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बच्चों के मुख से

बात पुरानी है मगर आज भी जब शनिवार के दिन बाजार से गुजरती हूं तो किस्सा ताजा हो जाता है. गरमी की छुट्टियों में हम सपरिवार मनाली घूमने गए हुए थे कि कारगिल युद्ध शुरू हो गया. वापसी में सैनिकों से भरी गाडि़यों को जाते देख मेरा 6 वर्षीय बेटा उन के बारे में पूछने लगा तो मैं ने उसे पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के बारे में बताया. इस के बाद वह अकसर पाकिस्तान के बारे में मुझ से सवाल करता.

एक दिन वह मेरे पास आया और पूछने लगा, ‘‘मम्मी, लोग अपनी गाडि़यों और दुकानों में नीबूमिर्ची क्यों बांधते हैं?’’ इस पर मैं ने जवाब दिया, ‘‘बेटा, इस से नजर नहीं लगती और दुश्मन भी परास्त होते हैं.’’

यह सुन कर वह सोच में पड़ गया. मुझे लगा, मेरी बात उसे समझ नहीं आई. मगर वह अचानक चहक उठा और बोला, ‘‘तो मम्मी, जब पाकिस्तान हमारे साथ लड़ाई करेगा तो हम अपने सैनिकों को हथियार के बदले नीबूमिर्ची दे देंगे और हमारे सैनिक पाकिस्तानी सैनिकों को मारेंगे नीबूमिर्ची, ठांयठांय. इस से सारे दुश्मन चित हो जाएंगे. क्यों, ठीक है न मेरा आइडिया.’’

यह सुन कर मेरा हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया. वर्षों बाद भी शनिवार के दिन दुकानों में नीबूमिर्ची देख कर बेटे की ठांयठांय की आवाज कानों में गूंजने लगती है और मैं मुसकरा कर आगे निकल जाती हूं.

विमला ठाकुर

*

हमारे सासससुर और ननद हमारे साथ रहने के लिए आए हुए थे. मेरा 4 साल का बेटा है जो अपने दादादादी का काफी लाड़ला है.

रात में सब लोगों के खाना खा लेने के बाद मैं किचन में साफसफाई कर रही थी, तभी ससुरजी मेरे बेटे से बोले, ‘‘चलो बिट्टू, आज तुम हमारे साथ सोने चलो, रोज तो मम्मीपापा के साथ ही सोते हो.’’

तभी मेरा शरारती बेटा झट से बोला, ‘‘नहीं, मैं तो रोज रात को मम्मीपापा के बीच में सोता हूं लेकिन सुबह पता नहीं कैसे मैं दोनों के बीच में से किनारे पहुंच जाता हूं.’’ मेरे बेटे की बात सुन कर कमरे में बैठे सभी लोग हंसने लगे और मेरा शर्म से बुरा हाल हो गया.

निधि अग्रवाल

काश तुम पर फिदा न होते

हमें फूलकांटों की पहचान होती

कभी दिल न तुम से लगाते

तुम्हारे ही कारण हमें रंग भाए

बहुत बोझ थे, हम ने उठाए

जो मालूम होता, तुम बेवफा हो

जख्मों को अपने यों न दिखाते

न खबर थी न खत ही मिला था

नहीं जान पाए तुम्हें क्या गिला था

पत्थर के तुम हो, अगर जान जाते

तुम्हारी हंसी पर फिदा हम न होते

बहुत दूर तुम थे बहुत दूर हम थे

नदारद थीं खुशियां बहुत पास गम थे

तुम्हें भूल जाने की हिम्मत जो होती

यों छिपछिप के आंसू बहाए न होते

हमें फूलकांटों की पहचान होती

कभी तुम से दिल यों न लगाते.

– राकेश नाजुक

धर्म के दुकानदार किस तरह हो रहे हैं उत्सवों पर भारी, आप भी जानिए

बीती 7 अगस्त को रक्षाबंधन का त्योहार देशभर में काफी असहज तरीके से मना था. भाईबहन के स्नेह, प्यार और विश्वास के प्रतीक इस पर्व पर इस साल ग्रहण का खौफ था, और इस तरह था कि कई घरों में तो बहनें अपने भाई को राखी ही नहीं बांध पाईं. रक्षाबंधन ऐसा त्योहार है जिस में धर्म और उस के दुकानदारों का कोई खास दखल नहीं रहता, न ही उन्हें किसी तरह की दानदक्षिणा मिलती है. लोग घरों में हंसीखुशी राखी का त्योहार मना लेते हैं.

अगस्त के पहले हफ्ते से ही पंडेपुजारियों ने ग्रहण का डर दिखाना शुरू कर दिया था. बड़े पैमाने पर प्रचार यह किया गया था कि भद्रा नक्षत्र में राखी बांधना अशुभ होता है. क्योंकि इसी समय में शूर्पणखा ने अपने भाई रावण को राखी बांधी थी जिस से वह राम के हाथों मारा गया था और शूर्पणखा की नाक कट गई थी.

धर्म के दुकानदार षड्यंत्रपूर्वक अच्छेखासे उत्सवों में अपनी टांग अड़ा कर घर, समाज और देश का माहौल अपनी खुदगर्जी की खातिर कसैला कर देते हैं. यह इस दिन साबित हुआ था जब भयभीत बहनों ने भाइयों को राखी नहीं बांधी थी. ऐसा भी नहीं था कि राखी बांधने पर कोई रोक लगाई गई थी बल्कि पंडितों ने एक छूट यानी मुहूर्त दे दिया था कि ग्रहणदोष से बचने के लिए इतने बजे से इतने बजे तक ही राखी बांधो, अन्यथा अशुभ होगा.

कोई भाईबहन एकदूसरे का अनिष्ट नहीं चाहते, इसलिए पंडों द्वारा जारी मुहूर्त में जो भाई किसी कारणवश राखी नहीं बंधवा पाए उन की कलाइयां सूनी रहीं और बहनें ग्रहण को कोसती नजर आईं कि इस बार यह नया शिगूफा कहां से और क्यों आ गया जो हम अपने भाई को पहले की तरह सुविधानुसार राखी नहीं बांध सकते.

उत्सवों का सामाजिक और पारिवारिक महत्त्व खत्म करते धर्म के ये दुकानदार जाने कौनकौन से लिखितअलिखित पोथे खोल कर ढिंढोरा, जिसे फतवा कहना बेहतर होगा, पीट देते हैं कि उत्सवों में खुशी ढूंढ़ रहे लोग फ्रीज हो कर रह जाते हैं. जिन पर्वों व उत्सवों पर पंडों को दानदक्षिणा नहीं मिलती, रक्षाबंधन उन में से एक है. अब आइंदा सालों में मुमकिन है कि ये दुकानदार यह कहने लगें कि पहले राखी मंदिर में कुछ नकदी के साथ चढ़ा कर बांधी जाए तो कोई दोष नहीं लगेगा. यानी उत्सव मनाने का धार्मिक शुल्क देना एक अनिवार्यता हो जाएगी.

उत्सवों पर पैसा कैसेकैसे कमाया जा सकता है, यह इन दुकानदारों से बेहतर कोई नहीं जानता और न ही समझ सकता. कहने को ही दीवाली रोशनियों और खुशियों का त्योहार है, इस की जड़ों में भी इन दुकानदारों ने धर्म की अमरबेल रोप रखी है.

दीवाली जैसे सब से बड़े त्योहार के पखवाड़ेभर पहले से तरहतरह की भविष्यवाणियां शुरू हो जाती हैं. सब से पहले मुहूर्त जारी किया जाता है कि किस चौघडि़ये में लक्ष्मीपूजन करने से लोग ज्यादा से ज्यादा पैसा सालभर कमा सकते हैं. लोग एकदम निराश और हताश हो कर पूजा मुहूर्त से भागने न लगें, इस के लिए शुभ मुहूर्त किस्तों में दिए जाने लगे हैं. मसलन, लक्ष्मीजा का वक्त शाम 5 बजे से साढ़े 6 बजे तक और फिर 8 से साढ़े 9 बजे तक का उपयुक्त है. इस के बाद फिर डेढ़ घंटा अशुभ है लेकिन साढ़े 10 से 12 बजे के बीच फिर पूजा की जा सकती है.

दीवाली के दिन दुकानदार, व्यापारी और उद्योगपति अपनी दुकानों और संस्थानों में समारोहपूर्वक बहीखातों की भी पूजा करवाते हैं. इसलिए उन का मुहूर्त अकसर दिन में ही रखा जाता है. ऐसा इसलिए कि दुकानों और संस्थानों में पूजा पंडित से कराई जाती है. इस के एवज में उसे 501 रुपए से ले कर 21 हजार रुपए तक की दक्षिणा दी जाती है.

कुछ लोग अच्छी और विधिविधान वाली पूजन के लिए घरों में भी पंडित को बुलाते हैं. धंधा मारा न जाए, इसलिए  दुकानों और संस्थानों के मुहूर्त में 4-6 घंटों का अंतर रखा जाता है. कोई तर्कशील आदमी तब यह नहीं पूछता कि जब दिन का भी मुहूर्त शुभ है तो घर की पूजा का मुहूर्त अलग क्यों, और लक्ष्मी भी यह भेदभाव क्यों करती है.

नएनए विधान

धर्म शाश्वत है, यह कहनेभर की बात है. वास्तविकता यह है कि धर्म जैसा चलायमान कुछ नहीं जो मुट्ठीभर पंडों की मुट्ठी में कैद है. लोगों से ज्यादा से ज्यादा पैसा झटकने के लिए पिछले 8-10 सालों से धर्म के धंधेबाजों ने नए तरीके आजमाने शुरू कर दिए हैं और हमेशा की तरह उन में कामयाब भी हो रहे हैं. उन में से एक है अपनी राशि के मुताबिक पूजा करना. मेष से ले कर मीन राशि वालों तक के लिए नईनई पूजा विधियां, सामग्री और मंत्र बताए जाने

लगे हैं. इस से होता यह है कि लोग आतिशबाजी, मिठाई और खानापीना भूल कर अपनी राशि के अनुसार सामग्री इकट्ठा करने की पूजनविधि के अभ्यास में लग जाते हैं.

उत्सवों में लोगों को बरगलाए रखने का काम पंडित बेफिक्री से करते हैं कि कन्या राशि वालों को पूजन में दूब भी रखना चाहिए तो 9वीं मंजिल पर रहने वाले सुमितजी घास की तलाश में मीलों दूर निकल पड़ते हैं. इसी तरह अलगअलग राशि वालों को कोई नया टोटका या शिगूफा थमा दिया जाता है जिस से लोग उत्सव उल्लासपूर्वक नहीं मना पाते. नवरात्र के दिनों में खूब तांत्रिक पूजा और शर्तेंटोटके बताए जाते हैं. दीवाली की रात को तो इन बेहूदे कामों के लिए बेहद शुभ बताया जाता है.

हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी लक्ष्मी नहीं आती, यह शिकायत हर किसी को है. इस सवाल का जवाब धर्म के दुकानदारों के पास है कि चूंकि लोग शास्त्रोक्त विधिविधान से पूजापाठ नहीं करते, इसलिए मेहनत के बाद भी पैसा कम आता है.

अब शास्त्रोक्त तरीके से पूजन करने के कौपीराइट तो पंडे के ही होते हैं, इसलिए लालच के मारे लोग उस की फीस ले कर एडवांस बुकिंग के लिए निकल पड़ते हैं. पंडे के निर्देशानुसार दिनचर्या तय होती है जो आजकल के जमाने और माहौल के लिहाज से पिछड़ेपन को ही दर्शाती है. मसलन, जातक या यजमान को इतने बजे उठना चाहिए, इतने बजे स्नानध्यान करना चाहिए, दिनभर यानी पूजा तक उपवास रखना चाहिए और पूजा के बाद इतने घंटों बाद पूजनसामग्री का विसर्जन ऐसे और वैसे करना चाहिए.

अब ऐसे में भला कौन उत्सव का आनंद ले पाएगा. यह सोचने का ठेका दुकानदारों का नहीं, उन का इकलौता मकसद लोगों को धार्मिक कृत्य में लगाए रख कर पैसे ऐंठना होता है. इस के लिए वे ग्रहण, सूतक, चौघडि़या और मुहूर्त जैसे दर्जनभर हथियार रखे बैठे होते हैं.

खुशियों पर ग्रहण

बात अकेले रक्षाबंधन या दीवाली की नहीं है. बात तमाम उत्सवों की है जहां इन दुकानदारों को लगता है कि लोग अपनी मरजी से हंसीखुशी और बिना किसी तनाव या धार्मिक वर्जनाओं के उत्सव मनाने लगे हैं तो ये नएनए तरीके से अपनी टांग फंसाने लगते हैं.

नवरात्र में गरबा अब हर कहीं आम हो चला है. गरबा में सभी वर्गों के लोग हिस्सा लेते हैं और खूब फिल्मी गानों की धुनों पर नाचतेगाते हैं. कोई मनोविज्ञानी एक दफा समझने में चूक कर जाए पर धर्म के दुकानदारों की छठी इंद्रिय उन्हें यह एहसास कराने से नहीं चूकती कि लोग अगर तुम्हारे बिना खुश रहना सीख जाएंगे तो तुम्हें कुछ नहीं देंगे. वे फिर क्यों पूजापाठ और मुहूर्त के नाम पर अपनी जेब ढीली करेंगे. इसलिए जैसे भी हो सके, इन्हें रोको.

गरबा या डांडिया से चूंकि दानदक्षिणा नहीं मिल, इसलिए गुजरात का उदाहरण देते इन पंडों ने गरबा को बदनाम किया कि लो, क्या कलियुग आ गया है. नौजवान लड़केलड़कियां पहले तो रास रचाते हैं, फिर एकांत में कहीं जा कर सहवास कर आते हैं जो व्यभिचार और धार्मिकरूप से पाप है. इन 9 दिनों में उपवास करना चाहिए, इस दौरान सहवास तो कतई वर्जित है.

बात में दम लाने के लिए मीडिया के जरिए आंकड़े पेश किए जाने लगे कि नवरात्र के गरबा के दिनों में कंडोम और गर्भनिरोधक गोलियों की बिक्री इतनी बढ़ जाती है और 2-3 महीने बाद इतनी युवतियां गर्भपात कराती हैं.

जो नया साल कल तक फिरंगियों और ईसाइयों का करार दिया जाता था अब उस में भी मंदिरों में पूजापाठ होने लगा है. साल के पहले दिन एक जनवरी को होटलों और रैस्तरांओं से ज्यादा भीड़ मंदिरों में उमड़ने लगी है. नया साल ठीकठाक गुजरे, इस बाबत लोगों की चढ़ाई दक्षिणा से धर्म के दुकानदारों में कोई परहेज या एतराज नहीं. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर वाजिब दाम मिलें तो यही दुकानदार हर साल 14 फरवरी को मनाए जाने वाले वैलेंटाइन डे को भी वसंतोत्सव जैसा पर्व या उत्सव घोषित कर दें. शर्त इतनी होगी कि प्रेमीप्रेमिका पार्क जाने से पहले मंदिर आएं, हाथ में कलावा बंधवाएं, फीस दें और इस के बाद जो मरजी हो, सो करें. फिर इन्हें कोई एतराज नहीं होगा.

यह है समाधान

धर्म एक ऐसी जकड़न है जिस से आजादी चाहने के लिए लोग अब कीमत अदा करने तैयार हैं. पर यह हल नहीं है, न ही हल का विकल्प है. लोगों को चाहिए कि उत्सवों पर अपनी खुशियां और सुविधाएं वे खुद तय करें. वे पंडे, पुजारियों और धर्म के दुकानदारों के मुहताज न रहें जो दक्षिणा ले कर किसी भी गलत को सही और सही को गलत साबित कर देते हैं.

उत्सव मन का विषय होना चाहिए, आनंद का और मौजमस्ती का पर्याय होना चाहिए, न कि धार्मिकतौर पर गुलामी करने का. लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं तो उन्हें अपनेआप को शिक्षित, समझदार और आधुनिक कहने का कोई हक नहीं रह जाता. जब तक धर्म के दुकानदार उत्सवों पर हावी हैं तब तक लोग हैरानपरेशान रहेंगे क्योंकि वे इन्हीं दुकानदारों के बजाए डमरू पर नाच रहे होते हैं.

नाम किसानों का, मालामाल हो रहीं बीमा कंपनियां

किसानी ऐसा व्यवसाय है जिस में मुश्किलें तो बिन बुलाए मेहमान की तरह आती ही रहती हैं. कभी बारिश ज्यादा होती है तो बाढ़ आ जाती है, नहीं तो कभी सूखा पड़ता है, कभी और कोई प्राकृतिक आपदा. सरकार के लिए इतने बड़े पैमाने पर किसानों के नुकसान की भरपाई कर पाना मुश्किल होता है. इस का एक उपाय है कि कृषि बीमा की व्यापक व्यवस्था हो ताकि किसान के नुकसान की भरपाई की जा सके.

सरकारें इस दिशा में काम कर भी रही हैं. मगर ज्यादातर किसानों को तो बीमा का नाम तक पता नहीं है. इसलिए सरकारी सब्सिडी से बीमा योजना चल रही है. इस से किसानों को लाभ हुआ भी है मगर रोना यह है कि इस बीमा योजना से जितना लाभ किसानों को मिल रहा है उस से ज्यादा लाभ बीमा कंपनियों को हो रहा है. असल में, वे मालामाल हो रही हैं. हाल ही में एक के बाद एक आए सर्वेक्षणों और रपटों से यही नतीजा निकलता है. क्या किसानों के नाम पर सरकार, बीमा कंपनियों पर मेहरबान है?

मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना के 1 साल पूरा होने पर एक बात उभर कर आती है कि सूखे और बाढ़ के इस दौर में किसान को लाभ मिलने से ज्यादा बीमा उद्योग मालामाल हो रहा है.

एक अखबार द्वारा सूचना अधिकार के तहत एग्रीकल्चरल इंश्योरैंस कंपनी औफ इंडिया से प्राप्त जानकारी के मुताबिक, इस योजना के तहत 2017 में 22,437 करोड़ रुपए कुल बीमा प्रीमियम जमा हुआ जबकि किसानों ने 8,087 करोड़ रुपए के दावे किए. नवीनतम जानकारी के अनुसार, किसानों ने 15,000 करोड़ रुपए के दावे किए जिन में से बीमा कंपनियों ने 9,466 करोड़ रुपए के ही दावे मंजूर किए हैं. सरकार इस बीमा को 98 प्रतिशत सब्सिडाइज्ड करती है. यह प्रीमियम बीमा कंपनियों के पास ही रहता है.

इन आंकड़ों से पता चलता है, सरकार फसल बीमा से किसानों का फायदा बताती रही, लेकिन लाभ कमाया बीमा कंपनियों ने. अकेले खरीफ मौसम यानी जून से नवंबर 2016 के बीच इन कंपनियों ने 10 हजार करोड़ रुपए कमाए हैं. ये जानकारी किसी और ने नहीं, बल्कि सरकारी संस्थाओं का लेखाजोखा रखने वाले सीएजी यानी कैग ने दी है. इस में बताया गया है कि इन बीमा कंपनियों ने किसानों के नुकसान के दावों में केवल उस के एकतिहाई हिस्से का ही निबटारा किया है.

क्या कहती है रिपोर्ट

कैग की रिपोर्ट में कहा गया है, 2011 से ले कर 2016 के बीच बीमा कंपनियों को प्रीमियम राशि बिना किसी गाइडलाइन को पूरा किए ही दे दी गई. इन कंपनियों में ऐसी क्या खास बात है कि नियमों को पूरा किए बगैर ही राशि दे दी गई.

कैग ने कहा है कि प्राइवेट बीमा कंपनियों को भारीभरकम फंड देने के बाद भी, उन के खातों की औडिट जांच के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया है. क्यों नहीं औडिट का प्रावधान है? जब कंपनियां सरकार के खजाने से पैसा ले रही हैं तो क्या जनता को जानने का अधिकार नहीं कि वे किसानों को भुगतान कर रही हैं या नहीं? क्या बीमा कंपनियों के डिटेल की सरकारी और पब्लिक औडिट नहीं होनी चाहिए?

पिछले दिनों जारी इस रिपोर्ट में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के राज्य स्तर पर लागू करने में कई खामियां देखी गई हैं.

सीएसई यानी सैंटर फौर साइंस ऐंड एन्वायरमैंट के मुताबिक, ये खामियां किसानों को मिलने वाले लाभ से उन्हें वंचित कर सकती हैं. कैग ने 2011-16 के दौरान राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआईएस), संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एमएनएआईएस) और मौसम आधारित फसल बीमा योजना (डब्लूबीसीआईएस) के क्रियान्वयन का औडिट किया था. 2016 से इन योजनाओं की जगह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना ने ले ली है.

कैग की रिपोर्ट के अनुसार, उक्त फसल बीमा योजनाओं के लिए केंद्र सरकार ने अपने हिस्से की धनराशि तो जारी कर दी लेकिन कई राज्य सरकारें समय पर अपना योगदान करने में नाकाम रही हैं. जिस के चलते पिछले साल 10 अगस्त तक एनएआईएस के तहत 7,010 करोड़ रुपए एमएनएआईएस के तहत 332 करोड़ रुपए और डब्लूबीसीआईएस के तहत 999.28 करोड़ रुपए के क्लेम अटके हुए थे.

भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण के हवाले से मिले डाटा को दिखाते हुए सीएसई ने इस बात को चिह्नित किया कि बीमा कंपनियों को प्रीमियम के तौर पर 15,891 करोड़ रुपए मिले. जबकि दावों की रकम 5,962 करोड़ रुपए थी. एक बीमा कंपनी के अधिकारी ने बताया कि 2016 में खरीफ का सीजन बेहतर था जिस से फसलों का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ. लिहाजा, कंपनियों को उस का लाभ हुआ.

हालांकि, सरकार ने प्रीमियम के क्षेत्र में किसानों को सब्सिडी दी है. इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारें 50-50 फीसदी की जिम्मेदारी उठाती हैं. लेकिन इस में राज्य कृषि बजट का तकरीबन

50 से 60 फीसदी हिस्सा प्रीमियम में डाल दे रहे हैं. ऐसे में किसानों के मद में खर्च होने वाली दूसरी रकम में कटौती की जा रही है. ऊपर से यह पैसा किसानों को मिलने की जगह सीधे बीमा कंपनियों के पास चला जा रहा है.

सीजीए ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हालांकि केंद्र अपने हिस्से की रकम को समय पर भेज देता है लेकिन राज्य ऐसा नहीं कर पाते हैं. जिस के चलते किसानों को उस का फायदा दिलाने का पूरा उद्देश्य ही नाकाम हो जा रहा है.

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि 2011-16 के दौरान जिन 9 राज्यों में योजनाओं का औडिट किया गया वहां दावों के निबटारे में 45 दिनों की तय समयसीमा के बजाय 1,060 दिन यानी करीब 3 साल का समय लगा. योजनाओं की मौनिटरिंग में भी कई खामियां सामने आई हैं. उल्लेखनीय हैकि पुरानी फसल बीमा योजनाओं की इन खामियों के चलते ही केंद्र सरकार ने 2016 के खरीफ सीजन से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना शुरू की है जिस में पुरानी कमियों को दूर करने का दावा किया गया है.

जागरूक नहीं किसान

फसल बीमा के बारे में किसानों के बीच जागरूकता की कमी की बात भी कैग के सर्वे में उजागर हुई है. रिपोर्ट के अनुसार, सर्वे के दौरान 67 फीसदी किसानों को फसल बीमा योजनाओं की जानकारी नहीं थी.

राजनेता योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘‘पिछले 2 वर्षों में मैं ने सरकार की फसल बीमा योजना के बारे में यह बात कई बार सुनी है कि-‘भाई साहब, यह किसान की फसल का बीमा नहीं है. यह तो बैंकों ने अपने लोन का बीमा करवाया है.’ हर सभा में मैं पूछता था, ‘क्या किसी किसान को बीमे का भुगतान हुआ?’ अधिकांश किसानों ने तो बीमे का नाम ही नहीं सुना. जो किसान क्रैडिट कार्ड वाले थे, उन में से कुछ पढ़ेलिखे किसानों को पता था कि उन के खाते से बीमे का प्रीमियम कटा है. सैकड़ों सभाओं में मुझे 1-2 से ज्यादा किसान नहीं मिले जिन्हें कभी बीमे का मुआवजा मिला. धीरेधीरे मुझे फसल बीमा का गोरखधंधा समझ आने लगा. जिस किसान ने बैंक से लोन लिया है, उस के बैंक खाते से जबरदस्ती बीमा का प्रीमियम काट लिया जाता है.’’

नियमों का उल्लंघन

सीएजी की रिपोर्ट इस आरोप को भी पुख्ता करती है कि बीमे का मुआवजा बहुत कम किसानों तक पहुंचा है. कभी सरकार ने अपने हिस्से का प्रीमियम नहीं दिया, तो कभी बैंक ने देरी की. सरकारी और प्राइवेट बीमा कंपनियों ने खूब पैसा बनाया. रिपोर्ट प्राइवेट बीमा कंपनियों के घोटाले की ओर भी इशारा करती है. सरकार ने कंपनियों को पेमैंट कर दिया, लेकिन कंपनियां ने किसान को पेमैंट नहीं किया. कंपनियों से यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट तक नहीं मांगा गया. नियमों का उल्लंघन करते पकड़ी गई कंपनियों को ब्लैकलिस्ट नहीं किया गया. किन किसानों को पेमैंट हुआ, उस का रिकौर्ड तक नहीं रखा गया.

कृषि मंत्री के दावे पर सवाल

इसी 20 जुलाई के हिंदू बिजनैस लाइन अखबार में फसल बीमा से जुड़ी बीमा कंपनियों पर एक विस्तृत रिपोर्ट छपी है. इस रिपोर्ट में कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के दावे पर प्रश्न खड़ा किया गया है कि बीमा कंपनियों को अनुचित मुनाफा नहीं हो रहा है. हिंदू बिजनैस लाइन के अनुसार, 2016-17 में बीमा कंपनियों ने फसल बीमा के प्रीमियम से 16,700 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया है. इसे छप्परफाड़ मुनाफा कहते हैं. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत 11 बीमा कंपनियों को 20,374 करोड़ रुपए की प्रीमियम राशि दे दी गई. इन कंपनियों ने दावों का भुगतान किया है मात्र 3,655 करोड़ रुपए. यह बात सदन के पटल पर रखी रिपोर्ट में कही भी गई है.

रबी सीजन के लिए 4,668 करोड़ रुपए की प्रीमियम राशि कंपनियों को दी गई और उन्होंने दावों पर खर्च किया मात्र 22 करोड़ रुपए. दावे

29 करोड़ के ही आए थे. खरीफ सीजन के लिए 5,621 करोड़ रुपए का दावा आया मगर दिया गया मात्र 3,634 करोड़ रुपए. हर जगह अंतर है. साफ है कि कृषि बीमा से किसानों के बजाय कृषि बीमा कंपनियां ज्यादा फायदा कमा रही हैं.

कट्टरता के मारे रोहिंग्या बर्मी क्या अब कुछ सबक लेंगे

एक कहावत है – ‘मनुष्य इतिहास से यह सीखता है कि मनुष्य इतिहास से कुछ नहीं सीखता.’ यह कहावत भारत पर पूरी तरह लागू होती है. इतने साल गुजर जाने के बावजूद हम बंगलादेशी घुपैठियों की समस्या को हल नहीं कर पाए हैं और अब म्यांमार से आई रोहिंग्या मुसलिम शरणार्थी समस्या से जूझ रहे हैं. इस पर देश में एकराय नहीं बन पा रही है. देश के सामने एक ज्वलंत सवाल यह है कि रोहिंग्याओं का क्या करें?

अमेरिकी लेखक सेमुअल हटींगटन ने कहा था, ‘भविष्य में संघर्ष राजनीतिक विचारधाराओं के बीच नहीं, सभ्यताओं या धर्मों के बीच होगा.’ म्यांमार में यही हो रहा है. रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या म्यांमार में बौद्ध और मुसलिमों के बीच चल रहे हिंसात्मक संघर्ष का नतीजा है. मुसलिम म्यांमार में अलपसंख्यक हैं, बौद्ध बहुसंख्यकों के साथ उन की पटरी नहीं बैठती. नतीजतन, रोहिंग्या कट्टरवाद और अलगाववाद के रास्ते पर चल पड़े. रोहिंग्याओं की कहानी विद्वेष और अलगाववाद के खुद ही शिकार होने की कहानी है. इस आतंकवाद और अलगावाद ने रोहिंग्याओं को बहुसंख्यक बौद्धों, म्यांमार सरकार और वहां की सेना के मिलजुले कोप का निशाना बनाया. उन्हें म्यांमार छोड़ कर भागने के लिए मजबूर कर दिया. कोई भी पड़ोसी देश उन्हें शरण देना नहीं चाहता.

म्यांमार की यह कहानी भारत में भी इसलिए गूंज रही है क्योंकि हजारों की संख्या में रोहिंग्याओं के शरणार्थी के रूप में भारत में आने से भारतीय राजनीति में भी यह अहम मुद्दा बन गया है. इस के इर्दगिर्द राजनीति हो रही है.

जनमत 2 हिस्सों में बंटता जा रहा है. एक तबका मानता है कि रोहिंग्याओं को मानवीय आधार पर शरण दी जाए जबकि दूसरा तबका कहता है कि रोहिंग्याओं के रिश्ते आतंकी संगठनों से हैं. उन्हें शरण देना देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक होगा. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो मानते हैं कि मानवीयता के नाम पर हर शरणार्थी की मदद कर के देश को धर्मशाला नहीं बनाया जा सकता.

खुद भी दोषी हैं

रोहिंग्याओं को बिना देश का बेबस नागरिक कहा जाता है. इस की अजीब दास्तान है. म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुसलिम रहते हैं और वे इस देश में पिछली कुछ सदियों से रहते आए हैं लेकिन बर्मा (वर्तमान में म्यांमार) के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती, बंगलादेशी मानती है. बिना किसी देश की नागरिकता के रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में दमन का सामना करना पड़ता है.

बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बंगलादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं. वे अपनी इस स्थिति के लिए खुद भी कम दोषी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने मेलजोल का नहीं, अलगाव का रास्ता चुना और उस के शिकार हो गए.

रोहिंग्याओं की कहानी अलगाववाद और उग्रवाद की लंबी दास्तान है. बौद्ध धर्म की महायान शाखा को मानने वाला म्यांमार भारत, थाईलैंड, लाओस, बंगलादेश और चीन से घिरा हुआ देश है. म्यांमार में भी मुसलिम कन्वर्जन के साथ संसार के अन्य सभी देशों में होने वाली उथलपुथल शुरू से है. मगर इस की स्थिति द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में विस्फोटक हुई. रोहिंग्या मुसलमानों ने  शक्ति और संख्या बढ़ते ही इसलामी राष्ट्र के निर्माण के लिए जिहाद छेड़ दिया. 28 मार्च, 1942 को रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यांमार के मुसलिमबहुल उत्तरी अराकान क्षेत्र में करीब 20 हजार बौद्धों को मार डाला था.

भारत विभाजन से पहले म्यांमार के रोहिंग्या मुसलिम नेताओं ने भारत के मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उन की सहायता मांगी. इस का उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था लेकिन तब की बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र इसलामी राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया था.

इस पर उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी. मायू क्षेत्र में लूट, हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का भयावह खेल शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में इन दोनों शहरों से बौद्धों को या तो मार डाला गया अथवा भगा दिया गया.

अपनी जीत से उत्साहित हो कर वर्ष 1947 तक पूरे देश के तकरीबन भी मुसलमान एकजुट हो गए और मुजाहिदीन मूवमैंट के नाम से बर्मा पर मानो हमला ही बोल दिया गया. यहां से हो रही लगातार देशविरोधी गतिविधियों ने पूरे देश को परेशान कर रखा था. आखिरकार, बर्मा सरकार ने इस इलाके में सीधी सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी.

दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्यवाही के दौर में रोहिंग्या मुसलिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने रंगून पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैरराजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की. सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेटलैस) बंगाली घोषित कर दिया.

बर्मा के शासकों और सैन्य सत्ता ने इन के खिलाफ कई बार कड़ी कार्यवाही की. इन की बस्तियों को जलाया गया, इन की जमीन को हड़प लिया गया, मसजिदों को बरबाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया. ऐसी स्थिति में ये बंगलादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगा कर बने रहते हैं.

1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बंगलादेश भाग गए थे. संयुक्त राष्ट्र, एमनैस्टी इंटरनैशनल जैसी संस्थाएं रोहिंग्या लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार  की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है. इन के मामले में म्यांमार की सेना ही क्या, देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सू की का भी मानना है कि रोहिंग्या लोग म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं.

आतंकी कनैक्शन

रोहिंग्या उग्रवादियों के रिश्ते पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आईएसआई से भी रहे हैं. आईएसआई ने रोहिंग्या मुसलमानों को पाकिस्तान ले जा कर उन्हें अपने ट्रेनिंग कैंपों में उच्चस्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान किया. इस के बाद ये लड़ाई और भी हिंसक हो गई. पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे. यह अवसर उन्हें 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश के रूप में उदय के बाद फिर से मिला.

बचेखुचे जिहादियों में फिर छटपटाहट शुरू हुई और 1972 में जिहादी नेता जफ्फार ने रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी (आरएलपी) बनाई और बिखरे जिहादियों को इकट्ठा करना शुरू किया. हथियार बंगलादेश से मिल गए और जिहाद फिर शुरू हो गया.

पश्चिम म्यांमार में हिंसा के चलते पिछले कुछ दिनों में हजारों लोग नौका से या पैदल बंगलादेश पहुंचे हैं. म्यांमार के सुरक्षा अधिकारी और अल्पसंख्यक रोहिंग्या के उग्रवादी एकदूसरे पर राखाइन प्रांत में गांवों को जला देने और अत्याचार करने का आरोप लगा रहे हैं. सेना ने कहा है कि करीब 400 लोग सशस्त्र संघर्ष में मारे गए हैं जिन में ज्यादातर उग्रवादी हैं. हिंसा के चलते बड़ी संख्या में लोग सीमा पार कर बंगलादेश पैदल चल कर पहुंच रहे हैं. इसलिए संयुक्त राष्ट्र उन्हें शरणार्थी मानता है मगर दूसरी तरफ म्यांमार इन्हें अपने देश का नागरिक ही नहीं मानता. वह इन्हें आतंकी मानता है.

कुछ समय पहले म्यांमार में रोहिंग्या विद्रोहियों के एक हमले में 90 लोगों की मौत हो गई. यह हमला राखाइन राज्य में हुआ. रोहिंग्या विद्रोहियों ने 30 पुलिस चौकियों और एक सैन्य अड्डे को निशाना बनाया. इस के बाद हुई जवाबी कार्यवाही में 98 लोग मारे गए जिन में 12 सुरक्षाकर्मी हैं. सेना का कहना है कि इस हमले में 1,000 से ज्यादा रोहिंग्या विद्रोही शामिल हो सकते हैं.

बौद्ध बनाम मुसलिम

2012 में म्यांमार में बौद्धों और रोहिंग्या मुसलिमों के बीच सांप्रदायिक दंगे हुए थे. पिछले साल अक्तूबर में भी राखाइन प्रांत में उग्र संघर्ष हुआ. इस के बाद म्यांमार सेना की कार्यवाही में करीब 87 हजार रोहिंग्या मुसलमानों को बंगलादेश भागने के लिए मजबूर होना पड़ा था. संयुक्त राष्ट्र संघ ने सेना की इस कार्यवाही को मानवता के खिलाफ अपराध बताया था.

म्यांमार में पहले मामला सरकार-सेना और रोहिंग्याओं के बीच था मगर जब से बौद्ध भिक्षु रोहिंग्याओं के खिलाफ उतर आए हैं तब से मामला बौद्ध बनाम मुसलिम का हो गया है. म्यांमार के रोहिंग्या विरोधी अभियान की बागडोर उग्रवादी बौद्ध संगठनों और उन के सूत्रधार बौद्ध भिक्षुओं के हाथों में है. बौद्ध भिक्षुओं का नाम आता है तो लगता है कोई धीरगंभीर, सरल, सीधा साधुमहात्मा होगा. बोलता होगा तो मुख से हर वक्त शांति, प्रेम और सद्भाव की बातें झरती होंगी. मगर म्यांमार के बौद्ध भिक्षु अशीन विराथू, पर ये सब बातें लागू नहीं होतीं. वे जहर उगलते हैं. इसलिए यह सवाल उठ रहा है कि बौद्ध भिक्षु शांति और अहिंसा के बजाय क्रांति पर क्यों उतर आए हैं. क्यों वे मुसलमानों के खिलाफ आग उगल रहे हैं?

कई लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि इतना सहिष्णु और अहिंसक बौद्ध धर्म अचानक से क्यों गुस्से में है. कारण यह है कि यहां के बौद्ध और बौद्ध भिक्षु बौद्धबहुल देशों में बढ़ते इसलामी विस्तारवाद के खिलाफ हैं. इन का मानना है, एक समय था जब संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्म सत्ता के शिखर पर था. लेकिन इसलाम के उदय के बाद बौद्ध धर्म  ने दक्षिण एशिया के बहुत से राष्ट्र खो दिए.

विराथू कहते हैं कि उन का धर्म खतरे में है. उन का कहना है, ‘‘इसलाम पहले ही इंडोनेशिया, मलयेशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को जीत चुका है. ये सब बौद्ध देश थे. इसी तरह इसलाम दूसरे बौद्ध देशों को भी जीत सकता है.’’ ये शिकायतें उन्हें मुसलिमविरोधी बनाती हैं. वे नहीं चाहते कि यह इतिहास उन के देश में दोहराया जाए, इसलिए वे मुसलिम विरोधी अभियान छेडे़ हुए हैं.

इन बौद्ध भिक्षुओं में सब से चर्चित और उग्र है म्यांमार के अशीन विराथू. कोई उन्हें आग उगलता बौद्ध भिक्षु कहता है तो कोई बौद्ध आतंकवाद का चेहरा तो कोई बौद्ध बिन लादेन. म्यांमार में जब रोहिंग्या अलगाववाद ने उग्ररूप ले लिया तो पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे. ऐसे में सामने आए मांडले के बौद्ध भिक्षु अशीन विराथू, जिन्होंने अपने प्रभावशाली भाषणों से जनता को यह एहसास कराया कि यदि अब भी वह नहीं जागी तो उस का अस्तित्व ही मिट जाएगा.

अशीन विराथू चर्चा में तब आए जब वे 2001 में कट्टर राष्ट्रवादी और मुसलिम विरोधी संगठन ‘969’ के साथ जुड़े. वे अब इस के संरक्षक हैं. यह संगठन बौद्ध समुदाय के लोगों से अपने ही समुदाय के लोगों से खरीदारी करने, उन्हें ही संपत्ति बेचने और अपने ही धर्म में शादी करने की बात करता है. ‘969’ के समर्थकों का कहना है कि यह पूरी तरह से आत्मरक्षा के लिए बनाया गया संगठन है जिसे बौद्ध संस्कृति और पहचान को बचाने के लिए बनाया गया है.

विराथू भाषणों में जहर उगलते हैं. कई बार उन के भाषणों से ही दंगेफसाद हो जाते हैं. उन के निशाने पर रहते हैं रोहिंग्या मुसलमान. विराथू की शोहरत 2013 में टाइम मैगजीन तक पहुंच गई. मैगजीन के फ्रंट पेज पर उन की तसवीर छपी. हैडिंग  थी, ‘बुद्धिस्ट आतंकवाद का चेहरा.’ उन्होंने बौद्धों से साफ कहा कि यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो अब शांत रहने का समय नहीं रहा. देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और बर्मा एक मुसलिम देश हो जाएगा.

मुसलिमों के खिलाफ आग उगलने वाले विराथू का कहना है कि मुसलिम अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फंसा कर शादियां कर रहे हैं और बड़ी संख्या में बच्चे पैदा कर के पूरे देश की जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ने के मिशन में दिनरात लगे हुए हैं. जिन से बर्मा की आंतरिक सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है.

विराथू ने अपने देश से हजारों  मुसलमानों को भागने पर मजबूर कर दिया. मंडाले के अपने मासोयिन मठ से लगभग 2,500 भिक्षुओं की अगुआई करने वाले विराथू के फेसबुक पेज पर हजारों फौलोअर्स हैं. उन के उपदेशों में वैमनस्यता की बात होती है और उन का निशाना मुसलिम समुदाय ही होता है, खासकर रोहिंग्या लोग. उन्होंने ऐसी रैलियों का भी नेतृत्व किया जिन में रोहिंग्या मुसलमानों को किसी तीसरे देश में भेजने की बात कही गई.

म्यांमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब हिंसक तौरतरीका अपनाने में कोई परहेज नहीं कर रहे हैं. विराथू उन्हें बतला रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े तो अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएंगे. वैसे, बहुत सारे जानकार कहते हैं कि राखाइन में भले ही मुसलमान काफी हों मगर पूरे म्यांमार में केवल 5 प्रतिशत ही मुसलमान हैं, इसलिए विराथू बिना वजह हल्ला मचा रहे हैं. घुसपैठ की समस्या म्यांमार के ये विवादित और हिंसक रोहिंग्या मुसलिम पिछले कुछ दिनों से भारत में भी घुसपैठ करने के कारण विवादों में आ गए हैं. भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या अभी सुलझी नहीं है कि अब रोहिंग्या मुसलिमों का मुद्दा उभर रहा है.

कुछ समय पहले गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अफसरों के मुताबिक फौरेनर्स ऐक्ट के तहत इन लोगों की पहचान कर इन्हें वापस भेजा जाएगा. बौद्धबहुल देश म्यामांर में जारी हिंसा के बाद से अब तक करीब 40 हजार रोहिंग्या मुसलिम भारत में आ कर शरण ले चुके हैं. ये लोग समुद्र, बंगलादेश और म्यामांर सीमा से लगे इलाकों के जरिए भारत में घुसपैठ करते हैं. बंगलादेश में फिलहाल 3 लाख रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं. अनुमान है कि रोहिंग्या शरणार्थी असम, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और जम्मूकश्मीर सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं.

अकेले जम्मू में ही 6 हजार की संख्या में रोहिंग्या शरणार्थी बसे हुए हैं. हालांकि मंत्रालय का मानना है कि सही से गिनती की जाएगी तो यह संख्या 10 से 11 हजार तक की हो सकती है.

पिछले दिनों केंद्रीय गृह सचिव की अध्यक्षता में हुई मीटिंग में भारत में अवैध रूप से बसे रोहिंग्या मुसलिमों की पहचान, गिरफ्तारी और उन्हें देश से बाहर भेजने पर काम करने की रणनीति पर चर्चा की गई. सरकार का यह फैसला महत्त्वपूर्ण है. यदि देश में इसी तरह अवैध घुसपैठिए आ कर बसते रहे तो यह देश धर्मशाला बन जाएगा और इस से देरसवेर सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन के आंकड़ों के मुताबिक, फिलहाल देश में 14 हजार रोहिंग्या मुसलिम शरणार्थी रहते हैं. इस पर सरकार का कहना है कि वह संयुक्त राष्ट्र की ओर से इन्हें शरणार्थी कहे जाने की बात के साथ नहीं है और इन्हें देश में घुसे अवैध लोगों के तौर पर देखती है. ऐसे में फौरेनर्स ऐक्ट के तहत सरकार इन्हें हिरासत में लेने, गिरफ्तार करने, सजा देने और प्रत्यर्पण करने का अधिकार रखती है.

रोहिंग्या मुसलिमों को वापस म्यांमार भेजने की योजना पर केंद्र सरकार ने 16 पन्नों का हलफनामा दायर किया . इस हलफनामे में केंद्र ने कहा कि कुछ रोहिंग्या शरणार्थियों के पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों से संपर्क का पता चला है. ऐसे में ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरा साबित हो सकते हैं.

भले ही केंद्र सरकार इन लोगों को देश से बाहर निकालने का प्रस्ताव तैयार करने में जुटी है लेकिन यह आसान नहीं होगा. म्यांमार इन लोगों को आधिकारिक तौर पर अपना नागरिक नहीं मानता और इन्हें बंगाली करार देता है जबकि बंगलादेश भी इन्हें अपना मानने को तैयार नहीं है.

इस बीच, प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संयुक्त राष्ट्र में कहा कि रोहिंग्या लोग स्वदेश लौट नहीं पाएं, इस के लिए म्यांमार ने सीमा पर बारूदी सुरंगें बिछा दी हैं.

शरणार्थी मुद्दा

रोहिंग्या मुसलिमों को शरण देना भारतीय राजनीति में एक अहम राजनीतिक मुद्दा बन गया है. अफसोस की बात है कि रोहिंग्या लोगों के दुखदर्द की कहानी को घुमा कर दुनिया में मुसलमानों पर हो रहे जुल्म की कहानी के रूप में पेश किया जा रहा है और इस का इस्तेमाल मुसलिम नौजवानों के मन में यह बात बैठाने के लिए हो रहा है कि मुसलमान सताए जा रहे हैं.

दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य इंदे्रश कुमार ने रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में शरण देने के मुद्दे पर कहा कि ये अराजकतावादी और अपराधी हैं. इन्हें कोई भी देश अपनाने को तैयार नहीं है.

म्यामांर में हिंसा के चलते बंगलादेश पलायन करने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या 1 लाख 23 हजार है. हजारों की संख्या में लोग हर दिन जंगलों और धान के खेतों से होते हुए बंगलादेश में सुरक्षित पहुंच रहे हैं. अन्य लोग दोनों देशों के बीच स्थित नदियों को पार कर रहे हैं. हालांकि, इस कोशिश में कई लोग डूब भी गए हैं.

रोहिंग्या समुदाय का ताजा पलायन 25 अगस्त को शुरू हुआ जब रोहिंग्या उग्रवादियों ने म्यामांर की पुलिस चौकियों पर हमला किया, जिस के बाद सुरक्षा बलों को इस के जवाब में अभियान चलाना पड़ा. म्यांमार में साल 2002 में हुई हिंसा के बाद 1 लाख से अधिक रोहिंग्या बंगलादेश के शिविरों में रहने को मजबूर हैं.

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने रोहिंग्या मुसलमानों को ले कर केंद्र सरकार का रुख साफ कर दिया है. उन्होंने कहा कि किसी भी रोहिंग्या को भारत में शरण नहीं मिलेगी. म्यांमार से घुसे लोग शरणार्थी नहीं हैं. रोहिंग्याओं के मुद्दे पर म्यांमार से बात हुई है. म्यांमार इन्हें वापस लेने को तैयार है. रोहिंग्या देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं. उन्होंने कहा कि इन में से कुछ लोगों के आतंकवाद से जुड़ने के सुबूत मिले हैं. भारत यदि रोहिंग्या को वापस भेजे जाने की बात करता है तो लोगों को आपत्ति क्यों है?

गृह मंत्री की उक्त बात में कुछ दम है. आज दुनिया की हालत ऐसी है कि कई देशों से शरणार्थी आ सकते हैं. यदि सब के लिए दरवाजे खोल दिए जाएं तो देश धर्मशाला बन जाएगा. देश में कई तरह के तनाव पैदा हो सकते हैं. सो, मानवीयता के नाम पर देश अपनी सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं कर सकता.

समय के साथ हर इंसान के लिए जरूरी है बौडी और माइंड की ग्रूमिंग

दादी, नानी बन कर घर व नातीपोते तक ही सीमित न रहें बल्कि बढ़ते समय के साथ आप अपनी ग्रूमिंग करती रहें. अपने रंगरूप के प्रति सचेत रहें. फेशियल मसाज, बालों का रखरखाव आदि के प्रति बेरुखी न अपनाएं. माह में 1 बार ब्यूटीपार्लर जाएं या घर पर ही ब्यूटी ऐक्सपर्ट को बुलाएं. आजकल तो घर पर जा कर भी ब्यूटी ऐक्सपर्ट अपनी सेवाएं उपलब्ध कराती हैं. यह सब रही बौडी की ग्रूमिंग की बात.

मनमस्तिष्क की ग्रूमिंग के लिए आज के आवश्यक वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग करना अवश्य सीखें. ‘अब क्या करना है सीख कर’ जैसा विचार अपने पास फटकने न दें. आज मोबाइल पर फोटो खींच कर व्हाट्सऐप से भेजना, फेसबुक पर पोस्ट करना और गूगल द्वारा नईनई जानकारी प्राप्त करना सहज हो गया है. रोजमर्रा के सोशल नैटवर्क को अपना कर आप, घर बैठे ही, सब से जुड़ी रहेंगी.

बुजुर्ग महिला विमला चड्ढा अपने 75वें जन्मदिन पर मोबाइल में व्हाट्सऐप व फेसबुक पर उंगलियां चला रही थीं. उन की बहू के साथसाथ उन के नातीनातिन बड़े ही गर्व से उन्हें निहार कर खुश हो रहे थे.

1980 में सोशल साइंटिस्ट विलियम जेम्स ने कहा था कि 30 वर्ष की उम्र तक बना व्यक्तित्व एक प्लास्टर की भांति ठोस हो कर पूरे जीवन हमारे साथ रहता है. यानी इस उम्र तक हम जो बन जाते हैं, वैसे ही पूरे जीवन रहते हैं. यह धारणा 90 के दशक तक चली.

आज के सोशल साइंटिस्ट के अनुसार, हमारा व्यक्तित्व एक खुला सिस्टम है जिस में हम जीवन के किसी भी समय में, वर्तमान स्टाइल, जीवन का नया तरीका अपना सकते हैं. प्लास्टिसिटी सिद्धांत के अनुसार, जिंदगी में उम्र के किसी भी पड़ाव में परिवर्तन किया जा सकता है.

ऐसी कई छोटीछोटी राहें हैं, कदम हैं, जिन के द्वारा ग्रूमिंग होती रहती है, व्यक्तित्व निखरता रहता है, जैसे कि-

अंगरेजी शब्दों के आज के उच्चारण पर ध्यान दें. उन्हें याद रखें. जैसे कि ‘डाइवोर्स’ शब्द को आजकल ‘डिवोर्स’ बोला जाता है. ‘बाउल’ (कटोरा) को ‘बोल’ कहा जाता है. मुझे याद है, रीझ को ‘बीअर’ कहा जाता था अब ‘बेअर’ कहा जाता है. ऐसे और भी कई शब्दों के उच्चारण आत्मसात करते रहें.

औनलाइन शौपिंग करना, टिकट बुक कराना जैसे कार्य सीखें. हां, औनलाइन शौपिंग करने पर होशियार अवश्य रहें. शौपिंग से पूर्व, विके्रता कंपनी से वस्तु की गारंटी तथा उस की क्याक्या शर्तें हैं, यह जरूर जान लें. वस्तु पसंद न आने पर रुपयों के वापसी की गारंटी या वस्तु बदलने की गारंटी लें. एमेजोन और फ्लिपकार्ट जैसी शौपिंग साइटें गारंटी देती हैं. थर्डपार्टी से शौपिंग करने से बचें. इस में धोखा होने की संभावना होती है.

सांस्कृतिक कार्यों, गोष्ठियों में रुचि बनाए रखें. संभव हो तो उन में भाग लें. अपने विचारों का आदानप्रदान करें. इस से सकारात्मक भाव बना रहता है.

पने बच्चों व नातीपोतों की फेवरिट बनी रहने के लिए नईनई रैसिपी सीखती रहें. इन्हें आप टीवी, यूट्यूब या गूगल द्वारा सीख सकती हैं. इस से आप में आत्मविश्वास, एक जोश पनपेगा. जब चाहें तब अपने बच्चों की पसंद की डिश बना कर आप उन्हें सरप्राइज दे सकती हैं.

बच्चों की इच्छा पर रैस्टोरैंट जा कर, उन की पसंद की डिशेज खाएं. हो सकता है वह आप को पसंद न भी आए, पर सब की खुशी में शामिल हो कर स्वयं को उन डिशेज के टेस्ट से ग्रूमिंग करें.

पुरानी मानसिकता त्याग दें. सब से प्रथम, अपना भविष्य देखना, सुनना (टीवी व रेडियो), अखबार में पढ़ना तुरंत छोड़ दें. ‘वृद्धावस्था तो बस माला जपने, धार्मिक पोथी पढ़ने के लिए ही बुक होती है,’ जैसी पुरानी मानसिकता का त्याग कर दें.

किसी भी पुरानी आदत को स्वयं से चिपकाए न रखें. किसी ने कहा है कि ‘आदत एक जबरदस्त रस्सी होती है जिसे प्रतिदिन हम अपने ही हाथों बंटते हैं.’ सो, इसे अपने ही हाथों खोल डालें. खुले हृदय से परिवर्तन को स्वीकारें. उदाहरण के तौर पर, आज बर्गरपिज्जा के समय में आप अपने बच्चों को अपने समय का सत्तू, गुड़धानी खिलाने की जिद करेंगी तो परिणाम आप स्वयं जानती हैं. समय के साथ बदलना, जीवन को सार्थकता देता है.

सो, उम्र के नाम पर, ग्रूमिंग की पंक्ति में पीछे खड़ी न रहें. आज की सासबहू, मांबेटी स्मार्ट पोशाक, स्मार्ट व्यक्तित्व व आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों की जानकारी के साथ जब बराबर कदम उठा कर चलती हैं, तब आसपास की उठती निगाहें ‘वाह, वाह’ कह उठती हैं.

बस, आप को ग्रूमिंग करते रहना है बदलते समय के साथ. न पीछे मुड़ कर देखें और न अडि़यल बनें. फिर देखिए, आप के चारों ओर खुशी और ऊर्जा बिखरी होगी.

बैंकिंग कार्य से परिचित व जुड़ी रहें, जैसे चैक जमा करना, रुपए निकालना, अपना लौकर औपरेट करना आदि. आप ने यह कार्य छोड़ रखा है तो अब शुरू कर दें. अगर कभी किया ही नहीं है तो सीख लें. इस तरह एक अलग ही आत्मविश्वास पनपेगा आप के व्यक्तित्व में.

समयानुसार अपने विचारों को बदलते रहें. आज के तरीकों व परिवेश को सहजतापूर्वक स्वीकारें. आज से कुछ दशकों पूर्व, शादी से पहले लड़कालड़की का खुलेआम घूमना, साथ समय व्यतीत करना संभव न था. पर अब शादी से पूर्व घूमनेफिरने के साथसाथ रहना तक भी संभव हो रहा है ताकि एकदूसरे की कंपैटिबिलिटी जानी जा सके. ऐसी बातों पर आप तनावग्रस्त न हों.

अपने लिए कोई न कोई, चाहे छोटा ही हो, लक्ष्य चुनती रहें. चलते रहना जीवन है, रुक जाने का नाम मृत्यु है. तो चलती रहिए जीवनपर्यंत नईनई मंजिलों की ओर. इस तरह तनमन में एक जोश व ऊर्जा बनी रहती है. ‘अब तो आखिरी पड़ाव है, अब क्या करना है,’ ऐसे विचार को दिमाग से खुरच डालिए. अंगरेजी में कहावत है- ‘कावर्ड्स डाई मैनी टाइम्स, बिफोर देअर डैथ.’

अपनी उम्र के अनुसार आधुनिक स्टाइल की पोशाकें खरीदें व बनवाएं. ‘अब तो उम्र निकल ही गई, अब क्या करना है नई पोशाकों का’, ऐसा बिलकुल न सोचें. अपनी वार्डरोब समयसमय पर बदलती रहें. बुजुर्ग महिला चांद वालिया अपनी उम्र के 80 दशक में भी कलफ लगी कौटन साड़ी, ट्राउजर आदि पहनती रहीं. सारा फ्रैंड सर्किल और पड़ोसी उन की पसंद पर दाद देते थे.

इस दीवाली अपने ग्रैंड पेरैंट्स को दें शानदार पार्टी का तोहफा

रणवीर और स्नेहा ने दोस्तों के साथ मिल कर फैस्टिवल पार्टी में कुछ अलग करने की योजना बनाई. वे दोनों जिस सोसाइटी में रहते थे वहां बहुत सारे दोस्तों के ग्रैंड पेरैंट्स भी साथ में रहते थे. ज्यादातर घरों में ग्रैंड पेरैंटस अकेले ही रहते थे क्योंकि बच्चों के मातापिता अपने औफिस चले जाते थे. स्कूल के बाद बच्चों का समय अपने ग्रैंड पेरैंट्स के साथ बीतता था.

रणवीर और स्नेहा कक्षा 10 व 12 में पढ़ते थे. इन दोनों ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर सोसाइटी के पार्क एरिया में एक जगह चुनी. वहां पर सजावट व खानेपीने की चीजों का इंतजाम किया. शाम को करीब 8 बजे अपने पेरैंट्स और ग्रैंड पेरैंट्स को पार्टी के लिए बुलाया. किसी को यह नहीं पता था कि पार्टी क्यों आयोजित की गई है, सभी यह सोच रहे थे कि किसी फ्रैं ड की बर्थडे पार्टी होगी.

समय पर जब सभी वहां पहुंचे तो पार्टी की सजावट देख कर लगा कि यह पार्टी तो ग्रैंड पेरैंट्स के लिए है. रणवीर और स्नेहा ने अपने उन दोस्तों और उन के पेरैंट्स, ग्रैंड पेरैंट्स को भी पार्टी में बुलाया था जो नजदीक की दूसरी सोसाइटी में रहते थे. सभी बच्चों ने पार्टी में आए ग्रैंड पेरैंट्स को दीवाली की शुभकामनाएं दीं. इस के बाद सभी ने डांस किया, गेम्स खेले. बच्चों ने सभी ग्रैंड पेरैंट्स के लिए उपहार खरीद कर रखे थे.

कुछ उपहार बच्चों ने खुद तैयार किए थे. पार्टी के बाद ग्रैंड पेरैंट्स को रिटर्न गिफ्ट दिए गए. सभी बहुत खुश थे. ग्रैंड पेरैंट्स  पहली बार अपने लिए इस तरह की पार्टी देख रहे थे.

स्नेहा और रणवीर के दोस्तों ने एक के बाद एक इसी तरह की ग्रैंड पेरैंट्स के लिए पार्टियां आयोजित कीं. आसपास की हर सोसाइटी में एक तरह का यह चलन हो गया. सोसाइटी के अलावा महल्ले में रहने वाले बच्चों ने भी अपने ग्रैंड पेरैंट्स को इस तरह की पार्टी दी. इस के लिए महल्लों में बने पार्क, स्कूल या फिर शादीघरों का उपयोग होने लगा. बच्चों की इस पहल से ग्रैंड पेरैंट्स के चेहरों पर मुसकान आ गई.

आमतौर पर त्योहारों के मौसम में घरपरिवार के लोग खुद पार्टी में एकदूसरे के घर चले जाते हैं. बच्चे भी अपने दोस्तों के साथ पार्टी कर लेते हैं. ऐसे में घर में रहने वाले बडे़बुजुर्ग अकेलापन महसूस करते हैं. गै्रड पेरैंट्स  पार्टी के कारण बुजुर्ग अकेलापन महसूस नहीं करते. उन में आपस में मेलजोल बढ़ता है.

बच्चों की ग्रैंड पेरैंट्स पार्टी के 2 लाभ हैं. इस में व्यस्त होने के नतीजे में बच्चे दूसरी नुकसानदायक पार्टियोंमें नहीं जाते हैं. दूसरे, ग्रैंड पेरैंट्स घर में एक कोने में पडे़ खुद को पूरे समाज से कटा हुआ महसूस नहीं करते. बच्चों और ग्रैंड पेरैंट्स के जुड़ने से आपस में तालमेल बढ़ता है. बच्चों को ऐसे मौके कम मिलते हैं. ग्रैंड पेरैंट्स से बच्चे बहुतकुछ सीखते हैं. बच्चों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच होने वाले बदलाव को समझने में आसानी भी होती है.

यह बात बच्चों के मन में बैठाने के लिए स्कूल स्तर पर भी प्रयास हो रहे हैं. कई स्कूल अब ग्रैंड पेरैंट्स मीटिंग कराते हैं. उस की वजह यही होती है कि 2 पीढि़यों के बीच की दूरी को कैसे कम किया जाए. त्योहार के मौके पर ऐसी पार्टी से ग्रैंड पेरैंट्स को बहुत खुशी होती है. ऐसी पार्टी उन को नई एनर्जी देती है.

रुचियों का रखें ध्यान

बच्चे अपने ग्रैंड पेरैंट्स के लिए पार्टी का आयोजन उन की रुचियों को देखते हुए करें. खाने से ले कर गीतसंगीत और डांस तक उस तरह के हों जो वे पसंद करते हों. खानेपीने में उन की पसंद का मैन्यू रखें. सब से अधिक जरूरी है कि ग्रैंड पेरैंट्स के पुराने दिनों को याद दिलाने वाले संस्मरण जरूर बताएं. पार्टी में सभी ग्रैंड पेरैंट्स का अच्छी तरह से परिचय दें.

अपनेपरिचय को सुन कर उन को पुराने दिनों की याद आती है. बच्चों और उन के साथ अपने पेरैंट्स को खुश देख कर बच्चों के मम्मीपापा भी खुश हो जाते हैं. उन को परिवार के साथ रहने का अच्छा एहसास होता है. परिवार के साथ रहने से बहुत बड़ा तनाव दूर हो जाता है.

पहले संयुक्त परिवार होते थे, तो बच्चों का अपने ग्रैंड पेरैंट्स के साथ मिलना होता रहता था. उस समय दादादादी कहानी सुनाने के लिए मशहूर होते थे. समय के साथ दादादादी की कहानियां खो गईं. दादीमां के नुस्खे गुम हो गए.

ऐसे में जरूरी हो गया कि अब त्योहारों के मौकों पर बच्चे अपने पेरैंट्स के लिए पार्टियों का आयोजन करें. इस से आपसी रिश्तों में नयापन आता है. एकदूसरे के बारे में समझ कर हर बात को हल करना आसान हो जाता है. ग्रैड पेरैंट्स के लिए होने वाली फैस्टिवल पार्टियां संयुक्त परिवारों की नई बुनियाद रख सकती हैं. संयुक्त परिवार आज पहले जैसे बडे़ भले न हों पर उन में ग्रैंड पेरैंट्स होते हैं जो बच्चों के लिए शिक्षा देने वाले किसी संस्थान की तरह साबित होते हैं.

इन्होंने जो कहा

परिवार के बीच रहना अकेलेपन की सब से बड़ी दवा होती है. ऐसे में ग्रैंड पेरैंटस पार्टी का आयोजन सच में एक अनोखी शुरुआत हो सकती है. संयुक्त परिवारों में पहले भी यह होता रहता है. आज भी परिवार के मुखिया के रूप में ग्रैंड पेरैंटस को जगह मिलती है. ग्रैंड पेरैंटस पार्टी में अलगअलग लोग मिलेंगे और यह पार्टी त्योहारों में कई बार आयोजित की जा सकती है. ऐसे में यह अपनेआप में बहुत अच्छी बात है. इस पहल को आगे बढ़ाने की जरूरत है.

शर्मिला सिंह, प्रिंसिपल, पायनियर इंटर कालेज, लखनऊ.

बच्चों में पेरैंटस के प्रति अच्छी सोच को बढ़ाना बचपन से जरूरी होता है. ऐसे में मातापिता की जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चों में ऐसे संस्कार डालें कि वे अपने ग्रैंड पेरैंटस के साथ अच्छा व्यवहार करें. अगर मातापिता की इज्जत आप खुद करते हैं तो उन के बच्चे भी अपने ग्रैंड पेरैंटस की इज्जत करते हैं. समाज को भी ऐसे आयोजन करने चाहिए ताकि 2 पीढि़यों के बीच रिश्ते प्यार में बदल सकें. यह एक तरह से तहजीब का काम है. इस के बढ़ने से आपस में रिश्ते मधुर होंगे.

-आरती तरुण गुप्ता, तहजीब संस्था, मुरादाबाद

राहुल और आप्रवासी : जातिवादी होते जा रहे हैं विदेशों में बसे भारतीय

विदेशों में बसे भारतीय आजकल ज्यादा कट्टर और जातिवादी होते जा रहे हैं. उन्होंने उन समाजों के गुण नहीं अपनाए जिन्होंने उन्हें शरण दी और अच्छा कमाने के अवसर दिए. वे भारत के प्रति 50 वर्षों पुरानी सोच रखते हैं और अपने पैसे के घमंड पर भारत की सरकार, नेताओं व जनता को उपदेश देना अब अपना नैसर्गिक अधिकार समझते हैं.

उन्हीं को पटाने के चक्कर में राहुल गांधी ने न्यूयौर्क  की एक सभा में कह दिया कि केवल वहां उपस्थित आप्रवासी भारतीय ही नहीं, गांधी, अंबेडकर, पटेल, नेहरू जैसे भी एनआरआई ही थे. राहुल गांधी की यह चेष्टा भारतीय जनता पार्टी को बहुत नागवार लगी है क्योंकि इन कट्टर आप्रवासियों की भारत में धर्मराज स्थापित करने में बहुत सहायता ली जा रही थी. राहुल गांधी ने उन का संबंध कांग्रेस से जोड़ कर भाजपाई मंसूबे में सेंध लगाई है.

गांधी को एनआरआई कहने पर भारत में राहुल गांधी की खिंचाई करने की काफी कोशिशें हो रही हैं जबकि सच यही है. मोहनदास करमचंद गांधी अन्य गुजराती बनियों की तरह कुछ कमाने के लिए इंगलैंड गए थे. और फिर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में प्रैक्टिस शुरू की थी. अगर विदेश में रह कर कमा रहे थे, तो आज की परिभाषा के अनुसार वे एनआरआई ही थे. इस तरह की बहुत बातें नरेंद्र मोदी खुद विदेशों में बसे भारतीयों से कहते रहे हैं.

एक तरह से तो जब विदेशी नागरिकता प्राप्त मूल भारतीय विदेश में भारतीय नेता से मिलता है तो वह अपने मौजूदा देश के प्रति अपराध करता है. हमारे अपने राष्ट्रप्रेम की परिभाषा कहती है कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति न केवल अपनी सरकार के प्रति निष्ठा रखे, यहां की संस्कृति, सोच, कट्टरता, गंदगी, रिश्वतखोरी की प्रशंसा भी करे. यदि वह कहीं बाहर से आया है तो उस पर दोहरीतिहरी शर्तें अनायास लगाई जाती हैं. 1962 के युद्ध में भारत सरकार ने भारत में रह रहे चीनी मूल के भारतीय नागरिकों को कई महीनों तक जेल में रखा था.

एनआरआई समूहों को बुलाना और उन से समर्थन मांगना अपनेआप में निरर्थक है और अगर एक दल ऐसा करेगा तो दूसरे को भी हक है. हां, भारत में आलोचना करने का हक भी है और भाजपा यदि राजनीतिक पैंतरेबाजी में कुछ कह रही है, तो गलत नहीं है.

प्री-दीवाली पार्टी में अमिताभ की नातिन और सैफ की बेटी ने बिखेरा अपना जादू

बौलीवुड में इन दिनों दीवाली पार्टियों की धूम मची है. इन पार्टियों के लिए बौलीवुड जगत के स्टार्स पूरे जोश के साथ सज-संवर कर इस उत्सव का आनंद लेते नजर आ रहे हैं.

शाहरुख और सलमान खान की बहन अर्पिता की प्री-दीवाली पार्टी के बाद अब सेलिब्रिटी डिजाइनर अबू जानी और संदीप खोसला की प्री-दीवाली पार्टी इंटरनेट पर काफी वायरल हो रही है और सुर्खियां बटोर रही है.

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अबू जानी और संदीप ने इस पार्टी का अपने घर पर ही आयोजन किया था. यहां बौलीवुड के कई सितारे नजर आए. लेकिन पार्टी में अगर अपने लुक से किसी ने जादू बिखेरा तो वह थी अमिताभ की नातिन नव्‍या और सैफ की बेटी सारा. जी हां, इस पार्टी में सारी लाइम लाइट नव्‍या नवेली नंदा और सारा अली खान पर रहीं. बता दें कि सारा अली खान जल्‍द ही फिल्म केदारनाथ से बौलीवुड में अपनी शुरुआत करने जा रहीं है. इस फिल्‍म में सारा के साथ सुशांत की जोड़ी नजर आने वाली है.

सारा यहां अपनी मां अमृता के साथ नजर आईं, तो वहीं अमिताभ बच्‍चन की नातिन अपनी मां श्‍वेता नंदा और मामा अभिषेक बच्‍चन के साथ यहां नजर आईं. यूं तो इस पार्टी में कई सारे सिलेब्‍स मौजूद थे, लेकिन मां बेटी की यह जोड़ी स्‍टाइल के मामले में सब को टक्‍कर देती दिखीं.

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इस दौरान श्वेता व्हाइट कलर के डीप नेक ब्लाउज वाली साड़ी में तो नव्या व्हाइट वर्क वाले लहंगे में काफी गौर्जियस लुक में नजर आईं. वहीं सारा यहां पीले रंग के अनारकली में दिखीं.

इस पार्टी में दिखे बाकी सिलेब्‍स की बात करें तो अभिषेक बच्‍चन यहां लाइट फिरोजी एंड गोल्डन लाइन वाले कुर्ते में नजर आए. अक्षय की पत्नी ट्विंकल खन्ना इस पार्टी में गोल्डन सलवार-कुर्ते में दिखीं. इनके अलावा यहां सोनाली बेंद्रे, गायत्री ओबराय, कोरियोग्राफर फराह खान, ऋतिक रोशन की वाइफ सुजैन खान सहित कई सितारे नजर आए.

पेट्रोल भरवाने से पहले जरूर पढ़ लें ये खबर

सिर्फ भीड़-भाड़ वाले इलाकों, बस-ट्रेनों में ही नहीं पेट्रोल पंप पर भी आपकी जेब बड़ी आसानी से काटी जाती है और आपको पता भी नहीं चलता. पेट्रोल पंप पर पेट्रोल डलवाते समय आपके साथ कई बार धोखाधड़ी की जाती है, गौरतलब है कि ज्यादातर लोगों को इस धोखाधड़ी का पता ही नहीं चलता. ऐसा जरूरी नहीं कि पेट्रोल पंप पर आपने जितने पैसे दिए हैं, उतने पैसों का ही पेट्रोल आपकी गाड़ी में भरा जाए. थोड़ी सी सावधानी से आप धोखेबाजी से बच सकते हैं.

अलग अलग पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवायें

अलग-अलग पंप से पेट्रोल भरवाने से आपको अंदाजा हो जाएगा कि कौन से पंप पर धोखाधड़ी होती है और कौन से पंप पर नहीं होती.

राउंड फिगर में पेट्रोल न भरवायें

आमतौर पर आप 100, 200, 500 का पेट्रोल डलवाते हैं. पर राउंड फिगर में पेट्रोल न भरवायें. 100 के बजाए 125, 500 के बजाय 555 का पेट्रोल डलवायें. ऐसे फिगर से मीटर में धांधली की संभावनायें कम हो जाती है. कैशलेस पेमेंट सबसे अच्छा उपाय है. कार्ड या ई-वालेट से भुगतान करें.

मीटर पर ध्यान दें

कई बार ऐसा होता है कि पेट्रोल भरते समय मीटर बार बार रुकता है. अगर ऐसा हो तो सावधान हो जाएं. मीटर का बार बार रुकना यानी पेट्रोल कम मिलना. कई बार ऐसा होता है कि पेट्रोलपंपकर्मी जीरो तो दिखाता है, लेकिन मीटर में आप जितने का पेट्रोल मांगते हैं वह मूल्य सेट नहीं करता. डिजिटल मीटर्स में पहले से ही मूल्य सेट करने का ऑपशन होता है, अगर पेट्रोलपंप कर्मी ने ऐसा नहीं किया है तो उसे ऐसा करने के लिए कहें.

मीटर वाले पंप से ही पेट्रोल डलवायें

पेट्रोल हमेशा मीटर वाले पेट्रोल पंप से ही भरवाएं. पुरानी पेट्रोल पंप मशीनों पर हेराफेरी की ज्यादा आशंका रहती है और आप इसे पकड़ भी नहीं सकते.

मीटर की रीडिंग पर ध्यान दें

पेट्रोल पंप मशीन पर सिर्फ जीरो देखना ही काफी नहीं बल्कि आपको रीडिंग पर भी ध्यान देना होगा. आपको यह भी ध्यान देना चाहिए कि रीडिंग किस फिगर से शुरू हो रही है. मीटर की रीडिंग कम से कम 3 से स्टार्ट होनी चाहिए.

टैंक खाली होने का इंतजार न करें

अगर आप भी उन लोगों में से हैं जो पेट्रोल टैंक खाली होने के बाद ही पेट्रोल भरवाते हैं. तो आप घाटे का सौदा कर रहे हैं. जब पेट्रोल टैंक आधा खाली हो जाए तभी पेट्रोल भरवा लें. टैंक पूरा खाली होने पर टैंक में हवा भर जाती है, जिससे आपको कम पेट्रोल मिलता है.

आराम छोड़ें और वाहन से उतरकर पेट्रोल डलवायें

फोर व्हीलर चालक पेट्रोल या डीजल भरवाते समय गाड़ी से उतरने में आलस दिखाते हैं. पेट्रोल पंप कर्मी इसका फायदा उठाते हैं. आलस छोड़िए और पेट्रोल भरने वाले वर्कर के पास खड़े होकर उस पर नजर रखें.

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