्ता उलट गया.
शेख हसीना को एक श्वेत व्यक्ति द्वारा बंगलादेश में अमेरिकी बेस बनाने देने की धमकी से ले कर देश में फैली हिंसा और उपद्रव की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि अमेरिका और उस के सहयोगी बंगलादेश में जो बदलाव चाहते थे, वो उन्होंने कर दिया. बंगलादेश से पहले इसी तरह की परिस्थितियों में श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, वेनेजुएला, निकारागुआ, ईस्ट तिमोर, सहित तमाम देशों में तख्तापलट हुआ है जिस के बाद वहां पश्चिमी देशों के इशारों पर चलने वाली कठपुतली सरकारें काम कर रही हैं.
बंगलादेश में तख्ता पलटने और शेख हसीना के भारत आ जाने से भारत की चिंताएं और चुनौतियां बढ़ गई हैं. शेख हसीना को शरण देने से अमेरिका, पाकिस्तान और चीन तीनों की ही भृकुटि तनी हुई हैं. वहीं नई सरकार का रुख भारत के प्रति क्या होगा, यह भी स्पष्ट नहीं है. इस्लामी कट्टरपंथियों के सत्ता में लौटने से भारत की चुनौतियां निश्चित रूप से बढ़ेंगी.
बंगलादेश की नाजुक स्थिति पर पाकिस्तान और चीन दोनों ही मौके का फायदा उठाने की फिराक में हैं. पाकिस्तान जहां 1975 के बंटवारे को ले कर आज तक भारत से खार खाए बैठा है वहीं चीन को उम्मीद थी कि तीस्ता डैवलपमैंट प्रोजैक्ट उसे मिल जाएगा. यदि चीन को यह प्रोजैक्ट मिलता तो चीन, भारत की चिकननेक के पास आ जाता. मगर शेख हसीना ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और ऐलान किया कि तीस्ता डैवलपमैंट प्रोजैक्ट भारत को दिया जाएगा, इस से चीन काफी नाराज है.
गौरतलब है कि बंगलादेश का संकट केवल उस का नहीं होता. जबजब वह मुसीबत में घिरा है, तो उस की आंच भारत तक भी आई है. बंगलादेश और भारत के बीच विश्व का 5वा सब से बड़ा बौर्डर है, जो हमारे 5 राज्यों बंगाल, असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा से जुड़ा है. ऐसे में बंगलादेश से अपनी जानमाल की सुरक्षा को ले कर भागे अल्पसंख्यक और हसीना समर्थक भारत में घुसने की कोशिश में हैं जिन्हें सीमा सुरक्षा बलों ने कई जगहों पर रोक रखा है. मगर कब तक?
भारत को अब बंगलादेश में फंसे हजारों भारतीयों की सुरक्षा के साथ इस बात को भी सुनिश्चित करना है कि कोई अनधिकृत रूप से सीमा पार कर भारत में प्रवेश न कर सके. इस पूरे घटनाक्रम से देश के लिए एक अभूतपूर्व असुरक्षित स्थिति पैदा हो गई है. भारत फिर एक बार 1971 वाली स्थिति से रूबरू है. बंगलादेश में रह रहे तमाम अल्पसंख्यक समूह, खासकर बड़ी संख्या में हिंदू, भारत में शरणार्थी के तौर पर आने की गुहार लगा सकते हैं.
इस से यहां चिंताजनक हालात पैदा हो सकते हैं. दूसरा इस घटना के बाद अब हमारी सीमा पर आतंकी गतिविधियां और अवैध तस्करी के खतरे बढ़ेंगे. अगर बंगलादेश की अंतरिम सरकार में कट्टरपंथियों का दबदबा बढ़ता है, जिस की पूरी आशंका है, तो भारत की चुनौतियां और अधिक बढ़ जाएंगी, क्योंकि इन में से कुछ गुटों को पाकिस्तान का समर्थन मिलता रहा है. इस के चलते ये लगातार भारतविरोधी गतिविधियां चलाते रहे हैं. पाकिस्तान आज तक भारत को अपने विभाजन यानी बंगलादेश के निर्माण का कारण मानता रहा है और वह कोशिश करेगा कि बंगलादेश के इसलामिक कट्टरपंथी गुटों के साथ मिल कर भारत के खिलाफ आतंकी और असामाजिक तत्त्वों को सक्रिय किया जाए.
उल्लेखनीय है कि खालिदा जिया की सत्ता के वक्त उग्रवादियों ने बंगलादेश को अपना गढ़ बनाया हुआ था. उल्फा उग्रवादी बंगलादेश में बड़ी संख्या में थे और कट्टरवाद बंगलादेश से पनप रहा था. साथ ही, चीन और अमेरिका जैसी बाहरी ताकतें वहां पर काफी मजबूत थीं. ऐसे में अगर जिया की सरकार दोबारा बनती है तो इसलामिक कट्टरवाद बढ़ने के साथ हिंदू आबादी पर हमले बढ़ेंगे, जिस को ले कर भारत धर्मसंकट में है. बंगलादेश के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा. बंगलादेश में भारत ने काफी धन निवेश किया है, इस का असर तमाम परियोजनाओं पर पड़ सकता है.
भारत की सब से बड़ी चिंता बंगलादेश की राजनीतिक स्थिरता है, अगर इस पड़ोसी देश में राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है तो वहां कट्टरवाद बढ़ेगा और अल्पसंख्यकों को हिंसा का सामना करना पड़ेगा. वे अपनी जान माल की रक्षा के लिए भारत की तरफ पलायन करेंगे. इस के अलावा अगर भारत के साथ बंगलादेश का व्यापार रुकता है तो वहां पर महंगाई 30 फीसदी तक बढ़ जाएगी. जिस से अराजकता और अपराध में बेतहाशा वृद्धि होगी जिस का असर भारत पर भी पड़ेगा. भारत को इन चुनौतियों से निबटने के लिए बहुआयामी और ठोस रणनीति बनानी होगी.
शेख हसीना फिलहाल भारत में हैं और माना जा रहा है कि वे किसी तीसरे देश में शरण मिलने तक यहीं रहेंगी. यह एक असाधारण स्थिति है, जहां भारत को कुछ कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे, जिस में पड़ोसी प्रथम नीति के तहत मदद भी करनी है. एक ओर भारत की सुरक्षा के लिए चौतरफा चुनौतियां बढ़ रही हैं. वहीं दूसरी ओर हमारी विदेश नीति बोगस हो चुकी है. नरेंद्र मोदी के 10 साल के शासनकाल में भारत अपने किसी भी पड़ोसी मुल्क से दोस्ताना संबंध नहीं बना पाया है.
बीते दिनों ही नेपाल में चीन समर्थक सरकार बनी है, जिस का नेतृत्व प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली कर रहे हैं. ओली को ‘इंडिया आउट’ अभियान का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है और हाल के वर्षों में उन्होंने अपनी राजनीतिक साख मजबूत करने के लिए भारत के साथ सीमा विवाद का मुद्दा शांत नहीं होने दिया है. चूंकि ओली की ‘राष्ट्रवादी छवि’ भारतविरोध से बनी है, लिहाजा भारत के लिए जरूरी है कि वह स्थिति पर नजर रखे.
मोदी सरकार के मुताबिक भारत दुनिया की सब से तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. लेकिन, बंगलादेश के घटनाक्रम से हमें सबक लेने की जरूरत है. बीते कुछ सालों में भारत में बेरोजगारी अपनी चरम पर पहुंच गई है. बेरोजगार युवाओं को मोदी सरकार ने धर्म के झांसे में फंसा रखा है. वे अभी धर्म का डंका पीट रहे हैं, पुष्पवर्षा के बीच कांवड़ ढो रहे हैं, धार्मिक प्रवचन देने वाले बाबाओं की सेवा में जुटे हैं, डेढ़ जीबी का फ्री डाटा पा कर सोशल मीडिया पर व्यस्त हैं इसलिए उन्हें अभी अपनी बेरोजगारी का एहसास नहीं हो रहा है. परिवार की जिम्मेदारी कंधे पर आते ही उन की आंखें खुलेंगी और सरकार के प्रति उन का गुस्सा फूटेगा, जैसा बंगलादेश में हसीना की सरकार के प्रति लोगों का आक्रोश पैदा हुआ. बंगलादेश में असंतोष के कारणों में ऊंची बेरोजगारी दर का बड़ा हाथ है. धर्म का ढिंढोरा पीट कर युवाओं को भ्रमित करने और समाज में धार्मिक कट्टरता बढ़ाने से बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याएं नहीं निबटेंगी. इस के लिए ठोस रणनीति बनाने और उस पर काम करने की जरूरत है.
गौरतलब है कि भारत की औसत विकास दर भले 7 फीसदी के आसपास है लेकिन 136 की ग्लोबल रैंकिंग के साथ प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम अभी भी गरीब देश हैं. जी20 ही नहीं, ब्रिक्स देशों में भी हम सब से गरीब हैं. यह स्थिति अगर नहीं बदली तो अंजाम अच्छा नहीं होगा. जब भूख काबू से बाहर हो जाए तो इंसान इंसान को मारने लगता है. बंगलादेश से पहले श्रीलंका का भी यही हश्र देखने को मिल चुका है.
जिस असंतोष की कीमत बंगलादेश चुका रहा है वैसा ही असंतोष भारत में भी पैर पसार रहा है. मोदी सरकार को समझना होगा कि लोगों के खिलाफ नियम और कानून बना कर उन पर जबरन थोपने से लोगों का धैर्य टूट जाता है. काले कृषि कानून हो, सीएए या एनआरसी हो, धारा 370 हटाना हो, बुलडोजर चला कर लोगों के घरदुकानें ढहा देना हो, राजनीतिक विरोधियों को जेल में ठूंस देना हो, लोगों की पैंशन बंद कर देना हो, सेना में जवानों को पूरा कार्यकाल न दे कर चारचार साल की संविदा पर रखना हो, धर्म के नाम पर नफरत की खाइयां खोद कर लोगों में भय पैदा करना हो, ऐसे तमाम मुद्दे देश में सुलग रहे हैं जो कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकते हैं. मौजूदा सरकार को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में तानाशाही नहीं चलती. लोकतांत्रिक देशों ने तानाशाह बनने वालों को हमेशा सबक सिखाया है.
लोकतांत्रिक देशों में आजकल चुनाव जीतने के लिए धांधली और साजिशों का सहारा लिया जाने लगा है, लेकिन एक न एक दिन ये तमाम चीजें धरी रह जाती हैं और जनता ताज उछाल कर दम लेती है. पिछले 3 बार से शेख हसीना चुनाव जीतती आ रही थीं, लेकिन इस बार उन्होंने चुनाव के पहले केयरटेकर सरकार की व्यवस्था को धता बता दिया, जो इस से पहले हमेशा चुनाव कराती रही है.
इस बार हसीना की अपनी मरजी से चुनाव हुए. उन्होंने उसे भारी मतों से जीता और सरकार बनाई. इस से वहां की विपक्षी पार्टियों में आक्रोश बढ़ा. जनता भी पसोपेश में रही कि अवामी पार्टी जीत कैसे गई? भारत में भी चुनाव के समय इसी तरह के संकेत मिलते हैं. जब वोटों का भारीभरकम घपला दिखने के बाद भी येनकेनप्रकारेण सरकार बन जाती है तो जनता में रोष पैदा होता है. वह भले उसे प्रकट न करे लेकिन दिल में रखे रहती है. और अगले चुनाव में उस का जवाब देती है.
शेख हसीना के प्रशासन में विपक्षी आवाजों और असहमति को दबाने का आरोप लगता रहा. सत्ता में उन के लंबे शासनकाल में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला और असहमत लोगों के दमन की घटनाएं बड़े पैमाने पर सामने आईं. उन्होंने विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के साथसाथ विरोध प्रदर्शनों को भी क्रूरतापूर्वक दबाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी. हाल के विरोध प्रदर्शनों में भी उन की सरकार की प्रतिक्रिया विशेष रूप से हिंसक रही, जिस में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग की खबरें आईं, बड़े पैमाने पर लोग हताहत भी हुए.
उन की सरकारी एजेंसियां उन के इशारों पर साजिश रच कर विपक्षी नेताओं को जेल में डालती रहीं या उन पर मुक़दमे चलाती रहीं, जैसा भारत में भी हो रहा है. पुलिस से ले कर सरकारी एजेंसियों ने विपक्षी नेताओं को फंसाने और जेल में ठूंसने का काम ज्यादा किया है. इन तमाम बातों का गुस्सा अंदर ही अंदर पलता है और एक दिन अचानक फूटता है. यदि बंगलादेश की राजनीतिक घटना के उपयुक्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर अपने देश के बारे में सोचा जाए तो कमोबेश वैसी ही स्थितियां हूबहू यहां मौजूद हैं.
विकास का डंका पीटने, अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के विज्ञापनों से अखबारों और टीवी चैनलों को भर देने से जनता संतुष्ट नहीं होती. उस का संतोष और खुशहाली उस के जीवन की 3 मूलभूत आवश्यकताएं- रोटी, कपड़ा और मकान -हैं जिन की आपूर्ति वादों से नहीं, रोजगार दे कर होती है. बंगलादेश और श्रीलंका में अपने नागरिकों की पीड़ाओं को दूर न कर सत्ता सुरक्षित रखने का अंजाम ऐसा ही होता है. यह भारत सरकार के लिए बड़ा सबक है.
बंगलादेश में नई सरकार का गठन
बंगलादेश में हिंसा और उथलपुथल के बीच अंतरिम सरकार का गठन नोबेल पुरस्कार विजेता और प्रख्यात अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में हुआ. इस अंतरिम सरकार को सेना का समर्थन हासिल है. मोहम्मद यूनुस अपनी बीमारी के कारण पेरिस में थे, मगर वे अब ढाका लौट आए हैं. हसीना के कटु आलोचक 84 वर्षीय यूनुस के नाम की सिफारिश हसीना के खिलाफ अभियान चलाने वाले प्रदर्शनकारी छात्रों ने की थी.
यूनुस को ‘गरीबों के बैंकर’ के रूप में जाना जाता है और उन्हें जरूरतमंद कर्जदारों को छोटेछोटे ऋण दे कर गरीबी से लड़ने में अग्रणी बैंक की स्थापना के लिए 2006 का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था. यूनुस ने अपने एक बयान में छात्रों से शांति बनाए रखने की अपील की है. उन्होंने देश को चेतावनी देते हुए यह भी कहा कि हिंसा का रास्ता विनाश की ओर ले जाएगा.
इस बीच बंगलादेश के सेना प्रमुख वकर-उज-जमां ने कहा है कि स्थिति में तेजी से सुधार हो रहा है और जल्दी ही स्थिति सामान्य हो जाएगी. सेना प्रमुख ने यह भी कहा कि पिछले कुछ दिनों से हो रही हिंसा में शामिल लोगों को बख्शा नहीं जाएगा और उन के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी. दो दिनों की ताजा हिंसा में ढाका में 300 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और हजारों घायल हैं.
वहीं, यूनुस और हसीना के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भी हिंसा समाप्त कर शांति का आह्वान किया है. बीएनपी नेता 78 वर्षीया खालिदा जिया ने ढाका में एक रैली में अपने सैकड़ों समर्थकों को अस्पताल के बिस्तर से वीडियो संबोधन में कहा, “कोई विनाश, बदला या प्रतिशोध नहीं.” नजरबंदी से रिहा हुईं जिया और उन के निर्वासित बेटे तारिक रहमान ने रैली को संबोधित किया और 3 महीने के भीतर राष्ट्रीय चुनाव कराने का आह्वान किया ताकि देश में एक स्थिर सरकार बन सके.